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विषय के प्रति विशिष्ट समझ पारिणामिकी बुद्धि कहलाती है। इस प्रकार की क्षमता व्यक्ति में परोपदेशपूर्वक उत्पन्न नहीं की जा सकती, इसलिये इन्हें अश्रुतनिश्रित कहा जाता है। श्रुतनिश्रित तथा अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान दोनों ही क्षयोपशम जन्य होते हैं, लेकिन श्रुतनिश्रित मतिज्ञान की उत्पत्ति क्षयोपशम का सद्भाव होने पर भी परोपदेशपूर्वक होती है, जबकि अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान परोपदेश निरपेक्ष होता है।
मानवीय ज्ञान के क्षेत्र में मतिज्ञान आधारभूत स्थान रखता है। स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, अक्षरात्मक तथा अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान आदि सभी मतिज्ञान के अवलम्बन पूर्वक ही उत्पन्न होते हैं। मानवीय ज्ञान के संदर्भ में आधारभूत स्थान रखने वाला मतिज्ञान स्वयं शिक्षा, परोपदेश आदि द्वारा अर्जित श्रुतज्ञान से परिष्कृत किया जा सकता है। इस प्रकार जैन आचार्यों के अनुसार मतिश्रुतज्ञान परस्पर 'बीजांकुर न्याय के अनुसार कारण-कार्यभाव से संबंधित है।
संदर्भ
01. सर्वार्थसिद्धि, पृ. 93 02. नन्दीसूत्र हरिभद्रसूरि वृत्ति, पृ. 58
03. अवग्रहहावायधारणाः- तत्त्वार्थसूत्र 1/15 ____04. तत्त्वार्थवार्तिक, पृ.60
05. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा-251-255 06. लघीयस्त्रय 1/5 तथा उस पर स्ववृत्ति 07. किं च यथा मृत्तन्तुकारणभेदाद्घटपटलक्षणकार्यभेदस्तथा दर्शन-ज्ञानावरणक्षयोपशमकारणभेदात्तत्कार्यदर्शनज्ञानभेद इत्यस्ति प्रागवग्रहाद्दर्शनम्।
-स्याद्वाद रत्नाकर, पृ. 348 08. वही, पृष्ठ 347 09. तत्त्वार्थवार्तिक पृ. 48-49 10. तत्त्वार्थवार्तिक पृ. 315 11. पूर्यते प्राप्यते च येन कार्य तत् पूर्वं ऊणादिको वक् प्रत्ययः कारणमित्यर्थः । मतिः पूर्वम्
यस्य तत् मतिपूर्व श्रुतम् श्रुतज्ञानं तथाह, मत्या पूर्यते प्राप्यते श्रुतेन खलु मतिपाटवविभवमन्तरेण श्रुतविभवमुत्तरोत्तरमासादयति तत्तु तथादर्शनात यच्च यदुत्कर्षापकर्षवशात् उत्कर्षापकर्षभाक् न तस्य कारणं यथा घटस्य मृपिण्डः | मत्युत्कर्षापकर्षवशात् श्रुतस्योत्कर्षापकर्षों तत कारणं मतिः श्रुतज्ञानस्य। -नन्दीसूत्र
मलयगिरि वृत्ति, पृ. 263-264 12. तत्त्वार्थ सूत्र 1/20 13. नन्दीसूत्र 46 14. विशेषावश्यक भाष्य, पृ. 96 15. स्थानांग सूत्र भाग-1, पृ. 50 16. नन्दीसूत्र, हरिभद्रसूरिवृत्ति, पृ. 47-48
-व्याख्याता, दर्शनशास्त्र, राजकीय महाविद्यालय, अजमेर स्वाध्याय शिक्षा
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