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________________ 10 नियुक्तियाँ- १.आवश्यकनियुक्ति २.दशवैकालिकनियुक्ति ३. उत्तराध्ययननियुक्ति ४.आचारांगनियुक्ति ५.सूत्रकृतांगनियुक्ति ६. सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्ति ७. बृहत्कल्पनियुक्ति ८. व्यवहारनियुक्ति ६. दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति १०. ऋषिभाषितनियुक्ति। 9 अन्य ग्रन्थ- १. यतिजीतकल्प २. श्राद्धजीतकल्प ३. पाक्षिकसूत्र ४. क्षमापनासूत्र ५. वन्दित्तु ६. तिथिप्रकरण ७. कवचप्रकरण ८. संसक्तनियुक्ति ६. विशेषावश्यकभाष्या दिगम्बर परम्परा इन अर्धमागधी आगमों को मान्य नहीं करती। इनके यहाँ पुष्पदन्त एवं भूतबली द्वारा रचित षट्खण्डागम, गणधर द्वारा रचित कषायप्राभृत, वट्टकेर कृत मूलाचार, अपराजित सूरि की भगवती आराधना, आचार्य कुन्दकुन्द की समयसार आदि कृतियों को आगम के रूप में मान्य किया गया है। दिगम्बर परम्परा भले ही श्वेताम्बर आगमों को मान्य नहीं करती हो, किन्तु स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि दो-चार बातों को छोड़कर श्वेताम्बरों एवं दिगम्बरों में कोई मतभेद नहीं है। इसी प्रकार श्वेताम्बर मूर्तिपूजकों के साथ तेरापंथ एवं स्थानकवासियों का मूर्तिपूजा के बिन्दु के अतिरिक्त कोई विशेष मतभेद नहीं है। स्थानकवासियों एवं तेरापंथियों के तो आगम पूर्णतः समान हैं। इनमें जो मतभेद उभरकर आते हैं, वे व्याख्यागत मतभेद हैं। जैनदर्शन के सभी सम्प्रदायों में मूल दार्शनिक मान्यताओं में प्रायः एकरूपता है, जो भेद है वह आचारगत भेद है। वह आचार-संबंधी भेद ही फिर दार्शनिक रूप से विकसित हुए हैं। आगमों का अध्ययन सबके लिए समान रूप से उपादेय है। एक दूसरे की परम्परा के आगमों का अध्ययन करने से मिथ्यात्व नहीं लगता है। मिथ्यात्व तो दृष्टि में होता है, उससे बचना चाहिए। जहा सूई ससुत्ता, पडिया वि न विणस्सइ। तहा जीवे ससुत्ते, संसारे न विणस्सइ।। -उत्तराध्ययन सूत्र 29.59 जिस प्रकार धागे सहित सुई गिर जाने पर भी खोती नहीं है, उसी प्रकार शास्त्रज्ञान सहित जीव संसार में विनष्ट नही होता। आगम का यह वचन आगमसूत्रों की महत्ता को प्रकट करता है। आगमों में जो ज्ञान-निधि है वह जीवन में पदे-पदे उपयोगी है। बीसवीं शती में जैनागम और उसके व्याख्या-साहित्य का प्रकाशन अनेक स्थानों से हुआ है। अधिकांश आगमों के अनुवाद और विवेचन हिन्दी और गुजराती स्वाध्याय शिक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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