Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिता
स्वोपनवृत्ति सहिता प्रमाण मीमांसा
[पण्डितसुखलालनिर्मितभाषाटिप्पणादिसहिता]
:: सम्पादक पण्डित सुखलालजी संघवी पण्डित महेन्द्रकुमार न्यायशास्त्री पण्डित दलसुख मालवणिया न्यायतीर्थ
:प्रकाशमा
सरस्वती पुस्तक भंडार
११२, हाथीखाना, रतनपोल
अहमदाबाद 380001
विक्रमास २०४५]
पुनर्मव्रण, ५०० प्रति ।
[ १९८९
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
e nstimallia
॥ श्री जिनविजयप्रशस्तिः॥
m
HINOORPORAIPiparwWVINTrimurom
स्वस्ति श्रीमेवपाटाल्यो देशो भारतविश्रुतः । रूपाहेलीति सम्मानी पुरिका तत्र सुस्थिता ॥ सदाचार-विचाराभ्यां प्राचीनमुपतेः समः । श्रीममधातुरसिंहोऽत्र राठोशायभूमिपः ।। सत्र श्रीवृद्धिसिंहोऽभूत् राजपुत्रः प्रसिद्धिमान् । क्षात्रधर्मधनो यश्च परमारफुलामणीः ॥ मुन-मोजमुखा भूपा जाता यस्मिन्महाकुले । किं वयंले कुलीनत्वं तत्कुलाजातजन्मनः ॥ पस्नी राजकुमारीति: तस्यामूम् गुणसंहिता । चातुय-रूप-लावण्य - सुबारसोजन्मभूषिता ॥ क्षत्रियाणीप्रभापूर्ण शौर्यदीप्तमुखाकृतिम् । यां वृष्ट्वं जनो मेने राजन्यकुलणा स्वियम् ॥ समुः किसनसिंहाख्यो जातस्तयोरतिप्रियः 1 रणमल्ल इति न्यद् यन्नाम अननीकृतम् ॥ श्रीदेवीहसनामात्र राजज्यो यतीश्वरः । ज्योतिभैषज्यविधानां पारगामी जनप्रियः ॥ अष्टोत्तरशताबानामायुर्यस्य महामतेः । स बासीद् वृद्धिसिंहस्य प्रीति-श्रवास्पवं परम् ।। तेनायाप्रतिमप्रेम्णा स तत्सूनुः स्वसन्निधौ । रक्षितः, शिक्षितः सम्यक, कृतो चैनमतानुगः ।। बौग्यिासचिशोर्वाक्ये गुरु-तातौ दिवंगतौ । विमूढेन ततस्तेन त्यक्तं सब गृहाविकम् ॥
तथा च परिझम्याप देशेषु संसेव्य व बहून नरान् । वीक्षितो मुण्डितो मूत्वा कृत्वाधारान सुपुष्करान् ।। शाताम्यमेकशास्त्राणि नानाधर्ममतानि च । मध्यस्पसिना लेन सस्वासस्वगवेषिमा ॥ अधीला विविधा भाषा भारतीया युरोपजाः । अनेका लिपयोऽप्येवं प्रलनूतनकालिकाः ।। पेन प्रकाशिता नैका प्रन्या विद्वत्प्रशंसिताः । लिखिता बाहको लेखा ऐतिह्यतथ्यगुम्फिताः ।। यो बहुमिः सुविकस्सिन्माल सत्कृतः । जातः स्वान्यसमाजेषु माननीयो मनीषिणाम् ॥ यस्य तो विश्रुति शास्वा श्रीमद्गान्धीमहास्मना । आहूतः सावर पुण्यपसमात्स्वयमभ्यया ॥ पुरे चाहम्मवायावे राष्ट्रीय शिक्षणालयः। विद्यापीठ इतिख्यातः प्रतिष्ठितो यथाऽभवत् ।। आचार्यत्वेन सत्रोच्चनियुक्तो यो महात्मना । विवजनकृतश्लाघे पुरासस्वाल्यमन्दिरे ॥ वर्षाणामष्टक धावत् सम्मूष्य तत्पदं ततः । गत्वा जर्मन राष्ट्र यससंस्कृतिमधीतवान् ॥ सत आगत्य संहलनो राष्ट्रकायें व सक्रियम् । कारावासोऽपि सम्माप्तो येन स्वराज्यपर्वणि ॥
मासस्माद् विनिमुक्तः प्राप्तः शान्तिनिकेतने ! विश्ववम्बकवीन्द्र श्रीरवीन्द्रनापभूषिते ।। सिंधीपायुतं नमानपीठं याश्रितम् । स्थापित सिंघीश्रीडासचन्दस्य सूनुना ।। श्रीबहादुरसिंहेन बानचीरेण धीमता । स्मृत्यर्थ निजतातस्य जनमानप्रसारकम् ॥ प्रतिष्ठितश्च मस्तस्य पवेऽधिष्ठातृससके । अध्यापयन् वरान् शिष्यान् शोधयन् बनवाङ्मयम् ॥ तस्यैव प्रेरणा प्राप्य श्रीसिंधीकुलकेतुना । स्वपितृधेयसे चैषा अन्यमाला प्रकाश्यते ।। विद्वज्जनकृतालादा समिछावानन्दया सवा । चिरं मन्दस्वियं लोके जिनविजयभारती ॥
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
Anitiandialidu
हो कान्द
n lsdom8RNITmmmmmitim
पुज्य पं. सुखलालजी संघवी द्वारा सम्पावित प्रमाणमीमांसा का दूसरा संस्करण प्रकाशित हो रहा है हान कर बानन्द इबा । भारतीय बर्शन के अन्यों में जिस प्रकार सुलनात्मक संस्कृत टिप्पणों के साथ "सन्मति प्रकरण" प्रकाशित हुआ वह संस्कृत ग्रन्थों के सम्पादन : की मई दिशा की और संकेत करता था। उसी प्रकार यह प्रमाणमीमांसा भी हिन्दी टिप्पणों के साथ जो प्रकाशित हुई वह भी एक नई दिशा बरसाने वाला अग्ध था। उसमें प्रतिपादित विषयों की अम्बार्शनिक अन्यों के साथ तुलना तो की ही गई पी, उपरांत विकार विकास का इतिहास भी प्रदर्शित था।
किन्तु उसमें जो एक कमी थी वह यह कि पैस बर्थन का आगमगत रूप विस्तार से प्रदर्शित नहीं हुआ था। उस कमी की पूर्ति करने का प्रयास मैंने मायावसार वानिक पति को प्रस्तावना लिखकर किया था । वह प्रस्तावना "बागमयुम का जैन दर्शन" नाम से प्रकाशित भी हुई है। किन्तु उसमें भी बाममों का ररीकरण करके जैन दर्शन के विकासक्रम को प्रदर्शित करने का प्रयत्म नहीं है । इस कमी को दूर करने के लिए मैंने "जैन दर्शन का आदिकाल लिया और उसे . मध्य और उत्तर काल लिखकर पूर्ण करने का मेरा इरादा था। किन्तु अब यह कार्य मुझसे होने वाला नहीं। मई पिड़ी से मेरी प्रार्थना है कि इस कार्य को पूरा करें ।।
प्रस्तुत प्रमाणभीमोसा के प्रकाशित होने के बाद उसके हिन्दी और अंग्रेजी में अनुवाद प्रकाशित हए हैं। और उसकी प्रस्तावमा और टिप्पणों का अंग्रेजी अनुवाद फलकसा से “एडवान्स स्टबीना इन इन्डियन शोषिक एण्ड मेटाफिसीक्स" के नाम से प्रकाशित हुआ है।
मैं यहाँ प्रमाणमीमांसा की दूसरी बाति के प्रकाशन करने का पुज्य गणिवयं शीलचन्द्र विषयजीने जो प्रयास किया उसकी प्रशंसा करता है। यह इस लिए कि अभी तक यह प्रवृति देखी गई है कि पूज्य पंडित सुखलालपी के सम्पादित अन्धों में से टिप्पण निकाल कर कुछ विद्वानों ने ग्रन्थ प्रकाशित किये हैं। यहाँ ऐसा नहीं हुआ। ३।१।८८ -~-কষুদ্ধ পাখি
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
........ORGirint
......
.
.......
.
ग्रन्धानुकम
......................
१ - ३२
१ संकेत सूची २ यस्किषित् प्रासंगिक ( श्री मुनि जिन विजयजी) ३ सम्पादन विषयक वक्तव्य (श्री यं० सुखलालजी) ४ भूमिका ( महामहोपाध्याय श्री पं० प्रमथनाथ तर्कभूषण) লাখ
? अन्तरिक्षय ! एमालालजी)
२ अन्धकार का परिचय ( श्री रसिकलाल छो० परीख) ६ प्रमाण-मीमांसा मूल मन्थ की विषयानक्रमणिका ७ भाषाटिप्पण की विषयानुक्रमणिका ८ प्रमाण-मीमांसा ( मूल प्रन्थ) ९ प्रमाण-मीमांसाके भाषाटिप्पण १० प्रमाण-मीमांसा के परिशिष्ट
१ प्रमाण-मीमांसा का सूत्र पाठ २ प्रमाण-मीमांसा के सूत्रों की तुलना ३ प्रमाण-मीमांसागत विशेषनामों की सूची ४ प्रमाण-मीमांसागत पारिभाषिक शब्दों की सूची ५ प्रमाण-मीमांसागत अवतरणों की सूची ६ भाषाटिप्पणात शब्दों और विषयों की सूची ७ भाषाटिप्पणगत विशेष नामों की सूची
५१ - ५४ १-७२
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
संकेत सूची
ता० सा-मू०
Wedneecartootniwas Release
डेला माएडार, अहमदाबाद की प्रति । जेसलमेरस्थ भारद्वार की ताइपत्रीय प्रति । ता. मति का मूल । प्रमाणमीमांसा की पुना में मुद्रित प्रति । मुनितमति का टिप्पण संघवी भाण्डार पाटन की मूलसूत्र की प्रति सम्पादक
मु-दि सं-मू० सम्पा.
(बनारस) (आगमोदपसमिति, सूरत) ( यशोविजयप्रन्धमाला, काशी)
(गुजरात विद्यापीठ, अदमदाबाद) (काशी विद्यापीठ, काशी) (यशोविषयमन्थमाला, काशी)
SHO
अच्युत अनुयो. अनेकान्तज. अनेकान्तमादी अन्ययो अभिधम्मस्थ अभिधर्म अभिधा अयोग० अष्टश अपस आषा आप और आप्तपर आप्तमी आ.नि. भावनिहारिक
R
T
(निर्णय सागर, बंबई) (भागमोदयसमिति, सूरत)
RE..
...
मासिक अनुयोगवारसूत्र अनेकान्तजयपताका अनेकालजयपताकाटीका अन्ययोगव्यवछेदिका, हेमचन्द्राचार्य अभिधम्मरपसंमहो अधिधर्मकोष अमिधानचिन्तामणि अयोगध्ययच्छेदिका, हेमचन्द्राचार्य अष्टशती, अकलक अनसहली प्राचारोगसूत्र श्रापस्तम्बत्रीवस्त्र श्रासपरीक्षा प्रातमीमांसा श्रावश्यक निर्यक्ति श्रावश्य परिभद्रीटीका उत्तराध्ययन सूत्र ऋग्वेद कठोपनिषद् प्रशस्तपादभाष्यटीका काव्यप्रकाश काम्यानुशासन खराइनखण्डखाद्य गोम्मटसार चरकसंहिता
(जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता)
...
...
"
( श्रागमोदय समिति, सूरत ) .
..'
।
गर कठो
(विजयानगरम् , काशी)
काव्यप्रक काव्यानुशा० खण्डन गोम्मद परमसं० चित्सुखी जैमिन जमिनीयन्या.
(महावीर विद्यालय, बंबई) (लाजरस, काशी) (परमश्रुत प्रभावक मंडल, ओबई ) (निर्णयसागर, बंबई) (निर्णयसागर, बंबई) (निर्णयसागर, बंबई)
.....
जैमिनीय दर्शन जैमिनीयन्यायमाला
untal
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
संकेत सूची
(इस ग्रन्थ के हिन्दी टिप्पण) (चौखम्बा, काशी) (एसियाटिक सोसायटी, कलकता) ( चौखम्बा, काशी) (मायकवाड प्रो. सिरीज, बोडा)
(
टिप्पण
भाषाटियणानि तस्त्रको
साख्यतत्वकौमुदी तत्वषिप्रत्यक्ष तत्वचिन्तामणि प्रत्यक्षपण्ड तत्त्व०
तस्ववैशारदी सत्त्वसं०
तस्वसंग्रह सत्त्वसं १० तस्वसंग्रहपक्षिा तस्वार
सस्थार्थसूत्र সাধম सस्वाभाष्य तत्त्वार्थमा दी सस्वार्थभाष्य सिद्धसेनीय टीका वत्स्वार्थरा तस्वार्थराजकार्तिक तस्वार्थको सत्यार्थ लोकवार्तिक तरको
तत्वोपकसिंह लिखित तत्त्वोपछि तन्त्रमा
স্কি तर्कभाषा
मोक्षाकरीय लिखित तात्पर्य . न्यायवार्तिकतापर्यटीका तकदी गया तर्कसंप्रदीपिका-गंगा टीका सकेसमहदीपिका दश.नि. दशकालिकसूनियुक्ति दशवै०
दघकालिमसूत्र दिनकरी
भ्यासिद्धान्तमुत्तावली टीका नन्दी
मन्दीसूत्र नयचक्र लिक मयचक्रवृत्ति लिखत न्यायकु
न्यायकुसुमाञ्जली न्यायकुमु० कि श्यायमुदचन्द्र लिखित न्यायम
न्यायप्रवेश न्यायभाव
न्यायसूम वात्स्यायनभाष्य न्यायमिक
न्यायविन्दु भ्यायबिटी न्यायविन्दुद्धीका न्यायमक
न्यायमञ्जरी न्यायवा०
ज्यायवार्तिक । भ्यायविक
न्यायविनिमय लिखित न्यायपिटी लि. न्यायविनिमयटीका लिखित न्यायव स्यायसूत्र विश्वनाथवृत्ति न्यायसा
न्यायसार न्यायसारता० न्यायसारतात्पर्यदीपिका
न्यायसूत्र न्याया
न्यायावतार न्यायाय म्यायाटी न्यायावतारसिद्धपिटीका न्याया: सिटिक न्यायावतारसिद्धपिटीकाटिपगी परी
परीक्षामुख
(आईसमतप्रभाकर, पुना) (दे. ला, सूरत ) (सनातनजैनमन्यमाला, काशी) ( गांधी माधावा, बबई) (गूजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद ) (चौखम्बा, काशी) (मुनि श्रीषुक्यविजयजी की) (चौखम्बा, काशी) (बनारस) (छभूलाल ज्ञानचन्द नारस) (भागमोदय समिति, सूरत) ( श्रागमोवय समिति, सूरत) (निसार बम्बई) (श्रा. स. सूरत) ( रामबाट जैन मंदिर, काशी) (चौखम्या, काशी) (पं. महेन्द्रकुमार, काशी) (मा. श्री.सि. बरोडा) (चौ. बनारस) ( লিলিঙ্গাথা প্লিকা।
(विजियानगरम् , काशी) (चौखम्मा, काशी) (५० केडाशचन्द्र जी, काशी)
(चौखम्बा बनारस) (एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता)
(जैन कोम्फरंस, यंबई)
(फूलचन्द्र शात्री, कासी)
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
सफेत सूची
पात० महा पुरातत्व पुरुषार्थ प्रकरणप०
पासअल महाभाध्य त्रैमासिक, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय प्रकरणपञ्चिका प्रमाणनयतत्वालोक प्रमाणपरीक्षा प्रमायापातिक प्रमाणसंग्रह, लिखित प्रमाणसमुश्चय प्रमाणसमुच्चयटीका प्रमाणमीमांसा प्रमेयकमलमार्तण्ड, प्रमेयरत्नमाला प्रशस्तपादभाष्य यहत्त्वयंभूस्त्रोत्र
अहमदाबाद (परमभुतप्रभावक, बंबई) (ौखम्बा काशी) ( यशोविजय ग्रन्थमाला, काशी) (जैनसिद्धान्त प्रकाशिनी स्था, कलकत्ता) (श्रीमान् राहुल सांकृत्यायनके अफसीट ) (श्री मुनि पुण्यविजयी) ( मैसुर युनिवर्सिटी)
प्रमाणपत्र प्रमाणवा प्रमाणसं प्रमाणस० प्रमाणसटी प्र०मी० प्रमेयक प्रमेयर
(प्रस्तुत संस्करण) (निर्णय सागर, बंबई) (फुलचन्द्र शास्त्री, काशी) (विजियानगरम, काशी) (प्रथमगुम्छकान्तर्गह) (मवास) (मद्रास) ( निर्णयसागर चंबई) (प्रानन्दासम) (एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता)
अस्वयं बृहती वृहतीप बृहदा वृहदा या बोधिचर्या योधिचर्या०प० प्र.शाङ्करभा०
20
भामती मझिम मध्य० पृ० मनोरथ महायाग माठर मिलिक मीमांसाश्लोक
वृहतीपलिका, वृहदारण्यकोपनिषद বাংকখানি बोधिनयवतार নীঘিনাঘঞ্জি। ब्रह्मसूत्रसारमाध्य भगवतीसून, अमसूत्रांकरभाष्यटीका मझिमनिकाय माध्यमिककारिकावृत्ति प्रमाणवार्तिक मनोरधनन्दिटीका विनयपिटक-महावग्ग सांख्यकारिका माउरवृत्ति मिलिन्दपरहो मीमांसाश्लोकार्तिक न्यायसिद्धान्तमुक्तावली मुण्डकोपनिषद যুহাসিন বাহাগিরিহ্মা यशोधिजयकृत धर्मपरीक्षा सुस्यनुशासन योगसूत्र व्यासभाष्य रक्षाकरावतारिका
सत्यार्थराजबार्तिक १ लघीयत्रयी लघीयत्रयी स्वविवृत्ति लिखित
( निर्णय सागर, बंबई) (गूजरात विद्यापीठ, अमदाबाद) (निर्णय सागर, बंबई) (पालीटेक्स्ट) ( बिल्लियोधेका बुद्धिका (श्री राहुल सांकृत्यायन) (पालीटेक्स्ट) (चौखम्बा, काशी)
( चौखम्बा, काशी) (निर्णय सागर, बंबई ) ( निर्णय सागर, बंबई)
मुखको यशोवादद्वा० यशोविक धर्म युक्त्यक योगमा रत्नाकरा राजवाब लघी लघीय. लघीस्ववि०
(माणिकचन्द अन्थमाला, पंधई ) (चौखम्बा, काशी) (यशोविजय प्रत्यमाला, काशी)
(माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बबई)
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
६
विधिवि० न्यायकर विशेषा०
विशेषा० धृ० विमुद्धि० वेदान्तसार
वै० उप०
चै० भूषण बै० ० सू०
शाबरमा०
शास्त्री०
शाखवा० शाखबा० टी०
शास्त्रत्रा० स्वो०
श्रीभाष्य
श्लो०
}
लोकवा०
लोक० न्यायः
श्वेताश्व
षड्व०
संयुक्त०
सम्म
सम्मतिटी ० सर्व०
सर्वार्थ
सांख्यत:
सां० का०
}
सांख्यका
सांख्यसू
सि० चन्द्रो० सिद्धान्त बिन्दु
सिद्धिवि०
सिद्धिवि० टी०
सूत्रकृ०
स्था०
स्फुटा०
स्याद्वादम०
स्याछाहर०
है मश
हैमशः बु हेतु हेतुभिः टी०लि०
विधिविवेकन्यायक शिका विशेषावश्यक माध्य
विशेषावश्यक माप्य वृहद स विमा
वैशेषिकसूत्र उपरकार वैयाकरणभूषणसार
वैशेषिकसूत्र
शावरमाध्य
शास्त्रीपिका
शास्त्रात
aravaagar aaोक्जियटीका स्वोपज्ञटीका
( लाजरस, बनारस )
internati
संकेत सूची
श्वेताश्वतरोपनिषद् दर्शन मु
संयुतनिकाय सम्मतिप्रकरण
सन्मतिप्रकरणटीका
सर्वदर्शनसंग्रह
fafa
कौमुदी
afarnafter
सख्यिसूत्र सिद्धान्तचन्द्रोदय
वार्तिकन्यायरत्नाकरटीका (
सिद्धिविनिश्वयटीका लिखित
feat लिखित
सूत्रकृताङ्गम्
स्थानासूत्रम्
स्फुटार्थामधर्म कोषव्याख्या
arrant
स्याद्वादनाकर
( चौखम् काशी )
यशोविजय ग्रन्थमाला, काशी )
सिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशासन
सिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशासन
हेतुबिन्दु लिखित afiant fore
)
+9
(पालीटेक्स्ट ) ( निर्णयसागर, चम्बई ) (ster, st)
(खम्बा बनारस)
(
>
(ौना, काशी )
}
ار
"
( निर्णयसागर
आत्मानन्द सभा, भावनगर )
>
(पालीटेक्स्ट )
( गुजरात विद्यापीठ, श्रहमदाबाद )
}
{
37
( अभ्यंकर संपादित )
( कोल्हापुर ) (चौखम्बा काशी )
>
}
92
)
(
(
3"
( कुम्भकोणम )
"9
( श्रमोदय, सूरत )
(
}
( बिब्लिओका बुद्धिका )
(दो सं० तिरी )
( श्रातप्रभाकर पुना )
( अहमदाबाद )
(
"
( मी० तारक एम. ए. )
( गूजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद )
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
यस्किंचित् प्रासंगिक
___ कालकालसर्वज्ञ आचार्य श्री हेमचंद्र सूरि की अन्तिम कृति 'प्रमाणमीमांसा' प्रक्षारक् पण्डितप्रवर श्रीसुखलालजी द्वारा सुसम्पादित होकर सिंधी जैनप्रन्थमाला के ९ म मणि स्वरूप, सहदय सद्विद्य पाठकों के करकमल में आज उपस्थित की जा रही है। पण्डितजी की इस विशिष्ट पाण्डित्यपूर्ण कृति के विषय में, इसी ग्रन्थमाला में, इतःपूर्व प्रकाशित इनके 'जैनतर्कभाषा' नामक प्रन्थ के संस्करण के प्रारंभ में जो हमने 'प्रासंगिक तव्य' लिखा था उसके अन्त में हमने ये पंक्तियाँ लिखी थी
"इसी जैनतर्कभाषा के साथ साथ, सिंघी जैनमन्थमाला के लिये, ऐसा ही आदर्श सम्पादनवाला एक असम संस्करण, हेमचन्द्र सूरि रचित 'प्रमाणमीमांसा' नामक तर्क विषयक विशिष्ट ग्रन्थ का भो, पण्डितजी तैयार कर रहे हैं, जो शीघ्र ही समाप्तप्राय होगा। तुलनात्मक दृष्टि से दर्शनशास्त्र की परिभाषा का अध्ययन करनेवालों के लिये मीमांसा का यह संस्करण एक महस्व की पुस्तक होगी। बौद्ध, ब्राह्मण और जैन दर्शन के पारिभाषिक शब्दों की विशिष्ट तलना के साथ उनका ऐतिहासिक क्रम बसलानेवाला जैसा विवेचन इस ग्रन्थ के साथ संकलित किया गया है, पैसा संस्कृत या हिन्दी के और किसी ग्रन्थ में किया गया हो ऐसा हमें ज्ञात नहीं है।"
__इस कथन की प्रतीनि क्रमा गर प्रमा, र अभ्यासक गण के हाथों में, आज सामान उपस्थित है। इसके विषय में अब और कोई अधिक परिचय देने की आवश्यकता नहीं। बही वाक्य फिर कहना पर्याप्त होगा कि हाथ कंकन को आरसी की क्या जरूरत'।
इस प्रन्थ पर पण्डितजी ने जो टिप्पण लिखे हैं, हमारे अल्पना अभिप्राय में तो, वे हेमचन्द्रसूरि के मूलप्रन्ध से भी अधिक महत्त्व के हैं। इन टिप्पणों में न केवल हेमचन्द्रसूरि के कथन ही को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है, प्रत्युत भारतीय प्रधान प्रधान दर्शन शास्त्रों के अनेकानेक पारिभाषिक और पदार्थ विषयक कथनों का बड़ा ही मर्मोद्घाटक और तुलनात्मक विवेचन किया गया है। कई कई टिप्पण तो तत्तविषय के स्वतंत्र निबन्ध जैसे विस्तृत और विवेचनापूर्ण हैं। इन टिप्पणों के अध्ययन से भारतीय दर्शनविधा के ब्राहाण, बौद्ध और जैन इन तीनों विशिष्ट तत्त्व निरूपक मतों की विभिन्न तात्विक परिभाषाओं में और लाक्षणिक व्याख्याओं में किस प्रकार क्रमशः विकसन, वर्धन या परिवर्तन होता गया उसका बहुत अच्छा प्रमाण-प्रतिति ज्ञान हो सकेगा। जहाँ तक हमारा ज्ञान है, अपनी भाषा में इस प्रकार का शायद यह पहला ही अन्य प्रकाशित हो रहा है और हमारा विश्वास है कि विद्वानों का यह यथेष्ठ आदर पात्र होगा।
मिथी जैन अन्यमाला को यह मणि, अपेक्षाकृत समय से, कुछ विलम्ब के साथ प्रकाशित हो रही है जिसका कारण पण्डितजी ने अपने संपादकीय वक्तव्य में सूचित किया ही है। गन वर्ष, प्रीमकाल की छुट्टियों के पूरा होने पर, एण्डितजी अहमदाबाद से बम्बई होकर बनारस जा रहे थे, तब अकस्मात एपिन्डीसाईद नाम की प्राणघातक व्याधि ने उन्हें आक्रान्त कर लिया
और उसके कारण, बम्बई में सर हरकिसनदास अस्पताल में शस्त्र क्रिया करानी पड़ी। व्याधि बड़ी उप्र थी और पण्टिल जी की शरीरशक्ति यों ही बहुत कुछ क्षीण हो रही थी, इसलिये हमारे हृदय में तीन बेदना और अनि आशंका उत्पन्न हो गई थी कि हेमचन्द्रसूरि की मूलकृति की तरह इनकी यह भाषाविवृत्ति भी कहीं अपूर्ण ही न रह जाय। लेकिन
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
यत्किचित् प्रासंगिक
सद्भाग्य से पण्डितजी उस धात से सानन्द पार हो गये और फिर धीरे धीरे स्वास्थ्य लाभ कर, अपने प्रारब्ध कार्य का इस प्रकार समापन कर सके। हमारे लिये यह आनन्दद्योतक उद्या पन का प्रसंग है।
से
पण्डितजी अपने संपादकीय वक्तव्य में, प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादन कार्य में हमारे प्रोत्साहन के लिये आभार प्रदर्शित करते हैं, लेकिन इस पूरी प्रन्थमाला के सम्पादन में, प्रारंभ ही से हमें जो उनका प्रोत्साहन मिल रहा है उसका आभार प्रदर्शन हम किस तरह करें। पण्डितजी की उक्त पिछली व्याचि के समय हमें तो यह शंका हो गई थी, कि यदि कहीं आयुष्कर्म के क्षय feast का यह पौगलिक शरीर ज्ञानज्योति शून्य हो गया तो फिर व्याकुलहृदय होकर हम इस ग्रन्थमाला के समूचे कार्य को ठीक चला सकेंगे या नहीं-सो भी समझ नहीं सकते थे। प्रन्थमाला के इस सम्पादन भार को हाथ में लेने और समुचय लेखन कार्य में प्रवृत्त होने में जितना बाह्य प्रोत्साहन हमें प्रथमाला के प्राणप्रतिष्ठाता श्रीमान् बाबू बहादुरसिंहजी से मिल रहा है उतना ही आन्तरिक प्रोत्साहन हमें अपने इन ज्ञानसखा पण्डितजी से मिट रहा है और इसलिये सिंधी जैन ग्रन्थमाला हम दोनों के समानकर्तृत्व और समान नियंतृत्व का संयुक्त ज्ञानकीर्तन है। और इस कीर्तन की प्रेरक और प्रोत्साहक है विदेही ज्ञानोपासक बाबू डालचन्दजी सिंघी की वह पुण्यकामना, जो उनके सत्पुत्र और उन्होंके सदृश ज्ञानदिप्सु श्रीमान् बाबू बहादुरसिंहजी द्वारा इस प्रकार परिपूर्ण की जा रही है। सिंधीजी की सभावना ही forest के क्षण शरीर को प्रोत्साहित कर लेखनप्रवृत्त कर रही है और हमारी कामना है कि इस ग्रंथमाला में पforतजी के ज्ञानसौरभ से भरे हुए ऐसे कई सुन्दर staged अभी और प्रथित होकर विद्वानों के मन को आमोद प्रदान करें ।
, भारतीय विद्याभवन फाल्गुन पूर्णिमा संवत् १६६५
}
जिन विजय
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्पादन विषयक वक्तव्य
१. पारम्भ-पर्यवसान सिंधी जैन-ग्रन्थमाला में प्रकाशित होमपाला प्रमाणमीमांसा का प्रस्तुख संरकरण सोलर है। बहुत वर्ष पहले अहमदाबाद से और पीछे पूना से, इस प्रकार दो बार, प्रमाणमीमांसा पहले सप चुकी है। लगभग पचीस वर्षे पूर्व गुजरात से आगरा की ओर बाते हुए बीच में पालनपुर में मेरे परिचित मुनि श्री मोहनविजयजी ने, जो कभी काशी में रहे थे, मुझसे अतिशीघ्र प्रमाणमीमांसा पढ़ ली। वह मेरा प्रमाणमीमांसा का प्रथम परिचय था । उस समय मेरे मन पर एक प्रश्नल संस्कार पड़ा कि सचमुच प्रमाणमीमांसा हेमचन्द्र के अनुरूप हो कृति है और उसका संपादन भी वैसा ही होना चाहिए । पूना से प्रकाशित संस्करण पहले के संस्करण से कुछ ठीक था; पर, प्रथम के वे दोनों संस्करण अत्यन्त ही दुर्लभ हो गए थे।
इधर ई. स. १९३३ की जुलाई में काशी आना हुआ और १९३५ में हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राच्य-विद्या विभाग के जैन अभ्यासक्रम का पुनर्निर्माण तथा गवर्नमेण्ट संस्कृत कालेज, बनारस में जैन परीक्षा का प्रवेश हुआ। बंगाल संस्कृत एसोसिएशन कलकत्ता की संस्कृत परीक्षा में तो प्रमाणमीमांसा बहुत पहले से ही नियत थी। काशी में हिन्दू विश्वविद्यालय तथा गवन्मेण्ट संस्कृत कालेज इन दोनों के अभ्यास-क्रम में भी प्रमाणमीमांसा रखी गई। इस प्रकार एक ओर विद्यार्थियों के लिए प्रमाणमीमांसा की नितांत आवश्यकता और दूसरी तरफ पुराने संस्करणों की अत्यन्त दुर्लभता ने मेरे मन में पड़े हुए पुराने संस्कार को जगा दिया।
शाखसमृद्ध भूमि पर तो बैठा हो था। हेमचन्द्रसूरि के अन्थों के अनन्य उपासक रूप से प्रमाणमीमांसा के संशोधन की ओर मन भी था और फिर मेरे मन के सहकारी भी मुझे मिळ गये। यह सब देख कर निर्णय कर लिया कि अब काम शुरू कर दिया जाय । छुट्टी होते ही प्रमाणमीमांसा के जन्म और रक्षणधाम पाटन में मेरे साथी और मित्र श्रीदलसुखमाई के साथ पहुँचा और १९३५ के मई की पहली तारीख को काम का श्रीगणेश हुआ
अहमदाबाद स्थित डेला उपाश्रय के भाण्डार की कागज पर लिखी हुई प्रमाणमीमांसा की प्रति साथ ले गया था। पाटन में तो सौजन्यमूर्ति मुनि श्री पुण्यविजयजी की बदौलत सब कुछ मुलभ ही था। उनके पास जेसलमेर के भाण्डार की ताडपत्रीय प्रति की फोटो यो जिसमें वृति सहित सूत्रों के अतिरिक्त अलग सूत्रपाठ भी था । पाटन स्थित संघ के भाण्डार में से एक और भी फागम पर लिखा हुआ मूल सूत्रपात मिल गया। पूनावाली छपी हुई नकल तो थी ही। इस तरह दो केवल भूल सूत्रपाठ की और दो वृप्तिसहित की कुल चार लिखित प्रतियों और मुद्रित पूनावाली प्रति के आधार पर पाठान्तर लेने का काम पाटन में ही तीन सप्ताह में समाप्त हुआ।
जून मास में अहमदाबाद में ही बैठकर उन लिए हुए पाठान्तरों का विचारपूर्वक स्थान निर्णीत करके यथासम्भव मलसूत्र और वृत्ति को विशेष शुद्ध करने कातथा अन्धकार के असली लेख के विशेष समीप पहुँचने का प्रयत्न किया गया। उसी साल जुलाई-अगस्त से फिर काशी में वह काम प्रारम्भ किया। मूलनाय की शुद्धि, प्राप्त टिप्पणों का यथास्थान विन्यास
आदि प्रारम्भिक काम तो हो चुके थे। अब पुरानी भावना के अनुसार तथा प्राप्त सामग्री के अनुरूप उस पर यथासम्भव विशेष संस्कार करने का प्रभ था। घर स्यावाद महाविद्यालय के जैन न्यायाध्यापक पं० महेन्द्रकुमारजी, ओ एस समय न्याय-कुमुदचन्द्र का संशोधन कर रहे थे, प्रस्तुत कार्य में सम्मिलित कर लिए गए। उन्होंने धन्थान्तरों से अवतरणों के संग्रह
agrom art
.
.................................
.....
....
...........
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
I
m
apanaanemal-.
1-SEARESHARITRASTHAN
YHMAyimome
सम्पादन विषयक वक्तव्य मादि का काम शुरू किया। १९३६ के मार्च तक साधन सामग्री तो अपेक्षा से अधिक एकत्र हो गई थी, पर अब सवाल आया उसके उपयोग का।
अन्य ग्रन्थों से जी और जितना संग्रह हुआ वह मूलगन्ध से कई गुना अधिक था और उसे ज्यों का त्यों छपवाने से इने गिने विद्वानों के अलावा दूसरों को विशेष लाभ पहुँचने का सम्भव कम था। दूसरी ओर वह संग्रह महत्त्व का होने से छोड़ने योग्य भी न था । अन्त में, ऐसा मार्ग सोचा गया जिसमें सारे उस संग्रह का उचित उपयोग भी हो, पुस्तक का ध्यर्थ कद भी न बढ़े और विशिष्ट विद्वानों, अध्यापको, संशोधकों और विद्यार्थियों सभी के योग्य कुछ न कुछ नई बस्तु भी प्रस्तुत की जाय । और साथ ही शास्त्रीय ग्रन्थों के ऊपर लिखने का एक नया प्रकार भी अभ्यासकों के सम्मुख उपस्थित किया जाय । इसके साथ साथ यह भी सोचा कि संस्कृत में लिखने को अपेक्षा वह हिन्दी-भाषा में लिखा जाय जिससे लिखी हुई वस्तु अधिक से अधिक जिज्ञासुओं तक पहुँच सके, राष्ट्रीय भाषा में शास्त्रीय ग्रन्धों की समृद्धि भी बड़े और अगर यह नया सा प्रस्थान विद्वानों का ध्यान खींच सके तो वह इस दिशा में काम करने के लिए औरों को भी प्रेरित कर सके । इस विचार से उसी साल हिन्दी भाषा में टिप्पण लिखने का सूत्रपात काशी में ही किया गया जिसका अन्तिम रूप इस पुस्तक के अन्त में भाषाटिप्पण के नाम से प्रस्तुत है। १९३६ की गरमी में सोचे हुए खाके के अनुसार अहमदाबाद में भाषा-टिप्पणों का भमुक भाग लिसा स्थिा लाया शा; सिर नपा-द में साशी में बाम आगे बढ़ा। इस बीच सितम्बर-अक्सूबर में कलकत्ता में भी थोड़ा सा लिखा गया और अन्त में काशी में उसको समाप्ति हुई।
सिंघी जैनग्रन्थमाला के मुख्य सम्पावत इतिहासकोविद श्रीमान् जिनविजयजी की सूचना के अनुसार १९३७ के प्रारम्भ में ही मैटर काशी में ही छपने को दे दिया और उनकी खास इच्छा के अनुसार यह भी तय कर लिया कि यथाशक्य इस पुस्तक को १९३७ के दिसम्बर तक प्रकाशित कर दिया जाय । इस निश्चय के अनुसार एक के बदले दो प्रेस पसन्द किये और साथ ही बीच के अनेक छोटे बड़े अधूरे काम पूरा करने की तथा नया लिख लेने की प्रवृति भी चालू रक्खी जिससे निर्धारित समय आने पर मलप्रन्थ, भाषाटिप्पण और कुछ परिशिष्ट छप गए।
कुछ खास कारणों से १९३८ की जनवरी में इसे प्रसिद्ध करने का विचार बन्द रखना पड़ा ! फिर यह विचार आया कि जब अवश्य हो थोड़ी देरी होनेवाली है सब कुछ अनुरूप प्रस्तावना क्यों न लिख दो जाय? इस विचार से १९३८ के मार्च-अप्रिल में प्रस्तावना का 'अन्धपरिचय' तो लिख दिया गया । पर, मैंने सोचा कि जब देरी अनिवार्य है तत्र में इस प्रस्तावना को अपने कुछ सुयोग्य विद्वान मित्रों को भी दिखा दूँ जिससे कुछ न कुछ योग्य सुधार ही होगा। गरमी में अहमदाबाद में तोन मित्रों ने इसे भाषा-टिपण सहित पढ़ा । श्री जिनविजयजी, श्री रसिकलाल परीख और ५० बेचरदास इन तीनों ने अपनी अपनी दृष्टि के अनुसार राय भी दी और सूचनाएँ भीकों पर एक काम बाकीथा जो मुझे व्याकुल कर रहा था, वह था ग्रन्थकार का जीवन-लेखन । हेमचन्द्र मेरे मन जिसने बडे है वैसा ही उनका पूर्ण जीवन लिख मनोरथ परेशान कर रहा था। इसके वास्ते काशी की ओर यथासमय प्रस्थान तो किया पर बीच में ही बम्बई में शरीर अटक गया और उसको सुप्रवृत्त बनाने के लिये अस्पताल में भपस्थान करना पड़ा । अनेक मित्रों, विधारसिकों और सन्तों को अकल्प्य परिचर्या के प्रभाव से शरीर की रक्षा तो हो गई पर काम की शक्ति बहुत कुछ क्षीणप्राय हो गई।
फिर भी १९३८ के सितम्बर में काशी पहुँच गया। पर ग्रन्थकार के जीवन का यथेष्ट परिचय लिखने जितना स्वास्थ्य न पाकर आखिर में उसका भार अपने विद्वान मित्र श्रीरसिक लाल परीख को सापा । उनका लिखा हुआ 'अन्धकार का परिचय संक्षिप्त होने पर भी गम्भीर
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्पादन विषयक वक्तव्य
तथा ऐतिहासिक दृष्टिपूत है। श्री परीख ने कुछ ही समय पहले हेमचन्द्राचार्यकृत काव्यानुशासन ग्रंथ का विशिष्ट संपादन किया है और उस ग्रंथ की भूमिका रूप, जो स्वतंत्र एक ग्रंथ के जैसा ही बहुत विस्तृत, अंग्रेजी निबन्ध लिखा है उसमें हेमचन्द्राचार्य के व्यक्तित्व के विषय में उन्होंने बहुत कुछ विस्तार के साथ लिखा है । अतएव उनका यह संक्षिप्तलेखन विकुल साधिकार है । इस तरह आचार्य हेमचन्द्र की इस अधूरी कृति के प्रकाशन में बन सके उतनी विशिष्टता लाने का प्रयत्न करके उसे पूर्ण जैसी बनाने की चिरकालीन भावना भी अनेक छोटे बड़े विनों को लांघकर आज पूर्ण होती है। पर मुझे स्वीकार करना चाहिए कि मित्रों का साथ न होता यो यह भावना भी मूलग्रन्थ की तरह अधूरी ही रह जाती ।
२. प्रति परिचय
११
प्रसंस्करण में उपयुक्त प्रतियों का परिचय इस प्रकार है
ता० - जिस ताडपत्रीय प्रति की फोटो काम में लाई गई है वह जेसलमेरस्थ किला गव भावार की पोथी नं० ८४ है । उसमें कुल १३७ पत्र हैं जिनमें से १११ पत्रों में मूल सूत्रपाठ तथा सवृत्तिक प्रमाणमीमांसा अलग अलग हैं। बाकी के पत्रों में परीक्षामुख आदि कुछ अन्य न्यायविषयक ग्रन्थ हैं। इस प्रति की लम्बाई १५ x २" है । प्रति के अन्त मैं और कोई उल्लेख नहीं है। इसमें टिप्पणी है। यह प्रति दो विभागों में लिखी गई है। प्रत्येक पृष्ठ पर कम से कम तीन और अधिक से अधिक पाँच पंक्तियाँ हैं और प्रत्येक पंक्ति में ७० अक्षर हैं । जहाँ पत्र के टेढ़ेपन के कारण आधी पंक्तियाँ है वहाँ ३५ अक्षर है। इस प्रति को फोटो २२ सेटों में की गई है। लेट की लम्बाई चौड़ाई १०' x १२' है।
० यह प्रति अहमदाबाद के डेला उपाश्रय की है। इसमें कुल ३३ पत्र हैं। इसकी लम्बाई १०" और चौड़ाई ४३ है । प्रत्येक पृष्ठ पर १५ पंक्तियों तथा प्रत्येक पंक्ति में अधिक से अधिक ६४ अक्षर हैं। प्रत्येक पत्र का मध्यभाग खाली है। मार्जिन में बहुत ही बारीक अक्षरों में कहीं कहीं टिप्पण है जो इस संस्करण में के लिए गए हैं। इस प्रति का अन्त का उल्लेख प्रमाणमा ० ६४ की टिप्पणी में छपा है उससे मालूम होता है कि यह प्रति संवत् १७०७ में पाटन में लिखी गई है ।
- मू० - इस प्रति का विशेष परिचय अभी मेरे पास यह लिखते समय नहीं है ।
३. विशेषताएँ
प्रस्तुत संस्करण की कुछ विशेषताएँ ऐसी हैं जिनका संक्षेप में निर्देश करना आवश्यक है । वे क्रमश: इस प्रकार हैं
पहली विशेषता तो पाठ-शुद्धि की है। जहाँ तक हो सका मूलमन्थ को शुद्ध करने व अन्धकार सम्मत पाठ के अधिक से अधिक समीप पहुँचने का पूरा प्रयत्न किया गया है। सापत्र और डेला की प्रति के जहाँ जहाँ दो पाठ मिले वहाँ अगर उन दोनों पाठों में समगळवा आन पड़ी तो उस स्थान में ताइप्रति का पाठ ही मूल वाचना में रखा है और डेला प्रति का पाठ पाठान्तर रूप से नीचे फुटनोट में इस तरह ताइप्रति का प्रामाण्य मुख्य रूप से मान लेने पर भी जहाँ डेला प्रति का पाठ भाषा, अर्थ और प्रन्थान्तर के संवाद आदि के औचित्य की दृष्टि से अधिक उपयुक्त जान पड़ा यहाँ सर्वत्र डेला प्रति का पाठ ही भूल वाचता में रखा है, और ताइप्रति तथा मुद्रित प्रति का पाठान्तर नीचे रखा है। मूड सूत्रपाठ की दोनों प्रतियों में कहीं कहीं सूत्रों के भेदसूचक चिह्न में अंतर देखा गया है। ऐसे स्थलों में उन सूत्रों की व्याख्यासरणी देखकर ही यह निश्चय किया गया है कि वस्तुतः ये भिन्न भिन्न सूत्र है, या गलती से एक ही सूत्र के दो अंश दो सूत्र समझ लिये गये हैं। ऐसे स्थानों में निर्णीत संख्यासूचक नंबर awar में देकर पाये जानेवाले और भेद नीचे टिप्पण रूप से दे दिये गये हैं।
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
...
...........
........
.......
.....
......
सम्पादन विषयक वक्तव्य पाठान्तर और सूत्रों की संख्या के भेदसूचक बल्लेख के उपरान्त नीचे तीन प्रकार के टिप्पण है। एक तो डेलाप्रति में प्राप्त टिपण है। दूसरा मुद्रित पूनावाली नकल से लिया गया टिप्पण जो गु-
टित से लिया है। और योगरा प्रकार संपादक की ओर से किये गये टिप्पण का है। दिपण संक्षिप्त और विरल स्थलों पर होते हुए भी कहाँ कहीं बड़े मार्के का और उपयोगी जान पड़ा। इसलिए यह पूरा का पूरा ले लिया गया है उसकी शुद्धि करने का प्रयत्न किया गया है। फिर भी कुछ स्थलों में वह अनेक कारणों से संदिग्ध ही रह गया है।
दुसरी विशेषता परिशिष्टों की है। सात परिशिष्टों में से पहला परिशिष्ट सिर्फ मूल सूत्रों के पाठ का है। जो विद्यार्थी व संशोधकों के लिए विशेष उपयोगी है । दूसरे परिशिष्ट में मूल सूत्रों की इन जैन-जनेतर अन्थों से तुलना की गई है, जो ग्रन्थ हेमचन्द्र की रचना के या तो आधार हैं, या उसके विशेष निकट और उसके साथ ध्यान देने योग्य समानता वाले हैं। पूर्ववर्ती साहित्यिक संपत्ति, किसी भी अन्धकार को विरासत में, शब्द या अर्थरूप से जाने अनजाने कैसे मिलती है, इसका कुछ खयाल इस परिशिष्ट से आ सकता है। तीसरे परिशिष्ट में अन्य गत विशेष नाम और चौथे में पारिभाषिक शब्द दिये गये है, जो ऐतिहासिकों और कोषकारों के लिए खास उपयोग की वस्तु है । पाँचवें परिशिष्ट में अन्य में आये हुए सभी गा पक्ष अवतरण सनके प्राप्त स्थानों के साथ दिये हैं जो विद्यार्थियों और संशोधों के लिए उपयोगी है। छठा परिशिष्ट संक्षिप्त होने पर भी बड़ा ही है। उसमें भाषाटिप्पणगत सभी महत्व के शब्दों का संग्रह तथा उन टिप्पणों में प्रतिपादित विषयों का संक्षिप्त पर सारगर्भित वर्णन है जो गवेषक विद्वानों के वास्ते बहुत ही कार्यसाधक है। सातवें परिशिष्ट में भाषा-टिप्पणों में प्रयुक्त ग्रन्थ, ग्रन्थकार आदि विशेष नामों की सूची है जो सभी के लिए उपयोगी है। इस तरह ये सातो परिशिष्ट विविध दृष्टि वाले अभ्यासियों के नानाविध उपयोग में आने योग्य है।
तीसरी विशेषता भाषा-टिप्पागों की है। भारतीय भाषा में और खास कर राष्ट्रीय भाषा में दार्शनिक मुहों पर ऐसे टिप्पण लिखने का शायद यह प्रथम ही प्रयास है। दर्शन शास्त्र के व न्याय शास्त्र के कुछ, परंतु खास खास मुहरे को लेकर उन पर ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक दृष्टि से कुछ प्रकाश डालने का, इन टिष्यणों के द्वारा प्रयत्न किया गया है । यद्यपि इन टिप्पणों में स्वीकृत इतिहास तथा तुलना की दृष्टि वैदिक, बौद्ध और जैन इन भारतीय परम्पराओं तक ही सीमित है। फिर भी इन तीनों परम्पराओं की अवान्तर सभी शाखा स्पर्श करने का यथासंभव प्रयत्न किया गया है । जिन शास्त्रीय प्रमाणों व आधारों का अवलंबन लेकर ये टिप्पण लिखे गये हैं, वे सब प्रमाण व आधार दिप्पों में सर्वत्र अक्षरशः परिपूर्ण न देकर अनेक स्थलों में उनका स्थान सूचित किया है और कहीं कहीं महत्त्वपूर्ण संक्षिप्त श्रवतरण भी दे दिये हैं जिससे अनावश्यक विस्तार न हो, फिर भी मूल स्थानों का पता लग सके।
चौथी विशेषता प्रमाणमीमांसा के सूत्र तथा उसकी वृत्ति की तुलना करने के संबन्ध में है। इस तुलना में ऐसे अनेक जैन, बौद्ध और वैदिक ग्रन्थों का उपयोग किया है, जो या तो प्रमाणमीमांसा के साथ शब्दशः मिलते हैं या अर्थतः; अथवा जो ग्रन्थ साक्षान् या परम्परया प्रमाणमीमांसा की रचना के आधारभूत बने हुए जान पड़ते हैं। इस तुलना में निर्दिष्ट ग्रन्थों की सामान्य सूची को देखने मात्र से ही यह अंदाञ्च लगाया जा सकता है कि हेमचन्द्र ने प्रमाणमीमांसा की रचना में कितने विशाल साहित्य का अवलोकन या उपयोग किया होगा, और इससे हेमचन्द्र के उस प्रन्थप्रणयनकौशल का भी पता चल जाता है जिसके द्वारा उन्होंने अनेक ग्रन्थों के विविधविषयक पाठों तथा विचारों का न केवल सुसंगत संकलन ही किया है मपितु उस संकलन में अपना विद्यासिद्ध व्यक्तित्व भी प्रकट किया है।
पाँची विशेषता प्रस्तावना की है जिसके अन्य परिचय में, भारतीय दर्शनों के विचार.
........."
"
"""
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
सम्पादन विषयक वक्तव्य स्रोतों का वर्गीकरण पूर्वक तुलनात्मक संक्षिप्त वर्णन करके उसमें जैन विचारप्रवाह का स्थान दिखलाया है तथा जैन साहित्य व विचार प्रवाह के युगानुरूप विकास का दिग्दर्शन भी कराया है। प्रमाणमीमांसा की विशिष्टता बतलाने के साथ साथ अनेकान्तवाद की मात्मा को भी चित्रित करने का अल्प प्रयास किया है। प्रस्तावना के 'अन्धकार-परिचय' में हेमचन्द्र के आन्तरबाह्य व्यक्तित्व का ऐतिहासिक दृष्टि से वर्णन है।
४. कार्य-विभाग __ प्रस्तुत संस्करण से सम्बन्ध रखने वाले काम अनेक थे। उन सब में एक याक्थता बनी रहे, पुनरुक्ति न हो और यथासंभय शीघ्रता भी हो, इस दृष्टि से उन कामों का विभाग हम लोगों ने पहले से ही स्थिर कर लिया था, जिसका सूचन घारूरी है। पाठशुद्धिपूर्वक पाठपाठान्तरों के स्थान निधन भरने का, भागादिया नभा प्रस्तावना लिने का काम मेरे जिम्मे रहा । प्रन्यात अवतरणों के मूल स्थानों को हूँढ निकालने का तथा तुलना में और भाषाटिपण लिखने में उपयोगी हो सके, ऐसे स्थलों को जैन-जेनेतर अन्थों में से संचित करने का काम पं० महेन्द्रकुमारजी के जिम्मे रहा। पाठान्तर लेने और सारी प्रेस कॉपी को व्यवस्थित बनाने से लेकर छप जाने तक का प्रेस प्रूफ, गेट-अप आदि सभी कामों का, तथा सभी परिशिष्ट बनाने का भार पं० दलसुख भाई के ऊपर रहा। फिर भी सभी एक दूसरे के कार्य में आवश्यकतानुसार सहायक तो रहे ही ! मैं अपने विषय में इतना और भी स्पष्ट कर देना उचित सम. ससा हूँ कि लिखवाते समय मुझे मेरे दोनों सहकारी मित्रों ने अनेक विषयों में केवल परामर्श ही नहीं दिया, बल्कि मेरो दिखायट में रही हुई त्रुटि या भ्रांति का उन्होंने संशोधन भी कर दिया। सचमुच में इन दोनों सहदय व उदारता मित्रों के कारण ही एक प्रकार के विशिष्ट चिंतन में बेफिक निमग्न रह सका।
५. आभार-दर्शन जिन जिन व्यक्तियों को थोड़ी या बहुत किसी न किसी प्रकार की सहायता इस कार्य में मिली है, उन सबका नामनिर्देशपूर्वक जलेख न तो संभव है और न आवश्यक ही। फिर भी मुख्य मुख्य व्यक्तियों के प्रति आभार प्रदर्शित करना मेरा कर्तव्य है। अयर्तक श्री० कान्तिविजयजी के प्रशिष्य सुचेता मुनि श्री पुण्यविजयजी के सक्रिय साक्षित्व में इस कार्य का श्रीगणेश हुआ। प्रस्तुत कार्य को शुरू करने के पहले से अंत तक मात्र प्रोत्साहन ही नहीं प्रत्युत मार्मिक पथ-प्रदर्शन व परामर्श अपने सदा के साथी श्रीमान् जिनविजयजी से मुझे मिला । बिहान मित्र श्री रसिकलाल परीख बी० ए०ने न केवल अधिकार का परिचय लिखकर ही पूस कार्य में सहयोग दिया है बल्कि उन्होंने छपे हुए भाषा-टिप्पणों को तथा छपने के पहले मेरी प्रस्तावना को पढ़ कर अपना विचार भी सुझाया है। पं० बेघरदास ने मूल अन्य के कई प्रकों में महस्व की शुद्धि भी की और प्रस्तावना के सिवाय पाकी के सारे छपे हुए फी को पद कर उनमें दिखलाई देने वाली अशुद्धियों का भी निर्देश किया है। मेरे विद्यागुरु महामहोपाध्याय पंक बालकृष्ण मिश्र ने तो जन्म जप में पहुँचा तब तब बड़े उत्साह व आदर से मेरे प्रभों पर अपनी दार्शनिक विद्या का गम्भीर खजाना ही खोल दिया जो मुझे सास कर भाषा-टिप्पण लिखते समय उपयोगी हुआ है। मीमांसाधुरीण पं० चिन्मस्वामी लथा धैयाकरणरूप पं० राजनारायण मिश्र से भी मैंने कभी कभी परामर्श लिया है। विदुषी श्रीमती हीराकुमारीजी ने तीसरे आशिक के भाषा-दिप्पणों का बहुत बड़ा भाग मेरे कथनानुसार लिखा और इस लेखन काल में जरूरी साहित्य को भी उन्होंने मुझे पढ़ सुनाया है। सातवाँ परिशिष्ट तो पूर्ण रूप से ही ने तैयार किया है। मेरे मित्र व विद्यार्थी मुनि कृष्णचन्द्रजी, शान्तिलाल सथा महेन्द्रकुमार
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४
सम्पादन विषयक वक्तव्य
ने प्रूक देखने में या लिखने आदि में निःसङ्कोच सहायता की है। अतएव में इन सघका अन्तःकरण से आभारी हूँ। मैं भिक्षुवर राहुल सांकृत्यायन का भी कृतज्ञ हूँ जिन्होंने प्रमाणवार्तिकादि अनेक अप्रकाशित ग्रन्थों का उपयोग वड़ों उदारता से करने दिया ।
इस ग्रन्थमाला के प्राणप्रतिष्ठापक, विद्वमित्र और सहोदरकल्प बा० श्रीबहादुर सिंहजी सिंधी के उदार विद्यानुराग व साहित्य प्रेम का मैं विशेष कृतज्ञ हूँ जिसके कारण, इतः पूर्व प्रकाशित जैनतर्कभाषा और प्रस्तुत ग्रन्थ का सिंघी जैनमन्थमाला द्वारा प्रकाशन हो रहा है। ई० सन् १९३७ जून की पहली तारीख को आबू पर्वत पर प्रसंगोचित वार्तालाप होते समय, मैंने श्रीमान् सिंघजी से यों ही स्वाभाविक भाव से कह दिया था कि यह प्रमाणमीमांसा का संपादन, शायद मेरे जीवन का एक विशिष्ट अन्तिम कार्य हो, क्योंकि शरीरशक्ति दिन प्रतिदिन अधिकाधिक क्षीण होती जा रही है और अब ऐसा गंभीर मानसिक श्रम उठाने जैसी वह क्षम नहीं है। मुझे तब इसकी तो कोई कल्पना ही नहीं थी कि अगले वर्ष यानि १९३८ के जून में, ग्रन्थ के प्रकाशित होने के पूर्व ही, इस शरीर पर क्या किया होनेवाली है। खैर, अभी तो मैं उस घात से पार हो गया हूँ और मेरे साहित्य संस्कारों तथा विद्योपासना का स्रोत भागे जारी रहा तो वक्त बाबूजी की सौहार्दपूर्ण प्रेरणा और सनिष्ठा के कारण, मुख्यतया इस स्रोत के प्रवाह का सिंधी जैन ग्रन्थमाला के बाँध में संचित होना और फिर उसके द्वारा इतस्ततः प्रसारित होना स्वाभाविक ही है । अतएव यहाँ पर उनके प्रति कृतज्ञता का भाव प्रदर्शित करना आवश्यक और क्रमप्राप्त है।
हिंदू विश्वविद्यालय के प्राच्य विद्याविभाग के भूतपूर्व प्रिंसिपल तथा इस समय हिंदूविश्वविद्यालय के संस्कृत शिक्षण के डाइरेक्टर महामहोपाध्याय पं० श्री प्रमथनाथ तर्कभूषण को मैंने छपी हुई सारी प्रमाणमीमांसा १९३७ के अंतिम दिनों में अवलोकन के लिए दी थी । वे प्रखर दार्शनिक होने के अलावा ऐतिहासिक दृष्टि भी रखते हैं। उन्होंने म प्रन्थ तथा सारे भाषा-टिपणों को बड़ी एकाग्रता व चिस्पी से पढ़ा। जैसा मैं चाहता था तदनुसार उन्हें कोई विस्तृत दार्शनिक निबन्ध या ऐतिहासिक समालोचना लिखने का अवकाश नहीं मिला फिर भी उन्होंने जो कुछ लिखा वह मुझे गत वर्ष अप्रिल में ही मिल गया था। यहाँ मैं उसे इस वय के अंत में ज्यों का त्यों कृतज्ञता के साथ प्रसिद्ध करता हूँ। उन्होंने जिस सौहार्द और विधानुरागपूर्वक भाषा टिप्पण गत कुछ स्थानों पर मुझे सूचनाएँ दीं और स्पष्टता करने के वास्ते ध्यान खींचा; एतदर्थ तो मैं उनका विशेष कृतज्ञ हूँ ।
६. प्रत्याशा
चिरकाल से मन में निहित और पोषित सङ्कल्प का मूर्तरूप में सुखप्रसव, दो उत्साहशील तरुण मनस्वी सखाओं के सहकार से, सहृदय सृष्टि के समक्ष आज उपस्थित करता हूँ । मैं इसके बदले में सहृदयों से इतनी ही आशा रखता हूँ कि वे इसे योग्य तथा उपयोगी समझें सो अपना लें। इसके गुण दोषों को अपना ही समझें और इसी बुद्धि से आगे उनका यथायोग्य विकास और परिमार्जन करें। अगर इस कृति के द्वारा साहित्य के किसी अंश की पूर्वि और जिज्ञासुओं की कुछ ज्ञानतृप्ति हुई तो मैं अपनी चालीस वर्ष की विपनाको फलent मा । साथ ही सिंघी जैन ग्रन्थमाला भो फलेमहि सिद्ध होगी ।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
बा० ५.३.३६
}
सुखलाल
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
भमिका गीर्वाणवाणीनिवद्धेषु दार्शनिकमन्थेषु जैनाचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिता प्रमाणमीमांसा भाईतसम्पदाये प्रामाणिकतया पर प्रसिद्धिमुपगता वरीवति । यस्मिन् खस्यनेहसि प्रमाणमीमांसायाः प्रादुर्भावः समजनि, सदानीन्तनेषु दार्शनिकेषु निबन्धकर्तषु पायेण सर्वेष्वेव विरोधिसम्प्रदायान्तरेभ्यः स्वसम्प्रदायस्य समुस्कर्षविशेषसंस्थापनार्थ समुचितोऽनुचितो वा सुमहान् प्रयासो गतानुगतिकतया पर किल काठामधिगतः समश्यत । तदेतत्त्वं मुविदितमेवास्ति भारतीयेतिहाससतस्पविदा सर्वेषां प्रेक्षावताम् । जैनाचार्यकुलपकाण्डस्य श्रीमतो हेमचन्द्रस्यापि मस्या प्रमाणमीमांसायां स्वसम्प्रदायसमुत्कर्षव्यवस्थापनाय सम्प्रदायान्तरसिद्धान्तखण्डनाय च समुपलभ्यमानः प्रयत्लो विशुद्धदार्शनिकदृष्ट्या रमणीयो भवतु मा वा इति न तत्र ममास्ति किश्चिद् विशेषतो वकन्यम् । यद्यपि तदानीन्तनैर्षिभित्रसम्प्रदायाचार्यप्रवरैः स्वस्वसम्प्रदायसिद्धान्तसंस्थापनाय समनुसृतेयं पद्धतिर्वाशिनिकतत्त्वानां दार्य वैशथं वा सम्पादयितुं प्रभाति न धेति मीमांसाया नायमवसरः, तथापि अनया पदत्या प्रवर्तमानैः प्राचीनस्तसत्सम्प्रदायाचार्य रवीयेषु नानाधर्मसम्प्रदायेषु परम्पर्ट होगादिसानिमामिमानादीनि मूलानि न श्लयीकृतानि प्रत्युत परिपोषितानीति सकलधर्मसम्प्रदायमहामानवसमाजमहाप्रासादभित्तिस्थानीयाना मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां चिसपरिकर्मणां शथित्यस्य भारतीयजनतासंघशक्तिप्रध्वंसकरः सम्प्रसारः समजनि ।
ताहि-अस्यामेव प्रमाणमीमांसायां सर्वज्ञसिद्धिप्रसनेन यदुपन्यस्वं , जैनाचार्येण श्रीहेमचन्द्रेण, तदुवाहत्य मदीयवकन्यस्याशयः प्रकटीक्रियते। "प्रथ---
"ज्ञानमप्रतिषं यस्य वैराग्यं च जगत्पतेः ।
ऐश्वर्य चैव धर्मश्च सहसिद्ध चतुश्चयम् ॥ इति वचनात् सर्वज्ञत्वमीश्वरादीनामस्तु, मानुषस्य तु कस्यचिद् विद्याचरणवतोऽपि तद्सम्भावनीयम् , यत्कुमारिल:......
अथाऽपि वेददेहत्वाद् प्रभविष्णुमहेश्वराः ।
कामं भवन्तु सर्वज्ञाः सार्वश्य मानुषस्य किम् ॥" इति; आः ! सर्वज्ञापलापपातकिन् ! दुर्वदवादिन् ! मानुषत्वनिन्दार्थवादापदेशेन देवाधिदेवानषिक्षिपसि ! ये हि जन्मान्तरार्जितोजितपुण्यपागभाराः सुरभवभवमनुपमं सुखमनुम्य दुःखपहमनमखिलं जीवलोकमुदिधीपको नरकेम्वपि क्षणं क्षिप्तसुखासिकामृतवटयो मनुष्यलोकमक्तेरुः जन्मसमयसमकालचलितासनसकलसुरेन्द्रवन्दविहित जन्मोत्सवाः किरायमाणसुरसमूहाहमहमिकारज्यसेवाविषयः स्वयमुश्नतामतिपाज्यसाम्राज्यश्रियं तृणवदक्धूय समतृणमणिशत्रुमित्र
यो निअप्रभावप्रशमितेतिमरकादिजगदुपदवाः शुक्लध्यानानलनिर्दग्धघाविकर्माण आविर्भूतनिखिलभावाभावस्वभावावमासिकेवलबलदलितसकलजीवलोकमोहपसराः सुरासुरविनिम्मिता समवसरणभुवमधिष्ठाय स्वस्वभाषापरिणामिनीभिर्वाग्भिः प्रवर्तितधर्मतीर्थाश्चतुस्त्रिंशदतिशयमयी तीर्थ
PHURA
S
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
भूमिका नाथत्वलक्ष्मीमुपभुज्य परं ब्रह्म सततानन्दं सकलकर्मनिर्मोशमुपेयिवांसस्तान् मानुषत्वादिसाषारणधर्मोपदेशेनापवदन् सुमेहमपि लेष्टवादिना साधारणीकर्तुं पार्थिवत्वेनापवदेः ! । किश, अनवरतवनिताअसम्भोगदुर्ललितवृत्तीना विविधहेतिसमूहधारिमामक्षमालाथायत्तमनःसंयमानां रागद्वेषमोहकलुषितानां ब्रह्मादीनां सर्ववित्त्वसाम्राज्यम् !, यदवदाम स्तुती
"मदेन मानेत मनोभवेन, क्रोधेन लोमेन ससम्मदेन ।
पराजितानां प्रसमं सुराणा, पृथैव साम्राज्यरुजा परेषा । (पृ०१२-१३) एकमेव विरोधिसम्प्रदायान्तरप्रधानतमपुरुषापवर्षप्रतिपादकप्रबन्धाः कुमारिलमालाशान्तरक्षितप्रभृतिभिस्तक्षसम्प्रदायपरमाचाथैरपि स्वस्वरचितेषु दार्शनिकग्रन्थेषु लिखिताः समुपलभ्यन्ते शतशः प्रधाः; तथाहि--- बुद्धसर्वज्ञतानिराकरणप्रस्तावे श्लोकवार्तिके स्वयमेवोक्तं श्रीमद्धिः कुमारिलभ है:
"नचापि स्मृत्यविच्छेदात् सर्वज्ञः परिकस्यते ।
विगानाच्छिन्नमूलस्वात् कैश्चिदेव परिग्रहात् ५५ विस्तरभयात् अन्येषामपि सम्प्रदायाचार्याणामेताइशभाषणानि आकरेषु सहस्रशः समुपलभ्यमानानि नात्रोदाहृतानि ।
तदस्या "प्रमाणमीमांसायां" परमतनिराकरणनिर्वन्वातिशयद्योतिका पाकनी शैली फुटवर प्रतीयमानापि शारदपौर्णमासीसुधाकरे समुभासितकलङ्करेखेव उदारमतिमिः शिवः सोदम्या भवतु मा वा नैतावता गया न्यस्य महाप्रयोजन केनापि प्रत्याख्यातूं शक्यते । अत्र च आहेतसिद्धान्तानां सुनिपुणदार्शनिकप्रणाच्या यथा सूक्ष्मतया संक्षिप्ततया च विश्लेषणं विहित तथा अन्यत्र दुरवापमिति हि निर्विप्रतिपतिकः प्रेक्षावता निर्णयः । तदनुसारेणैव च काशीहिन्दविश्वविद्यालयीय प्राच्यविद्या विभागान्तर्गतजैनदर्शनशासप्रधानाध्यापकेन दार्शनिकपवरेण पण्डितप्रकाण्डेन श्रीमता सुखलालजैनमहोदयेन हिन्दीभाषामयीमे का मनोरमा विवृति रिचय तया सह "प्रमाणमीमांसा" मुद्रणेन प्रकाश नीता । अस्यां वितौ श्रीमता जैनमहोदयेन प्रमाणमीमांसायामालोचिताना सिद्धान्तानां सम्यकपरिचयोपयोगिनो बहवो दार्शनिका ऐतिहासिकाश्च ज्ञातव्या विषयाः समवतारिताः, तान् विलोक्य सजातो मे नितरां सन्तोषः । जैनाभ्युपगतसर्वज्ञतावादाद बौद्धाभिमतसर्वज्ञतावादस्य लक्षण्यं तथा चौद्धजैनाभ्युपगतसर्वज्ञतावादतो नैयायिकवेदान्तिमीमांसकाभिमतसर्वज्ञतावादानां सारूप्यं वैरूप्यं च इत्येवमादेनिर्णय. प्रसोन श्रीमता सुखलालजैनमहोदयेन यो विचारपूर्वकनिष्कर्षः प्रदर्शितस्तेनास्य विचारशैली, ऐतिहासिकता, कल्पनाकुशलता च सर्वथा सहृदयानां प्रेशावतां मनांसि सन्तोषयिष्यति एवेति में सुहढो विश्वासः ।
एतादृशहिन्दीभाषामयविवृत्या सह जैन सिद्धान्तमन्थमून्यां जैनाचार्यहेमचन्द्रविरचितां प्रमाणमीमांसां विशुद्धतया सर्वसौष्ठवोपेततया च 'मुदापयित्वा प्रकाशयता पण्डितवर्येण श्रीमता सुखलालजैनमहोदयेन जैनदर्शनतत्त्वबुभुत्सूनां सहृदयानां कृतो महानुपकार इति सर्वथायं धन्यपादमस्तीति सविनयं निवेदयलि
श्रीप्रमथनाथवर्कभूषणशर्मा।
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
ग्रन्यपरिचय।
१ आभ्यन्तर स्वरूप । प्रस्तुत अन्य प्रमाणमीमांसा का ठीक-ठीक और वास्तविक परिचय पाने के लिये यह अनिवार्य रूप से जरूरी है कि उसके भाभ्यन्तर और बाह्य स्वरूप का स्पष्ट विश्लेषण किया जाय तथा जैन तर्क साहित्य में और तदद्वारा तार्किक दर्शन साहित्य में प्रमाणमीमांसा का क्या स्थान है, यह भी देखा जाय ।
आचार्य ने जिस दृष्टि को लेकर प्रमाणमीमांसा का प्रणयन किया है और उसमें प्रमाण, प्रमाता, प्रमेय आदि जिन तत्वों का निरूपण किया है उस दृष्टि और उन तत्वों के हार्द का स्पष्टीकरण करना यही ग्रन्थ के माभ्यन्तर स्वरूप का वर्णन है। इसके वास्ते यहां नीचे लिखे चार मुख्य मुद्दों पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया जाता है .....१. जैन दृष्टि का स्वरूप, २. जैन दृष्टि की अपरिवर्तिष्णुता, ३. प्रमाण शक्ति की मर्यादा, ४. प्रमेय प्रदेशका विस्तार |
१जैन दृष्टि का स्वरूप भारतीय दर्शन मुख्यतया दो विभागों में विभाजित हो जाते हैं कुछ तो हैं वास्तववादी और कुछ है अवास्तववादी । जो स्थूल अर्थात् लौकिक प्रमाणगम्य जगत् को भी वैसा ही वास्तविक मानते हैं जैसा सूक्ष्म लोकोतर प्रमाणगम्य जगत को अर्थात् जिनके मतानुसार व्यावहारिक और पारमार्थिक सत्य में कोई भेद नहीं; सत्य सब एक कोटि का है चाहे मात्रा न्यूनाधिक हो अर्थात् जिनके मतानुसार भान चाहे न्यूनाधिक और स्पष्ट-अस्पष्ट हो पर प्रमाण मात्र में भासित होनेवाले सभी स्वरूप वास्तविक है, तथा जिनके मतानुसार वास्तविक रूप भी वाणीप्रकाश्य हो सकते हैं-वे दर्शन वास्तववादी हैं। इन्हें विधिमुख, हदमित्यवादी या एवंवादी भी कह सकते हैं-जैसे चार्वाक, न्याय-वैशेषिक, पूर्वमीमांसा, सांख्य-योग, वैभाषिकसौत्रान्तिक बौद्ध और माध्यादि वेदान्त ।
जिनके मतानुसार बा इश्य जगत् मिथ्या है और आन्तरिक जगत् ही परम सत्य है। अर्थात् जो दर्शन त्य के व्यावहारिक और पारमार्थिक अथवा सांकृतिक और वास्तविक ऐसे दो भेद करके लौकिक प्रमाणगम्य और वाणीप्रकाश्य भावको अवास्तविक मानते हैं-वे
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
अवास्तवादी हैं। इन्हें निषेधमुख या अनेवंबादी भी कह सकते हैं। जैसे शन्यवादी-विज्ञानवादी बौद्ध और शाङ्कर वेदान्त आदि दर्शन ।
प्रकृति से अनेकान्तबादी होते हुए भी जैन दृष्टिका स्वरूप एकान्ततः वास्तववादी ही है । क्योंकि उसके मतानुसार भी इन्द्रिजन्य मतिज्ञान आदिमें भासित होनेवाले भावों के सत्यत्व का वही स्थान है जो पारमार्थिक केवलज्ञान में भासित होनेवाले भावों के सत्यत्व का स्थान है अर्थात् जनशतानुसार दोनों सत्य की मात्रामें अन्तर है, योग्यता व गुण में नहीं । केवलज्ञान में द्रव्य और उनके अनन्त पर्याय जिस यथार्थता से जिस रूप से भासित होते हैं उसी यथार्थता और उसी रूपसे कुछ द्रय और उनके कुछ ही पर्याय मति आदि ज्ञान में भी भासित हो सकते हैं । इसी जैन दर्शन अनेक सूक्ष्मतम भावों की अनिर्वचनीयता को मानता हुआ भी निर्वचनीय भावों को यथार्थ मानता है । जब कि शून्यवादी और शाबर वेदान्त आदि ऐसा नहीं मानते।
२. जैन दृष्टि की अपरिवर्तिष्णुता जैन दृष्टि का जो वास्तववादिस्व स्वरूप ऊपर बतलाया गया यह इतिहास के प्रारम्भ से अब तक एक ही रूप में रहा है या उसमें कभी किसी के द्वारा थोड़ा बहुत परिवर्तन हुआ है, यह एक बड़े महत्व का प्रश्न है। इसके साथ ही दुसरा प्रश्न यह होता है कि अगर जैन दृष्टि सदा एकसी स्थितिशील रही और बौद्ध वेदान्त दृष्टि की तरह उसमें परिवर्तन या चिन्तन विकास नहीं हुआ तो इसका क्या कारण है।
__ भगवान महावीर का पूर्व समय जबसे थोड़ा बहुत भी जैन परम्परा का इतिहास पाया जाता है तबसे लेकर आज तक जैन दृष्टि का वास्तववादित्व स्वरूप बिलकुल अपरिवर्तिष्णु या ध्रुव ही रहा है। जैसा कि न्याय वैशेषिक, पूर्व मीमांसक, सांस्य-योग आदि दर्शनों का भी वास्तववादित्व अपरिवतिष्णु रहा है। बेशक न्याय वैशेषिक आदि उक्त दर्शनों की तरह जैन दर्शन के साहित्य में भी प्रमाग प्रमेय आदि सब पदार्थों की व्याख्याओं में, लक्षणप्रणयन में
और उनकी उपपत्ति में उत्तरोत्तर सूक्ष्म और सूक्ष्मतर विकास तथा स्पष्टता हुई हैं, यहां तक कि नव्यन्याय के परिष्कार का आश्रय लेकर भी यशोविजय जी जैसे जैन विद्वानों ने व्याख्या एवं लक्षणों का विश्लेषा किया है फिर भी इस सारे ऐतिहासिक समय में जैन दृष्टि के वास्तववादित्य स्वरूप में एक अंश भी फर्क नहीं पड़ा है जैसा कि बौद्ध और वेदान्त परंपरा में हम पाते हैं।
बौद्ध परंपरा शुरू में वास्तववादी ही रही । पर महायान की विज्ञानवादी और शुन्ययादी शाखा ने उसमें आमूल परिवर्तन कर डाला ! उसका वास्तववादित्व ऐकान्तिक अवास्तववादिख में बदल गया । यही है बौद्ध परंपरा का दृष्टि परिवर्तन । वेदान्त परम्परा में भी ऐसा ही हुआ। उपनिषदों और ब्रह्मसूत्र में जो अवास्तववादित्व के अस्पष्ट बीज थे और जो वास्तवयादित्व के स्पष्ट सूचन घे उन सबका एक मात्र अवास्तववादित्व अर्थ में तात्पर्य बतलाकर शङ्कराचार्य ने वेदान्त में अवास्तववादित्व की स्पष्ट स्थापना की जिसके ऊपर आगे जाकर
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
R RRRRRiShTRUMEShanisonakal
andesastmashettrakormatitiseasonieshstainedhiltistatuwansinossicRR
आभ्यन्तर स्वरूप दृष्प्रिसृष्टिबाद आदि अनेक रूपों में और भी दृष्टि परिवर्तन व विकास हुआ। इस तरह एक तरफ बौद्ध और बेदान्त दो परम्पराओं की दृष्टिपरिवतिष्णुता और बाकी के सब दर्शनों की दृष्टि-अपरिवर्तिणुता हमें इस भेद के कारणों की खोज की ओर प्रेरित करती है ।
स्थूल जगत् को असत्य या व्यावहारिक सत्य मानकर उससे भिन्न आन्तरिक जगत् को ही परम सत्य मानने वाले अवास्तववाद का उद्गम सिर्फ तभी संभव है अब कि विश्लेषण क्रिया की पराकाष्ठा-आत्यन्तिकता हो या समन्वय की पराकाष्ठा हो । हम देखते हैं कि यह योग्यता नीड़ परा और दाल के सिवाय अन्य किसी दार्शनिक परम्परा में नहीं है। बुद्ध ने प्रत्येक स्थूल सूक्ष्म भाव का विश्लेषण यहां तक किया कि उसमें कोई स्थायी द्रव्य जैसा तत्व शेष न रहा । उपनिषदों में भी सब मेदों का-विविधताओं का समन्वय एक ब्रम-स्थिर तत्त्व में विश्रान्त हुआ । भगवान बुद्ध के विश्लेषण को आगे जा कर उनके सूक्ष्मप्रज्ञ शिष्यों ने यहां तक विस्तृत किया कि अन्त में व्यवहार में उपयोगी होने वाले अखण्ड द्रव्य या द्रव्यभेद सर्वथा नाम शेष हो गए। और क्षणिक किन्तु अनिर्वचनीय परम सत्य ही शेष रहा । दुसरी ओर शङ्कराचार्य ने औपनिषद परम अम की समन्वय भावना को यहां तक विस्तृत किया कि अन्त में भेदप्रधान व्यवहार जगत नामशेष या मायिक ही होकर रहा। बेशक नागार्जुन और शङ्कराचार्य जैसे ऐकान्तिक विश्लेषणकारी या ऐकान्तिक समन्वयकर्ता न होते तो इन दोनो परम्पराओं में व्यावहारिक और परम सत्य के भेद का आविष्कार न होता । फिर भी हमें भूलना न चाहिए कि अवास्तववादी दृष्टि की योग्यता बौद्ध और वेदान्त परंपरा की भूमिका में ही निहित रही जो न्याय वैशेषिक आदि वास्तववादी दर्शनों की भूमिका में बिलकुल नहीं है । न्याय-वैशेषिक, मीमांसक और सांख्य योग दर्शन केवल विश्लेषण ही नहीं करते बक्षिक समन्वय भी करते हैं उनमें विश्लेषण और समन्बय दोगों का समप्राधान्य तथा समानबलत्व होने के कारण दोनों में से कोई एक ही सत्य नहीं है अतएव उन दर्शनों में अवास्तववाद के प्रवेश की न योग्यता है और न संभव ही है । अतएव उनमें नामार्जुन शडराचार्य आदि जैसे अनेक सूक्ष्मप्रज्ञ विचारक होते हुए भी वे दर्शन वास्तववादी ही रहे । यही स्थिति जैन दर्शन की भी है। जैन दर्शन द्रव्य द्रव्य के बीच विश्लेषण करते करते अन्त में सूक्ष्मतम पर्यायों के विश्लेषण तक पहुँचता है सही, पर यह विश्लेषण के अन्तिम परिणाम स्वरूप पर्यायों को वास्तविक मान कर भी द्रव्य की वास्तविकता का परित्याग बौद्ध दर्शन की तरह नहीं करता । इसी तरह वह पर्यायों और द्रव्यों का समन्वय करते करते एक सत् तत्त्व तक पहुँचता है और उसकी वास्तविकता का स्वीकार करके भी विश्लेषण के परिणाम स्वरूप द्रव्य भेदों और पर्यायों की वास्तविकताका परित्याग, ब्रह्मवादी दर्शन की तरह नहीं करता। क्योकि वह पर्यायाधिक और द्रव्याथिक दोनों हटिओं को सापेक्ष भाव से तुल्यबल
और समान सत्य मानता है । यही सबब है कि उसमें भी न बौद्ध परंपरा की तरह आत्यन्तिक विश्लेषण हुआ और न वेदान्त परंपस की तरह आत्यन्तिक समन्वय । इसीसे जैन दृष्टि का वास्तववादिल स्वरूप स्थिर ही रहा ।
JLURALIAuranewsnealinsani
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
४
प्रस्तावना
३. प्रमाण शक्ति की मर्यादा
विश्व क्या वस्तु है, वह कैसा है, उसमें कौनसे कौनसे और कैसे-कैसे तत्त्व हैं, इत्यादि प्रभोंका उत्तर तत्त्वचिन्तकों ने एक ही प्रकार का नहीं दिया । इसका सबब यही है कि इस उत्तरका आधार प्रमाण की शक्तिपर निर्भर है और तत्वचिन्तकों में प्रमाण की शक्तिके बारे में नाना मत है। भारतीय तत्वचिन्तकों का प्रमाणशक्तिके तारतम्य संबंधी मतभेद संक्षेपमें पांच पक्षों में विभक्त हो जाता है- १ इन्द्रियाधिपत्य, २ अनिन्द्रियाधिपत्य, ३ उभयाधिपत्य, ४ आगमाधिपत्य और ५ प्रमाणोपलव ऐसे पांच पक्ष हैं ।
१. जिस पक्ष का मन्तव्य यह है कि प्रमाण की सारी शक्ति इन्द्रियों के ऊपर ही अब लम्बित है, मन खुद इन्द्रियों का अनुगमन कर सकता है पर वह इन्द्रियों की मदद के सिवाय कहीं भी अर्थात् जहाँ इन्द्रियों की पहुँच न हो वहाँ कभी प्रवृत हो कर सच्चा ज्ञान पैदा कर ही नहीं सकता । सचे ज्ञान का अगर संभव है वो इन्द्रियोंके द्वारा ही, वह इन्द्रि
face पक्ष | इस पक्ष में चार्वाक दर्शन ही समाविष्ट है। यह नहीं कि चार्वाक अनुमान या शब्द व्यवहाररूप आगम आदि प्रमाणों को जो प्रतिदिन सर्वसिद्ध व्यवहार की वस्तु है, उसे न मानता हो, फिर भी चार्वाक अपनेको प्रत्यक्षमात्रवादी - इन्द्रियप्रत्यक्षमात्रवादी कहता है; इसका अर्थ इतना ही है कि अनुमान, शब्द आदि कोई भी लौकिक प्रमाण क्यों न हो पर उका माषाण इन्मियक्ष के वाद के सिवाय कभी संभव नहीं । अर्थात् इन्द्रियप्रत्यक्ष से बाधित नहीं ऐसा कोई भी ज्ञानयापार अगर प्रमाण कहा जाय तो इसमें चार्वाक को आपति नहीं ।
"ह
२. अनिन्द्रिय के अन्तःकरण- मन, चित और आत्मा ऐसे तीन अर्थ फलित होते हैं जिनमें से चित्तरूप अनिन्द्रियका आधिपत्य माननेवाला अनिन्द्रियाधिपत्य पक्ष है । इस पक्ष भें विज्ञानवाद, शुन्यवाद, और शाहर वेदान्त का समावेश है । इस पक्ष के अनुसार यथार्थ ज्ञान का संभव विशुद्धचित्त के द्वारा ही माना जाता है । यह पक्ष इन्द्रियों की सत्यज्ञानजनन शक्ति का सर्वथा इन्कार करता है और कहता है कि इन्द्रियाँ वास्तविक ज्ञान कराने में पंगु दी नहीं afer धोखेबाज भी अवश्य हैं। इसके मन्तव्य का निष्कर्ष इतना ही है कि चिच, खासकर ध्यानशुद्ध साविक चिरा से बाधित या उसका संवाद प्राप्त न कर सकने वाला कोई ज्ञान प्रमाण हो ही नहीं सकता, चाहे वह भले ही लोकव्यवहार में प्रमाणरूपसे माना जाता हो ।
३. उभयाधिपत्य पक्ष वह है जो चार्वाक की तरह इन्द्रियों को ही सब कुछ मानकर इन्द्रिय निरपेक्ष मन का असामध्ये स्वीकार नहीं करता और न इन्द्रियों को पंगु या धोखेबाज मानकर केवल अनिन्द्रिय या चित्रा का ही सामर्थ्य स्वीकार करता है। यह पक्ष मानता है कि चाहे मनकी मदद से ही सही पर इन्द्रियाँ गुणसंपन्न हो सकती हैं और वास्तविक ज्ञान पैदा कर सकती हैं। इसी तरह यह पक्ष मानता है कि इन्द्रियों की मदद जहाँ नहीं है वहाँ भी अनिन्द्रिय यथार्थ ज्ञान करा सकता है। इसीसे इसे उभयाचिपत्य पक्ष कहा है। इसमें सांख्ययोग, न्याय-वैशेषिक, मीमांसक, आदि दर्शनों का समावेश है। सांख्ययोग इन्द्रियों
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
peedia
PhommissnAI
NARREARS
आभ्यन्तर स्वरूप का साद्गुण्य मानकर भी अन्तःकरण की स्वतन्त्र यथार्थशक्ति मानता है। न्याय-वैशेषिक आदि भी मन की वैसी ही शक्ति मानते हैं पर फर्क यह है कि सांख्य-योग आत्मा का स्वतन्त्र प्रमाणसामर्थ्य नहीं मानते क्योंकि वे प्रमाणसामर्थ्य बुद्धि में ही मानकर पुरुष या चेतन को निरतिशय मानते हैं। जब कि न्याय-वैशेषिक आदि चाहे ईश्वर के आत्मा का ही सही पर
आत्मा का स्वतन्त्र प्रमाण सामर्थ्य मानते हैं। अर्थात् वे शरीर-मन का अभाव होने पर भी ईश्वर में ज्ञान शक्ति मानते हैं। वैभाषिक और सौत्रान्तिक भी इसी पक्ष के अन्तर्गत हैं। क्योंकि वे भी इन्द्रिय और मन दोनों का प्रमाणसामर्थ्य मानते हैं।
५. आगमाधिपत्य पक्ष वह है जो किसी न किसी विषय में आगम के सिवाय किसी इन्द्रिय या अनिन्द्रिय का प्रमाणसामर्थ्य स्वीकार नहीं करता। यह पक्ष केवल पूर्व मीमांसक का ही है । यद्यपि वह अन्य विषयों में सांख्य-योगादि की तरह उभयाधिपत्य पक्ष का ही अनुगामी है फिर भी धर्म और अधर्म इन दो विषयों में वह आगम मात्र का ही सामर्थ्य मानता है। यद्यपि वेदान्त के अनुसार ब्रह्म के विषय में आगम का ही प्राधान्य है फिर भी वह आगमाधिपत्य पक्ष में इसलिये नहीं आ सकता कि ब्रह्म विषय में ध्यानशुद्ध अन्तःकरण का भी सामर्थ्य उसे मान्य है।
५. प्रमाणोपप्लव पक्ष वह है जो इन्द्रिय, अनिन्दिय या आगम किसी का सागुण्य या सामर्थ्य स्वीकार नहीं करता । वह मानता है कि ऐसा कोई साधन गुणसंपन्न है ही नहीं जो अबाधित ज्ञान की शक्ति रखता हो । सभी साधन उसके मत से पंगु या विप्रलम्भक हैं। इसका अनुगामी तत्त्वोपलववादी कहलाता है जो आखिरी हद का चार्वाक ही है। यह पक्ष जयराशिकृत. तत्त्वोपलय में स्पष्टतया प्रतिपादित हुआ है।
उक्त पाँच में से तीसर! उभयाधिपत्य पक्ष ही जैन दर्शन का है | क्योंकि वह जिस तरह इन्द्रियों का स्वतन्त्र सामर्थ्य मानता है इसी तरह वह अनिन्द्रिय अर्थात् मन और आत्मा दोनों का अलग अलग भी स्वतन्त्र सामथ्र्य मानता है। आत्मा के स्वतन्त्र सामर्थ्य के विषय में न्याय-वैशेषिक आदि के मन्तव्य से जैन दर्शन के मन्तव्य में फर्क यह है कि जैन दर्शन सभी आत्माओं का स्वतन्त्र प्रमाणसामर्थ्य वैसा ही मानता है जैसा न्याय आदि ईश्वर मात्र का । जैन दर्शन प्रमाणोपप्लव पक्ष का निराकरण इस लिये करता है कि उसे प्रमाणसामर्थ्य अवश्य इष्ट है। वह चार्वाक के प्रत्यक्षमात्र बाद का विरोध इस लिये करता है कि उसे अनिन्द्रिय का भी प्रमाणसामर्थ्य इष्ट है। वह विज्ञान, शुन्य और ब्रह्मा इन तीनों वादों का निरास इस लिये करता है कि उसे इन्द्रियों का प्रमाणसामर्थ्य भी मान्य है। वह आगमाधिपत्य पक्षका भी विरोधी है, सो इसलिये कि उसे धर्माधर्म के विषय में अनिन्द्रिय अर्थात् मन और आत्मा दोनों का प्रमाणसामर्थ्य इष्ट है।
४. प्रमेय प्रदेशका विस्तार जैसी प्रमाणशक्ति की मर्यादा वैसा ही प्रमेय का क्षेत्र विस्तार अतएव मात्र इन्द्रियसामर्य माननेवाले चार्वाक के सामने सिर्फ स्थूल या दृश्य विश्वका ही प्रमेय क्षेत्र रहा, जो एक
BARSHHHHHHEMORERASA
n ititantianthinthiactite::...:.:.12424
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
या दूसरे रूपमें अनिन्द्रिय प्रमाण का सामर्थ्य माननेवालों की दृष्टि में अनेकघा विस्तीर्ण हुआ। अनिन्द्रिय सामर्थ्यवादी कोई क्यों न हो पर सबको स्थूल विश्व के अलावा एक सूक्ष्म विश्व भी नजर आया । सूक्ष्म विश्व का दर्शन उन सबका बराबर होने पर मी उनकी अपनी जुदीजुदी कल्पनाओं के तथा परंपरागत मिन्न-भिन्न कल्पनाओं के आधार पर सूक्ष्म प्रमेय के क्षेत्र में भी अनेक मत व संप्रदाय स्थिर हुए जिनको हम अति संक्षेप में दो विभागों में बाँटकर समझ सकते हैं। एक विभाग तो वह जिसमें जड़ और चेतन दोनों प्रकार के सूक्ष्म तत्त्वों को माननेवालों का समावेश होता है। दूसरा बह जिसमें केवल चेतन या चैतन्य रूप ही सूक्ष्म तत्व को माननेवालों का समावेश होता है। पाश्चात्य तत्वज्ञानकी अपेक्षा भारतीय तत्त्वज्ञान में यह एक ध्यान देने योग्य भेद है कि इसमें सूक्ष्म प्रमेयतत्व माननेवाला अभी तक ऐसा कोई नहीं हुआ जो स्थूल भौतिक विश्व की तह में एकमात्र सूक्ष्म जड़तत्व ही मानता हो और सूक्ष्म जगत् में चेतन तत्वका अस्तित्व ही न मानता हो। इसके विरुद्ध ऐसे तत्वह भारत में होते आये हैं जो स्थूल विश्व के अन्तस्तल में एक मात्र चेतन तत्व का सूक्ष्म जगत मानते हैं। इसी अर्थ में भारत को चैतन्यवादी समझना चाहिए। भारतीय तत्त्वज्ञान के साथ पुनर्जन्म, कर्मवाद और बन्ध-मोक्ष की धार्मिक या आचरण लक्षी कल्पना भी मिली हुई है जो सूक्ष्म विश्व माननेवाले सभी को निर्विवाद मान्य है और सभीने अपने-अपने तत्त्व ज्ञान के ढांचे के अनुसार चेतन सस्वके साथ उसका मेल बिठाया है । इन सूक्ष्म तत्वदर्शी परंपराओं में मुख्यतया चार धाव ऐसे देखे जाते हैं, जिनके बल पर उस-उस परंपरा के आचार्यों ने स्थूल और सूक्ष्म विश्वका संबंध बतलाया है या कार्य कारण का मेल बिठाया है। वे वाद ये हैं-१ आरंभवाद, २ परिणामबाद, ३ प्रतीत्यसमुत्पादबाद और ४ विवर्ववाद ।
आरम्भवाद के संक्षेप में चार लक्षण हैं--(१) परस्पर भिन्न ऐसे अनन्त मूल कारणों का स्वीकार, (२) कार्य और कारण का आत्यन्तिक भेद, (३) कारण नित्य हो या अनित्य पर कार्योत्पत्ति में उसका अपरिणामी ही रहना, (४) अपूर्व अर्थात् उत्पत्ति के पहिले असत् ऐसे कार्य की उत्पत्ति या किञ्चित्कालीन सचा।
परिणामवाद के लक्षण ठीक आरंभवाद से उलटे हैं--(१) एफ ही मूल कारण का स्वीकार, (२) कार्यकारण का बास्तविक अभेद, (३) नित्य कारण का भी परिणामी होकर ही रहना तथा प्रवृत्त होना, (४) कार्य मात्र का अपने-अपने कारण में और सब कार्यों का मूल कारण में तीनों काल में अस्तित्व अर्थात् अपूर्व वस्तु की उत्पत्ति का सर्वथा इन्कार ।
प्रतीत्यसमुत्पाद बाद के तीन लक्षण हैं--(१) कारण और कार्य का आत्यन्तिक भेद, (२) किसी भी नित्य या परिणामी कारण का सर्वथा अस्वीकार, (३) और प्रथम से असत् ऐसे कार्यमात्र का उत्पाद ।
विवर्तवाद के तीन लक्षण ये हैं--(१) किसी एक पारमार्थिक सत्य का स्वीकार जो न उत्पादक है और न परिणामी, (२) स्थूल या सूक्ष्म भासमान जगत् की उत्पत्ति का या
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
a
ne...
Rachnast
आभ्यान्तर वरूप
मा
।
a lwwsaikianimashantwalise
Beegener
उसे परिणाम मानने का सर्वथा निषेध, (३) स्थूल जगत् का अवास्तविक या काल्पनिक अस्तित्व अर्थात् मायिक भासमात्र ।
. १ आरंभवाद- इसका मन्तव्य यह है कि परमाणुरूप अनन्त सूक्ष्म तत्त्व जुदे-जुदे हैं जिनके पारस्परिक संबंधोंसे स्थूल भौतिक जगत् का नया ही निर्माण होता है जो फिर सर्वथा नष्ट भी होता है । इसके अनुसार वे सूक्ष्म आरंभक सत्य अनादि निधन हैं, अपरिणामी है । अगर फेर फार होता है तो उनके गुणधर्मों में ही होता है। इस वाद ने स्थूल भौतिक जगत् का संबंध सूक्ष्म भूत के साथ लगाकर फिर सूक्ष्म चेतनतत्व का भी अस्तित्व माना है। उसने परस्पर भिन्न ऐसे अनन्त चेतन तत्व माने जो अनादिनिधन एवं अपरिणामी ही है। इस वाद ने जैसे सूक्ष्म भूत तत्वों को अपरिणामी ही मानकर उनमें उत्पन्न नष्ट होनेवाले गुण धर्मों के अस्तित्व की अलग कल्पना की वैसे ही चेतन तत्वों को अपरिणामी मानकर भी उनमें उत्पादविनाश-शाली गुण-धर्मों का अलग ही अस्तित्व स्वीकार किया है। इस मतके अनुसार स्थूल भौतिक विश्व का सूक्ष्म भूत के साथ तो उपादानोपादेय भाव संबंध है पर सूक्ष्म चेतन तरव के सय तिर्फ संयोग समय है।
२ परिणामवाद-इसके मुख्य दो भेद हैं ( अ ) प्रधानपरिणामवाद और (ब) ब्रह्मपरिणामवाद ।
(अ) प्रधानपरिणामवाद के अनुसार स्थूल विश्व के अन्तस्तल में एक सूक्ष्म प्रधान नामक ऐसा सत्त्व है जो जुदे जुदे अनन्त परमाणु रूप न होकर उनसे भी सूक्ष्मतम स्वरूप में अखण्ड रूप से वर्तमान है और जो खुद ही परमाणुओं की तरह अपरिणामी न रह कर अनादि अमन्त होते हुए भी नाना परिणामों में परिणत होता रहता है। इस बार के अनुसार स्थूल भौतिक विश्व यह सूक्ष्म प्रधान तत्व के दृश्य परिणामों के सिवाय और कुछ नहीं । इस बाद मैं परमाणुवाद की तरह सूक्ष्म तत्त्व अपरिणामी रह कर उसमें से स्थूल भौतिक विश्व का नया निर्माण नहीं होता । पर वह सूक्ष्म प्रधान तत्व जो स्वयं परमाणु की तरह जड़ ही है, नाना दृश्य भौतिक रूप में बदलता रहता है। इस प्रधान परिणामवाद ने स्थूल विश्व का सूक्ष्म पर जड़ ऐसे एक मात्र प्रधान तत्व के साथ अभेद संबंध लगा कर सूक्ष्म जगत् में चेतन तस्वों का भी अस्तित्व स्वीकार किया। इस वाद के चेतन तत्व आरभवाद की तरह अनन्त ही हैं पर फर्क दोनों का यह है कि आरंभवाद के चेतन सत्व अपरिणामी होते हुए भी उत्पाद विनाश वाले गुण-धर्म युक्त है जब कि प्रधानपरिणामवाद के चेतन तत्र ऐसे गुणधर्मों से युक्त नहीं । वे स्वयं भी कूटस्थ होने से अपरिणामी हैं और निर्मक होने से किसी उत्पादविनाशशाली गुण-धर्म को भी धारण नहीं करते। उसका कहना यह है कि उत्पादविनाशवाले गुणधर्म जय सूक्ष्म भूत में देखे जाते हैं तब सूक्ष्म चेतन कुछ विलक्षण ही होना चाहिए। अगर सूक्ष्म चेतन चेतन हो कर भी वैसे गुण-धर्मयुक्त हो तब जड़ सूक्ष्म से उनका वैलक्षाय क्या रहा है। अतएव वह कहता है कि अगर सूक्ष्म चेतन का अस्तित्व मानना ही है तब तो सूक्ष्य भून की अपेक्षा विलक्षणता लाने के लिये उन्हें न केवल निधर्मक ही मानना
ATTARA
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
Mea
c
उचित है बस्कि अपरिणामी भी मानना जरूरी है। इस तरह प्रधानपरिणामवाद में चेतन तत्व आये पर ये निर्धर्मक और अपरिणामी ही माने गए ।
(ब) ब्रह्मपरिणामवाद जो प्रधानपरिणामवाद का ही विकसित रूप जान पड़ता है उसने यह तो मान लिया कि स्थूल विश्व के मूल में कोई सूक्ष्म तत्व है जो स्थूल विश्व का कारण है । पर उसने कहा कि ऐसा सूक्ष्म कारण जड प्रधान तत्व मान कर उससे भिन्न सूक्ष्म चेतन तत्व भी मानना और वह भी ऐसा कि जो अआगलस्तन की तरह सर्वथा अफिश्चिकिर सो युक्ति संगत नहीं। उसने प्रधानवाद में चेतन तत्व के अस्तित्व की अनुपयोगिता को ही नहीं देखा बरिक चेतन तत्व में अनन्त संख्या की कल्पना को भी अनावश्यक समझा। इसी समझ से उसने सूक्ष्म अगत् की कल्पना ऐसी की जिससे स्थूल जगत की रचना भी घट सके
और अकिश्चित् कर ऐसे अनन्त चेतन तत्वों की निष्प्रयोजन कल्पना का दोष भी न रहे । इसीसे इस वाद ने स्थूल विश्व के अन्तस्तल में जड वेतन ऐसे परस्पर विरोधी दो सत्व न मानकर केवल एक ब्रम नामक चेतन तत्व ही स्वीकार किया और उसका प्रधान परिणाम की तरह परिणाम मान लिया जिससे उसी एक चेतन ब्रह्म तत्त्व में से दूसरे जड चेतनमय स्थूल विश्व का आविर्भावतिरोभाव घट सके। प्रधानपरिणामवाद और ब्रह्मपरिणामशद में फर्क इतना ही है कि पहिले में जड़ परिणामी ही है और चेतन अपरिणामी ही है जब दूसरे में अंतिम सूक्ष्म तत्व एक मात्र चेतन ही है जो स्वयं ही परिणामी है और उसी चेतन में से आगे के जड़ चेतन ऐसे दो परिणाम प्रवाह चले।
३ प्रतीत्यसमुत्पादवाद-यह भी स्थूल भूत के नीचे जड और चेतन ऐसे दो सूक्ष्म तत्त्व मानता है जो क्रमशः रूप और नाम कहलाते हैं। इस वाद के जड और चेतन दोनों सूक्ष्म सत्य परमाणु रूप हैं, आरभवाद की तरह केवल जड़ तस्व ही परमाणु रूप नहीं । इस बाद में परमाणु का स्वीकार होते हुए भी उसका स्वरूप आरंभबाद के परमाणु से बिलकुल भिन्न माना गया है। आरंभवाद में परमाणु अपरिणामी होते हुए भी उनमें गुणधर्मों की उत्पादबिनाश परंपरा अलग मानी जाती है। जब कि यह प्रतीत्यसमुत्पादवाद उस गुणधर्मों की उत्पाद-विनाश परंपरा को ही अपने मत में विशिष्ट रूप से दाल कर उसके आधारभूत स्थायी परमाणु द्रव्यों को बिलकुल नहीं मानता। इसी तरह चेतन तरख के विषय में भी यह बाद कहता है कि स्थायी ऐसे एक या अनेक कोई चेतन तत्व नहीं । अलबत्ता सूक्ष्म जड उत्पाद विनाश शाली परंपरा की तरह दूसरी चैतन्यरूप उत्पादविनाशशाली परंपरा भी मूल में जड से भिन्न ही सूक्ष्म अगत् में विद्यमान है जिसका कोई स्थायी आधार नहीं । इस वाद के परमाणु इसलिये परमाणु कहलाते हैं कि वे सबसे अतिसूक्ष्म और अविभाज्य मात्र है। पर इसलिये परमाणु नहीं कहलाते कि वे कोई अविभाज्य स्थायी द्रव्य हो। यह वाद कहता है कि गुणधर्म रहित कूटस्थ चेतन तत्व जैसे अनुपयोगी है वैसे ही गुणधर्मों का उत्पाद विनाश मान लेने पर उसके आधार रूप से फिर स्थायी द्रव्य की कल्पना करना भी निरर्थक है । अतएस इस वाद के अनुसार सूक्ष्म जगत् में दो धाराएँ फलित होती हैं जो परस्पर बिलकुल भिन्न
ondom CREWSeegsesseoclassesses
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
IIIII.maratiwodaempitmasamisansar
आभ्यन्सर स्वरूप होकर भी एक दूसरे के असर से खाली नहीं । प्रधान परिणाम या श्रम परिणाम बाद से इस बाद में फर्क यह है कि इसमें उक्त दोनों वादों की तरह किसी भी स्थामी द्रव्य का अस्तित्व नहीं माना जाता । ऐसा शंकु या कीलक स्थानीय स्थायी द्रव्य न होते हुए भी पूर्व परिणामक्षण का यह स्वभाव है कि वह नष्ट होते होते दुसरे परिणाम क्षण को पैदा करता ही जायगा। अमर्याद वर परिणाम- निनाशोख पूर्व परिणाम के अस्तित्वमात्र के आश्य से माप ही आप निराधार उत्पन्न हो जाता है। इसी मान्यता के कारण यह प्रतीत्यसमुत्पादबाद फहलासा है। वस्तुतः प्रतीत्यसमुत्पादवाद परमाणुवाद भी है और परिणामवाद भी । फिर भी तारिषक रूप में वह दोनों से भिन्न है ।
४ विवर्तवाद-विवर्तवाद के मुख्य दो भेद है (M) नित्याविवर्त और (ब) क्षणिकविज्ञान विवर्त। दोनों विवर्तवाद के अनुसार स्थूल विश्व यह निरा भासमान या कल्पनामात्र है, जो माया या वासनाजनित है। विवर्तवाद का अभिप्राय यह है कि जगत् या विश्व कोई ऐसी वस्तु नहीं हो सकती जिसमें बाह्य और आन्तरिक या स्थूल और सूक्ष्म सत्त्व अलग अलग और खण्डित हों। विश्व में जो कुछ वास्तविक सत्य हो सकता है वह एक ही हो सकता है क्योंकि विश्व वस्तुतः अलण्ड और अविभाज्य ही है। ऐसी दशा में ओ बाबत्व-आन्तरत्व, इस्वत्व-दीर्घत्व, दुरत्व-समीपत्त्व आदि धर्मद्वन्द्र मालम होते हैं वे मात्र काल्पनिक हैं। अतएव इस बाद के अनुसार लोकसिद्ध स्थूल विश्व केवल काल्पनिक
और पातिमासिक सत्य है। पारमार्थिक सत्य उसकी तह में निहित है जो विशुद्ध ध्यानगम्य होने के कारण अपने असली स्वरूप में प्राकृत जनों के द्वारा प्राश नहीं।।
न्याय-वैशेषिक और पूर्व मीमांसक आरंभवादी है । प्रधानपरिणामवाद सांख्य-योग और चरक का है । ब्रमपरिणामवाद के समर्थक भर्तृपपश्च आदि प्राचीन वेदान्ती और आधुनिक वल्लभाचार्य हैं। प्रतीत्यसमुत्पादवाद बौद्धों का है और विवर्तवाद के समर्थक शाबर वेदान्ती, विज्ञानवादी और शून्यवादी हैं।
ऊपर जिन वादोंका वर्णन किया है उनके उपादानरूप विचारोंका ऐतिहासिक क्रम संभवतः ऐसा जान पड़ता है-शुरू में वास्तविक कार्यकारणभाव की खोज जड़ जगत तक ही रही । वहीं तक वह परिमित रहा । क्रमशः स्थूल के उस पार चेतन तत्व की शोध-कल्पना होते ही दृश्य और जड़ जगत में प्रथम से ही सिद्ध उस कार्यकारणभाव की परिणामिनिस्यता रूप से चेतन तत्व तक पहुँच हुई। चेतन भी जड़ की तरह अगर परिणामिनिस्य हो तो फिर दोनों में मन्तर ही क्या रहा ? इस प्रश्न ने फिर चेतन को कायम रख कर उसमें कूटस्थ नित्यता मानने की ओर तथा परिणामिनिस्यता या कार्यकारणभाव को जड अगत तक ही परिमित रखने की ओर विचारकों को प्रेरित किया। चेतन में मानी जानेवाली कूटस्थ नित्यता का परीक्षण फिर शुरू हुवा । जिसमें से अन्ततोगत्वा केवल कूटस्थ नित्यता ही नहीं परिक जडत परिणामिनित्यता भी लत होकर मात्र परिणमन धारा ही शेष रही। इस पकार एक तरफ आत्यन्तिक विश्लेषण ने मात्र परिणाम या क्षणिकत्व विचार को जन्म दिया
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
तब दूसरी ओर आत्यन्तिक समन्वय बुद्धि ने चैतन्यमात्रपारमार्थिकवाद को जन्माया । समन्वय बुद्धि ने अन्त में चैतन्य तक पहुँच कर सोचा कि जब सर्व व्यापक बैतन्य तस्व है तब उससे भिन्न अड़ तत्त्व की वास्तविकता क्यों मानी जाय ? और जब कोई जड़तत्व अलग नहीं तब यह दृश्यमान परिणमन-धारा भी वास्तविक क्यों ! इस विचार ने सारे भेद और जड़ जगत् को मात्र कारपनिक मनवाकर पारमार्थिक चैतन्यमात्रवाद की स्थापना कराई ।
उक्त विचार क्रम के सोपान इस तरह रखे जा सकते हैं१ जड़ मात्र में परिणामिनित्यता । २ जड़ चेतन दोनों में परिणामिनित्यता । ३ जड़ में परिणामिनिस्यता और चेतन में कूटस्थनित्यता का विवेक । ४ (अ) कूटस्थ और परिणामि दोनों नित्यता का लोप और मात्र परिणामप्रवाह
की सत्यता । (4) केवल कूटस्थ चैतन्य की ही या चैतन्यमात्र की सत्यता और लद्भिन्न सबकी
काल्पनिकता या असत्यता। जैन परम्परा दृश्य विश्व के अलावा परस्पर अत्यन्त भिन्न ऐसे जड़ और चेवन अनन्त सूक्ष्म तत्वों को मानती है । वह स्थूल जगत को सूक्ष्म जड़ तस्यों का ही कार्य या रूपान्तर मानती है । जैन परंपरा के सूक्ष्म जड़ तत्व परमाणुरूप हैं । पर वे आरम्मवाद के परमाणु की अपेक्षा अत्यन्त सूक्ष्म माने गये हैं । परमाणुवादी होकर भी जैन दर्शन परिणामवाद की तरह परमाणुओं को परिणामी मानकर स्थूल जगत को उन्ही का रूपान्तर या परिणाम मानता है । वस्तुतः जैन दर्शन परिणामबादी है। पर सांख्य योग तथा प्राचीन वेदान्त आदि के परिणामवाद से जैन परिणामवाद का खास अन्तर है । वह अन्तर यह है कि सांख्य योग का परिणामवाद चेतन तत्व से मस्पृष्ट होने के कारण जड़ तक ही परिमित है और भर्तृप्पश्च आदि का परिणामवाद मात्र चेतनतस्वस्पर्शी है। जब कि जैन परिणामवाद जड़-चेतन, स्थूलसूक्ष्म समन वस्तुस्पर्शी है अतएव जैन परिणामवाद को सर्वव्यापक परिणामयाद समझना चाहिए । भर्तमपञ्चका परिणामवाद भी सर्व व्यापक कहा जा सकता है फिर भी उसके और जैन के परिणामवाद में अन्तर यह है कि भर्तृप्रपञ्च का 'सर्व' चेतन अशमात्र है तद्भिन्न और कुछ नहीं। जब कि जैन का 'सर्व' अनन्त जड़ और चेतन तत्त्वों का है। इस तरह आरम्भ
और परिणाम दोनों वादों का जैन दर्शन में व्यापकरूप में पूरी स्थान तथा समन्वय है । पर उसमें प्रतीत्यसमुत्पाद तथा विवर्सवाद का कोई स्थान नहीं है। वस्तुमात्र को परिणामी निल्य और समानरूप से वास्तविक सत्य मानने के कारण जैनदर्शन प्रतीत्यसमुत्पाद तथा विवर्तवाद का सर्वथा विरोध ही करता है जैसा कि न्याय वैशेषिक सांख्य योग आदि भी करते हैं । न्याय-वैशेषिक सांस्य-योग आदि की तरह जैन दर्शन चेतनबहुत्ववादी है सही, पर उसके चेतन सत्व अनेक दृष्टि से भिन्न स्वरूप वाले हैं। जैन दर्शन न्याय, सांरूप, आदि की तरह चेतन को न सर्वव्यापक द्रव्य मानता है और न विशिष्टाद्वैत भादि की तरह अणु
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
बास स्वरूप
मात्र ही मानता है और बौद्ध दर्शन की तरह ज्ञान की निद्रव्यकधारामात्र । जैनाभिमत समय चेतन तत्व मध्यम परिमाण वाले और संकोच-विस्तारशील होने के कारण इस विषय में बड़ द्रव्यों से अत्यन्त विलक्षण नहीं । न्याय-वैशेषिक और योगदर्शन मानते हैं कि आत्मत्व या चेतनत्व समान होने पर भी जीवात्मा और परमात्माके बीच मौलिक भेद है अर्थात् जीवात्मा कभी परमात्मा या ईश्वर नहीं और परमात्मा सदा से ही परमात्मा या ईश्वर है कभी जीव-- बन्धनवान नहीं होता । जैन दर्शन इससे बिलकुल उल्टा मानता है ताकि वेदान्त आदि मानते हैं । वह कहता है कि जीवात्मा और ईश्वर का कोई सहज भेद नहीं। सब जीवात्माओं में परमात्मशक्ति एक-सी है जो साधन पाकर व्यक्त हो सकती है और होती भी है । अलबत्ता जैन और वेदान्त का इस विषय में इतना अन्तर अवश्य है कि बेदान्त एकपरमात्म्बादी है जब जैनदर्शन चेतन बहुत्ववादी होने के कारण तात्त्विकरूप से बहुपरमात्मवादी है।
जैन परम्परा के तस्वप्रतिपादक प्राचीन, अर्वाचीन, प्राकृत, संस्कृत कोई भी ग्रन्ध क्यों न हो पर उन सबमें निरूपण और वर्गीकरण प्रकार भिन्न भिन्न होने पर भी प्रतिपादक दधि और प्रतिपाद्य प्रमेय, प्रमाता आदि का स्वरूप वही है जो संक्षेप में ऊपर स्पष्ट किया गया। 'प्रमाणमीमांसा' भी उसी जैन दृष्टि से उन्ही जैन मन्तव्यों का हार्द अपने ढंग से प्रगट करती है।
fotockassion
$ २. बाह्य स्वरूप। प्रस्तुत 'प्रमाणमीमांसा' के बाल स्वरूप का परिचय निम्न लिखित मुद्दों के वर्णन से हो सकेगा--शैली, विभाग, परिमाण, और भाषा ।
प्रमाणमीमांसा सूत्रशैली का ग्रन्थ है। वह कणाद सूत्रों या तत्त्वार्थ सूत्रों की तरह न दश अध्यायों में है, और न जैमिनीय सूत्रों की तरह बारह अध्यायों में । बादरायण सूत्रों की तरह बार अध्याय भी नहीं और पातञ्जल सूत्रों की तरह मात्र चार पाद ही नहीं। वह अक्षपाद के सूत्रों की तरह पांच अध्यायों में विभक्त है और प्रत्येक अध्याय कणाद या अक्षपाद के अध्याय की तरह दो दो आदिकों में परिसमाप्त है । हेमचन्द्र ने अपने जुदे २ विषय के प्रन्थों में विभाग के जुदे जुदे क्रम का अवलम्बन करके अपने समय तक में प्रसिद्ध संस्कृत बाङ्मय के प्रतिष्ठित सभी शाखाओं के प्रन्थों के विभाग क्रम को अपने साहित्य में अपनाया है। किसी में उन्होंने अध्याय और पाद का विभाग रखा, कहीं अध्यायमात्र का और कही पर्य, सर्ग काण्ड आदि का । प्रमाणमीमांसा तर्क अन्य होने के कारण उसमें उन्होंने अक्षपाद के प्रसिद्ध न्यायसूत्रों के अध्याय-आहिक का ही विभाग रखा, जो हेमचन्द्र के पूर्व अकलह ने जैन वाङ्मय में शुरू किया था।
प्रमाणमीमांसा पूर्ण उपलब्ध नहीं। उसके मूलसूत्र भी उतने ही मिलते हैं जितनों की वृत्ति लभ्य है । अतएव अगर उन्होंने सब मूलसूत्र रचे भी हो तब भी पता नहीं चल सकता कि उनकी कुल संख्या कितनी होगी। उपलब्ध सूत्र १०० ही हैं और उतने ही सूत्रों की
finimumtititi
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृत्ति है। असिम ल २, १.६." श्री मति पूर्ण होने के बाद एक नये सूत्र का उत्थान उन्होंने शुरू किया है और उस अधूरे उत्थान में ही खण्डित लभ्य ग्रन्थ पूर्ण हो जाता है । मालूम नहीं कि इसके आगे कितने सूत्रों से वह आहिक पूरा होता । जो कुछ हो पर उपलब्ध अन्य दो अध्याय तीन आह्निक मात्र है जो स्वोपज्ञ वृत्ति सहित ही है ।।
यह कहने की तो जरूरत ही नहीं कि प्रमाणमीमांसा किस भाषा में है, पर उसकी भाषा विषयक योग्यता के बारे में थोड़ा जान लेना जरूरी है। इसमें सन्देह नहीं कि जैन वाङ्मय में संस्कृत भाषा के प्रवेश के बाद उत्तरोत्तर संस्कृत भाषा का वैशारध और पाजल लेखपाटव बढ़ता ही आ रहा था फिर भी हेमचन्द्र का लेख वैशारच कमसे कम जैन वाङ्मय में तो मृर्धन्य स्थान रखता है। वैयाकरण, आलङ्कारिक, कवि और कोषकार रूप से हेमचन्द्र का स्थान न केवल समन जैन परंपरा में बरिक भारतीय विद्वरपरंपरा में भी असाधारण रहा । यही उनकी असाधारणता और व्यवहारदक्षता प्रमाणमीमांसा की भाषा व रचना में स्पष्ट होती है। भाषा उनकी वाचस्पति मिश्र की तरह नपी-तूली और शब्दाडंबर शुन्य सहज प्रसन्न है। वर्णन में न उत्तमा संक्षेप है जिससे वक्तव्य अस्पष्ट रहे और न इतना विस्तार है जिससे ग्रन्थ केवल शोभा की वस्तु बना रहे।
३. जैन तर्कसाहित्य में प्राणमीमांसा का स्थान । जैन सर्क साहित्य में प्रमाणमीमांसा का स्थान क्या है इसे समझने के लिये जैन साहित्य के परिवर्तन या विकास संबधी युगों का ऐतिहासिक अवलोकन करना जरूरी है। ऐसे युग संक्षेप में तीन हैं-१ आगमयुग, २ संस्कृतप्रवेश या अनेकान्तस्थापन युग, ३ न्यायप्रमाणस्थापन युग। ___ पहला युग भगवान महावीर या उनके पूर्ववर्ती भगवान पाश्चनाथ से लेकर आगम संकलना-विक्रमीय पञ्चम-पष्ट शताब्दी तक का करीब हजार-बारह सौ वर्ष का है। दूसरा युग करीब दो शताब्दियों का है जो करीब विक्रमीय छठी शताब्दी से शुरू होकर सातवीं शताब्दी तक में पूर्ण होता है। तीसरा युग विक्रमीय आठवीं शताब्दी से लेकर अठारहवीं शताब्दी तक करीब एक हजार वर्ष का है।
सांप्रदायिक संघर्ष और दार्शनिक तथा दुसरी विविध विद्याओं के विकास-विस्तार के प्रभाव के सबब से जैन परंपरा की साहित्य की अन्तर्मुख या बहिर्मुख प्रवृत्ति में कितना ही युगातर जैसा स्वरूप भेद या परिवर्तन क्यों न हुआ हो पर जैसा हमने पहिले सूचित किया है वैसा ही अब से इति तक देखने पर भी हमें न जैन दृष्टि में परिवर्तन मालूम होता है और न उसके बाद्य-आभ्यन्तर तास्विक मन्तव्यों में।
१. आगमयुग इस युग में भाषा की दृष्टि से प्राकृत या लोक भाषाओं की ही प्रतिष्ठा रही जिससे संस्कृत भाषा और उसके वाङ्मय के परिशीलन की ओर आत्यन्तिक उपेक्षा का होना सहज था
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
Heasilsina
जैन तर्कसाहित्य में प्रमाणमीमांसा का स्थान जैसा कि बौद्ध परंपरा में भी था। इस युग का प्रमेय निरूपण आचार लक्षी होने के कारण उसमें मुख्यतया स्वमतप्रदर्शन का ही भाव है ! राजसमाओं और इतर वादगोष्ठिओ में विजय भावना से प्रेरित होकर शास्त्रार्थ करने की तथा खण्डनप्रधान अन्धनिर्माण की प्रवृत्ति का भी इस युग में अभाव-सा है। इस युग का प्रधान लक्षण जड़-चेतन के भेद-प्रमेदों का विस्तृत वर्णन तथा अहिंसा-संयम-तप आदि आचारोंका निरूपण करना है।
आगम युग और संस्कृत युग के साहित्य का पारस्परिक अन्तर संक्षेप से इतने ही में कहा जा सकता है कि पहिले युग का जैन साहित्य बौद्ध साहित्य की तरह अपने मूल उद्देश के अनुसार लोकभोग्य ही रहा है। जब कि संस्कृत भाषा और उसमें निबद्ध तर्क साहित्य के अध्ययन की व्यापक प्रवृत्ति के बाद उसका निरूपण सूक्ष्म और विशद होता गया है सही पर माथ ही साथ वह इतना जटिल भी होता गया कि अन्त में संस्कृतकालीन साहित्य लोकभोग्यता के मूल उद्देश से च्यूत होकर केवल विद्वद्भोग्य ही बनता गया ।
Paymensahindi
२. संस्कृतप्रवेश या अनेकान्तस्थापन युग संभवतः वाचा उमास्वाति या तत्सहश अन्य आचार्यों के द्वारा जैन वाङ्मय में संस्कृत भाषा का प्रवेश होते ही दुसरे युग का परिवर्तनकारी लक्षण शुरू होता है जो बौद्ध परंपरा में तो अनेक शताब्दी पहिले ही शुरू हो गया था। इस युग में संस्कृत भाषा केला. ... अभ्यास की तथा उसमें ग्रन्थपणयन की प्रतिष्ठा स्थिर होती है। इसमें राजसभाप्रवेश, परवादियों के साथ वादगोही और परमतखण्डन की प्रधान दृष्टिसे स्वमत स्थापक अन्थों की रचना-ये प्रधानतया नजर आते हैं। इस युग में सिद्धसेन जैसे एक-आध आचार्य ने जैन न्याय की व्यवस्था दर्शाने वाला एकमाध अन्य भले ही रचा हो पर अब तक इस युग में जैनन्याय या प्रमाणशास्त्रों की न तो पूरी व्यवस्था हुई जान पड़ती है और न तद्विषयक तार्किक साहित्य का निर्माण ही देखा जाता है । इस युग के जैन सार्किको की प्रवृत्ति की प्रधान दिशा दार्शनिक क्षेत्रों में एक ऐसे जैन मन्तव्य की स्थापना की ओर रही है जिसके बिखरे हुए और कुछ स्पष्ट-अस्पष्ट बीज भागम में रहे और जो मन्तव्य आगे जाकर भार. तीय सभी दर्शन परंपरा में एक मात्र जैन परंपरा का ही समझा जाने लगा, तथा जिस मन्तव्य के नाम पर आज तक सारे जैन दर्शन का व्यवहार किया जाता है, वह मन्तव्य है अनेकान्त. वाद का। दूसरे युग में सिद्धसेन हो या समन्तभद्र, मल्लवादी हो या जिनमद सभी ने दर्शनान्तरों के सामने अपने जैनमत्त की अनेकान्त दृष्टि तार्किक शैलीसे तथा परमत खण्डन के
अभिप्राय से इस तरह रखी है कि जिससे इस युग को अनेकान्त स्थापन युग ही कहना समु. चित होगा । हम देखते हैं कि उक्त आचार्यों के पूर्ववती किसीके प्राकृत या संस्कृत ग्रन्थ में न तो वैसी अनेकान्त की तार्किक स्थापना है और न अनेकान्त मूलक सप्तमनी और नयवाद का वैसा तार्किक विश्लेषण है, जैसा हम सन्मति, द्वात्रिंशत्वात्रिंशिका, न्यायावतार स्वयंमस्तोत्र, आस-मीमांसा, युक्त्यनुशासन, नयचक और विशेषावश्यक भाष्य में पाते है। इस युग के
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना तर्क-दर्शन निष्णात जैन आचार्यों ने नयवाद, सवभनी और बनेकान्तवाद की प्रबल और सह स्थापना की ओर इतना अधिक पुरुषार्थ किया कि जिसके कारण जैन और जैनेजर परंपराओं में जैन दर्शन अनेकान्त दर्शन के नाम से ही प्रतिष्ठित हुआ । और बौद्ध तथा प्रामण दार्शनिक पण्डितों का लक्ष्य भनेकान्त खण्डन की ओर गया तथा वे किसी-न-किसी प्रकार से अपने अन्यों में मात्र अनेकान्त या सप्तभङ्गी का खण्डन करके ही जैन दर्शन के मन्तव्यों के खण्डन की इतिश्री समझने लगे। इस युग की अनकान्त और तभूलक वादों की स्थापना इतनी गहरी हुई कि जिसपर उत्तरवर्ती अनेक जैनाचार्यों ने अनेकधा पल्लवन किया है फिर भी उसमें नई मौलिक युक्तियों का शायद ही समावेश हुआ है। दो सो वर्ष के इस युग की साहित्यिक प्रवृत्ति में जैन न्याय और प्रमाण शास्त्र की पूर्वभूमिका तो तैयार हुई जान पड़ती है पर इसमें उस शास्त्र का व्यवस्थित निर्माण देखा नहीं जाता । इस युग की परमतों के सयुक्तिक खण्डन तथा दर्शनान्तरीय समर्थ विद्वानों के सामने स्वमत के प्रतिष्ठित स्थापन की भावना ने जैन परंपरा में संस्कृत भाषा के तथा संस्कृतनिबद्ध दर्शनान्तरीय प्रतिष्ठित अन्धों के परिशीलन की प्रबल जिज्ञासा पैदा कर दी और उसी ने समर्थ जैन आचार्यों का लक्ष्य अपने निजी न्याय तथा प्रमाण शास्त्र के निर्माण की ओर खींचा, जिसकी कमी बहुत ही अखर रही थी।
.".'.'
....
...."...
"ntauruttamataronment * *...
३. न्याय-प्रमाणस्थापन युग उसी परिस्थिति में से अफला जैसे धुरंधर व्यवस्थापक का जन्म हुआ। संभवतः अकल ने ही पहिले-पहल सोचा कि जैन परंपरा के शान, ज्ञेय, ज्ञाता आदि सभी पदावों का निरूपण तार्किक शैली से संस्कृत भाषा में वैसा ही शास्त्रबद्ध करना आवश्यक है जैसा आक्षण और बौद्ध परंपरा के साहित्य में बहुत पहिले से हो गया है और जिसका अध्ययन अनिवार्य रूपसे जैन तार्किक करने लगे हैं। इस विचार से अकला ने द्विमुखी प्रवृत्ति शुरू की। एक ओर तो बौद्ध और ब्रामण परंपरा के महत्वपूर्ण अन्धोंका सूक्ष्म परिशीलन और दूसरी ओर समस्त जैन मन्तव्यों का तार्किक विश्लेषण । केवल परमतों का निरास करने ही से अकला का उद्देश्य सिद्ध हो नहीं सकता था। अतएव दर्शनान्तरीय शास्त्रों के सूक्ष्म परिशीलन में से और जैन मत के तलस्पर्शी ज्ञान से उन्होंने छोटे-छोटे पर समस्त अनतर्कप्रमाण शास्त्र के आधारस्तम्भभूत अनेक न्याय-प्रमाण विषयक प्रकरण रचे जो दिङ्नाग और खासकर धर्मकीर्ति जैसे बौद्ध तार्किकों के तथा उद्योतकर, कुमारिल आदि जैसे ब्रामण तार्किको के प्रभाव से भरे हुवे होने पर भी जैन मन्तव्यों की बिलकुल नये सिरे और स्वतन्त्रभाव से स्थापना करते हैं। अकलाने न्याय-प्रमाण शास्त्रका जैन परंपरा में जो प्राथमिक निर्माण किया, जो परिभाषाएँ, जो लक्षण व परीक्षण किया, जो प्रमाण-प्रमेय आदिका वर्गीकरण किया
और परार्थानुमान तथा पादकथा आदि परमत-प्रसिद्ध पस्तुओं के संबंधमें जो जैन प्रणाली स्थिर की, संक्षेप में अबतक में जैन परंपरा में नहीं पर अन्य परंपराओं में प्रसिद्ध ऐसे तर्क. शास्त्र के अनेक पदार्थों को जैनदृष्टि से जैन परंपरा में ओ सात्मीभाव किया तथा आगम सिद्ध
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
Alcoment
Mahindi
जैन तर्कसाहित्य में प्रमाणमीमांसा का स्थान अपने मन्तव्यों को जिस सरह दार्शनिकों के सामने रखने योग्य बनाया, वह सब उनके छोटे-छोटे ग्रन्थों में विद्यमान उनके असाधारण व्यक्तित्व का तथा न्याय-प्रमाणस्थापन युग का घोतक है। ____ अकला के द्वारा पारब्ध इस युग में साक्षात या परंपरा से अकला के शिष्य-पशिष्यों ने ही उनके सूत्रस्थानीय ग्रन्थों को बड़े-बड़े टीकाग्रन्थों से वैसे ही अलकृत किया जैसे धर्मकीर्ति के अन्धों को उनके शिष्यों ने । ____ अनेकान्त युग की मात्र पधप्रधान रचना को अकला ने गद्य-पद्य में परिवर्तित किया था पर उनके उत्तरवर्ती अनुगामियों ने उस रचना को नानारूपों में परिवर्तित किया, जो रूप बौद्ध और ब्राह्मण परंपरा में प्रतिष्ठित हो चुके थे। माणिक्यनन्दी अकलक के ही विचार दोहन में से सूत्रों का निर्माण करते हैं। विद्यानन्द अकला के ही सूकों पर या तो भाष्य रचते हैं या तो पचवार्तिक बनाते हैं या दुसरे छोटे छोटे अनेक प्रकरण बनाते हैं। अनन्तवीर्य, प्रभाचन्द्र और वादिराब जैसे तो अकलाके संक्षिप्त सूक्तों पर इतने बड़े और विशद तथा जटिल भाष्य व विवरण कर डालते हैं कि जिससे तब तक में विकसित दर्शनान्तरीय विचार परंपराओं का एक तरह से जैन वाङ्मय में समावेश हो जाता है। दूसरी तरफ श्वेताम्बर परंपराके प्राचार्य भी उसी अफला स्थापित प्रणालीकी ओर झुकते हैं। हरिभद्र जैसे आगमिक और तार्किक अन्धकार ने तो सिद्धसेन और समन्तभद्र आदि के मार्ग का प्रधानतया अनेकान्तजयपता का आदि में अनुसरण किया पर धीरे-धीरे न्याय-प्रमाण विषयक स्वतन्त्र अन्य प्रणयन की प्रवृत्ति भी श्वेताम्बरा परंपरा में शुरू हुई । श्वेताम्बराचार्य सिद्धसेन ने न्यायावतार रचा था । पर यह निरा प्रारंभ मात्र था । अकल ने जैन न्याय की सारी व्यवस्था स्थिर कर दी । हरिभद्रने दर्शनान्तरीय सब वार्ताओं का समुच्चय भी कर दिया। इस भूमिका को लेकर शान्त्याचार्य जैसे श्वेतांबर सार्किक ने तर्कवार्तिक जैसा छोटा किन्तु सारगर्भ ग्रन्थ रचा, इसके बाद तो श्वेताम्बर परंपरा में न्याय और प्रमाण अन्यों के संग्रह का, परिशीलन का और नये-नये अन्ध निर्माण का ऐसा पूर आया कि मानो समाज में तबतक ऐसा कोई प्रतिष्ठित विद्वान् ही न समझा जाने लगा, जिसने संस्कृत भाषा में स्वास कर तर्क या प्रमाण पर मूल या टीका रूपसे कुछ न कुछ लिखा न हो। इस भावना में से ही अभयदेव का चादार्णव तैयार हुआ जो संभवतः तब तक के जैन संस्कृत अन्थों में सबसे बड़ा है। पर जैन परंपरा पोषक गूजरात गत सामाजिक-राजकीय समी बलों का सबसे अधिक उपयोग वादीदेव सुरि के किया । उन्होंने अपने ग्रन्थ का स्याद्वादरत्नाकर यथार्थ ही नाम रखा। क्योंकि उन्होंने अपने समय तक में प्रसिद्ध सभी श्वेताम्बर दिगम्बर तार्किकों के विचार का दोहन अपने अन्य में रख दिया जो स्यावाद ही था। और साथ ही उन्होंने अपनी जानीब से ब्राह्मण और बौद्ध परंपरा की किसी भी शाखा के मन्तव्यों की विस्तृत चर्चा अपने ग्रन्थ में न छोड़ी । चाहें विस्तार के कारण वह अन्य पाठ्य रहा न हो पर तर्कशास्त्र के निर्माण में और विस्तृत निर्माण में प्रतिष्ठा मानने वाले जैनमत की बदौलत एक लाकर जैसा समय मन्तव्यरत्नों का संग्रह बन गया, जो न केवल तस्वज्ञान की दृष्टि से ही उपयोगी है, पर ऐतिहासिक दृष्टि से भी बड़े महत्व का है।
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६
प्रस्तावना
और यह दिशा
के
आगमिक साहित्य के तत्वार्थ से लेकर स्याद्वादरत्नाकर तक के संस्कृत व तार्किक जैन साहित्य की भी बहुत बड़ी राशि हेमचन्द्र के परिशीलन पथ में आई जिससे हेमचन्द्र का सर्वाश्रीण सर्जक व्यक्तित्व सन्तुष्ट होने के बजाय एक ऐसे नये सर्जन की ओर प्रवृत्त हुवा जो तब तक के जैन वाङ्मय में अपूर्व स्थान रख सके ।
।
दिनाग के न्यायमुख, न्यायप्रवेश आदि से प्रेरित होकर सिद्धसेन ने जैन परंपरा में न्याय-- परार्थानुमान का अवतार कर ही दिया था। समन्तभद्र ने अक्षपाद के प्राचादुक (अध्याय चतुर्थ) के मनिरास की तरह आस की मीमांसा के बहाने सभी की स्थापना में पर भवादियोंका निरास कर ही दिया था । तथा उन्होंने जैनेतर शासनों से जैन शासनकी विशेष सयुक्तिकता का अनुशासन भी युक्त्यनुशासन में कर ही दिया था। धर्मकीर्ति के प्रमाण afe, warfarer आदि से बल पाकर तीक्ष्णदृष्टि अकलक ने जैन न्याय का विशेष निश्चय-व्यवस्थापन तथा जैन प्रमाणों का संग्रह अर्थात् विभाग, लक्षण आदि द्वारा निरूपण अनेक तरह से कर दिया था। अकल ने सर्वशत्व, जीवत्व आदिकी सिद्धि के air धर्मकीर्ति जैसे प्राज्ञ बौद्धों को जवाब भी दिया था । सूक्ष्मपज्ञ विद्यानन्द ने आत की, पत्र की और प्रमाणों की परीक्षा द्वारा धर्मकीर्ति की तथा शान्तरक्षित की विविध परीक्षाओं का जैन परंपरा में सूत्रपात भी कर ही दिया था माणिक्यनन्दी ने परीक्षामुख के द्वारा न्यायबिन्दु के से सूत्र ग्रन्थ की कमी को दूर कर ही दिया था। जैसे धर्मकीर्ति के अनुगामी विनीतदेव, धर्मोर, प्रज्ञाकर, अर्चेंट आदि प्रखर सार्किकों ने उनके सभी मूल ग्रन्थों पर छोटे बड़े भाष्य या विवरण लिखकर उनके ग्रन्थों को पठनीय तथा विचारणीय बनाकर बौद्ध न्यायशास्त्र को प्रकर्ष की भूमिका पर पहुँचाया था वैसे ही एक तरफ से दिगम्बर परंपरा में अलक के संक्षिप्त पर गहन सूकों पर उनके अनुगामी अनन्तवीर्य, विद्यानन्द, प्रमानन्द और वादिराज जैसे विशारद तथा पुरुषार्थी तार्किकों ने विस्तृत व गहन भाष्य-विवरण आदि रचकर जैन न्याय शास्त्र को अतिसमृद्ध बनाने का सिलसिला भी जारी कर ही दिया था और दूसरी तरफ से श्वेताम्बर परंपरा में सिद्धसेन के संस्कृत तथा प्राकृत तर्क प्रकरणों को उनके अनुगामिओं ने टीका ग्रन्थों से भूषित करके उन्हें विशेष सुगम तथा प्रचारणीय बनाने का भी प्रयत्न इसी युग में शुरू किया था। इसी सिलसिले में से प्रभाचन्द्र के द्वारा प्रमेयों के म पर माdus at Har प्रकाश तथा न्याय के कुमुदों पर चन्द्र का सौम्य प्रकाश डाला ही गया था । अभयदेव के द्वारा वयोधविधायिनी टीका या वादार्णव रचा जाकर
संग्रह तथा प्रमाणवार्तिकालङ्कार जैसे बड़े अन्थों के अभाव की पूर्ति की गई थी । वादि देव ने रत्नाकर रचकर उसमें सभी पूर्ववर्ती जैन मन्थरों का पूर्णतया संग्रह कर दिया था । यह सब हेमचन्द्र के सामने था । पर उन्हें मालूम हुआ कि उस न्याय प्रमाण विषयक साहित्य
कुछ भाग तो ऐसा है जो अति महत्त्व का होते हुए भी एक २ विषय की ही चर्चा करता है या बहुत ही संक्षिप्त है । दूसरा भाग ऐसा है कि जो है तो सर्वविषयसंग्राही पर वह उत्तरोत्तर इतना अधिक विस्तृत तथा शब्दष्टि है कि जो सर्व साधारण के अभ्यास का विषय
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
भारतीय प्रमाणशास्त्र में प्रमाणमीमांसा का स्थान
१०
बन नहीं सकता । इस विचार से हेमचन्द्र ने एक ऐसा प्रमाण विषयक अन्थ बनाना चाहा जो कि उनके समय तक चर्चित एक भी दार्शनिक विषय की चर्चा से खाली न रहे और फिर भी वह पाठ्यक्रम योग्य मध्यम कद का हो। इसी दृष्टि में से 'प्रमाणमीमांसा' का जन्म हुआ । इसमें हेमचन्द्र ने पूर्ववर्ती आगमिक तार्किक सभी जैन मन्तम्यों को विचार व मनन से पचा कर अपने ढंग की विशद व अपुनरुक्त सूत्रशैली तथा सर्वे समाहिणी विशदतम स्वोपज्ञ वृद्धि में सन्निविष्ट किया । यद्यपि पूर्ववर्ती अनेक जैन ग्रन्थों का सुसंबद्ध दोहन इस मीमांसा में है जो हिन्दी टिप्पणों में की गई तुलना से स्पष्ट हो जाता है फिर भी उसी अधूरी तुलना के आधार से यहाँ यह भी कह देना समुचित है कि मस्तुत अन्य के निर्माण में हेमचन्द्र ने प्रधानतया किन किन अन्य अन्धकारों का आश्रय लिया है। निर्युक्ति, विशेषावश्यक भाष्य तथा aesर्थ जैसे आगमिक अन्य तथा सिद्धसेन, समन्तभद्र, अकड, माणिक्यनन्दी और विद्यानन्द की प्रायः समस्त कृतियाँ इसकी उपादान सामग्री बनी हैं। प्रभाचन्द्र के मार्तण्ड का भी इसमें पूरा असर है। अगर अनन्तवीर्य सचमुच हेमचन्द्र के पूर्ववर्ती या समकालीन वृद्ध रहे होंगे तो यह भी सुनिश्चत है कि इस ग्रन्थ की रचना में उनकी छोटीसी प्रमेयलमाला का विशेष उपयोग हुआ है। वादी देवसूरि की कृति का भी उपयोग इसमें स्पष्ट है; फिर भी जैन तार्किकों में से ones और arrrrrrrat का ही मार्गानुगमन प्रधानतया देखा जाता है । उपयुक्त जैन
थों में गाए हुए ब्राह्मण बौद्ध ग्रन्थों का उपयोग हो जाना तो स्वाभाविक ही था; फिर भी प्रमाणमीमांसा के सूक्ष्म अवलोकन तथा तुलनात्मक अभ्यास से यह भी पता चल जाता है कि हेमचन्द्र ने बौद्ध-त्राह्मण परंपरा के किन किन विद्वानों की कृतियों का अध्ययन व परिशी न विशेषरूप से किया था जो प्रमाणमीमांसा में उपयुक्त हुआ हो। दिङ्नाग, खास कर धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर, अर्चेट और शान्तरक्षित ये बौद्ध तार्किक इनके मध्ययन के विषय अवश्य रहे हैं। कणाद, मासर्वज्ञ, व्योमशिव, श्रीधर, अक्षपाद, वात्स्यायन, उद्योतकर, जयन्त, वाचस्पति मिश्र, शवर, प्रभाकर, कुमारिल आदि जुदी जुदी वैदिक परंपराओं के प्रसिद्ध विद्वानों की सब कृतियाँ प्रायः इनके अध्ययन की विषय रहीं । चार्वाक एकदेशीय जयराशि भट्ट का तस्वiप भी इनकी दृष्टि के बाहर नहीं था। यह सब होते हुए भी हेमचन्द्र की भाषा तथा निरूपण शैली पर धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर, अर्चट भासर्वच, वात्स्यायन, जयन्त, वाचस्पति, कुमारिल आदि का ही आकर्षक प्रभाव पड़ा हुआ जान पड़ता है । अतपय यह मधूरे रूप में उपलब्ध प्रमाणमीमांसा भी ऐतिहासिक दृष्टि से जैन तर्कसाहित्य में तथा भारतीय दर्शनसाहित्य में एक विशिष्ट स्थान रखती है।
+
$ ४ भारतीय प्रमाणशास्त्र में प्रमाणमीमांसा का स्थान
arrate entrants में प्रमाणमीमांसा का वस्वज्ञान की दृष्टि से क्या स्थान है इसे ठीक २ मझने के लिये मुख्यतया दो प्रश्नों पर विचार करना ही होगा | जैनतार्किकों की भारतीय प्रमाणareast क्या देन है, जो प्रमाणमीमांसा में निविष्ट हुई हो और जिसको
३
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
| Namasala
प्रस्तावना
बिना जाने किसी सरह मारतीय प्रमाणशास्त्र का पूरा अध्ययन हो ही नहीं सकता। पूर्वाचार्यों की उस देन में हेमचन्द्र ने अपनी ओर से कुछ भी विशेष अर्पण किया है या नहीं और किया है तो किन मुह पर !
१. जैनाचार्यों की भारतीय प्रमाणशास्त्र को देन १. अनेकान्तवाद-सबसे पहली और सबसे श्रेष्ठ सर देनो की चाबी रूप जैनाचार्यों की मुरूमा देन है अनेकान्त तथा नयवाद का शास्त्रीय निरूपण ।
विश्व का विचार करनेवाली परस्पर भिन्न ऐसी मुख्य दो दृष्टियों है। एक है सामान्य गामिनी और दूसरी है विशेषगामिनी । पहली दृष्टि शुरू में तो सारे विश्व में समानला ही देखती है पर वह धीरे-धीरे अमेद की ओर झुकते २ अंत में सारे विश्व को एक ही मूल में देखती है और फलतः निश्चय करती है कि जो कुछ प्रतीति का विषय है वह तत्व वास्तव में एक ही है। इस तरह समानता की प्राथमिक भूमिका से उतर कर अंत में यह दृष्टि ताश्विकएकता की भूमिका पर आ कर ठहरती है । उस दृष्टि में जो एक मात्र विषय स्थिर होता है, वहीं सत् है । सत् तत्त्वमें आत्यंतिक रूप से निमम होने के कारण वह दृष्टि या तो मेदों को देख ही नहीं पाती या उन्हें देख कर भी वास्तविक न समझने के कारण व्यावहारिक या अपारमार्थिक था बाधित कह कर छोड़ ही देती है। चाहे फिर वे प्रतीतिगोचर होने वाले भेद कालकृत हो अर्थात् कालपट पर फैले हुए हों जैसे पूर्यापररूप बीज, अंकुर आदि; या देशकृत हो अर्थात् देशपट पर वितत हों जैसे समकालीन घर, पट आदि प्रकृति के परिणाम; या द्रव्यगत अर्थात् देशकाल-निरपेक्ष साहजिक हो जैसे प्रकृति, पुरुष तथा अनेक पुरुष ।
इसके विरुद्ध दुसरी दृष्टि सारे विश्व में असमानता ही असमानता देखती है और धीरे धीरे उस असमानता की जड़ की खोज करते करते अंत में वह विश्लेषण की ऐसी भूमिका पर पहुँच आती है, जहाँ उसे एकता की तो बात ही क्या, समानता भी कृत्रिम मालूम होती है । फलतः वह निश्चय कर लेती है कि विश्व एक दूसरे से अत्यंत भिन्न ऐसे भेदों का धुंज मात्र है । वस्तुतः उसमें न कोई जस्तविक एक तत्व है और न साम्य ही । चाहे वह एक तस्व समग्र देशकाल व्यापी समझा जाता हो जैसे प्रकृति; या द्रव्यभेद होने पर भी मात्र काल व्यापी एक समझा जाता हो जैसे परमाणु ।
उपर्युक्त दोनों दृष्टियाँ मूल में ही मिन हैं। क्योंकि एक का आधार समन्वय मात्र है और दूसरी का आधार विश्लेषण मात्र । इन मूलभूत दो विचार सरणियों के कारण तथा उनमें से प्रस्फुटित होनेवाली दुसरी वैसी ही अवान्तर विचारसरणियों के कारण अनेक मुद्दों पर अनेक विरोधी बाद आप ही आप खड़े हो जाते है। हम देखते है कि सामान्यगामिनी पहली दृष्टि में से समय देश-काल व्यापी तथा देश-काल-विनिर्मुस ऐसे एक मात्र सत्-तत्व या ब्रह्माद्वैत का वाद स्थापित हुआ जिसने एक तरफ से सकल मैदों को और तद्माइक प्रमाणों को मिथ्या बतलाया और साथ ही सत्-तत्व को वाणी तथा तर्क की प्रवृत्ति से शुन्य कह कर मात्र अनुभवगम्य कहा । दूसरी विशेषगामिनी दृष्टि में से भी केवल देश और काल भेद से ही मिल नहीं
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
ramittarikestassindia
kaamsas
भारतीय प्रमाणशास्त्र में प्रमाणमीमांसा का स्थान बलिक स्वरूप से भी भिन्न ऐसे अनंत मेदों का वाद स्थापित हुआ। जिसने एक ओर से सब प्रकार के अभेदों को मिथ्या बतलाया और दूसरी तरफ से अंतिम मेदों को वाणी तथा तर्क की प्रवृत्ति से शन्य कह कर मात्र भनुभयगय बताया । ये दोनों को अंत में शन्यता के तथा स्वानुभवगम्यता के परिणाम पर पहुँचे सही, पर दोनों का लक्ष्य अत्यंत भिन्न होने के कारण वे आपस में बिलकुल ही किराने और परस्पर विरुद्ध दिखाई देने लगे।
उक्त मूलभूत दो विचारधाराओं में से फूटने वाली या उनसे सम्बन्ध रखने वाली मी अनेक विचारधाराएँ प्रवाहित हुई । किसी ने अभेद को तो अपनाया, पर उसकी ज्याति काल और देश पट तक अथवा मात्र कालपट तक रखी । स्वरूप या द्रव्य तक उसे नहीं बढ़ाया । इस विचार धारा में से अनेक द्रव्यों को मानने पर भी उन द्रव्यों की कालिक निस्यता तथा दैशिक व्यापकता के बाद का जन्म हुआ जैसे सांख्य का प्रकृति-पुरुषवाद। दूसरी विचारधारा ने उसकी अपेक्षा भेद का क्षेत्र बढ़ाया। जिससे उसने कालिक नित्यता तथा दैथिक व्यापकता मान कर भी स्वरूपतः जड़ द्रव्यों को अधिक संख्या में स्थान दिया जैसे परमाणु, विमुद्रव्यवाद ।
अद्वैतमात्र को या सन्मानको स्पर्श करनेवाली दृष्टि किसी विषय में भेद सहन न कर सकने के कारण अभेदमूलक अनेकवादों का स्थापन करे, यह स्वाभाविक ही है। हुआ भी ऐसा ही । इसी दृष्टि में से कार्य कारण के अभेदमूलक मात्र सरकार्यवाद का जन्म हुआ। धर्म-धमी, गुण-गुणी, आधार-आधेय आदि बंद्रों के अभेदवाद भी उसीमें से फलित हुए । अन्च कि द्वैत और भेद को स्पर्श करनेवाली दृष्टि ने अनेक विषयों में मेवमूलक ही नाना याद स्थापित किये। उसने कार्य कारण के भेदमूलक मात्र असत्कार्यवाद को जन्म दिया तथा धर्म-धर्मी, गुण-गुणी, आधार-आधेय आदि अनेक द्वंद्वो के भेदों को भी मान लिया। इस तरह हम भारतीय तस्वचिंतन में देखते हैं कि मौलिक सामान्य और विशेष दृष्टि तथा उनकी अवान्तर सामान्य और विशेष दृष्टियों में से परस्पर विरुद्ध ऐसे अनेक मतो-दर्शनों का जन्म हुआ, जो अपने विरोधिवाद की आधारभूत भूमिका की सत्यता की कुछ मी परवा न करने के कारण एक दूसरे के प्रहार में ही चरितार्थता मानने लगे।
सद्वाद अद्वैतगामी हो या द्वैतगामी जैसा कि सांख्यादि का, पर वह कार्य-कारण के अभेद मूलक सरकार्यवाद को बिना माने अपना मूल लक्ष्य सिद्ध ही नहीं कर सकता जब कि असद्वाद क्षणिकगामी हो जैसे बौद्धों का, स्थिरगामी हो या नित्यगामी हो असे वैशेषिक आदि का--पर वह असत्कार्यवाद का स्थापन विना किये अपना लक्ष्य स्थिर कर ही नहीं सकता। अतएव सत्कार्यवाद और असत्कार्यवाद की पारस्परिक टक्कर हुई। अद्वैतगामी और द्रुतगामी सद्वाद में से जन्मी हुई कूटस्थता जो कालिक निस्यता रूप है और विभुता जो दैशिक व्यापकतारूप है उनकी-देश और कालकृत निरंश अंशवाद अर्थात् निरैश क्षणवाद के साथ रक्षर हुई। जो कि वस्तुतः सद्दर्शन के विरोधी दर्शन में से फलित होता है। एक तरफ से सारे विश्व को अखण्ड और एक तस्वरूप माननेवाले और दूसरी तरफ से उसे निरंश अंश
माना जाता
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०
।
SHRSHISH
E
पुंज माननेवाले अपने-अपने लक्ष्य की सिद्धि तभी कर सकते थे अम वे अपने अभीष्ट तत्व को अनिर्वचनीय अर्थात् अनमिलाप्य-शब्दागोचर मानें, क्योंकि शब्द के द्वारा निर्वचन मानने पर न तो अखण्ड सत् तत्त्व की सिद्धि हो सकती है और न निरंश भेदतत्त्व की । निर्वचन करना ही मानों अखण्डता या निरंशता का लोप कर देना है। इस तरह अखण्ड और निरंशवाद में से अनिर्वचनीयत्वबाद आप ही आप फदिल हुआ। पर उस वाद के सामने लक्षणबादी पैशेषिक आदि ताकि हुए, जो ऐसा मानते हैं कि वस्तुमात्र का निर्वचन करना या लक्षण बनाना शक्य ही नहीं बरिक वास्तविक भी हो सकता है । इसमें से निर्धचनीयस्ववाद का जन्म हुआ और वे--अनिर्वचनीय तथा निर्वचनीयवाद भापसमें टकराने लगे ।
इसी प्रकार कोई मानते थे कि प्रमाण चाहे जो हो पर हेतु अर्थात् तर्क के सिवाय किसी से अन्तिम निश्चय करना भयापद है। जब दूसरे कोई मानते थे कि हेतुबाद स्वतंत्र बल नहीं रखता। ऐसा बल आगम में ही होने से वही मूर्धन्य प्रमाण है। इसीसे वे दोनों बाद परस्पर टकराते थे। दैवज्ञ कहता था कि सब कुछ देवाधीन है। पौरुष स्वतन्त्ररूप से कुछ कर नहीं सकता ! पौरुषवादी ठीक इससे उलटा कहता था कि पौरुष ही स्वतन्त्रभाव से कार्यकर है। अतएव वे दोनों बाद एक दूसरे को असत्य ही मानते रहे । अर्थनए---पदार्थवादी शब्द की और शब्दनय-शाब्दिक अर्थ की परवा न करके परस्पर खण्डन करने में प्रवृत्त थे । कोई अभाव को भाव से पृथक् ही मानता तो दुसरा कोई उसे भाव स्वरूप ही मानता था और वे दोनों भाव से अभाव को पृथक् मानने न मानने के बारे में परस्पर प्रतिपक्षभाव धारण करते रहे । कोई प्रमाला से प्रमाण और प्रमिति को अत्यन्त भिन्न मानते तो दूसरे कोई उससे उन्हें अभिन्न मानते थे। कोई वर्णाश्रम विहित कर्म मात्र पर भार देकर उसीसे इष्ट प्राप्ति बतलाते तो कोई ज्ञानमात्र से आनन्दाप्ति प्रतिपादन करते जब तीसरे कोई भक्ति को ही परम पद का साधन मानते रहे और वे सभी एक दूसरे का आवेशपूर्वक खण्डन करते रहे। इस तरह तस्वज्ञान के व आचार के छोटे-बड़े अनेक मुद्दों पर परस्पर बिलकुल विरोधी ऐसे भनेक एकान्त मत प्रचलित हुए।
उन एकान्तों की पारस्परिक वाद-लीला देखकर अनेकान्तदृष्टि के उत्तराधिकारी आचार्यों को विचार आया कि असल में ये सब बाद जो कि अपनी अपनी सत्यता का दावा करते हैं वे आपसमें इतने लड़ते हैं क्यों ! क्या उन सब में कोई तथ्यांश ही नहीं, या सब में तथ्यांश है, या किसी किसी में तथ्यांश है, या सभी पूर्ण सत्य है ! इस प्रश्न के अन्तर्मुख जबाब में से उन्हें एक चाबी मिल गई जिसके द्वारा उन्हें सर विरोधों का समाधान हो गया
और पूरे सत्य का दर्शन हुआ । यही चाबी अनेकान्तवाद की भूमिका रूप अनेकान्तदृष्टि है । इस दृष्टि के द्वारा उन्होंने देखा कि प्रत्येक सयुक्तिक वाद अमुक अमुक दृष्टि से अमुक अमुक सीमा तक सत्य है । फिर भी जब कोई एक वाद दूसरे वाद की आधारभूत विचार-सरणी और उस बाद की सीमा का विचार नहीं करता और अपनी आधारभूत दृष्टि तथा अपने विषय की सीमा में ही सब कुछ मान लेता है, तब उसे किसी भी तरह दूसरे वाद की सत्यता मालम
Ralmaniumsal
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
भारतीय प्रमाणशास्त्र में प्रमाणमीमांसा का स्थान
२१
ही नहीं हो पाती । यही हालत दूसरे विरोधी बाद की भी होती है। ऐसी दशा में न्याय इसी में है कि प्रत्येक वाद को उसी की विचारसरणी से उसी की विषय-सीमा तक ही जाँचा जय और इस आँच में वह ठीक निकले तो उसे सत्य का एक भाग मान कर ऐसे सब सरयांशरूप मणियों को एक पूर्ण सत्यरूप विचार सूत्र में पिरो कर अविरोधी माला बनाई जाय । इस विचार ने जैनाचार्यों को अनेकान्वष्टि के आधार पर तत्कालीन सब वादों का समन्वय करने की ओर प्रेरित किया। उन्होंने सोचा कि जब शुद्ध और निःस्वार्थ चिस वालों में से किन्हीं को एकत्वपर्यवसायी साम्यप्रतीति होती है और किन्हीं को निरंश अंश पर्यवसायी मेद प्रतीति होती है तब यह कैसे कहा जाय कि अमुक एक ही प्रतीति प्रमाण है और दूसरी नहीं किसी एक को अपमाण मानने पर तुझ्य युक्तिसे दोनों प्रतीतियाँ अप्रमाण ही सिद्ध होगी। इसके सिवाय किसी एक प्रतीति को प्रमाण और दूसरी को अप्रमाण मानने वालों को भी अन्त में प्रमाण मानी हुई प्रतीति के विषयरूप सामान्य या विशेष के सार्वafts व्यवहार की उपपत्ति तो किसी न किसी तरह करनी ही पड़ती है । यह नहीं कि अपनी इष्ट प्रतीति को प्रमाण कहने मात्र से सब शास्त्रीय लौकिक व्यवहारों की उपपत्ति भी हो जाय। यह भी नहीं कि ऐसे व्यवहारों को उपपत्र बिना किये ही छोड़ दिया जाय । मेदों को व उनकी प्रतीति को अविद्यामूलक ही कह कर उनकी उपपति करेगा जब कि क्षणिकत्ववादी साम्य या एकत्व को व उसकी प्रतीति को ही अविद्यामूलक कह कर ऐसे व्यवहारों की उपपति करेगा ।
ऐसा सोचने पर मनेकान्त के प्रकाश में अनेकान्तवादियों को मालूम हुआ कि प्रतीति ममेदगामिनी हो या भेदगामिनी, है तो सभी वास्तविक । प्रत्येक प्रतीति की वास्तविकता उसके अपने विषय तक तो है पर अब वह विरुद्ध दिखाई देनेवाली दूसरी प्रतीति के विषय की ममता दिखाने लगती है तब यह खुद भी अवास्तविक बन जाती है। अमेद और मेद की प्रतीतियाँ विरुद्ध इसीसे जान पड़ती हैं कि प्रत्येक को पूर्ण प्रमाण मान लिया जाता है। सामान्य और विशेष की प्रत्येक मतीति स्वविषय में यथार्थ होने पर भी पूर्ण प्रमाण नहीं । वह प्रमाण का अंश अवश्य है। वस्तु का पूर्ण स्वरूप तो ऐसा ही होना चाहिए, जिससे कि a fro दिखाई देनेवाली प्रतीतियाँ भी अपने स्थान में रहकर उसे अविरोधीभाव से प्रकाशिव कर सकें और वे सब मिलकर वस्तु का पूर्ण स्वरूप प्रकाशित करने के कारण प्रमाण मानी जा सके। इस समभ्यय या व्यवस्थागर्मित विचार के बल पर उन्होंने समझाया कि स- द्वैत और सद्-द्वैत के बीच कोई विशेष नहीं, क्योंकि वस्तु का पूर्णस्वरूप ही अमे और मेद या सामान्य और विशेषात्मक दी है। जैसे हम स्थान, समय, रंग, रस, परिमाण नादि का विचार किये fear ft famाक जलराशि मात्र का विचार करते हैं तब एक ही एक समुद्र प्रतीत होता है । पर उसी जलराशि के विचार में जब स्थान, समय नादि का विचार वालिल होता है तब हमें एक अखण्ड समुद्र के स्थान में अनेक छोटे बड़े नाते हैं यहाँ तक कि अन्त में हमारे sवान में जलकण तक नहीं रहता उसमें
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२
प्रस्तावना
होकर मी
फिर भी
केवल कोई अविभाज्य रूप या रस आदि का अंश ही रह जाता है और अन्त में वह भी शुम्यवत् मासित होता है। जलराशि में अखण्ड एक समुद्र की बुद्धि भी वास्तविक है और अन्तिम अंश की बुद्धि भी । एक इसलिए वास्तविक है कि वह भेदों को अलग २ रूप से स्पर्श न करके सब को एक साथ सामान्यरूप से देखती है। स्थान, समय आदि कृत भेद जो एक दूसरे से व्यावृत हैं उनको अलग २ रूप से विषय करनेवाली बुद्धि भी वास्तविक है। क्योंकि वे भेद वैसे ही हैं। जलराशि एक और अनेक उभयरूप होने के कारण उसमें होनेवाली समुदबुद्धि और अंशबुद्धि अपने २ स्थान में यथार्थ कोई एक बुद्धि पूर्ण स्वरूप को विषय न करने के कारण पूर्ण प्रमाण नहीं है। दोनों मिलकर पूर्ण प्रमाण है। वैसे ही जब हम सारे विश्व को एक मात्र सत् रूप से देखें अथवा यो कहिए कि जब हम समस्त भेदों के एकमात्र अनुरुप्रथा स्वरूप का विचार करें तब हम कहते हैं कि एकमात्र सत् ही है। क्योंकि उस सर्वग्राही सा के विचार के समय कोई ऐसे भेद भासित नहीं होते जो परस्पर में व्यावृत हो । उस समय तो सारे मेद समष्टिरूप में या एक मात्र सत्ता रूप में ही भासित होते हैं। और सभी सद्-भद्वैत कहलाता है । एकमात्र सामान्य की प्रतीति के समय सत् शब्द का अर्थ भी उतना विशाल हो जाता है। कि जिसमें कोई शेष नहीं बचता। पर हम जब उसी विश्व को गुणधर्म कृतभेदों में जो कि परस्पर व्यावृत हैं, विभाजित करते हैं, तब वह विश्व एक सत् रूप से मिट कर अनेक सत् रूप प्रतीत होता है। उस समय सत् शब्द का अर्थ भी उतना ही छोटा हो जाता है। हम कभी कहते हैं कि कोई सत् जड़ भी है और कोई चेतन भी । हम और अधिक मेदों की ओर झुक कर फिर यह भी कहते हैं कि जडसत् भी अनेक हैं और चेतनस भी अनेक हैं। इस तरह जब सर्वग्राही सामान्यको व्यावर्तक भेदों में विभाजित करके देखते हैं तब हमें नाना सत् मालूम होते हैं और यही सद्-द्वैत है । इस प्रकार एक ही विश्व में प्रदूव होनेवाली सद्-अद्वैत बुद्धि और स- द्वैत बुद्धि दोनों अपने २ विषय में यथार्थ होकर भी पूर्ण प्रमाण तभी कही जायँगी जब वे दोनों सापेक्ष रूप से मिलें। यही सद्-अद्वैत और सद्-द्वैत बाद जो परस्पर विरुद्ध समझे जाते हैं उनका अनेकान्त दृष्टि के अनुसार समन्वय हुआ ।
इसे वृक्ष और वन के दृष्टान्त से भी स्पष्ट किया जा सकता है। जब अनेक परस्पर भिन वृक्ष व्यक्तियों को उस उस व्यक्ति रूप से ग्रहण न करके सामूहिक या सामान्य रूप में वन रूप से ग्रहण करते हैं तब उन सब विशेषों का अभाव नहीं हो जाता । पर वे सब विशेष सामान्य रूप से सामान्यग्रहण में ही ऐसे लीन हो जाते हैं मानो वे हैं ही नहीं। एक मात्र वन ही वन नज़र आता है यही एक प्रकार का अद्वैत हुआ। फिर कभी हम जब एक-एक वृक्ष को विशेष रूप से समझते हैं तब परस्पर भिन्न व्यक्तियाँ ही व्यक्तियाँ नजर आती हैं, उस समय विशेष प्रतीति में सामान्य इतना अन्तर्लीन हो जाता है नहीं | अब इन दोनों अनुभव का विश्लेषण करके देखा जाय तो यह कि कोई एक ही सत्य है और दूसरा असल्य। अपने अपने विषय में दोनों की सत्यता होते.
कि मानों वह है ही
नहीं कहा जा सकता
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
Sap
pongestaneswwwsexdesi
Sोट
सामm இப்பitithaiபiபப்பா பயம்க்க
amagran
भारतीय प्रमावशाल में प्रमाणमीमांसा का स्थान
२३ हुए भी किसी एक को पूर्ण सत्य नहीं कह सकते । पूर्ण सत्य दोनों अनुभवों का समु. बित समन्वय ही है । क्योंकि इसी में सामान्य और विशेषात्मक वन वृक्षों का अबाधित अनुभव समा सकता है। यही स्थिति विश्व के सम्बन्ध में सद्-अद्वैत किंवा सद्-द्वैत दृष्टि की भी है।
कालिक, दैशिक और देश-कालातीत सामान्य विशेष के उपर्युक्त अद्वैत द्वैतवाद से आगे बढ़ कर एक कालिक सामान्य-विशेष के सूचक नित्यत्ववाद और क्षणिकत्ववाद भी हैं। ये दोनों बाद एक दूसरे के विरुद्ध ही जान पड़ते हैं, पर अनेकान्त दृष्टि कहती है कि वस्तुतः उनमें कोई विरोध नहीं । अब हम किसी तत्व को तीनों कालों में अलण्डरूप से अर्थात् अनादि-अनतरूप से देखेंगे तब वह अखण्ड प्रवाह रूप में आदि-अंत रहित होने के कारण नित्य ही है । पर इम अब उस अखण्ड प्रवाह पतित तरव को छोटे बड़े आपेक्षिक काल भेदों में विभाजित कर लेते हैं, तब उस उस काल पर्यंत स्थायी ऐसा परिमित रूप ही नजर आता है, जो सादि भी है और सान्त भी। अगर विवक्षित काल इतना छोटा हो जिसका दूसरा हिस्सा बुद्धिशस्त्र कर न सके तो उस काल से परिच्छिन्न वह तत्वगत प्रावाहिक अंश सबसे छोटा होने के कारण क्षणिक कहलाता है । नित्य और क्षणिक ये दोनों शब्द ठीक एक दूसरे के विरुद्धार्थक हैं। एक अनादि-अनन्त का और दूसरा सादि-सान्त का भाव दरसाता है। फिर भी हम अनेकान्तष्टि के अनुसार समझ सकते हैं कि जो तस्व अखण्ड प्रवाई की अपेक्षा से नित्य कहा जा सकता है वही तत्त्व खण्ड खण्ड क्षणपरिमित परिवर्तनो व पर्यायों की अपेक्षा को क्षणिक भी कहा जा सकता है। एक बाद की आधारष्टि है अनादि-अनंतता की दृष्टि । अब दूसरे की आधार है सादि-सान्तताकी दृष्टि । वस्तु का कालिक पूर्ण स्वरूप अनादि-अनंतता और सादि-सान्तता इन दो अंशों से बनता है। अतएव दोनों सृष्टियाँ अपने अपने विषय में यथार्थ होने पर भी पूर्ण प्रमाण तमी बनती हैं जब वे समन्वित हो ।
इस समन्वयको बचान्त से भी इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है । किसी एक वृक्षका जीवन-व्यापार मूल से लेकर फल तक में कालक्रम से होने वाली बीज, मूल, अंकुर, स्कन्ध, शाखा-पतिशाखा, पत्र, पुष्प और फल आदि विविध अवस्थाओं में होकर ही प्रवाहित और पूर्ण होता है । अब हम अमुक वस्तु को शुक्षरूप से समझते हैं तब उपर्युक्त सत्र अवस्थाओं में प्रवाहित होनेवाला पूर्ण जीवन-व्यापार ही अखण्डरूप से मनमें आता है। पर जब हम उसी जीवन-व्यापार के परस्पर भिन्न ऐसे क्रममावी मूल, अंकुर स्कन्ध स्मादि एक एक अंश को ग्रहण करते हैं तब वे परिमित काललक्षित अंश ही हमारे मनमें आते हैं। इस प्रकार हमारा मन कभी तो उस समूचे जीवन-व्यापार को अखण्ड रूप में स्पर्श करता है और कभी उसे खण्डित रूप में एक-एक अंश के द्वारा । परीक्षण करके देखते हैं तो साफ जान पड़ता है कि न तो अखण्ड जीवन-व्यापार ही एक मात्र पूर्ण वस्तु है या काल्पनिक मात्र है और न खण्डित अंश ही पूर्ण वस्तु है या काल्पनिक । भले ही उस अखण्ड में सारे खण्ड और सारे खण्डों में वह एक मात्र अखण्ड समा जाता हो फिर भी वस्तु का पूर्ण स्वरूप तो अखण्ड और खण्ड दोनों में ही पर्यवसित होने के कारण दोनों पहलुओं से गृहीत होता है। जैसे वे
ப்
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
ARRAHASRANAMAHASABHARATIESLATIHAUR
A
दोनों पहलू अपनी-अपनी कक्षा में यथार्थ होकर भी पूर्ण तभी बनते हैं जब समन्धित किये जायें। वैसे ही अनादि-अनन्त कालप्रवाह रूप वृक्ष का ग्रहण नित्यत्व का व्यञ्जक है और उसके घटक अंशो का ग्रहण अनित्यत्व या क्षणिकत्व का द्योतक है । आधारभूत नित्य-प्रवाह के सिवाय न तो अनित्य घटक सम्भव है और न अनित्य घटको के सिवाय वैसा नित्य प्रवाह ही । अतएव एकमात्र नित्यत्व को या एकमात्र अनित्यत्व को वास्तविक कह कर दुसरे विरोधी अंश को अवास्तविक कहना ही नित्य अनित्यवादों की रकर का बीज है जिसे अनेकान्तदृष्टि हटाती है
अनेकान्तदृष्टि अनिर्वचनीयत्व और निर्वचनीयत्व वाद की पारस्परिक टनर को भी मिटाती है । वह कहती है कि वस्तु का वही रूप प्रतिपाय हो सकता है जो संकेत का विषय बन सके। सूक्ष्मतम अद्धि के द्वारा किया जानेवाला संकेत भी मधुल अंश को ही विषय पर सकता है । वस्तु के ऐसे अपरिमिल भाव हैं जिन्हें संकेत के द्वारा शब्द से प्रतिपादन करना संभव नहीं। इस अर्थ में अखण्ड सत् या निरंश क्षण अनिर्वचनीय ही है जब कि मध्यवर्ती स्थूल भाव निर्वचनीय भी हो सकते हैं। अतएव समग्र विश्व के या उसके किसी एक तत्त्व के बारे में जो अनिर्वचनीयत्व और निर्वचनीयत्व के विरोधी प्रवाद है वे वस्तुतः अपनीअपनी कक्षा में यथार्थ होने पर भी प्रमाण तो समूचे रूप में ही हैं।
एक ही वस्तु की भावरूपता और अभावरूपता भी विरुद्ध नहीं । मात्र विधिभुख से या मात्र निषेधमुख से ही वस्तु प्रतीत नहीं होती। दुध, दुध रूप से भी प्रतीत होता है और अदधि या दधिभिन्न रूप से भी। ऐसी दशा में वह भाव-अभाव उभय रूप सिद्ध हो जाता है और एक ही वस्तु में भावस्व या अभावत्व का विरोध प्रतीति के स्वरूप भेद से हट जाता है। इसी तरह धर्म धर्मी, गुण-गुणी, कार्य-कारण, आधार-आषेय आदि इन्द्रों के अभेद और भेद के विरोध का परिहार भी अनेकान्त दृष्टि कर देती है।
जहाँ आप्तत्व और उसके मूल के प्रामाण्य में संदेह हो वहाँ हेतुबाद के द्वारा परीक्षा पूर्वक ही निर्णय करना क्षेमेकर है; पर जहाँ आप्तस्व में कोई संदेह नहीं वहाँ हेतुवाद का प्रयोग अनवस्थाकारक होने से त्याज्य है। ऐसे स्थान में अगमवाद ही मार्गदर्शक हो सकता है। इस तरह विषयभेद से या एक ही विषय में प्रतिपाद्य भेद से हेतुधाद और आगमवाद दोनों को अवकाश है । उनमें कोई विरोध नहीं । यही स्थिति देव और पौरुषवाद की भी है। उनमें कोई विरोध नहीं । जहाँ बुद्धि पूर्वक पौरुष नहीं, वहाँ की समस्याओं का हल दैववाद कर सकता है। पर पौरुष के बुद्धिपूर्वक प्रयोगस्थल में पौरुषवाद ही स्थान पाता है। इस तरह जुदे जुदै पहल की अपेक्षा एक ही जीवन में देव और पौरुष दोनों बाद समन्वित किये जा सकते हैं।
कारण में कार्य को केवल सत् या केवल असत् मानने वाले वादों के विरोध का भी परिहार अनेकान्त दृष्टि सरलता से कर देती है। वह कहती है कि कार्य उपादान में सत् भी है और असत् भी ! कटक बनने के पहले भी सुवर्ण में कटक बनने की शक्ति है इसलिए
HKalicialise
SHARASISARupanMARAgaiki.sniwaniNeparsawsWOMAMMinintercepmaratymargawransireaponा
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
mway
428PROBali
Trim d asane
MATHURMER: ...planetlantinAYEPlume-MAHASRAM-PHIMRAPAR
भारतीय प्रमाणशास्त्र में प्रमाणमीमांसा का स्थान उत्पति के पहले भी शक्ति रूप से या कारणामेद दृष्टि से कार्य सत् कहा जा सकता है। शक्ति रूप से सत् होने पर भी उत्पादक सामग्री के अभाव में वह कार्य भाविभूत या उत्पन्न न होने के कारण उपलब्ध नहीं होता, इसलिए वह असत् भी है। तिरोभाव दशा में अब कि कटक उपलब्ध नहीं होता तब भी कुण्डलाकारधारी सुवर्ण कटक रूप बनने की योग्यता रखता है इसलिए उस दशा में असत् भी कटक योग्यता की रष्टि से सुवर्ण में सत् कहा जा सकता है।
बौद्धों का केवल परमाणु-पुष-वाद और नैयायिकों का अपूर्वावयवी वाद ये दोनों आपस में टकराते हैं। पर अनेकान्तहष्टि ने कन्ध का-जो कि न केवल परमाणु-पुञ्ज है और न अनुभववाधित अवयवों से भिन्न अपूर्व अवयकी रूप है-स्वीकार करके विरोध का समुचित रूप से परिहार व दोनो वादों का निर्दोष समन्वय कर दिया है। इसी तरह अनेकान्तदृष्टि ने अनेक विषयों में पवर्तमान विरोधी वादों का समन्वय मध्यस्थ भाव से किया है। ऐसा करते समय अनेकान्तवाद के आसपास नयवाद और भगवाद आप ही आप फलित हो जाते हैं। क्योंकि जुदे जुदे पहल या दृष्टिबिन्दु का पृथक्करण, उनकी विषयमर्यादा का विभाग और उनका एक विषय में यथोचित विन्यास करने ही से अनेकान्त सिद्ध होता है।
मकान किसी एक कोने में पूरा नहीं होता। उसके अनेक कोने भी किसी एक ही दिशा में नहीं होते। पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण आदि परस्पर विरुद्ध दिशा वाले एक-एक कोने पर खड़े रहकर किया जाने वाला उस मकान का अवलोकन पूर्ण तो नहीं होला, पर यह अयथार्थ भी नहीं । जुदे जुदे संभावित सभी कोनों पर खड़े रह कर किये जाने वाले सभी संभावित अवलोकनों का सार समुच्चय ही उस मकान का पूरा अवलोकन है। प्रत्येक कोण संभवी प्रत्येक अवलोकन उस पूर्ण अवलोकन के अनिवार्य अंग है। वैसे ही किसी एक वस्तु या समग्र विश्व का ताविक चिंतन-दर्शन भी अनेक अपेक्षाओं से निष्पन्न होता है। मन की सहज रचना, उस पर पड़ने वाले आगन्तुक संस्कार और चिन्स्य वस्तु का स्वरूप इत्यादि के सम्मेलन से ही अपेक्षा बनती है। ऐसी अपेक्षाएँ अनेक होती हैं, जिनका आश्रय लेकर वस्तुका विचार किया जाता है। विचार को सहारा देने के कारण या विचार स्रोत के उदगम का आधार बनने के कारण ने ही अपेक्षाएँ दृष्टिकोण या दृष्टिबिन्दु भी कही जाती है। संभावित सभी अपेक्षाओं से-चाहे वे विरुद्ध ही क्यों न दिखाई देती हो-किये जाने वाले चिंतन ५ दर्शनों का सार समुच्चय ही उस विषय का पूर्ण-अनेकान्त दर्शन है। प्रत्येक अपेक्षासंभवी दर्शन उस पूर्ण दर्शन का एक एक अर है जो परस्पर विरुद्ध होकर भी पूर्ण दर्शन में समन्वय पाने के कारण वस्तुतः अविरुद्ध ही है।
जब किसी की मनोवृत्ति विश्वके अन्तर्गत सभी भेदों को-चाहे वे गुण धर्म या स्वरूप कृत हो या व्यक्तित्व कृत हो-मुला कर अर्थात् उनकी ओर झुके बिना ही एक मात्र अखण्डता का ही विचार करती है, तब उसे अस्खण्ड था एक ही विश्व का दर्शन होता है। अभेद की उस भूमिका पर से निष्पन्न होने वाला 'सत्' शब्द के एक मात्र अखण्ड अर्थ का दर्शन
H ENamtarini. ...
THE
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६
अस्तावना ही संग्रहनय है। गुणधर्म कृत या व्यक्तित्व कृत भेदों की ओर झुकने वाली मनोवृत्ति से किया जाने वाला उसी विश्वका दर्शन व्यवहारनय कहलाता है, क्योंकि उसमें लोकसिद्ध व्यवहारों की भूमिका रूप भेदों का खास स्थान है। इस दर्शन में 'सत्' शब्दको अर्थ मर्यादा अखण्डित न रह कर अनेक खण्डों में विभाजित हो जाती है। वही भेदगामिनी मनोवृत्ति या अपेक्षा सिर्फ कालकृत भेदों की ओर झुक कर सिर्फ वर्तमान को ही कार्यक्षम होने के कारण जब सत् रूप से देखती है और अतीत अनागत को 'सत्' शब्द की अर्थ मर्यादा में से हटा देती है तब उसके द्वारा फलित होने वाला विश्व का दर्शन ऋजुसूत्र नय है। क्योंकि वह पतीः अजगत में गाद को शेप कर सिर्फ वर्तमान की सीधी रेखा पर चलता है। ___ उपर्युक्त तीनों मनोवृत्तियाँ ऐसी हैं जो शब्द का या शब्द के गुण-धर्मों का आश्रय बिना लिये ही किसी भी वस्तु का चिंतन करती हैं। अतएव वे तीनों प्रकार के चिंतन अर्थनय हैं। पर ऐसी भी मनोवृति होती है जो शब्द के गुण-धमों का आश्रय ले कर ही अर्थ का विचार करती है । अतएव ऐसी मनोवृत्ति से फलित अर्थ चिंतन शब्दनय कहे जाते हैं। शाब्दिक लोग ही सुरूयता शब्दमय के अधिकारी हैं। क्योंकि उन्हीं के विविध दृष्टि बिन्दुओं से शब्दनय में विविधता आई है। __जो शाब्दिक सभी शब्दों को अखण्ड अर्थात् अव्युत्पन्न मानते हैं वे व्युत्पत्ति भेद से अर्थ भेद न मानने पर भी लिंग, पुरुष, काल आदि अन्य प्रकार के शब्द धर्मों के मेद के आधार पर अर्थ का वैविध्य बतलाते हैं। उनका वह अर्थ-मेद का दर्शन शब्दनय या साम्प्रतनय है। प्रत्येक शब्द को व्युत्पसि सिद्ध ही मानने वाली मनोवृत्ति से विचार करने वाले शाब्दिक पर्याय अर्थात् एकार्थक समझे जाने वाले शब्दों के अर्थ में भी व्युत्पत्ति भेद से भेद बतलाते हैं। उनका वह शक्र, इन्द्र आदि जैसे पर्याय शब्दों के अर्थमेद का दर्शन समभिनवनय कहलाता है। व्युत्पत्ति के भेद से ही नहीं, बरिक एक ही व्युत्पत्ति से फलित होने वाले अर्थ की मौजूदगी और और-मौजूदगी के भेद के कारण से भी जो दर्शन अर्थमेद मानता है वह एवंभूतनय कहलाता है। इन तार्किक छः नयों के अलावा एक नैगम नाम का नय भी है। जिस में निगम अर्थात् देश रूढ़ि के अनुसार अमेवगामी और भेदगामी सब प्रकार के विचारों का समावेश माना गया है। प्रधानतया ये ही सात नय हैं। पर किसी एक अंशको अर्थात् रष्टिकोण को अबवित करके प्रवृत्त होने वाले सब प्रकार के विचार उस उस अपेक्षा के सूचक नय ही है। ____ शास्त्र में द्रव्यार्थिक और पर्यापार्थिक ऐसे दो नय भी प्रसिद्ध हैं पर वे नय उपयुक्त सात नयों से अलग नहीं हैं किन्तु उन्हीं का संक्षिप्त वर्गीकरण या भूमिकामात्र हैं। द्रव्य मर्थात् सामान्य, अन्वय, अमेद या एकत्ल को विषय करने वाला विचारमार्ग द्रव्यार्थिकनय है। नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीनों द्रव्यार्थिक ही हैं। इनमें से संग्रह तो शुद्ध अभेद का विचारक होने से शुद्ध या मूल ही द्रव्यार्थिक है जब कि व्यवहार और नैगम की प्रवृत्ति मेदगामी होकर भी किसी न किसी प्रकार के अभेद को भी अवलंबित करके ही चलती है ।
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
Reace
ROPo EMAmountanttis
s
ESS
भारतीय प्रमाणशास्त्र में प्रमाणमीमांसा का स्थान इसलिये वे भी द्रव्यार्थिक ही माने गए हैं । अलबत्ता ये संग्रह की तरह शुद्ध न होकर अशुद्धमिश्रित ही द्रव्याधिक हैं।
पर्याय अर्थात् विशेष, व्यावृत्ति या भेद को ही लक्ष्य करके प्रवृत्त होने वाला विचारपथ पर्यायार्थिक मय है। ऋजुसूत्र आदि बाकी के चारों नय पर्यायार्थिक ही माने गये हैं। अभेद को छोड़कर मात्र भेद का विचार ऋजुसूत्र से शुरू होता है इसलिये उसीको शास्त्र में पर्यायार्थिक नय की प्रकृति या मूल आधार कहा है। पिछल शब्दादि तीन नय उसी मूल भूत पर्यायाभिक के एक प्रकार से विस्तारमात्र है। __मात्र ज्ञान को उपयोगी मानकर उसके आश्रय से प्रवृत्त विचार धारा ज्ञाननय है तो मात्र क्रिया के आश्रय से प्रकृत विचार धारा क्रियानय है । नयरूप आधार स्तम्मों के अपरिमित होने के कारण विश्व का पूर्णदर्शन-अनेकान्त भी निस्सीम है।
भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं, दृष्टिकोणों या मनोवृत्तियों से जो एक ही तस्त्र के नाना दर्शन फलित होते हैं उन्हींके आधार पर भाबाद की सृष्टि खड़ी होती है। जिन दो दर्शनों के विषय ठीक एक दूसरे के बिलकुल विरोधी पड़ते हों ऐसे दर्शनों का समन्वय बतलाने की दृष्टि से उनके विषयभूत भाव अभावात्मक दोनों अंशे को लेकर उन पर जो संभवित वाक्यभङ्ग बनाये जाते हैं वही सप्तभकी है । सप्तभङ्गी का आधार नयवाद है । और उसका ध्येय तो समन्वय अर्थात् अनेकान्त कोटि का व्यापक दर्शन कराना है। जैसे किसी भी प्रमाण से जाने हुए पदार्थ का बोध दूसरे को कराने के लिए परार्थ अनुमान अर्थात् अनुमान वाक्य की रचना की जाती है। वैसे ही विरुद्ध अंशो का समन्वय श्रोता को समझाने की दृष्टि से भर-वाक्य की रचना भी की जाती है। इस तरह नयवाद और भगवाद अनेकान्तडष्टि के क्षेत्र में आप ही आप फलित हो जाते हैं।
यह ठीक है कि वैदिक परंपरा के न्याय, वेदान्त आदि दर्शनों में तथा बौद्ध दर्शन में किसी एक वस्तु का विविध दृष्टिों से निरूपण की पद्धति तथा अनेक पक्षोंके समन्वय की दृष्टि भी देखी जाती है फिर भी प्रत्येक वस्तु और उसके प्रत्येक पहलू पर संभावित समग्र दृष्टिबिन्दुओं से विचार करने का आत्यन्तिक आग्रह तथा उन समप्र दृष्टिबिन्दुओं के एक मात्र समन्वय में ही विचार की परिपूर्णता मानने का दृढ आग्रह जैन परंपरा के सिवाय अन्यत्र कहीं देखा नहीं जाता । इसी आग्रह में से जैन तार्किकों ने अनेकान्त, नय और ससमझी वाद का बिलकुल स्वतन्त्र और व्यवस्थित शास्त्र निर्माण किया जो प्रमाण शास्त्र का एक माग ही बन गया और जिसकी जोड़ का ऐसा छोटा भी अन्य इतर परंपराओं में नहीं बना । विभज्यवाद और मध्यम मार्ग होते हुए भी बौद्ध परंपरा किसी भी वस्तु में वास्तविक स्थायी अंश देख न सकी उसे मात्र क्षणभंग ही नजर आया। अनेकान्त शब्द से ही अनेकान्त
m
Sta
rammam
सिद्धान्तविन्दु पृ.११५से बेदान्तसार पृ. १५।
उदाहरणार्थ देखो सांत्यप्रवचनमाय पू. तर्कसंग्रहदीपिका पृ० १७५ । महाश्रम ६.३।
२ देखो, टिषण पृ. ६१ से ३ न्यायभाष्य २. १.१८
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
दृष्टि का आश्रय करने पर भी नैयायिक परमाणु, आत्मा आदि को सर्वथा अपरिणामी ही मानने मनवाने की धुन से बच न सके । व्यावहारिक-पारमार्थिक आदि अनेक दृष्टिओं का अवलम्बन करते हुए भी वेदान्ती अन्य सब दृधिओं को अमदृष्टि से कम दरजे की या बिलकुल ही असत्य मानने मनवाने से बच न सके । इसका एक मात्र कारण यही जान पड़ता है कि उन दर्शनों में व्यापकरूप से अनेकान्त भावना का स्थान न रहा जैसा कि जैनदर्शन में रहा । इसी कारण से अनदर्शन सब दृष्टिओं का समन्वय भी करता है और सभी दृष्टिओं को अपने अपने विषय में तुल्य बल व रवा माना है। भेद , सामान-विमोष, नित्यत्वअनित्यत्व' आदि तत्वज्ञान के प्राचीन मुद्दों पर ही सीमित रहने के कारण वह अनेकान्त दृष्टि और तन्मूलक अनेकान्त व्यवस्थापक शास्त्र पुनरुक्त, चर्वितचर्वण या नवीनता शुन्य जान पड़ने का आपाततः संभव है फिर भी उस दृष्टि और उस शास्त्र निर्माण के पीछे जो. अखण्ड
और सजीव सर्वांश सत्य को अपनाने की भावना जैन परंपरा में रही और जो प्रमाण शास्त्र में अवलीर्ण हुई उसका जीवनके समम क्षेत्रों में सफल उपयोग होने की पूर्ण योग्यता होने के कारण ही उसे प्रमाणशास्त्र को जैनाचार्यों की देन कहना अनुपयुक्त नहीं।
तत्त्वचिन्तन में अनेकान्त दृष्टि का व्यापक उपयोग करके जनतार्किकों ने अपने आगमिक प्रमेयों तथा सर्वसाधारण न्याय के प्रमेयों में से जो जो मन्तव्य तार्किक दृष्टि से स्थिर किये और प्रमाण शास्त्र में जिनका निरूपण किया उनमें से थोड़े ऐसे मन्तव्यों का भी निर्देश उदाहरण के तौर पर यहां कर देना जरूरी है, जो एक मात्र जैन तार्किकों की विशेषता दरसाने वाले हैं-प्रमाण विभाग, प्रत्यक्ष का तात्विकल, इन्द्रियज़ान का व्यापार क्रम, परोक्ष के प्रकार, हेतु का रूप, अवयवों की प्रायोगिक व्यवस्था, कथा का स्वरूप, निग्रस्थान या जय. पराजय व्यवस्था, प्रमेय और प्रमाता का स्वरूप, सर्वज्ञत्वसमर्थन आदि।
२. प्रमाणविमाग-जैन परंपरा का प्रमाण विषयक मुख्य विभाग दो दृष्टिओं से अन्य परंपराओं की अपेक्षा विशेष महत्व रखता है। एक तो यह कि ऐसे सर्वानुभवसिद्ध वैलक्षण्य पर मुख्य विभाग अवलंबित है जिससे एक विभाग में आने वाले प्रमाण दूसरे विभाग से असंकीर्ण रूप में अलग हो जाते हैं जैसा कि इतर परंपरागों के प्रमाण विभाग में नहीं हो पाता। दूसरी दृष्टि यह है कि चाहे किसी दर्शन की न्यून या अधिक प्रमाण संख्या क्यों न हो पर वह सब बिना खींचतान के इस विभाग में समा जाती है। कोई भी ज्ञान या तो सीधे तौर से साक्षाकारात्मक हो सकता है या असाक्षात्कारात्मक, यही प्राकृत-पंडितजन साधारण अनुभव है। इसी अनुभव को सामने रखकर जैन चिन्तकों ने प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो मुख्य विभाग किये जो एक दूसरे से बिलकुल विलक्षण हैं। दूसरी इसकी खूबी यह है कि इसमें न तो चार्वाक की तरह परोक्षानुभव का अपलाप है, न बौद्धदर्शन संमत प्रत्यक्ष-अनुमान द्वैविध्य की तरह आगम आदि इतर प्रमाण ब्यापारों का अपलाप है या खींचातानी से अनुमान में समावेश करना पड़ता है, और न त्रिविध प्रमाणवादी सांस्य तथा प्राचीन वैशेषिक,
dawitrivintaintitarwa
ZARRIOROSCOTimes
m es
Samosssa
प्रमाणमीमांसा १, १.१० तथा टिप्पण पृ० १९. ५० २९
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
SHER
Mandalee
o minatilmm
a nsi
भारतीय प्रमाणशास्त्र में प्रमाणमीमांसा का स्थान चतुर्विध प्रमाणवादी नैयायिक, पंचविध प्रमाणवादी प्रभाकर षड्विध पमाणवादी मीमांसक, सप्तविध या अष्टविध प्रमाणवादी पौराणिक आदि की तरह अपनी अपनी अभिमत प्रमाण संख्या को स्थिर बनाये रखने के लिए इतर संख्या का अपलाष या उसे तोड़ मरोड़ करके अपने में समावेश करना पड़ता है। चाहे जितने प्रमाण मान लो पर ये सीधे तौर पर या तो मत्यक्ष होंगे या परोक्ष । इसी सादी किन्तु उपयोगी समझ पर जैनों का मुख्य प्रमाण विभाग कायम हुमा जान पड़ता है।
३. प्रत्यक्ष का ताचिकत्व-प्रत्येक चिन्तक इन्द्रिय अन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष मानता है। अनदृष्टि का कहना है कि दूसरे किसी भी ज्ञान से प्रत्यक्ष का ही स्थान ऊँचा व प्राथमिक है। इन्द्रियाँ जो परिमित प्रदेश में अतिस्थूल वस्तुओं से आगे जा नहीं सकती, उनसे पैदा होनेवाले ज्ञान को परोक्ष से ऊँचा स्थान देना इन्द्रियों का अति मूल्य आँकने के बराबर है । इन्द्रियाँ कितनी ही पटु क्यों न हों पर वे अन्ततः है तो परतन्त्र ही। अतएव परतन्त्र अनित शान को सर्वश्रेष्ठ प्रत्यक्ष मानने की अपेक्षा स्वतन्त्रजनित ज्ञान को ही प्रत्यक्ष मानना न्यायसंगत है। इसी विचार से जैन चिन्तकों ने उसी ज्ञान को वस्तुतः प्रत्यक्ष माना है जो स्वतन्त्र आत्मा के आश्रित है। यह जैन विचार तत्त्वचिन्तन में मौलिक है। ऐसा होते हुए भी छोकसिद्ध प्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहकर उन्होंने अनेकान्त दृष्टि का उपयोग कर दिया है।
१, इन्द्रियज्ञान का च्यापर क्रम-सब दर्शनों में एक या दूसरे रूप में थोड़े या बहुत परिमाण में शान व्यापार का कम देखा जाता है। इसमें ऐन्द्रियक ज्ञान के व्यापार क्रम का भी स्थान है। परंतु जैन परंपरा में सनिपातरूप प्राथमिक इन्द्रिय व्यापार से लेकर अंतिम इन्द्रिय व्यापार तक का जिस विश्लेषण और जिस स्पष्टता के साथ अनुभव सिद्ध मतिविस्तृत वर्णन है वैसा दूसरे वचनों में नहीं देखा जाता । यह जैन वर्णन है तो अतिपुराना और विज्ञानयुग के पहिले का, फिर भी आधुनिक मानस शास्त्र तथा इन्द्रियव्यापार शास्त्र के वैज्ञानिक अभ्यासियों के वास्ते यह बहुत महत्त्व का है।
५. परोक्ष के प्रकार-केवल स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और आगम के ही प्रामाण्य-अप्रामाण्य मानने में मतभेदों का जंगल न था बक्षिक अनुमान तक के प्रामाण्य-अप्रामाण्य में विपतिपत्ति रही। जैन तार्किकों ने देखा कि प्रत्येक पक्षकार अपने पक्ष को प्रात्यन्तिक खींचने में दूसरे पक्षकार का सत्य देख नहीं पाता। इस विचार में से उन्होंने उन सब प्रकार के शानों को प्रमाणकोटि में दाखिल किया जिनके बल पर वास्तविक व्यवहार चलता है और जिनमें से किसी एक का अपलाप करने पर तुल्य युक्ति से दूसरे का अपलाप करना अनिवार्य हो जाता है। ऐसे सभी प्रमाण प्रकारों को उन्होंने परोक्ष में डालकर अपनी समन्वयदृष्टि का . परिचय कराया। १ टिप्पण पृ. १९५० २९ तथा पृ. २३६.२४ । शिप्पण पू० ४५पं. प्रमाणमीमांसा १.१.१ । विषण पु. ४२ पं. २१1० ४५० । पृ. ७६ पं० १५ ।
Ramdastishtatis
t
icat
ndianRaakhinditical
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
lindianrainik
६. हेतु का रूप-हेतु के स्वरूप के विषय में मतभेदों के अनेक अखाड़े कायम हो गये थे। इस युग में जैन तार्किकों ने यह सोचा कि क्या हेतु का एक ही रूप ऐसा मिल सकता है या नहीं, जिस पर सब मतभेदों का समन्वय भी हो सके और जो वास्तविक भी हो। इस चिन्तन में से उन्होंने हेतु का एक मात्र अभ्यथानुपपत्ति रूप निश्चित किया जो उसका निर्दोष लक्षण भी हो सके और सब मतों के समाप ले साथ जो साम्य भी हो । जहाँ तक देखा गया है. हेतु के ऐसे एकमात्र तात्त्विक रूप के निश्चित करने का तथा उसके द्वारा तीन, चार, पाँच और छ:, पूर्वप्रसिद्ध हेतु रूपों के यथासंभव स्वीकार का श्रेय जैन तार्किकों को ही है।
७. अवयवों की प्रायोगिक व्यवस्था-परार्थानुमान के अवयवों की संख्या के विषय में भी प्रतिद्वन्द्वीभाव प्रमाण क्षेत्र में कायम हो गया था । अन तार्षिकों ने उस विषय के पक्षभेद की यथार्थता-अयथार्थता का निर्णय श्रोता की योग्यता के आधार पर ही किया, जो वस्तुतः सची कसौटी हो सकती है । इस कसौटी में से उन्हें अवयव प्रयोग की व्यवस्था ठीक २ सूझ आई जो वस्तुतः अनेकान्तदृष्टि मूलक होकर सर्वसंग्राहिणी है और वैसी स्पष्ट मन्य परंपराओं में शायद ही देखी जाती है ।
८. कथा का स्वरूप--आध्यात्मिकता-मिश्रित तस्वचितन में भी साम्प्रदायिक बुद्धि दाखिल होते ही उसमें से आध्यात्मिकता के साथ असंगत ऐसी चर्चाएँ जोरों से चलने लगी, जिनके फल स्वरूप जश्य और वितंडा कथा का चलाना भी प्रतिष्ठिन समझा जाने लगा, जो छल, जाति आदि के असत्य दाव पेचों पर ही निर्भर था । जैन तार्किक साम्प्रदायिकता से मुक्त तो न थे, फिर भी उनकी परम्परागत अहिंसा ब वीतरागत्व की प्रकृति ने उन्हें वह असंगति सुझाई जिससे प्रेरित हो कर उन्होंने अपने तर्कशास्त्र में कथा का एक वादात्मक रूप ही स्थिर किया, जिसमें छल आदि किसी भी चाल बाजी का प्रयोग यज्य है और जो एकमात्र तस्वजिज्ञासा की दृष्टि से चलाई जाती है। अहिंसा की आत्यंतिक समर्थक जैन परंपरा की तरह बौद्ध परम्परा भी रही, फिर भी छल आदि के प्रयोगों में हिंसा देख कर निध ठहराने का तथा एक मात्र वादकथा को ही प्रतिष्ठित बनाने का मार्ग जैन-तार्किकों ने प्रशस्त किया। जिसकी ओर तस्व-चिंतकों का लक्ष्य जाना जरूरी है ।
९. निग्रहस्थान या जय-पराजय व्यवस्था-वैदिक और बौद्ध परम्परा के संघर्ष ने निग्रह-स्थान के स्वरूप के विषय में विकास सूक बड़ी ही भारी प्रगति सिख की थी फिर भी उस क्षेत्र में जैन तार्किकों ने प्रवेश करते ही एक ऐसी नई बात सुझाई जो न्यायविकास के समग्र इतिहास में बड़े मा की और अब तक सबसे अंतिम है । वह बात है जय-पराजय व्यवस्था का नया निर्माण करने की। वह नया निर्माण सत्य और अहिंसा दोनों तत्वों पर प्रतिष्ठित हुआ जो पहले की जय पराजय व्यवस्था में न थे ।
टिषण पू. ८० ५० ३.। टिपण पृ. १४ पं. १४। ३ नियम ५. १०८.५० १५ । पृ५ ११५, ५० २८॥ टिप्पण पृ. ११९५० ।
dinindianwwwsikseblishemam
iminatan
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
भारतीय प्रमाणशास्त्र में प्रमाणमीमांसा का स्थान
३१
१०. प्रमेय और प्रमाता का स्वरूप- प्रमेय जड़ हो या चेतन, पर सबका स्वरूप जैन तार्किक ने अनेकान्त-दृष्टि का उपयोग करके ही स्थापित किया और सर्व व्यापक रूप से कह दिया कि वस्तु मात्र परिणामी नित्य है । नित्यता के ऐकान्तिक आग्रह की धुन में अनुभवसिद्ध अनित्यता का इनकार करने की अशक्यता देख कर कुछ तत्व चिंतक गुण, धर्म आदि में अनित्यता घटा कर उसका जो मेल नित्य-द्रव्य के साथ खीचातानी से बिठा रहे थे और कुछ ava fiतक अनित्यता के ऐकान्तिक आमह की धुन में अनुभव सिद्ध नित्यता को भी जो कल्पना मात्र बतला रहे थे उन दोनों में जैन तार्किकों ने स्पष्टतया अनुभव की आंशिक असंगति देखी और पूरे विश्वास के साथ बल पूर्वक प्रतिपादन कर दिया कि अब अनुभव न केवल नित्यता का है और न केवल अनित्यता का तब किसी एक अंश को मान कर दूसरे अंश का बलात् मेल बैठाने की अपेक्षा दोनों अशों को तुल्य सत्य-रूप में स्वीकार करना ही न्याय संगत है। इस प्रतिपादन में दिखाई देने वाले विशेष का परिहार उन्होंने द्रव्य और पर्याय या सामान्य और विशेष ग्राहिणी दो दृष्टियों के स्पष्ट पृथक्करण से कर दिया । द्रव्य-पर्याय की व्यापक दृष्टि का यह विकास जैन- परम्परा की ही देन है ।
जीवात्मा, परमात्मा और ईश्वर के संबन्ध में सद्गुण-विकास या आचरण साफल्य की ष्ट से असंगत ऐसी अनेक कल्पनाएँ तत्व चिंतन के प्रदेश में प्रचलित थीं । एकमात्र परमात्मा ही है या उससे भिन्न अनेक जीवात्मा चेतन भी हैं, पर तत्त्वतः वे सभी कूटस्थ निर्वि कार और निर्लेप ही हैं। जो कुछ दोष या बन्धन है वह या तो निरा श्रान्ति मात्र है या अ प्रकृति गत है । इस मतलब का तत्त्व- चितन एक ओर था दूसरी ओर ऐसा भी चिंतन था जो कहता कि चैतन्य तो है, उसमें दोष, वासना आदि का लगाव तथा उससे अलग होने की योग्यता भी हैं पर उस चैतन्य की प्रवाह-बद्ध पारा में कोई स्थिर तत्त्व नहीं है। इन दोनों प्रकार के तव चितनों में सद्गुण-विकास और सदाचार- साफल्य की संगति सरलता से नहीं बैठ पाती । वैयक्तिक या सामूहिक जीवन में सद्गुण विकास और सदाचार के निर्माण के सिवाय और किसी प्रकार से सामंजस्य जम नहीं सकता । यह सोच कर जैन- चिकों ने आत्मा का स्वरूप ऐसा माना जिसमें एक सी परमात्म शक्ति भी रहे और जिसमें दोष, वासना आदि के निवारण द्वारा जीवन-शुद्धि की वास्तविक जवाबदेही भी रहे। आत्मविषयक जैन-चिंतन में वास्तविक परमात्म-शक्ति या ईश्वर- भाव का तुल्य रूप से स्थान है, अनुभव सिद्ध आगन्तुक दोषों के निवारणार्थ तथा सहज-शुद्धि के आविर्भावार्थ प्रयत्न का पूरा अवकाश है । इसी व्यवहार - सिद्ध बुद्धि में से जीवभेदवाद तथा देहममाणवाद स्थापित हुए जो संमिलित रूप से एक मात्र जैन परम्परा में ही हैं।
११. सर्वज्ञत्व समर्थन - प्रमाण - शास्त्र में जैन सर्वज्ञ बाद दो दृष्टियों से अपना खास स्थान रखता है । एक तो यह कि वह जीव-सर्वज्ञ याद है जिसमें हर कोई अधिकारी की सर्वज्ञत्व
W
१ टिप्पण पु० ५३, ५० ६ ० ५४. पं० १७ । २०५७ २० २१ । २०७० ८०० १३६. ०११ ।
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना पाने की शक्ति मानी गई है और दूसरी दृष्टि यह है कि जनपक्ष निरपवाद' रूप से सर्वज्ञवादी ही रहा है जैसा कि न बौद्ध परम्परा में हुआ है और न वैदिक परम्परा में । इस कारण से काल्पनिक, अकाल्पनिक, मिश्रित यावत् सर्वज्ञत्व समर्थक युक्तियों का संग्रह मकेले जैन प्रमाणशास्त्र में ही मिल जाता है । जो सर्वज्ञस्व के सम्बन्ध में हुए भूतकालीन बौद्धिक व्यायाम के ऐतिहासिक अभ्यासियों के तथा साम्प्रदायिक भावना वालों के काम की चीज है ।
२. भारतीय प्रमाणशास्त्र में हेमचन्द्र का अर्पण परम्परा प्राप्त उपर्युक्त तथा दुसरे अनेक छोटे बड़े तत्वज्ञान के मुद्दों पर हेमचन्द्र ने ऐसा कोई विशिष्ट चिंतन किया है या नहीं और किया है तो किस किस मुद्दे पर किस प्रकार है जो जैन तर्क शास्त्र के अलावा भारतीय प्रमाण-शास्त्र मात्र को उनकी देन कही जा सके । इसका जबाब हम हिंदी टिप्पणों में उस उस स्थान पर ऐतिहासिक तथा तुलनास्मक दृष्टि द्वारा विस्तार से दे चुके हैं। जिसे दुहराने की कोई जरूरत नहीं । विशेष जिज्ञासु उस उस मुद्दे के टिप्पणों को देख लेवें।
सुखलाल।
ग्रन्थकार का परिचय ।
भारतवर्ष के इतिहास को उज्ज्वल करने वाले तेजस्वी आचार्यमण्डल में श्री हेमचन्द्राचार्य प्रतिष्ठित हैं। अपनी जन्मभूमि एवं कार्यक्षेत्र के प्रदेश की लोकस्मृति में उनका नाम सर्वदा अलुच रहा है। उनके पीछे के संस्कृत पण्डितों में उनके अन्थों का मादर हुआ है और जिस सम्प्रदाय को उन्होंने मण्डित किया था उसमें वे 'कलिकालसर्वज्ञ' की असाधारण सम्मान्य उपाधि से विख्यात हुए हैं।
निरुक्तकार यास्काचार्य प्रसंगवशात् भाचार्य शब्द का निर्वचन करते हुए कहते है कि 'आचार्य क्यों ! आचार्य भाचार ग्रहण करवाता है, अथवा आचार्य अर्थों की बद्धि करता है या बुद्धि बढ़ाता है।'' भाषा शास्त्र की दृष्टि से ये व्युत्पचियाँ सत्य हो या न हों, परन्तु आचार्य के तीनों धर्मों का इसमें समावेश होता दिखाई देता है। आज कल की परिभाषा में इस प्रकार कह सकते हैं कि आचार्य शिष्यवर्ग को शिष्टाचार तथा सद्वर्तन सिखाता है, विचारों की वृद्धि करता है और इस प्रकार बुद्धि की वृद्धि करता है, अर्थात् चारित्र तथा बुद्धि का जो विकास कराने में समर्थ हो वह आचार्य । इस अथ में श्री हेमचन्द्र गुजरात के एक प्रधान
१ टिप्पण पृ० २७. पं० ११
२ आचार्यः कस्मात् ? आचार्य आचार ग्राहयति, भाचिनोत्लान् , सचिनोति बुद्धिमिति का-१०१-४, पृ. ६२(बौ. सं. प्रा. मीरीज)।
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
MARADABosniamwaiaHBITERAHAL
प्रन्धकार का परिचय आचार्य हुए। यह बात उनके जीवन कार्य का और लोक में उसके परिणाम का इतिहास देखने से स्पष्ट होती है।
जिस देश-काल में आचार्य हेमचन्द्र का जीवन कृतार्थ हुआ वह एक ओर तो उनकी शक्तिओं की पूरी कसौटी करे ऐसा था और दूसरी ओर उन शक्तिओं को प्रगट होने में पूरा अवकाश देने वाला था।
RSSBIA
usicsASHARMAdit
यदि जिनपभसूरि ने 'पुराविदों के मुख से सुनी हुई' परम्परा सत्य हो तो कह सकते हैं कि वि० सं० ५०२ (ई० स० ४४६) में लक्खाराम नाम से जो जननिवास प्रख्यात था उस जगह वि० सं० ८०२ (ई० स० ७४६) में 'अणहिल गोपाल' से परीक्षित प्रदेश में 'चाउकड वंश के मोती सम वणराय ने 'पत्तण' बसाया। यह पसन अणहिल्लपुरपाटन के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुआ । इस राजधानी का शासन चारडाओं ने और सोलंकियों ने धीरे-धीरे फैलाया और इसके साथ ही साथ भिन्नमाल ( अथवा श्रीमाल), वलभी तथा गिरिनगर की नगरश्रीओं की यह नगरथी उच्चाधिकारिणी हुई। इस उसराधिकार में समाधानियों-कान्यकुज, उज्जयिनी एवं पाटलिपुत्र के भी संस्कार थे । इस अभ्युदय की पराकाष्ठा जयसिंह सिद्धराज (वि० सं० ११५०-११९९), और कुमारपाल (वि० सं० ११९९-१२२९) के समय में दिखाई दी और पौनी शताब्दि से अधिक काल (ई० स० १०९४-११७३ ) तक स्थिर रही । आचार्य हेमचन्द्रका आयुष्काल इस युग में था, उन्हें इस संस्कार समृद्धि का लाभ प्राप्त हुआ था। वे उस युग से बने थे और उन्होंने उस युग को बनाया ! ___ जयसिंह सिद्धराज के पितामह भीमदेव (प्रथम) (ई० १० १०२१-६५) और पिता कर्णदेव के काल में ( ई० स० १०६४-९४) अणहिलपुरपाटन देश-विदेश के विख्यात विद्वानोंके समागम और निवास का स्थान बन गया था, ऐसा 'प्रभावकचरित' के उलेखों से मालूम होता है। भीमदेव का सान्धि-विग्रहिक 'विप डामर', जिसका हेमचन्द्र दामोदर के नाम से उस करते हैं, अपनी बुद्धिमत्ता के कारण प्रसिद्ध हुआ होगा ऐसा जान पड़ता है। शैवाचार्य ज्ञानदेव, पुरोहित सोमेश्वर, सुराचार्य, मध्यदेश के ब्राक्षण पण्डित श्रीधर और श्रीपति ( जो आगे जाकर जिनेश्वर और बुद्धिसागर के नाम से जैन साधु रूप में
१. ५.. विविधतीर्थकरूप; संपादकः मुनि श्री जिन विजयजीः सिंघी जैन-प्रन्थमाला । २ देखो प्रभावकचरित ( निर्गय सागर ) पृष्ठ १.६-३४६ ।
३ भीमदेव की रानी उदयमती की वापिका-बावड़ी के साथ दामोदर के कुएँ का लोकोक्तिम उदिस्य माता है। इस पर से उसने सुन्दर शिल्प को उतेजन दिया होगा ऐसा प्रतीत होता है
'राणको बाय नै दामोदर कुबो जेणे न जोयो से जीवता मुओ' ( रानी की बावड़ी और दामोदर कुओं जिमने न देखा वह जीते मूभा) देखो प्रवन्ध चिन्तामणि पृ.३०-१४, सिंधी अन ग्रंथमाला और दामोदर' उन के लिए पात्रय ८,६१
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
३४ प्रसिद्ध हुए ), जयराशि भट्ट के तत्वोपप्लव' की 'युक्तियों के बल से पाटन की सभा में बाद करने वाला भृगुकच्छ ( भडोच ) का कोलकवि धर्म, तर्कशास्त्र के प्रौढ़ अध्यापक जैनाचार्य शान्तिसूरि जिनकी पाठशाला में 'बौद्ध तर्क में से उत्पन्न और समझने में कठिन ऐसे प्रमेयों की शिक्षा दी जाती थी और इस तर्कशाला के समर्थ छात्र मुनिचन्द्र सूरि इत्यादि पण्डित प्रख्यात थे । 'कर्णसुन्दरी नाटिका' के कर्ता काश्मीरी पण्डित बिल्हण ने और मवाजीटीकाकार अभयदेवसूरि ने कर्णदेव के राज्य में पाटन को सुशोभित किया था ।।
__ जयसिंह सिद्धराजके समय में सिंह नामका सांस्यवादी, जैन वीराचार्य, 'प्रमाणनयतत्वालोक' और टीका 'स्थाद्वादरत्नाकर' के रचायता प्रसिद्ध तार्किक वादिदेवसूरि इत्यादि प्रख्यात थे । 'मुद्रितकुमुदचन्द्र' नामक प्रकरण में जयसिंह की विद्वरसभा का वर्णन आता है। उसमें तर्क, भारत और पराशर के महषि सम महर्षिका, शारदादेश ( काश्मीर ) में जिनकी विद्या का उज्ज्वल महोत्सव सुविख्यात था ऐसे उत्साह पण्डित का, अद्भुत मतिरूपी लक्ष्मी के लिए सागरसम सागर पण्डित का और ममाणशास्त्र के महार्णव के पारंगत राम का उस्लेख पाता है ( अंक ५, पृ० ४५)। वडनगर की प्रशस्ति के रचयिता प्रज्ञाचक्षु, पाबाट ( पोरवाड ) कवि श्रीपाल और 'महाविद्वान्' एवं 'महामति' आदि विशेषणयुक्त भागवत देवबोध परस्पर स्पर्धा करते हुये भी जयसिंह के मान्य थे। वाराणसी के भाव बृहस्पति ने भी पाटन में आकर शवधर्म के द्वार के लिए जयसिंह को समझाया था । इसी भाव बृहस्पति को कुमारपाल ने सोमनाथ पाटन का गण्ड ( रक्षक) भी बनाया था।
इनके अतिरिक मलधारी हेमचन्द्र, गणरत्नमहोदधि' के कर्ता वर्षमानसुरि, 'वाग्भट्टालंकार के कर्ता वाग्भट्ट आदि विद्वान् पाटन में प्रसिद्ध थे । र ___ इस पर से ऐसी कल्पना होती है कि जिस पण्डित मण्डल में आ० हेमचन्द्र ने प्रसिद्धि प्राप्त की वह साधारण न था। उस युग में विद्या तथा कला को जो उत्तेजन मिलता था' उससे हेमचन्द्र को विद्वान् होने के साधन सुलभ हुए होंगे, पर उनमें अग्रसर होने के लिए असाधारण बुद्धि कौशल दिखाना पड़ा होगा।
anRS
SocickeBASSSSS
श्री जिनविजय जी ने कहा है उसके अनुसार भारत के कोई भी प्राचीन ऐतिहासिक पुरुष विषयक जितनी ऐतिश्य सामग्री उपलब्ध होती है उसकी तुलना में आ० हेमचन्द्र विषयक लम्प सामग्री विपुल कही जा सकती है। फिर भी आचार्य के जीवन का सुरेख चित्र चित्रित करने के लिए वह सर्वथा अपूर्ण है।
बुद्धिसागर कृत ... श्लोक प्रमाण संस्कृत व्याकरण जाबाढिपुर ( जालोर, मारवाद ) में वि० सं० १14.(इ. स. ११.)में पूर्ण हुआ था। जिनेश्वर ने तर्क ऊपर ग्रंथ लिखा था। देखो पुरातत्व पुस्तक २, पृ.८१-८४; काव्यानुशासन प्रस्तावना पृ. १४४-४५१
२ देखो काव्यानुशासन प्रस्तावना पृ. ॥२-६१ ।
३ देखो, शिल्पकला के लिए-'कुमारपालविहारशतक'-हेमचन्द्र के शिष्य रामचन्द्र कृत, जिसमें कुमारपाल विहार नामक मंदिर का वर्णन है।
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
:
अन्धकार का परिचय
डा० व्युक्हर ने ई० स० १८८९ में विएना में आ० हेमचन्द्र के जीवन ऊपर गवेषriपूर्वक एक निबन्ध प्रगट किया था; उसमें उन्होंने आ० हेमचन्द्र के अपने ग्रन्थ 'याश्रयकाव्य ' ' सिद्धहेम की प्रशस्ति' और 'त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित' में से 'महावीर चरित' के अतिरिक्त प्रभाचन्द्रसूरि कुल 'प्रभावक चरित' (वि० सं० १३३४ ई० स० १२७८ ), मेरुकूट 'प्रबन्ध चिन्तामणि' (वि० सं० १३६१-६० स० १३०५), राजशेखरकृत 'कोश' और उपाध्याय 'कुमारपाल प्रबन्ध' का साधन के रूप में उपयोग किया था। अब हमें इनके अलावा सोमप्रभसूरि कृत 'कुमारपाल प्रतिबोध' और 'शतार्थ काव्य', यशःपालकृत "मोहराज पराजय" ( वि० सं० १२२९-३२ ), और अज्ञातकर्तृक "पुरातन संग्रह" उपलब्ध हैं। इनमें से सोममभसूरि तथा यशःपाल आ० हेमचन्द्र के yars समकालीन थे ।
इस सामग्री में से “कुमारपाल प्रतिबोध" ( वि० सं० १२४१ ) को भाचार्य की जीवन कथा के लिए मुख्य लाधार ग्रन्थ मानना चाहिए और दूसरे ग्रन्थों को पूरक मानना चाहिए। सोमप्रभसूरके कथनानुसार उनके पास ज्ञेय सामग्री खूब थी, पर उस सामग्री में से उन्होंने अपने रस के विषय के अनुसार ही उपयोग किया है । इसलिए हम जिसे जानना जाहें ऐसा बहुत सा वृतान्त गूढ़ ही रहता है ।
: ४ :
'प्रभावकचरित' के अनुसार आचार्य की जन्मतिथि वि० सं० १९४५ की कार्तिक पूर्णिमा है । इसके बाद के अन्य सभी ग्रन्थ यही तिथि देते हैं इसलिए इस तिथि का स्वीकार करने में कोई अड़चन नहीं है लघुक्यस्क समकालीन सोमप्रभसूरि को आचार्य
।
के जीवन की किसी भी घटना की तिथि देने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई ।
'मोकुल', पिता '' reat चाचिग ), माता 'चाहिणी' अथवा पाहणी ); वासस्थान 'धुक्य' ( घन्धुका ) ये बातें भी निर्विवाद हैं। जन्म धन्धुका में ही हुआ होगा या अन्यत्र इस बारे में सोमममसूरि का स्पष्ट कथन नहीं है ।
बालक का नाम 'चङ्गदेव' था । वह जिस समय माता के गर्भ में था उस समय माता
ने जो आश्चर्यजनक स्वम देखे थे उनका वर्णन सोमप्रभसूरि करते हैं। आचार्य के अवसान के बाद बारहवें वर्ष में पूर्ण हुए ग्रन्थ में इस प्रकार जो चमत्कारी पुरुष गिने जाने लगे यह समकालीन पुरुषों में उनकी जीवन- महिमा का सूचक है ।
सोमप्रसूरि की कथा के अनुसार:
“पूर्ण गच्छ के देवचन्द्रसूरि विहार करते हुए धंधुका आते हैं। वहाँ एक दिन देशना पूरी होने पर एक 'वणिक्कुमार' दाथ जोड़कर आचार्य से प्रार्थना करता है
१ 'कुमारपाल प्रतिबोध' पृ० ३ छोक ३०-३१।
ए देखो पृ० ३४७ श्लोक ८४८ ।
देखो 'कुमारपाल प्रतिषशेष' (वि० सं० १२४१ ) ०४७८
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६
प्रस्तावना
'सुचारित्ररूपी जलयान द्वारा इस संसार समुद्र से पार लगाइए ।' बालक का मामा नेमि गुरु से परिचय करवाता है ।
"देवचन्द्रसूरि कहते हैं कि-'इस बालक को प्राप्त कर हम इसे निःशेष शास्त्र परमार्थ में अवगाहन करावेंगे; पश्चात् यह इस लोक में तीर्थर जैसा उपकारक होगा। इसलिए इसके पिता चञ्च से कहो कि इस चक्रदेव को व्रत ग्रहण के लिए आज्ञा दे।"
"बहुत कहने सुनने पर भी पिता अतिस्तेह के कारण आज्ञा नहीं देता, परन्तु पुत्र 'संयम ग्रहण करने के लिए दृढमना है । मामा की अनुमति से वह चल पड़ता है और गुरु के साथ खम्भतिस्थ' (खम्मात ) पहुँचता है ।"
सोमप्रभसूरि के कथन मे हटना तो स्पण है कि पिता की अनुमति नहीं थी; माता का अभिप्राय क्या होगा इस विषय में वह मौन है । मामा की अनुमति से चंगदेव घर छोड़कर चल देता है। सोमप्रभसूरि के कथन का तात्पर्य ऐसा भी है कि बालक चंगदेव स्वयं ही दीक्षा के लिए दृढ़ था। पाँच या आठ वर्ष के बालक के लिए ऐसी हदवा मनोविज्ञान की दृष्टि से कहाँ तक सम्भव है इस शंका का जिस तरह निराकरण हो उसी तरह से इस विषय का ऐतिहासिक दृष्टि से निराकरण हो सकता है। सम्भव है, केवल साहित्य की छटा लाने के लिए भी इस प्रकार सोमप्रभसूरि ने इस प्रसंग का वर्णन किया हो।
चंगदेव का श्रमण सम्प्रदाय में कब प्रवेश हुमा इस विषय में मतभेद है। 'प्रभावक परित' के अनुसार वि० सं० ११५० (ई० स० १०९४ ) अर्थात् पाँच वर्ष की आयु में हुआ। जिनमण्डनकृत 'कुमारपाल प्रबन्ध' वि० सं० ११५४ (ई० सं० १०९८ ) का वर्ष बतलाता है जब कि प्रबन्ध चिन्तामणि, पुरातन-प्रबन्ध-संग्रह और प्रबन्धकोश आठ वर्ष की आयु बतलाते हैं। दीक्षा विषयक जनशास्त्रों का अभिशय देखें तो आठ वर्ष से पूर्व दीक्षा सम्भव नहीं होती। इसलिए चंगदेव ने साधु का वेश आठ वर्ष की अवस्था में वि० सं० ११५४ (ई० स० १०९८) में ग्रहण किया होगा, ऐसा मानना अधिक युक्तियुक्त है।'
सोमसोमसूरि के कथनानुसार:--"उस सोममुह'...सौम्यमुस्त्र का नाम सोमचन्द्र रखा गया। थोड़ा समय जिनागम कथित तप करके वह गंभीर श्रुतसागर के भी पार पहुँचा । 'दुषम समय में जिसका सम्भव नहीं है ऐसा गुणोषवाला' यह है ऐसा मनमें विचार कर श्रीदेवचन्द्रसूरि ने उसे गणधर पद पर स्थापित किया । हेम जैसी देह की क्रान्ति थी और चन्द्र
, देखो 'कुमारपाल प्रतियोध'. २७। देखो प्रभावकारित पृ. ३४७ श्लोक ८४८+
देस्त्री काव्यानुशासन प्रस्तावना पृ. २६५- प्रमावकचरित में विसं. ११५.(ई.स.१.९४) वर्ष कैसे आया यह विचारणीय प्रश्न है। मेरा अनुमान ऐसा है कि धंधुका में देवचन्द्रसूरि की दृष्टि अंगदेव पर उस वर्ष में जभी होगी; मन्यचिन्तामणि के अनुसार अंगदेव देवचन्दरि के साथ प्रथम कविती आया; वहाँ उदयन मंत्री के पुत्रों के साथ उसका पालन हुआ और अन्त में चरुच (प्रवन्ध चिन्तामणि के अनुसार चाचिग) के हाथों ही दीक्षा महोत्सब सम्मान में हुआ। उस समय चंगदेव की आबु आठ अर्ष की हुई होगी । बन को सम्मति प्राप्त करने में तीन वर्ष गए हों ऐसा मेरा अनुमान है।
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७
walisonisatistsanitarikwikiwanduadi
x
i
ANIAivasawkamsinities..
प्रन्धकार का परिचय की तरह लोगों को आनन्द देनेवाला था, इसलिए वह हेमचन्द्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ। समग्र लोक के उपकारार्थ विविध देशों में वह विहार करता था अतः श्रीदेवचन्द्रसूरि ने उसे कहा--'गुर्जर देश छोड़कर अन्य देशों में बिहार मत कर । जहाँ तू रहा है बही महान् परोपकार करेगा।' वह गुरु के वचन से देशान्तर में विहार करना छोड़कर यहीं ( गुर्जर देश-- पाटन में) भन्यजनों को जागरित करता रहता है।
इस वर्णन में से एक बात विशेष उल्लेखनीय है। आचार्य हेमचन्द्र गुर्जर देश में और पाटन में स्थिर हुए उससे पहले उन्होंने भारतवर्ष के इतर भागों में विहार किया होगा और गुरु देवचन्द्र की आशा से उनका विहार गुर्जर देश में ही मर्यादित हुआ। __ सोमममसूरि का वर्णन सामान्य रूप का है। आचार्य का जीवन-वृत्तान्त जाननेवालों के सामने कहा हो ऐसा है। अतएव हमारे लिए पीछे के ग्रन्थ और प्रबन्ध तफसील के लिए आधार रूप है।
भंगदेव के कुटुम्ब का धर्म कौनसा होगा । । सोमप्रभसूरि पिता के लिए इतना ही कहते है कि 'क्रयदेवगुरुजणच्चो चञ्चो ( देव और गुरुजन की अर्चा करनेवाला चच्च )।' और के माता चाहिणी के केवल शील का ही वर्णन करते हैं। मामा नेमि देवचन्द्रसूरि का उपदेश मुनने के लिए आया है इस पर से वह जैनधर्मानुरागी जान पड़ता है।
पीछे के अन्य चश्च को मिथ्यात्वी कहते हैं। इस पर से बह जैन सो नहीं होगा ऐसा विश्वास होता है। प्रबन्ध चिन्तामणि के उल्लेख के अनुसार पैसे की लालच दी जाने पर बह उसे 'शिवनिर्माश्य' वत् समझता है; अतएव यह माहेश्वरी ( आजकल का मेश्री ) होगा। चाहिनी जैनधर्मानुरागी हो ऐसा सम्भव है। पीछे से वह जैन-दीक्षा लेती है ऐसा प्रबन्धों में उल्लेख है।
सोमचन्द्र को इकीस वर्ष की आयु में वि० सं० १९६६ (ई० स० १११०) में सूरिपद मिला । इस संवत्सर के विषय में मतभेद नहीं है। इस समय से वह हेमचन्द्र के नाम से ख्यात हुआ । कुमारपाल प्रतिबोध के अनुसार सूरिषद का महोत्सव नागपुर ( नागोर-मारबाड़) में हुमा । इस प्रसंग पर खर्च करनेवाले वहीं के एक व्यापारी धनद का नाम बतलाया गया है।
इतनी अश्पायु में इतने महत्त्व का स्थान हेमचन्द्र को दिया गया यह समकालीनों पर पड़े हुए उनके प्रभाव का प्रतीक है। जयसिंह सिद्धराज को भी 'पुरातनप्रबन्धसंग्रह' के
.
अवलो कुमारपाल प्रतियोभ पृ० १२. २ देखो प्रबन्धचिन्तामणि पृ. ८३, ३ इस समय मेधी धनिये प्रायः वैष्णय होते हैं।
४ एक ही कुटुम्ब में भिन्न भिन्न धर्मानुराग होने के अमेक दृष्टान्त भारत के इतिहास में प्रसिद्ध है और दो दशक पूर्व गुजरात में अमेव वैश्य कुटुम्ब ऐसे थे जिनमें ऐसी स्थिति विद्यमान थी! देखो काव्यानुशासन प्रस्तावका पु. १५९।
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८
प्रस्तावना
-
अनुसार आठ वर्ष की आयु में राज्याधिकार प्राप्त हुआ था और उसने भी अस्पायु में सोलंकियों के राज्य की प्रतिष्ठा स्थापित की थी।
जिसकी विद्या प्राप्ति हतनी असाधारण थी उसने विद्याभ्यास किससे, कहाँ और कैसे किया यह कुतूहल स्वाभाविक है । परन्तु इस विषय में हमें आवश्यक ज्ञातव्य सामग्री लब्ध नहीं है । उनके दीक्षागुरु देवचन्द्रमरि स्वयं विद्वान थे और 'स्थानासूत्र' पर उनकी टीका प्रसिद्ध है। "त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' में हेमचन्द्र कहते है कि-"तुश्मसादादविगतज्ञानसम्पन्महोदयः---अर्थात् गुरु देवचन्द्र के प्रसाद से शान सम्पत्ति का महोदय उन्हे पास हुआ था। परन्तु दीक्षागुरु देवचन्द्र विद्यागुरु होंगे कि नहीं और होंगे तो कहां तक, इस प्रश्न का असर नहीं मिलता। ___ 'पभावक चरित' के अनुसार सोमचन्द्र को ( आचार्य होने से पूर्व ) तके, लक्षण और साहित्य के ऊपर शीघ्रता से प्रभुत्व प्राप्त हुआ था; और 'शतसहस्रपद' की धारण कि से उसे सन्तोष न हुआ इसलिए 'काश्मीरदेशवासिनी' की आराधना करने के लिए कामीर जाने की अनुमति गुरु से मांगी पर उस काश्मीर देशवासिनी ग्रामी' के लिए उन्हें काश्मीर जाना न पड़ा; किन्तु काश्मीर के लिए प्रयाण करते ही खम्भात से बाहर श्रीरैक्स विहार में उस बाली का उन्हें साक्षात्कार हुआ और इस तरह स्वयं 'सिद्धसारस्वत' हुए । ___प्रभावक चरित' के इस कथन से ऐतिहासिक तात्पर्य क्या निकालना यह विचारणीय है । मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि सोमचन्द्र मले काश्मीर न गये हों तो भी उन्होंने काश्मीरी पण्डितों से अध्ययन किया होगा । काश्मीरी पण्डित गुजरात में आते जाते थे यह विम्हण के आगमन से सूचित होता है । 'मुद्रितकुमुदचन्द्र' नाटक के अनुसार जयसिंह की सभा में उत्साह नामक काश्मीरी पण्डित था । हेमचन्द्र को व्याकरण लिखने से पूर्व व्याकरण अन्यों की आवश्यकता पड़ी थी जिन्हें लेने के लिए उत्साह पण्डित काश्मीर देश में गया था और वहाँ से आठ व्याकरण लेकर आया था। जब 'सिद्धहेम' पूरा हुआ तब उन्होंने उसे शारदा देश में मेजा था। इसके अतिरिक्त काव्यानुशासन में हेमचन्द्र जिस बहुमान से आचार्य अभिनव
१ प्रबन्धों के अनुसार जयसिंह वि. सं. ११५. (ई.स.१.९४ ) में सिंहासनारूर हुआ । उस समय यदि उसकी आयु आठ वर्ष की मान लें तो उसका जन्म वि. सं. ११४२ में और इस तरह हेमचन्द्र से आयु में जयसिंह को तीन वर्ष क्या समझना चाहिए । 'प्रबन्धचिन्तामणि' उसकी 'भायु तीन वर्ष की अव कि 'पुसतनप्रबन्धसंग्रह' आठ वर्ष की बताता है जो कि हेमचन्द्र के 'पाश्रय' में कथित 'स्तम्बेकरित्रीहि' के साथ ठीक बैठता है( काव्यानुशासन प्रस्तावना पृ. १६५)। कुमारपाल का जन्म यदि वि. सं. १३४९ (इ. स. १.९३ ) में स्वीकार करें तो हेमचन्द्र कुमारपाल से चार वर्ष बढ़े हुए देखो काध्याभुशासन प्रस्तावना पृ. ३.१और पृ. २७ ।
प्रमाणनयतस्वालोक और स्याद्वापरलाकर के कर्ता महाम् जैन तार्किक मादिदेवसूरि से आयु मै हेमचन्द्र यो वर्ष छोटे | परन्तु हेमानन्द्र आचार्य की दृष्टि से भार वर्षे बड़े थे। संभव है, दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र के साथ वादयुद्ध के समय क्षेत्रसरि की ख्याति अधिक हो-देखो काव्यानुशासन प्रस्तावना पृ. २४०, फुटनोट ।
१ देखो प्रभावकन्यरित . १९८-१९३
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
பார்த்திப்பாக்கப்பட்ட படப்ப
ந்தமப்பாட்டக்கப்பட்டபோதிப்பால் வாக்கிக் கப்பம்..
अन्धकार का परिचय गुप्त का उल्लेख करते हैं वह भी उनका काश्मीरी पण्डितों के साथ गाद विद्या परिचय सूचित करता है।
वि० सं० ११६६ ( ई० स० १११० ) में हकीस वर्ष की आयु में सोमचन्द्र हेमचन्द्रसूरि हुए यह युवावस्था में प्राप्त असाधारण पाण्डित्य का प्रभाव होगा । तर्क, लक्षण और साहित्य ये उस युग की महाविद्याएँ श्री और इस त्रयी का पाण्डित्य राजदरबार और जनसमाज में अग्रगण्य होने के लिए आवश्यक था। इन तीनों में हेमचन्द्र को अनन्य साधारण पाण्डित्य था यह उनके उस उस विषय के ग्रन्थों पर से स्पष्ट दिखाई देता है।
आचार्य होने के बाद और पहले हेमचन्द्र ने कहाँ कहाँ विहार किया होगा इसे ब्योरे से जानने के लिए हमारे पास कोई साधन नहीं है। आचार्य होने से पूर्व गुजरात के बाहर खूब धूमे होंगे यह सम्भव है, परन्तु, ऊपर जैप्ता कहा है, गुरुकी आज्ञा से गुर्जर देश में ही अपना क्षेत्र मर्यादित करने के लिए बाध्य हुए ।
हेमचन्द्र अणहिल्लपुर पाटन में सबसे पहले किस वर्ष में आए, जयसिंह के साथ प्रथमसमागम कब हुआ इत्यादि निश्चित रूप से जानने का हमारे पास कोई साधन नहीं है। परन्तु वह राजधानी पण्डितों के लिए आकर्षण थी। इसलिए विद्याप्राप्ति एवं पाण्डित्य को कसौटी पर कसने के लिए हेमचन्द्र का आचार्य होने से पूर्व ही वहां आना-जाना हुआ हो यह संभव है। ___प्रमावक चरित' और 'रबन्ध चिन्तामणि' के अनुसार कुमुदचन्द्र के साथ शास्त्रार्थ के समय हेमचन्द्र उपस्थित थे अर्थात् वि० सं० १९८१ ( ई० स० ११२५) में वे जयसिंह सिद्धराज की पण्डित सभा में विद्यमान थे। उस समय उनकी आयु इकत्तीस वर्ष की होगी तथा आचार्यपद मिले एक दशक बीत गया होगा। उस समय हेमचन्द्र वादी देवचन्द्रसूरि जितने प्रतिष्ठित नहीं होंगे, अथवा उनका वाद कौशल शान्तिसूरि आदि की तार्किक परम्परा वाले वादिदेवसूरि जितना नहीं होगा। ___ 'प्रभावकचरित' के अनुसार जयसिंह और हेमचन्द्र का प्रथम मिलन अणहिल्लपुर के किसी वंग मार्ग पर हुआ था जहां से जयसिंह के हाथी को गुजरने में रुकावट पड़ी थी और जिस प्रसंग पर एक तरफ से हेमचन्द्र ने 'सि' को निशंक होकर अपने गजराज को ले जाने के लिए कहा और श्लेष से स्तुति की। परन्तु इस उल्लेख में कितना ऐतिहासिक तथ्य है, यह कहना कठिन है।
सिद्धराज जयसिंह के मालवा की अंतिम विजय के समय भिन्न मिन्न सम्प्रदायों के प्रतिनिधि उसे अभिनन्दन देने के लिए आए; उस समय जैन-सम्प्रदाय के प्रतिनिधि के रूप में
उल्लेखनीय यह है कि 'काव्यप्रकाश' की सम्भाव्य प्रथम टीका 'संकेत' गुजरात के माणिक्य चन्द्र ने लिखी है।
२. कारय प्रसरे सिद्ध हस्तिराजमशक्वितम् । अस्यन्तु दिग्गजाः किं भूस्त्वयैवोद्भूता बत्तः ॥ ६ ॥
३. 'कुमारपाल प्रबन्ध' हेमचन्द्र और जयसिंह का प्रथम-समागम इस प्रसंग से पूर्व भी हुआ था ऐसा सूचित करता है।
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०
प्रस्तावना
हेमचन्द्र ने स्वागत किया था । उस प्रसंग का उनका लोक प्रसिद्ध है। यह घटना वि० सं० ११९१-९२ में ( ई० स० ११३६ के प्रारम्भ ) में घटित हुई होगी । उस समय हेमचन्द्र की आयु छयालीस सैंतालीस वर्ष की होगी ।
जयसिंह सिद्धराज और हेमचन्द्र का सम्बन्ध कैसा होगा इसका अनुमान करनेके लिए प्रथम आधारभूत ग्रंथ 'कुमारपाल प्रतिबोध' से कुछ जानकारी मिलती है-
"eerat के चूड़ामणि भुवन प्रसिद्ध सिद्धराज को सम्पूर्ण संशय स्थानों में वे प्रष्टव्य हुए । मिध्यात्व से मुग्धमति होने पर भी उनके उपदेश से जयसिंह राजा जिनेन्द्र के धर्म में अनुरक्तमना हुआ। उनके प्रभाव में आकर ही उसने उसी नगर ( अणहिलपुर ) में रम्य 'राजविदार' बनाया और सिद्धपुर में चार जिन प्रतिमाओं से समृद्ध 'सिद्धविहार' निर्मित किया । जयसिंह देव के कहने पर इन सुनीन्द्र ने 'सिद्धहेम व्याकरण' बनाया जो कि निःशेष शब्द लक्षण का निधान है। अमृतमयी वाणी में विशाल उन्हें न मिलने पर जयसिंहदेव के चिच में एक क्षण भी सन्तोष नहीं होता था ।” - कुमारपाल प्रतिबोध पृ० २२ ।
इस कथन में बहुत सा ऐतिहासिक तथ्य दिखाई देता है। हेमचन्द्र और जयसिंह का सम्बन्ध क्रमशः बाढ़ हुआ होगा, और हेमचन्द्र की विद्वत्ता एवं विशद प्रतिपादन शैली से ( जो कि उनके ग्रन्थों में प्रतीत होती है ) वे उसके विचारसारथि हुए होंगे। जयसिंह के उत्तेजन से हेमचन्द्र को व्याकरण, कोश, छन्द तथा अलङ्कार शास्त्र रचने का निमित्त प्राप्त हुआ और अपने राजा का कीर्तन करनेवाले, व्याकरण सिखानेवाले तथा गुजरात के लोक
जीवन के प्रतिबिम्ब को धारण करनेवाले 'द्वाश्रय' नामक काव्य रचने का मन हुआ ।
इष्ट देवता की उपासना के विषय में जयसिंह कट्टर शैव ही रहा यह 'कुमारपाल प्रतिबोध' के 'मिच्छत मोहिय मई' मिथ्यात्वमोहितमति विशेषण से ही फलित होता है । परन्तु ऐसा मानने का कारण है कि धर्म विचारणा के विषय में सार ग्रहण करने की उदार विवेक-बुद्धि से हेमचन्द्र की चर्चाएँ होती होंगी; और बहुत सम्भव है कि इधर धर्मों पर आक्षेप किए बिना ही उन्होंने जैन-धर्म के सिद्धान्तों को समझाकर जयसिंह को उनमें 'अनुरक्त मन वाला' किया हो ।
're feetafi' के 'सर्वदर्शनमान्यता' नामक प्रबन्ध का यहाँ उल्लेख करना उचित होगा- "संसार सागर से पार होने का इच्छुक श्रीसिद्धराज 'देवतव', और 'पात्रतत्व' की जिज्ञासा से सब दार्शनिकों से पूछता है, और सब अपनी स्तुति तथा दूसरों की निन्दा करते हैं। आचार्य हेमचन्द्र पुराणों में से कथा कहकर, साँढ़ बना हुआ पति सची ओषधि
लं पूर्णकुम्भी भव ॥
करोलानि सरलैर्दिग्वारणातोरणान्यास स्वकीविजित्य जगतीं नवेति सिद्धाधिपः ॥ प्रभावक चरित पृ. ३००
१ भूमिं कवि स्वगोमयरसेरासिद रमाकरा । मुक्तास्वस्तिक मातध्वमु
a ger (ei 14, [को०] १६ ) के अनुसार सिद्धपुर में जयसिंह ने चरम तीर्थंकर महावीर स्वामी का मन्दिर बनवाया था । अन्य उल्लेखों के लिए देखो काव्यानुशासन प्रस्तावना १८८
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
Hitecasionsense
मन्धकार का परिचय खाने से जिस प्रकार पुनः मनुष्य हो सका उसी प्रकार भक्तिसे सर्वदर्शन का माराधन करने से स्वरूप न जानने पर भी मुक्ति मिलती है, ऐसा अभिप्राय देते हैं।"
__ यह 'सर्वदर्शनमान्यता की दृष्टि साम्प्रदायिक चातुरी की थी जैसा कि डॉ० ब्युम्हर मानते हैं, अथवा सारग्राही विवेक बुद्धि में से परिणत थी इसका निर्णय करने का कोई बाप साधन नहीं है। परन्तु अनेकान्तवाद के रहस्यज्ञ हेमचन्द्र में ऐसी विवेकबुद्धि की सम्मावना है क्योंकि हेमचन्द्र और अन्य जैन तार्किक अनेकान्त को 'सर्वदर्शनसंग्रह के रूप मैं भी घटाते हैं। इसके अलावा उस युग में दूसरे सम्प्रदायों में भी ऐसी विशालहष्टि के विचारकों के दृष्टान्त भी मिलते हैं। प्रथम भीमदेव के समय में शैवाचार्य डानभिक्षु और मुविहित जैन साधुओं को पाटन में स्थान दिलानेवाले पुरोहित सोमेश्वर के दृष्टान्त 'प्रभावक चरित' में वर्णित हैं । अर्थात् प्रत्येक सम्प्रदाय में ऐसे थोड़े बहुत उदारमति माचामों के होने की सम्भावना है।
ऐसा मानने के लिए कारण लि. मारय-विजय के बर से जयसिंह की मृत्युपर्यन्त उसके साथ हेमचन्द्र का सम्बन्ध अबाधित रहा; अर्थात् वि० ० ११२१ के अन्त से वि० सं० ११९९ के आरम्भ तक लगभग सात वर्ष यह सम्बन्ध अस्खलित रहा | जयसिंह की मृत्यु के समय हेमचन्द्र की आयु ५४ वर्ष की थी। इन सात वर्षों में हेमचन्द्र की साहित्यप्रकृति के अनेक फल गुजरात को मिले ।
MPARIKnomiministrTiminimitri"
आचार्य हेमचन्द्र का कुपारपाल के साथ प्रथम परिचय किस वर्ष में हुआ यह जानने का कोई साधन उपलब्ध नहीं है। 'कुमारपाल प्रतिबोध' पर से ऐसा ज्ञात होता है कि मंत्री वाग्भटदेवबाहरदेव द्वारा कुमारपाल के राज्य होने के पश्चात् वह हेमचन्द्र के साथ गाढ परिचय में आया होगा। परन्तु, डॉ. ब्युल्हर के कथनानुसार साम्राज्य निमितक युद्ध पूर्ण होनेके अनन्तर प्रथम परिचय हुआ होगा ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है । फिर भी धर्म का विचार करने का अवसर उस प्रौढवय के राजा को उसके बाद ही मिला होगा।
जयसिंह के साथ का परिचय समवयस्क विद्वान् मित्र जैसा लगता है जब कि कुमारपाल के साथ गुरु-शिष्य जैसा प्रतीत होता है। हेमचन्द्र के उपदेश से, ऐसा मालूम होता है कि, कुमारपाल का जीवन उत्तरावस्था में प्रायः द्वादश व्रतधारी श्रावक जैसा हो गया होगा । परन्तु इस पर से ऐसा अनुमान करने की आवश्यकता नहीं है कि उसने अपने कुल-देव शिव की पूजा छोड़ ही दी होगी।"
देखो सिद्धहेम--सकलदर्शनसमूहात्मकस्याद्वादसमाश्रयणम् - इत्यादि पृ. ३ और सिद्धर्षि की विभूति सहित 'भ्यायावतार' पृ. १३८ ।
२देखे काथ्यानुशासन प्रस्तावना पृ० २८३ !
३ एक ओर जिस तरच हेमचन्द्र अपने ग्रन्धों में उसे 'परमाईत' कहते हैं उसी तरह दूसरी ओर प्रभासपाटन के 'गण्ड' भाव बृहस्पति ने वि० सं० १२२९ (ई. १० ११५३) के भद्रकाली के शिलालेख में
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
४२
प्रस्तावना
हेमचन्द्र के उपदेश से कुमारपाल ने अपने जीवन में न केवल परिवर्तन ही किया किन्तु गुजरात को दुर्व्यसनों में से मुक्त करने का योग्य प्रयास भी किया। जिसमें भी विशेषतः उसने जुत्र और मद्य का प्रतिबन्ध करवाया, और निवेश के धनापहरण का कानून भी बन्द किया | हेमचन्द्र के सदुपदेश से यज्ञ-यागादि में पशुहिंसा बन्द हुई और कुमारपाल के सामन्तों के शिलालेखों के अनुसार अमुक अमुक दिन के लिए पशुहिंसा का प्रतिबन्ध भी हुआ था । कुमारपाल ने अनेक जैन-मन्दिर भी बनवाए थे जिनमें से एक 'कुमार-विहार' नामक मन्दिर का वर्णन हेमचन्द्र के शिष्य रामचन्द्र ने 'कुमार- विहार- शतक' में किया है । 'मोहराजपराजय' नामक समकालीनप्राय नाटक में भी इन घटनाओं का रूपकमय उल्लेख है।
उस समय के अन्य महापुरुषों के साथ हेमचन्द्र के सम्बन्ध तथा वर्तन विषयक थोड़ी सी ज्ञातव्य सामग्री मिलती है। इस बात को पहले कह ही चुके हैं कि उदयन मंत्री के घर में उसके पुत्रों के साथ बचपन में चनदेव रहा था। हेमचन्द्र को साधु बनाने में भी उदयन मंत्री ने अत्यधिक भाग लिया था । उसके बाद उसके पुत्र बाहड़ द्वारा कुमारपाल के साथ गाढ़ परिचय हुआ था इसका भी निर्देश कर चुके है।
'प्रभाव चरित' 'महामति भागवत देवबोध' का उल्लेख हेमचन्द्र का परस्पर विद्या की कद्र करनेवाला मैत्री सम्बन्ध था । afa श्रीपाल से भी हेमचन्द्र का गाह परिचय था ।
करता है। उसके साथ वहनगर की प्रशस्ति के
उस समय हेमचन्द्र की साहित्यिक प्रवृत्ति पूर्ण उत्साह से चल रही थीं । सिद्धहेम शब्दानुशासन के बाद काव्यानुशासन तथा छन्दोनुशासन कुमारपाल के समय में प्रसिद्ध हो गए थे। संस्कृतद्वयाश्रय के अन्तिम सर्ग तथा प्राकृत द्वयाश्रय कुमारपाल चरित भी इसी समय लिखे गए |
अपूर्ण उपलब्ध 'प्रमाणमीमांसा' की रचना अनुशासनों के बाद हुई । सम्भव है, वह हेमचन्द्र के जीवन की अन्तिम कृति हो । योगशास्त्र, त्रिषष्टिशलाका-पुरुष चरित नामक विशाल जैन-पुराण, स्तोत्र आदि की रचना भी कुमारपाल के राजत्वकाल में ही हुई थी । इनके अतिरिक्त पूर्व रचित ग्रन्थों में संशोधन और उन पर स्वोपज्ञ टीकाएँ लिखने की भी प्रवृति चलती थी ।
'प्रभावक चरित' में हेमचन्द्र के 'आस्थान' (विद्यासमा ) का वर्णन है वह उल्लेखनीय है। "हेमचन्द्र का आस्थान जिसमें विद्वान् प्रतिष्ठित हैं, जो मोल्लास का निवास और भारती का पितृ-गृह है, जहाँ महाकवि अभिनव ग्रन्थ निर्माण में आकुल हैं, जहाँ पट्टिका (तरुती) और पट्ट पर लेख लिखे जा रहे हैं, शब्दव्युत्पत्ति के लिए ऊहापोह होते रहने
कुमारपाल को 'माहेश्वरनृपाणी' कहा है और संस्कृत 'वाय' के बीसवें सर्ग में कुमारपाल की शिवभकि का उल्लेख है । देखा काव्यानुशासन प्रस्तावना पृ० ३३१ और २८७ ।
१ देखो काव्यानुशासन प्रस्तावना पृ० १८९ तथा पृ० १५५-९६१ ।
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
immmmmPINPARENERAR
प्रन्थकार का परिचय से जो सुन्दर लाता है, जहाँ पुराणकवियों द्वारा प्रयुक्त शब्द दृष्टान्तरूप से उल्लिखित किए जाते हैं।"
A
M
ATHAMATKareentinointre
हेमचन्द्र ने राजकीय विषयों में कितना भाग लिया होगा यह जानने के लिए नहीं जैसी शेय-सामग्री है। वे एक राजा के सम्मान्य मित्र तुल्य और दूसरे के गुरुसम थे । राज दरबार में अग्रगण्य अनेक जैन गृहस्थों के जीवन पर उनका प्रभाव था। उदयन और वाग्भटादि मंत्रियों के साथ उनका मान सम्बन्ध था । ऐसी वस्तुस्थिति में कुछ लोग हेमचन्द्र को राजकीय विषयों में महत्व देते हैं। परन्तु राजनीतिक कही जा सके ऐसी एक ही बात में परामर्शदाता के रूप से हेमचन्द्र का उल्लेख 'प्रबन्धकोश' में आता है। जैसे सिद्धराज का कोई सीधा उत्तराधिकारी न था वैसे ही कुमारपाल का भी कोई नहीं था ! इसलिए सिंहासन किसे देना इसकी सलाह लेने के लिए वृद्ध कुमारपाल वृद्ध हेमचन्द्र से मिलने के लिए उपाश्रय में गया, साथ में क्साह आम नामक जैन-महाजन भी था । हेमचन्द्र ने द्रोहित्र प्रतापमल्ल को ( जिसकी प्रशंसा गण्ड भाव बृहस्पति के शिलालेख में भी आती है ) धर्म स्थैर्य के लिए गही देने का परामर्श दिया क्योंकि स्थापित 'धर्म' का अजयपाल से हास सम्भव है। जैन-महाजन वसाह आभड़ ने ऐसी सलाह दी कि 'कुछ भी हो पर अपना ही काम का' इस कहावत के अनुसार अजयपाल को ही राज दिया जाय । र
इसके अलावा हेमचन्द्र ने अन्य किसी राजकीय चर्चा में स्पष्टतः भाग लिया हो तो उसका प्रमाण मुझे ज्ञात नहीं ।
सिद्धराज को हेमचन्द्र कितने मान्य थे इसका कुमारपाल प्रतिबोध में संक्षेप से ही वर्णन है जब कि कुमारपाल को हेमचन्द्र ने किस तरह जैन बनाया इसके लिए सारा ग्रन्थ ही लिखा गया है। ग्रन्थ के अन्त में एक श्लोक है...“प्रभु हेमचन्द्र की असाधारण उपदेश शक्ति की हम स्तुति करते हैं, जिन्होंने अतीन्द्रिय ज्ञान से रहित होकर भी राजा को प्रबोधित किया ।"
'प्रभावचरित' के अनुसार हेमचन्द्र वि० सं०१२२९ ( ई० सं० ११७३ ) में 23 वर्ष की आयु में दिवंगत हुए।
।।। ...danleyapreparamananews
inwwwwwm
हेमचन्द्र विरचित अन्धों की समालोचना का यह स्थान नहीं है। प्रत्येक ग्रन्थ के , अन्यशाभिमागुम्फाकुलमहासको । पट्टिकापट्टसंघातलिख्यभामयदपजे ।। शब्दयुरपतवेऽन्योन्यं कृतोहापोहबन्धुरे । पुराणकसिमष्टान्तीकृतशब्दके । प्रमोवासविधासेऽत्र भारतीपिसमन्दिरे । बीहेमचन्द्रसूरीमामास्थाने सुस्थवादिदे ।।
प्रभावक परित पृ.३१४ लो- १९३-९४ २ इस मन्त्रणा का समाचार हेमचन्द्र के एक विधी शिष्य बालचन्द्र द्वारा अजयपाल को मिला था। देखो, प्रबन्धकोच पृ. ९८ । .३ "स्तुमंस्त्रिसन्ध्यं प्रभुमरेरमन्यतुल्यामुपधेशतिम् । अतीन्दियामविवर्जितोऽपि यशोणिमध्यचित्त प्रबोधन । कुमारपाल प्रतिषः पृ. ४७६ ।
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
संक्षिप्त परिचय के लिए भी एक एक लेख की आवश्यकता हो सकती है। शब्दानुशासन, काव्यानुशासन, छन्दोनुशासन, अमिधानचिन्तामणि और देशीनाममाला----इन ग्रन्थों में उस उस विषय की उस समय तक उपलब्ध सम्पूर्ण सामग्री का संग्रह हुआ है । ये सब उस उस विषय के आकर अन्य हैं। ग्रन्थों की रचना देखते हुए हमें जान पड़ता है कि वे अन्य क्रमशः आगे बढ़नेवाले विद्यार्थीयों की आवश्यकता पूर्ण करने के प्रयल हैं। भाषा
और विशदता इन अन्धों का मुख्य लक्षण है। मूल सूत्रों तथा उस पर की स्वोपन टीका में प्रत्येक व्यक्ति को तद्विषयक सभी ज्ञातव्य विषय मिल सकते हैं। अधिक सूक्ष्मता तथा तफसील से गम्भीर अध्ययन के इच्छुक विद्यार्थी के लिए बृहत् टीकाएँ भी उन्होंने रखी है। इस तरह तर्क, लक्षण और साहित्य में पाण्डित्य प्राप्त करने के साधन देकर गुजरात को स्वावलम्बी बनाया, ऐसा कहें तो अत्युक्ति न होगी। हेमचन्द्र गुजरात के इस प्रकार विद्याचार्य हुए।
__याश्रय संस्कृत एवं प्राकृत काव्य का उद्देश भी पठनपाठन ही है। इन ग्रन्थों की प्रति व्याकरण सिखाना और राजवंश का इतिहास कहना-इन दो उद्देशों की सिद्धि के लिए है। बाबरूप क्लिष्ट होने पर भी इन दोनों कान्यों के प्रसंग-वर्णनों में कवित्व स्पष्ट झलकता है। गुजरात के सामाजिक जीवन के गवेषक के लिए याश्रय का अभ्यास अत्यन्त आवश्यक है।
प्रमाणमीमांसा नामक अपूर्ण उपलब्ध अन्य में प्रमाणचर्चा है जिसका विशेष परिचय आगे दिया गया है।
त्रिशष्टिशलाका पुरुष चरित तो एक विशाल पुराण है । हेमचन्द्र की विशाल प्रतिभा को जानने के लिए इस पुराण का अभ्यास आवश्यक है। उसका परिशिष्ट पर्व भारत के प्राचीन इतिहास की गवेषणा में बहुत उपयोगी है।
योगशाला में जैनदर्शन के ध्येय के साथ योग की प्रक्रिया के समन्वय का समर्थ प्रयास है । हेमचन्द को योग का स्वानुभव था ऐसा उनके अपने कथन से ही मालूम होता है।
द्वात्रिंशिकार तथा स्तोत्र साहित्यिक-दृष्टि से हेमचन्द्र की उत्तम कृतियाँ हैं। उत्कृष्ट बुद्धि तथा हृदय की भक्ति का उनमें सुभग संयोग है।' ____ भारत भूमि और गुजरात के इतिहास में हेमचन्द्र का स्थान प्रमाणों के आधार से कैसा माना जाय ! । भारतवर्ष के संस्कृत-साहित्य के इतिहास में तो ये महापण्डितों की पंक्ति में स्थान पाते हैं। गुजरात के इतिहास में उनका स्थान विद्याचार्य रूप से और राजा प्रजा के आचार के सुधारक रूप से प्रभाव डालने वाले एक महान आचार्य का है।
रसिकलाल छो० परिख
SASRD
--
w
atta
१ देखा डॉ. आमन्दर्शकर ध्रुव की स्यावादमजरी की प्रस्तावना पृ० १८ और २४ ।
१यह लेख बुद्धिप्रकाश पु.६ थे में पृ. ३७७पर गुजराती में छपा है। उसीका यह अनिकल अनुवाद है -संपादक ।
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयानुक्रमणिका।
प्रमाणमीमांसा। प्रथमाध्यायस्य प्रथमाह्निकम् ।
Thakwana
TIPS
NOTHERPAviirit...
विषयः
विषयः प्रमाणमीमांसाया वृत्तेमङ्गलम् १ १ प्रामाण्यसमथनेन अपूर्वपदस्यावृत्तिविधाने प्रयोजनम्
नुपादेयतासूचनम् ४ १९ सुधाणा निर्मूलत्वाशक्षा सन्निरासश्च १५ द्रव्यापेक्षया पर्यायापेश्या च ज्ञाने सूत्राण्येव कथं रचितानि, कथं न
गृहीतमाहिलासंभवसमर्थनम् ४ २० মনু, আয়াত্মঃ মনমু? {
अवग्रहादीनां ब्रहीतग्राहित्वेनैव प्रामापद-सूत्रादिस्वरूपनिर्देशपूर्वकं शास्त्र
ण्यसमर्थनम् परिमाणस्योक्तिः१ १४
गृहीतमाहिस्त्रेऽपि स्मृतेः प्रामाण्या
भ्युपगमप्रदर्शनम् १ अन्वर्थनामसूत्र नगर्भ शास्त्रकरणस्थ
स्मृत्यप्रामापये न गृहीतग्राहित्य प्रयोप्रतिझावचनम्
१ १७
जकमित्यत्र जयन्तसंवादः अयशम्दस्य अर्थत्रयप्रदर्शनम् १ १८
५. संशयस्य लक्षणम् प्रमाणशब्दस्य निषक्तिः शास्त्रस्योद्देशादिरूपेण त्रिविधप्रकले
६. अनध्यवसायस्य लक्षणम् मीमांसाशब्देन सूचनम् २ ६
७. विपर्ययलक्षणम्
प्रामाण्यनित्यो स्वतः परतो वा न मीमांसाशयस्य अर्थान्तरकथनेन
घटते इति पूर्वपक्षः
५ २२ शास्त्रप्रतिपाद्यविषयाणा सूची २ १२
८. सिद्धान्तिना स्वतः परतो वा प्रामाण्य२. प्रमाणस्य लक्षणम्
निश्चयस्य समर्थनम् लक्षणश्य प्रयोजनकाशनम् २ २१
अभ्यासदशापनमत्यक्षेऽनुमाने च निर्णयपदस्यार्थः सार्थक्यच ३ १
स्वतः प्रामारनिश्वयनमर्थनम् ६ २ अर्थस्य हेयोपादेयोपेक्ष्यतया विवि
अनम्यासदशापन्ने प्रत्यक्षे परतः धत्वस्थापनम्
निश्चयसमर्थनम् अर्थपदस्य सार्थक्यम्
वाटार्थक शाब्दे परतः प्रामाण्यसम्पसदस्य सार्थक्यम्
निश्चयसमर्थनम् 'स्थनिर्णयोऽपि प्रमाणलक्षणे वाच्यः'
नैयायिकस्य प्रमाणलक्षणस्य निरासः ६ १६ इति मलं समर्थयमानेन पूर्वपक्षिणा
भासर्वज्ञोकस्य प्रमाणलक्षणस्य निरास:६ २३ खसंवेदनसिद्धिप्रकारप्रदर्शनम् ३ १४ ।
सौगतस्य प्रमाणलशणस्य निरासः ६ २६ ३. स्वसंवेदनमनुमोदमानेनापि सिद्धा- ९. प्रमाणस्य द्वेषा विभजनम् ७ ७ न्तिना स्वनिर्णयस्य अतिव्यापि
अन्यथाविभागवादिनी मातान्यु
ल्लिख्य निरासः तया लक्षणा नक्षत्वकथनम् ४ १० ।
प्रमाणवैविध्य कि सौगतवत् प्रत्यक्षाग्रहीतग्राहिणी धारावाहिक ज्ञानाना
नुमानरूपमतान्यया हत्याका ५ १४ ध्यावतये प्रमाणलक्षणे 'अपूर्व पद
१०. प्रत्यक्षपरोक्षरूपेण प्रमाणविभाग: १६ मुपादेयमित्याशङ्का
अक्षशब्दस्य अर्थव्यदर्शनेन प्रत्यक्ष४. गृहीसमाहिणां धारावाहिकमानानां
दैविध्यसूचनम्
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६
सू०
प्रमाणमीमांसाया विषयानुक्रमणिका ।
पं० पृ०
19 २०
विषयः
परोक्षशब्दस्य निरुक्तिः सूत्रतचकारेण सर्वप्रमाणानां सम
लत्वसूचना
'न प्रत्यचादन्यत् प्रमाणम्' इति लोकायतिकानामाशङ्का ११. प्रत्यक्षेवर प्रमाणसिद्धिसमर्थनेन शङ्कानिरास:
अर्थाव्यभिचारात् प्रत्यक्षप्रामाण्यवस् परोक्षप्रामाण्यसिद्धिः
परोक्षप्रामाण्यसिद्धौ संवादकतया धर्मयुखः परोक्षार्थविषय मनुमानमेवेति सौंगतमतस्य निरास: अमावस्तु निर्विषयत्वात् न प्रमाणमिति न प्रमाणान्तर्भूत इति निर्देशः अभावः कथं निर्विषय इत्याशङ्का २. अभावस्य निर्विषयत्व समर्थनेन
७
प्रामाण्याप्रामाण्यव्यवस्यावना परो
७
प्रमाणस्य सिद्धिः परचेतोवृत्यधिगमान्यथानुपपत्त्या पुनः
तस्यैव सिद्धिः परलोकादिनिषेधान्यथानुपपच्या पि तस्यैव सिद्धिः
तरसमाधानम् वस्तुनो भावाभावो भयात्मकत्वसमर्थ - an sertaरूपवस्तुनो निराकरणद्वारा अभावप्रमाणस्य निषिपयत्वाविष्करणम्
प्रत्यक्षपक्षयोः भावाभावोभयग्राहसमर्थनम् tatusभावमा गोवर इति कुमारस्य पूर्वपथः अभावो प्रत्यवगोचर इति कृत्या निरास: अभावस्तु रूपत्वादशानरूप इति तस्य प्रामाण्यामा वस्योपसंहारः १२. प्रत्यक्षस्य लक्षणम् १४. वैशद्यस्य लक्षणे
१५. मुख्यप्रत्यक्षरूपकेवलज्ञानस्य
७
खक्षणम्
आत्मन: प्रकाशस्वभाषत्व सिद्धिः
७
Л
ม
५
U
२१
८ १३
६
२५
८ १८५
६
२६
८ २२
२८
و
१०
१०
८ ३०
fr &
२८५
R
३१
२
€ १७
६
E २१
९ २६
६
१० १४
२१
विषयः
प्रकाशस्वभावत्यात्मनः साबरणत्वसिद्धिः अनादेरपि आवरणस्य सुवर्णमयत् लियोपपत्तिसमर्थनम्
अमूर्तयेऽपि आत्मन आवरणसंभवः ११ आत्मनः कूटस्थ नित्यत्वे दूषणभ ११ परिणामिनिस्यात्म समर्थनम् मुख्यप्रत्यक्षस्य ततो वा सिद्धौ प्रत्यक्षादीनामसामर्थ्यात् तदसिद्धि परा कुमारिकस्याशङ्का १६. साधकप्रमाणद्वारा केवलज्ञानसमर्थनेनो शङ्कानिरास: अतिशयस्व प्रमेयत्व - ज्योतिशनाविसंदान्यथानुपत्तिभिर्हेतुभिः केवलशानश्य सिद्धि:
नोदना हि त्रैकालिक विषयाव frer eft मन्यमानेन शबरस्वामना सर्वशः स्वीकार्य एवं इति युक्त्या सर्वसमर्थनम् सिद्धसंवादेनागमेन सर्वशसिद्धिः प्रत्यक्षेण effe
'भtतु यथाकथञ्चिदीश्वरादयः सर्वशाः, मनुष्यस्तु न' इति वद कुमारिक प्रत्याचार्यस्य वृष्टिः १२ २६ मदीना रागादिमत्त्वं सर्वशत्वं च कथं स्यादिति विरोधस्य सोपासमाविष्करणम् raataar तु विप्रतिपत्य
१३ १९
भrece
१७. बाधकप्रमाणाभावाच केवलज्ञानस्य सिद्धि:
१४
८
१४ १०
प्रत्यक्षस्याबाधकतम दर्शनम् अनुमानस्याचाधकस्योपदर्शनम्
१४
२१
आगमस्याच्याबाधकत्व प्रकटनम्
મ
१
१८. मुख्यप्रत्यक्षत्वेन अवधिमनः पर्याययोनिर्देशः
अवधिज्ञानस्य निरूपणम्
सू०
मनःपर्याय निरूपणम्
१९. अवधिमनः पर्यायोक्षण्यस्य
निरूपणम् विकृित मेदस्य निरूपणम्
पृ०
पं
१० २७
ཁ་
११ ३
mw B
११ ११
११ १७
११ २९
१४
१२ १
१५
१५.
१५
१२ ८
१२ १५.
१२
Re
१
४
७
११
१५ १७
१५. १८
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुभा
Samsadastisaster
மார்பகம் பட்டப்பட்ட
பேin
Hinvityimidiitm
प्रमाणमीमांसाया विषयानुक्रमणिका । विषयः
विषयः
पृ. पं. क्षेत्रकृतभेदस्य निरूपणम् १५ २१
प्रतिपाइनेनोक्तशानिरासः १९ २५ स्वामितभेदस्य निरूपणम्
अर्थालोक्योरमावेऽपि ज्ञानोत्पतिविषयकवभेदस्य निरूपणम् १ २७ समर्थनम्
१६ २८ २०. सांव्यवहारिकप्रत्यक्षस्य लक्षणम् १६ २ सौगतसंमतस्य शानार्थयोर्जन्यजनक मौसुसंमतस्वसंवेदनप्रत्यक्षप्रकारस्य
मावस्य निवास: स्वेटप्रत्यक्षे समावेचनम् १६ १२
सौगत मतस्य वदुरपसितदाकार२१. इन्द्रियलक्षणाना तद्भेदानां च
वादस्य निराकरणम् २० १७ निरूपणम्
१६ १७ २६. अवमहस्य लक्षणम् इन्द्रियाणां आत्मसृष्टवस्त -
मी
माविरूयादवलिअवस्य च समर्थनम् १६ १६ । अहस्य मेदप्रतिपादनम् इन्द्रियाण लिहरवे तमन्यात्मवर्ति- २७. ईहाया लक्षणम् शानस्यानुमानिकत्वापरयानवस्यापद
होहयोमेंदप्रतिपादनम्
२१ २१ नम्
ईहायाः प्रामाण्यसमर्थनम् २१ २५ भाषेन्द्रियाणां स्वसं विदितत्वसमर्थ- २८. अवायस्य लक्षणम् नेनानवस्थामनप्रकटनम् १६ २४ २९. पारणाया लक्षणम् इन्द्रियाणां निरुक्त्यन्तरप्रदचनम् १६ २५ धारणायाः संस्करामिन्नत्वस्य कालद्रव्यमावेन्द्रिययोः स्वरूपम् १६ २७ परिमाणस्य च निरूपणम् २२ २ इन्द्रियस्शामिना निरूपणम् १७ ५
वैशेषिकसमतस्य संस्कारस्वरूपस्य इन्द्रियसंख्याविषये सारख्यस्थ विपति
निरासः पत्तिः तानिरासन
१७ १८८
वृद्धाचार्यारणात्वेनोक्ताया अविपरस्परमिन्द्रियाणां भेदाभेदसिद्धिः १७ २२ च्युतेरपि अवाये स्वेष्टधारणायाच आत्मन इन्द्रियाणा भेदाभेदसिद्धिः १८ १ समावेशविधिः
२२ ६ द्रव्येन्द्रियाणामपि परस्परं स्वारम्भक
अपग्रहादीमा कश्चिदेकस्वप्रतिपापुद्गलेभ्यश्च मेदाभेदसमर्थनम् १८ ५
दनम् इन्द्रियविषयाणां स्पादिीनामपि
नैयायिकसंमतस्य प्रत्यक्षलक्षणस्य भेदाभेदात्मकत्वनिरूपणम् १८ ७
निरासः
२२ २२ २२. द्रव्येन्द्रियस्य लक्षणम् १८ ११ प्रसङ्गाबााम्रोऽप्राप्यकारित्वसिद्धिः २३ ३ २३. लक्ष्मधुपयोगत्या मावेन्द्रियस्य बैं
धर्मकीभिमतप्रत्यक्षस्य निरासः २३८ विध्यप्रकटनम्
१८ १९
मीमांसकाभिमतस्य प्रत्यक्षलवामस्य लायुपयोगयोः सारूपनिर्देशः १८ २० निरास: स्वार्थसविदि योग्यताखेन लब्धी
वद्धसाख्याचायधस्येश्वरकृष्णस्य च न्द्रियं तत्रैव युनापारात्मकत्वेन
प्रत्यक्षलक्षणस्य स्खण्डनम् २४ १३ उपयोगेन्द्रियं निरूप्य योरन्तर
३०. प्रमाणविषयस्य लक्षणम् २४ २६ प्रदश्चनम्
लक्षणमताना पदामा ध्यादत्तिउपयोगेन्द्रियस्य इन्द्रियत्याभावा
प्रदर्शनम्
२५ ५ शङ्का तरसमाधानं च
१ ३१. अर्थक्रियासमर्थत्वात् द्रव्यपर्या२४. मनसो अक्षणम्
८ यात्मकस्य वस्तुनो विषयत्वेनाव मनोदैविध्यप्रकटनम्
१६ १७ धारणम् अथालोकापि ज्ञाननिमित्तत्वेन
३२. वस्तुनोऽर्थक्रियासामाथ्यरूपात्मवाच्याविति शङ्का १६ २० कस्य व्यवस्थापनम् २५ १६ २५. अलिकयोनिनिमित्तत्वामाव
नित्यकरूपद्रध्यात्मकवस्तुनः क्रमयोग
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८
विषयः
पद्याभ्यामर्थक्रिया करणाभावसमर्थनेन स्वाभावप्रतिपादनम् अनित्यैकरूपपर्यायात्मकवस्तुनः क्रमयौगपद्याभ्यामर्थक्रिया करणाभावसम नेन सवाभावप्रतिपादनम् काणादामिवस्य परस्परात्यन्त भिन्नsorearदस्य निरास: जैनाभिमते द्रव्यपर्यायो विदे दाभेदवादे विरोधादिदूपणानि तन्नि
रासन्ध
वस्तुनः द्रव्यपर्यायात्मकत्वपक्षेषि अर्थ क्रियाकरणाभावाशङ्कोपन्यासः ३३. द्रव्यपर्यायात्मक वस्तुन: अर्थक्रियासामर्थ्य प्रतिपादनेन उक्ताशङ्काया निरास:
३४. अर्थप्रकाशस्य प्रमाणव्यवहितफलत्वेन प्रतिपादनम
३५-३७. एकज्ञानगतत्वेन प्रमाणफल
सू०
१. परोक्षस्य लक्षणम्
२. परोक्षविभागस्य निरूपणम्
स्मृत्यादीनां परोक्षपटनम् ३. स्मृतेर्लक्षणम्
प्र० पं० सूब
२५ २४
२६ २०
२७ १४
२८ १
२८ २४
२९ ५
२९ १७
विषामधिक
द्वितीयमाह्निकम् ।
३३
३
३३ ૭
३३ १०
३३ १६
३३ २३
२४ ११
भू
स्मृतेर्मामाण्यप्रतिपादनम् ४. प्रत्यभिज्ञानस्य लक्षणम् उपमानस्य प्रत्यभिज्ञायां समावेशः ३५ प्रत्यभिज्ञान स्मृत्यनुभवरूपज्ञानread Heartस्य सौगतस्य निराकरणम् प्रत्यभिज्ञानं न प्रत्यक्षादन्यत् इति नैयायितस्य निराकरणम्, ३५. २५. प्रत्यभिज्ञायाः प्रामाण्यप्रतिपादनम् ३६ १३ ५. ऊहस्य लक्षणम् ३६ २०
३५ १६
व्यास प्रत्यक्षानुमानयोरसामध्ये. reer seer drसामर्थ्यमनम्
श्रद्धः संमत पृष्ठभाविविकल्पे व्या farareries निषेधः
३६ २४
૨૭ ७
चिषयः योरभेदेपि ज्ञानस्य कर्तृस्थ व्यापारत्वेन कर्मोन्मुखव्यापारत्वेन च व्यवस्थाप्यव्यवस्थाusers प्रदर्य तयोर्भेदण्यत्रस्थापनम्
३८. अव्यवहितस्याज्ञाननिवृतिरूपफलान्तरस्य निरूपणम् ३९. व्यवहितप्रदर्शनव्याजेन ईहाatri कमोपजनधर्माणां प्रमाणफलोभयत्व समर्थनम् ४०. दानादिबुद्धीनामपि प्रमाणफलस्वेन निर्देश: ४१. मतान्तर निरासपूर्वकं प्रमाणफलयोः Percent ४२. प्रमातुर्लक्षणम्
प्रमातुः स्वपराभासिसमर्थनम् प्रमातुपरिणामसमर्थनम्
वैशेषिकमतस्त्र ऊहापोहविकल्पे aritrarender निषेधः योगाभिमतस्य तर्क सह कृतप्रत्यचे व्यादिसामर्थ्यस्य निरासः
६. व्यारूपणम्
पृ० पं०
२९ २६
३० १२
recent निराकरणम्
१०. अविनाभावस्य लक्षणम् प्रत्यक्षानुमानयोरविनाभावनिश्वये
३० १८
३१ ४
३१ ८
३१ २१
३१ २२ ३२ १
७. अनुमानश्य लक्षणम् ८. स्वार्थं परार्थ भेदादनुमानस्य विभागः ३९ ९. स्वार्थानुमानस्य लक्षणम्
૫
३७ २०
३८ ३
व्यापकता निरूपणम् ३८ ሂ व्याप्यधर्मत्वेन प्रतिपादनम् ३८ ११ व्याक्तोभयधर्मप्रतिपादनस्य फलप्रदर्शनम्
२५ १६
३८ २२
४
****
साधनस्य लक्षणम्
सौगतेन हेतोस्त्रैलक्षण्यसमर्थनम् सिद्धान्तना लक्षण्यस्य निरास्रः ४० नैयायिका ममतस्य हेतोः पञ्चलक्ष
३९ . २६ १० ३६ १६ ११
४१ १
४१ १२
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
嗒
विषय :
refer प्रद कुतः प्रमागात् तनिश्वय इत्याशङ्का
११. कात्प्रमाणात् अविनाभावनिश्चय
प्रमाणमीमांसाया विषयानुक्रमणिका ।
१३. साध्यस्य लक्षणम्
स्य प्रतिपादनेन उक्ताशङ्कायाः समाधानम् १२. स्वभावादिभेदेन लिनस्य विभ जनम्
स्वभावलिङ्गस्य निरूपणम्
असाधारण साधनत्वामा सन्या rer सौगतस्य निराकरणम् कारणस्य लिङ्गत्वसमर्थनम् बित्वेन संमतस्य कारण स्वरूपस्य निर्देशः
कार्यस्य निरूपणम् प्राणादिरूपस्यासाधारणकार्य स्य समर्थनम्
व्यतिरेकस्यैव हेतु नियामकल्पत्वेन निर्णयः
पृ०
१. परार्थानुमानस्य क्षणम् २. वचनेऽनुमानव्यवहारस्योपचारेण
×× १७
सूत्रस्यसिषाधवित्रितपदस्य व्यावृत्तिप्रदर्शनम्
४१ २४
४२
४२
४२
४१
टनम्
६. सापभेदे द्वयोर्युगपत् प्रयोगस्य Terran
७
पं०
૪ ११ २२
एकार्थानस्य प्रतिपादनम् ४४ स्वभावादना विधिसाधनत्व निर्देशः ४५ ε सूत्रस्यचकारेण स्वभावाद्यनुपलब्धेनिषेधसाधकत्वस्थापनम् विविङ्गिस्य प्रतिपादनम्
१
४
૪૨
१०
४३ १८
४९
४५
११
२५ १६
४५ २०
५४ २१
श्यकरणम्
४९
३. वचनात्मक परार्थानुमानस्य द्वैविध्य
अकदनम्
५.
२२
१७. धर्मिणो बुद्धिसिद्धस्वस्यापि सम
नम् बुद्धिर्मिणि सौगतस्याशङ्का सनिरासश्व
४७
७
referrer धर्मिणः प्रदर्शनम् ४७ १६ १८. म्रान्तस्यानुमानात्वनिरासः ४७ २४ १९. दृष्टान्तस्यानुमानानङ्गत्वे हेतू४४
४७ २७
५०
द्वितीयाध्यायस्य प्रथमादिकम् ।
४९ २०
४. थोपरयन्यथानुपपत्तिभ्यां परार्थानुमानस्य प्रयोगभेदप्रदर्शनम् ४९ २३ ५. प्रयोगभेदेऽपि तात्पर्याभेदस्य प्रक
५० ६
وا
सू०
विषयः
이 पं०
४५ २६
असिद्धपदस्य व्यावत्तिनिर्देश: अवाध्यपदस्य फलम्
४५ २६
१४. बाधाया विधादर्शनम् ४६ २ १५. धर्मस्य धर्मिण साध्यत्वसम
१५
नम्
४६ १२
१६. धर्मिणः प्रमाणसिद्धत्वप्रदर्शनम् ४६ १८ बुद्धा एवेति सौगतमतस्य प्रतिक्षेपः
२०. दृष्टान्तस्य लक्षणम्
पन्यासः
cared अनुमानस्वरूप विकरूपय दूषणम्
८.
४६ २०
४७ २
अनुमानात्वाभावेऽपि लक्षणप्रणयस्य प्रयोजनम्
२१. न्तस्य साधर्म्य वैधर्म्यतया
विभागवचनम्
२२. साधन्तस्य लक्षणम् २३. वैधर्म्य दृष्टान्तस्य लक्षणम्
ફ્ ७. प्रतिज्ञायाः प्रयोजनम् प्रतिज्ञाप्रयोगस्य समर्थनम् प्रतिज्ञार्थस्य अर्थादानत्वात् प्रतिज्ञायाः प्रयोगे पtressयमिति सौगतस्वानाका
४९
४८
૪૮ ९
ય
पक्षधर्मोपसंहारवचनवत् प्रतिज्ञावचनसार्थक्य समर्थनेन उक्काशङ्काया निराकरणम्
१
Co
४८ १८
४८ २२
४९ २६
५० २४
५१ १
अनुमानमयोगे विप्रतिपत्तिप्रदर्शनम् ५२ ९. स्वामिमपेक्ष प्रयोगप्रदर्शनेन
विप्रतिपत्तिनिरास:
१२
५.१ १६.
४२
५१ २१
K
4
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
णम्
प्रमाणमीमांसाया विषयानुक्रमणिका । विषयः पृ० पं० सू० विषयः
पृ० ० १०. बोध्यमपेक्ष्य प्रयोगप्रदर्शनम् ५२ १६ वचमानर्थक्यसमर्थनम् ५६७ ११. प्रतिज्ञायाः लक्षणम्
५२ २४ २८. दूषणस्य लक्षणम् १२. हेतोलक्षणम्
५२ २९ २१. दुषणाभासस्य लक्षणम् १३. चदाहरणस्य लक्षणम्
दूषणाभासत्वेन संमतानां चतुर्विधते. १४. उपनयस्य लक्षणम्
जात्युत्तरप्रयोगाणां क्रमशो विस्त१५. निगमनस्य लक्षणम्
रतः प्रदर्शनम् अवयवपाकशुद्धिं प्रदाय दशाव
आत्युत्तरप्रयोगस्य प्रतिसमाधान_ यवपयोगपकटनम् ५३ २०
प्रदर्शनम्
६२ १६ १६. हेत्वाभासस्य विभागवयनम् ५४ ३ दुषणामासरखेन संमतानो छलाना हेवाभासमान्दप्रयोगस्य औपचारि
निरूपणम्
६२ २२ कत्लपकटनम्
५४ । ३०. पादस्य लक्षणम् हेत्वाभासस्य संख्यान्तरनिराकरणम् ५४
सस्वरक्षण अल्पवितण्डयोप्रयोजनमिति १७, असिद्धहेत्वाभावस्य निरूपणम् ५४ १६ नैयायिकमतमाशाक्य वनिराकर
स्वरूपासिद्धस्य निरूपयो सौगतस्थाशक्षा निरासश्च
५४ १८
जल्पवितण्डयोथान्तरस्वाभावसमर्थसन्दिग्धाशियस्य प्ररूपणम
नेन वादात्मकैकैव कथेति स्वेष्ट१८. पाचादिभेदेन प्रसिद्धभेदस्य विधा
समर्थनम्
५ ४ ३१. जयस्व लक्षणम् १९. विशेषयासिद्धादीनां स्वेष्टभेदे
३२. पराजयस्य लक्षणम् वन्तमोषषचनम्
५५ १४ ३३. निग्रहस्य निरूपणम् २०. विवाहेत्वाभासस्य लक्षणम् ५५ २७ ३४. नैयायिकसमवस्य विप्रतिपस्यअन्याभिमतविरुद्धभेदानां संग्रहः ५६ ६
प्रतिपतिमात्रस्य पराजय हेतुत्वस्य २१. अनेकान्तिकस्य निरूपणम् ५६ १७
निराकरणम्
६५ १३ ।। अन्यामिमतानकान्तिकमेदानां स्वेष्टा
नैयायिकसमताना द्वाविंशतिभेदनैकान्सिकेन्तर्भावः ५६ २१
भिनाना निमास्थानानां कमयो २२. दृष्टान्तामासानां संख्यावचनम् ५५ ९
निरूपणम् , परीक्षा च ६५ २० २३. साध्यसाधनोभयविकलतया साध. ३५. सौगतसंमतस्य असाथ नाशवधना.
Hष्टष्टान्ताभासानां निरूपणम् ५७ १४ दोषोशायनयोनिग्रहहेतुत्वस्य परी२४. साध्यसाधनोभयामासत्वेन वैध
क्ष्य निराकरणम् म्यष्टान्ताभासान रूपणम् ५७ २० असाधनाङ्गवचनमित्यस्व त्रिरूप२५. सन्दिग्धसाध्याद्यन्वयव्यतिरेकाणां
लिङ्गाषचनमित्यादिप्रथमव्याख्यादक्षान्तामासानां प्रतिपादनम् ५८ २ नस्य वाहनम्
२ १६ २६. विपरीताधयन्यतिरेकयोईष्टान्ता
असाधनाङ्गमित्यस्य साधयेण हेतो. भासयोनिरूपणम् ५८ १६
वचनहत्यादिरूपव्याख्यानान्तरस्य २७. अप्रदर्शितान्धयव्यतिरेकयो
निषेधः दृष्टान्ताभासयोः प्रतिपादनम् ५८ २५ अदोषोदावनमित्वस्य प्रसज्यप्रतिसर्वशन्तामासानां अनन्याव्यक्ति
घेध इत्यादिव्याख्यानस्य निषेधः ७४ १५ रेकाभिनत्वेन तन्निरूपणे तयोः पृथ
पवाक्यस्य लक्षणकरणप्रतिशा ७४ २७
नम्
paclenceMMARATickedeosuckRNANEERememilika.JANUARRIAnimlawinAAAAAAAAAANI
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
ttttt
TIT
RADHURIMARSHAmlesedRRiSocia
l ism
mpliftellaritainamaANImm.
..
भाषाटिप्पणानि। प्रथमाध्याय का प्रथमालिक। पृ. ५० नं.
पृष्ठ पं. १ पाणिनि, पिङ्गल, कणाद और अक्षपाद १५ स्वप्रकाश के स्थापन में प्रयुक्त युक्तियों के अन्यों का निर्देश
१६ के आधार का निर्देश २ याचकमुख्य उमास्वाति का परिचय १६ १६ प्रमाण लक्षण में स्वपद क्यों नहीं रखा
दिगम्बराचार्य अकलङ्क के मन्यों का निर्देश १ ११ उसका आचार्यकृत खुलासा ११८ ४ धर्मकीर्वि के कुछ अन्यों का निर्देश ११४ १७ दर्शनशास्त्र में जन धर्मकीर्ति ने धारा५.प्रथम सूत्र की शब्द रचना के आधार
याहि के प्रामाण्य-अप्रामाण्य की चर्चा का ऐतिहासिक दिग्दर्शन १२१ दाखिल की सर उसके विषय में सभी - सना ''मेकी
दार्शनिकों ने जो मन्तब्ध प्रगट किया अर्थ किये हैं उनके मूल का ऐतिहासिक
है उसका रहस्योद्घाटन अवलोकन
२११ १८ सूत्र १.१. ४ की रचना के उद्देश्य ७ जैनपरंपराप्रसिद्ध पांच परमेष्ठिों का
और वैशिष्ट्य का सूचन निर्देश
१ ६ १६ सूत्र १.१.४ और उसकी वृत्ति की हेमचन्द्राचार्य कृत प्रावणनिर्वचन के
विशिष्टता तस्वोपप्लव के आचार्यकृत मूल का निर्देश
।११ अवलोकन से फलित होने की संभावना १४ ३५ ६ शास्त्र-प्रवृत्ति के दो, तीन, और चार
२. संशय के विभिन्न क्षणों की तुलना १४ २२ प्रकारों के विवाद का रहस्य | हेमचन्द्र
२१ प्रशस्तपाद कृत अनध्यवसाय के स्वरूप द्वारा इस विषय में किये गए नैयायिकों
का निर्देश के अनुकरण का निर्देश
३ १७ २२ हेमचन्द्र कृत विपर्य के लक्षण की तुलना १५ २३ १० मीमांसा शब्द के विशिष्ट अर्थ का २३ प्रामाण्य और अप्रामाण्य के स्वतः परतः आधार क्या है ! और उससे आचार्य
की चर्चा के प्रारंभ का इतिहास और को क्या अभिप्रेत है उसका निदर्शन ४२१ स विषय मे दार्शनिकों के मन्तव्य ११ कणादकृत कारणशुद्धिमूलक प्रमाण
का दिग्दर्शन सामान्य लक्षण और उसमें नैयायिक
२४ परोक्षार्थक आमम के प्रामाण्य के वैशेषिक, मीमांसक और बौद्ध द्वारा
समर्थन में अश्वपाद की तरह मन्त्रायुकिए गए उत्तरोत्तर विकास का तुलना
वेद को दृष्टान्त न करके आचार्य स्मक ऐतिहासिक दिग्दर्शन । जैनाचार्यों
हेमचन्द्र ने ज्योतिष शास्त्र का दृष्टान्त के प्रमाण लक्षगों की विभिन्न शब्द
दिया है उसका ऐतिहासिक दृष्टि से रचना के आधार का ऐतिहासिक
रहस्योद्घाटन
२८ १२ अवलोकन । जैन परंपरा में हेमचन्द्र के
२५. आचार्य द्वारा बीड-नैयायिकों के प्रमाण संशोधन का अवलोकन
५ १ लक्षण का निरास १२ लक्षण के प्रयोजन के विषय में दार्श- २६ जैन परंपरा में पाई जानेवाली आगमिक
निकों की विप्रतिपत्ति का दिग्दर्शन ८६ और तार्किक हान-चर्चा का ऐति१३ सूत्र १.१.२ की व्याख्या के आधार
हासिक दृष्टि से विस्तृत अवलोकन १६ २६ की सूचना
८१६ २७ वैशेषिक संमत प्रमाण द्वित्ववाद और १४ अर्धं के प्रकारों के विषय में दार्शनिको
प्रमाणवित्ववाद का निर्देश २३ - के मतभेद का दिग्दर्शन
है ५ २८ प्रत्यक्षवटक अक्षशब्द के अर्थों में
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२
ने
भाषापणानां विषयानुक्रमणिकां ।
दार्शनिकों के मतभेद का दिग्दर्शन २६ भिन्न-भिन्न दार्शनिकों के द्वारा भिन्नमित्र प्रमाण को ज्येष्ठ मानने की परंपराओं का वर्णन
पृ० पं०
२३ २४
२४ १३
३० सूत्र १. १. ११ की आधारभूत कारिका की सूचना और उसकी व्याख्या की न्यायातार वृत्ति के साथ तुलना ३१ अभावप्रमाणवाद के पक्षकार और प्रतिपक्षियों का निर्देश | सूत्र १,१.१२ की व्याख्या की न्यायावतार वृत्ति के साथ तुलना
३२ प्रत्यक्ष के स्वरूप के विषय में भिन्न २ परंपराओं का वर्णन ३३ सर्वशवाद और धर्मवाद का ऐतिafe से reलोकन | सर्वेश के 1 विषय में दार्शनिकों के मतों का दिग्दर्शन | सर्वज्ञ और धर्मज्ञ की चर्चा # atter और बौद्धों के द्वारा दी nation rotat का वर्णन ३४ पुनर्जन्म और मोक्ष माननेवाले दार्शनिकों के सामने आनेवाले समान प्रश्नों का तथा उनके समान मन्तव्यो का परिगणन
२५. ३
२६ १
२६ ११
२७ १२
३४ १०
३५ समानभाव से सभी दार्शनिकों में पाये
जानेवाले प्रिदायिक रोग का निदर्शन ३६ १६ २६ सूत्र १. १. १० को ठीक २ समने
३७ १
३७
के लिये ग्रह देखने की सूचना १६ २० २७ वक्तृत्व आदि तुओं की educa fores terrear को प्रगट करनेवाले आचायों का निर्देश मनज्ञान के विषय में दो परंपराओं के स्वरूप संबंधी मतभेद का वर्णन इन्द्रिय पद की निरुक्ति, इन्द्रियों का कारण, उनकी संख्या, उनके विषय, उनके आकार, उनका पारस्परिक भेदाभेद, उनके प्रकार तथा उनके arit referय निरूपण विषयक दार्शनिकों के मन्तव्यों का तुलनात्मक दिग्दर्शन ४० मनके रूप, कारण, कार्य, धर्म और
३८ २१
नं०
पृख पं०
४४ १२
४४ २६
स्थान आदि अनेक विषयों में दार्शिनिकों के मतभेदों का संक्षिप्त वर्णन ४२ १४ ४१ आचार्यति चार प्रत्ययों के मूल स्थान का निर्देश ४३ २८५ ४२ अर्थोककारणतावाद नैयायिक बौद्ध उभय मान्य होने पर भी उसे बौद्ध सम्मत ही समज कर जैनान्वायों ने जो खण्डन किया है उसका खुलासा ४२ तदुतिताकारता का सिद्धान्त सौत्रान्तिकसम्म होने की तथा योगाचार बौद्धों के द्वारा उसके खण्डन की सूचना ४४ ज्ञानोपत्ति के क्रम का दार्शनिकों के द्वारा free free रूप से किये गए वर्णन का तुलनात्मक निरूपण ४५ अध्यवसाय, मानसज्ञान और अवग्रह के परस्पर भिन्न होने की आचार्यकृत सूचना का निर्देश | प्रतिसंख्या निरोध का स्वरूप ४६ अवाप और अपाय शब्द के प्रयोग की भिन्न २ परंपरा का और अकलंक कृत समन्वय का वर्णन ४७ धारणा के अर्थ के विषय में जैनाचार्यो के मतभेदों का ऐतिहासिक दृष्टि से वर्णन
४५ १६
४६ ६
४७ ५.
४] हेमचन्द्र ने मतानुसार प्रत्यक्ष का लक्षण स्थिर करके परपरिकल्पित लक्षणों का निरास करने में जिस प्रथा का अनुकरण किया है उसके इतिहास पर दृष्टिपात ४६. अक्षपादीय प्रत्यचसूत्र की वाचस्पति की व्याख्या पर 'पूर्वाचार्य कृतव्याख्यामुख्येन ' इस शब्द से आचार्य ने जो आक्षेप किया है और जो असंगत दिखता है उसकी संगति दिखाने का प्रयत्न
५० इन्द्रियों के प्राप्याप्राप्यकारिरुष के विषय में दार्शनिकों के मतभेदों की सूची ५१ प्रत्यक्षलक्षण विषयक दो बौद्ध परंप राओं का निर्देश और उन दोनों के aat के निरास करने वाले कुछ
४६ १४
४८ १४
४६ ७
४६ २३
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
५
.
भाषाटिप्पणानां विषयानुक्रमणिका
पृष्ठ पं० आचार्यों का निर्देश
५० १० के भेदाभेदवाद का संक्षिस इतिहास ५२ कल्पना शब्द की अनेक अर्थों में
और गुण-पर्याय तथा द्रव्य के भेदाभेदप्रसिद्धि होने की सूचना ५१ ८ वाद के बारे में दार्शनिकों के मन्तव्यों ५३ जैमिनी के प्रत्यक्ष सूत्र की व्याख्या के
का दिग्दर्शन विषय में मीमांसकों के मतभेदों का ५७ केवल नित्यत्व आदि भिन्न २ वादों के निर्देश्च और उस सूत्र का खण्डन करने
समर्थन में सभी दार्शनिकों के द्वारा वाले दार्शनिकों का निर्देश ५१ २० प्रयुक्त संघ-मोक्ष की व्यवस्था आदि ५४ सांख्यदर्शनप्रसिद्ध प्रत्यक्षलक्षण के तीन
समान युक्तियों का ऐतिहासिक दिग्दर्शन ५७ २१ प्रकारों का निर्देश और उनके कुछ ५८ सन्तान का वर्णन और उसका खण्डन
खण्डन करनेवालों की सूचना ५२ १६ करने वालों का निर्देव ५५ प्रमाण की विषयभूत वस्तु के स्वरूप ५६ अनेकान्तवाद के इतिहास पर दृष्टिपात ६१ ५
तथा वस्तुस्वरूपनिप्रदायक कसौटिओं ६. अनेकान्तवाद पर दिये जाने वाले दोषों के बारे में दार्शनिको के मन्तव्यों का
की संख्या विषयक भिनभिन्न परंपराओं दिग्दर्शन ! बौदों की अर्थक्रियाकारिक
का ऐतिहासिक से अबलोकन ६५ ८ रूप कसौटी का अपने पक्ष की सिद्धि ६१ फल के स्वरूप और प्रमाण-फल के में आचार्य द्वारा किये गये उपयोग
भेदामेदवाद के विषय में वैदिक, बौद्ध का निर्देश
. ५३ ६ और जैन परंपरा के मन्तव्यों का ऐति. ५६ व्याकरण, जैन तथा जैनेतर दार्शनिक
हासिक दृष्टि से तुलनात्मक वर्णन ६६ ७ साहित्य में द्रव्य शब्द की भिन्न भिन्न ६२ आरमा के स्वरूप के बारे में दार्शनिकों अयों में प्रसिद्धि का ऐतिहासिक सिंहा
के मन्तव्यों का संक्षिस वर्णन बलोकन ! जैनपरंपराप्रसिद्ध गुण-पर्याय
द्वितीयाहिक । ६३ भिन्न भिन्न दार्शनिकों के द्वारा रचित
उसके स्वरूप और प्रामाण्य के बारे में स्मरण के लक्षणों के भिन्न भिन्न आघासे
दार्शनिकों के मन्तव्यों की तुलना ७६ २५ का दिग्दर्शन
५२ २ ६६ हेमचन्द्र द्वारा स्वीकृत अर्चटोक्त च्याप्ति ६४ अधिक से अधिक संस्कारोशोधक
का रहस्योद्घाटन
७८ २५ निमित्तों के संग्राहक न्यायसूत्र का निर्देश ७२ १६ ७० अनुमान और प्रत्यक्ष के स्वार्थ-परार्थरूप ६५ स्मृति ज्ञान के प्रामाण्य और अप्रामाण्य
दो भेदों के विषय में दार्शनिकों का के विषय में दार्शनिकों की युक्तियों
मन्तव्य का ऐतिहासिक दृष्टि से तुलनात्मक
७१ हेतु के स्वरूप के बारे में दार्शनिकों की दिग्दर्शन
भिन्न-भिक परंपराओं का ऐतिहाधिक ६६ 'नाकारण विषयः' इस विषय में सौत्रा
दृष्टि से तुलनात्मक विचार
८०१० स्तिक और नैयायिकों के मन्तव्य की
७२ हेतु के प्रकारोंके सर में जैनाचार्यों के तुलना
मन्तब्यो का ऐतिहासिक दृष्टि से ६७ प्रत्यभिज्ञा के स्वरूप और प्रामाण्य के
अवलोकन
८३ २३ बारे में दार्शनिकों के मतभेद का
३ कारणलिङ्गक अनुमान के विषय में तुलनात्मक दिग्दर्शन
७५ ३ धर्मकीर्ति के साथ अपना मतभेद होने ६८ अइ और तर्फ शब्दों का निर्देश तथा
पर भी हेमचन्द्र ने उनके लिये 'सूक्ष्म
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाषाटिप्पणानां विषयानुक्रमणिका पृ० पं० ..
पृष्ट १० दर्शिन् विशेषण का प्रयोग किया है
व्यतिरेकविषयक जैन-बौद्ध मन्तव्यों का इससे धर्मकीर्ति के ऊपर उनके आदर
समन्वय की सूचना
८५२६७६ पक्ष का लक्षण, लक्षपागत पदी का ७४ 'प्राणादिमत्वात् इस हेतु की सत्यता के
फल, पक्ष के आकार और प्रकार इन बारे में इतर दार्शनिको के साथ
बातों में दार्शनिकों के मन्तव्यो का घौद्धों के मतभेद का दिग्दर्शन ८६ १ ऐतिहासिक अवलोकन
८७ २६ ७५ हेतु के नियामत के बारे में
ना और उपयोग के बारे कोलि का जो मा हेमचन्द्र ने उद्धृत
में नैयायिक और जैन-बौद्ध मन्तव्यों किया है उसकी निर्मूलता के बारे में
का दिग्दर्शन
६० १५ शंका और समाधान । अन्वय और
managem
R
RI
द्वितीयाध्याय का प्रथमासिक । ७८ वैदिक, बौर और जैन परंपरागत
निको की विप्रतिपत्ति का ऐतिहासिक परार्यानुमान की चर्चा का इतिहास ६२ । अवलोकन ७९ परार्थानुमान के प्रयोग प्रकारों के बारे
८४ दार्शनिकों के असिद्धविषयक मन्तव्य __में वैदिक, बौद्ध और जैन परंपरा के
का तुलनात्मक वर्णन
८ १६ मन्तव्यों की तुलना
६२२० ८५ दार्शनिकों के विरुद्धविषयक मन्तव्य ८पार्थानुमान में पश्च प्रयोग करने
न का तुलनात्मक दिग्दर्शन दिग्दर्शन
२५ करने के मतभेद का दिग्दर्शन । हेम
८६ अनेकान्तिक के बारे में दार्शनिकों के चन्द्रद्वारा अपने मन्तव्य की पुष्टि
मतभेदों का ऐतिहासिक दृष्टि से तुलनामें वाचस्पति का अनुकरण ६३ १७ स्मक विवेचन १ परार्थानुमान स्थल में प्रयोग परिपाटी
७ दृष्टान्ताभास के निरूपण का ऐतिहासिक के बारे में दार्शनिकों के मन्तव्यों का . दृष्टि से तुलनात्मक अवलोकन १०३ २६ दिग्दर्शन
६४ १४ सदुषण-दृषणाभास का ऐतिहासिक दृष्टि ८२ अनुमान के शब्दात्मक पाँच अवयवों
से तुलनात्मक विवेचन के वर्णन में हेमचन्द्र कृत अक्षपाद के
यादकथा का इतिहास
११५ २८ अनुकरण की सूचना
६६. निपद-स्थान तथा जय-पराजय व्यवस्था ८ हत्याभास के विभाग के बारे में दार्श
का तुलनात्मक वर्णन
२१६ १४
AAIIMIRAL.........IIIIIIIIIIIIIIIII
वृद्धि पत्रक। ६१ निर्विकल्प के बारे में दादानिकों के ६५ हेमचन्द्र की प्रमाण-फल व्यवस्था ___ मन्तब्य की तुलना
१२५ १ में उनका शैयाकरणत्व १२ ज्ञान की स्वप्रकाशकता के विषय में
१६ आत्ममत्वच का विचार १३६ ११ दार्शनिकों के मन्तध्य
१३० ७ ६७ अनुमानप्रमाण का ऐतिहासिक दृष्टि १३ प्रत्यक्ष विषयक दार्शनिकों के मन्तव्य १३२ ७ से अवलोकन
१३८ १ १४ प्रतिसंख्यान
१३५ ३० ६८ दिछनाग का हेतुचक
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिता
स्वोपज्ञवृत्तिसहिता
॥प्रमा ण मी मां सा॥
----
------ अनन्तदर्शनंज्ञानवीर्यानन्दमयात्मने । नमोऽहंते कृपाक्लुप्तधर्मतीर्थाय तायिने ॥१॥ बोधिबीजमुपस्कर्तुं तत्त्वाभ्यासेन धीमताम् ।
जैनसिद्धान्तसूत्राणां स्वेषां वृत्तिर्विधीयते ॥ २॥ ३१. ननु यदि भवदीयानीमानि जैनसिद्धान्तसूत्राणि तर्हि भवतः पूर्व कानि किमीया- 5 नि वा तान्यासमिति १ अत्यल्पमिदमन्वयुकथाः । पाणिनि-पिङ्गल-कणादा-ऽक्षपादादिभ्योऽपि पूर्व कानि किमीयानि वा ब्याकरणादित्राणीत्येतदपि पर्यनुयुक्ष्य ! अनादय एवैता विद्याः संक्षेपविस्तरविवक्षया नवनवीभवन्ति तत्तत्कीकाश्चोच्यन्ते । किं नानौषीः 'न कदाचिदनीदृशं जगत्' इति ? यदि वा प्रेक्षस्व वाचकमुख्यविरचितानि सकलशास्त्रचूडामणिभूतानि तत्वार्थसूत्राणीति ।
10 २. यधेयम्-अकलक-धर्मकीर्यादिवत् प्रकरणमेव किं नारभ्यते, किमनया सूत्रकारवाहोपुरुषिकया ? मैवं वोचा; मिनरुचिययं जनः ततो नास्य स्वेच्छाप्रतिवन्धे लौकिक राजकीयं वा शासनमस्तीति यत्किञ्चिदेतत् ।
६३. तत्र वर्गसमूहात्मकैः पदैः, पदसमूहात्मकैः सूत्रैः, सूत्रसमूहात्मकैः प्रकरणैः, प्रकरणसमूहात्मक आग्निकः, आजिकसमूहात्मकैः पञ्चभिरध्यायः शास्त्रमेतदरचयदा- 15 चार्यः। तस्य च प्रेक्षावत्प्रवृत्यङ्गमभिधेयमभिधातुमिदमादिसूत्रम्
अथ प्रमाणमीमांसा ॥१॥ ६४. अथ-इत्यस्य अधिकारार्थत्वाच्छाखेणाधिक्रियमाणस्य प्रस्तूयमानस्य प्रमाणस्याभिधानात् सकलशास्त्रतात्पर्यव्याख्याने प्रेक्षावन्तो बोधिताः प्रवर्तिताश्च भवन्ति । आनन्तर्यार्थो वा अथ-शब्दा, शब्द-काव्य-छन्दोनुशासनेभ्योऽनन्तरं प्रमाण मीमांस्यत 20 र तत्त्वज्ञान सामान्यज्ञान वा दर्शनम् । १ .रचितः । ३ प्रेत्य जिनधर्मप्राप्सिोंधिस्तस्य बीज सम्यवस्वम् ।
४कस्य सत्यानि१५ धाभिनिवेशेन । ६-७व्याख्याने प्रेक्षा-सा ।
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
भावीन्द्रगिरनिता [अ० १, आ० १, सू० ६. इत्यर्थः । अनेन शब्दानुशासनादिमिरेस्यैककर्तकत्वमाह । अधिकारार्थस्य च अथ-शब्दस्यान्यार्थनीयमानकुसुमदामजलकुम्भादेर्दर्शनमिव श्रवणं मङ्गलायापि कल्पत इति । मङ्गले च सति परिपन्थिविनविघातात अक्षेपेण शाखसिद्धिः, आयुष्मंयोतकता च भवति ।
परमेष्ठिनमस्कारादिकं तु मङ्गलं कृतमपि न निवेशितं लापवार्थिनों सूत्रकारेणेति । 5 ५. प्रकर्षण संशोदिथ्यवच्छेदेन मीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन तत् प्रमाण प्र.
मायां साधकतमन् , तस्य मीमांसा -उद्देशादिरूपेण पर्यालोचनम् । त्रयी हि शास्त्रस्य प्रचत्तिः-उद्देशो लक्षणं परीक्षा च । तत्र नामधेयमात्रकीर्तनमुद्देशः, यथा इदमेव सूत्रम् । उद्दिष्टम्यासाधारणधर्मवचनं लक्षणम् । तद् द्वेधा सामान्यलक्षणं विशेषलक्षणं च । सामान्य
लक्षणमनन्तरमेव सूत्रम् । विशेषलक्षणम् "विशदः प्रत्यक्षम्" [१.१.१३] इति । विभा10 गस्तु विशेषलक्षणस्यैवाङ्गमिति न पृथगुच्यते । लक्षितस्य 'इदमित्थं भवति नेत्थम्' इति न्यायतः परीक्षणं परीक्षा, यथा नृतीय सूत्रम् ।
६६. पूजितविचारवचनश्च मीमांसा-शब्दः । तेन न प्रमाणमात्रस्यैव विचारोवाधिकृतः, किन्तु तदेकदेशभृतानां दुर्नवनिराकरणद्वारेण परिशोधितमार्गाणां नयानामपि-"प्र
माणनयैरधिगमः" नित्वा० १.६.] इति हि वाचकमुख्यः, सकलपुरुषार्थेषु मुद्धाभिषिक्तस्य 15 सोपार्यस्य सप्रतिपक्षस्य मोक्षस्य च । एवं हि पूजितो विचारो भवति । प्रमाणमात्र
विचारस्तु प्रतिपक्षनिराकरणपर्यवसायी वाकलहमानं स्यात् । तद्विवक्षायां तु "अष प्रमाणपरीक्षा" [प्रमाणपरी० पृ. १] इत्येव क्रियेत । तत् स्थितमेतत्-प्रमाणनयपरिशोधितप्रमेयमार्ग सोपायं सप्रतिपक्षं मोक्ष विवक्षितुं मीमांसाग्रहणमकार्याचार्येणेति ॥१॥ ७. तत्र प्रमाणसामान्यलक्षणमाह
सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम् ॥ २॥ ६.८. प्रमाणम् इति लक्ष्यनिर्देशः, शेष लक्षणम् , प्रसिद्धानुवादेन ह्यप्रसिद्धस्य विधानं लक्षणार्थः । तत्र यत्तदविवादेन प्रमाणमिति धम्मि प्रसिद्धं तस्य सम्यगर्थनिर्णयात्मकत्वं धर्मो विधीयते । अत्र प्रमाणत्वादिति हेतुः । न च धम्मिणो हेतुत्वमनुपपत्रम् ; भवति
हि विशेषे धम्मिणि तत्सामान्यं हेतुः, यथा अयं धूमः सानिः, धूमत्वात् , पूर्वोपलब्ध25 धूमवत् । न च दृष्टान्तमन्तरेण न गमकत्वम् । अन्तर्व्याप्यैव माध्यसिद्धेः, 'मात्मक जीवच्छरीरम् , प्राणादिमस्यात्' इत्यादिवदिति दर्शयिष्यते ।
१ अस्य-शास्त्रस्य । २आयुग्मा श्रीनागेऽस्मिन । ३ आदेः स्तुति-नामसङ्गीतने । ४-०थिंना शास्त्रका. डे • मु.। ५ आदिग्रहणात् विपर्यवानभ्यदमायौ। ६ सङ्घद्वारेण भेदकथनं विभागः, यथा “प्रमाणं वैधा। प्रत्यक्षं परोक्ष च ।" [१.१.२. 1015 -स्तु लक्ष-ता। ८ अङ्गम्-अवयवः कारणमिति यावत् । ९-०तीयस०-३।१० परियोषितः प्रमाणानां मार्गोऽनेकान्तात्मक वस्तु वः। ११ अधिगमाय शास्त्रस्य प्रवृत्तिने वाकलाप । १२ ज्ञानदर्शनचारित्ररूपोपायमाहितम् । १३ प्रतिपक्ष: संसारः । १४ पथा अकल ट्रेन (१)[इय टिप्पणकारस्थ भ्रास्तिः मूलादायत्ता भासि। वस्तुतःप्रमाणपरीक्षा अकलङ्ककृता किन्तु विद्यानन्दकृता -सम्पा १५अनेकान्तात्मकरस्तुसपो माग यस्य मोक्षस्य। १६ व्यकिपे धर्मिणि, तथा विवादाध्यासित घटप्रत्यक्ष सम्यगर्थनिर्णयात्मकम् , प्रत्यक्षत्वादिति । १७ “न दृष्टान्तोऽनुमानानम्" [१. २. १८] इति सूत्रे ।
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
সমাস ।
प्रमाणमीमांसा। ९. तत्र निर्णयः प्रयाऽनध्यनमायाभिकल्पवरहितं ज्ञानम् ! नतो निर्णय-पदेनाज्ञानरूपस्येन्द्रियसभिकादेः', ज्ञानरूपस्यापि संशयादेः प्रमाणत्वनिषेधः ।
१०. अर्यतेऽर्यते वा अर्थो हेयोपादेयोपेक्षणीयलक्षणः, हेयस्य हातुम् , उपादेयस्योपादातुम् , उपेक्षणीयस्योपेक्षितुम् अयमानत्वात् । न चानुपादेयत्वादुपेक्षणीयो हेय एवान्तर्भवतिः अहेयत्वादुपादेय एवान्तर्भावप्रसक्तः । उपेक्षणीय एव च मूर्दाभिषिक्तोऽर्थः, 5 योगिभिस्तस्यैवार्यमाणत्वात् । अस्मदादीनामपि हेयोपादेयाभ्यां भूयानेवोपेक्षणीयोऽर्थः; तनायमुपेक्षितुं क्षमः । अर्थस्य निर्णय इति कर्मणि षष्ठी, निर्णीयमानत्वेन व्याप्यत्वादर्थस्य । अर्थग्रहणं च स्वनिर्णयव्यवच्छेदार्थं तस्य सनोऽप्यलक्षणत्वादिति वक्ष्यामः ।
११. सम्यग्-इत्यविपरीतार्थमव्ययं समञ्चका रूपम् । तचे निर्णयस्य विशेषणम् , तस्यैव सम्यक्त्वाऽसम्यक्त्वयोगेन विशेष्टुमुचितत्वात् । अर्थस्तु स्वतो न सम्यग् नाप्य- 10 सम्यगिति सम्भव्यभिचारयोरभावान विशेषणीयः । तेन सम्यग् योऽर्थनिर्णय इति विशेषणाद्विपर्ययनिरासः । ततोऽतिव्याप्त्यव्यायसम्भवदोषविकलमिदं प्रमाणसामान्यलक्षणम् ॥ २॥
६१२. ननु अर्थनिर्णयवत् स्वनिर्णयोऽपि वृद्धैः प्रमाणलक्षणत्वेनोक्त:-"प्रमाणं स्वपराभासि" [न्यायाब ० १] इति, "स्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञान प्रमाणम्" [तत्वार्थ लोकया• J8 १.१०.७] इति च । न चासविसन, 'धटमहं जानामि इत्यादौ कर्तृकर्मवत् शोरप्यवभासमानत्वात् । न च अप्रत्यक्षोपलम्भस्यार्थदृष्टिः प्रसिद्धयति । न च ज्ञानान्तरात् तदुपलम्भसम्मावनम् , तस्याप्यनुपलब्धस्य प्रस्तुतोपलम्भप्रत्यक्षीकाराभावात् । उपलम्मान्तरसम्भावने चानवस्था । अर्थोपलम्मात् तस्योपलम्भे अन्योन्याश्रयदोपः । एतेन 'अर्थस्यै सम्भवो नोपपयेत नै चे[त्] ज्ञानं स्यात्' इत्यापस्यापि तदुपलम्भः प्रत्युक्तः तस्या अपि ज्ञायकत्वे- 20 नाज्ञाताया ज्ञापकत्वायोगात् । अर्थापत्त्यन्तरात् तज्ज्ञाने अनवस्थेतरेतराश्रयदोषापत्तेस्तदवस्था पस्भिवः । तस्मादर्थोन्मुखतयेत्र स्वोन्मुखतयापि ज्ञानस्य प्रतिभासात् स्वनिर्णयात्मकत्वमप्यस्ति । ननु अनुभूतेरनुभाव्यत्त्वे घटादिवंदननुभूतित्वप्रसङ्गः, मैवं वोचः; ज्ञातुतित्वेनेव अनुभूतेरनुभूतित्वेनैवानुभवात् । न चानुभूतेरनुमान्यत्वं दोषः अर्थापेक्षपानुभूतित्वात , स्वापेक्षयानुभाव्यत्वात् , स्वपितपुत्रापेक्षयैकस्य पुत्रत्वपितृत्ववत् विरो- 25 धाभावात् । न च स्वात्मनि क्रियाविरोधः, अनुभवसिद्धेऽर्थे विरोधासिद्धेः । अनुमानाच्च स्वसंवेदनसिद्धि; तथाहि ज्ञान प्रकाशमानमेवार्थ प्रकाशयति, प्रकाशकत्वात , प्रदीपवत् ।
प्रथमाक्षसशिपातेन यत् मानम् । यद्यप्यमध्यवसाय एवं निर्विकल्पक तथाप्याहत्य सौमतमतनिराकरणायाविकल्पकल्चेभेति पदम् । २-परख ०.३० । ३ आदिपदास, ज्ञातृव्यापारः । ४ अर्यमानत्वात । ५ "शकष ......" [ हैमश. ५. ४. ९० ] इति तुम् । ६ योग्यः 1 ७ ननु नि . -हा । ८ बडवान् । ९ सम्भवे स्थमिचारे च विशेषणमर्थवन्द भवति । १० निश्यात्मकम् । ११ खनिर्णयः । १२ पुरुषस्य । १३ म्लनिर्णयो. पलम्भ १ १४ अनवस्थादोषेण । १५ अस्यातील्पेयरूषो व्यवहारः । १६ न चेतातक्षा-ट, । १७ अर्थो पल भोपलम्भः । १८ अर्यापतिशाने । १९ अपित्त्यन्तरस्थापि ज्ञावार्थ पुनरप्यर्थापत्त्यन्तर रूप(ल्य मित्यनषस्था । २० या वाफ्वन्तरस्य प्रस्तुतार्थापतेः सानं तदेतरेतराश्रयः । २१ कर्मचान ।
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीहेमचन्द्रसिरचिता [१मा० १. सू० ३-७, संवेदनस्य प्रकाश्यत्वात् प्रकाशकत्वमसिद्धमिति चेत् ; न; अज्ञाननिरासादिद्वारेण प्रकाशकत्वोपपत्तेः । न च नेवादिभिरनैकान्तिकता; तेषां भावेन्द्रियरूपाणामेव प्रकाशकत्वात् । भावेन्द्रियाणां च स्वसंवेदनरूपतैवेति न व्यभिचारः । तथा, संवित स्वप्रकाशा,
अर्थप्रतीतित्वात , य: स्वप्रकाशो न भवति नासावर्थप्रतीतिः यथा घटः । तथा, यत् ज्ञानं 5 तत् आत्मबोध प्रत्यनपेक्षितपरव्यापारम्, यथा गोचन्तिरग्राहिज्ञानोत् प्राग्भावि गोचरान्तरपाहिज्ञानप्रबन्धस्यान्त्यज्ञानम् , ज्ञानं च विवादाध्यासितं रूपादिज्ञानमिति । संवित् स्वप्रकाशे स्वाचान्तरजातीयं नापेक्षते, वस्तुत्वात् , घटवत् । संवित् परप्रकाश्या, वस्तुत्वात , घटवदिति चेतन, अस्याप्रयोजकत्वात् , न खलु घटस्य वस्तुस्वात् परप्रकाश्यता
अपि तु बुद्धिव्यतिरिक्तत्वात् । तस्मात् स्वनिर्णयोऽपि प्रमाणलक्षणमस्त्वित्याशङ्कयाह10 स्वनिर्णयः सन्नप्यलक्षणम् , अप्रमाणेऽपि भावात् ॥ ३॥
$१३. सन्नपि इति परोक्तमनुमोदते । अयमर्थन हि अस्ति इत्येव सर्व लक्षणत्वेन वाच्यं किन्तु यो धर्मो विपक्षाश्यावर्त्तते । स्वनिर्णयस्तु अप्रमाणेऽपि संशयादौ वर्त्तते; नहि काचित् ज्ञानमात्रा सास्ति या न स्वसंविदिता नाम । ततो न स्वनिर्णयो लक्षण
मुक्तोऽस्माभिः, वृद्धस्तु परीक्षार्थमुपक्षिप्त इत्यदोषः ॥३॥ 15 १४. ननु च परिच्छिन्नमर्थं परिच्छिन्दता प्रमाणेन पिष्टं पिष्टं स्यात् । तथा च
गृहीतग्राहिणां धारावाहिज्ञानानामपि प्रामाण्यप्रसङ्गः । ततोऽपूर्वार्थनिर्णय इत्यस्तु लक्षणम् , यथाहु:--"स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञान प्रमाणम्" [ परीक्षामु० १.१] इति, "तंत्रापूर्वार्धविज्ञानम्” इति च । तत्राह
ग्रहीष्यमाणग्राहिण इव गृहीतग्राहिणोऽपि नाप्रामाण्यम् ॥१॥ 20१५. अयमर्थः-द्रव्यापेक्षया वा गृहीतग्राहित्वं विप्रतिषिध्येत पर्यायापेक्षया वा !
तत्र पर्यायापेक्षया धारावाहिज्ञानानामपि गृहीतग्राहित्वं न सम्भवति, क्षणिकत्वात् पर्यायाणाम् । तत्कथं तम्भिवृस्यर्थ विशेषणमुपादीयेत ? अथ द्रव्यापेक्षयाः तदप्ययुक्तम् । द्रव्यस्य नित्यत्वादेकत्वेन गृहीतग्रहीष्यमाणावस्थयोन भेदः। ततश्च के विशेषमाश्रित्य ग्रहीष्यमाणग्राहिणः प्रामाण्यम् , न गृहीतग्राहिणः ? अपि च अवग्रहेहादीनां गृहीत25 ग्राहित्वेऽपि प्रामाण्य मिष्यत एव । न चैषां भिन्नविषयत्वम् एवं शवगृहीतस्य अनीह
नात्, इहितस्य अनिश्चयादसमञ्जसमायद्येत । न च पर्यायापेक्षया अनधिगतविशेषावसायादपूर्वार्थत्वं वाच्यम् । एवं हि न कस्यचिद् गृहीतग्राहित्वमित्युक्तप्रायम् ।
मिति न अज्ञाता०३२ आदेः संशयादिनिरासः। ३ ज्ञानान्तरानपेक्षितव्यापारम् । ५ घरविषयम् । ५-"झानना 201६ केवलान्वयनुमानम् । ७ ज्ञानातरम । दलक्षणं वाच्यं-डे । ९.०वाहिकज्ञाना३.। १० स्वस्य अपूर्वार्थस्य च । ११ तथापू०-२०। सवैति पत्र भयः (१)। १२ प्राभाकराः । १३- हिकमाडे । १४ गृहीतार्थनाहिसान निरासायेत्यर्थः । १५.दीयते-डे ।
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
Muline
KA
p
ni
..........
.
marati'.'...
'
Katha......
.
.
.."
प्रमाणपरीक्षा।]
प्रमाणमीमांसा १६१६. स्मृतेश्च प्रमाणत्वेनाभ्युपगताया गृहीतग्राहित्वमेव सतत्वम् । वैरपि स्मृतैरप्रामाण्यमिष्टं तैरप्यर्थीदनुत्पाद एव हेतुत्वेनोक्तो न गृहीतग्राहित्वम् , यदाह--
" स्मृतरप्रमागरम गरीनयाहिताकतम् ।
____ अपि स्वनर्थजन्यत्वं तमामाण्यकारणम्” न्यायम • पृ० : इति ॥ ४ ॥ ६ १७. अथ प्रमाणलक्षणप्रतिक्षिप्तानां संशयानध्यवसायविपर्ययाणां लक्षणमाह
अनुभयत्रोभयकोटिस्पर्शी प्रत्ययः संशयः ॥ ५॥ १६१८. अनुभयस्वभावे वस्तुनि उभयान्तपरिमर्शनशीलं ज्ञानं सर्वात्मना शेन इवात्मा पस्मिन् सति स संशयः, यथा अन्धकारे दूरादूर्धाकारवस्तूपलम्भान साधकबाधकप्रमाणाभावे सति 'स्थाणुवा पुरुषो वा' इति प्रत्ययः । अनुभयत्रग्रहणमुभयरूपे वस्तुन्युभयको- 10 टिसंस्पर्शऽपि संशयत्वनिराकरणार्थम्, यथा 'अस्ति च नास्ति च घटः', 'नित्यश्चानित्यधारमा' इत्यादि ॥ ५॥
विशेषानुल्लेख्यनध्यवसायः ॥ ६ ॥ ६१९, दुरान्धकारादिवशादसाधारणधर्मावमर्शरहितः प्रत्ययः अनिश्चयात्मकत्वात् अनध्यवसायः, यथा 'किमेतत्' इति । यदप्यविकल्पकं प्रथमक्षणभावि परेषां प्रत्यक्ष- 15 प्रमाणत्वेनाभिमनं तदप्यनध्यवसाय एक, विशेषोल्लेखस्य तत्राप्यभावादिति ॥ ६ ॥
अतस्मिंस्तदेवेति विपर्ययः॥ ७ ॥ ६२०. यत् ज्ञाने प्रतिभासते तद्रूपरहिते वस्तुनि 'तदेव' इति प्रत्ययो विपर्यासरूपत्वाद्विपर्ययः, यथा धातुवैषम्यान्मधुरादिषु द्रव्येषु तिक्तादिप्रत्ययः, तिमिरादिदोषात् एकस्मिन्नपि चन्द्रे द्विचन्द्रादिप्रत्ययः, नौयानात् अगच्छत्स्वपि वृक्षेषु गच्छत्प्रत्ययः, आशुभ्र- 20 मणात अलातादावचक्रेऽपि चक्रप्रत्यय इति । अवसितं प्रमाणलक्षणम् ।। ७ ।।
६२१, ननु अस्तूक्तलक्षण प्रमाणम् । तत्प्रामाण्यं तु स्वतः, परतो वा निश्चीयेत? न तावत् स्वतः तद्धि श्व(स्व संविदितत्वात् ज्ञानमित्येव गृह्णीयात्, न पुनः सम्यक्त्वलक्षणं प्रामाण्यम् , ज्ञानत्यमात्र तु प्रमाणाभाससाधारणम् । अपि च स्वताप्रामाण्ये सर्वेषामविप्रतिषतिप्रसङ्गः । नापि परता; परं हि तैदोचरगोचर वा ज्ञानम् अभ्युपेयेत, अर्थक्रियानिसिं वा, 2 तिद्गोचरनान्तरीयकार्थदर्शन वा ? तच्च सर्व स्वतोऽनवकृतप्रामाण्यमव्यवस्थितं सत् कथं पूर्व प्रवर्तकं ज्ञान व्यवस्थापयेत् ? स्वतो वाऽस्य प्रामाण्ये कोऽपराधः प्रवर्तकज्ञानस्य येन तस्यापि तम्भ स्यात् । न च प्रामाण्यं ज्ञायते स्वत इत्युक्तमेव, परतस्त्वनवस्थेत्याशङ्कयाह--
१ स्वरूपम् । २ उभवेन्युपलक्षणम् आ(श्यादिकोटि स्पर्शेऽपि संवायस्य सद्भावात् । ३ ... टिसंस्पत-डे । ५- दिव्य ०-३०। ५ दरमुकादी। ६ प्रमाणम् । तद संविढे० । ७ तस्य प्रथमज्ञानस्य गोचसे विषयो जलादिः, स गोचरो अस्य द्वितीयज्ञानम्म। तस्य सानस्य गोचरोऽन्यादिस्तदन्निनाभूतो धूमादिः । ९ पूर्वप्रवर्तकज्ञाने-2.। १० तत्-स्वतः प्रामाण्यम् ।
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
EERA
MAAR
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिता [अ० ५, आ० १, सू०८-११. प्रामाण्यनिश्चयः स्वतः परतो वा ॥ ८॥ ६२२. प्रामाण्यनिश्चयः क्वचित् स्वतः यथाऽभ्यासदशापने स्वकरतलादिज्ञाने, स्नानपानावगाहनोदन्योपशमादावर्थक्रियानि से वा प्रत्यक्षज्ञान नहि तत्र परीक्षाका
शास्ति प्रेक्षावताम् , तथाहि-जलज्ञानम् , ततो दाहपिपासातस्य तत्र प्रवृत्तिः, ततस्तर प्राप्तिः, ततः स्नानपानादीनि, ततो दाहोदन्योपशम इत्येतायतैव भवति कृती प्रमाता न
पुनर्दाहोदन्योपशमज्ञानमपि परीक्षने इत्यस्य स्वतः प्रामाण्यम् । अनुमाने तु सर्वस्मिनपि सर्वथा निरस्तसमस्तव्यभिचाराशङ्के स्वत एवं प्रामाण्यम् , अव्यभिचारिलिङ्गसमुत्थत्वात् । न लिङ्गाकारं ज्ञानं लिङ्गं विना, न च लिङ्ग लिङ्गिनं विनेति ।
२३. क्वचित परतः प्रामाण्यनिश्चयः, यथा अनभ्यासदशापन्ने प्रत्यक्षे । नहि तत् 10 अथेन गृहीताव्यभिचारमिति तदेकविषयात् संवादकात् ज्ञानान्तराद्वा, अर्थक्रियानि -
सावा, नान्तरीयार्थदर्शनाद्वा तस्य प्रामाण्यं निश्चीयते। तेषां च स्वतः प्रामाण्यनिश्चयान्नानवस्थादिदौस्थ्यावकाशः ।।
६२४. शाब्दे तु प्रमाणे दृष्टार्थेऽर्थाव्यभिचारस्य दु नत्वात् संवादाद्यधीनः परतः प्रामाण्यनिश्चयः; अदृष्टार्थे तु दृष्टार्थग्रहोपराग-नष्ट-मुष्टयादिप्रतिपादकानां संवादेन 15 प्रामाण्यं निश्चित्य संवादमन्तरेणाप्याप्सोक्तत्वेनैव प्रामाण्यनिश्चय इति सर्वमुपपन्नम् ।
६२५. "अर्थोपलब्धिहेतुः प्रमाणम्” इति नैयायिकाः । तत्रार्थोक्लब्धौ हेतुत्वं यदि निमित्तत्वमात्रम् । तदा तत् सर्वकारकसाधारणमिति कर्तृकर्मादेरपि प्रमाणत्वप्रसङ्गः । अथ कलेकमादिविलक्षणं करण हेतुशब्देन विवक्षितम् । तर्हि तत् ज्ञानमेव युक्त नेन्द्रिय
सनिक(दि. यस्मिन् हि सत्यर्थ उपलब्धो भवति से तत्करणम् । न च इन्द्रियसभिकर्ष20 सामन्यादौ सत्यपि ज्ञानाभावे मैं भवति, साधकतमं हि करणमव्यवाहितफलं च तदिष्यते,
व्यवहितफलस्यापि करणत्वे दधिभोजनादेरपि तथाप्रसङ्गः । तन्न ज्ञानादन्यत्र प्रमाणत्वम् , अन्यत्रोपचारात् ।
१२६. "सम्यगनुभवसाधनं प्रमाणम्" [ न्यायसा• पृ. ५ ] इत्यत्रापि साधनग्रहणात् कर्तृकर्मनिरासेन करणस्य प्रमाणत्वं सिध्यति, तथाप्यच्यवहितफलत्वेन 25 साधकतमत्वं ज्ञानस्यैवेति तदेव प्रमाणत्वेनेष्टव्यम् ।
६२७. "प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम्" [ प्रमाणया० २. १ ] इति सौगताः। तत्रापि यद्यविकल्पकं ज्ञानम्। तदा न तद् व्यवहारजननसमर्थम् । सांव्यवहारिकस्य चैतत् प्रमाणस्य लक्षणमिति च भवन्तः, तत्कथं तस्यं प्रामाण्यम् ? उत्तरकालभाघिनो व्यवहारजननसमर्थाद्विकल्पात् तस्य प्रामाण्ये याचितकमण्डनन्यायः, वरं च व्यवहारहेतोविकल्पस्यैव
१ लिनग्रहणपरिणामि । २ तदेकदेशविष...डे. । ३ नदेकविषयसंवादकज्ञानान्नरादीनाम् । ४ वायानाम् । ५ स - ज्ञानलक्ष गोऽर्थः । तस्योपलरुषत्वकारणम् । ७ अपिलम्भः । = गंगतो व्यवहारः प्रयोजनमस्येति। विकल्पकस्य ।
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
प्रमाणविभागः ।
प्रमाणमीमांसा। प्रामाण्यमभ्युपगन्तुम् ; एवं हि परम्परापरिश्रमः परिहतो भवति । विकल्यस्य चाप्रामाण्ये कथं तन्निमित्तो व्यवहारोऽविसंवादी ? दृष्ट(श्य)विकल्प(ल्प्य योरर्थयोरेकीकरणेन तैमिरिकझानवत् संवादाभ्युपगमे चोपचरितं संवादित्वं स्यात् । तस्मादनुपचरितमविसंवादित्वं प्रमाणस्य लक्षणमिच्छता निर्णयः प्रमाणमेष्टव्य इति ॥ ८ ॥
६.२८. प्रमाणसामान्यलक्षणमुक्त्वा परीक्ष्य च विशेषलक्षणं चक्कामो विभाग- 5 मन्तरेण तद्वचनस्याशक्यत्वान् विभागप्रतिपादनार्थमाह
प्रमाणं द्विधा ॥ ९॥ १२९. सामान्यलक्षणसूत्रे प्रमाणग्रहणं परीक्षयान्तरितमिति न 'तदा' परामृष्टं किन्तु साक्षादेवोक्तं प्रमाणम् इति । द्विधा द्विप्रकारमेव, विभागस्यावधारणफलत्वात् । सन प्रत्यक्षमक प्रमाणमिति यावी., प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणमिति बैशेषिकाः, 10 तान्येवेति सान्याः , सहोषमानेन चत्वारीति नैयायिकाः, सहाायच्या पश्चेति प्रामाकराः, सहाऽभावेन पडिति भावाः इति न्यूनाधिकप्रमाणवादिनः प्रतिक्षिप्ताः । तत्प्रतिक्षेपश्च वक्ष्यते ॥ ९ ॥
३०. तहिं प्रमाणद्वैविध्यं किं तथा यथाहुः सौगताः "प्रत्यक्षमनुमान छ । [प्रमाण ० १. ५. न्यागधि० १.१ १ ] इति, उनान्यथा ? इत्याह
प्रत्यक्षं परोक्षं च ॥१०॥ $३१. अश्नुते अक्ष्णोति या व्याप्नोति सकलद्रव्यक्षेत्रकालभावानिति अक्षो जीवः, अश्नुते विषयम् इति अक्षम्-इन्द्रियं च । प्रतिः प्रतिगतार्थः । अक्षं प्रतिगतं तदाश्रितम् , अक्षाणि चेन्द्रियाणि तानि प्रतिगतमिन्द्रियाण्याश्रित्योअिहीते यत् ज्ञानं तत् प्रत्यक्षं वक्ष्यमाणलक्षणम् । अक्षेभ्यः परतो वर्तत इति परेणेन्द्रियादिना चोक्ष्यत इति परोक्षं 20 वक्ष्यमाणलक्षणमेव । चकारः स्वत्रिपये इयोस्तुल्यवलत्वख्यापनार्थः । तेन यदाहु:"सकलप्रमाणज्येष्ठं प्रत्यक्षम्" इति नदयास्तम् । प्रत्यक्षपूर्वकत्वादितरप्रमाणानां तस्य ज्येष्ठतेति चेत् ;न, प्रत्यक्षस्यापि प्रमाणान्तरपूर्वकत्वोपलब्धेः, लिङ्गात् आमोपदेशाद्वा वाहयादिकमवगम्य प्रवृत्तस्य तद्विषयप्रत्यक्षोत्पत्तेः ।। १० ॥ ३२. न प्रत्यक्षादन्यत्प्रमाणमिति लौकायतिकाः । तत्राह--
25 व्यवस्थान्यधीनिषेधानां सिद्धेः प्रत्यक्षेतरप्रमाणसिद्धिः ॥११॥
६३३, प्रमाणाप्रमाणविभागम्य, परबुद्धेः, अतीन्द्रियार्थनिषेधस्य च सिद्धिनानुमानादिप्रमाणं विना । चार्वाको हि काश्चिज्ज्ञानव्यक्तीः संवादित्वेनाव्यभिचारिणीरुपलभ्यान्याच विसंवादित्वेन व्यभिचारिणी, पुनः कालान्तरे ताशीतराणां ज्ञानव्यक्तीनामवश्यं
१ "श्यविकलायात्राकीकृतर --तत्वो लि. पू. ११; बृहती५० १. १. ५.० ५३ -सम्पा० ।
15
२'तन शन्दन। ३.... "झं च परो०-हे. मा.मु.
विषयमिन्द्रि-ता
-क्षभितिपूर्वक.... ।
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्री चन्द्रविरचिता [अ० १, आ० १ सू० १२.
प्रमाणेतर व्यवस्थापयेत् । न च सन्निहितार्थचलेनोत्पद्यमानं पूर्वापरपरामर्शशून्यं प्रत्यक्षं पूर्वापरका भाविनीनां ज्ञानव्यक्तीनां प्रामाण्याप्रामाण्यव्यवस्थापकं निमित्तमुपलक्षयितुं क्षमते । न चार्य स्वप्रतीतिगोचराणामपि ज्ञानव्यक्तीनां परं प्रति ग्रामाण्यमग्रामाण्यं वा व्यवस्थापयितुं प्रभवति । तस्माद्यथादृष्टज्ञानव्यक्तिसाधर्म्यद्वारेणेदानीन्तनज्ञानव्यक्तीनां 5 प्रामाण्याप्रामाण्यव्यवस्थापकं परप्रतिपादकं च परोक्षान्तर्गतमनुमानरूपं प्रमाणान्तरसुपासीत ।
६३४. अपि च [अ]प्रतिपित्सितमर्थं प्रतिपादयन् 'नाये लौकिको न परीक्षकः ' इत्युन्मत्तवदुपेक्षणीयः स्यात् । न च प्रत्यक्षेण परचेतोवृत्तीनामधिगमोस्ति । चेाविशेषदर्शerreart च परोक्षस्य प्रामाण्यमनिच्छतोऽप्यायातम् ।
३५. परलोकादिनिषेध न प्रत्यक्षमात्रेण शक्यः कर्तुम्, सन्निहितमात्रविषयत्वात्तस्य । परलोकादिकं चाप्रतिषिध्य नायं सुखमस्ते प्रमाणान्तरं च नेच्छतीति डिम्भवाः ।
10
६३६. किश्व, प्रत्यक्षस्याप्यर्थाव्यभिचारादेव प्रामाण्यं तचार्थप्रतिबद्धलिङ्गशब्दद्वारा समुन्मतः परोक्षस्याप्यव्यभिचारादेव किं नेष्यते ? व्यभिचारिणोषि परोक्षस्य 15 दर्शनादप्रामाण्यमिति चेत्; प्रत्यक्षस्यापि तिमिरादिदोषादप्रमाणस्य दर्शनात् सर्वत्राप्रामाप्रसङ्गः । प्रत्यक्षाभासं तदिति चेत्; इतरत्रापि तुल्यमेतदन्यत्र पक्षपातात् । धर्मकीर्तिरयेतदाह
८
“प्रमाणेतर सामान्यस्थितेरन्यधियो गतेः । प्रमाणान्तरसङ्गावः प्रतिषेधाश्च कस्याचेत् ॥ १ ॥ अर्थस्यासम्भवेऽभावात् प्रत्यक्षेऽपि प्रमाणता । प्रतिबद्धस्वभावस्य तद्धेतुत्वे समं दयम्" ॥ २ ॥ इति । ६३७. यथोक्तसङ्ख्यायोगेऽपि च परोक्षार्थविषयमनुमानमेव सौगतैरुपगम्यतेः तदयुक्तम्: शब्दादीनामपि प्रमाणत्वात् तेषां चानुमानेऽन्तर्भावयितुमशक्यत्वात् । एकेन तु सर्व साहिणा प्रमाणेन प्रमाणान्तरसङ्घहे नायं दोषः । तत्र यथा इन्द्रियजमानसात्मसंवेदन25 योगज्ञानानां प्रत्यक्षेण सङ्ग्रहस्तथा स्मृतिप्रत्यभिज्ञानोहानुमानागमानां परोक्षेण सहो लक्षणस्याविशेषात् । स्मृत्यादीनां च विशेषलक्षणानि स्वस्थान एव वक्ष्यन्ते । एवं परोअस्योपमानस्य प्रत्यभिज्ञाने, अर्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भावोऽभिधास्यते ।। ११ ।।
६३८. यत्तु प्रमाणमेव न भवति न तेनान्तर्भूतेन वहिर्भूतेन वा किञ्चित प्रयोजनम्, यथा अभावः । कथमस्याप्रामाण्यम् ? निर्विषयत्वात् इति ब्रूमः । तदेव कथम् ? इति चेत्भावाभावात्मकत्वाद्वस्तुनो निर्विषयोऽभावः ॥१२॥
$ ३९. नहि भावैकरूपं वस्त्यस्ति विश्वस्य वैश्वरूप्यप्रसङ्गात्, नाप्यभावैकरूपं नीरू
१ नास्ते० - ० । २ इत्यत्रा०डे० । ३० भावा०डे० ।
20
30
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रत्यक्षलक्षणम् । ]
प्रमाणमीमांसा ।
पत्वप्रसङ्गात् किन्तु स्मरूपेण सच्चात् पररूपेण चासच्चात् भावाभावरूपं वस्तु तथैव प्रमाurai प्रपः । तमाह प्रस्पक्षं तावत् भूतलमेवेदं घटादिर्न भवतीत्यन्वयव्यतिरेकद्वारेण वस्तुपरिच्छिन्दत् तदधिकं विषयमभावैकरूपं निराचष्ट इति के विषयमाश्रित्याभालक्ष्यं प्रमाणं क्या है। एवं परोक्षाप्यपि प्रमाणानि भाषाभावरूपवस्तुग्रहणप्रवणान्येव, अन्यथाऽसङ्कीर्णस्वस्वविषयग्रहणासिद्धेः, यदाह
"अयमेवेति यो क्षेत्र भावे भवति निर्णयः नैष वस्वन्तराभावसंविस्वनुगमादृते ॥" [ ठोकणा• अभाव छो. १५.]
"न तावदिन्द्रियेणैथा नास्तीत्युत्पाद्यते मतिः । भावांशेनैव संयोगो योग्यत्वादिन्द्रियस्य हि ||१|| गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् । मानसं नास्तिताज्ञानं जायतेऽक्षानपेक्षया || २ ||" [ श्लोकवा • अभाव० श्री. १८, २७]
इति ।
६४०, अथ भवतु भावाभावरूपता वस्तुनः, किं मच्छिम् १, वयमपि हि तथैव प्रत्यपीपदाम । केवलं भावांश इन्द्रियसन्निकृष्टत्वात् प्रत्यक्षप्रमाणगोचरः अभावांशस्तु 10 न तवेत्यभावप्रमाणगोचर इति कथमविषयत्वं स्यात् १, तदुक्तम्
५
इति ।
१४१. न भावांशादभावांशस्याभेदे कथं प्रत्यक्षेणाग्रहणम् १, भेदे वा घटाद्यभावरहितं भूतकं प्रत्यशेन गृश्यत इति घटादयो गृह्यन्स इति प्राप्तम्, तदभावग्रहणस्य तद्भावग्रहजनान्तरीयकत्वात् । तथा चाभावप्रमाणमपि पश्चात्प्रवृत्तं न तानुत्सारयितुं पटिएं स्यात्, अन्यथासङ्कीर्णस्य सङ्कीर्णशाग्रहणात् प्रत्यक्षं भ्रान्तं स्यात् ।
विशदः
5
[ प्रत्यक्षम् ॥१३॥
६४२. अपि श्रार्य प्रमाणपञ्चकनिवृतिरूपत्वात् तुच्छः । तत एवाज्ञानरूपः कथं प्रमाणं भवेत् ? । तस्मादभावांशात्कथञ्चिदमिमं भावांशं परिच्छिन्दता प्रत्यक्षादिना प्रमाबेनाभानांशी गृहीत एवेति तदतिरिक्तविषयाभावाभिर्विषयोऽभावः । तथा च न प्रमाणमिति स्थितम् ||१२||
४३. विभागमुक्त्वा विशेषलक्षणमाह
15
मम ई० । तदभावग्रहण ०-० । ३ वाभावग्रहणमपि-डे० ४ अन्यथा सड़ी०-४० ५-० विनाभावा०-सा प्रमाणमिति । विभाग०ता० ।
२
20
25
६४४. सामान्यलक्षणानुवादेन विशेषलक्षणविधानात् 'सम्यमर्थनिर्णयः' इति प्रमासामान्यलक्षणमनूद्य 'विशद:' इति विशेषलक्षणं प्रसिद्धस्य प्रत्यक्षस्य विधीयते । तथा च प्रत्यक्षं धर्मि । विशदसम्यगर्थनिर्णयात्मकमिति साध्यो धर्मः । प्रत्यक्षत्वादिति हेतुः । यद्विशदसम्पर्थनिर्णयात्मकं न भवति न तत् प्रत्यक्षम्, यथा परोक्षमिति व्यतिरेकी | 30
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यामीहेमचन्द्रविरथिता [अ० १, आ० १,२० १४-१६. धम्मिणो हेतुत्वेऽनन्वयदोष इति चेत् । न विशेष धर्मिणि धमिसामान्यस्य हेतुत्वात् । तस्य च विशेषनिष्ठत्वेन विशेषेष्वन्वयसम्भवात् । सपक्षे वृतिमन्तरेणापि च विपक्षल्यासिबलाद्गमकत्वमित्युक्तमेव ॥१३॥
४५. अथ किमिदं वैशचं नाम ? । यदि स्वविषयग्रहणम् । तत् परोक्षेप्यषणम्। अथ । स्फुटत्वम् तदपि स्वसंविदितत्वात् सर्वविज्ञानानां सममित्यावस्क्याह
प्रमाणान्तरानपेक्षेदन्तया प्रतिभासो वा वैशयम् ॥१४॥ 5 ४६. प्रस्तुतात् प्रमाणाद् यदन्यत् प्रमाणं शब्दलिङ्गादिशानं तत् प्रमाणान्तरं तमिरपेक्षता 'वैशधम् । नहि शाब्दानुमानादिवत् प्रत्यक्षं स्थोत्पत्तौ शब्दलिङ्गादिशानं प्रमाणा
न्तरमपेक्षते इत्येकं वैशवलक्षणम् । लक्षणान्तरमपि 'इदन्तया प्रतिभासो वा' इति, 10 इदन्तया विशेषनिष्टतया यः प्रतिभासः सम्यगर्थनिर्णयस्य सोऽपि 'वैशधम्' । 'वा'शब्दोलक्षणान्तरत्वसूचनार्थः ॥१४॥
६४७. अथ मुख्यसांव्यवहारिकमेदेन द्वैविध्यं प्रत्यक्षस्य हदि निधाय मुख्यस्य लक्षणमाह
तत् सर्वथावरणविलये चेतनस्य स्वरूपाविर्भावो मुख्य केवलम् ॥१५॥ 15६४८. 'तत्' इति प्रत्यक्षपरामर्शार्थम्, अन्यथानन्तरमेव वैशयमभिसम्बध्येत । दीर्घ
कालनिरन्तरसंस्कागसेवितरसत्रयप्रकर्षपर्यन्ते एकत्ववितर्काविचारध्यानबलेन निःशेषतया ज्ञानावरणादीनां घासिकर्मणां प्रक्षये सति चेतनास्वभावस्यात्मनः प्रकाशस्वमावस्येति यावत् स्वरूपस्य प्रकाशस्वभावस्य सत एवावरणापगमेन 'आविभोवः' आविभूतं स्वरूप
मुखमिव शरीरस्य सर्वज्ञानानां प्रधानं 'मुख्यम्' प्रत्यक्षम् । तश्चेन्द्रियादिसाहायकविरहात् 20 सकलविषयत्वादसाधारणत्वाच 'कवलम्' इत्यागमे प्रसिद्धम् ।।
४९. प्रकाशस्वभावता कथमात्मनः सिद्धेति चेत्, एते बमः-आत्मा प्रकाशस्वभावः, असन्दिग्धस्वभावस्वात, यः प्रकाशस्वभावो न भवति नासावसन्दिग्धस्वमावो यथा घटः, न च तथात्मा, न खलु कश्चिदहमस्मि न वेति सन्दिग्धे इति नासिद्धो हेतुः । तथा,
आत्मा प्रकाशस्वभावः, बोदृस्वात, यः प्रकाशस्वभावो न भवति नासौ बोद्धा यथा घटा, 25 न च न बोद्धात्मेति । तथा, यो यस्याः क्रियायाः कर्चा न स तद्विषयो यथा गतिक्रियायाः कर्ता चैत्रो न तद्विषयः, ञप्तिक्रियायाः कर्ता चात्मेति ।
६५०. अथ प्रकाशस्वभावत्व आत्मनः कथमावरणम् ?, आवरणे वा सततावरणप्रसाः, नैवम् प्रकाशस्वभावस्यापि चन्द्राकोदेखि रजोनीहाराम्रपटलादिमिरिव शाना
१ --कुंक् कान्हे-गण-II 26, 27,28। उणादौ स्थानुसोरूम [१४५] इति षणमपराधः । २ शब्दानुढे । ३ प्रत्यक्षस्य परा-डे । ४ बहुमान । ५.झानावरणीयावीनाम्-है. !
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमाणमीमांसा |
११
मुख्यप्रत्यक्षस्य निरूपणम् । ] वरणीयादिकर्म्मभिरावरणस्य सम्भवात् चन्द्रार्कदेरिव च बलवमानमायैर्थ्यान भावनादिभिर्वियस्येति ।
६५१. ननु सादित्वं स्यादावरणस्योपायतो विलयः नैवम् ; अनादेरपि सुवर्णमलस्य क्षारमृत्पुटपाकादिना विलयोपलम्भात्, तद्वदेवानादेरपि ज्ञानावरणीयादिकर्मणः प्रतिपक्षभूतरतत्रयाभ्यासेन विलयोपपत्तेः ।
१५२. न चामूर्त्तस्यात्मनः कथमावरणमिति वाच्यम्: अमूर्ताया अपि चेतनाशकेमदिरामदनकोद्रवादिभिरावरणदर्शनात् ।
६५३. अथावरणीय तत्प्रतिपक्षाभ्यामात्मा विक्रियेत न वा १ । किं चातः १ । "तपाभ्यां किं व्योम्नधर्मण्यस्ति तयोः फलम् । चर्मोपमयेत् सोऽनित्यः खतुल्यवेदसत्फलः ॥ "
इति चेत्; न; अस्य दूषणस्य कूटस्थनित्यतापक्ष एव सम्भवात्, परिणामिनित्यश्रात्मेति तस्य पूर्वापरपर्यायोत्पादविनाशसहितानुष्टुतिरूपत्वात्, एकान्त नित्यक्षणिक पक्षयोः सर्व थार्थक्रियाविरहात् यदाह
"
"अर्थक्रिया न युज्येत नित्यक्षणिकपक्षयोः ।
क्रमाक्रमाभ्यां भावानां सा लक्षणतया मता ॥" [ लघी २.१ ]
०
15
"न तदागमात्सिध्येन च तेनागमो दिना ।"
इति ||१५||
५४. ननु प्रमाणाधीना प्रमेयव्यवस्था । न च मुख्यप्रत्यक्षस्य तद्वतो वा सिद्धौ किञ्चित् प्रमाणमस्ति । प्रत्यक्षं हि रूपादिविषयेविनियमितव्यापारं नातीन्द्रियेऽर्थे प्रवर्तितुमुत्सहते । नाप्यनुमानम्, प्रत्यक्षदृष्टलिङ्गलिङ्गिसम्बन्धबलो [पं] जननधर्मकत्वाचस्य । आगमस्तु यद्यतीन्द्रियज्ञानपूर्वकस्तत्साधकः तदेतरेतराश्रयैः
20
इति । अपौरुषेयस्तु तत्साधको नास्त्येव । योऽपि
[ श्लोकत्रा • सू० १ श्लो० १४२]
"अपाणिपादो हार्मनी ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्ण: । सवेशि विश्न हि तस्य वेसा तमाहुरध्यं पुरुषं महान्तम् ॥ "
[ श्वेताच ३.१९]
इत्यादिः कश्चिदर्थवादरूपोऽस्ति नासौ प्रमाणम् विधावेव प्रामाण्योपगमात् । प्रमाणान्तराणां चात्रानवसर एवेत्याशङ्कयाह
प्रज्ञातिशयविश्रान्त्यादिसिद्धेस्तत्सिद्धिः ॥ १६ ॥
१ चन्द्रादेविता । १ पवनप्राससा । ३ लियस्य चेति डे० मु० । शेपजनितभ० ० मु० । ७
,
5
४ - सहितानु
रूप० ई० । ५ विषय विनिर्मित डे० मु० ६
श्रयम्-ता । ८
- ० पादौ यम- -ता । ९ अत्र 'जवतो' इत्येव सम्यक् तस्यैव शङ्करेण व्याख्यातस्थात् । १० वेद्य-श्वेता ।
10
25
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
PadMAJ
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिता [अ० १, आ० १, सू० १६. ६५५. प्रशाया अतिशयः - तारतम्य क्वचिद्विश्रान्तम् , अतिशयत्वात् , परिमाणातिशयवदित्यनुमानेन निरतिशयप्रज्ञासिद्धथा तस्य केवलज्ञानस्य सिद्धिः, तसिद्धिरूपत्वात् केवलज्ञानसिद्धेः । 'आदि'ग्रहणात सूक्ष्मान्तरितरार्थाः कस्यचित् प्रत्यक्षाः प्रमेयत्वात् पारितातो, मोलिज्ञानाविवादास्यथानुपपत्तेा तत्सिद्धिः, यदाह
"धीरस्यन्तपरोक्षेऽर्थे न घेत् पुंसां कृतः पुनः । ज्योतिज्ञानाविसवादः श्रुताचेत् साधनान्तरम् ॥"
[सिद्धित्रि पू० ४१३AI ६५६. अपि च-"नोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्म व्यवहितं विमकृष्टमेवजातीयकमर्थमयगमयति नान्यत्किञ्चनेन्द्रियम्" - [ शाबर भा० १. १. २. ] 10 इति वदता भूताधर्थयरिज्ञानं कस्यचित् पुंसोऽभिमतमेव, अन्यथा कस्मै वेदखिकालविषय. मर्थं निवेदयेत् ? । स हि निवेदयंखिकालविषयतत्त्वज्ञमेवाधिकारिणमुपादत्ते, तदाह
__ "त्रिकालविषयं तत्वं कस्मै वेदो निवेदयेत् ।
अक्षय्याधरणकान्ताद तथा नरः॥"सिद्धिवि० पृ. ४१४A] इति त्रिकालविषयवस्तुनिवेदनाऽन्यथानुपपत्तेरतीन्द्रियकवलज्ञानसिद्धिः । 15६५७. किच, प्रत्यक्षानुमानसिद्धसंवादं शाखमेवातीन्द्रियार्थदर्शिसद्भावे प्रमाणम् । य एव हि शास्त्रस्य विषयः स्याद्वादः स एव प्रत्यक्षादेरपीति संवादः, तथाहि
"सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति ।
अन्यथा सर्वसत्वं स्यात् स्वरूपस्याप्यसम्भवः ॥" इति दिशा प्रमाणसिद्धं स्याद्वाद प्रतिपादयनागमोऽर्हतस्सर्वज्ञतामपि प्रतिपादयति, 20 यदस्तुम
"यदीयसम्यक्त्वपलात् प्रतीमो भवादृशानां परमात्मभाषम् । कुषासनापाशाविनाशनाय नमोऽस्तु तस्मै तव शासनाय ।"
[अयोग० २१] इति । प्रत्यक्षं तु यद्यप्यन्द्रियि(य)कं नातीन्द्रियज्ञानविषयं तथापि समाधियललब्धजन्मक 25 योगिप्रत्यक्षमेव बाह्यार्थस्येव स्वस्यापि वेदकमिति प्रत्यक्षतोऽपि तसिद्धिः। ६५८. अथ
"ज्ञानमतिधं यस्य वैराग्यं च जगत्पतेः ।
ऐश्वर्य चैव धर्मश्च सहसिद्धं चतुष्टयम् ॥” इति वचनात्सर्वज्ञत्वमीश्वरादीनामस्तु मानुषस्य तु कस्यचिद्विद्याचरणवतोपि तदसम्भाव30 नीयम् , यत्कुमारिल:--
"मथापि वेददेहस्वाद ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः। कामं भवन्तु सर्वज्ञाः सार्वश्यं मानुषस्य किम् ।।"
[ लवर्स का० ३३०८] १-जन्मायोगि० -हे. मुं० १ २ अप्रतिघातम् ।
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुख्यप्रत्यक्षस्य निरूपणम् । प्रमाणमीमांसा । इति ; आः ! सर्वज्ञापलापपासकिन् ! दुर्बदवादिन् । मानुषत्वनिन्दार्थवादापदेशेन देवाधिदेवानधिक्षिपसि १ । ये हि जन्मान्तराजितोजितपुण्यप्रारधाराः सुरभवभवमनुपमं मुखमनुभूय दुःखपङ्कमप्रमखिलं जीवलोकमुदिधीर्षवो नरकेष्वपि क्षणं क्षिप्रमुखासिकामृतघृष्टयो मनुष्यलोकमवतेरुः जन्मसमयसमकालचलितासनसकलसुरेन्द्रवन्दविहितजन्मोत्सवाः किकरायमाणसुरसमूहाहमहमिकारब्धसेवाविषयः स्वयमुपनतामतिप्राज्यसाम्राज्य- 5 श्रियं तृणवदवधूय समतृणमणिशत्रुमित्रवृत्तयो निजप्रभावप्रशमितेतिमरकादिजगदुपद्रयाः शुक्रध्यानानलनिर्दग्धधासिकर्माण आविर्भूतनिखिलभावाभावस्वभावावमासिकेवलवलदलितसकलजीवलोकमोहप्रसराः सुरासुरविनिर्मितां समवसरणभुवमधिष्ठाय स्वस्वभाषापरिगामिनीभिर्वाग्भिः प्रवर्तितधर्मतीर्थाश्चतुर्विंशतिशयमयीं तीर्थनाथत्वलक्ष्मीमुपभुज्य परं असा सततानन्दं सकलकर्मनिर्मोक्षमुपेयिवांसस्तान्मानुषत्वादिसाधारणधर्मोपदेशेनाप- 10 वदन् सुमेरुमपि लेप्दवादिना साधारणीकतुं पार्थिवत्वेनापबदेः । किञ्च, अनवरसवनिताङ्गसम्भोगदुर्ललितवृत्तीनां विविधहेतिसमूहधारिणामक्षमालाद्यायसमनःसंयमानां रागद्वेषमोहकलुषितानां ब्रह्मादीनां सर्ववित्त्वसाम्राज्यम् !, यदवदाम स्तुती__ "मदेन मानेन मनोभवेन क्रोधेन लोभेर्ने ससम्मदेन । पराजितानां प्रसभं सुराणां वृथैव साम्राज्यरजा परेषाम् ॥" 15
[अयोग- ३५] १ अतिरिनाषिकाः शलभाः शुकाः
खचक्र परचाई, च सगता हैतयः स्मृताः ॥ ..मु.दि. २ गरको मारिः। ३ अतिशयाः ३४..
"सेषां च देहो तरूपगन्धो निरामयः स्वेदलवोज्झितत्र । श्वासोऽजगन्धो रुधिरामिषं तु मोक्षीरधाराधवल विनम् ॥१॥ आहारनीहारविधिस्त्वदृश्यश्चत्वार एतेऽतिभायाः सहोत्याः । क्षेत्रे स्थितियोजनमात्रकेऽपि देवतिर्यजनकोटिकोटेः ॥२॥ वाणी नृतिकसुरलोकभाषा संवादिनी योजनगामिनीच भामण्डलं चार च मौलिपृष्ठे बिम्बिताहर्पतिमण्डलधि ॥३॥ सामे च गव्यूतिशतदये रुजा वैरेतयो मायतिवृष्टयवृष्टयः । दुर्भिक्षमन्यस्तकचकतो भयं स्यात एकादश कर्मघातजाः ॥४॥ थे धर्मचई बमराः सपादपीठं मृगेन्द्रासनभुज्यलं च । छत्रत्रय रसमयथ्याजोऽभिधन्यासे च' चामीकरपङ्कजानि ॥५॥ अनय चार चतुर्मुखाता चैत्यदनोऽधोवदनाश्च कण्टकाः । हमानतिर्दुन्दुमिनाद उच्चकैर्वातानुकूलः शकुनाः प्रदक्षिणाः ॥६॥ गन्धाम्दुवर्ष बटुवर्णपुष्पवृष्टिः कचश्मश्रुनलाप्रवृद्धिः।। चतुर्थिधामायनिकायकोटि धन्यभावादापि पावती ॥ झाल्नागिन्धिवाधान मनुका नित्यगा।
निशिनियाभनुप्रियाय लियाः ॥॥" । शिया, १. ..... .." ४ सेन यम्म.इ.५
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४
आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचिता [अ० १, आ० १ सू० १७-१९.
इति । अथापि रागादिदोषकालुष्यविरहिताः सततज्ञानानन्दमयमूर्तयो ब्रह्मादयः तर्हि तादृशेषु तेषु न विप्रतिपद्यामहे, अवोचाम हि
"यत्र तत्र समये यथा तथा योऽसि सोऽस्यभिषया यया तया । वीतदोष कलुषः स चेद्भवानेक एव भगवन्नमोऽस्तु ते ॥"
[ अयोग-३१]
5
इति । केवलं ब्रह्मादिदेवताविषयाणां श्रुतिस्मृतिपुराणेतिहासकथानां वैतथ्यमासज्येत । तदेवं साधकेभ्यः प्रमाणेभ्योऽतीन्द्रियज्ञानसिद्धिरुक्ता ॥ १६ ॥
बाधकाभावाच ॥१७॥
५९. सुनिश्चितासम्भवाधकत्वात् सुखादिवत् तत्सिद्धिः इति सम्बध्यते । तथाहि 10 केवलज्ञानबाधकं भवत् प्रत्यक्षं वा भवेत् प्रमाणान्तरं वा १ । न तावत् प्रत्यक्षम् तस्य faridaाधिकारात्
"सम्बद्धं वर्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिना ।" [ श्लोकवा ० सू० ४, श्लो. ८४ ] सेवगणात् ।
६०. अथ न प्रवर्तमानं प्रत्यक्षं तद्भावकं किन्तु निवर्तमानम् तत् ; हिं ( द्विग्यदि 15 नियत देशकालविषयत्वेन बाधकं तर्हि सम्प्रतिपद्यामहे । अथ सकलदेशकालविषयत्वेन; तर्हि न तत् सकलदेशकालपुरुष परिषत्साक्षात्कारमन्तरेण सम्भवतीति सिद्धं नः सभीहितम् । न च जैमिनिरल्यो वा सकलदेशादिसाक्षात्कारी सम्भवति सम्वपुरुषत्वादेः रथ्यापुरुषवत् । अथ प्रज्ञायाः सातिशयत्वात्तत्प्रकर्षोऽप्यनुमीयते तर्हि तत एव सकलार्थदर्शी किं नानुमीयते ? | स्वपक्षे चानुपलम्भमप्रमाणयन् सर्वज्ञाभावे कुतः प्रमाणवेद20 विशेषात् ? ।
६६१. न चानुमानं तद्भावकं सम्भवतिः धर्मिग्रहणमन्तरेणानुमानाप्रवृत्तेः, धम्मग्रहणं वा तद्ग्राहक प्रमाणवाधितत्वादनुत्थानमेवानुमानस्य । अथ विवादाध्यासितः पुरुषः सर्वो न भवति वक्तृत्वात् पुरुषत्वाद्वा रथ्यापुरुषवदित्यनुमानं तद्वाधकं भूये; तदसत् यतो यदि प्रमाणपरिदृष्टार्थवक्तृत्वं हेतुः तदा विरुद्धः तादृशस्य वक्तृत्वस्य सर्वश एव 25 भावात् । अथासद्भूतार्थं कृत्वम् तदा सिद्धसाध्यता, प्रमाणविरुद्धार्थवादिनामसर्वज्ञत्वेनेष्टस्वात् । वक्तृत्वमात्रं तु सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादनैकान्तिकम् ज्ञानप्रकर्षे वत्वाकर्षादर्शनात् प्रत्युत ज्ञानातिशयवतो वकृत्वातिशयस्यैवोपलब्धेः । एतेन पुरुषत्वमपि निरस्तम् । पुरुषत्वं हि यदि रागाद्यदूषितं तदा विरुद्धम्, ज्ञानवैराग्यादिगुणयुक्त पुरुषत्वस्य सर्वज्ञतामन्तरेणानुपपत्तेः । रागादिदूषिते तु पुरुषत्वे सिद्धसाध्यता । पुरुषत्वसामान्यं तु 30 सन्दिग्धविपक्षव्यावृतिकमित्यबाधकम् ।
१ प्रभाग २ निवर्तमानम् । ( तद्धि ) यदि मु० । ३० साक्षात्करणम ०-० ।
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
waministennisRATAR
HEERA
L EEnitionymote.
मुख्यप्रत्यक्षस्य निरूपणम् । ] प्रमाणमीमांसा ।
६६२. नाप्यागमस्तद्वाधकः तस्यापौरुषेयस्यासम्भवात; सम्भवे वा तदायकस्य तस्यादर्शनात् । सर्वज्ञोपनवागमः कथं सवाधकः १, इत्यलमतिप्रसङ्गेनेति ॥ १७ ॥ ६६३. न केवलं केवलमेव मुख्य प्रत्यक्षमपि त्वन्यदपीत्याह
तत्तारतम्येऽवधिमनःपर्यायो चे ॥१८॥ ६६४. सर्वथावरणविलये केवलम् , तस्यावरणविलयस्य 'तारतम्ये आवरणश्यो- 5 पसमविशेष तत्रिमितकः 'अवधि:' अवधिज्ञानं 'मनःपर्याय: मनःपर्यायज्ञानं च मुख्यमिन्द्रियानपेक्षं प्रत्यक्षम् । तत्रावधीयत इति 'अवधि:' मर्यादा सा च "रूपिसव!" [तस्याः १.२८ ] इति वचनात् रूपवद्राव्यविषया अवध्युपलचितं ज्ञानमध्यवधिः। स द्वेषा भवप्रत्ययो गुणप्रत्ययश्च । तत्राधो देवनारकाणां पक्षिणामिव वियागमनम् । गुणप्रत्ययो मनुष्याणां तिरश्वा च ।
६६५, मनसोपपस्य पर्यावाश्विसनानुगुमा परिणामशास्तद्विषयं ज्ञानं 'मन:पर्यायः । तथाविधमनःपर्यायान्यथानुपपच्या तु यहापचिन्तनीयार्थज्ञानं तत् आनुमानिकमेव न मनःपर्यायप्रत्यक्षम्, यदायुः--
"जाणइ बज्झेणुमाणेणं" [विशेषा. गा० ८५४ ] इति । ११८॥ ६६६, ननु रूपिद्रव्यविषयत्वे क्षायोपशमिकत्वे च तुल्ये को विशेषोऽवधिमन:- 15 पर्याययोरित्याह
विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयभेदात् तद्भेदः ॥१९॥ ६.६७. सत्यपि कश्चित्साधम् विशुद्धयादिमेदादवधिमनापर्यायशानयोर्मेदः । तत्रावधिज्ञानान्मनःपर्यायज्ञान विशुद्धतरम् । यानि हि मनोद्रव्याणि अवधिज्ञानी जानीते तानि मनःपर्यायज्ञानी विशुद्धतराणि जानीते ।
20 ६८. क्षेत्रकृतश्चानयोर्मेदः-अवधिज्ञानमङ्गुलस्यासयभागादिषु भवति आ सर्वलोकात् , मनःपर्यायज्ञानं तु मनुष्यक्षेत्र एव भवति ।
६६९. स्वाभिकृतोऽपि-अवधिज्ञानं संयतस्यासंयतस्य संपतासंयतस्य च सर्वगतिषु भवतिः मनःपर्यायज्ञानं तु मनुष्यसंयतस्य प्रकृष्टचारित्रस्य प्रमसादिषु क्षीणकपायान्तेषु गुणस्थानकेषु भवति । तत्रापि वर्धमानपरिणामस्य नेतरस्य । वर्धमानपरिणामस्यापि 25 ऋद्धिप्राप्तस्य नेतरस्य । ऋद्धिप्राप्तस्यापि कस्यचिम सर्वस्येति ।
७०. विषयकृतश्व-रूपवद्रव्येष्वसर्वपर्यायेध्ववधेविषयनिधन्धस्तदनन्तभोगे मनःपर्यायस्य इति । अवसितं मुख्य प्रत्यक्षम् ॥१९॥
...................
........................ *".*०*०*"
.
१ उपमा शानमा स्यात्-अमि० ६. १-सम्पा.। २ अष्टादशं एकोनविंशतितम चेति सूत्रद्वयं ता मुक प्रती भेदकमि विना एकसुत्रस्न लिखिते दृश्यते। क्षेत्रतर-ता- मनोलक्षणे ।
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचिता [अ० १ ० १ सू० २०-२१. ६७१. अथ सांव्यवहारिकमाह
इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवग्रहेहावायधारणात्मा सांव्यवहारिकम् ॥ २० ॥
३७२. इन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि वक्ष्यमागलक्षणामि, मनन करणं पस्य तथा । सामान्यलक्षणानुवृत्तेः सम्यगर्थनिर्णयस्येदं विशेषणं तेन 'इन्द्रियमनोनिमित्तः ' 5 सम्यगर्थनिर्णयः । कारणमुक्त्वा स्वरूपमाह - 'अवग्रहेावायधारणात्मा' । अवग्रहादयो चक्ष्यमाणलक्षणाः त आत्मा यस्य सोऽवग्रहेहावायधारणात्मा । 'आत्म' ग्रहणं च क्रमेणोत्पद्यमानानामप्यवग्रहादीनां नात्यन्तिको मेदः किन्तु पूर्वपूर्वस्योत्तरोत्तररूपतया परिणामादेकात्मकत्वमिति प्रदर्शनार्थम् । समीचीनः प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपो व्यवहारः संव्यवहारस्तत्प्रयोजनं 'सांव्यवहारिकम् ' प्रत्यक्षम् । इन्द्रियमनोनिमित्तत्वं च समस्तं व्यस्तं व 10 बोद्धव्यम् । इन्द्रियप्राधान्यात् मनोबलाधानाश्चोत्पद्यमान इन्द्रियजः । मनस एव विशुद्धिसव्यपेक्षादुपजायमानो मनोनिमित्त इति ।
皇家
१७३. ननु स्वसंवेदनरूपमन्यदपि प्रत्यक्षमस्ति तत् कस्मानोक्तम् ? इति न वाच्यम् ; इन्द्रियैज्जज्ञानस्वसंवेदनस्येन्द्रियप्रत्यक्षे, अनिन्द्रियजसुखादिसंवेदनस्य मनःप्रत्यक्षे, योगिप्रत्यक्षस्वसंवेदनस्य योगिप्रत्यक्षेऽन्तर्भावात् । स्मृत्यादिस्वसंवेदनं तु मान16 समेवेति नापरं स्वसंवेदनं नाम प्रत्यक्षमस्तीति भेदेनं नोक्तम् ||२०||
७४. इन्द्रियेत्युक्तमितीन्द्रियाणि लक्षयति
स्पर्शरसगन्धरूपशब्दग्रहणलक्षणानि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणीन्द्रियाणि द्रव्यभावभेदनि ॥ २१ ॥
६७५. स्पर्शादिग्रहणं लक्षणं येषां तानि यथासङ्ख्यं स्पर्शनादीनीन्द्रियाणि, तथाहि 20 स्पर्शाद्युपलब्धिः करणपूर्वा क्रियात्वात् छिदिक्रियावत् । तत्रेन्द्रेण कर्मणा सृष्टानीन्द्रियाणि नामकर्मोदयनिमित्तत्वात् । इन्द्रस्यात्मनो लिङ्गानि वा कर्ममलीमसस्य हि स्वयमर्थानुपलब्धुमसमर्थस्यात्मनोऽथपलब्धौ निमित्तानि इन्द्रियाणि ।
६७६ नम्वेवमात्मनोऽर्थज्ञानमिन्द्रियात् लिङ्गादुपजायमानमानुमानिकं स्यात् । तथा लिङ्गापरिज्ञानेऽनुमानानुदयात् । तस्यानुमानात्परिज्ञानेऽनवस्थाप्रसङ्गः नैवम् ; भावे25 न्द्रियस्य स्वसंविदितत्वेनानवस्थानवकाशात् । यद्वा, इन्द्रस्यात्मनो लिङ्गान्यात्मगमकानि इन्द्रियाणि करणस्य वास्यादिवत्कर्त्रधिष्ठितत्वदर्शनात् ।
६७७, तानि च द्रव्यभावरूपेण भिद्यन्ते । तत्र द्रव्येन्द्रियाणि नामकर्मोदयनिमि
१ इन्द्रिया ०ता० । २ सुखादिख० मु० 1 ३ भेदेनोकम् - डे० मु० 1 इत्यन्तमेकं 'भेदानि' इत्यन्तं च अपरम् इति सूत्र -मू-प्रती दृश्यते ।
-
४ 'इन्द्रियाणि
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
सांव्यवहारिक प्रत्यक्षम् j
प्रभाण्लीमांसा
१७
लानि, भावेन्द्रियाणि पुनस्तदावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमनिमित्तानि । सैषा पश्चसूत्री स्पर्शग्रहणलक्षणं स्पर्शनेन्द्रियं रसग्रहणलक्षणं रसनेन्द्रियमित्यादि । सकलसंसारिषु भाषाच्छरीरव्यापकत्वाच स्पर्शनस्य पूर्व निर्देशः, ततः क्रमेणाल्पाल्पजीवविषयत्वाद्रसनप्राणचक्षुः श्रोत्राणाम् ।
७८. तत्र स्पर्शनेन्द्रियं तदावरणक्षयोपशमसम्भवं पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतीनां 5 शेषेन्द्रियावरणवतां स्थावराणां जीवानाम् । तेषां च "ढी चितमन्तमक्खाचा" [ दशवै० ४.१ ] इत्यादेराप्तागमात्सिद्धिः । अनुमानाच - ज्ञानं कचिदात्माने परमापकर्षवत् अवकृष्यमाणविशेषत्वात् परिमाणवत्, यत्र तदपकर्षपर्यन्तस्त एकेन्द्रियाः स्थावराः । न च स्पर्शनेन्द्रियस्याप्यभावे भस्मादिषु ज्ञानस्यापकर्षो युक्तः । तत्र हि ज्ञानस्याभाव एव न पुनरपकर्षस्ततो यथा गगनपरिमाणादारभ्यापकृष्यमाणविशेषं परिमाणं परमाणौ 10 terest तथा ज्ञानमपि केवलज्ञानादारभ्यापकृष्यमाणविशेषमेकेन्द्रियेष्वत्यन्तमपकृष्पते । पृथिव्यादीनां च प्रत्येकं जीवत्वसिद्धिर वक्ष्यते । स्पर्शनरसनेन्द्रिये कृमिअपादिका - नूपुरक- गण्डूपद- शङ्ख- शुक्तिका शम्बूका जलुकाप्रभृतीनां त्रसानाम् । स्पर्शनरसन-प्राणामि पिपीलका- रोहणिका-उपचिका कुन्थु-तुबरंक-त्रपुंस-बीजें - कर्पासास्थिका शतपदी अनक-तृणपत्र काष्ठहारकादीनाम् । स्पर्शन-रसन-प्राण-चक्षूंषि भ्रमर वढेर-सार- 15 मक्षिका पुचि की- देश-मशक-पृथिक-नन्द्यावर्त्त-कीटक-पतनादीनाम् । सह श्रोत्रेण तानि मत्स्य- उरग-भुजग-पक्षि-चतुष्पदानां तिर्यग्योनिजानां सर्वेषां च नारक मनुष्यदेवानामिति ।
६७९. ननु वचनादानविहरणोत्सर्गानन्दहेतवो वाक्पाणिपादपायूपस्थलक्षणान्यपीन्द्रियाणीति साङ्ख्यास्तत्कथं पञ्चैवेन्द्रियाणि १ ; न ज्ञानविशेषहेतूनामेवेहेन्द्रियत्वेनाधिकृतत्वात् चेष्टाविशेषनिमित्तत्वेनेन्द्रियत्व कल्पनायामिन्द्रियानन्त्यप्रसङ्गः, चेष्टावि - 20 शेषाणामनन्तत्वात् तस्माज्यक्तिनिर्देशात् पश्चैवेन्द्रियाणि ।
t
7
९८०, तेषां च परस्परं स्यादभेदो द्रव्यार्थादेशात् स्याद्भेदः पर्यायार्यादेशात्, अभेदेकान्ते हि स्पर्शनेन स्पर्शस्येव रसादेरपि ग्रहणप्रसङ्गः । तथाचेन्द्रियान्तरकल्पना वैयर्थ्यम्, कस्यचित् साकल्ये वैकल्ये वान्येषां साकल्यवैकल्यप्रसङ्गव । भेदैकान्तेऽपि तेषामेकंत्र सकल (सङ्कलन ) ज्ञानजनकत्वाभावप्रसङ्गः सन्तानान्तरेन्द्रियवत् । मनस्तस्य जनक- 25 मिति चेत्; नः तस्येन्द्रियनिरपेक्षस्य तज्ञ्जनकत्वाभावात् । इन्द्रियापेक्षं मनोऽनुसन्धानस्य जनकमिति चेत् सन्तानान्तरेन्द्रियापेक्षस्य कुतो न जनकत्वमिति वाच्यम् ? । प्रत्यासत्तेरभावादिति चेत् अत्र का प्रत्यासत्तिरन्यत्रैकद्रव्यतादात्म्यात् १, प्रत्यासत्यन्तरस्यै च
१ रोहिणिकापेचिका । २ तुचरका - ता० । तुंबुरक मु०। ३ त्रिपुरा - ० । ४ बीजककर्पा •ता० । ५ वठर-डे० । ६ पुस्तित्रिका - ० । पुस्तिका मु० । ७ हेतुनि वाक्ये ० । ८ ० हेतूनामेवेन्द्र सा० । ९० श्रभेदात्-४० । १० " तेषामेकवलज्ञानजनकत्वाभावप्रसङ्गात् " तस्वार्थ श्रीकवा० पृ० ३२७ । ११ स्य ध्यता- 1
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचिता [अ० १ ० १ सू०२२-२५.
व्यभिचारादिति । एतेन तेषामात्मना भेदाभेदैकान्तौ प्रविव्यूढौ । आत्मना करणानामभेदेकान्ते कर्तृत्वप्रसङ्गः, आत्मनो वा करणत्वप्रसङ्गः उभयोरुभयात्मकत्वप्रसङ्गो वा विशेषाभावात् । ततस्तेषां भेदैकान्ते चात्मनः करणत्वाभावः सन्तानान्तरकरणवद्विपर्ययो aa प्रतीतिसिद्धत्वाद्वाधकाभावाचानेकान्त एवाश्रयणीयः ।
5
८१. द्रव्येन्द्रियाणामपि परस्परं स्वारम्भक दलद्रव्येम्यश्च भेदाभेदद्वाराने कान्स एव युक्तः, पुद्गलद्रव्यार्थादेशादभेदस्य पर्यायार्यादेशाच्च भेदस्योपपद्यमानत्वात् ।
20
१८
६८२ एवमिन्द्रियविषयाणां स्पर्शादीनामपि द्रव्यपर्यायरूपतया भेदाभेदात्मकत्व - सेयम्, तथैव निर्बाधमुपलब्धेः । तथा च न द्रव्यमात्र पर्यायमात्रं वेन्द्रियविषय इति स्पर्शादीनां कर्मसाधनत्वं भावसाधनत्वं च द्रष्टव्यम् ॥ २१ ॥
10 ६८३. 'द्रव्यभावभेदानि' इत्युक्तं तानि क्रमेण लक्षयतिद्रव्येन्द्रियं नियताकाराः पुद्गलः ॥ २२॥
६८४. 'द्रव्येन्द्रियम्' इत्येकवचनं जात्याश्रयणात् । नियतो विशिष्टो बाह्य आभ्यन्तरवाकारः संस्थानविशेषो येषां ते 'नियताकाराः ' पूरणगलनधर्माण: स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः 'पुद्गलाः', तथाहि श्रोत्रादिषु यः कर्णशष्कुलीप्रभृतिर्बाह्यः पुद्गलानां प्रचयो यथाभ्यन्तरः 15 कदम्बगोलकाद्याकारः स सर्वो द्रव्येन्द्रियम्, पुद्गलद्रव्यरूपत्वात् । अप्राधान्ये वा द्रव्यशब्दो यथा अङ्गारमईको द्रव्याचार्य इति । अप्रधानमिन्द्रियं द्रव्येन्द्रियम्, व्यापारवत्यपि तस्मिन् सन्निहितेऽपि चालोकप्रभृतिनि सहकारिपटले भावेन्द्रियं विना स्पर्शाधुपलब्ध्यसिद्धेः ||२२||
25
भावेन्द्रियं लब्ध्युपयोगो ॥२३॥
६८५. लम्भनं 'लब्धि:' ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमविशेषः । यत्सन्निधानादात्मा द्रव्ये - न्द्रियनिर्वृतिं प्रति व्याप्रियते तनिमित्त आत्मनः परिणामविशेष उपयोगः । अत्रापि 'भावेन्द्रियम्' इत्येकवचनं जात्याश्रयणात् । भावशब्दोऽनुपसर्जनार्थः । यथैवेन्दन धर्मयोगित्वेनानुपचरितेन्द्रत्वो भावेन्द्र उच्यते तथैवेन्द्रलिङ्गत्वादिधर्मयोगेनानुपचरितेन्द्रलिङ्गत्वादिधर्मयोग 'भावेन्द्रियम्' |
६८६. तत्र four तावदिन्द्रियं स्वार्थसंवित्तावात्मनो योग्यतामादधद्भावेन्द्रियतां प्रतिपद्यते । नहि तत्रायोग्यस्य तदुत्पत्तिराकाशवदुपपद्यते स्वार्थसंविद्योग्यतैव च लब्धिरिति । उपयोगस्वभावं पुनः स्वार्थसंविदि व्यापारात्मकम् । नाव्यामृतं स्पर्शनादिसंवेदनं स्पर्शादि प्रकाशयितुं शक्तम्, सुषुप्तादीनामपि तत्प्रकाशकत्वप्राप्तेः ।
१ द्वाविंशतितमं त्रयोविंशतितमं च great तान्मू० प्रतौ दृश्यते । २ -०लब्ध्ययोग्यतया सिद्धैःसा० ॥ ३धानाद्वामा ४० । धानाश्रयात्मा मु० । ४ प्राधान्यार्थः । ५ स्पर्शादि - ता० ।
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
AXMiDasical-trentistics
DiginYA
सांव्यवहारिकप्रत्यक्षम् । ] प्रमाणमीमांसा
६८७. स्वार्थप्रकाशने व्यापृतस्य संवेदनस्योपयोगत्वे फलस्वादिन्द्रियत्वानुपपत्तिरिति चेत् । न; कारणधर्मस्य कार्येऽनुवृत्तेः । नहि पावकस्य प्रकाशकत्वे तत्कार्यस्य प्रदीपस्य प्रकाशकत्वं विरुध्यते । न च येनैव स्वभावेनोपयोगस्येन्द्रियत्वम् , तेनैव फलत्वमिप्यते येन विरोधः स्यात् । साधकतमस्वभावेन हि तस्येन्द्रियत्वं क्रियारूपतया च फलत्वम् । यथैव हि प्रदीपः प्रकाशात्मना प्रकाशयतीत्यत्र साधकतमः प्रकाशात्मा करणम् , 5 क्रियात्मा फलम्, स्वतन्त्रत्वाच्च कर्तेति सर्वमिदमनेकान्तवादे न दुर्लभमित्यल प्रसङ्गेना।२३।। ६.८८. 'मनोनिमित्तः' इत्युक्तमिति मनो लक्षयति
सर्वार्थग्रहणं मनः ॥२४॥ ६८९. सर्वे न तु स्पर्शनादीनां स्पर्शादिवत् प्रतिनियता एवार्था गृह्यन्तेऽनेनेति 'सर्वार्थग्रहणं मनः' 'अनिन्द्रियम्' इति 'नोइन्द्रियम्' इति चोच्यते । सर्वार्थ मन 10 इत्युच्यमाने आत्मन्यपि प्रसङ्ग इति करणत्वप्रतिपादनाथं 'ग्रहणम्' इत्युक्तम् । आत्मा तु कति नातिब्याप्तिः, सर्वार्थग्रहणं च मनसः प्रसिद्धमेव । यत् वाचकमुख्यः "श्रुतमनिन्द्रियस्य ।" [तत्वा० २,२२ ] श्रुतमिति हि विषयिणा विषयस्य निर्देशः । उपलक्षणं च श्रुतं मतेः तेन मतिश्रुतयोर्यो विषयः स मनसो विषय इत्यर्थः । "मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु" [ तत्त्वा० ५.२७ ] इति वाचकवचनान्मतिश्रुतज्ञानयोः सर्वविषयत्व 15 मिति मनसोऽपि सर्वविषयत्व सिद्धम् ।
६९०. मनोऽपि पैञ्चेन्द्रियवद् द्रव्यभावमेदात् द्विविधमेव। तत्र द्रव्यमनो मनस्त्वेन परिणतानि पुद्गलद्रव्याणि । भावमनस्तु तदावरणीयकर्मक्षयोपशमात्मा लब्धिरात्मनश्वार्थग्रहणोन्मुखो व्यापारविशेष इति ॥२४॥
६९१. नन्वत्यल्पमिदमुच्यते 'इन्द्रियमनोनिमित्तः' इति । अन्यदपि हि चक्षुज्ञानस्य 20 निमित्तमर्थ आलोकवास्ति, यदाहुः
"रूपालोकमनस्कारचतुर्यः सम्प्रैजायते ।
विज्ञानं मणिसूर्याशुगोशकृदुभ्य इवानलः ॥" इत्यत्राह
नार्थालोको ज्ञानस्य निमित्तमव्यतिरेकात् ॥२५॥ ६९२. बाह्यो विषयः प्रकाशश्च न चक्षुर्ज्ञानस्य साक्षात्कारणम् , देशकालादिवतु व्यवहितकारणत्वं न निवार्यते, ज्ञानावरणादिक्षयोपशमसामयामारादुपकारित्वेनासनादिवश्चक्षुरुपकारित्वेन चाभ्युपगमात् । कुतः पुनः साक्षात्र कारणत्वमित्याह-'अच्यतिरेकात् व्यतिरेकाभावात् । न हि तद्भावे भावलक्षणोऽन्वय एव हेतुफलभावनिश्चयानिमित्तम ,
१ निबन्धः सर्वद्रव्ये - तत्वा० । २ मनोपि चेन्द्रि-दे० । ३ संप्रवर्तते ।
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीहेमचन्द्रधिरचिता [ अ०१, आ० १, सू०१५-२८. अपि तु तदभावेऽभावलक्षणो व्यतिरेकोऽपि । न चासावर्थालोकयोर्हेतुमावेस्ति; मरुमरीचिकादौ जलाभावेऽपि जलज्ञानस्य, वृषदंशादीनां चालोकाभावेऽपि सान्द्रतमतमःपटलविलिप्तदेशगतवस्तुप्रतिपत्तेश्च दर्शनात् । योगिनां चातीतानागतार्थग्रहणे किमर्थस्य निमित्तलम् । निमित्तत्वे चाथक्रियाकारित्वेन सस्वादतीतानागतत्वक्षतिः।
९३. न च प्रकाश्यादात्मलाभ एव प्रकाशकस्य प्रकाशकत्वम् , प्रदीपादेर्घटादिभ्यो ऽनुत्पन्नस्यापि तत्प्रकाशकत्वदर्शनात् | ईश्वरज्ञानस्य च नित्यत्वेनाभ्युपगतस्य कथमर्थजन्यत्वं नाम ? | अस्मदा दीनामपि जनकस्यैव ग्रामस्वाभ्युपगमे स्मृतिप्रत्यभिज्ञानादेः प्रमाणस्याप्रामाण्यप्रसङ्गः । येषां चैकान्तक्षणिकोऽर्थो जनका प्राय इति दर्शनम् तेषामपि
जन्यजनकयोज्ञानाथेयोभित्रकालत्वान ग्रामपाइकभावः सम्भवति । अथ न जन्यजनक10 भावातिरिक्तः सन्दंशायोगोलकवत् ज्ञानार्थयोः कश्चिद् ग्राह्यग्राहकभाव इति मतम् ,
"भिन्नकालं कथं प्राथमिति चेद् ग्राह्यतां विदुः ।
हेतुत्वमेव युक्तिज्ञा ज्ञानाकारार्पणक्षमम्" [प्रमाणथा० ३. २४७ इति वचनात् । तहिं सर्वत्रज्ञानस्य वार्तमानिकार्थविषयत्वं न कथञ्चिदुपपद्यते वार्तमानिक
क्षणस्याजनकत्वात् अजनकस्य चाग्रहणात् । स्वसंवेदनस्य च स्वरूपाजन्यत्वे कथं ग्राहकत्वं 16 स्वरूपस्य वा कथं ग्रायत्त्वमिति चिन्त्यम् । तस्मात् स्वस्वसामग्रीप्रभवयोर्दीषप्रकाशघटयोरिव ज्ञानार्थयोः प्रकाश्यप्रकाशकभावसम्मवान ज्ञाननिमित्तत्वमर्थालोकयोरिति स्थितम् ।
६९४. नन्वर्थाजन्यत्वे शानस्य कथं प्रतिकर्मव्यवस्था ?, तदुत्पत्तितदाकारताभ्यां हि सोपपद्यते, तस्मादनुत्पन्नस्यातदाकारस्य च ज्ञानस्य सर्वार्थान् प्रत्यविशेषात् । नैवम् ।
तदुत्पत्तिमन्तरेणाप्यावरणक्षयोपशमलक्षणया योग्यतयैव प्रतिनियतार्थप्रकाशकत्वोपपञ्चेः। 20 तदुत्पत्तावपि च योग्यतावश्याश्रयणीया, अन्यथाऽशेषार्थसान्निध्येऽपि कुतथिदेवार्थात् क
स्यचिदेव ज्ञानस्य जन्मेति कौतस्कृतोऽयं विभागः । तदाकारता त्वाकारसङ्कान्त्या ताबदनुपपन्ना, अर्थस्य निराकारत्वप्रसङ्गात् । अथेन च मूर्तेनामूर्तस्प ज्ञानस्य कीदृशं सारश्यमित्यर्थविशेषग्रहणपरिणाम एव साम्युपेया । अंत:--
___ "अन घटयत्नां नहि मुक्त्वाऽर्थरूपताम्" [प्रमाण वा० ३.३०५ ] 25 इति यत्किञ्चिदेतत।
६९५. अपि च व्यस्ते समस्ते वैते ग्रहणकारणं स्याताम् । यदि व्यस्ते; तदा कपालाद्यक्षणो घटान्त्यक्षणस्य, जलचन्द्रो वा नमश्चन्द्रस्य ग्राहक प्राप्नोति, तदुत्पत्तेस्तदाकारत्वाच्च । अथ समस्ते; तर्हि घटोत्तरक्षणः पूर्वघटक्षणस्य ग्राहकः प्रसजति ! ज्ञानरूपत्वे
सत्येते ग्रहणकारणमिति चेत् तर्हि समानजातीयज्ञानस्य समनन्तरपूर्वज्ञानग्राहकत्वं प्रस30 ज्येत । सन योग्यतामन्तरेणान्यद् ग्रहणकारणं पश्यामः॥ २५॥
१ विलुस १२ किमर्थनिमि. सा. । ३ प्रकाः दात्म-ता । ४ प्राधत इति-१० । ५ साक्षा-डे ।
तहमा स्वसाम-द्धे०।७-प्रभवयोः प्रका-डे। 4-णामस एवाभ्यु-ता०18-
या ततः-हे।
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
सांव्यवहारिकप्रत्यक्षम् । प्रमाणमीमांसा। ६ ९६. 'अवग्रहहावायधारमात्मा' इत्युक्तीमत्ववाहादीलक्षयति
अक्षार्थयोगे दर्शनानन्तरमर्थग्रहणमवग्रहः ॥ २६ ॥ $ ९७. 'अक्षम्' इन्द्रियं द्रव्यभावरूपम्, 'अर्थः' द्रव्यपर्यायात्मा तयोः 'योगः सम्बन्धोऽनतिदूरासनव्यवहितदेशाद्यवस्थानलक्षणा योग्यता । नियता हि सा विषयविषपिणोः, यदाह,
"पुढे सुणेइ सई रूवं पुण पासए अपुढं तु ॥” [ आव• नि० ५ ] इत्यादि । तस्मिनक्षार्थयोगे सति 'दर्शनम्' अनुलिखितविशेषस्य वस्तुनः प्रतिपत्तिः । तदनन्तरमिति क्रमप्रतिपादनार्थमेतत् । एतेन दर्शनस्यावग्रहं प्रति परिणामितोक्ता, नबसत एव सर्वथा कस्यचिदुत्पादः, सतो वा सर्वथा विनाश इति दर्शनमेवोत्तरं परिणाम प्रतिपद्यते । 'अर्थस्य' द्रव्यपर्यायात्मनोऽर्थक्रियाक्षमस्य 'ग्रहणम्', 'सम्यगनिर्णयः' इति 10 सामान्यलक्षणानुवृत्तेनिर्णयो न पुनरविकल्पकं दर्शनमात्रम् 'अवग्रहः ।
६९८. न चायं मानसो विकल्पः, चक्षुरादिसन्निधानापेक्षत्वात् प्रतिसङ्ग्यानेनाप्रत्याख्येयत्वाच । मानसो हि विकल्पः प्रतिसङ्ख्यानेन निरुध्यते, न चायं तथेति न विकल्पः ।। २६ ॥
अवगृहीतविशेषाकाङ्क्षणमीहा ॥ २७ ॥ १९९. अवग्रहगृहीतस्य शब्दादेरर्थस्य 'किमयं शब्दः साङ्खः शाङ्गो वा' इति संशये सति 'माधुर्यादयः शाङ्खधर्मा एवोपलभ्यन्ते न कार्कश्यादयः शार्ङ्गधर्माः' इत्यन्वयव्यतिरेकरूपविशेषपर्यालोचनरूपा मतेश्चेष्टा 'इहा' । इह चावग्रहहयोरन्तराले अभ्यस्तेऽपि विषये संशयज्ञानमस्त्येव आशुभावातु नोपलक्ष्यते । न तु प्रमाणम्, सम्यगर्थनिर्णयात्मक स्वाभावात् ।
20 $१००. ननु परोक्षप्रमाणभेदरूपमूहाख्यं प्रमाण वक्ष्यते तत्कस्तस्मादीहाया भेदः । उच्यते-त्रिकालगोचरः साध्यसाधनयोाप्तिग्रहणपटुरूहो यमाश्रित्य "व्याप्तिग्रहणकाले योगी सम्पचते प्रमाता" इति न्यायविदो बदन्ति । ईहा तु वार्त्तमानिकार्थविषया प्रत्यक्षप्रभेद इत्यपौनरुतयम् ।
६१०१. ईहा च यद्यपि येष्टोच्यते तथापि चेतनस्य सेति ज्ञानरूपैवेति युक्तं प्रत्यक्ष- 25 भेदत्वमस्याः । न चानिर्णयरूपत्वादप्रमाणत्वमस्याः शङ्कनीयम् । स्वविषयनिर्णयरूपस्वाद , निर्णयान्तरासादृश्ये निर्णयान्तराणामप्यनिर्णयत्वग्रसङ्गः ॥२७॥
ईहितविशेषनिर्णयोऽवायः ॥ २८॥ १०२. ईहाक्रोडीकते वस्तुनि विशेषस्य 'शाङ्क्ष एवायं शब्दो न शा' इत्येवंरूपस्यावधारणम् 'अवायः ॥ २८ ।।
परिणामिककारणतोका-डे । २ बौद्धानामिव । ३ अनिराकार्यत्वात्। ४ विशद्धार्थचिन्तमेन । ५- विशेषका-डे । ६ शङ्क-डे । स्वविषये निर्णयलात्-डे ।
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीचन्द्रविरचिता
स्मृतिहेतुर्द्धारणा ॥ २९ ॥
३१०३. 'ते' अतीवानुसन्धान हेतुः परिणामिकारणम्, संस्कार इति यावत्, सङ्घथेयमसङ्घयेथं वा कालं ज्ञानस्यावस्थानं 'धारणा' । अवग्रहादयस्तु त्रय अन्तमा: ।
२२
[ अ० १, आ० १ सू० २९.
5 $ १०४. संस्कारस्य च प्रत्यक्षभेदरूपत्वात् ज्ञानस्वमुनेयम्, न पुनर्यथाहुः परे"ज्ञानादतिरिक्तो भावनारूपोऽयं संस्कारः" इति । अस्य ज्ञानरूपत्वे ज्ञानरूप - स्मृतिजनकत्वं न स्यात्, नहि सत्ता सत्तान्तरमनुविशति । अज्ञानरूपत्वे चास्यात्मधर्मत्वं न स्यात्, चेतनधर्मस्याचेतनत्वाभावात् ।
$१०५. नन्यविच्युतिमपि धारणामन्वशिषन् वृद्धाः, यद्भाष्यकार:- "अधिशुई 10 धारणा हो" [शेषश० गा० १८०] तत्कथं स्मृतिहेतोरेव धारणात्वमसूत्रयः ? | सत्यम्, अस्त्यवियुतिर्नाम धारणा, किन्तु साध्वाय एवान्तर्भूतेति न पृथगुक्ता । अवाय एव हि दीर्घदीवच्युतिर्धारणेत्युच्यत इति । स्मृतिहेतुत्वाद्वाऽविच्युतिर्धारणयैव सङ्गृहीता । न वामात्रादविच्युतिरहिताद स्मृतिर्भवति, गच्छन्नृणस्पर्शश्रायाणामवायानां परिशीलन विकलानां स्मृतिजनकत्वादर्शनात् । तस्मात् स्मृतिहेतू अविच्युतिसंस्काराचनेन स - 15 गृहीतावित्यदोषः । यद्यपि स्मृतिरपि धारणाभेदत्वेन सिद्धान्तेऽभिहिता तथापि परोक्षप्रमाणभेदत्वादिह नोक्तेति सर्वमवदातम् ।
30
$ १०६. इह च क्रमभाविनामप्यवग्रहादीनां कथञ्चिदेकत्वमवसेयम् । विरुद्धधर्माध्याit theater परिपन्थी । न चाऽसौ प्रमाणप्रतिपन्नेऽर्थे प्रत्यर्थितां भजते । अनु-भूपते हि खलु हर्षविषादादिविरुद्धविवर्त्ताक्रान्तमेकं चैतन्यम् । विरुद्धधम्र्म्माध्यासाच्च विभ्य20 रिपि कथमेकं चित्रपैटी ज्ञानमे काने काका लेखशेखरमभ्युपगम्यते सौगतैः, चित्रं वा रूपं नैयायिकादिभिरिति ? |
६१०७ नैयायिकास्तु- "इन्द्रियार्थसनिकपत्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् " [स्या० १.१.४.] इति प्रत्यक्षलक्षणमाचक्षते । अत्र
पूर्वाचार्यकृत व्याख्यावैमुख्येन सङ्ख्यावद्धित्रिलोचनवाचस्पतिप्रमुखैरयमर्थः समर्थि25 तो यथा - इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पश्नं ज्ञानमव्यभिचारि प्रत्यक्षमित्येवं प्रत्यक्षलक्षणम् । 'यतः' - शब्दाध्याहारेण च यत्तदो नित्याभिसम्बन्धादुक्तविशेषणविशिष्टं ज्ञानं यतो भवति तत् तथाविधज्ञानसाधनं ज्ञानरूपमज्ञानरूपं वा प्रत्यक्षं प्रमाणमिति । अस्य च फलभृतस्य ज्ञानस्य द्वयी गतिरविकल्प सविकल्प च । तयोरुभयोरपि प्रमाणरूपत्वमभिधातुं विभाreerमेrद् 'अव्यपदेश्यं व्यवसायात्मकम्' इति ।
६१०८. तत्रोभयरूपस्यापि ज्ञानस्य प्रामाण्यमुपेक्ष्य 'यतः ' शब्दाध्याहारक्लेशेनाऽज्ञानरूपस्य सन्निकर्षादेः प्रामाण्यसमर्थनमयुक्तम् । कथं ज्ञानरूपाः सन्निकर्षादयोऽर्धपरि
१ वैशेषिकाः । २ वारणा तस्म-विशेषा ३०द्रविच्युतिविर०-३० । ४ दीयं ज्ञान ०डे० । ५ - ०रयेवं प्र० । ६०रूपकं स०-डे । ७०ल्पर्क दा 1 तयो० दे० ।
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
HIRANI
weste
rnetuRemi BREAMERIES
EPISATORIAciane.nettestanisatist.institua
प्रत्यक्षीयलक्षणान्तरनिरासः । ] प्रमाणमीमांसा । च्छित्तौ साधकतमा भवन्ति व्यभिचारात् ?, सत्यपीन्द्रियार्थसभिकर्षेऽर्थोपलब्धेरभावात् । ज्ञाने सत्येव भावात् , साधकतमं हि करणमव्यवहितफलं च तदिति |
६१०९. सत्रिकर्षोऽपि यदि योग्यतातिरिक्तः संयोगादिसम्बन्धस्तहि स चक्षुषोऽर्थेन सह नास्ति अप्राप्यकारित्वात्तस्य । दृश्यते हि काचाभ्रस्फटिकादिव्यवहितस्याप्यर्थस्य चक्षुषोपलब्धिः । अथ प्राप्यकारि चक्षुः करणत्वाद्वास्यादिवदिति ब्रूषे तायस्कान्ता- 5 कर्षणोपलेन लोहासनिकृष्टेन व्यभिचारः । न च संयुक्तसंयोगादिः संश्निकर्षस्तत्र कल्पयितुं शक्यते, अतिप्रसङ्गादिति ।।
६११०: सौगतास्तु "प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रान्तम्" [ न्यायवि० १.४ ] इति लक्षणमवोचन् । “अमिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासा प्रतीति: कल्पना तयारहिसमे"- न्यायवि० १.५,६] कल्पनापोहम् इति। एतच्च व्यवहारानुपयोगित्वात्प्रमाणस्य 10 लक्षणमनुपपन्नम् , तथाहि एतस्माद्विनिश्चित्यार्थमर्थक्रियार्थिनस्तत्समर्थेऽर्थे प्रवर्तमाना विसंवादाजो मा भवन्निति प्रमाणस्य लक्षणपरीक्षायां प्रवर्तन्ते परीक्षकाः । व्यवहारानुपयोगिनश्च तस्य वायसंसदसद्दशनपरीक्षायामिव निष्फलः परिश्रमः । निर्विकल्पोत्तरकालभाविनः सविकल्पकात्तु व्यवहारोपगमे वरं तस्यैव प्रामाण्यमास्थ्यम् , किमविकल्पकेन शिखण्डिनेति ।।
16 १११. जैमिनीयास्तु धर्म प्रति अनिमित्तत्यच्याजेन "सत्सम्प्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत् प्रत्यलमनिमितं विद्यमानोपलम्भनत्वात्" [ जैमि. १.१.४] इत्यनुवादभङ्गथा प्रत्यक्षलक्षणमाचक्षते, यदाहुः
"एवं सत्यनुवादित्वं लक्षणस्थापि सम्भवेत् ।" [श्लोकवा. सू. ४.३९] इति । ब्याचक्षते च-इन्द्रियाणां सम्प्रयोगे सति पुरुषस्य जायमाना बुद्धिःप्रत्यक्षमिति । 20
११२. अत्र संशयविपर्यययुद्धिजन्मनोऽपीन्द्रियसंप्रयोगे सति प्रत्यक्षत्वप्रसङ्गादतिव्याप्तिः । अथ 'सत्सम्प्रयोग' इति सता सम्प्रयोग इति व्याख्यायते तहि निरालम्बनविनमा एवार्थनिरपेक्षजन्मानो निरस्ता भवेयुर्न सालम्बनौ संशयविपर्ययौ । अथ सति सम्प्रयोग इति सत्सप्तमीपक्ष एव न त्यज्यते संशयविपर्ययनिरासाय च 'सम्प्रयोग इत्यत्र 'सम्' इत्युपसर्गों वर्ण्यते, यदाह
25 "सम्यगर्थे च संशब्दो दुष्प्रयोगनिधारणः।।
दुष्टत्वाच्छुक्तिकायोगो वार्यते रजतेक्षणात्" [लोकवा सू० ४. ३८..] १काचाम्रपट लस्फ-डे | २-श्यार्थस्थ-डे-1-निकर्षण ध्या-ता०।४-०गादिसन्नि. -डे । ५ रहित तथापोहम्-डे. प रहितम् तयापोडम् -मु. । ६ वायससदसन (वायसदान)परी -ता। ७एतत्समाचम्काकस्य कति यादन्ता मेषस्याएं किया पलम् ।
गर्दमे कति रोमाणीत्येषा मूग्यविचारणा ।। -मु-टि. ८शिखहिन्-लायबरे वृतेन मीष्मेणापाकृता काचिदम्बानाम्नी राजकन्या तपसा पुरुषत्वं प्राप्ता । सैव शिखण्डीति सषज्ञवा व्यवजहे। सच स्त्रीपूर्ववानिन्दास्पदम् । ततो भारते युद्धे तं पुरस्कृत्यार्जुनो भी जपान। सोऽपि शिवम्ही पधादश्चत्याम्ना हुनः।-मु-टि०। ९ वादत्वं-मु०।१०-०संयोगे डे।
..."
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
5
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिवा [अ० १, आ० १, सू० ३०-३२. इति; तथापि प्रयोगसम्यक्त्वस्यातीन्द्रियत्वेन प्रत्यक्षानवगम्यत्वात्कायतोऽवगतिर्वक्तव्या। कार्य च ज्ञानम् न च तदविशेषितमेव प्रयोगसम्यक्त्वावगमनायालम् । न च तद्विशेषणपरमपरमिह पदमस्ति । संतां सम्प्रयोगइति च वरं निरालम्बनविज्ञाननिवृत्तये, 'सति' इति तु हमारा मान्दाइदाम् ।
६११३. येपि "तत्संप्रयोगे पुरुषस्थेन्द्रियाणां बुद्धिजन्म सत्प्रत्यक्ष पविषयं ज्ञान तेनं सम्प्रयोगे इन्द्रियाणां पुरुषस्य बुद्धिजन्म सत्प्रत्यक्षं यदन्यविषयंझानमन्पसम्प्रयोगे भवति न तत्प्रत्यक्षम् ।" [ शावरभाग १.१.५ ] इत्येवं तत्सतोर्व्यत्ययेन लक्षणमनवद्यमित्याहुः, तेषामपि क्लिटकल्पनैव, संशयनानेन व्यभि
चारानिवृत्तेः । तत्र हि यद्विषयं ज्ञानं तेन सम्प्रयोग इन्द्रियाणामस्त्येव । यद्यपि चोभ10 यविषयं संशयनानं तथापि तयोरन्यतरेणेन्द्रियं संयुक्तमेव उभयावमर्शित्वाच संशयस्य
येन संयुक्तं चक्षुस्तद्विषयमपि तज्ज्ञानं भवत्येवेति नातिव्याप्तिपरिहारः। अव्याप्तिश्च चाक्षुषज्ञानस्येन्द्रियसम्प्रयोगजवाभावात् । अप्राप्यकारि च चक्षुरित्युक्तप्रायम् ।
६११४. "श्रोत्रादिवृसिरविकल्पिका प्रत्यक्षम्" इति वृद्धसाव्याः । अत्र श्रोत्रादीनामचेतनत्वात्तवृत्तेः सुतरामचैतन्यमिति कथं प्रमाणत्वम् १ । चेतनसंसर्गातचैत15 न्याभ्युपगमे वरं चित एवं प्रामाण्यमभ्युपगन्तुं युक्तम् । न चाविकल्पकत्वे प्रामाण्यमस्तीति
यत्किञ्चिदेतत् । __११५. "प्रतिविषयाध्यवसायो दृष्टेम्" [सांका०५] इति प्रत्यक्षलक्षणमितीश्वरकृष्णः । तदप्यनुमानेन व्यभिचारित्वादलक्षणम् । अथ 'प्रतिः' आभिमुख्य वर्तते तेनाभि
मुख्येन विषयाध्यवसायः प्रत्यक्षमित्युच्यते तदप्यनुमानेन तुल्यम् घटोऽयमितिवदय 20 पर्वतोऽग्निमानित्याभिमुख्येन प्रतीतेः । अथ अनुमानादिविलक्षणो अभिमुखोऽध्यवसाय: प्रत्यक्षम् ; तर्हि प्रत्यक्षलक्षणमकरणीयमेव शब्दानुमानलक्षणविलक्षणतयैव तसिद्धेः ।
११६. ततश्च परकीयलक्षणानां दुष्टत्वादिदमेव 'विशदः प्रत्यक्षम्' इति प्रत्यक्षलक्षणमनवद्यम् ।। २९ ।।
६११७. प्रमाणविषयफलप्रमातृरूपेषु चतुर्यु विधि तत्वं परिसमाप्यत इति विषया25 दिलक्षणमन्तरेण प्रमाणलक्षणमसम्पूर्णमिति विषयं लक्षयति
प्रमाणस्य विषयो द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु ॥ ३०॥ ६११८. प्रत्यक्षस्य प्रकृतत्वात्तस्यैव विषयादौ लक्षयितव्ये 'प्रमाणस्य इति प्रमाणसामान्यग्रहणं प्रत्यक्षवत् प्रमाणान्तराणामपि विषयादिलक्षणमिहेव वक्तुं युक्तमविशेषात्तथा च लाघवमपि भवतीत्येवमर्थमे । जातिनिर्देशाच प्रमाणानां प्रत्यक्षादीनां 'विषयः गोचरो 'द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु' । द्रवति तांस्तान् पर्यायान् गच्छति इति द्रव्यं धौव्यलक्षणम् ।
१सता सम्प्र-सा. डे। २ तेनैव सम्प्र० -मु-पा० १ ३ तत्सर्वतोन्य०-ऐ. 1 ...कल्पस्वे--डे । ५ दृष्टमति प्रल-ता. । ६ विधेषु इत्यपि पठितुं शक्ये तान् प्रती 10 ..मश्रजाति-डे ।
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
nikamasutranslamyumcinemamisal
i nawatestendi
m
प्रमेयस्य निरूपणम् । ] प्रमाणमीमांसा ।
२५ पूर्वोत्तरविवर्तवय॑न्वयप्रत्ययसमधिगम्यमूर्खतासामान्यमिति यावत् । परियन्त्युत्पादविनाशधर्माणो भवन्तीति पर्याया विवाः । तच ते चात्मा स्वरूपं यस्य तत् द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु, परमार्थसदिस्यर्थः, यवाचकमुख्यः-"उत्पादध्ययौव्ययुक्त सद" तत्त्वा० ५.२९ ] इति, पारमर्षमपि "उपनेइ वा पिगमेह वा धुवेइ वा” इति ।
६११९. तत्र 'द्रव्यपर्याय' ग्रहणेन द्रव्यैकान्तपर्यायैकान्तवादिपरिकल्पितविषयच्यु- 5 दासः । 'आत्म'ग्रहणेन चात्यन्तव्यतिरिक्तद्रव्यपर्यायवादिकाणादयोगाभ्युपगतविषयनिरासः । यच्छीसिद्धसेनः"दोहिं वि नहि नीयं सस्थमुलूएण तहवि मित्तं। ज सविसयपहाणतणेण अन्नोबनिरविव" || [सन्म० ३, ४५] त्ति ॥३०॥
१२०. कुतः पुनईच्यपर्यायात्मकमेव वस्तु प्रमाणानां विषयो न द्रव्यमात्रं पर्याय- 10 मात्रमुभयं वा स्वतन्त्रम् ? इत्याह
__ अर्थक्रियासामर्थ्यात् ॥ ३१ ॥ ६१२१. 'अर्थस्य' हानोपादानादिलक्षणस्य 'क्रिया निष्पत्तिस्तत्र 'सामर्थ्यान्', द्रव्यपर्यायात्मकस्यैव वस्तुनार्थक्रियासमवेत्यादिस्यथः ।। ३१ ॥ ६१२२, यदि नामवं सतः किमित्याह
___ तल्लक्षणत्वास्तुनः ॥ ३२ ॥ ६१२३. 'तद्' अर्थक्रियासामध्यं 'लक्षणम्' असाधारण रूपं यस्य तत् तल्लक्षणं तस्य मावस्तस्वं तस्मात् । कस्य ? । 'वस्तुनः' परमार्थसतो रूपस्य । अयमर्थः-अर्थक्रियार्थी हि सर्वः प्रमाणमन्वेषते, अपि नामेतः प्रमेयमर्थक्रियाक्षमं विनिश्चित्य कृतार्थों भवेयमिति न व्यसनितया । सयदि प्रमाणविषयोऽर्थोऽर्थक्रियाक्षमो न भवेत्तदा नासौ प्रमाणपरीक्षण- 20 माद्रियेत । यदाह
"अर्थक्रियाऽसमर्थस्थ विचारैः किं तदर्थनाम् ।
पण्डस्य रूपवैरूप्ये कामिन्याः किं परीक्षया १॥" [ प्रमाणघा० १.२ १: ] इति । हु१२४, तत्र न द्रव्यैकरूयोऽर्थोऽर्थक्रियाकारी, सह्यप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपः कथमर्थक्रियां कुर्वीत क्रमेणाक्रमेण वा ?, अन्योन्यव्यवच्छेदरूपाणां प्रकारान्तरासम्भवात् । तत्र 25 न क्रमेण स हि कालान्तरभाविनीः क्रियाः प्रथमक्रियाकाल एव प्रसह्य कुर्यात् समर्थस्य कालक्षेपायोगान , कालक्षेपिणो वाऽसामर्थ्यप्राप्तेः । समर्थोऽपि तत्तत्सहकारिसमधाने तं समर्थ करोतीति चेत् । न तर्हि तस्य सामर्थ्यमपरसहकारिसापेक्षवृत्तित्वात, "सापेक्षमसमर्थम्" [पात० महा० ३. १. ८ ] इति हि किं नाश्रीपीः । न तेन सहकारिणोऽपेक्ष्यन्तेऽपि तु
१ प्रौव्याणां योगः। २ अन्ननिर०-मु० । अणुणानिर०-डे । ३ निरपेक्षी नयौ । ४ एकत्रिंशत्तम द्वात्रिंशत्तमं च सूत्रद्वयं सं- मू. प्रतौ भेदकवि विना सहैव लिस्थितं दृश्यते --सम्पा० । ५ - कियार्थसम है। 1- स्वाद्वा बस्तुनः-से-मू । ७प्रमाणान्वेषणभाबनायाम् । ८ बदाहु:-ता। ९ मामये पर.--ता।
15
eetinooraibpvidiuantirandan.dadatdeakistatuicsandasant........immatt.tandendindin...
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६
आचार्यश्री हेमचन्द्रविरविता
[अ० १ ० १ सू० ३२. कार्यमेव सहकारिष्वरस्वभवत् तानपेक्षत इति चेत्; तत्किं स भावोऽसमर्थः ? | समर्थचेत्; किं सहकारिमुखप्रेक्षणदीनानि तान्युपेक्षते न पुनर्झटिति घटयति ? । ननु समर्थमपि बीजमिलार्जलादिसहकारिसहितमेवाङ्कुरं करोति नान्यथाः तत् किं तस्य सहकारिभिः किञ्चिदुपक्रियेत, न वा ? | नो चेत् स किं पूर्ववनोदास्ते । उपक्रियेत चेत् स तहिं तैरुपकारो 6 भिन्नोऽभिन्न वा इति इति लाभमिच्छतो मूलक्षतिरायाता । भेदे स कथं तस्योपकारः १, किं न सह्यविन्ध्यादेरपि । । तत्सम्बन्धात्तस्पायमिति चेत् । उपकार्योपकारयोः कः सम्बन्धः १ । न संयोगः द्रव्ययोरेव तस्य भावात् । नापि समवायस्तस्य प्रत्यासत्तिविप्रकर्षाभावेन सर्वत्र तुल्यत्वान्न नियतसम्वन्धिसम्बन्धत्वं युक्तम् तच्त्रे वा तत्कृत उपकारोऽस्यभ्युपगन्तव्यः तथा च सत्यु10 पकारस्य भेदाभेदकल्पना तदवस्थैव । उपकारस्य समवायादभेदे समवाय एव कृतः स्यात् । भेदे पुनरपि समवायस्य न नियतसम्बन्धिसम्बन्धत्वम् । नियँतसम्बन्धिसम्ब afa enarrer विशेषणविशेष्यभावो हेतुरिति चेत्; उपकार्योपकारकभावाभावे तस्यापि प्रतिनियमहेतुत्वाभावात् । उपकारे तु पुनर्भेदाभेदविकल्पद्वारेण तदेवावर्तते । तन्नैकान्तनित्यो भावः क्रमेणार्थक्रियां कुरुते ।
>
15 $ १२५, नाप्यक्रमेण । न ह्येको भावः सकलकालकलाभाविनीर्युगपत् सर्वाः क्रियाः करोतीति प्रातीतिक्रम् | कुरुतां था, तथापि द्वितीयक्षणे किं कुर्यात् ? । करणे वा क्रमपक्षaint दोषः । अकरणेऽनर्थक्रियाकारित्वादव स्तुत्वप्रसङ्गः - इत्येकान्तनित्यात् क्रमाक्रमाभ्यां व्याप्तार्थक्रिया व्यापकानुपलब्धिवलात् व्यापक निवृत्तौ निवर्तमाना व्याप्यमर्थक्रियाकारित्वं निवर्तयति तदपि स्वव्याप्यं सस्वमित्यसन् द्रव्यैकान्तः ।
20
25
६१२६. पर्यायैकान्तरूपोऽपि प्रतिक्षणविनाशी भावो न क्रमेणार्थक्रियासमर्थों देशकृतस्य कालकृतस्य च क्रमस्यैवाभावात् । अवस्थितस्यैव हि नानादेशकालव्याप्ति'देशक्रमः कालक्रमचाभिधीयते । न चैकान्तविनाशिनि सास्ति । यदाहु:
"यो यत्रैव स तत्रैव यो यदैव तदैव सः । न देशकालयoर्व्याप्तिर्भावानामिह विद्यते ॥"
६१२७. न च सन्तानापेक्षया पूर्वोत्तरक्षणानां क्रमः सम्भवति, सन्तानस्याऽवस्तुस्वात् । वस्तुत्वेऽपि तस्य यदि क्षणिकत्वं न तर्हि क्षणेभ्यः कश्विद्विशेषः । अथाक्षणिकत्वम् ; सुस्थितः पर्यायैकान्तवादः ! यदीहु:
I
१ कार्याणि । २ बीजमिलादि०-४० । ३ क्रियेत इति डे० । ४० न्यार०डे० ५ नियतसम्ब धिकृतः । ६ समवायस्य । ७०-त्वम् सम्बन्धवे डे० ८ नियतसम्बन्धिनोपॉजोपकारयोः सम्बन्धstatः समवाय इति विशेषणविशेष्यभावः । कलाशब्देनांशाः | १० स हि कालान्तरभाषिनीः क्रिया इत्यादिको ग्रन्थ आवर्तनीयः । ११ तदप्यर्थक्रियाकारित्वं व्यापकं निवर्तमानं स्वव्याप्यं सत्त्वं निवर्तयति । १२ कर्तरि षष्ठी । १३ पर्यायैकान्तवादे । १४०त्वं न सु०० १५ यदुक्तम् - डे० ।
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमेयस्य निरूपणम् । ]
प्रमाणमीमांसा |
"अथापि नित्यं परमार्थसन्तं सन्ताननामानमुपैषि भावम् । उष्ट भो ! फलितांस्तवाशाः सोऽयं समाप्तः क्षणभङ्गवादः ॥ " [ न्यायम० पृ० ४६४ ] इति ।
૨૭
$ १२८. नाप्यक्रमेण क्षणिकेऽर्थक्रिया सम्भवति । स होको रूपादिक्षणो युगपदनेकान् रसादिक्षणान् जनयन् यद्येकेन स्वभावेन जनयेत्तदा तेषामेकत्वं स्यादेकस्वभावजन्यत्वात् । 5 अथ नानास्वभावैर्जनयति - किञ्चिदुपादानभावेन किञ्चित् सहकारित्वेन ते तर्हि स्वभावास्वस्यात्मभूता अनात्मभूता वा १ । अनात्मभूताश्चेत्; स्वभावहानिः । यदि तस्यात्मभूताः तहिं तस्यानेकत्वं स्वभावानां चैकत्वं प्रसज्येत । अथ य एवैकत्रोपादानभावः स एवान्यत्र सहकारिभाव इति न स्वभावभेद हृष्यते; तहिं नित्यस्यैकरूपस्यापि क्रमेण नानाकार्यकारिणः स्वभावभेदः कार्यसाङ्कर्यं चमा भूत् । अथाक्रमात् क्रमिणामनुत्पत्तेनैवैमिति चेत्; एकानंश- 10 कारणात् युगपदनेककारणसाध्यानेककार्यविरोधात् क्षणिकानामप्यक्रमेण कार्यकारित्वं मा दिति पर्यायैकान्तादपि क्रमाक्रमयोर्व्यापकयोनिवृत्यैच व्याप्याऽर्थक्रियापि व्यावर्तते । aurat aurat व्यापकानुपलब्धिवनैव निर्तत इत्यस्न पर्यायैकान्तोऽपि ।
"
$ १२९. काणादास्तु द्रव्यपर्यायानुभावप्युपागमन् पृथिव्यादीनि गुणाद्याधाररूपाणि द्रव्याणि, गुणादयस्त्वावेयत्वात्पर्यायाः । ते च केचित् क्षणिकाः केचिद्यावव्य- 15 भाविनः केचिभित्य इति केवलमितरेतरविनिलुठितैधर्मिधर्माभ्युपगमात्र समीचीनविषयवादिनः । तथाहि - यदि द्रव्यादत्यन्तविलक्षणं सम्वं तदा द्रव्यमसदेव भवेत् । सत्तायोगात् सभ्यमस्त्येवेति चेत्; असतां सत्तायोगेऽपि कुतः सच्चम् ?, सतां तु निष्फलः सत्तायोगः । स्वरूप भावानामस्त्येवेति चेत्; तहिं किं शिखण्डिना सत्तायोगेन ? । सत्तायोगात् प्राक् भावो न सन्नाप्यसन, सत्तासम्बन्धात्तु सन्निति चेत्; वामात्रमेतत्, सदस- 20 द्विलक्षणस्य प्रकारान्तरस्यासम्भवात् । अपि च पैदार्थः सत्ता योगः' इति न त्रितयं चकास्ति | पदार्थसत्तयोश्च योगो यदि तादात्म्यम्, तदनभ्युपगमबाधितम् । अत एव न संयोगः समवायस्त्वनाश्रित इति सर्वे सर्वेण सम्बध्नीयान वा किञ्चित् केनचित् । एवं द्रव्यगुणकर्मणां द्रव्यत्वादिभिः द्रव्यस्य द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषैः पृथि - व्यतेजोवायूनां पृथिवीत्वादिभिः, आकाशादीनां च द्रव्याणां स्वगुणैर्योगे यथायोगं 25 सर्वमभिधानीयम्, एकान्तभिन्नानां केनचित् कथञ्चित् सम्बन्धायोगात् इत्यौक्यपक्षेsपि विषयव्यवस्था दुःस्था |
"
१०ता तथा ०डे० । २ बीजपूरादौ । ३ युगपदेकान्ता० ४ नित्यस्यैकरूपस्यापि क्रमेणेत्यादिको प्रन्थो न घटते । ५ न हि एकश उपादानस्वरूपोऽन्यथ सहकारिस्वरूपो भवन्मतेऽस्ति । ६ - मेणाकारि० - है । ७ --- लुभावप्यन्युपा०--० । वृद्धादयः । घटरूपादयः । १० आप्यरूपया (पा)दयः [ जलादिपरमाणुरूपादीनां नित्यत्वात् ] ११० मिन० । १२० डे० १३ अनभ्युपगमात्वात् एव । १४ संयोगो हिं ब्रव्ययोरेव । १५ आदेर्गुणत्कर्म । १६ केनन्वित सम्ब०ता० मु० ।
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिता [ अ० १, आ. १, सू० ३२--३५. ६१३०. ननु द्रव्यपर्यायात्मकत्वेऽपि वस्तुनस्तदवस्थमेव दौस्थ्यम् ; तथाहि-द्रव्यपर्याययोरैकान्तिकभेदाभेदपरिहारेण कथञ्चिद्भेदाभेदवादः स्याद्वादिभिरुपेयते, न चासौ युक्तो विरोधादिदोषात्-विधिप्रतिषेधरूपयोरेका वस्तुन्यसम्भवान्नीलानीलवन १ । अथ केनचिद्रूपेण भेदः केनचिदमेदः; एवं सति मेदस्थान्यदधिकरणमभेदस्य चान्यदिति वैयधि5 करण्यम् २ ॥ यं चात्मानं पुरोधाय भेदो यं चाश्रित्याभेदस्तावप्यात्मानौ भिन्नाभिन्ना
वन्यथैकान्तवादप्रसक्तिस्तथा च सत्यनवस्था ३ । येन च रूपेण भेदस्तेन भेदश्चाभेदश्च येन चाभेदस्तेनाप्यभेदश्च भेदश्चेति सङ्करः ४। येन रूपेण भेदस्तेनाभेदो येनाभेदस्तेन भेद इति व्यतिकरः ५ भेदाभेदात्मकत्वे च वस्तुनो विविक्तेनाकारेण निश्चेतुमशक्त
संशयः ६ । ततश्चाप्रतिपत्तिः ७ इति न विषयव्यवस्था ८। नैवम् ; प्रतीयमाने वस्तुनि 10 विरोधस्यासम्भवात् । यत्सन्निधाने यो नोपलभ्यते स तस्य विरोधीति निश्चीयते ।
उथलभ्यमाने च वस्तुनि को विरोधगन्धावकाशः नीलानीलयोरपि यद्येकत्रोपलम्भोऽस्ति तदा नास्ति विरोधः । एका चित्रपटीशाने सौगोमालामालयाविरोधामभ्युपगमात् , योगैश्चैकस्य चित्रस्य रूपस्याभ्युपगमात्, एकस्यैव च पटादेश्चलाचलरक्तारक्तावताना
तादिविरुद्धधर्माणामुपलब्धेः प्रकृते को विरोधशङ्कावकाशः । एतेन वैयधिकरण्यदोषोऽप्य15 पास्ता, तयोरेकाधिकरणत्वेन प्रागुक्तयुक्तिदिशा प्रतीतेः। यदप्यनवस्थानं दूषणमुपन्यस्तम् । तदप्यनेकान्तबादिमतानमिझेनैव, तन्मतं हि द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि द्रव्यपर्यायावर
भेदा अचनिना तयोरेवाभिधानाद , द्रव्यरूपेणाभेदः इति द्रव्यमेवाभेदः एकानेकास्मकत्वावस्तुनः । यौ च सतरव्यतिकरौ तो मेचकमाननिदर्शनेन सामान्यविशेष
दृष्टान्तेन च परिहतौ । अथ तत्र तथाप्रतिभासः समाधानम् ; परस्यापि तदेवास्तु 20 प्रतिमासस्थापक्षपातित्वात् । निर्णीते चार्थे संशयोऽपि न युक्तः, तस्य सकम्पप्रतिपति
रूपत्वादकम्पप्रतिपसी दुर्घटत्वास । प्रतिपन्ने च वस्तुन्यप्रतिपत्तिरिति साहसम् । उपलबध्यमिधानादनुफ्लम्भोऽपि न सिद्धस्ततो नाभाव इति दृष्टेष्टाविरुद्ध द्रव्यपर्यायात्मक पस्विति ||३२॥ ..
१३१, ननु द्रव्यपर्यायात्मकत्वेऽपि वस्तुनः कथमर्थक्रिया नाम ?। सा हि क्रमा25 क्रमाभ्यां व्याप्ता द्रव्यपर्यायैकान्तवदुभयात्मकादपि व्यावर्तताम् । शक्यं हि वस्तुमुभयात्मा भावो न कमेणार्थक्रियां कर्तुं समर्था, समर्थस्य क्षेपायोगात् । न च सहकार्यपेक्षा युक्ता, द्रव्यस्याविकार्यत्वेन सहकारिकृतोपकारनिरपेक्षत्वात् । पर्यायाणां च क्षणिकत्वेन पूर्वापरकार्यकालाप्रतीक्षणाद् । नाप्यक्रमेण, युगपद्धि सर्वकार्याणि कृत्वा पुनरकुर्वतोऽनर्थ
...भेदाभेदरूपयोः । स्वभाषम् । १ युगपकुभयप्राप्तिः समरः । ४ परस्पर विषयगमन व्यतिकरः । ५. छायेवातपस्य । ६ परोकदृष्टान्त बषयमाह । ७ योगः प्रत्याहारादिस्त बन्यधीते वा योगः "स्यधीते" । हैमशः ६. २..११५.] इत्यम् । ८ चित्ररूपस्म एकस्माऽनययिताऽभ्युपगमात् । एकस्यैव पटा० -। १० विज्ञानस्यैकमाकारं नानाकारकरम्बितम् । १५ दमपर्यायात्मा । १२ प्रथमद्वितीयकाय(मेयोः कालः 1
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
......1007-०४
prapingaravarTTEENETIH
प्रमाफलस्य निरूपणम् ।
प्रमाणमीमांसा। क्रियाकारित्वादसत्त्वम् , कुर्वतः क्रमपक्षभावी दोषः। द्रव्यपर्यायवादोश्व यो दोषः स उभयवादेऽपि समान:
___"प्रत्येक यो भवेहोषो क्योभीके कथं न सः?" इति वचनादित्याहपूर्वोत्तराकारपरिहारस्वीकारस्थितिलक्षणेपरिणाम
नास्यार्थक्रियोपपत्तिः ॥ ३३ ॥ ६ १३२. 'पूर्वोत्तरयोः' 'आकारयोः विवर्तयोर्यथासङ्ख्थेन यो 'परिहारस्वीकारौं' ताभ्यां स्थितिः सैव 'लक्षणम्' यस्य स चासौ परिणामच, तेन 'अस्य' द्रव्यपर्यायात्मकस्यार्थक्रियोपपद्यते ।
६१३३, अयमर्थः-न द्रव्यरूपं न पर्यायरूपं नोभैयरूपं वस्तु, येन तत्तत्पक्षभावी 10 दोषः स्यात् , किन्तु स्थित्युत्पादव्ययात्मकं शबलं जात्यन्तरमेव वस्तु । तेन तत्तत्सहकारिसन्निधाने क्रमेण युगपट्टा तां तामर्थक्रियां कुर्वतः सहकारिकृतां चोपकारपरम्परानुपजीवतो भिन्नाभिन्नोपकारीदिनोदनानुमोदनाप्रमुदितात्मनः उभयपक्षभाविदोषशङ्काकलका कोन्दिशीकस्य भावस्य न व्यापकानुयलग्धिवलेनार्थक्रियायाः, नापि तयाथैसत्वस्य निवृत्तिरिति सिद्धं द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु प्रमाणस्य विषयः ॥३३॥ 15 १३४. फलमाह--
फलमर्थप्रकाशः ॥३४॥ ६१३५. 'प्रमाणस्य' इति वर्तते, प्रमाणस्य 'फलम्' 'अर्थप्रकाशः' अर्थसंवेदनम् अर्थार्थी हि सर्वः अमातेत्यर्थसंवेदनमेव फलं युक्तम् । नन्वेवं प्रमाणमेव फलस्वेनोक्तं स्यात्, ओमिति चेत् , तर्हि प्रमाणफलयोरभेदः स्यात् । ततः किं स्यात् ? प्रमाणफलयोरक्ये 20 सदसत्पक्षमावी दोषः स्यात् , नासंतः करणत्वं न सतः फलत्वम् । सत्यम् , अस्त्ययं दोषो जन्मनि न व्यवस्थायाम् । यदाहुः
"नासतो हेतुता नापि सतो हेतोः फलास्मता।
इति जन्मनि दोषः स्थाद् व्यवस्था तु न दोषभाग् ॥” इति ॥३४॥ ६ १३६. व्यवस्थामेव दर्शयति
__ कर्मस्था क्रिया ॥३५॥ ६ १३७. कर्मोन्मुखो ज्ञानव्यापारः फलम् ॥३५॥
१.क्षणेन परि० - सं-मृ०।२- नास्य क्रियो -सं-मू । ३ स्वतन्नद्रव्यपर्यायरूपम् । ४ आदेरुपकार्युपकारयोः सम्बन्धः । ५ "कान्विशीको भयहसे"-अभि. चि. ३.३.१ ६ माकमी व्यापको तयोः । ७.०प्यस्य साकडे०। ८अर्थकियाक्षम वस्तु अवार्थशब्देनोच्यते । ९ अविद्यमान प्रमाणस्य । १० फलात् प्रमाणस्याभेदो भवन्मते । ततश्च फलस्य साध्यत्वेनासत्यात् प्रमाणस्याप्यसत्त्वप्रसमः ।
,
25
असंञ्च न करणं भवति सिस्वामीकारात् 1 लथा, प्रमाणात फलस्य यद्यमेदः तदा प्रमाणस्य सस्वात् फलमपि सदेव स्थाद्विद्यमानस्य चन] फन्दस्वं साभ्यस्यैष फलत्वाभ्यपगमात् । ११ पञ्चप्रिंशसमपत्रिंशतमय सूत्रयं ता-म प्रती मेदकन्चिई विना सहैव लिखित दृश्यसे-सम्पा।
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
SMANAween
ARWNigahelihinkisikisodcitishBasti
M
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिता [अ० १, आ. १, सू० ३६-४२. १६ १३८. प्रमाण किमित्याह
__कर्तृस्था प्रमाणम् ॥३६॥ १३९. कर्तृव्यापारमुल्लिखन बोधः प्रमाणम् ॥३६॥
६१४०, कथमस्य प्रमाणत्वम् ? । करणं हि तत् साधकतमं च करणमुच्यते । 5 अव्यवहितफलं च तदित्याह
तस्यां सत्यामर्थप्रकाशसिद्धेः ॥३७॥ १४१. 'तस्याम्' इति कर्वस्थायां प्रमाणरूपायो क्रियायां 'सत्याम्' 'अर्थप्रकाशस्य' फलस्य 'सिद्धः' व्यवस्थापनात् । एकज्ञानगतत्वेन प्रमाणफलयोरभेदो, व्यवस्थाप्यव्य
वस्थापकभावात्तु भेद इति भेदाभेदरूपः स्याद्वादमबाधितमनुपतति प्रमाणफलभाव 10 इतीदमखिलप्रमाणसाधारणमव्यवहितं फलमुक्तम् ।। ३७ ।। ६१४२. अव्यवहितमेव फलान्तरमाह
अज्ञाननिवृत्तिर्वा ॥३८॥ ६१४३, प्रमाणप्रवृत्तेः पूर्व प्रमातुर्विवक्षिते विषये यत् 'अज्ञानम् तस्य 'निश्रुतिः' फलमित्यन्ये ! यदाहुः
"प्रमाणस्प फलं साक्षादज्ञानविनिवर्तनम् ।
केवलस्य सुखोपेक्षे शेषस्थादानहानधीः ॥” [न्थाग्रा० २८] इति ॥३८॥ ६१४४. व्यवहितमाहअवग्रहादीनां वा क्रमोपंजनधर्माणां पूर्व पूर्व प्रमाण
मुत्तरमुत्तरं फलम् ॥३९॥ 20६१४५, अवग्रहेहाबायधारणास्मृतिप्रत्यभिज्ञानोहानुमानानां क्रमेणोपजायमानानां
यद्यत् पूर्व तत्तत्प्रमाण यद्यदुत्तरं तत्तत्फलरूपं प्रतिपत्तव्यम् । अवग्रहपरिणामवान् स्यात्मा ईहारूपफलतया परिणमति इतीहाफलापेक्षया अवग्रहः प्रमाणम् । ततोऽयीहा प्रमाणमवायः फलम् । पुनरवायः प्रमाणं धारणा फलम् । ईहाधारणयोोनोपदिानत्वात् ज्ञानरूपतोश्रेया । ततो धारणा प्रमाणं स्मृतिः फलम् । ततोऽपि स्मृतिः प्रमाणं प्रत्यभिज्ञानं फलम् ।
yriwrivirstwwwmarathisoninhironics
16
१ कर्मस्था प्र. - ता-भू० । २ तथाहि कर्मस्था कर्तृस्था चेत् (स्था च ) क्रिया प्रतीयते तथा (2) ज्ञानस्यापि । तथाहि वलिगता तावत् काचिद्दाहिका शक्तिरभ्युपेया यब्यापारात् काष्ठानि दग्धानि भवन्ति तथा कागता दाइकिया काचिदस्ति यस्यास्तानि भस्मीभवन्ति । एवमन्यत्रापि ज्ञानार्थीभीवनीयम। १...फल सदि-द्वे०।४ वस्तुतः ऐक्येऽपि ज्ञानोन्मुखोऽर्थप्रकाशः अर्थोन्मुखी पक्षानमित्तिः इति भेदः । १५ अध्ययहितम। ६ -पजननधी...-भू । ७-०धर्मणाम् ता.14 एकोनचलारिंशसम चत्वारिंशसम च स्नाइयं ता- मू प्रतौ मेदांचाई विना सहैव लिखितं दृश्यते सम्पा० । ९ ईहायाश्चटारूपलात् धारणायाच संस्काररूपावात् अज्ञानत्वमिति पर अभिसन्धिः ! १० शानमुपादान अयोनिस्योपादनं वा ।
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमातुर्लक्षणम् ।]
प्रमाणमीमांसा। ततोऽपि प्रत्यभिज्ञा प्रमाणमूहः फलम् । सोऽ पहः गरनुमान गरमिति प्रमाणफलविभाग इति ॥ ३९ ॥ ६१४६. फलान्तरमाह
हानादिबुद्धयो वा ॥४॥ १४७, हानोपादानोपेक्षाबुद्धयो वा प्रमाणस्य फलम् । फलबहुत्वप्रतिपादनं सर्वेषां 5 फलत्वेन न विरोधो वैवक्षिकत्वात् फलस्येति प्रदिपादनार्थम् ॥ ४० ॥ ६१४८. एकान्तभिन्नाभिन्नफलवादिमतपरीक्षार्थमाह
प्रमाणाद्भिन्नाभिन्नम् ॥४१॥ १४९, करणरूपत्वात् क्रियारूपत्वाच प्रमाणफलयोर्भेदः । अभेदे प्रमाणफलभेदव्यवहासनुपपत्तेः प्रमाणमेव वा फलमेव वा भवेत् । अप्रमाणाध्याश्या प्रमाणव्यवहारः, 10 अफलान्याश्या च फलव्यवहारो भविष्यतीति चेत् नैवम ; एवं सति प्रमाणान्तराज्यावृस्याऽप्रमाणव्यवहारः, फलान्तराज्यावृत्याऽफलव्यवहारोऽप्यस्तु, विजातीयादिव सजीतीयादपि व्यावृत्तत्वाद्वस्तुनः।
६१५०. तथा, तस्यैवात्मनः प्रमाणाकारेण परिणतिस्तस्यैव फलरूपतया परिणाम इत्येकममात्रपेक्षया प्रमाणफलयोरभेदः । भेदे वात्मान्तरवचदनुपपत्तिः । अथ यत्रैवात्मनि 15 प्रमाणं समवेतं फलमपि तत्रैव समवेतमिति समवायलक्षणया प्रत्यासच्या प्रमाणफलव्यवस्थितिरिति नात्मान्तरे तत्प्रसङ्ग इति चेत् । न समवायस्य नित्यत्वाध्यापकत्वान्नियतात्मवत्सर्वात्मस्वप्यविशेषान्न ततो नियतप्रमातृसम्बन्धप्रतिनियमः तत् सिद्धमेतत् प्रमाणात्फलं कथचिदिन्नमभिन्नं चेति ॥ ४१॥ ६१५१ प्रमातारं लक्षयति
स्वपराभासी परिणाम्यात्मा प्रमाता ॥४२॥ ६१५२. स्वम् आत्मानं परं चार्थमाभांसयितुं शीलं यस्य स 'स्वपराभासी स्वोन्मुखतयाऽर्थोन्मुखतया चावभासनात् घटमहं जानामीति कर्मकर्तक्रियाणां प्रतीतेः, अन्यतरप्रतीत्यपलापे प्रमाणाभावात् । न च परप्रकाशकत्वस्य स्वप्रकाशकत्वेन विरोधः प्रदीपयत् । नहि प्रदीपः स्वप्रकाशे परमपेक्षते । अनेनैकान्सस्वाभासिपरामासिवादिमतनिरासः। 25 स्वपरामास्येव 'आत्मा प्रमाता' ।
20
१- पेक्षया यु०-सा०।२ अर्थप्रकाशादीनाम् । ३-०क्षितत्वात-ता। अन्य प्रमाणात् 14- लत्यव्य. -है।६ प्रमाणान्तरान् । ७ यधैकात्मगतस्य प्रमाणस्य सम्बन्धि द्वितीयात्मगतं कर न भवत्ति तथैकात्मगतयोरपि मा भदस्यन्तमेदस्योभवपक्षयोरप्यविशिष्टत्वात। -तारं कथयति- एतत्सनानन्तरं ता-मू. प्रती एवं लिखितं वर्तते-"इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां प्रमाणमीमांसायां प्रथमस्याध्यायस्य प्रथममालिकम् । सं-भू० प्रती तु -ध्यायस्यायाचिकम् । १० बौद्धस्य ।
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिता [अ० १, आ० २, सू० १-३. १५३. तथा, परिणाम उक्तलक्षणः स विद्यते यस्य स 'परिणामी' । कूटस्थनित्ये ह्यात्मनि हर्षविषादसुखदुःखभोगादयो विवर्ताः प्रवृत्तिनिवृत्तिधर्माणो न वर्तेरन् । एकान्तनाशिनि च कृतनाशाकृताभ्यागमौ स्याताम् , स्मृतिप्रत्यभिज्ञाननिहितप्रत्युन्मार्गणप्रभृ. तयश्च प्रतिप्राणिप्रतीता व्यवहारा विशीर्येरन् । परिणामिनि तूत्पादश्यपधौव्यधर्मण्यात्मनि 5 सर्वमुपपद्यते । यदाहु:
"यथाहे कुण्डलावस्था व्यपैति तदनन्तरम् । सम्भवस्यावावस्था सर्पत्वं स्वनुवर्तते ॥ तथैव नित्यचेतन्यस्वरूपस्पास्मनो हि न । निःशषरूपविगमः सर्वस्थानुगमोऽपि वा ॥ किं स्वस्य विनिवर्तन्ते सुखदुःखादिलक्षणाः । अवस्थास्ताश्च जायन्ते चैतन्यं स्वनुवर्तते ।। स्यातामत्यन्तनाशे हि कृतनाशाकृतागो । सुखदुःखादिभोगश्च नैव स्यादेकरूपिणः ॥ न च कर्तवमोस्कृत्वे पुंसोऽवस्था समाश्रिते।
ततोऽवस्थावतस्तत्वात् कर्तेवाप्नोति तत्फलम्॥” तिस्त्र का० ३.२ ३.२२०] इति अनेनैकान्तनित्यानित्यवादव्युदासः । 'आत्मा' इत्यनात्मवादिनो व्युदस्यति । कायप्रमाणता खात्मनः प्रकृवानुपयोगान्नोक्तेति सुस्थितं प्रमातलक्षणम् ॥४२॥
10
इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायाः प्रमाणमीमांसायास्तवृतेश्च
| মায়াকান্ত মখমন্দির
- r
w wwram-
-
-PHHHHHHHHHLA
१ एकान्तनाशिनी (1) २ अवस्थायाः । ३ वतस्तात्यातू-हे। स्याम नसत्या-तत्त्वस० का२२७१४एकत्वात् । ५-०कम् । श्रेयः-सा ।
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ अथ द्वितीयमाह्निकम् ॥ ६१. इहोद्दिष्ट प्रत्यक्षपरोक्षलक्षणे प्रमाणद्वये लक्षितं प्रत्यक्षम् । इदानीं परोक्षलक्षणमाह
अविशदः परोक्षम् ॥१॥ ६२. सामान्यलक्षणानुवादेन विशेषलक्षणविधानात् 'सम्यगर्थनिर्णयः' इत्यनुवर्तते । तेनाविशदः सम्यगर्थनिर्णयः परोक्षप्रमाणमिति ॥१॥ ६३. विभागमाह
स्मृतिप्रत्यभिज्ञानोहानुमानागमास्तद्विधयः ॥ २॥
४. 'तद्' इति परोक्षस्य परामर्शस्तेन परोक्षस्यैते प्रकारा न तु स्वतन्त्राणि प्रमागान्तराणि प्रक्रान्तप्रमाणसङ्ख्याविघातप्रसङ्गात् ।
५. ननु स्वतन्त्राण्येव स्मृत्यादीनि प्रमाणानि कि नोच्यन्ते ?, किमनेन द्रविड- 10 मण्डकभक्षणन्यायेन ? । मैवं बोचा, परोक्षलक्षणसङ्गृहीतानि परोक्षप्रमाणान्न विभेदवनिः यथैव हि प्रत्यक्षलक्षणसगृहीतानीन्द्रियज्ञान-मानस स्वसंवेदन-योगिज्ञानानि सौगतानां न प्रत्यक्षादतिरिच्यन्ते, तथैव हि परोक्षलक्षणाक्षिप्तानि स्मृत्यादीनि न मूलप्रमाणसङ्ख्यापरिपन्थीनीति । स्मृत्यादीनां पश्चाना द्वन्द्वः ॥२॥ ६६. तत्र स्मृति लक्षपति
15. वासनोद्बोधहेतुका तदित्याकारा स्मृतिः ॥३॥ ६७. 'वासना' संस्कारस्तस्याः 'उद्बोधः' प्रबोधस्तद्धेतुका तन्निबन्धना,
"कालमसंखं संखं च धारणा होइ नायव्या" विशेषा० गा० ३३३ ] इति वचनाचिरकालस्थायिन्यपि वासनाऽनुहुद्धा न स्मृतिहेतुः, आवरणक्षयोपशमसदृशदर्शनादिसामग्रीलब्धप्रबोधों तु स्मृति जनयतीति 'वासनोबोधहेतुका' इत्युक्तम् । 20 अस्या उल्लेखमाह 'तदित्याकारा' सामान्योक्तौ नपुंसकनिर्देशस्तेन स घटः, सा पटी, तत् कुण्डलैंमित्युल्लेखवंती मतिः स्मृतिः ।
६८. सा च प्रमाणम् अविसंवादित्वात् स्वयं निहितप्रत्युन्मार्गणादिव्यवहाराणां दर्शनात् । नन्वनुभूयमानस्य विषयस्याभावाभिरालम्बना स्मृतिः कथं प्रमाणम् । नैवम् , अनुभूतेनार्थेन सालम्बनत्वोपपत्तेः, अन्यथा प्रत्यक्षस्याप्यनुभूतार्थविषयत्वादप्रामाण्यं 25 प्रसज्येत । स्वविषयावभासनं स्मृतेरप्यविशिष्टम् । विनष्टो विषयः कथं स्मृतेर्जनकः ?, तथा
१ अत्र प्रथमं द्वितीय व सूत्रद्वयं ता.. प्रतौ भेदकहिटुं बिना सहैव लिखितं दृश्यते-सम्पा। २-०मिजोहा.-सं-मू० । ३ धारणा ४ स्मृतिजननाभिमुस्यम् । ५-०धा अनुस्मृ-सु-पा०। ६ अभ्यासदशापलायां गुणनादौ सहित्याकारामाचात् प्राधिकमिदम् । ७ कुपडमि०-३० । ८-०वत्ती स्म-डे । ९ अविसंवादित्वमस्या [अ] सिद्धमिति चेदित्याह । १० यधनुभूतेनार्थेन सालम्बनत्वेऽपि स्मृवेरप्रामाण्यमातिष्ठसे तदा प्रत्यक्षस्यापि किं नाप्रामाण्यं भवेदिति एकोद्देशेन तस्यापि निरालम्बनत्वात् । ११ अनुभूतविषय ।
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिता [अ० १, आ०२, सू० ४. चार्थाजन्यत्वान्न प्रामाण्यमस्या इति चेत् तत् किं प्रमाणान्तरेऽप्यर्थजन्यत्रमविसंवादहेतुरिति विपलब्धोऽसि ? । मैवं मुहः, यथैव हि प्रदीपः स्वसामग्रीवललब्धजन्मा घटादिमिरजनितोऽपि तान् प्रकाशयति तथैवावरणक्षयोपशमसव्यपेक्षेन्द्रियानिन्द्रियबललब्ध
जन्म संवेदनं विषयमवभासयति । "नाननुकृतान्वयव्यतिरेकै कारणम् नाकारणं 6 विषयः" इति तु प्रलापमात्रम् , योगिज्ञानम्यातीतानागतार्थगोचरस्य तदजन्यस्यापि प्रामाण्यं प्रति विप्रतिपत्तेरभावात् । किंच, स्मृतेरप्रामाण्येऽनुमानाय दत्तो जलाञ्जलिः, तया च्याप्तेरविषयीकरणे तदुत्थानागोगातः लिङ्गग्रहगा-सम्बन्धस्मरणपूर्वकमनुमानमिति हि सर्ववादिसिद्धम् । ततश्च स्मृतिः प्रमाणम् , अनुमानप्रामाण्यान्यथानुपपत्तेरिति'
सिद्धम् ।। ३ ॥ 10९. अथ प्रत्यभिज्ञानं लक्षयतिदर्शनस्मरणसम्भवं तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रति
योगीत्यादिसङ्कलनं प्रत्यभिज्ञानम् ॥४॥ १०. 'दर्शनम्' प्रत्यक्षम् , 'स्मरणम्' स्मृतिस्ताभ्यां सम्भयो यस्य तत्तथा दर्शनस्मरणकारणकं सङ्कलनाज्ञानं 'प्रत्यभिज्ञानम् । तस्योल्लेखमाह-'तदेवेदम्', सामान्यनिर्दे15 शेन नपुंसकत्वम् , स एवायं घटा, सैवेयं पटी, तदेवेदं कुण्डमिति । 'तत्सदृशः' गोस.
सुनो गवयः, 'तद्विलक्षण:' गोविलक्षणो महिषा, 'तत्प्रतियोगि' इदमस्मादल्पं महत् दूरमासन्नं वेत्यादि । 'आदि'ग्रहणात्
"रोमशो दन्तुरः श्यामो वामनः पृथुलोचनः। यस्तत्र चिपिटघाणस्त क्षेत्रमषधारयः ।।" [ न्यायम० पृ. १४३ ] “पयोम्बुभेदी हंसः स्यात्पदपाँधमरः स्मृतः। सप्तपर्णस्तु विद्भिर्विज्ञेयो विषमच्छदः ।। पञ्चवर्ण भवेत्ने मेचकारूयं पृथुस्तानी ।
युवतिकशृङ्गोऽपि गण्डकः परिकीर्तितः॥" इत्येवमादिशब्दश्रवणातथाविधानेव चैत्रहंसादीनक्लोक्य तर्था सत्यापयति यदा, तदा 25 तदपि संकलनाज्ञानमुक्तम् , दर्शनस्मरणसम्भवत्वाविशेषात् | यथा वा औदीच्येन क्रमेलक
१ अर्थजन्यत्वात् ज्ञानस्य प्रामाण्याभ्युपगमे मरुमरीचिकादी अलझानमप्यर्थजन्यत्वात् प्रमाणं स्यात्। अथ प्रतिमासमानार्थजन्य प्रमाण मिष्यते तदानुमान न स्यात् प्रमाणम् । अनुमान अनर्थसामान्य प्रतिमासि, न च वेन जन्यम् , भवन्मते सामान्यस्यावस्तुत्वात् । यत् प्रमाणं तदनर्थजन्य तदर्थज)मेवेति अतिव्याप्ति ( वेति ध्यातिरपि बुधा स्वसंवेदनप्रत्यक्षेण व्यभिचारात् तद्धि स्वात्मविषयं न च लेन जन्यम् । २ च्यातेरग्रहणेऽग्रहण स्वप्रमाणत्वात्। ३रिति ।। अथ मु.पा । ४ चियस्ताभ्यामपि यथेदमस्माणिमित्यादि प्रत्यमिज्ञानं दर्शनादेव स्मरणरहितात् । तस्मात् भिन्नमित्यादिकं केवलादेव स्मरणात् प्रत्यभिज्ञानम्। ५मशेयेन गृहस्थितेन गवा सदशोऽयं गषय इत्यादिकम् अत्र टिपणकारेण उभयकारणकत्वं उदाइतम्-सम्पा-] । ६ एकत्वसाद श्यवसायाविनायवदनं सङ्कलना । ७ - पदै-मु । ८ तथा वव सस्याडे । ९ संकलनमुदे । १. अत्र उदीरयेन इति सुचारु ।
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
Filionetiamisamana.JIM
३५
16
प्रत्यभिनाया निरूपणम् । ] प्रमाणमीमांसा । निन्दतोक्तम् 'धिकरभमतिदीर्घवानी' प्रलम्बोष्ठ कठोरतीक्ष्णकण्टकाशिनं कुत्सिताक्यक्सनिवेशमशदं पशूनाम् इति । तदुपश्चत्य दाक्षिणात्य उत्तरापथं गतस्तादृशं वस्तूपलम्य 'नूनमयमर्थोऽस्य करभशब्दस्य इति [ यंदवैति ] तदपि दर्शनस्मरणकारणकत्वात् सङ्कलनाज्ञानं प्रत्यमिक्षानम् ।
5 ११. येषां तु सादृश्यविषयमुपमानाख्यं प्रमाणान्तरं तेषां बैलक्षण्यादिविषयं 5 प्रमाणान्तरमनुषज्येत । यदाहुँः
"उपमानं प्रसिद्धार्थसाधम्यात् साध्यसाधनम् ।
तदेवम्योत प्रमाणं किं स्यात् संज्ञिप्रतिपादनम् ॥" कधीय. ३...] "इदमरूपं महद् दूरमासनं मांशु नेति चा।। रुयापनाता सोणे शिकल्पासाधनान्तरम् ।।" [लधीय ० ३. १२] इति। 10
१२. अथ साधर्म्यमुपलक्षणं योगविभागो वा करिष्यत इति चेत् । ती कुशलः सूत्रकारः स्यात् , सूत्रस्य लक्षणरहितत्वात् । यदाहुः--
"अल्पाक्षरमसन्दिग्धं सारयविश्वतोमुखम् ।
अस्तोभमनवयं च मूत्रं मूत्रविदो विदुः ॥" अस्तोभमनधिकम् ।
१३. ननु 'तत्' इति स्मरणम् इदम्' इति प्रत्यक्षमिति ज्ञानद्वयमेव, न ताम्यामन्यत् प्रत्यभिज्ञानाख्यं प्रमाणमुत्पश्यामः । नैतधुक्तम् , स्मरणप्रत्यक्षाभ्यां प्रत्यभिज्ञाविषयस्यार्थस्य ग्रहीतुमशक्यत्वात् । पूर्वापराकारकधुरीणं हि द्रव्यं प्रत्यभिज्ञानस्य विषयः। न च तत् स्मरणस्य गोचरस्तस्यानुभृतविषयत्वात् । यदोहे:
"पूर्वममितमात्रे हि जायते स इति स्मृतिः।
स एवायमितीयं तु प्रत्यभिज्ञाप्रतिरेकिणी ।" [ तस्वसं० का• ४५३ ] नापि प्रत्यक्षस्य गोचरः, तस्य वर्तमानविर्वतमात्रवृतित्त्वात् । न च दर्शनस्मरणाभ्यामन्य ज्ञानं नास्ति, दर्शनस्मरणोचरकालभाविनी ज्ञानान्तरस्यानुभूतेः । न चानुभूयमानस्यापलापो युक्तः अतिप्रसङ्गाद ।।
१४. ननु प्रत्यक्षमेवेदं प्रत्यभिज्ञानम् इत्येके । नैवम् , तस्य सभिहितवार्तमा- 25 निकार्थविषयत्वात् ।
"सम्बद्धं वर्तमानं च गृह्यते चतरादिना" [ श्लोकमा सूत्र ४ श्लो० ८४ ] इति मा स्म विस्मरः । ततो नातीतवर्तमानयोरेकत्वमध्यक्षज्ञानगोचरः। अथ स्मरणसह
१-०प्रीयप्रता० । २- मक्सद -मु० -०मपशब्द-है. । ३ निकृष्टम् । ४ तात्पर्य पृ. १९८ ॥ ५ बदाह-ता । ६ साहश्यसाधनम् । ७ दी। , अपेक्षका अल्पमहदादिव्यापाराः । ९ अक्षनिरपेक्षं मानस हानं विकल्पः । १० प्रमाणान्तरं नाति। ११ उपमान मिति सूत्रावयवयोगः । १२ उपमानं द्विधा साधर्म्यतो धर्म्यतश्चेति विभाग: 1 १३ पूरणार्थवादिनिपातरहितमस्तीभम् । २४ तदेवेदमिपत्रैकत्वं विषयः, गोसहशो गवय इत्मत्र तु साहश्यम् । १५ बदाइ-ता।१६ पूर्ववतमा--पा १७ पूर्षअमितमात्रादधिका। १८-स्प तस्य विना-डे । १९ तस्येति प्रत्यक्षस्य । २० विवतः परिणामः पर्यायः इति यावत् । ११-०मन्यवाडे । २२ वैशेषिकादयः । चहरादीन्द्रियसम्बन्धि २४ सहायम् ।
20
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिता [१०१, आव २, सू०५. कृतमिन्द्रियं तदेकत्वविषयं प्रत्यक्षमुपजनयतीति प्रत्यक्षरूपतास्य गीयत इति चेत् । न, स्वविषयविनियमितमूर्तेरिन्द्रियस्य विषयान्तरे सहकारिशतसमवधानेऽप्यप्रवृत्त । नहि परिमलस्मरणसहायमपि चक्षुरिन्द्रियमविषये गन्धादौ प्रवर्षते । अविषयातीववर्तमानावस्थाव्याप्येकं द्रव्यमिन्द्रियाणाम् । नाप्यदृष्टसहकारिसहितमिन्द्रियमेकत्वविषयमिति 5 वक्तुं युक्तम् उक्तादेव हेतोः । किंच, अदृष्टसव्यपेशादेवात्मनस्तविज्ञानं भवतीति वरं वक्तुं युक्तम् । दृश्यते हि स्वमविद्योदिसंस्कृतादात्मनो विषयान्तरेऽपि विशिष्टज्ञानोत्पतिः । ननु यथाञ्जनादिसंस्कृतं चक्षुः सातिशयं भवति तथा स्मरणसहकृतमेकत्वाविषयं मषिष्यति । नैवम् , इन्द्रियस्य स्वविषयानतिलब्धनेनैवातिशयोपलब्धेः, न विषयान्तरग्रहण
रूपेण । यदाह भट्टा10 "यश्चाप्पतिशमोनाहास मानातिनायनात् ।
दूरसूक्ष्मादिष्टौ स्थात् न रूपे श्रोत्रंसितः॥ [ श्लोकभा० सूत्र २ को० ११४] इति । तत् स्थितमेतत् विषयभेदात्प्रत्यक्षादम्यत्परोक्षान्तर्गतं प्रत्यभिज्ञानमिति ।
६१५. न चैतदप्रमाणम् विसंवादाभावात् । कचिद्विसंवादादप्रामाण्ये प्रत्यक्षस्यापि तथा प्रसङ्गो दुर्निवारः । प्रत्यभिज्ञानपरिच्छिन्नस्य चात्मादीनामेकत्वस्यामाचे पन्धमो16 श्रन्यवस्था नोपपद्यते । एकस्यैव हि बद्धत्वे भुक्तं वे च बद्धो दुःखितमात्मानं जानन्
मुक्तिसुखार्थी प्रयतेत । भेदे त्वन्य एव दुःख्यन्य एव सुखीति का किमर्थ वा प्रयतेत । तस्मात्सकलस्य दृष्टादृष्टव्यवहारस्यैकत्वमूलत्वादेकत्वस्य च प्रत्यभिज्ञायचजीवितत्याङ्गवति प्रत्यभिज्ञा प्रमाणमिति ॥ ४ ॥
१६. अथोहस्य लक्षणमाह20 उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानम् ऊहः ॥ ५॥
१७. 'उपलम्भ।' प्रमाणमात्रमत्र गृह्यते न प्रत्यक्षमेव अनुमेयस्थापि साधनस्य सम्भवात् , प्रत्यक्षवदनुमेयेष्वपि व्याप्तेरविरोधात् । 'व्याप्तिः' वक्ष्यमाणा तस्या 'ज्ञानम् तद्ग्राही निर्णयविशेष 'ऊहः'।
६१८.न चायं व्याप्तिग्रहः प्रत्यक्षादेवेति वक्तव्यम् । नहि प्रत्यक्षं यावान् कश्चिद् 25 धूमः स देशान्तरे कालान्तरे वा पावकस्यैव कार्य नार्थान्तरस्येतीयतो व्यापारान् कर्तुं समर्थ सन्निहितविषयबलोत्पत्तेरविचारकत्वाच ।
१९. नाप्यनुमानात् , तस्यापि व्याप्तिग्रहणकाले योगीव प्रमाता सम्पद्यत इत्ये१ स्थविषयमार्तभानिकरूपादौ । २ विषयान्तरे गन्धादौ । ३ अदृष्टं भाग्यं कर्मेत्यर्थः । ४ विषयान्तराप्रतिपादेतोः । ५-यासं०-हे.। ६ महि संस्कृतमपि चक्षुर्गन्धादिग्रहणे शतम् । स्वविषय ।
दूरसूक्ष्मादिदर्शनेन चक्षुषोऽतिशयो भवति, न अवणस्थ, रूपविषयेष्वापारात्। नहि रुये श्रौत्री वृति: संकामति। १० विषयभेदादित्ययं हेतुः । ११ यथा स एवं निग्रो अक्ष्यते (१) । १२ स एवायमिति । १३- स्वे सति च-डे । १४.स्य इनभ्य-डे । १५ शब्दानित्यत्वे साध्ये कृतकत्वं हि साधनम् प्रत्ययभेदवित्वेनानुमेयम् । १६ बाष्पादिभावेन सन्दिरामाने धूमेऽग्नेरनुमेयस्यापि साधनस्त्वं यक्ष्यते।
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
ऊहस्य निरूपणम् । ]
प्रमाणमीमांसा |
३७
वंभूतभारासमर्थत्वात् । सामयैऽपि प्रकृतमेवानुमानं व्याप्तिग्राहकम्, अनुमानान्तरं वा १ | सत्र प्रकृतानुमानात् व्याप्तिप्रतिपत्तावितरेतराश्रयः । व्याप्तौ हि प्रतिपनायामनुमानमात्मानमासादयति, तदात्मलाभे च व्याप्तिप्रतिपत्तिरिति । अनुमानान्तरातु व्याप्तिप्रतिपत्तावनवस्था तस्यापि गृहीतव्याप्तिकस्यैव प्रकृतानुमानव्याप्तिग्राहकत्वात् । तथ्याप्तिग्रहश्थ यदि स्त्रत एव तदा पूर्वेण किमपरा देनानुमान पते । मारेण चैद: 5 तर्हि युगसहस्रेष्वपि व्याप्तिग्रहणासम्भवः ।
२०. नतु यदि निर्विकल्पकं प्रत्यक्षमविचारकम् तर्हि तत्पृष्टभावी विकल्पो व्याप्तिं ग्रहीष्यतीति चेत्; नैतत् निर्विकल्पकेन व्याप्तेरग्रहणे विकल्पेन ग्रहीतुमशक्यत्वात् निर्विकल्पक गृहीतार्थविषयत्वाद्विकल्पस्य | अथ निर्विकल्पक विषयनिरपेक्षोऽर्थान्तर गोचरो विकल्पः स तर्हि प्रमाणमप्रमाणं वा ? | प्रमाणत्वे प्रत्यक्षानुमानातिरिक्तं प्रमाणान्तरं 10 तितिक्षितव्यम् । अप्रामाण्ये तु ततो व्याप्तिग्रहणश्रद्धा षण्ढाचनयदोहदः । एतेनै- "अनु लम्भात् कारणध्यापकानुपलम्भाष कार्यकारणव्याप्यव्यापकभावावगमः" इति प्रत्युक्तम्, अनुपलम्भस्य प्रत्यक्षविशेषत्वेन कारणव्यावकानुपलम्भयोव लिङ्गत्वेन तर्जनितस्य तस्यानुमानत्वात्, प्रत्यक्षानुमानाभ्यां च व्याप्तिग्रहणे दोषस्याभिहितत्वात् ।
$ २१. वैशेषिकास्तु प्रत्यक्षकले नोहापोहविकल्पज्ञानेन व्याप्तिप्रतिपत्तिरित्याहुः । 15 तेषामप्यध्यक्ष कलस्य प्रत्यक्षानुमानयोरन्यतरत्वे व्याप्तेरविषयीकरणम्, तदन्यत्वे व प्रमाणान्तरत्वप्रसक्तिः । अथ व्याप्तिविकल्पस्य फलत्वाम प्रमाणत्वमनुयोक्तुं युक्तम् : न, एतत्फलस्यानुमानलक्षणफलहेतुतया प्रमाणत्वाविरोधात् सन्निकर्षफलस्य विशेषणज्ञानस्येव विशेष्यज्ञानापेक्षयेति ।
६ २२. योगास्तु तर्कसहितात् प्रत्यक्षादेव व्याप्तिग्रह इत्याहुः । तेषामपि यदि 20 न केवलात् प्रत्यक्षाव्याप्तिग्रहः किन्तु तर्कसहकृतात् तर्हि तर्कादेष व्याप्तिग्रहोऽस्तु । किमस्य तपस्विनी यशोमार्जनेन, प्रत्यक्षस्य वा तर्कप्रसादलब्धव्याप्तिग्रहापलापकृतघ्नत्वारोपेणेति । । अथ तर्कः प्रमाणं न भवतीति न ततो व्याप्तिग्रहणमिध्यते । कुतः पुनरस्य न प्रमाणत्वम्, अव्यभिचारस्तावदिहापि प्रमाणान्तरसाधारणोऽस्त्येव ? | व्याप्तिलक्षणेन विषयेण विष
१० श्रयम् - ०२-०२षे न प्रत्य० दे० । ३ एतेनानुपलम्भात् कार्य० - डे० । ४ (१) न उपलम्भात् प्रत्यक्षात् । नानुमानात् । नात्र धूमोऽग्नेरभावादित्यनुपलम्भः ॥१॥ नात्र शिशपा वृक्षाभावात् ॥२॥ " धूमाधी [:] afgfenri धूमशानमधीस्तयोः । प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यामिति पञ्चभिरन्यः ॥" ५ (१) नास्त्यत्र
अनुपलम्भात् सत्रत्यक्षानुपलम्भादित्यर्थः स्त्रभावानुपलम्भो हि धूमाधीरित्युलेखलक्षणः कार्यकारणव्याग्यserenitararaarपर्ति ततस्तस्मादपि भवति स बौद्धमते । ६ (?) कार्यकारणस्थावगमो व्यापकानुपलम्भ ट्र्याप्यव्यापकत्वस्यानुपलम्भात् तुभयस्य किन्तु सोप्यूहादेवेति । ७ निराकृतम् । अनुमानत्वेन । ९ यद्धि लिनाजायते ज्ञानं तदनुमानमेव । १० प्रत्यक्षस्य हि फलं प्रत्यक्षमनुमानं वा । तत्र प्रत्यक्ष घटोऽयमिति अनुमानं तु अभिरत्र धूमादिति । ११ अग्रहणमित्युक्तयुक्तेः । १२ प्रत्यक्षफलत्वेनेति हि उक्तम् । १३ फलस्याप्यनु०- मुन्या० । १४ सामान्यज्ञान विशेषज्ञानम् (1) । १५. विशेष्यज्ञानं विशेषणज्ञानं प्रमाणम् (!) | १६ व्याप्यभ्युपगमे व्यापकप्रसञ्जने तर्कः । १७ "व्यापकं तदतन्निष्टं व्याप्यं तन्निष्ठमेव च । सायं व्यापकमित्याहुः साधनं व्याप्यमुच्यते ॥" " प्रयोगेऽस्वयवस्येवं व्यतिरेके विपयँया ।" १८ स्वेद-० । १९ प्रमेयाधीना प्रमाणव्यवस्था ।
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिता [अ० १, आ.२, सू०६--९. यवत्वमपि न नास्ति। तस्मात् प्रमाणान्तरागृहीतव्याप्तिग्रहणप्रवणः प्रमाणान्तरम्हः ॥५॥ ६ २३, व्याप्ति लक्षयतिव्याप्तिकला मारे सति भाव एवं व्याप्यस्य
वा तत्रैव भावः ॥ ६॥ 5 २४. 'व्याप्तिः' इति यो व्यामोति यश्च व्याप्यते तयोरुभयोधर्मः । तत्र यदा व्यापक
धैर्मतया विवक्ष्यते तदा 'व्यापकस्ये गम्यस्य 'व्याय' धर्मे 'सति', यत्र धर्मिणि व्यायमस्ति तत्र सर्वत्र 'भाव एवं व्यापकस्य स्वगतो धर्मो व्याप्तिः । ततश्च व्याप्यभावापेक्षा व्याप्यस्यैवं व्याप्तताप्रतीतिः । नत्वेवमवधार्यते-व्यापकस्यैव व्याप्ये सति भाव इति, हेत्व
भावप्रसङ्गात् अव्यापकस्यापि मूर्तत्वादेस्तत्र भावात् । नापि-व्याप्ये सत्येवेत्ययधार्यते, 10 प्रयत्नानन्तरीयकत्वादेरहेतुत्वापत्तेः, साधारणश्च हेतुः स्यान्नित्यत्वस्य प्रमेयेष्वेव भावात् ।
२५. यदा तुव्याप्यधर्मतया व्याप्तिर्विवक्ष्यते तदा 'व्याप्यस्य या' गमकस्य 'तत्रैव' व्यापके गम्ये सति यत्र धर्मिणि व्यापकोऽस्ति तत्रैव 'भावः' न तदभावेऽपि व्याप्तिरिति । अत्रापि नैवमवधार्यते-व्याप्यस्यैव तत्र मात्र इति, हेत्वभावमसङ्गादव्याप्यस्यापि तंत्र
भावात् । नापि-व्याप्यस्य तंत्र भाव एवेति, सपक्षकदेशवृत्तेरहेतुत्वप्राः साधारणस्य च 16 हेतुत्वं स्यात्, प्रमेयत्वस्य नित्येष्यवश्यंभावादिति ।
६२६. व्याप्यव्यापकर्मतासङ्कीर्तनं तु व्याप्तेरुभयत्र तुल्यधर्मतयैकाकारा प्रतीतिर्मा भूदिति प्रदर्शनार्थम् । तथाहि-पूर्वत्रीयोगव्यवच्छेदेनावधारणम् उत्तरत्रान्ययोगव्यवच्छेदेनेति कुत उभयत्रैकाकारता व्याप्लेः ? । तदुक्तम्
"लिले लिङ्गी भवत्येव लिङ्गिन्येवेतरत् पुनः । 20
नियमस्य विपर्यासेऽसम्पन्धो लिङ्गालिङ्गिनी।" इति ॥ ६ ॥ ६ २७. अथ क्रमप्राप्तमनुमान लक्षयति
साधनात्साध्यविज्ञानम् अनुमानम् ॥७॥
१ अग्न्यादिः । २ धूमादिः । ३ पर्यतः (१)। ४ अग्नितया । ५ अग्निरूपस्य साध्यस्म । ६ धूमे । ७ पर्दतादौ । धूमः । ९ ननु ब्यास्मयधर्माविशेथे कथं व्याप्तताप्रतीतिः हेतोरेव, न.व्यापकस्यापि, हेतोरेव हि ब्याप्ततां स्मरन्ति तथा चाहु:-"ध्यातो हेतुनिधैव सा" [हेतु, 1] इत्याशडक्याह---ततश्चेति। १.-पेक्षया ३० । ११ व्याप्यस्यैव प्रतीति:-ता० । १२-०स्यैव भ्याप्यताप्रतीति: मु.। १३ च्याप केन साध्य येन की स्थाप्यमावो व्याप्यवं हेलोस्तदा (दोपेक्षते ध्याप्तताप्रतीतिः । २५ अपनेतुत्वं स्यात् ()। १५ [अव्यापकस्यापि हेतोसत्वादेस्तत्र पर्वते भावात् । १६ कृतकत्वादेः अप हि त्याप्यस्य सत्यमेव नास्ति विद्युदादिमा भ्यभिचारात् । विद्युदादो व्यापकत्वम( कम )नित्यस्त्र प्रयत्नानन्तरीयकलादिविनायस्ति इति । १७ साधारण हेत्वाभासोऽसम्यग् हेतुः स्यादिति । १८पर्वतादो। १९ व्याप्यस्य धूमस्य हेतुन स्थात् 1 व्याप्ती सत्यां हेतुभाषः । व्याप्तिस्वीहशी कुत्रापि नास्ति । २०व्यापकस्यापि बस्तत्र पर्वते भावात् । २१ यत्र भ्याएकोऽस्ति सत्र २२ उभयति साध्ये साधने च। २३ भाव एव । २४ व्यापकर्मवे । २५ लिङ्ग एवं लिङ्गी लिहिनि सति इतरद्भवत्येवेति विपर्यास: 1
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
लालिमा
PARATEST
Hasina
स्वार्थानुमानस्य निरूपणम् । ] प्रमाणमीमांसा ।
२८. साधनं साध्यं च वक्ष्यमाणलक्षणम् । दृष्टादुपदिष्टाद्वा 'साधनात् यत् ‘साध्यस्था 'विज्ञानम् सम्यगर्थनिर्णयात्मकं तदनुमीयतेऽनेनेति 'अनुमानम्' लिङ्गग्रहणसम्पन्धस्मरणयोः पश्चात् परिच्छेदनम् ॥ ७॥
तत् द्विधा स्वार्थ परार्थं च ॥ ८॥ २९. 'तत् अनुमानं द्विप्रकार स्वार्थ-परार्थभेदात् । स्वव्यामोहनिवर्तनक्षमम् 5 स्वार्थम् । परल्यामोहनिवर्तनक्षमम् 'परार्थम् ॥ ८॥ ६३०. मन सार्थ लमयति-- स्वार्थ स्त्रनिश्चितसाध्याविनाभावैकलक्षणात् साध
नात् साध्यज्ञानम् ॥ ९ ॥ ६३१. साध्यं विनाऽभवनं साध्याविनाभावः स्वेनात्मना निश्चितः साध्याविना- 10 भावें एवैकं लक्षणं यस्य तत् 'स्वनिश्चितसाध्याविनामावैकलक्षणम् तस्मात्तथाविधात् 'साधना' लिङ्गात् ‘साध्यस्य' लिङ्गिनो 'शानम' 'स्वार्थम्' अनुमानम् । इह च न योग्यतया लिङ्गं परोक्षार्थप्रतिपत्तेरङ्गम् , यथा बीजमश्रस्य, अंदृष्टाद् धूमादोरप्रतिपत्तः, नापि स्व- . निव(स्वविष)यज्ञानापेक्षं यथा प्रदीपो घटादेः, दृष्टादप्यनिश्चिताविनाभावादप्रतिपत्तेः । तस्मात्परोक्षार्थनान्तरीयकतया निश्चयनमेव लिङ्गस्य व्यापार इति निश्चित ग्रहणम् । 15
३२. ननु चासिद्धविरुद्धानकान्तिकहेत्वाभासनिराकरणार्थ हेतोः पक्षधर्मत्वम् , सपक्षे सच्चम् , विपक्षाद् व्यावृत्तिरिति त्रैलक्षण्यमाचक्षते भिक्षवः । तथाहि अनुमेये धर्मिणि लिङ्गस्य सचमेव निश्चितमित्येक रूपम् । अत्र सत्ववचनेनासिद्धं चाक्षुषत्वादि निरस्तम् । एवकारेण पक्षकदेशासिद्धो निरस्तो यथा अनित्यानि पृथिव्यादीनि भृतानि गन्धवत्वात् । अत्र पक्षीकृतेषु पृथिव्यादिषु चतुर्षु भूतेषु पृथिव्यामेव गन्धवचम् | सत्त्ववचनस्य पथा- 20 स्कृतेनैवकारेणासाधारणो धर्मो निरस्तः । यदि यनुमेय एव सत्वमित्युच्येत श्रावणत्वमेव हेतुः स्यात् । निश्रितग्रहणेन सन्दिग्धासिद्धः सर्को निरस्तः । सपक्षे एव सत्त्वं निश्चितमिति द्वितीयं रूपम् । इहापि सत्वग्रहणेन विरुद्धो निरस्तः। स हि नास्ति सपक्षे। एक्कारेण साधारणानकान्ति, स हि न सपशे एव वर्तते किं तु विपक्षेपि । सश्वग्रहणात् पूर्वमवधारणकरणेन सपक्षाव्यापिनोऽपि प्रयत्नानन्तरीयकत्वादेहेतुत्वमुक्तम्, पश्चादवधारणे 25
दृष्टिपथमागतात् । २ परार्थानुमाने कथितात् । ३ अनेन अतः पश्चादर्थता । ४ स्वस्मायिद खार्य येन स्वयं प्रतिपयते । ५ परस्माथिदं परार्थ येन परः प्रतिपद्यते। -श्चितं सा०-१०। ७-भाक-से -अग्निहानं प्रति धमस्य योग्यता शरतविशेषोऽमस्येत पर रोहि धमो धूमव गमयति नादृष्ट्र इति । ९ एतेन धूमो धूमवश्वेन निश्चिताविनाभावस्य गमको नान्यथा इत्यावेदितम् । १० यथाऽनिल्यः शब्दः बाहुषस्थात् घटवदित्यत्र शन्दे चाक्षुषत्वमसिद्धम् । ११ सश्वपदाऽयतः । १२-श्रावणमेव-डे.। १३ ययाऽनिस्यः शब्दः श्रावणालादित्यनित्यत्वे साध्ये श्रावणतमेव हेतुपटे व्यभित्ररतीति । १४ धूमो बायो वा इति सन्देहे धूमादेम्निसाधनम् । १५ मनेन सत्ववचनेन साधारणोऽपि निरस्यते । १६ निरस्त इति संबन्धः । १७ यथा अनित्यः शन्दः प्रयत्नानन्तरीयकवात् घटवत् । अटे प्रयवानन्तरीयकत्वं विद्यते, ने विद्युति परम् , तथापि प्रयत्नानन्तरीयकत्वस्य हेतुत्वं सपक्षकदेशत्वात् ।
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०
आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचिता [अ०१, ०२, सू० ९-१३.
हि अयमर्थः स्यात् सपक्षे सश्वमेव यस्य स हेतुरिति प्रयत्नानन्तरीयकत्वं न हेतुः स्यात् । निश्चितवचनेन सन्दिग्धान्योऽनैकान्तिको निरस्तः यथा सर्वज्ञेः कश्विद्वत्कृत्वात्, वक्तृत्वं हि सपक्षे सर्वज्ञे सन्दिग्धम् । विपक्षे त्वत्वमेव निश्चितमिति तृतीयं रूपम् । तत्रासवग्रहणेन विरुद्वस्य निरासः । विरुद्धो हि विपक्षेऽस्ति । एवकारेण साधारणस्य विपक5 देशवृत्तेर्निरासः, प्रयत्नानन्तरीयकत्वे हि साध्येऽनित्यत्वं विपक्षैकदेशे विद्युदादावस्ति, आकाशादौ नास्ति । ततो नियमेनास्य निरासोऽसच्चशब्दात् । पूर्वस्मिन्नवधारणे हि अयमर्थः स्यात् विपक्ष एव यो नास्ति स हेतुः तथा च प्रयत्नानन्तरीयकत्वं सपक्षेऽपि नास्ति ततो न हेतुः स्यात्ततः पूर्व न कृतम् । निश्चितग्रहणेन सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिको ऽनैकान्तिको निरस्तः । तदेवं वैरूप्यमेव हेतोरसिद्धादिदोषपरिहारक्षममिति तदेवाभ्युपगन्तुं 10 युक्तमिति किमेकलक्षणकत्वेनेति ? |
६ ३३. तदयुक्तम्, अविनाभावनियमनिश्चयादेव दोषत्रयपरिहारोपपत्तेः । अविनाभावो वन्यथानुपपन्नत्वम् । तचासिद्धस्य विरुद्धस्य व्यभिचारिणो वा न सम्भवति । त्रैरूपये तु सत्यप्यविनाभावाभावे हेतोरगमकत्वदर्शनात्, यथा स श्यामो मैत्रतनयत्वात् इतर मैत्रपुत्रवदित्यत्र । अथ विवचानियमवती व्यावृत्तिस्तत्र न दृश्यते ततो न गम15 कत्वम् तर्हि तस्या एवाविना भावरूपत्वादितररूपसद्भावेऽपि तदभावे हेतोः स्वसाध्यसिद्धिं प्रति गमकत्वानिष्ट सेव प्रधानं लक्षणमस्तु । तत्सद्भावेऽपररूपद्वयनिरपेक्षतया Treatures, यथा सन्त्यद्वैतवादिनोऽपि प्रमाणानि इष्टानिष्टसार्धेन दूषणान्यथानुपपपतेः । न चात्र पक्षधर्मत्वं सपक्षे सत्यं चास्ति, केवलमविनाभावमात्रेण गमकत्वोपपतिः । ननु पचधर्मताऽभावे श्वेतः प्रासादः काकस्य कार्य्यादित्यादयोऽपि हेतवः 20 प्रसज्येरन् नैवम्, अविनाभावबलेनैवापक्षधर्माणामपि गमकत्वाभ्युपगमात् । न चेह सोऽस्ति । ततोऽविनाभाव एव हेतोः प्रधानं लक्षणमभ्युपगन्तव्यम् सति तस्मिमसत्यपि त्रैलक्षण्ये हेतोर्गमकत्वदर्शनात् । न तु त्रैरूप्यं हेतुलक्षणम् अव्यापकत्वात् । तथा च सर्व क्षणिकं सत्वादित्यत्र मूर्द्धाभिषिक्ते साधने सौगतैः सपक्षेऽसतोऽपि हेतोः सध्वस्य गमकत्वमिष्यत एव । तदुक्तम्
,
66
25
"अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र प्रयेण किम् ? | नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र प्रयेष किम् १ ।। " इति ।
१ सप दर्शनमन्वयः । २ मीमांसकं प्र जैनो । ३ सर्वस्य सर्वस्य सपक्षत्वात् । ४ अनित्यो घटः कृतकत्वात् शब्दवत् । कृतकत्वं शब्देऽस्ति नाकाशादौ ५ यथा प्रथानन्तरीयकः शब्दो अनित्यत्वात् घटवत् । ६ क्षे त्वस्ति एव । ७ यथा असर्वज्ञोऽयं वक्तृत्वात् । = अनैकान्तिकस्य । ९ पूर्वस्मिनुमाने । १० पक्षधर्म पक्ष सवलक्षणं रूपद्वयं । ११ विपक्षा नियमावत्या व्यावृत्तेरभावे । १२ विपक्षानियमवत्या व्या से: । १३ शून्याद्वैतवादिनः । १४ तन्मवे प्रमाणलक्षणः पक्षोऽपि नास्ति कुतः पक्षश्रता । १५०पपते:मु-पा० । १६ स श्यामो मैत्रातनयत्वादित्यादौ ।
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
A
minormer
गा
monetary
RRORRRRRR
10
अविनामावस्य निरूपणम् । ] प्रमाणमीमांसा।
३४. एतेन पञ्चलक्षणकत्वमपि नैयायिकोक्तं प्रत्युक्तम् , तस्याप्यविनाभावप्रपञ्चत्वात् । तथाहि-त्रैरूप्यं पूर्वोक्तम् , अनाधितविषयत्वम् , असत्प्रतिपक्षत्वं चेति पञ्च रूपाणि । तत्र प्रत्यक्षागमवाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वं बाधितविषयत्वं यथाऽनुष्णस्तेजोवयवी कृतकत्वात् घटवत् । बामणेन सुरा पेया द्रिय द्रव्यत्वात् क्षीरवत् इति । तभिषेधादबाधितविषयत्वम् । प्रतिपक्षहेतुबाधितत्वं सत्प्रतिपक्षत्वं यथानित्यः शब्दो नित्यधर्मानुपलब्धेः । । अत्र प्रतिपक्षहेतुः-नित्यः शब्दोऽनित्यधर्मानुपलब्धेरिति । तनिषेधादसत्प्रतिपक्षत्वम् । तत्र याधितविषयस्य सत्प्रतिपक्षस्य चाविनाभावाभावादविनाभावेनैव रूपद्वयमपि सङ्ग्रहीतम् । यदाह-"वाधाविनाभाषयोर्विरोधात्" [ हेतु परि० ४] इति । अपि च, स्वलक्षणलक्षितपक्षविषयत्वाभावात् तदोषेणैव दोषद्वयमिदं चरितार्थ किं पुनर्वचनेन । तत् स्थितमेतत् साध्याविनाभौवकलक्षणादिति ।। ९ ।। ६ ३५. तत्राविनाभावं लक्षयति--
सहक्रमभाविनोः सहक्रमभावनियमोऽविनाभावः ॥१०॥ ६ ३६. “सहभाविनोसामध्यधामयोः फलादिमतयो रूपरसयोः व्याप्यव्यापकयोग शिंशपात्ववृक्षत्वयोः, 'क्रमभाविनो' कृत्तिकोदयशकटोदययोः, कार्यकारणयोश्च धूमधूमध्वजयोर्यथासङ्घयं यः 'सहक्रममावनियम:'-सहभाविनोः सहभावनियमः क्रममा- 15 विनोः क्रममावनियमः, साध्यसाधनयोरिति प्रकरणालभ्यते सः 'अविनाभावः ॥१०॥
३७. अथैवविधोऽविनाभावो निश्वितः साध्यन्नतिपत्यङ्गमित्युक्तम् । समिश्वयश्च कुतः प्रमाणात् १ । न तावत् प्रत्यक्षात् , तस्यैन्द्रियकस्य सन्निहितविषयविनियमितव्यापारत्वात् । मनस्तु यद्यपि सर्व विषयं तथोपीन्द्रियगृहीतार्थगोचरत्वेनैव तस्य प्रवृत्तिः। अन्यथान्ध-बधिरार्धभावप्रसङ्गः । सर्वविषयता तु सकलेन्द्रियगोचरार्थविषयत्वेनैवोच्यते 20 न स्वातन्त्र्येण । योगिप्रत्यक्षेण त्वविनाभावग्रहणेऽनुमेयार्थप्रतियत्तिरेव ततोऽस्तु, किं तपस्विनाऽनुमानेन ? | अनुमानात्वविनाभावनिश्चयेऽनैवस्थेतरेतराश्रयदोषप्रसङ्ग उक्त एव । न च प्रमाणान्तरमेव विधविषयग्रहणप्रवणमस्तीत्याह
ऊहात् तन्निश्चयः ॥ ११ ॥ ३८. 'ऊहात्'तर्कादुक्तलक्षणात्तस्याविनाभावस्य 'निश्चयः ॥ ११ ॥ ३९. लक्षितं परीक्षितं च साधनम् । इदानीं तत् विभजति--
१ साथ्यमनुमेयमिति यावत् । २-तधर्म-डे । ३ तात्य • पृ. ३४०.। ४-स्य तत्प्रा-डे । ५ यदाहुः ता०। ६ पक्षदोषावेवैती। साभ्यसाधनयोः । ८ खनिश्चित इत्यनेन निश्चितः सन् । ९ प्रत्यक्षप्राधबायार्थापेक्षया सुखादश्च एक्सेव गृहाति । १० मनसव सर्वेन्द्रियार्थग्रहणात् । ११ अग्न्यादि । १२. पतिरपि ततो-डे । १३ अनुमानतो त्यविनामावनिश्चये तस्याप्यनुमानस्याविनाभावनिश्वये कमनुमानासरं चिन्त्यम्(1)। स्थापि अन्यदित्याद्यनवस्था । इतरेतराधयस्तु अनुमानादविनाभावनिश्चयो अविनाभाचे व निश्चिते अनुमानोत्थानमिति ।
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिता [अ० १, आ.२, सू० १२. स्वमायः कारण कार्यालमापि विरोधि
चेति पञ्चधा साधनम् ॥ १२ ॥ ४०. स्वभावादीनि चत्वारि विधेः साधनानि, विरोधि तु निषेधस्येति पश्चविधम् 'साधनम् । 'स्वभावः' यथा शब्दानित्यत्वे साध्ये कृतकत्वं श्रावणत्वं वा। 5 ६४१. ननु श्रावणत्वस्यासाधारणत्वात् कथं व्याप्तिसिद्धिः १ । विपर्यये बाधक
प्रमाणवलात् सवस्येवेति ब्रूमः । न चैवं सत्वमेव हेतुः तद्विशेषस्योत्पत्तिमत्व-कृतकत्वप्रयत्नानन्तरीयकत्व-प्रत्ययभेदभेदित्वादेरहेतुत्वापत्तेः । किंच, किमिदमसाधारणत्वं नाम । यदि पक्ष एष वर्तमानत्वम् । तत् सर्वस्मिन् क्षणिक साध्ये सञ्चस्यापि समानम् ।
साध्यधर्मवतः पक्षम्यापि सपक्षता चेत् । इह कः प्रद्वेषः १ । पक्षादन्यस्यैव सपक्षत्वे लोह10 लेख्यं वचं पार्थिवत्वात् काष्ट्रवदित्यत्र पार्थिवत्वमपि लोहलेख्यतां वने गमयेत् । अन्यथा
नुषपचेरभावान्नेति चेत् इदमेव तर्हि हेतुलक्षणमस्तु । अपक्षधर्मस्यापि साधनत्वापत्तिरिति चेत् । अस्तु यद्यविनाभावोऽस्ति, शकटोदये कृत्तिकोदयस्य, सर्वज्ञसद्भावे संवादिन उपदेशस्य गमकत्वदर्शनात् । काकस्य कायं न प्रासादे धावल्यं विनानुपपद्यमानमित्यनेकान्तादगमकम् । तथा, घटे चाक्षुषत्वं शब्देऽनित्यतां विनाप्युपपद्यमानमिति । 16 तम श्रावणत्वादिरसाधारणोऽप्यनित्यता व्यभिचरति । ननु कृतकत्वाच्छब्दस्यानित्यत्वे
साध्ये पर्यायवद् द्रव्येऽप्यनित्यता प्रामोति | नैवम् , पर्यायाणामेवानित्यतायाः साध्यत्वात् , अनुक्तमपीच्छाविषयीकृतं साध्यं भवतीति किं स्मै प्रस्मरति भवान् ? । ननु कुतकत्वानित्यत्वयोस्तादात्म्ये साधनवत् साध्यस्य सिद्धत्वम् , साध्ययच साधनस्य
साध्यत्वं प्रसजति । सत्यमेतत् , किं तु मोहनिवर्तनार्थः प्रपोगः । यदाह20 "सादेरपि न सातत्वं व्यामोहायोऽधिगच्छति।
साध्यसाधनकस्य तं प्रति स्यान्न दोषभाक् ।।" ६ ४२. कारण यथा वाष्पभावेन मशकवर्तिरूपतया वा सन्दिामाने धूमेऽग्निः, विशिष्टमेघो मंतिर्वा वृष्टौं” । कथमयमाबालगोपालाविपालाङ्गनादिप्रसिद्धोऽपि नोपलब्धः
सूक्ष्मदर्शिनापि न्यायवादिना ?। कारणविशेषदर्शनाद्धि सर्वः कार्यार्थी प्रवर्तते । स तु 25 विशेषो ज्ञातव्यो योऽव्यभिचारी। कारणत्वनिश्चयादेव प्रवृत्तिरिति चेत् । अस्त्वसौ
१ अनित्यत्वविपरीते नित्यत्वे अश्श्राव्यरूपः पूर्व शब्दः पश्चात् कथं उभारणात् श्राथ्यो जात इति बाधक प्रमाणं तस्माभित्यत्वेऽघटमान श्रावण त्वमनित्य व्यवस्थापयति । २ सस्थमकियाकारित्वम् । तथा मित्मपक्ष एवं घटत इति श्रावणत्वमपि सत्त्वमायातम् । ३-•तुत्वोपपत्तेः-प्ता. । ४ गम्ये( यशकटोदयाभावे कृत्तिकोदयात् । ५ कश्चित् पुरुषः सर्वभावसाक्षात्कर्ताऽस्ति अविसंवादिज्योतिर्मानान्यथानुपपतेः ।
यो नित्यः याक्षुषस्थादित्यस्मिन्ननुमाने शब्दानित्यता विनाऽपि भटादी चाक्षुषत्वमुपपद्यते इत्यन्यत्रोपपद्यमानं सदस्यानित्यता न साधयति । स्म विस्म -डे । ८ अनित्यत्वम् । करणम्-मु-पा० । १. मशवर्ति-- । ११ अयं धूमोऽग्नेः। १९ वृष्टि बिनी विशिष्टमेघोषतेः। १३ गम्यायां वृष्टी । १४ रिराह। १५ अमिकलकारणम् ।
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
साधनस्य निरूपणम् । ] प्रमाणमीमांसा। लिङ्गविशेषनिश्चयः प्रत्यक्षकृतः, फले तु भाविनि नानुमानादन्यनिवन्धनमुत्पश्यामः । कचिद् व्यभिचारात सर्वस्य हेतोरहेतुत्वे कार्यस्यापि तथा प्रसङ्गः1 बाष्पादेकार्यत्वाभेति चेत् । अत्रापि यत् यतो न भवति न तत् तस्य कारणमित्यदोषः । यथैव हि किञ्चित् कारणमुद्दिश्य किश्चित्कार्यम् , तथैव किश्चित् कार्यमुहिश्य किञ्चित् कारणम् । यद्वदेवाजनक प्रति न कार्यत्वम् , तद्वदेवाजन्यं प्रति न कारणत्वमिति नानयोः कश्चिद्विशेषः । अपि । च रसादेकसामग्रनुमानेन रूपानुमानमिच्छता न्यायवादिनेष्टमेव कारणास्य हेतुत्वम् । यदाह
"एकसामग्यधीनस्य रूपादे रसतो गतिः।
हेतुधर्मानुमानेन धूमेन्धनाविकारवत् ।।" प्रमाणया० १. १०] इति । ४३. न च वयमपि यस्य कस्यचित् कारणस्य हेतुत्वं अमः । अपि तु यस्य 10 न मन्त्रादिना शक्तिप्रतिबन्धो न या कारणान्तरलैकल्यम्तर्न को विज्ञायत इति चेत् । अस्ति तावद्विगुणादितरस्य विशेषः । तत्परिज्ञानं तु प्रायः पाशुरपादानामप्यस्ति । यदाहु:---
"गम्भीरगर्जितारम्भनिर्भिनगिरिगहराः। स्वङ्गसद्धिजतासङ्गापिशङ्गोसुगविग्रहाः॥" [न्यायम. ४. १२५] 16 "रोखाम्बगवलव्याखसमाखमालिनस्विषः।
वृष्टिं व्यभिचरन्तीह नैवंमायाः पयोमुचः॥" [ न्यायमा पृ० १२६ ] इति। . ६४४. 'कार्यम्' यथा धृष्टौ विशिष्टनदीपूरः, कशानौ धूमः, चैतन्ये प्राणादिः। पूरस्य वैशिष्टयं कथं विज्ञायत इति चेत् ; उक्तमत्र नैयायिकः । यदा :"मावर्तवर्तनाशालिषिशालकलुषोदकः । कोलविकटास्फालरफुटफेनच्छदाङ्कितः॥ बहदुबहलशवालफलशादलसकुल।
मदीपूरविशेषोऽपि शक्यते न न वेदितुम् ॥" [न्यायम० पृ. १३०] इति धूमप्राणादीनामपि कार्यत्वनिधयो न दुष्करः । यदाहुँः
"कार्य घूमो हुतभुजः कार्यधर्मानुवृत्तितः। सभषस्तभावेऽपि हेतुमत्तां बिलकृयेत् ॥ [ प्रमाणवा. १. ३५ ]
१3
25
१ प्रत्यक्षतः -मु-पा० । २ नावश्यं कारणानि कार्यन्ति । ३ कार्य गमनं। ४ यदाहुः -ता। ५ यथा धूमादमिर्जायते तथाग्निरिन्धन( ? )विकारकर्ता दाहकोऽपि ज्ञायते । अर्थ रसो विशिष्टसामनीषा( मान् वैशिष्ट्यस्यान्यथानुपपरिति कारणा( कार्या )द्विशिष्टसामग्रीज्ञानं तस्माश्च रूपादिजनकरवानम् । ६ हेतुः कारण तस्य धर्मो रूपादिजनकत्वं तस्यानुमानं तस्य लिलात् परिचोदः । ७ सहकारिकारणम् । ८ साकस्यमप्रतिबद्धस्वभाषच । ९ हलधरादीनामपि । १. प्राणादि पू० ता०। १५ कर्थ शायदे।। १२ यदाह सा २३ - स्फुटः केन-डे • ६ १४ शाड्मल ले। १५ शक्यते न निवे-जे। २५ पदाह -ता। १७ कार्यधर्मः कारणे सति भवनम् , कारणाऽभावे वाऽभवनम् ।
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिता [ अ० १, आ०२, सू० १२, १३, ४५. कारणाभावेऽपि कार्यस्य भावे आहेतुत्वमन्यहेतुस्वं वा भवेत् । अहेतुत्वे सदा सत्त्वमसत्वं वा भवेत् । अन्यहेतुत्वे दृष्टादन्यतोSपि भक्तो न दृष्टजन्यता अन्याभावेऽपि दृष्टाद्भवतो नान्यहेतुकत्वमित्यहेतुकतैव स्यात् । तत्र चोक्तम्-“यस्त्वन्यतोत्री
भवन्नुपलब्धो न तस्य धूमस्वं हेतुभेदात् । कारणं च पहिधूमस्य इत्युक्तम् ।" 5 अपि च
"अग्निस्वभावः शक्रस्य मूर्द्धा यद्यग्निरेव सः। प्रधानमिस्वभावोऽसौधूमस्तत्र कथं भवेत् ॥” [प्रमाणवा० १. ३७] इति ।
४६. तथा चेतनां विनानुपपद्यमानः कार्य प्राणादिरनुमापयति तां श्रावणत्वमिवानित्यताम् , विपर्यये बाधकवशारसत्त्वस्येवास्यापि च्यातिसिद्धेरित्युक्तप्रायम् । तन्न 10 प्राणादिरसाधारणोऽपि चेतना व्यभिचरति ।.
६४७. किंच, नान्बयो हेतो रूपं तदभावे हेत्वाभासाभावात् । विपक्ष एव सन् विरुद्धः, विपक्षेपि-अनैकान्तिकः, सर्वज्ञत्वे साध्य वक्तृत्वस्यापि व्यतिरेकाभाव एवं हेत्वाभासत्वे निमित्तम् , नान्वयसन्देह इति न्यायवादिनापि व्यतिरेकाभावादेव हेत्वा
भासावुक्तौ । असाधारणोऽपि यदि साच्याभावेऽसमिति निश्चीयेत तदा प्रकारान्तरा16 भावात्साध्यमुपस्थापयमानैकान्तिका सात् | अपि च यद्यन्बयो रूपं स्थात् सदा यथा
विपक्षैकदेशवतेः कश्चिदन्यतिरेकादगमकत्वम् , एवं सपक्षकदेशकृत्तेरपि स्यात् कथदिनन्वयात् । यदाह---
"रूपं यचन्षयो हेतोयतिरेकवदिष्यते ।
स सपक्षोभयो न स्यादसपक्षोभयो यथा ॥" 20 सपक्ष एव सत्वमन्वयो न सपक्षे सत्वमेवेति चेत; अस्तु, स तु व्यतिरेक एवेत्यस्मन्मतमेवाङ्गीकृतं स्यात् । वयमपि हि प्रत्यपीपदाम अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणो हेतुरिति ।
६४८. तथा, एकस्मिन्नर्थे दृष्टेऽदृष्टे का समवाय्याश्रितं साधनं साध्येन । तचकीर्थसमवायित्वम् एकफलादिगंतयो रूपरसयोः, शकटोदय-कृत्तिकोदययोः, चन्द्रोदय-समु.
द्रवृयो, वृष्टि-साण्डपिपीलिकाक्षोभयोः, नागवल्लीदाह-पत्रकोथयोः। तत्र 'एकार्थसमवायी' 25 रसो रूपस्य, रूपं वा रसस्य नहि समानकालभाविनोः कार्यकारणभावः सम्भवति ।
F४९. ननु समानकालकार्यजनकं कारणमनुमास्यते इति चेत् । न तर्हि कार्यमनुमितं स्यात् । कारणानुमाने सामर्थ्यात् कार्यममुमितमेव, जन्याभावे जनकत्वाभावा
१ अहेतुकत्वम् 1 २ अग्नेरन्यो हेतुरस्य । ३ वा अन्य -.। वा भावयेत् अन्य. -गु-पा। वल्मीकस्य । ५न केवलं सपशे किन्तु विपक्षेऽपि। ६सपक्षे उभय सश्चमसर्व वा यस्य । ७समवायातिम-ता० । ८ इदं फलं विशिष्टरूपवत् विधिष्टिरसरत्वात् । इदं नमःखण्ई भाषिशकटोदर्य कत्तिकोदययस्यात् । अयं काल: समुद्रसिमान् चन्द्रोदयवस्वाच । एवम् अप्रेऽपि कालो धौ । ९.०गतरूप-हे। १० कार्यरूपाएकारणं झायवे । तच कीदृशम् ।। समानकालं यत्कार्य रसलक्षण तबरकमनुमीयते ।
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
Moon
kareMPARAMERESERVICHAR
15
साध्यस्य निरूपणम् । ]
प्रमाणमीमांसा दिति चेत् ; हन्तैयं कारणं कार्यस्यानुमापकमित्यनिष्टमापद्येत । शर्कटोदयकत्तिकोदयादीनां तु यथाऽविनाभावं साध्यसाधनभावः । यदाह- "एकार्थसमवायस्तु यथा येषां तथैव ते ।
गमका गमकस्तन्न शकटः कृसिकोदितः ॥" एक्मन्येष्वपि साधनेषु वाच्यम् । ननु कृतकत्वानित्यत्वयोरेकार्थसमवायः कस्मान्ने । प्यते ?; न, तयोरेकत्वात् । यदाह
"बाचन्तापेक्षिणी सत्ता कृतकस्थमनित्यता ।
एकैव हेतु: साध्यं च अयं नैकाश्रयं ततः ॥” इति । ५०. स्वभावादीनां चतुर्णा साधनानां विधिसाधनता , निषेधसाधनत्वं तु । विरोधिनः । स हि स्वसन्निधानेनेतरस्य प्रतिषेधं साधयति अन्यथा विरोधासिद्धः। 10
६ ५१. 'च'शब्दो यत एते स्वभावकारणकार्यध्यापका अन्यथानुपपन्नाः स्वसाध्यमुपस्थापयन्ति तत एव तदभाचे स्वयं न भवन्ति, तेषामनुपलब्धिरप्यभावसाधनीत्याह । सत्र स्वभावानुपलब्धियथा मात्र घटः, द्रष्टुं योग्यस्यानुपलब्धः। कारणानुपलब्धिर्यथा मात्र धूमोऽग्न्यभावात | कार्यानुपलब्धियथा नात्राप्रतिवद्धसामथानि धूमकारणानि सन्ति धूमाभावात् । व्यापकानुपलब्धिर्यथा नात्र शिंशपा वृक्षाभावात ।
५२. विरोधि तु प्रतिषेध्यस्य तत्कार्यकारणव्यायकानां च विरुद्ध विरुद्धकार्य च । यथा न शीतस्पर्शः, नाप्रतिबद्धसामर्थ्यानि शीतकारणानि, न रोमहर्षविशेषाः, न तुषारस्पर्शः, अग्नेधूमावेति प्रयोगनानात्वमिति ।। १२ ।। ५ ५३. साधनं लक्षयित्वा विभज्य च साध्यस्य लक्षणमाह
सिषाधयिषितमसिद्धमबाध्यं साध्यं पक्षः ॥१३॥ 20
५४. साधयितुमिष्टं "सिपाधयिषितम् । अनेन साधयितुमनिष्टस्य साध्यत्वव्यवच्छेदः, यथा वैशेषिकस्य नित्यः शब्द इति। शास्त्रोक्तत्वाद्वैशेषिकेयाभ्युपगतस्याप्याकाशगुणत्वादेन साध्यत्वम्, तदा साधयितुमनिष्टत्वात् । इष्टः पुनरनुक्तोऽपि पक्षो भवति, यथा परार्थाश्चक्षुरादयः सञ्चतत्वाच्छयनाशनायङ्गकदित्यत्र परार्था इत्यात्मार्थाः । बुद्धिमत्कारणपूर्वकं क्षित्यादि कार्यत्वादित्यत्राऽशरीरसर्वज्ञपूर्वकत्वमिति ।
25 ५५. 'असिद्धम्' इत्यनेनानध्यवसाय-संशय-विपर्ययविषयस्य वस्तुनःसाध्यत्वम् , न सिद्धस्य यथा श्रावणः शन्द इति । "नानुपलब्धे न निर्णीत न्यायः प्रवर्तते" [न्यायभा० १.१.इति हि सर्वपार्षदम् । .
६ ५६. 'अवाध्यम्' इत्यनेन प्रत्यक्षादिवाधितस्य साध्यत्वं मा भूदित्याह ! एतत् साध्यस्य लक्षणम् । 'पक्षः' इति साध्यस्यैव नामान्तरमेतत् ॥१३॥
१ शकटोदये प्रत्यक्ष सति कृत्तिकोदयस्थापि प्रत्यक्षावार नानुमानतस्तदगमः । २ एकार्थसमायिनों ध्यापका इति। ३ अन्यथानुपपनसादेव । ४धूमाभावाद्वा -सा। कार्य यथा -२३ । ६ परार्था बुद्धि है । ७ - पूर्व क्षिा हे । ८ इत्याह ।
___30
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
* * *....... PRIMADIRA
M
m
msmammmmmmm
m mmm
H MIRMIRMWAR
:
-.................
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिता [अ० १, आ०२, सू० १४–१९. ६५७. अबाध्यग्रहणच्यक्च्छेयां बाधा दर्शयति
प्रत्यक्षानुमानागमलोकस्ववचनप्रतीतयो बाधाः ॥१४॥ $ ५८. प्रत्यक्षादीनि तद्विरुद्धार्थोपस्थापनेन बाधकत्वात् 'राधा' । तत्र प्रत्यक्षबाधा यथा अनुष्योऽनिः, न मधु मधुरम् , न सुगन्धि विदलन्मालतीमुकुलम् , अचाक्षुषो 5 घटा, अश्रावणः शब्दः, नास्ति बाहिरर्थ इत्यादि। अनुमानबाधा यथा सरोम हस्ततलम् , नित्यः शब्द इति वा । अत्रानुपलम्मेन कूतकत्वेन चानुमानबाधा । आगमबाधा यथा प्रेत्याऽमुखप्रदो धर्म इति । परलोके सुखप्रदत्वं धमस्य.सर्वागमसिद्धम् । लोकबाधा यथा शुचि नरशिरस्कपालमिति । लोके हि नरशिकपालादीनामशुचित्वं सुप्रसिद्धम् | स्ववच
नवाघा यथा माता मे बन्ध्येति । प्रतीतिबाधा यथा अचन्द्रः शशीति । अत्र शशिनश्च10 न्द्रशब्दवाच्यत्त्वं प्रतीतिसिद्धमिति प्रतीतिबाधा ॥१४॥
६ ५९. अत्र साध्य धर्मः, धर्मधर्मिसमुदायो वेति संशयव्यवच्छेदायाह--
साध्यं साध्यधर्मविशिष्टो धर्मी, क्वचित्तु धर्मः ॥१५॥
६०. 'साध्यम्' साध्यशब्दवाच्यं पक्षशब्दाभिधेयमित्यर्थः । किमित्याह 'साध्यधर्मेण ऑनत्यत्वादिना विशिष्टो धर्मी शब्दादिः । एतत् प्रयोगकालापेक्षं साध्यशब्दवा16 च्यत्वम् । 'कचित्तु' व्याप्तिग्रहणकाले 'धर्म' साध्यशब्देनोच्यते, अन्यथा व्याप्तेरघटनात् । नहि धूमदर्शनात् सर्वत्र पर्वतोऽभिमानिति व्याप्तिः शक्या कर्तुं प्रमाणविरोधादिति।।१५॥ धर्मिस्वरूपनिरूपणायाह
धर्मी प्रमाणसिद्धः ॥१६॥ $ ६१. 'प्रमाणे प्रत्यक्षादिमिः प्रसिद्धो 'धर्मी' भवति यथाग्निमानय देश इति । अत्र 20 हि देशः प्रत्यक्षेण सिद्धः। एतेन-"सर्व एवानुमानानुमयव्यवहारो बुध्यारूढेन
धर्ममिन्यायेन, न बहिः सदसवमपेक्षते" इति सौगतं मतं प्रतिक्षिपति । नहीयं विकल्पबुद्धिरन्तर्बहिर्वाऽनासादितालम्बना धर्मिणं व्यवस्थापयति, तदैवास्तवत्वे तदाधारसाध्यसाधनयोरपि वास्तवत्वानुपपत्तेः तबुद्धेः पारम्पर्येणापि वस्तुब्यवस्थापकत्वायो
गात् । ततो विकल्पेनान्येन या व्यवस्थापितः पर्वतादिविषयभावं भजन्नेव धर्मितां प्रति26 पद्यते । तथा च सति प्रमाणसिद्धस्य थर्मिता युक्तैव ॥१६॥
साथ्य। २कृतकत्वाविति हेतुः। ३ विविधरसप्रभवस्वात् अनेकरससंयोगवत् । ४ लकदेशस्वात् पत्रवत् । ५रूपादत्यन्तव्यतिरिक्तस्वात् वायुवत् । यथावस्थेन रूपेशाप्रतिभासमानत्वात् यदस्ति तपथावस्थितरूपेणाप्रतिभासमानमपि नास्ति यथा झानम् । ७ शरीरावयवत्वात् बाहुवत् । वव्यास्त्रीसमानारत्वात् । चन्द्रशन्दवाच्यः शशीन भवति आकाशोदितत्वात् सूर्यवत् । १०.०लापिक्ष्यं -ता। . ११ साधनम् । ११ साच्यम् । १३ - मेयस्य 840-ता.। १४ धर्मिणः। १५ सधी आधारो अयोः । ११ सदबुर्विकल्पज्ञानस्या1१७मिविकल्पकं प्राप्त विषयम, तविकरूपोऽपि प्राप्तविषय इति। एवंलक्षणपारम्पर्यणाषि। १५ निर्विकल्पेन। १९ विकल्पस्य विषयभाषम् ।
.......................
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
साम्यस्व निरूपणम् । ]
९ ६३. अपवादमाह -
प्रमाणमीमांसा ।
४
बुद्धिसिद्धोऽपि ॥१७॥
६४. नैकान्तेन प्रमाणसिद्ध एव धर्मी किंतु विकल्पबुद्धिप्रसिद्धोऽपि धर्मी मवति । 'अपि' शब्देन प्रमाण- बुद्धिभ्यामुभाभ्यामपि सिद्धो धर्मी भवतीति दर्शयति । तत्र बुद्धिसिद्धे धर्मिणि साध्यधर्मः सस्वमसवं च प्रमाणबलेन साध्यते यथा अस्ति 5 सर्वज्ञः, नास्तिषष्ठं भूतमिति ।
६५. नतु धर्मिणि साक्षादसति मात्राभावोभयधर्माणामसिद्धविरुद्धानैकान्तिकत्वेनानुमानविषयत्वायोगात् कथं सवासवयोः साध्यत्वम् । तदाह"नौसिद्धे भावधर्मोऽस्ति व्यभिचार्युभयाश्रयः ।
freat insभावस्थ सा ससा साध्यते कथम् ? ॥" [ प्रमाणवा० १.१९२ - ३] इति । 10 ६६. नैवम्, मानसप्रत्यक्षे भावरूपस्यैव धर्मिणः प्रतिपन्नत्वात् । न च तत्सिद्धौ तत्स्वस्यापि प्रतिपत्वाद् व्यर्थमनुमानम्, तेंदम्युपेतमपि वैयात्याद्यो न प्रतिपद्यते तं प्रत्यनुमानस्य साफल्यात् । न च मानसज्ञानात् खरविषाणादेरपि सद्भावसभावनातोऽतिप्रसङ्गः, तज्ज्ञानस्य बाधकप्रत्ययविष्ठावितसत्ताकवस्तुविषयतया मानस- 15 प्रत्यक्षाभासत्वात् । कथं तर्हि षष्ठभूतादेर्धर्मित्वमिति चेत् : धर्मिप्रयोगकाले राधकप्रत्ययानुदयात्सवसम्भावनोपपत्तेः । न च सर्वज्ञादौ साधकप्रमाणासवेन सर्वैसंशीतिः, सुनिश्चिताऽसम्भवद्वाधकप्रमाणत्वेन सुखादाविव सध्वनिश्चयात्तत्र संशयायोगात् ।
६७. उभयसिद्धो धर्मी यथा अनित्यः शब्द इति । नहि प्रत्यक्षेणावग्दर्शिरिनियैतदिग्देशकालावच्छिन्नाः सर्वे शब्दाः शक्या निधेतुमिति शब्दस्य प्रमाणबुबुध्यु- 20 भयसिद्धता तेनानित्यत्वादिधर्मः प्रसाध्यत इति ॥ १७ ॥
६८. ननु दृष्टान्तोऽप्यनुमानाङ्गतया प्रतीतः । तत् कथं साध्यसाधने एवानुमानामुक्ते न दान्तः ?, इत्याह
ने दृष्टान्तोऽनुमानाङ्गम् ॥ १८ ॥
६९. 'दृष्टान्तः' वक्ष्यमाणलक्षणो नानुमानस्य 'अङ्गम्' कारणम् ॥ १८ ॥ १७०, कुत इत्याह
साधनमात्रात् तत्सिद्धेः ॥ १९ ॥
६ ७१. दृष्टान्तरहितात्साध्यान्यथानुपपत्तिलक्षणात् 'साधनात्' अनुमानस्य साध्यप्रतिपत्तिलक्षणस्य भावान दृटान्तोऽनुमानाङ्गमिति ।
भ्रम भवति कि डे० । २ अविसंवादिज्योतिर्ज्ञानान्यथानुपपत्तेः । ३ उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धेः । ४ हेतूनाम् । ५ धर्मिणि । ६ हेतुरुभगधर्मः । ७ विरुद्धधर्मो मु० । विरुद्धोऽधर्मो डे० । ८ सत्ता सार्वशी । ९० । १० धर्मिणः । ११ सञ्चम् । १२ विषयाणाम् । १३ सन्देहः । १४ सुतादिवच सम १५ प्रभातृभिः । १६ ०रनियतदिग्दर्शिभिर्नियतदिश्येश ० । १७ कि सिद्धम् ? । १८ असाध्य इसिता । १९ अष्टादशमे कोनविंशतितमं च सूत्रद्वयं वा मू० प्रती भेदकाचिरं विना सधैव लिखितं दृश्यते । attarai द्वयोरेकत्वं सुचारु भाति - सम्पा० ।
#-47,
25
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिता [अ० १, आ० २, सू० २०. ७२. स हि साध्यप्रतिपत्तौ वा, अविनाभावग्रहणे वा, व्याप्तिस्मरणे वोपयुज्येत १। म तावत् प्रथमः पक्षा, यथोक्तादेव हेतोः साध्यप्रतिषतरुपपत्तेः। नापि द्वितीयः, विपक्षे बाधकादेवाविनाभावग्रहणात् । किंच, स्यक्तिरूपो दृष्टान्तः । स कथं साकल्येन
च्याप्ति गमयेत् ? । व्यस्यन्तरेषु च्याप्त्यर्थ दृष्टान्तान्तरं भृग्यम् । तस्यापि व्यक्तिरूपत्वेन 5 साफल्येन च्यालेरनधारयितुमशक्यत्वादपरापरदृष्टान्तापक्षायाभनवस्था स्यात् । नाषि तृतीयः, गृहीतसम्बन्धस्य साधनदर्शनादेव व्याप्तिस्मृतेः । अगृहीतसम्बन्धेस्य दृष्टान्तेऽप्यस्मरणात् उपलब्धिपूर्वकत्वात् स्मरणस्येति ॥ १९॥ ६७३. दृष्टान्तस्य लक्षणमाह
स व्याप्तिदर्शनभूमिः ॥२०॥ 10 ७४. 'स' इति दृष्टान्तो लक्ष्यं 'ज्याप्तिः लक्षितरूपा 'दर्शनम्' परस्मै प्रतिपादनं तस्य 'भूमि'आश्रय इति लक्षणम् ।
5 ७५ ननु यदि दृष्टान्तोऽनुमानाङ्गं न भवति तर्हि किमर्थ लक्ष्यते ? । उच्यते । परार्थानुमाने वोयानुरोधादापवादिकस्योदाहरणस्यानुज्ञास्यमानत्वात् । तस्ये च दृष्टा
न्ताभिधानरूपत्वादुपपमं दृष्टान्तस्य लक्षणम् । प्रमातुरपि कस्यचित् दृष्टान्तदृष्टयहि15 ाप्तिबलेनान्ताप्तिप्रतिपत्तिर्भवतीति स्वार्थानुमानपर्वण्यपि दृष्टान्तलक्षणं नानुपपनम् ।। २० ॥ ६७६. तद्विभागमाह
से साधर्म्यवैधाभ्यां वधा ॥२१॥ $ ७७. स दृष्टान्तः 'साधम्र्येण' अन्वयेन 'वैधम्र्येण च व्यतिरेकेण भक्तीति 20 द्विप्रकारः ॥२१॥
७८. साधर्म्यदृष्टान्तं विभजतेसाधनधर्मप्रयुक्तसाध्यधर्मयोगी साधर्म्यदृष्टान्तः ॥२२॥
७९. साधनधर्मेण प्रयुक्तो न तु काकतालीयो यः साध्यधर्मस्तद्वान् ‘साधर्म्यदृष्टान्तः' । यथा कृतकत्वेनानित्ये शब्दे साध्ये घटादिः ॥२२॥ 25 ,८०. वैवर्म्यदृष्टान्तं व्याचष्टे
साध्यधर्मनिवृत्तिप्रयुक्तसाधनधर्मनिवृत्तियोगी
वैधय॑दृष्टान्तः ॥२३॥ १८१साध्यधर्मनिवृश्या प्रयुक्ता न यथाकथश्चित या साधनधर्मनिवृत्तिः तद्वान् 'वैधर्म्यदृष्टान्तः । यथा कृतकत्वेनानित्ये शन्दे साध्ये आकाशादिरिति ॥२३॥
इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायाः प्रमाणमीमांसायास्तसेच
___ प्रथमस्याध्यायस्य द्वितीयमालिकम् ।। भ्रान्तः । २ वर्तमानस्य हेतोः। पुंसः । ४ घुसः । ५ सति । ६ दर्शनम् । ७ शिष्य । ८ अनुमस्यमानत्वात् । ९ उदाहरणस्य । १०प्रस्तावे। ११ ता-मू-सं-मू-प्रत्योः सवृसिकताइपनीयसूत्रे च 'स' मास्ति । १२ साधनमेव धर्मः । १३ कृतः । १२ साघ्यो धर्म-डे । १५ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्र विरंचिताया प्रमाणमीमांसायां प्रथमस्याध्यायस्य द्वितीयमादिकम् । प्रथमोऽध्यायः समाप्तः-ता-मू-१ इत्या द्वितीया
किम् । प्रथमायः -सं-मू
।
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
C
areer
en
Wave
॥ अथ द्वितीयोऽध्यायः ॥ ६१. लक्षितं स्वार्थमनुमानमिदानीं क्रमप्राप्तं परार्थमनुमानं लक्षयति
यथोक्तसाधनाभिधानजः परार्थम् ॥ १॥ ३२. 'यथोक्तम्' स्वनिश्चितसाध्याविनाभावैकलक्षण यत् 'साधनम् तस्याभिधानम्। अभिधीयते परस्मै प्रतिपाधते अनेनेति 'अभिधानम्' वचनम् , तस्माजातः सम्यगर्थनिर्णयः 'परार्थम्' अनुमानं परोपदेशापेक्षं साध्यविज्ञानमित्यर्थः ॥१॥ ६३. ननु वचनं परार्थमनुमानमित्याहस्तस्कथमित्याह
वचनमुपचारात् ॥ २ ॥ ४. अवेतनं हि वचनं न साक्षात्प्रमितिफलहेतुरिति न निरुपचरितप्रमाणभावभाजनम् , मुख्यानुमानहेतुत्वेन तूपचरितानुमानाभिधानपात्रता प्रतिपद्यते । उपचारश्रात्र कारणे कार्यस्य । यथोक्तसाधनामिधानात् तद्विपया स्मृतिरुत्पद्यते, स्मृतेश्चानुमा- 10 नम्, तस्मादनुमानस्य परम्परया यथोक्तसाधनाभिधानं कारणम्, तस्मिन् कारण बचने कार्यस्यानुमानस्योपचारः समारोपः क्रियते । ततः समारोपात कारण वचनमनुमानशब्देनोच्यते । कार्ये वा प्रतिपादकानुमानजन्ये बचने कारणस्यानुमानस्योपचारः। वचनमौपचारिकमनुमानं न मुख्यमित्यर्थः । __५. इह च मुख्यार्थबाधे प्रयोजने निमिचे चोपचारः प्रवर्तते । तत्र मुख्या- 15 ऽर्थः साक्षात्ममितिफलः सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणशब्दसमानाधिकरणस्य परार्थानुमानशब्दस्य, तस्य बाधा, वचनस्य निर्णयत्वानुपपत्तेः । प्रयोजनम् अनुमानावयवाः प्रतिज्ञादय इति शास्त्रे व्यवहार एव, निर्णयात्मन्यनशे तद्व्यवहारानुषपचेः। निमित्तं तु निर्णयात्मकानुमानहेतुत्वं वचनस्येति ॥ २ ॥
तद् द्वेधा ॥३॥ ६६. 'तत् वचनात्मकं परार्थानुमानं 'देवा' द्विप्रकारम् ॥ ३ ॥ ६७. प्रकारभेदमाह
तथोपपत्त्यन्यथानुपपत्तिभेदात् ॥ ४ ॥ १ प्रथम द्वितीयं च सूत्रद्वयं ता-मू० प्रती मैदकदिनं विना सहैव लिखितं दृश्यते। २ यथा उक्तम् । ३ अनुमानशब्दवाच्यताम् । ४ मुख्यार्थस्योपचारः। ५ - शब्दः समा -डे । ३ अग्निर्माणवक इस इत्या मुख्य दाहकत्यम् , पर्जनीयत्वबुद्भिः प्रयोजनम् , शाब्दप्रवृत्ती निमित्तमुपतापकत्वम् । ७ पराभुमाने । ८ पूर्वोक्क०। ९ प्रवृत्तौ।
READLIBRARAULIARRIORSMSUTRAEBARidiodaundiseUANIABARis2.30DRAweisaduintHAIslandaaiadede
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्री हेमचन्द्रविरचिता ( अ० २ ० १ सू० ५८.
१८. ' तथा ' साध्यं सत्येव 'उपपत्तिः' साधनस्येत्येकः प्रकारः । 'अन्यथा साध्याभावे 'अनुपपत्तिः 'चेति द्वितीयः प्रकारः । यथा अभिमानयं पर्वतः तथैव धूमवच्वोपपतेः, अन्यथा धूमaangeeta | एतावन्मात्रकृतः परार्थानुमानस्य भेदो न पारमार्थिकः स इति भेदपदेन दर्शयति ॥ ४ ॥
5
६९. एतदेवाह
नानयोस्तात्पर्ये भेदः ॥ ५ ॥
१०. 'ने' 'अनयो:' तथोपपश्यन्यथानुपपत्तिरूपयोः प्रयोगप्रकारयोः 'तात्पये' 'परः शब्दः स शब्दार्थः' इत्येवंलक्षणे तत्परत्वे, 'भेद:' विशेषः । एतदुक्तं भवति अन्यदभिधेयं शब्दस्यान्यत्प्रकाश्यं प्रयोजनम् । तत्राभिधेयापेक्षया वाचकत्वं भिद्यते, 10 प्रकाश्यं त्वभिन्नम्, अन्वये कथिते व्यतिरेकगतिर्व्यतिरेके चान्वयगतिरित्युभयत्रापि साधनस्य साध्याविनाभावः प्रकाश्यते । न च यत्राभिधेयभेदस्तत्र तात्पर्यभेदोऽपि । नहि पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते, पीनो देवदत्तो रात्रौ भुङ्क्ते इत्यनयोर्वाक्ययोरभिधेयभेदोऽस्तीति तात्पर्येणापि भेतव्यमिति भावः ||५||
६११. तात्पर्याभेदस्यैव फलमाह-
15
20
५०
25
अत एव नोभयोः प्रयोगः ॥ ६ ॥
१२. यत एव नानयोस्तात्पर्ये भेदः 'अत एव नोभयोः' तथोपपच्यन्यथानुपपस्योर्युगपत् 'प्रयोगः' युक्तः । व्यात्युपदर्शनाय हि तथोपपच्यन्यथानुपपत्तिभ्यां हेतोः प्रयोगः क्रियते । व्यात्युपदर्शनं चैकयैव सिद्धमिति विफलो द्वयोः प्रयोगः । यदाह"तोस्तथोपपस्या वा स्यात्प्रयोगोऽन्यथापि वा । द्विविधोऽन्यतरेणापि साध्यसिद्धिर्भवेदिति ॥" [ न्याया० १७ ]
१३. नलु यद्येकेनैव प्रयोगेण हेतोर्व्याप्युपदर्शनं कृतमिति कृतं विफलेन द्वितीयप्रयोगेण तर्हि प्रतिज्ञाया अपि मा भूत् प्रयोगो विफलत्वात् । नहि प्रतिज्ञामात्रात् चिदर्थं प्रतिपद्यते, तथा सति हि विप्रतिपत्तिरेव न स्यादित्याह -
विषयोपदर्शनार्थं तु प्रतिज्ञा ॥७॥
१४. 'विषयः' यत्र तथोपपत्त्यन्यथानुपप वा हेतु: स्वसाध्यसाधनाय प्रार्थ्यते, तस्य 'उपदर्शनम्' परप्रतीतावारोपणं तदर्थे पुनः 'प्रतिज्ञा' प्रयोक्तव्येति शेषः ।
१ अग्निमत्त्वे सत्येव । २ ० इति ० ० ३ ० प्रती 'न' नास्ति । ४ मः शब्दस्य परार्थस्तत् तास्पर्यमिति भावः । ५ यः परः प्रकृष्टोऽर्योऽस्य । ६ शब्दस्यार्थः ता० । ७ (१) यस्तयोपपत्त्या विधिर्वाय्यः secretaryear तु निषेधः । निठि (?) शेषः । & सूत्रार्थस्य १० कचिदर्थं ता० । ११ प्रतिक्षामात्रादप्रतिपत्तेः । १२ विषय प्रद० -ता-० । १३ स्वसाध०डे० ।
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
H
TROPRABBREARRBRBResite
परार्थानुमाननिरूपणम्।] प्रमाणमीमांसा
६१५. अयमर्थ:--परप्रत्यायनाय वचनमुञ्चारयता प्रेक्षावता तदेव परे बोधयितव्या यदुभुत्सन्ते । तथासत्यनेन बुभुत्सिताभिधायिना परे बोधिता भवन्ति । न खल्यवान् पृष्टो गवयान अवाणः प्रष्टुरखधेयवचनो भवति । अनबधेयवचनश्च कथं प्रतिपादको नाम ? यथा च शैक्षोभिक्षुणाचचक्षे-भोः शैक्ष, पिण्डपांतमाहरेति । स एवमाचरामीत्यनभिधाय यदा संदर्थ प्रयतते सदाऽस्मै क्रुध्यति भिक्षुः-आ: शिष्याभास भिक्षुखे- 5 ८, अस्मानवधीरयसीति विब्रुवाणः । एवमनित्यं शब्दं बुभ्रत्समानाय अनित्यः शब्द इति विषयमनुपदर्य यदेव किश्चिदुच्यते--कृतकत्वादिति बा, यत् कृतकं तदनित्यमिति वा, कृतकत्वस्य तथैवोपपत्तेरिति वा, कृतकत्वस्यान्यथानुपपत्तेरिति वा, तत् सर्वमस्यांनपेशितभापतितोऽसम्बद्धाभिधानबुध्या तथा चानवहितो न बोधुमर्हतीति ।
६१६. यत् कृतकं तत् सर्यमनित्यं यथा घटः, कतकश्च शब्द इति वचनमर्थसामये- 10 नैवापेक्षितशब्दानित्यत्वनिश्चायकमित्यवधानमत्रेति चेत् । न, परस्पराश्रयात् । अवधाने हि सत्यतो निश्चयः, तस्मांचावधानमिति । न च पर्षत्प्रतिवादिनौ प्रमाणीकृतादिनी यदेतद्वचनसम्बन्धाय प्रयतिष्येते । तथासँति न हेत्वाधपेक्षेयाँताम्, तदवचनादेव तदर्थनिश्वयात् । अनित्यः शब्द इति स्वपेक्षिते उक्ते कुत इत्याशवायां कृतकत्वस्य तथैवोपपत्तेः कृतकत्वस्यान्यथानुपपत्तेर्वेत्युपतिष्ठते, तदिदं विषयोपदर्शनार्थत्वं प्रतिज्ञाया इति ॥७॥ 15
६१७. ननु यत् कृतकं तदनित्यं यथा घटा, कृतकच शब्द इत्युक्ते गम्यत एतद् अनित्यः शब्द इति, तस्य सामर्थ्यलब्धत्वात् , तथापि तद्वचने पुनरुक्तत्वप्रसङ्गात्, “अर्यादापत्रस्य स्वशब्देन पुनर्वचनं पुनरुक्तम्" न्यायसू० ५. २. १५] | आह च-- डिण्डिकराग परित्यज्याक्षिणी निमील्य चिन्तय सावत् किमियता प्रतीतिः म्यासवेति, भावे किं प्रपञ्चमालया" [ हेतु० परि० १ ] इस्याहगम्यमानत्वेऽपि साध्यधर्माधारसन्देहापनोदाय धर्मिणि
पक्षधर्मोपसंहारवत् तदुपपत्तिः ॥ ८॥ १८. साध्यमेव धर्मस्तम्याधारस्तस्य सन्देहस्तदपनोदाय-यः कृतकः सोऽनित्य इत्युक्तेऽपि धर्मिविषयसन्देह एव-किमनित्यः शब्दो घटो वेति ?, तन्निराकरणाय गम्यमानस्यापि साध्यस्य निर्देशो युक्तः, साध्यधर्मिणि साधनधर्माक्योधनाय पक्षधर्मोप- 25
2n
१ भैक्षाशम् । २ - पानमा-हे. । ३ करोगि । पिण्डपानार्थम् । ५ -- ति बुवा.-सा० । ६ निन्दन । ७ शब्दलक्षणम् । ८ प्रतिपाद्यस्य । प्रथमतः । १० असावधानः १११ वचनात् । १२-०% नि: । २३ अनिश्चयात् । १४ प्रमाणीकृतो वादी यकाभ्याम् । १५ वादि ० । १९ प्रमाणीकृतमादित्वेऽपि सति । १७ पर्षप्रतिवादिनी । १८ तहम्दन यादी । २४ तद्वचना० सा० । २० सामर्थात् । २१ डिण्डिको नाम रस्त्रों मूषक विशेषः । तद्वत राग रतिमान नेत्रगता परित्यज्य में विमलीकृत्येत्यर्थः-मु-टि। डिण्डिका हि प्रथमनामलिखने विवाद कुर्वन्ति । २२ निर्मात्य-है।।२३- यता मदुक्तेन प्रक-डे-1२५अनित्यत्वस्य । २५ प्रतीतिभावे । १६ सिषाधयिषितधर्मविशिष्ठस्य धर्मिणः ।
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिता [अ० २, आ० १, सू०९-१५. संहारवचनवत् । यथा हि साध्यध्यातसाधनदर्शनेन तदाधारावगतावपि नियतधर्मिसम्बन्धिताप्रदर्शनार्थम्-कृतकश्च शब्द इति पक्षधर्मोपसंहारवचनं तथा साध्यस्य विशिष्टधर्मिसम्बन्धितावबोधनाय प्रतिज्ञाचनमप्युपपद्यत एवेति ॥८॥
६१९. ननु प्रयोग प्रति विप्रतिपद्यन्ते वादिनः, तथाहि-प्रतिमाहेतूदाहरणानीति । व्यवयवमनुमानमिति सारथाः । सहोपनयेन चतुरवयवमिति मीमांसकाः । सहनिगमनेन पञ्चावयवमिति नैयायिकाः। तदेवं विप्रतिपसौ कीशोऽनुमानप्रयोग इत्याह
एतावान् प्रेक्षप्रयोगः ॥ ९॥ २०. 'एतावान्' एवं यदुत तथोपपत्यान्यथानुपपन्या या युक्तं साधनं प्रतिज्ञा च । 10 'प्रेक्षाय' प्रेक्षावते प्रतिपाद्याय तदवोधनार्थः 'प्रयोगः' न त्वधिको यथाहुः साङ्ख्यादयः,
नापि हीनो यथाहुः सौगता:-"विदुषां वाच्यो हेतुरेव हि केवल!" [प्रमाणवा. १. २८ ] इति ॥ ९॥
२१. ननु परार्थप्रकृतैः कारुणिकैर्यथाकश्चित् परे प्रतिबोधयितव्या नासधवस्थोपन्यासैरमीषा प्रतिभाभङ्गः करणीयः, तकिमुच्यते एतावान् प्रेक्षप्रयोगः १, इत्या15 शथ द्वितीयमपि प्रयोगक्रममुपदर्शयति
बोध्यानुरोधात्प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानि पञ्चापि ॥१०॥
६२२. 'योध्या शिष्यस्तस्य 'अनुरोधः तदवोधनप्रतिज्ञापारतन्त्र्यं तस्मात्, प्रतिशादीनि पश्चापि प्रयोक्तव्यानि। एतानि चावयवसझया प्रोच्यन्ते । यदक्षपादः-"प्रतिज्ञा
हेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः" न्यायसू. १. १. ३२] इति । 'अपि' शब्दात् प्रति20 ज्ञादीनां शुद्धयश्च पञ्च बोध्यानुरोधात् प्रयोक्तव्याः । यच्छ्रीभद्रबाहुस्वामिपूज्यपादाः"कत्था पचावयवं दसहा था सब्दहा ण पडिकु ति॥"
[ दश.नि. ५.] $२३. तत्र प्रतिज्ञाया लक्षणमाह
___ साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा ॥११॥ 25२४. साध्यं सिपाधयिषितधर्मविशिष्टोधर्मी, निर्दिश्यते अनेनेति निर्देशो वचनम्,
साध्यस्य निर्देशः 'साध्यनिर्देशः' 'प्रतिज्ञा' प्रतिज्ञायतेऽनयेति कृत्वा, यथा अयं प्रदेशोऽग्निमानिति ॥ ११ ॥
६ २५. हेतुं लक्षयति
साधनत्वाभिव्यञ्जकविभक्त्यन्तं साधनवचनं हेतुः ॥ १२ ॥ १ तथाहि-जे । २ सामान्यतः साधनधर्माधाराबव(ग)तिः । ३ ... बानपच-डे० । ४ यदाहः-डे । ५ समायहेतुभावी हि हटाते सदवेदिनः। ख्याप्येते" । ६ परे बोध. -डे ०। ७ परेषाम् । प्रतिमतः-डे । प्रतीतिभन: -मुक -वान् प्रबो-ता।
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
utterm
natilipitatauntosotitalirkantadiution
AABMiladies
BMAHORisitties
परार्थानुमाननिरूपणम् । प्रमाणमीमांसा ।
६२६. साधनत्वाभिव्यञ्जिका विभक्तिः पञ्चमी तृतीया वा तदन्तम्, 'साधनस्य' उक्तलक्षणस्य 'वचनम्' हेतुः । धूम इत्यादिरूपस्य हेतुत्वनिराकरणाय प्रथमं पदम् । अव्याप्तवचनहेतुत्वनिराकरणाय द्वितीयमिति । स द्विविधस्तथोषपत्त्यन्यथानुपपत्तिभ्याम् , तद्यथा धूमस्य तथैवोपपत्तेधूमस्यान्यथानुपपत्तेचेति ॥ १२ ॥ २७. उदाहरणं लक्षयति
दृष्टान्तवचनमुदाहरणम् ॥१३॥ ६२८, 'दृष्टान्तः' उक्तलक्षणस्तत्प्रतिपादक 'वचनम्' 'उदाहरणम् तदपि द्विविधं दृष्टान्तभेदात् । साधनधर्मप्रयुक्तसाध्यधर्मयोगी साधर्म्यदृष्टान्तस्तस्य वचनं साधयों दाहरणम् , यथा यो धूमवान् सोऽग्निमान् यथा महानसप्रदेशः । साध्यधर्मनिवृत्तिप्रयुक्तसाधनधर्मनिवृत्तियोगी वैधHदृष्टान्तस्तस्य वचनं वैधयोदाहरणम् , यथा 10 योनिनिधिमान् स धूमनिवृत्तिमान् यथा जलाशयप्रदेश इति ॥१३॥ २९ उपनयलक्षणमाह
धर्मिणि साधनस्योपसंहार उपनयः ॥१४॥ ६३०. दृष्टान्तपर्मिणि "विस्तस्य साधनधर्मस्य साध्यधर्मिणि यः 'उपसंहारः सः 'उपनयः' उ4संह्रियतेऽनेनोपनीयतेऽनेनेति वचनरूपः, यथा धूमवांधायमिति ॥१४॥ 15 ३१. निगमनं लक्षयति
साध्यस्य निगमनम् ॥१५॥ ६३२. साध्यधर्मस्य धर्मिण्युपसंहारो निगम्यते पूर्वेषामवयवानामर्थोऽनेनेति 'निगमनम्', यथा तस्मादग्निमानिति ।
६३३. एते नान्तरीयत्वप्रतिपादका वाक्यैकदेशरूपाः पश्चावयवाः । एतेषामेव 20 शुद्धयः पञ्च । यतो न शङ्कितसमारोपितदोषाः पश्चाप्यवयवाः स्वां स्वामनादीनवामर्थविषयां धियमाधातुमलमिति प्रतिज्ञादीनां तं तं दोषमाशा तत्परिहाररूपाः पञ्चैत्र शुद्धयः प्रयोक्तव्या इति दशावयवमिदमनुमानवाक्यं बोध्यानुरोधात् प्रयोक्तव्यमिति॥१५॥
६३४. इह शास्त्रे येषां लक्षणमुक्तं ते तल्लक्षणाभावे तदामासाः सुप्रसिद्धा एव । यथा प्रमाणसामान्यलक्षणाभावे संशयविपर्ययानध्यवसायाः प्रमाणाभासाः, संशयादिल- 25 क्षणाभाचे संशयाद्याभासाः, प्रत्यक्षलक्षणाभावे प्रत्यक्षाभासम्, परोक्षान्तर्गतानां स्मृत्यादीनां स्वस्वलक्षणाभाचे तत्तदाभासतेत्यादि । एवं हेतूनामपि स्वलक्षणाभावे हेत्वाभासता
१ तदन्तसा-डे । २ अव्याप्तस्य हेतोचनं तस्य हेतुत्वम् । । - चने हे.... । ४ विस्तृतस्य । ५ विप्रमृतस्य-डे । ६ प्रस्तुते धामणि टौक्यते साधनधर्मः । ७ उपसंहारव्य(व्युत्पतिरुपनयम्युत्पत्तिः । ८ निवीयते । प्रयोजनम् । १० सा(ना)-तरीयकोऽविनामाची साधनलक्षणोऽर्थः । 11-फत्वं प्रति .... डे० । १२ शक्विताः सन्दिग्धाः समारोपिताश्च दोषा एषाम् । १३ समर्थः । १४ ततस्प०-३० । १५.., तहडे । १६ - भासः परो. -मु.।
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिता [अ० २, आ० १, सू०१६-२०. सुत्रानैव। केवलं हेत्वाभासानां सङ्ख्यानियमः प्रतिव्यक्तिनियतं लक्षणं च नेपत्करप्रतिपत्तीति तल्लक्षणार्थमाह
___ असिद्धविरुद्धानेकान्तिकास्त्रयो हेत्वाभासाः ॥१६॥
३३५. अहेतवो हेतुबदामासमानाः 'हेत्वाभासा' असिद्धादयः। यद्यपि साधनदोषा 5 एचैते अदुष्टे साधने सदभावात् तथापि साधनाभिधायके हेतावुपचारात् पूर्वाचायैरभिहितास्ततस्तत्प्रसिद्धिबाधामनायद्भिरस्माभिरपि हेतुदोषत्वेनैवोच्यन्त इति ।
६३६, 'त्रयः' इति सङ्ख्यान्तरव्यवच्छेदार्थम् । तेन कालातीत-प्रकरणसमयोर्व्यवच्छेदः । तत्र कालातीतस्य पक्षदोषेष्वन्तर्भावः । “प्रत्यक्षागमपाधितकर्मनिर्देशान
तरप्रयुक्तःकालास्ययापदिष्टः" इति हि तस्य लक्षणमिति, यथा अनुष्णस्तेजोऽवयवी 10 कृतकत्वात् घटवदिति । प्रकरणसमस्तु न सम्भवत्येव नद्यस्ति सम्भवो यथोक्तलक्षणे
अनुमाने प्रयुक्तेऽदृषिते वॉऽनुमानान्तरस्य । यत्तदाहरणम्-अनित्याशब्दः पक्षसपक्षयोरन्यतरत्वात् इत्येकेनोक्ते द्वितीय आह-नित्यः शब्दः पक्षसपक्षयोरन्यतरत्वादिति । तदतीवासाम्प्रतम् । को हि चतुरङ्गासभायां वादी प्रतिवादी वैवंविधमसम्बद्धमनुन्मत्तोऽभि
दधीतेति ॥ १६ ॥ 16 ६३७. तत्रासिद्धस्य लक्षणमाहनासन्ननिश्चितसत्त्वो वाऽन्यथानुपपन्न इति सत्वस्यासिद्धौ
सन्देहे वाऽसिद्धः ॥१७॥ ६३८. 'असन्' अविद्यमानो 'नान्यथानुपपन्नः' इति सत्त्वस्यासिद्धौ ‘असिद्धः' हेत्वाभासः स्वरूपासिद्ध इत्यर्थः । यथा अनित्यः शब्दश्चाक्षुषत्वादिति । अपक्षधर्मत्वा20 दयमसिद्ध इति न मन्तथ्यमित्याह-'नान्यथानुपपन्नः' इति । अन्यथानुपपत्तिरूपहेतु
लक्षणविरहादयमसिद्धो नापक्षधर्मत्वात् । नहि पक्षधर्मत्वं हेतोर्लक्षणं तदभावेऽप्यन्यथानुपपत्तिबलाद्धेतुत्वोपपत्तरित्युक्तप्रायम् । भट्टोऽप्याह
"पित्रोव ब्राह्मणस्वेन पुत्रमाणतानुमा ।
सर्वलोकप्रसिद्धा न पक्षधर्ममपेक्षते ॥” इति । 25 १३९. तथा अनिश्चितसवः सन्दिग्धसस्वः 'नान्यथानुपपन्नः' इति सत्त्वस्य सन्देहे
प्यसिद्धो हेत्वाभासः सन्दिग्धासिद्ध इत्यर्थः । यथा पाष्पादिभावेन सन्दिह्यमाना धूम
१ ईषत्करा सुकरा प्रतीतिर्यस्य । २ पूर्वाचार्य । ३ कालमतीतोऽतिक्रान्तः । ४- धितमिनि-डे । ५-०षिते चानु ता०।६ सदी मैवं०-डे०1७ स्यासिद्धावपि सिद्धो हेल-ता. 1८ पक्षधमतां विनाप्यन्यथानुपपनत्वेनैव हेतुर्भवति । यथा पर्वतस्योपरि वृष्टो मेघो नदीपूराम्ययानुफ्परित्यादाभित्याशझ्याह । अयं पुत्री पाणः पित्रोत्राणत्वादिसि पुत्रे प्राणताया अनुमानम् ।
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
shivinitiatekura
5-
ATERIEa
ANTARAMAMACHA
R
हेत्वाभासस्य निरूपणम् 1] प्रमाणमीमांसा । लतामिसिद्धावुपदिश्यमाना, यथा चात्मनः सिद्धावपि सर्वगतत्वे साध्ये सर्वत्रोपलभ्यमौनगुणत्वम्, प्रमाणाभावादिति ॥ १७ ।। ६४०. असिद्धप्रभेदानाह
वादिप्रतिवाद्युभयभेदाच्चैतनेदः ॥ १८ ॥ ४१. 'वादी पूर्वपक्षस्थितः 'प्रतिवादी' उत्तरपक्षस्थितः उभय द्वायेव वादिप्रतिवा- 5 दिनौ । त दादसिद्धस्य 'मेद' । तत्र वासिद्धो यथा परिणामी शब्द उत्पसिमस्यात् । अयं साड्यस्य स्वयं वादिनोऽसिद्धः, तन्मते उत्पत्तिमत्वस्थानभ्युपेतत्वात् , नासदुत्पयते नापि सद्विनश्यत्युत्पादविनाशयोराविर्भावतिरोभावरूपत्वादिति तसिद्धान्तात् । वेतनास्तरवः सर्वत्वगपहरणे मरणात् । अत्र मरणं विज्ञानेन्द्रियायुनिरोधलक्षणं तरुषु बौद्धस्य प्रतिवादिनोऽसिद्धम् । उभयासिद्धस्तु चाक्षुषत्वमुक्तमेव । एवं सन्दिग्धासिद्धी- 16 ऽपि वादिप्रतिवाद्युभयभेदात् त्रिविधो बोद्धव्यः ।। १८ ॥
६४२, नन्वन्येऽपि विशेष्यासिद्धादयो हेत्वाभामाः कैश्चिदिश्यन्ते ते कस्मामोक्ता इत्याह--
विशेष्यासिधादीमावान्तषिः ॥ १९॥ ६४३. 'एम्वेव' वादिप्रतिबाधुमयासिद्धेष्वेव । तत्र विशेष्यासिद्धादय उदाहियन्ते । 15 विशेष्यासिद्धो यथा अनित्यः शब्दः सामान्यवरचे सति चाक्षुषत्वात् । विशेषणासिद्धो यथा अनित्यः शब्दश्राक्षुषत्वे सति सामान्यविशेषवस्वात् । भागासिद्धो यथा अनित्यः शब्दः प्रयनानन्तरीयकत्वात् । आश्रयासिद्धो यथा अस्ति प्रधान विधपरिणामित्वात् । आश्रयैकदेशासिद्धी यथा नित्याः प्रधानपुरुषेश्वराः अकृतकत्वात् । व्यर्थविशेष्यासिद्धो यथा अनित्यः शब्दः कृतकत्वे सति सामान्यवश्वात् । व्यर्थविशेषणासिद्धो यथा अनित्यः 20 शब्दः सामान्यवस्वे सति कृतकस्वात् । सन्दिग्धविशेष्यासिद्धो यथा अद्यापि रागादियुक्तः कपिलः पुरुषत्वे सत्यवान्यनुत्पमतत्त्वज्ञानत्वात् । सन्दिग्धविशेषणासिद्धो यथा अद्यापि रागादियुक्तः कपिला सर्वदा तवज्ञानरहितत्वे सति पुरुषत्वादित्यादि । एतेऽसिद्धभेदा यदान्यतरवाधसिद्धत्वेन विवक्ष्यन्ते तदा बाथसिद्धाः प्रतिवायसिद्धा या भवन्ति । यदोभयवायसिकत्वेन विवक्ष्यन्ते तदोमयासिद्धा भवन्ति ।। १९ ॥
४४. विरुद्धस्य लक्षणमाहविपरीतनियमोऽन्यथैवोपपद्यमानो विरुद्धः ॥ २० ॥
Meaning:
25
PanjaRRODAMORE
-
--
-
-
-
--
१ रक्षा धाम हे। २ आरमा सर्वगतः सर्वत्रोरल अमानगुणत्वात् । --गुणत्वं सन्दिग्धम् । -स्ता । चेत है । ५ न केवलं स्वरूपासिद्धो । ६"आहिताम्म्यादिषु" [हेमश , ३.१.१५३]
भामा व्यवच्छिमः । ८ भागे एकदेशे असिखः अयनानन्तरीयकत्वस्य गजिते अभावात् । सामान्य व्यवछिन । १० नमायिकस्य । ११ननु सामान्ययाचे सतीति विशेषणं प्रवंसाभावव्यवच्छेदार्थ भविष्यवाति, नैवम् , बौद्धनीमासको बारिप्रतिवादिनी स्तस्तयोश्च मतेऽभाच एवं नास्तीति । १२ इषदादिव्यपदाय पुरुषरये सतीत्युक्तम् । १३ साध्यं विनैवोपपद्यमानो विपरीतनियमत्वात् ।
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीमचन्द्रविरचिता [अ० २, आ० १ सू० १-२४.
६४५. 'विपरीतः' यथोक्ताद्विपर्यस्तो 'नियमः' अविनाभावो यस्य स तथा तस्यैवोपदर्शनम् 'अन्यथैवोपपद्यमानः' इति । यथा नित्यः शब्दः कार्यत्वात्, परार्थाश्रक्षुरादयः सातत्वाच्छ्यनाशनाद्यङ्गत्वादित्यत्रा संहतपारार्थ्ये साध्ये चक्षुरादीनां संहतत्वं विरुद्धम् । बुद्धिमत्पूर्वकं क्षित्यादि कार्यत्वादित्यवाशरीरसर्वज्ञकर्तृपूर्वकत्वे साध्ये कार्यत्वं विरुद्ध5 साधनाद्विरुद्धम् ।
५६
४६. अनेन येऽन्यैरन्ये विरुद्धा उदाहृतास्तेऽपि सङ्गृहीताः । यथा सति सपक्षे aare भेदाः । पक्षविपक्षव्यापको यथा नित्यः शब्दः कार्यत्वात् । पक्षव्यापको विपक्षैकदेशवृत्तिर्यथा नित्यः शब्दः सामान्यवन्त्वे सत्यस्मदादिवाह्येन्द्रियग्राह्यत्वात् । पचै - कदेशतिर्विपक्षव्यापको यथा नित्या पृथ्वी कृतकत्वात् । पक्षविपक्षैकदेशषृत्तिर्यथा 10 नित्यः शब्दः प्रयत्नानन्तरीयकत्वात् । असति सपक्षे चत्वारो विरुद्धाः । पक्षविपैचarrest यथा आकाशविशेषगुणः शब्दः प्रमेयत्वात् । पक्षव्यापको विपक्षैकदेशवृत्तिर्यथा आकाशविशेषगुणः शब्दो बाह्येन्द्रियग्राह्मत्वात् । पक्षैकदेशवृत्तिर्विपक्षव्यापको यथा आकाश विशेषगुणः शब्दोऽपैदात्मकत्वात् । पक्षविपक्षैकदेशवृत्तिर्यथा आकाशविशेषगुणः शब्दः प्रयत्नानन्तरीयकत्वात् । एषु च चतुर्षु विरुद्धता, पक्षैकदेशवृत्तिषु चतुर्षु पुनर15 सिद्धेता विरुर्द्धता चेत्युभयसमावेश इति ।। २० ।।
६४७, अनैकान्तिकस्य लक्षणमाहनियमस्यासिद्धौ सन्देहे वाऽन्यथाप्युपपद्यमानोऽनैकान्तिकः ॥२१॥
४८. 'नियेमः' अविनाभावस्तस्य 'असिद्धौ' 'अनैकान्तिकः' यथा अनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात्, प्रमेयत्वं नित्येऽप्याकाशादावस्तीति । सन्देहे यथा असर्वशः कश्विद् रागादिमान् 20 वा वक्तृत्वात् । स्वभावविप्रकृष्टाभ्यां हि सर्वज्ञत्ववीतरागत्वाभ्यां न वक्तृत्वस्य विरोधः सिद्धः, न च रागादिकार्य वचनमिति सन्दिग्धोऽन्ययः । ये चान्येऽन्यैरनैकान्तिकमेदा उदाहृतास्त उक्तलक्षण एवान्तर्भवन्ति । पक्षत्रयच्यापको यथा अनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात्
१ साप्याविनाभावलक्षणात्। २ साध्यविरुद्धेनाविनाभावात् । ३ आत्मार्थाः । ४०नासना० ० । ५सङ्घातत्वम् । ६ पद साधकत्वादस्य । ७ कार्य हि पक्षे शब्दे विपक्षे चानित्ये घटादी दृष्टम् । # अनित्येषु घटादिषु हेतुरस्ति द्वराणुकादिषु सुखदुःखादिषु नास्ति इति । & परमाणुरूपाय geori कृतकत्वं नास्ति कार्यरूपायां अस्ति इति पकदेशखिता । १० देशशब्दो ( दे )प्रयत्नानन्तरीrajagति प्रयक्षानन्तरीयकत्वं नास्ति इति पचैकदेशः । ११ शब्दमन्तरेणान्यस्य विशेषगुणस्याSसम्भवात् सपक्षाभावः १२ संयोगादयः सामान्यगुणाः । आकाशसंयोगादिधु बांधेन्द्रियमात्वमस्ति न महस्वादिषु । १३ मेघादिध्वनी नागपदात्मकत्वमिति पञ्चैकदेशवसिता, संयोगादिषु averseda | १४ विपक्षेप्रमानन्तरीयकत्वमस्ति महत्वे तु नास्ति । १५ पकदेशे विद्यमानत्वात् । १६ ता वेत्यु ता. १७० मादेश - ता० । १८ न केवलं सान्ये सति साध्यं विनापित्यापरर्थः (विनापि इत्यपेरर्थः ) १६० येन सह २० प्रमाणपरिच्छेद्यत्वात् ।
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
Antidian
R
IMARE
Desasuwan
दृष्टान्ताभासनिरूपणम् । ] प्रमाणमीमांसा पक्षसपक्षव्यापको विपक्षकदेशवृत्तिर्यथा गौरयं विषाणित्वात् । पक्षविपक्षव्यापक सपक्षैकदेशतिर्यथा नायं गौः विषाणित्वात् । पक्षन्यापकः सपक्षविपक्षकदेशवृत्चिर्यथा अनित्यः शब्दाः प्रत्यक्षत्वात् । पक्षकदेशवृत्तिः सपक्षविपक्षव्यापको यथा न द्रव्याण्याकाशकालदिगात्ममनांसि क्षणिकविशेषगुणरहितत्वात् । पक्षविपक्षकदेशवृत्तिः सपक्षव्यापी यथा न द्रव्याणि दिकालमनांसि अमूर्तत्वात् । पक्षसपक्षैकदेशतिविपक्षव्यापी यथा 5 द्रव्याणि दिकालमनांसि अमूर्तत्वात् । पक्षत्रयैकदेशत्तिर्यथा अनित्या पृथ्वी प्रत्यक्षत्वादिति ॥ २१ ॥ . ४९. उदाहरणदोषानाह
__ साधर्म्यवैधाभ्यामष्टावष्टौ दृष्टान्ताभासाः ॥२२॥
६५०, परार्थानुमानप्रस्तावादुदाहरणदोषा एवैते दृष्टान्तप्रभवत्वात् तु दृष्टान्तदोषा 10 इत्युच्यन्ते । दृष्टान्तस्य नसायंवैधर्मादेन द्विविधल्या प्रकार अधावष्टौ' दृष्टान्तबदामासमानाः 'दृष्टान्ताभासाः' भवन्ति ।। २२ ।।। ५१, तानेवोदाहरति विभजति चअमूर्तत्वेन नित्ये शब्दे साध्ये कर्म-परमाणु-घटाः
साध्यसाधनोभयविकलाः ॥२३॥ ___15 ६५२. नित्यः शब्दः अमूर्तत्वादित्यस्मिन् प्रयोगे कर्मादयो यथासङ्ख्यं साध्यादिविकलाः । तत्र कर्मवदिति साध्यविकला, अनित्यत्वात् फर्मणः । परमाणुवदिति साधनविकला, मूर्तत्वात् परमाणूनाम् । घटवदिति साध्यसाधनोभयविकला, अनित्यत्वान्मूर्तत्वाच्च घटस्येति । इति श्रेयः साधर्म्यदृष्टान्ताभासाः ॥२३॥
वैधम्र्येण परमाणुकर्माकाशाः साध्याद्यव्यतिरेकिणः ॥ २४ ॥ 20
५३. नित्यः शब्दः अमूर्तत्वादित्यस्मिन्नेत्र प्रयोगे 'परमाणुकर्माकाशा साध्यसाधनोभयाव्यतिरेकिणो दृष्टान्ताभासा भवन्ति । यन्नित्यं न भवति तदमूर्तमपि न भवति यथा परमाणुरिति साध्याच्यतिरेकी, नित्यत्वात् परमाणूनाम् । यथा कर्मति साधनाच्यावृत्तः, अमूर्तत्वात् कर्मणः । यथाकाशमित्युभयाव्यावृत्ता, नित्यत्वादमूर्तत्वाचाकाशस्येति प्रय एवं वैधर्म्यदृष्टान्ताभासाः ॥ २४ ॥
25
HTHHTHHTHIM
१ अश्वादौ विधाणितं नास्ति महिषादौ त्वस्ति इति विपक्षकदेशवृतित्वम् । २ गवत्वात् । ३ अर्ज दृष्ट्वा वति । महिषादावस्ति अश्वादौ तु नास्ति । ५ व्यणुकादि में प्रत्यक्षं बटादिकं तु प्रत्यक्षम् । ५ नित्यं सामान्य प्रत्यक्षमाकाशे तु न । ६ आत्माकाशौ सुखशब्दाधिक्षणिकविशेषगुणयुक्ती, [ विवक्षाः ] पृथिव्यादयः । भुवो गन्धः स्मघा स्नेहोऽक्षणिकविशेषगुणौ। ७ आकाशोऽमूर्तः पृथिवी मूर्ता । परमाणुरूपा पृथिवीन प्रस्थना कार्यरूपा तु प्रति पक्षक देशः ], अजोषणुकेच सपक्षेषु प्रत्यक्षत्वाभावः, नित्येषु सामान्यादिषु प्रत्यक्षत्वम् , खेतुन । ९ अयोऽपि सामु-पा।
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
15
५८
५४. तथा
वचनाद्रागे रागान्मरणधर्मकिञ्चिज्ज्ञत्वयोः सन्दिग्धसाध्याद्यन्वयव्यतिरेका रथ्यापुरुषादयः ॥ २५ ॥
५५. सन्दिग्धसाध्यसाधनोभयान्वयाः सन्दिग्धसाध्यसाधनोभयव्यतिरेकाच त्रय6 वयो भासा भवन्ति । के इत्याह - रथ्यापुरुषादयः' । कस्मिन् साध्ये १ । 'रागे' 'मरणधर्म किञ्चिज्जेत्वयोः' च । कस्मादित्याह - 'वचनात् ' 'रागात्' च । तत्र सन्दिग्ध
धर्मान्वयो यथा विवक्षितः पुरुषविशेषो रागी वचनाद रध्यापुरुषवत् । सन्दिग्धसाधर्मावयो यथा मरणधर्माऽयं रागात् रथ्यापुरुषवत् । सन्दिग्धोभयधर्मान्वय यथा किञ्चिज्ञोऽयं रागात् रथ्यापुरुषवदिति । एषु परचेतोवृत्तीनां दुरधिगमत्वेन साथ10 ते रयापुरुषे रागकिञ्चिज्ज्ञत्वयोः सवं सन्दिग्धम् । तथा सन्दिग्धसाध्यव्यतिरेको यथा रागी वचनात् रथ्यापुरुषवत् । सन्दिग्धसाधनव्यतिरेको यथा मरणेघर्माsयं रागात् रथ्यापुरुषवत् । सन्दिग्धोभयव्यतिरेको यथा किञ्चिज्ज्ञोऽयं रागात् रथ्यापुरुषवत् । एवं पूर्ववत् परचेतोरन्ययत्वाद्वैधर्म्यदृष्टान्ते रथ्यापुरुषे रागकिञ्चिज्यत्वयोरसवं सन्दिग्धमिति ।। २५ ।।
६५६. तथा
आचार्यश्री हेमचन्ट्रविरचिता [अ० २ ० १ सू० २५-२९.
25
विपरीतान्वयव्यतिरेकौ ॥ २६ ॥
६५७. 'विपरीतान्वयः ' 'विपरीतव्यतिरेकः' च दान्ताभासौ भवतः । तत्र विपरीतान्त्रयो यथा यत् कृतकं तदनित्यमिति वक्तव्ये यदनित्यं तत् कृतकं यथा घट score | fariaoratsो यथा अनित्यत्वाभावे न भवत्येव कृतकत्वमिति वक्तव्ये 20 कृतकत्वाभावे न भवत्येवानित्यत्वं यथाकाश इत्याह । साधनधर्मानुत्रादेन साध्यधर्मस्य विधानमित्यन्वयः । साध्यधर्मव्यावृत्यनुवादेन साधन धर्मव्याधृतिविधानमिति व्यतिरेकः । तयोरन्यथामा विपरीतत्वम् । यदाह-
"साध्यानुवादालिङ्गस्य विपरीतान्यो विधिः ।
स्वभावे Ferirध्यं व्यतिरेकविपर्यये ॥” इति ॥ २६ ॥
अप्रदर्शितान्वयव्यतिरेकौ ॥ २७ ॥
१५८. 'अप्रदर्शितान्वयः' 'अप्रदर्शितव्यतिरेकः च दृष्टान्ताभासौ । एतौ च
१-० धर्मत्यकि०डे० । २ साध्ययोः । ३ यथासंख्येन । ४ यो यो रागी न भवति स स वापि न भवति । रथ्यानरे harse प्रकारेण मूर्तरवादिना वचनाभावे निश्विते रागित्वं सन्दिते । ५ मरणापवादिनं साख्यं प्रति जैनो दक्ति । ६ प्रयोगेषु । ॐ भावो वि०-०८-०न्वये वि०ता० ६ कथयति । १००पर्यय इ०-० ।
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
RAARRAYARIHAR
I
सा
16
दूषणनिरूपणम् ।
प्रमाणमीमांसा । प्रमाणस्यानुपदर्शनाद्भवतो न तु वीप्सासरूवधारणपदानामप्रयोगात , सत्स्वपि सेष्वसति प्रमाणे तयोरसिद्धेरिति । साध्यविकलसाधन विकलोमयविकलाः, सन्दिग्धसाध्यान्वयसन्दिग्धसाधनान्वयसन्दिग्धोभयान्वयाः, विपरीतान्धयः, अप्रदर्शितान्वयश्चेत्यष्टौ साधर्म्यदृष्टान्ताभासाः । साध्याव्याससाधनाच्यावतोभयाच्यावृत्ताः, सन्दिग्धसाध्यव्यावृत्तिसन्दिग्धसाधनच्यावृत्तिसन्दिग्धोभयच्यावृत्तयः, विपरीसध्यतिरेकः, अप्रदर्शितव्य- 5 तिरेकश्वेत्यशावेव वैचर्यदृष्टान्ताभासा भवन्ति ।।
५९. नन्वनन्ययाव्यतिरेकावपि कैश्चिद् दृष्टान्ताभासायुक्तो, यथा रागादिमानयं वचनात् । अत्र साधर्म्यदृष्टान्ते आत्मनि रागवचनयोः सत्यपि साहित्ये, वैधHदृष्टान्ते चोपलखण्डे सत्यामपि सह निवृत्तौ प्रतिवन्धाभावेनान्वयव्यतिरेकयोरभाव इत्यनन्वयाव्यतिरेको । तौ कस्मादिह नोक्तौ १ । उच्यते-ताभ्यां पूर्वे न भियन्त इति साध- 10 यंवैधाभ्यां प्रत्येकमष्टावेव दृष्टान्ताभासा भवन्ति । यदाहुः--
"लिङ्गस्यानन्धया अष्टावष्टायव्यतिकिणः ।
नान्यथानुपपन्नत्यं कथंचित् ख्यापयन्त्यमी ॥” इति ॥२७॥ $ ६०, अवसितं परार्थानुमानमिदानी तन्त्रान्तरीयकं दूषणं लक्षयति
साधनदोषोद्भावनं दूषणम् ॥२८॥ ६१. 'साधनस्य' पसर्थानुमानस्य ये असिद्धविरुद्धादयो 'दोषाः पूर्वमुक्तास्तेपामुद्भाव्यते प्रकाश्यतेऽनेनेति 'उद्भावनम्' साधनदोपोद्भावकं वचनं 'दूषणम्' । उत्तरत्राभूतग्रहणादिह भूतदोषोद्भावना दूषणेति सिद्धम् ।।२८॥ $ ६२. दूषणलक्षणे दुषणाभासलक्षणं सुनानमेव मेदप्रतिपादनार्थ तु तल्लक्षणमाह--
अभूतदोषोद्भावनानि दूषणाभासा जात्युत्तराणि ॥२९॥ 20 ॥ ६३. अविद्यमानानां साधनदोषाणां प्रतिपादनान्यदूषणान्यपि दूषणवदामासमानानि 'दूषणामासाः' । तानि च 'जात्युत्तराणि। जातिशब्दः सादृश्यवचनः । उत्तरसदृशानि जात्युत्तराणि उत्तरस्थानप्रयुक्तत्वात् । उत्तरमशानि जात्युत्तराणि । जात्या सादृश्येनोत्तराणि जात्युत्तराणि । तानि च सम्यग्घेतो हेत्वाभासे वा वादिना प्रयुक्ते झटिति तोपतचाप्रतिभासे हेतुप्रतिबिम्बनमायाणि प्रत्यवस्थानान्यनन्तत्वात्परिमख्यातुं न 25 शक्यन्ते, तथाप्यक्षपादर्शितदिशा साधयादिप्रत्यवस्थानभेदेन साधर्म्यवैधयोंरकर्षापकर्षवर्ध्यावर्ण्यविकल्पमाध्यप्रात्यप्राप्तिप्रसङ्गप्रतिदृष्टान्तानुत्पत्तिसंशयप्रकरणाहेत्व - पित्यविशेषोपपत्त्युपलब्ध्यनुपलब्धिनित्यानित्यकार्यसमरूपतया चतुर्विंशतिरुपदयन्ते।
१ च्याप्तिग्राहकस्य कहाख्यस्य । २ यत् यत् कृतकम्। ३ यत्कृतकं तत्सर्वम् । ४ यत् ऋतक सदनित्यमेव । ५ अन्वयध्यतिरेकयोः । ६-कलमन्दिर-हे।। ७ तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणसम्बम्धाभावेना भूतादोष.....-डे ०। ९ संझाशब्दोऽयम् । १..कार्यसरूपता ।
NEETINHANNEL
misasurthi
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
elasannaissessines
RNAMORORSECOROYALYAGDXXAdvayXXIPRINTOXOWYNAVNAYatrimonymTRAM
Nokiassetmletessolut
-13050000N
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिता [अ० २, आ० १, सू.. २९. ६६४. तत्र साधर्म्यण प्रत्यवस्थानं साधर्म्यसमा जातिः । यथा अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवदिति प्रयोगे कृते साधर्म्यप्रयोगेणैव प्रत्यवस्थानम्--नित्यः शब्दो निरवयवत्वादाकाशवत् । न चास्ति विशेषहेतुर्घटसाक्षात् कृतकत्वादनित्यः शब्दो न पुन
राकाशसाधयामिरवयवत्वामित्य इति १ | चैधर्येण प्रत्यवस्थानं वैधय॑समा जातिः । 5 यथा अनित्यः शब्दः कृतकत्वादित्यत्रैव प्रयोगे स एव प्रतिहेतु(धर्येण प्रयुज्यते-- नित्यः शब्दो निरवयवत्वात् , अनित्यं हि सावंयवं दृष्टं घटादीति । न चास्ति विशेषहेतुर्घटसाधयत्कृितकत्वादनित्यः शब्दो न पुनस्तद्वैधानिरवयवत्वामित्य इति २ । उत्कपोषकषोभ्यां प्रत्यवस्थानमुत्कोपकर्षसमे जाती। तत्रैव प्रयोगे दृष्टान्तधर्म कश्चित्
साध्यधर्मिण्यापादयन्नुत्कर्षसमां जातिं प्रयुङ्क्ते-यदि घटवत् कृतकत्वादनित्यः शब्दो 10 घटवदेव मृतॊऽपि भवतु । न चेन्मृतो घटबदनित्योऽपि मा भूदिति शब्दे धर्मान्तरो
त्कर्षमापादयति ३। अपकर्षस्तु घटः कृतका सम्बश्रावणो दृष्ट एवं शब्दोप्यस्तु । नो चेद् घटबदनित्योऽपि माभूदिति शब्दे श्रावणवधर्ममपकर्षतीति ४ । वावाभ्यां प्रत्यवस्थानं वावर्ण्यसमे जाती । ख्यापनीयो वर्ण्यस्तविपरीतोऽवण्यः । सावता
वण्यावण्यों साध्यदृष्टान्तधर्मो विपर्यस्यन् वावर्ण्यसमे जाती प्रयुङ्क्ते-यथाविधः 15 शब्दधर्मः कृतकवादिन तादृग्घटधर्मो यादृग्घटधर्मो न ताक् शब्दधर्म इति ५-६ ।
धर्मान्तरविकल्पेन प्रत्यवस्थानं विकल्पसमा जातिः । यथा कृतकं किश्चिन्मृदु दृष्टं राङ्कवशय्यादि, किश्चित्कठिनं कुठारादि, एवं कृतकं किश्चिदनित्यं भविष्यति घटादि किञ्चि नित्यं शब्दादीति ७ । साध्यसाम्यापादनेन प्रत्यवस्थान साध्यसमा जातिः । यथा-यदि
यथा घटस्तथा शब्दः, प्राप्तं नहि यथा शब्दस्तथा घट इति । शब्दश्च साध्य इति घटोऽपि 20 साध्यो भवतु । ततश न साध्यः साध्यस्य दृष्टान्तः स्यात् । न चेदेवं तथापि वैलक्षण्यात्सुतरामदृष्टान्त इति ८ । प्राप्त्यप्राप्तिविकल्पाभ्यां प्रत्यवस्थान प्राप्त्यप्राप्तिसमे जाती। यथा यदेतत् कृतकत्वं त्वया साधनमुपन्यस्तं तत्कि प्राप्य साधयत्यप्राप्य वा प्राप्य चेत् । द्वयोर्विधमानयोरेव प्राप्तिर्भवति, न सदसतोरिति । द्वयोश्च सन्चात् किं कस्य साध्यं साधनं या१९। अप्राप्य तु साधनत्वमयुक्तमतिप्रसङ्गादिति १० । अतिप्रसङ्गापादनेन प्रत्ययस्थानं 25 प्रसङ्गसमा जातिः। यथा यद्यनित्यत्वे कृतकत्वं साधनं कृतकत्व इदानीं किं साधनम् ।
तत्साधनेऽपि किं साधनमिति ? ११ प्रतिदृष्टान्तेन प्रत्यवस्थानं प्रतिदृष्टान्तसमा जातिः। यथा अनित्यः शब्दः प्रयत्नानन्तरीयकत्वात् घटवदित्युक्ते जातिवाद्याह-यथा घटः प्रयलानन्तरीयकोऽनित्यो दृष्ट एवं प्रतिदृष्टान्त आकाशं नित्यमपि प्रयत्नानन्तरीयकं दृष्टम् , पखननप्रयत्नानन्तरमुपलम्भादिति । न चेदमनैकान्तिकत्वोडावनम् , भङ्गथन्तरेण प्रत्य
१ जेनः उत्तरं ते निरवयवयं प्रक्षासिद्ध साधनबिकलश्च दृष्टान्तः, ज्ञानेनानेकान्तिकोऽपि । २ अत्रापि ज्ञानेनाकान्तिकः । ३ साश्यधर्मदृष्टान्तधर्मयोवैधमापादयन् । ४ीन साध्वधर्भक सान्तस्यावर्यभूतस्य समस्यापने न दृष्टान्त स्थायिति वयसमा जातिः । ५ अवार्यरूपरष्टास्ताअष्टम्भेन साधनस्थाऽवयरूपत्वमायातमित्यवश्यसमा जातिः। ६याटक बघ...मु...पा. 1
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
दूषणाभासनिरूपणम् । ]
प्रमाणमीमांसा |
६१
स्थानात् १२ | अनुत्पत्त्या प्रत्यवस्थानमनुत्पत्तिसमा जातिः । गथा अनुत्पन्ने शब्दाख्ये धर्मिणि कृतकत्वं धर्मः क्व वर्तते । तदेवं हेत्वभावादसिद्धिरनित्यत्वस्येति १३ । साथfeer veer at या जातिः पूर्वमुदाहृता सैव संशयेनोपसंहियमाणा संशयसमा जातिर्भवति । यथा किं घटसाधर्म्यात् कृतकत्वादनित्यः शब्द उत तद्वैधर्म्यादाकाशreat fararara इति १ १४ । द्वितीया प्रयुज्यमाना 5 सैव साधर्म्यसमा बैधर्म्यसमा वा जातिः प्रकरणसमा भवति । तत्रैव अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद् घटवदिति प्रयोगे - नित्यः शब्दः श्रावणत्वाच्छन्देववदिति उद्भावनप्रकार मेदमात्रे सति नानात्वं द्रष्टव्यम् १५ । त्रैकाल्यानुपपच्या हेतोः प्रत्यवस्थानमहेतुसमा जातिः । यथा हेतुः साधनम् । तत् साध्यात्पूर्वं पश्चात् सह वा भवेत् ? । यदि पूर्वम् असति साध्ये तत् कस्य साधनम् १ | अथ पश्चात्साधनम् ; पूर्वं तर्हि साध्यम्, तस्मिंश्र पूर्वसिद्धे 10 किं साधनेन ? | अथ युगपत्साध्यसाधनेः तर्हि तयोः सव्येतरगोविषाणयोरिव साध्यसाधनभाव एव न भवेदिति १६ । अर्थापच्या प्रत्यवस्थानमर्थापत्तिसमा जातिः । यद्यनिपसाधम्र्म्यात्कृतकत्वादनित्यः शब्दः, अर्थादापद्यते नित्यसाधम्र्यान्नित्य इति । अस्ति चास्य नित्येनाकाशादिना साधर्म्य निरवयवत्वमित्युद्धावनप्रकारभेद एवायमिर्ति १७ । अविशेषापादनेन प्रत्यवस्थानमविशेषसमा जातिः । यथा यदि शब्दपटयोरेको धर्मः 15 कृतकत्वमिष्यते तर्हि समानधर्मयोगात्तयोरविशेषे तद्वदेव सर्वपदार्थानामविशेषः प्रसज्यत इति १८ । उपपस्या प्रत्यवस्थानमुपपत्तिसमा जातिः । यथा यदि कृतकत्वोप पस्या शब्दस्यानित्यत्वम्, निरवयवत्वोपपस्या नित्यत्वमपि कस्मान्न भवति ? । पक्षद्वयोपपरयाऽनध्यवसाय पर्यवसानत्वं विवक्षितमित्युद्भावनप्रकारभेद एवायम् १९ । उपलstor प्रत्यवस्थानमुपलब्धिसमा जातिः । यथा अनित्यः शब्दः प्रयत्नानन्तरीयकत्वा- 20 दिति प्रयुक्ते प्रत्यवतिष्ठते न खलु प्रयलानन्तरीयकत्वमनित्यत्वे साधनम् ; साधनं हि तदुच्यते येन विना न साध्यमुपलभ्यते । उपलभ्यते च प्रयज्ञानन्तरीयकत्वेन विनाऽपि विद्युदादावनित्यत्वम् । शब्देऽपि कचिद्वायुवेगभज्यमानवनस्पत्यादिजन्ये तथैवेति २० । अनुपलब्ध्या प्रत्यवस्थानमनुपलब्धिसमा जातिः । यथा तत्रैव प्रयत्नानन्तरीयकस्वहेतावुपन्यस्ते सत्याह जातिवादी न प्रयलकार्यः शब्दः प्रागुचारणादस्स्यैवासाबाव- 25 रणयोगात नोपलभ्यते । आवरणानुपलम्भेऽप्यनुपलम्भानास्त्येव शब्द इति चेत् न, आवरणानुपलम्भेप्यनुपलम्भसद्भावात् | आवरणानुपलब्धेश्वानुपलम्भाद्भावः । तदभावे चारणोपलब्धेर्भावो भवति । ततश्च मृदन्तरितमूलकीलोदकादिवदावरणोपलब्धिकृतमेव शब्दस्य प्रyereणादग्रहणमिति प्रयत्नकार्यस्थाभावानित्यः शब्द इति २१ । साध्य
b
१ तथैवानि ०-० । २ जैनं प्रति दृष्टान्तः साध्यविकलस्तेन हि शब्दत्वस्य नित्यानित्यत्वस्याभ्युपेतत्वात् व्याप्तिरप्य सिद्धा । ३ उद्भावनं प्र० स० । ४ तस्मिन् पूर्व सिद्धे है० । ५-- ज्ञावनं प्र०डे० । ६ अत्र कमेवोशरम् । ७-०त्यैवावर ० - ० । चेत् आ०० ९ अत्रोसरम् — प्रत्ययमेवभेदित्वात अ(?)प्रयत्नानन्तरीयकत्वं विशितशब्दस्व सिद्धमेव द्रव्यस्य (1) प्रयत्नेन शब्दों विवक्षितो जन्यत एव न तु व्यज्यते ।
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२
SarswammHowwwmawwarossadoessomgadaraseoRARSH
N EEDOCES
S
आचायत्राहमचन्द्रावरायता [अ० २, आ० १, सू० २९-२०० धर्मनित्यानित्यत्वविकल्पेन शब्दनित्यत्वापादनं नित्यसमा जातिः । यथा अनित्यः शब्द इति प्रतिज्ञाते जातिवादी विकल्पयति-येयमनित्यता अब्दस्योच्यते सा किमनित्या नित्या वेति । यद्यनित्या; तदियमवश्यमपायिनीत्यांनत्यताया अपायानित्यः शब्दः।
अथानित्यता नित्यैव ; तथापि धर्मस्य नित्यस्वासस्य च निराश्रयस्यानुपपचेस्तदाश्रय5 भूतः शब्दोऽपि नित्यो भवेद , सदनित्यत्वे तद्धर्मनित्यत्वायोगादित्युभयथापि नित्यः
शब्द इति २२ । सर्वभावानित्यत्वोपपादनेन प्रत्यवस्थानमनित्यसमा जातिः। यथा घटेन साधर्म्यमनित्येन शब्दस्यास्तीति तस्यानित्यत्वं यदि प्रतिपाद्यते, तद् घटेन सर्वपदार्थानामस्त्येव किमपि साधर्म्यमिति तेषामप्यनित्यत्वं स्यात् । अथ पदार्थान्तराणां तथा
भावेऽपि नानित्यत्वम् । तर्हि शब्दस्यापि तन्मा भूदिति । अनित्यत्वमात्रापादनपूर्वकविशे10 पोद्भावनाचाविशेषसमातो मिभयं जातिः २३ । प्रयत्नकार्यनानात्वोपन्यासेन प्रत्यवस्थानं
कार्यसमा जातिः । यथा अनित्यः शब्दः प्रयलानन्तरीयकवादित्युक्ते जातिवाद्याहप्रयत्नस्य द्वैरूप्यं दृष्टम्-किश्चिदसदेव तेन जन्यते यथा घटादि, किश्चित्सदेवावरणव्युदासादिनाऽभिव्यज्यते यथा मृदन्तरितमूलकीलादि, एवं प्रयत्नकार्यनानात्वादेष प्रयत्न
शब्दो व्यज्यते जन्यते वेति संशय इति । संशयापादनप्रकारमेदाच संशयसमातः कार्य15 समा जातिर्भिधते २४ ।। ___६६५, तदेवसुद्धापनविषयविकल्पमेदेन जातीनामानन्त्येऽप्यसङ्कीर्णोदाहरणविवक्षया चतुर्विशतिर्जातिभेदा एते दर्शिताः । प्रतिसमाधानं तु सर्वजातीनामन्यथानुपपसिलक्षणानुमानलक्षणपरीक्षणमेव । न ह्यविप्लुतलक्षणे हेतावेवंप्रायाः पाशुपाताः
प्रभवन्ति । कृतकत्वप्रयत्नानन्तरीयकत्वयोश्च दृहप्रतिबन्धत्वाचावरणादिकृतं शब्दानुपल20 म्भनमपि त्वनित्यत्वकृतमेव । जातिप्रयोगे च परेण कृते सम्यगुत्तरमेव वक्तव्यं न
प्रतीपं जात्युत्तरैरेव प्रत्यवस्थेयमासमञ्जस्य प्रसङ्गादिति ।। ___६६. छलमपि च सम्पगुत्तरत्वाभावाआत्युत्तरमेवे । उक्तं ह्येतदुद्भावनप्रकारभेदेनानन्तानि जात्युत्तराणीति । तत्र परस्य वदवोऽर्थविकल्पोपपादनेन वचनविघात
श्छलम् । तत्रिधा वाक्छलं सामान्यच्छलमुपचारच्छलं चेति । तत्र साधारणे शब्दे प्रयुक्त 25 वक्तुरभिप्रेतादर्थादर्थान्तरकल्पनया तनिषेधो वाक्छलम् । यथा नवकम्बलोऽयं माण
वक इति नूतनविवक्षया कथिते परः सङ्ख्यामारोप्य निषेधति-कुतोऽस्य नब कम्बला इति । सम्भावनयातिप्रसनिनोऽपि सामान्यस्योपन्यासे हेतुत्वारोपणेन तभिषेधः सामान्यच्छलम् | यथा अहो नु खल्बसौ बामणो विद्याचरणसम्पन्न इति ब्राह्मणस्तुतिप्रसङ्गे
कविद्वदति-सम्भवति ब्रामणे विद्याचरणसम्पदिति । तत् छलवादी आह्मणत्वस्य हेतुता80 मारोप्य निराकुर्वअभियुक्त-यदि ब्राह्मणे विद्याचरणसम्पद् भवति, व्रात्येऽपि सा भवेत्
१- त्यैव न तथा. -डे,। २ दिनश्वरस्वमायायामनिस्यतायो नित्यानित्यत्वविकल्पना में घटत एक अन्यथा कृतकत्वस्याऽपि कृतकत्वं पृच्छयताम् । ३ जैन प्रतिसाध्यता नैयायिक प्रत्यभित्यत्तस्य शब्दकृतकस्वेन ब्यासिईष्टा व्यमियासत)।४-०क्षणहेतपरी...।५-,मेव ।-डे । ६-प्रतावान्तर-डे ।
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
वादस्य निरूपणम् । ]
प्रमाणमीमांसा |
६३
नात्योऽपि ब्राह्मण एवेति । औपचारिके प्रयोगे मुख्यप्रतिषेधेन प्रत्यवस्थानमुपचार - च्छलम् । यथा मश्वाः क्रोशन्तीति उक्ते परः प्रत्यवतिष्ठते - कथमचेतनाः मञ्चाः क्रोशन्ति मञ्चस्थास्तु पुरुषाः क्रोशन्तीति । तदत्र छलत्रयेऽपि वृद्धव्यवहारप्रसिद्धशब्दसामर्थ्यपरीक्षणमेव समाधानं वेदितव्यमिति ॥ २९ ॥
६७. साधनदूषणाभिधानं च प्रायो वादे भवतीति वादस्य लक्षणमाहतन्वसंरक्षणार्थं प्रानिकादिसम साधनदूषणवदनं वादः ॥ ३० ॥
6
६६८. स्वपक्षसिद्धये वादिनः 'साधनम्' तत्प्रतिषेधाय प्रतिवादिनो 'दूषणम् । प्रतिवादिनोऽपि स्वपक्षसिद्धये 'साधनम्' तत्प्रतिषेधाय वादिनो 'दूषणम्' । तदेवं वादिनः साधनदूषणे प्रतिवादिनोऽपि साधनदूषणे द्वयोर्वादिप्रतिवादिभ्याम् 'वदनम्' अभिधानम् 10 'वाद:' । कथमित्याह- 'प्रानिकादिसमक्षम्' । प्रानिकाः सम्या:--
"स्व समयपर समयज्ञाः कुलजाः पचयेप्सिताः क्षमिणः । वादपथेष्वभियुक्तास्तुलासमाः प्राश्निकाः प्रोक्ताः ॥"
इत्येवंलक्षणाः । 'आदि' ग्रहणेन सभापतिवादिप्रतिवादिपरिग्रहः, सेयं चतुरङ्गा कथा, एकस्याप्यस्य वैकल्ये कथात्वानुपपतेः । नहि वर्णाश्रमपालनक्षम न्यायान्याथव्य - 15 स्थापक पक्षपातरहितत्वेन समदृष्टि सभापतिं यथोक्तलक्षणांच प्रानिकान् विना वादिप्रतिवादिनौ स्वाभिमतसाधनदूषणसरणिमाराधयितुं क्षमौ । नापि दुःशिक्षितकुतर्कलेशवाचालबालिशजनविप्लावितो गतानुगतिको जनः सन्मार्ग प्रतिपद्येतेति । तस्य फलमाह 'तसंरक्षणार्थम्' | 'त' शब्देन तत्त्वनिश्वयः साधुजनहृदयविपरिवर्ती गृह्यते, तस्य रक्षणं दुर्विदग्धजनजनितविकल्पकल्पनात इति ।
20
11
९ ६९, ननु तवरक्षणं जल्पस्य वितण्डाया वा प्रयोजनम् । यदाह - "तबाव्यवसायसंरक्षणार्थं जल्पवितण्डे भीजप्ररोह संरक्षणाथ कण्टकशाखापरिचरणवत्' [ न्यायसू० ४.१.५० ] इति न वादस्यापि निग्रहस्थानत्रत्वेन तत्त्वसंरक्षणार्थत्वात् । न चास्य निग्रहस्थानवत्वमसिद्धम् ! " प्रमाणतर्कसाघनोपालम्भः सिद्धान्तांविरुद्धः पकचावयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो बाद ” 25 [ न्यायसू० १. १. १ ] इति वादलक्षणे सिद्धान्ताविरुद्ध इत्यनेनापसिद्धान्तस्य पञ्चावयवोपपद्म इत्यनेन न्यूनाधिकयोर्हेत्वाभासपञ्चकस्य वेत्यष्टानां निग्रहस्थानानामनुज्ञानात् तेषां च निग्रहस्थानान्तरोगलक्षणत्वात् । अत एव न जल्पवितण्डे कये, वादस्यैव तत्वसंर क्षणार्थत्वात् ।
7
$ ७०. ननु " यथोस्कोप पत्रच्छलजातिनिग्रहस्थान साधनोपालम्भो जल्पः " 30
१-०क्षणे तयोर्वा०डे० । २ इत्येवंत्वल० है ० ।
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिता [अ० २, आ०१, सू० ३१-३४. [ न्या० १. २. २ ], "स प्रतिपक्षस्थापनाहीनी वितण्डा' न्या. ६. २. ३] इति लक्षणे भेदाअल्पवितण्डे अपि कथे विद्यते एव ; न प्रतिपक्षस्थापनाहीनाया विनण्डायाः कात्यायोगात् । चैतण्डिको हि स्वैपक्षमभ्युपगम्यास्थापयन् यत्किचिद्वादेन परपक्ष
मेव दूषयन् कथमवधेयवचनः १। जल्पस्तु यद्यपि द्वयोरपि वादिप्रतिवादिनोः साधनो5 पालम्भसम्भावनया कथात्वं लभते तथापि न बादादर्थान्तरम् , वादेनेव चरितार्थत्वात् ।
छलजातिनिग्रहस्थानभ्यस्त्वयोगादचरितार्थ इति चेत् न, छलजातिप्रयोगस्य दूषणाभासत्वेनाप्रयोज्यत्वात् , निग्रहस्थानानां च वादेप्यविरुद्धत्वात् । न खलु खर्टचपेटासुखबन्धादयोऽनुचिता निग्रहा जल्पेऽप्युपयुज्यन्ते । उचितानां च निग्रहस्थानानां
वादेऽपि न विरोधोऽस्ति । तत्र वादात् अल्पस्य कश्चिद् विशेषोऽस्ति । लाभपूजा10 ख्यातिकामितादीनि तु प्रयोजनानि तस्वाध्यवसायसंरक्षणलक्षणप्रधानफलानुबन्धीनि पुरुषधर्मत्वाद्वादेऽपि न निवारयितुं पार्यन्ते ।
६७१. ननु छलजातिप्रयोगोऽसदुत्तरत्वाद्वादे न भवति , जल्पे तु तस्यानुजानादस्ति बादजल्पयोर्विशेषः । यदाह
"दु:शिक्षितकुतकापालेशवाचालिताननाः । शक्या किमन्यथा जेतुं वितण्डाटोपपण्डिताः ॥ गतानुपतिको खोका कुमार्ग तत्प्रतारितः ।
मा गादिलिच्छलादीनि माह कारुणिको मुनिः" ॥ इति । [ न्यायम० पृ. नैवम् । असदुत्तरैः परप्रतिक्षेपस्य कर्तुमयुक्तत्वात् । न अन्यायेन जयं यशो धनं
या महात्मानः समीहन्ते । अथ प्रबलप्रतिवादिदर्शनात् ताये धर्मध्वंससम्भावनात् । 20 प्रतिभाक्षयेण सम्यगुत्तरस्याप्रतिभासादसदुत्तरैरपि पांशुभिरिवावकिरनेकान्तपराजयादरं
सन्देह इति धिया न दोषमावहतीति चेत् ; न, अस्यापचादिकस्य जात्युत्तरप्रयोगस्य कथान्तरसमर्थनसामाभावात् । बाद एव द्रध्यक्षेत्रकालभावानुसारेण यद्यसदुत्तरं कथंचन प्रयुञ्जीत किमेतावता कथान्तरं प्रसज्येत । तस्माअल्पवितण्डानिराकरणोन वाद
एवैकः कथाप्रथां लभत इति स्थितम् ।। ३० ।।। 25६७२. वादश्च जयपराजयावसानो भवतीति जयपराजययोर्लक्षणमाह..
स्वपक्षस्य सिद्धिर्जयः ॥ ३१ ॥ ६७३. वादिनः प्रतिवादिनो वा या स्वपक्षस्य सिद्धिः सा जयः। सा च स्वपक्षसाधनदोषपरिहारेण परपक्षसाधनदोषोद्भावनेन च भवति । स्वपक्षे साधनमब्रुवन्नपि प्रति
१- हीना वि.- ० । २"प्रयोजनम् (हैमा० ६. ४. ११५) इतीकण । ३-० कोऽपि स्व-ता । ४ प्रत्यपि । ५ यश्च तत् किधिच तस्य वादः । ६ तृणविशेष 4 ७ अनुसारीणि 1 ८ छलादीन् निना । तस्य प्रतिवादिनो जये 1 १० चेत् अस्था--ता- 1 ११ परिहारोद्वानमाभ्यां समस्ताभ्यां न व्यस्ताभ्याम् इति भार्थः ।
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
निग्रहस्थानस्य निरूपणम् ।] प्रमाणमीमांसा । वादी वादिसाधनस्य विरुद्धतामुद्भावयन् वादिनं जयति, विरुद्धतोद्भावनेनैव स्वपक्षे साधनस्योक्तत्वात् । यदाह-"विरुद्धं हेतुमुद्भाव्य वादिनं जयतीतरः" इति ॥३१॥
असिद्धिः पराजयः ॥ ३२॥ ७४. वादिनः प्रतिवादिनो वा या स्वपक्षस्य सिद्धिः सा 'पराजय' । सा च साधनाभासाभिधानात् , सम्यक्साधनेऽपि वा परोक्तदूषणानुद्धरणाद्भवति ॥ ३२ ॥ 5
७५, ननु यद्यसिद्धिः पराजयः, स तर्हि कीदृशो निग्रहः १, निग्रहान्ता हि कथा भवतीत्याह
स निग्रहो वादिप्रतिवादिनोः ॥ ३३॥ ६७६, 'सः' पराजय एत्र 'वादिप्रतिवादिनो' 'निग्रहः' न वधबन्धादिः । अथवा स एव स्वपक्षासिद्धिपः पराजयो निग्रहहेतुत्वान्निग्रहो नोन्यो यथाहुः पैरे-"विप्रति- 10 पत्सिरप्रतिपसि निग्रहस्थानम्" [न्यायसू. १. २. १९ ] इति ।। ३३ ।। ६.७७. तत्राह
न विप्रतिपत्यप्रतिपत्तिमात्रम् ॥ ३४ ॥ ७८. विपरीता कुत्सिता विगर्हणीया प्रतिपत्तिः 'विप्रतिपत्ति:-साधनाभासे साधनबुद्धिषणाभासे च दूषणबुद्धिः । अप्रतिपत्तिस्त्वारम्भविषयेऽजारम्भः स च साधने 15 . दुषणं धणे चोद्धरण तयोरकरणम् 'अप्रतिपत्तिः। द्विधा हि वादी पराजीयते-यथाकर्तव्यमप्रतिपद्यमानो विपरीतं वा प्रतिपयमान इति । विप्रतिपत्यप्रतिपत्ती एव 'विप्रतिपस्यप्रतिपत्तिमात्रम्' 'न' पराजयहेतुः किन्तु स्वपक्षस्यासिद्धिरेवेति । विप्रतिपक्ष्यप्रतिपक्योश्च निग्रहस्थानत्वनिरासात् तद्भेदानामपि निग्रहस्थानत्वं निरस्तम् ।
७९. ते च द्वाविंशतिर्भवन्ति। तद्यथा-१ प्रतिज्ञाहानिः, २ प्रतिज्ञान्तरम् , 20 ३प्रतिज्ञाविरोधः, ४ प्रतिज्ञासंन्यासः, ५ हेत्वन्तरम् , ६ अर्थान्तरम् , ७निरर्थकम् , ८ अविज्ञातार्थम् , ९ अपार्थकम् , १० अप्राप्तकालम् , ११ न्यूनम् , १२ अधिकम् , १३ पुनरुक्तम् , १४ अननुभाषणम् , १५ अज्ञानम् , १६ अप्रतिभा, १७ विशेषः, १८ मतानुज्ञा, १९ पर्यनुयोज्योपेक्षणम् , २० निरनुयोज्यानुयोगः, २१ अपसिद्धान्तः, २२ हेत्वाभासाश्चति । अत्राननुभाषणमज्ञानमप्रतिभा विक्षेपः पर्यनुयोज्योपेक्षणमित्य- 25 प्रतिपत्तिप्रकाराः । शेषा विप्रतिपत्तिभेदाः । .
६८०, तत्र प्रतिबाहानेर्लक्षणम्-"प्रतिष्टानधर्मानुज्ञा स्वदृष्टान्ते प्रतिज्ञा१ विरुद्धहे • -- डे० । २ प्रयस्त्रिंशत्तमं चतुर्भिशत्तमं च सूत्रद्वयं सहैव लिनितं सं-मू. प्रती । ३.धादि। अ. -2018-. रूपप . - 1५ देशताडनादि । ६ परो-डे- ८ प्रतिदृष्टान्तस्य सामान्यस्य धर्मो नित्यत्वम् । 8-धर्माभ्यनुशा-मु
காப்பகம்ஸ்க்கப்ப்ப்ப்பப்பட்ட
..
आरभमाणः ।
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिता [अ० २, आ० १, सू० ३४. हानिः" [न्यायसू० ५.२. ३.] इति सूत्रम् । अस्य भाष्यकारीयं व्याख्यानम्-"साध्यधर्मप्रत्यनीकेन धर्मेण प्रत्यवस्थितः प्रतिष्टान्तधर्म स्वदृष्टान्तेऽनुजानन् प्रतिज्ञा जहातीति प्रतिज्ञाहानिः । यथा अनिस्यः शब्दा ऐन्द्रियकस्वाद् घटवदित्युक्त
परः प्रत्यवतिष्ठते-सामान्यमैन्द्रिय नित्यं दृष्टं कस्मान तथा शब्दोऽपीत्येवं 5 स्वप्रयुक्तहत्तोराभासतीमवस्यन्नपि कधावसानमकृत्वा प्रतिज्ञात्यागं करोति-- यन्द्रियकं सामान्य नित्यम् , कामं घटोऽपि नित्योऽस्स्विति । स खल्वयं साधनस्य दृष्टान्तस्य नित्यत्वं प्रसजन् निगमनान्तमेव पक्षं जहाति । पक्षं च परिस्थजन् प्रतियां जहातीत्युच्यते प्रतिज्ञाश्रयत्वात् पक्षास्यति"[ न्यायभा० ५, २. २] । तदेतदसङ्गत्तमेव, साक्षाद् दृष्टान्तहानिरूपत्वात् तस्याः तत्रैवं धर्म10 परित्यागात् । परम्परया तु हेतूपनयनिगमनानामपि त्यागः, दृष्टान्तीसाधुत्वे तेपामप्यसाधुत्वात् । तथा च प्रतिझाहानिरेवेत्यसङ्गतमेव । वार्तिककारस्तु व्याचष्टे-"दृष्टश्वासायन्सेस्थितस्वादन्तश्चेति दृष्टान्त पक्षः। स्वदृष्टान्तः स्वपक्षः। प्रतिदृष्टान्ता प्रतिपक्षः । प्रतिपक्षस्य धर्म स्वपक्षेऽभ्यनुजामन् प्रतिज्ञा जहाति
यदि सामान्यमैन्द्रियकम् निस्पं शब्दोऽप्येवमस्त्विति" [ न्यायचा०५. २. २] । 15 तदेतदपि व्याख्यानमसङ्गतम्, इत्थमेव प्रतिज्ञाहानेरवधारयितुमशक्यत्वात् । न खलु
प्रतिपक्षस्य धर्म स्वपक्षेऽभ्यनुजानत एवं प्रतिज्ञात्यागो येनायमेक एवं प्रकारः प्रतिज्ञा हानौ स्थात् , अधिक्षेपादिमिराकुलीभावात् प्रकृत्या सभाभीरुत्वादन्यमनस्कत्वादेर्वा निमित्ता[व] किश्चित साध्यत्वेन प्रतिज्ञाय तद्विपरीतं प्रतिजानानस्याप्युपलम्भात् पुरुष
भ्रान्तेरनेकारणकत्वोपपत्तेरिति १ । 20 ८१. प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे परेण कृते तत्रैव धर्मिणि धर्मान्तरं साधनीयममिद
धतः प्रतिज्ञान्तरं नाम निग्रहस्थान भवति । अनित्यः शब्दः ऐन्द्रियकवादित्युक्त तथैव सामान्येन व्यभिचारे नोदिते यदि ब्रूयात्-युक्तं सामान्यमैन्द्रियकं नित्यं सद्धि
१ वारस्यायनम् । २ वात्स्यायनभाग्ये तु-"साध्यधर्मप्रत्यनीकेन धर्मेण प्रत्यवस्थिवे प्रतिदृष्टान्तधर्म स्वान्तेऽभ्यनुजानप्रतिमा अहातीति प्रतिमाहानिः । निदर्शनम्—न्द्रियकवाद नित्यः शब्दो घटवदिति कृतेऽपर आहटलमेन्द्रियकत्व सामान्य नित्ये कस्मान्न तथा शब्द इति प्रत्यवस्थिते इदमाह-ययनिय सामान्य नित्य काम घटो नित्योरित्वति । स खल्वयं साधकरूप दृष्टान्तस्य नित्यत्वं प्रसञ्जयनिगमनान्तमेव पक्षं जहाति । पर्श जहरप्रतिज्ञा जहातीत्युच्यते प्रतिज्ञाश्रयत्वात्पक्षस्येति।"-न्यायभा०५.२,२-मु-टि।प्रतिवादिना पर्यनुयोजितः। ४बादी।५-युक्तस्य हेलो -हे. 1 ६ अनेकान्तिकत्वेन । ७ प्रसजन -डे । प्रसज्जनन्. मु०।८अभ्युपगत पक्षम् 1 8 तस्याः प्रतिज्ञाहानेः । १० दृष्टान्वे । ११ - •न्तसाधुत्वे-ता। १२ न्यायपातिके तु-"दृष्टवासावन्ते व्यवस्थित इति दृधान्तः स्वश्चासौ दृशन्सवेति स्वदृष्टान्तशब्देन पक्ष एकाभिधीयते । प्रतिदृष्टान्तशध्देन च प्रतिपक्षः प्रतिपक्षचासौ स्यान्तथेति। एतदुक्तं भवति। परपक्षस्य यो धर्मस्तं स्वपक्ष एवानुजानातीति यथा अनित्यः शब्दः ऐन्द्रियकरवादिति द्वितीयपक्षबादिनि सामान्येन प्रत्यवस्थिते इदमाह-यदि सामान्यमेन्द्रिय नित्य इष्टमिति शब्दोऽप्येवं भवविति।" -न्यायवा० ५.२.१-मु-टि। १३ अन्तो निगमनम् तत्र च स्थितः एकः पक्षः प्रतिज्ञायाः पुनर्वयनम् । १४ दृष्टान्तः स पक्षः प्रतिष्टान्तः-डे। १५ निमितत्वात्-डे । १६-. कारणत्वो.--. ।
ecalmlatewellentindiativecial commidio
R
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
निग्रहस्थानस्य निरूपणम् । ] प्रमाणमीमांसा । सर्वगतमसर्वगतस्तु शब्द इति । सोऽयम् 'अनित्यः शब्दः' इति पूर्वप्रतिज्ञातः प्रतिज्ञान्तरम् 'असर्वगतः शब्दः' इति कुर्वन् प्रतिज्ञान्तरेण निगृहीतो भवति । एतदपि प्रतिज्ञाहानिवन्न युक्तम् , तस्याप्यनेकनिमित्तत्वोपपत्तेः। प्रतिज्ञाहानितश्चास्य कथं भेदः, पक्षत्यागस्योभयत्राविशेषात् ? । यथैव हि प्रतिदृष्टान्तधर्मस्य स्वदृष्टान्तेऽभ्यनुज्ञानात् पक्षत्यागस्तथा प्रतिज्ञान्तरादपि । यथा च स्वपक्षसिद्धयर्थं प्रतिज्ञान्तरं विधीयते तथा शब्दानित्यवसि-6 धर्थ प्रान्तियशाः रामचन्द्रो पिरियोऽस्तु' इत्यनुज्ञानम् , यथा चाभ्रान्तस्येदं विरुष्यते तथा प्रतिज्ञान्तरमपि | निमित्तभेदाच तद्भेदे अनिष्टनिग्रहस्थानान्तराणामध्यनुषाः स्यात् । तेषां च तत्रान्तर्भाव प्रतिज्ञान्तरस्यापि प्रतिज्ञाहानावन्तर्भावः स्यादिति २।।
८२. "प्रतिज्ञाहेत्वोर्विरोधः प्रतिज्ञाविरोधः" न्यायसू, ५. २, ४] नाम निग्रहस्थानं भवति । यथा गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यं रूपादिभ्योऽर्थान्तरस्थानुपलब्धेरिति । सोऽयं 10 प्रतिज्ञाहेत्वोविरोधःयदि गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यं कथं रूपादिभ्योऽर्थान्तरस्यानुपलब्धिः १, अथ रूपादिभ्योऽर्थान्तरस्यानुपलब्धिः कथं गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यमिति ?, तदयं प्रविज्ञाविरुद्धाभिधानात् पराजीयते । तदेतदसङ्गतम् । यतो हेतुना प्रतिज्ञायाः प्रतिज्ञात्वे निरस्ते प्रकारान्तरतः प्रतिज्ञाहानिरेक्यमुक्ता स्यात् , हेतुदोपो वा विरुद्धतालक्षणः, न प्रतिज्ञादोष इति ३।
६८३. पक्षसाधने परेण दूषिते तदुद्धरणाशक्त्या प्रतिज्ञामेव नियानस्य प्रतिज्ञासंन्यासो नाम निग्रहस्थानं भवति । यथा अनित्यः शब्दः ऐन्द्रियकत्वादित्युक्ते तथैव सामान्येनानैकान्तिकतायाभुद्धावितायां यदि बयान-क एवमाह-अनित्यः शब्द इति-स प्रतिज्ञासंन्यासान् पराजितो भवतीति । एतदपि प्रतिज्ञाहानितो न भिद्यते, हेतोरनैकान्तिकत्वोपलम्भेनात्रापि प्रतिज्ञायाः परित्यागाविशेषात् ४ ।
८४. अविशेषाभिहिते हेतौ प्रतिषिद्धे तद्विशेषणमभिदधतो हेन्वन्तरं नाम निग्रहस्थानं भवति । तस्मिन्नेव प्रयोगे तथैव सामान्यस्य व्यभिचारेण दक्षिले-'जातिमश्वे सति' इत्यादिविशेषणमुपाददानो हेत्वन्तरेण निगृहीतो भवति । इदमप्यतिप्रसृतम् , यतोऽविशेषोक्तं दृष्टान्ते उपनये निगमने या प्रतिपिद्धे विशेषमिच्छतो दृष्टान्ताद्यन्तरमपि निग्रहस्थानान्तरमनुपज्येत, तवाप्याक्षेपसमाधानानां समानत्वादिति ५३
६८५. ग्रंकृतादर्थादर्थान्तरं तदनौपयिकमभिदधतोऽर्थान्तरं नाम निग्रहस्थान भवति । यथा अनित्यः शब्दः । कृतकत्वादिति हेतुः । हेतुरिति हिनोते तोस्तुप्रत्यये कृदन्तं पदम् । पदं च नामाख्यातनिपातोपसर्गा इति प्रस्तुत्य नामादीनि व्याचक्षाणोऽर्थान्तरेण निगृह्यते । एतदप्यर्थान्तरं निग्रहस्थानं समथें साधने दूषणे वा प्रोक्ते
१ पूर्व प्रतिः । २ - "ततोप० - ३० । ३ यदा प्रतिवादिना अकृतेऽपि प्रति]ज्ञा[ता]प्रतिषेधे आशययाय)बोच्यतेऽसयंमतस्तु शब्द इति तदा अन्यनिमित्तकत्वं प्रतिज्ञान्तरस्य । ४ - ७वशालच्छब्दोर-डे । ५-- • मुम्वर:-हे । १ इति प्रति०-डे० । ७. एव्य-ता. । इति हेत्वन्तरम् । ह प्रकृतार्थादर्थाम्तरम्-डे। १. पदं भाम - ता० । ११ प्रत्ययमामा० ... डे.. ।
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिता [अ० २, आ० १, सू० ३४. निग्रहाय कल्पेत, असमर्थे वा ? न तावत्समर्थ; स्वसाध्यं प्रसाध्य नृत्यतोऽपि दोपाभावालोकवत् । असमर्थेऽपि प्रतिवादिनः पक्षसिद्धौ तेत् निग्रहाय स्यादसिद्धौ वा ? | प्रथमपक्षे तत्यक्षसिद्धरेवास्य निग्रहो न त्वतो निग्रहस्थानात् । द्वितीयपक्षेऽप्यतो न
निग्रहः, पक्षसिद्धरुभयोरप्यभावादिति ६।। B ६८६. अभिधेयरहितवर्णानुपूर्वीप्रयोगमात्रं निरर्थकं नाम निग्रहस्थानं भवति ।
यथा अनित्यः शब्दः कचटतपानां गजडदबत्वाद् घझदधभवदिति । एतदपि सर्वथार्थशून्यत्वाभिग्रहाय कल्पेत, साध्यानुपयोगाद्वा ? । तत्राद्यविकल्पोऽयुक्तः, सर्वथार्थशून्यशब्दस्यत्रासम्भवात , वर्णक्रमनिर्देशस्याप्यनुकावणार्थनार्थववोपपतेः। द्वितीयधिकल्ये
तु सर्वमेव निग्रहस्थानं निरर्थकं स्यात् साध्यसिद्धावनुपयोगित्वाविशेषात् । किश्चि10 द्विशेषमात्रेण भेदे वा खादकृत-हस्तास्फालन-कक्षापिट्टितादेरपि साध्यानुपयोगिनो निग्रहस्थानान्तरत्वानुषङ्ग इति ।
६८७. यत् साधनवाक्यं दूषणवाक्यं वा विरभिहितमपि परिपत्प्रतिवादिभ्यां बोद्धं न शक्यते तत् अविज्ञाताथै नाम निग्रहस्थानं भवति । अत्रेदमुच्यते-वादिना त्रिरभि
हितमपि बाक्यं परिपत्पतिवादिभ्यां मन्दमतित्वादविज्ञातम्, गूढोभिधानतो चा, दुतोचा15 राद्वा। प्रथमयक्षे सत्साधनवादिनोऽप्येतविग्रहस्थानं स्यात, तत्राप्यनयोर्मन्दमतित्वेना
विज्ञातत्वसम्भवात् । द्वितीयपशे तु पवाक्यप्रयोगेऽपि तत्प्रसङ्गः, गूंढाभिधानतया परिषत्प्रतिवादिनोर्महाप्राज्ञयोरप्यविज्ञातत्वोपलम्भात् । अथाभ्यामविज्ञातमप्येतत् वादी व्याचष्टे गूढोपन्या मध्यात्मनः स एव च्याचष्टाम् , अव्याख्याने तु जयाभाव एवास्य,
न पुननिग्रहः, परस्य पक्षसिद्धेरभावात् । दुतोच्चारेप्यनयोः कथञ्चित् झानं सम्भवत्येव, 20 सिद्धान्तद्वयवेदित्वात् । साध्यानुपयोगिनि तु वादिनः प्रलापमात्रे तयोरविज्ञानं नाबिशातार्थ वर्णक्रमनिर्देशवत् । ततो नेदमविनातार्थ निरर्थकाद्भिद्यत इति ८ ॥
६८८. पूर्वापरासङ्गतपदसमूहप्रयोगादग्नतिष्ठितवाक्यार्थमपार्थकं नाम निग्रहस्थानं भवति । यथा दश दाडिमानि पडपूपा इत्यादि । एतदपि निरर्थकान भिद्यते । यथैव
हि गजडदबादौ वर्णानां नैरर्थक्यं तथाँत्र पदानामिति । यदि पुनः पदनैरर्थक्यं वर्ण25 नैरर्थक्यादन्यत्वात्रिग्रहस्थानान्तरं तर्हि वाक्यनैरर्थक्यस्याप्याभ्यामन्यत्वान्निग्रहस्थानान्तरत्वं स्यात् पदयत्पौर्वापर्यणाऽप्रयुज्यमानानां बाक्यानामप्यनेकधोपलभ्यात्__ "शङ्खः कदल्यां कदली च भयो तस्यां च भेया सुमहविमानम् ।
तच्छलभेरीकदलीविमानमुन्मसगलप्रतिमं बभूव ।।" इत्यादिवत् ।
पक्षान्तरम् (१) अन्तरम् । २..सिद्धिरेन - डे। अन्तरात् । ४ भेदेन रखाद डे. भेदे वा पदकृत - मु-पा०। ५गृहानी शब्दानामभिधानम् । ६ सत्साधनेपि । ७ अविज्ञातत्वप्रसङ्गः ।
प्रहेलिकादिकम् । पत्रवाक्यम् । १० लाध्यवाश्यम् । ११ भिद्धाभावेदि. ... ३०।१२ अथ निप्रवादी एवं ब्रूयात् वादिनः प्रलापमात्रम् अविज्ञातस्य लक्षणम् इत्याशष्यायामाह (2)। १३ कर्तरि षष्ठी म (१) १५-शामा-ता। १५ साथ्यानुपयोगित्वात्। १६ वर्णपदनैरर्थक्वाभ्याम् ।
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
TARA......52-60dnManan
intHinition
arietisatanA
PURAHMACARKARKamichestinatmanirinaa.bativi००:०० ... .......................
निग्रहस्थानस्य निरूपणम् । प्रमाणमीमांसा ।
$ ८१. यदि पुनः पदनैरर्थक्यमेव वाक्यनरर्थक्यं पढसमुदायात्मकत्वात् तस्य; तर्हि वर्णनरर्थक्यमेव पदनरर्थक्यं स्यात् वर्णसमुदायात्मकत्वात् तस्य । वर्णानां सर्वत्र निरर्थकत्वात् पदस्यापि तत्प्रसङ्गन्धेत : तर्हि पदस्थापि निरर्थकत्वात् तत्समुदायात्मनो वाक्यस्यापि नैरर्थक्यानुषङ्गः । पदस्यार्थवत्वेन(वचे चपदार्थापेक्षया; [वार्थापेक्षया] वर्णस्यापि तदैस्तु प्रकृतिप्रत्ययादिवत: न खलु प्रकृतिः केवला पदं प्रत्ययो वा । नाप्यनयोर- 5 नर्थकत्वम् । अभिव्यक्तार्थाभावादनर्थकत्ये; पदस्यापि तत् स्यात् । यथैव हि प्रकृत्यर्थः प्रत्ययेनाभिव्यज्यते प्रत्ययार्थश्च प्रकृत्या तयोः केवलयोरप्रयोगात् तथा देवदत्तस्तिष्ठतीत्यादिप्रयोगेस्पायन्तपदार्थस्य त्याद्यन्तपदार्थस्य चे स्त्याद्यन्तपदेनाभिव्यक्त केवलस्याप्रयोगः । पदान्तरापेक्षस्य पदस्य सार्थकत्वं प्रकृत्यपेक्षस्य प्रत्ययस्य तदपेक्षस्य च प्रकृत्यादिवर्णस्य समानमिति ९ ।
10 ९०. प्रतिज्ञाहेतृदाहरणोपनयनिगमनवचनक्रममुल्लङ्घयावयवविपर्यासेन प्रयुज्यमानमनुमानवाक्यमप्राप्तकालं नाम निग्रहस्थानं भवति, स्वप्रतिपत्तिवत् परप्रतिपत्तेर्जनने परार्थानुमाने क्रमस्याप्यत्वात् । एतदप्यपेशलम् , प्रेक्षावतां प्रतिपत्तॄणामवयवक्रमनियम विनाप्यर्थप्रतिपत्युपलम्भात् । ननु यथापशब्दाच्छ्रुताच्छब्दस्मरणं ततोऽर्थप्रत्यय इति शब्दादेवार्थप्रत्ययः परम्परया तथा प्रतिज्ञाद्यययवव्युत्क्रमात तत्क्रमस्मरणं ततो वाक्या- 15 र्थप्रत्ययो न पुनस्तधुरक्रमात इत्ययसारम, एवंविधप्रतात्यभावात् । यस्माद्धि शब्दादुश्चरितात् यत्रार्थे प्रतीतिः स एव तस्य वाचको नान्यः, अन्यथा शब्दात्तत्क्रमाचापशब्द तव्यतिक्रमे च स्मरणं ततोऽर्थप्रतीतिरित्यपि वक्तुं शक्येत । एवं शब्दान्वाख्यानयर्थ्यमिति चेत्, नैवम् , बौदिनोऽनिष्टमात्रापादनात अपशब्देऽपि चान्वाख्यानस्योपलम्भात् । संस्कृताच्छन्दासत्यात् धर्मोऽन्यस्मादधर्म इसि नियमे चान्यधर्मा- 20 धर्मोपायानुष्ठानवैयध्य धर्माधर्मयोश्वाप्रतिनियमप्रसङ्गः, अधार्मिके च धार्मिके च तच्छब्दोपलम्भात् । भवतु वा तत्क्रमादर्थप्रतीतिस्तथाप्यर्थप्रत्ययः क्रमेण स्थितो येन वाक्येन व्युत्क्रम्यते तभिरर्थकं न त्वप्राप्तकालमिति १० ॥
६९१. पश्चावयवे वाक्ये प्रयोक्तव्ये तदन्यतमेनाप्यवयवेन हीनं न्यूनं नाम निग्रहस्थानं भवति, साधनाभावे साध्यसिद्धेरभावात, प्रतिज्ञादीनां च पश्चानामपि साध- 25 नलात् । इत्यप्यसमीचीनम् , पश्चावयवप्रयोगमन्तरेणापि साध्यसिद्धरभिधानात् प्रतिज्ञाहेतुप्रयोगमन्तरेणैव तसिद्धेरभावात् । अतस्तद्धीनमेव न्यूनं निग्रहस्थानमिति ११ ।
९२. एकेनैव हेतुनोदाहरणेन वा प्रतिपादितेऽर्थे हेत्वन्तरमुदाहरणान्तरं वा यदतोऽधिकं नाम निग्रहस्थानं भवति निष्प्रयोजनाभिधानात्। एतदप्ययुक्तम् , तथा
१ दश दाडिमानि षडपूपा इत्यत्र तु पदानामेव भैरर्थक्यम् न वाक्यस्य कियाया अश्रावणस्वात् (अश्रवणात)।२-०क्षया तस्यापि-दे।३ अर्थवत्वम् । ४ प्रकृतिप्रत्यययोः। ५च स्तूपद्यन्त - सा।
यथापि शब्दा, -डे कमवादिनः सत्याधर्मो-डे-हअधार्मिके धार्मिक... ।
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिता [अ० २, आ० १, सू० ३४. विधाद्वाक्यांत् पक्षसिद्धौ पराजयायोगात् । कथं चैवं प्रमाणसंप्लवोऽभ्युपैगम्यते । अभ्युपगमे वाऽधिकभिग्रहाय जायेत । प्रतिपत्तिदायसंवादसिद्धिप्रयोजनसद्भावान निग्रहः; इत्यन्यत्रापि समानम् , हेतुनोदाहरणेन चै(कै)केन प्रसाधितेऽप्यर्थे द्वितीयस्य हेतोरदाहरणस्य वा
नानर्थक्यम् , तत्प्रयोजनसद्भावात् । न चैवमनवस्था, कस्यचित् कचिभिराकासतोपपत्तेः 6 प्रमाणान्तरवत् । कथं चास्य कृतकवादी स्वाथिककप्रत्ययस्य वचनम् , यस्कृतकं तदनित्यमिति व्याप्तौ यत्तद्वचनम् धृत्तिपदप्रयोगादेव चार्थप्रतिपसौ वाक्यप्रयोगः अधिकत्वाभिग्रहस्थानं न स्यात् । तथाविधस्याप्यस्य प्रतिपत्तिविशेषोपायत्वात्तनेति चेत् । कथमनेकस्य हेतोरदाहरणस्य वा तदुपायभूतस्य वचनं निग्रहाधिकरणम् १ । निरर्थकस्य तु
वचनं निरर्थकत्वादेव निग्रहस्थानं नाधिकत्वादिति १२ । 10६९३. शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तं नाम निग्रहस्थानं भवत्यन्यत्रानुवादात् ।
शब्दपुनरुक्तं नाम यत्र स एव शब्दः पुनरुच्चार्यते । यथा अनित्यः शब्दः अनित्यः शब्द इति । अर्थपुनरुक्तं तु यत्र सोऽर्थः प्रथममन्येन शब्देनोक्तः पुनः पर्यायान्तरेणोच्यते । यथा अनित्यः शब्दो विनाशी ध्वनिरिति । अनुवादे तु पौनरुत्यमदोषो यथा--
"हेत्वपदेशात् प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनं निगमनम्" [ न्यायस. १.१.३९ ] इति । 15 अवार्थपुनरुक्तमेवानुपपन्नं न शब्दपुनरुक्तम् , अर्थभेदेन शब्दसाम्येऽप्यस्यासम्भवात् यथा
"हसति हसति स्वामिन्युओरुदत्यतिरोदिति,
कृतपरिकरं स्वेदोडारि प्रधावति धावति । गुणसमुदितं दोषापेतं प्रणिन्दति निन्दति,
धनलवपरिक्रीतं यन्त्रं प्रकृत्यति नृत्यति ॥" [दादन्यायः पृ.१] 20 इत्यादि । ततः स्पष्टार्थवाचकैस्तैरेवान्यैर्या शब्दैः सभ्याः प्रतिपादनीयाः । तदप्रतिपादक
शब्दानां तु सकृत् पुनः पुनाभिधानं निरर्थकं न तु पुनरुक्तमिति । यदपि अर्थादापत्रस्य स्वशब्देन पुनर्वचनं पुनरुक्तमुक्तं यथा असत्सु मेघेषु वृष्टिनं भवतीत्युक्ते अर्थादापद्यते सत्सु भवतीति तत् कण्ठेन कथ्यमानं पुनरुक्तं भवति, अर्थगत्यर्थे हि शब्दप्रयोगे
प्रतीतेऽथे किं तेनेति । एतदपि प्रतिपन्नार्थप्रतिपादकत्वेन वैयर्थ्याभिग्रहस्थान 25 नान्यथा | तथा वेदं निरर्थकान "विशिष्यतेति १३ ।
६९४. पर्षदा विदितस्य वादिना बिरभिहितस्यापि यदप्रत्युच्चारणं तदननुभाषणं नाम निग्रहस्थानं भवति, अप्रत्युच्चारयत्न ) किमाश्रयं दृषणमभिदधतीति(दधीतेति)। अत्रापि किं सर्वस्य वादिनोक्तस्याननुभाषणम् उत यनान्तरीयिका साध्यसिद्धिस्तस्येति ।
तत्राधः पक्षोऽयुक्तः, परोक्तमशेषमप्रत्युचारयतोऽपि दूषणावचनाच्याघातात् । यथा सर्वम 30 नित्यं सत्त्वादित्युक्ते-सच्चादित्ययं हेतुर्विरुद्ध इति हेतुमेवोचार्य विरुद्भुतोद्भाव्यते--क्षण
१.... विधाता वाक्या... ता" । २ हेत्वन्तर युक्तात् । ३ - पगम्यते बाधिकाशि० ... ३.० १४... .चनच. .हे । ५कृतकानिलमिति वृत्तिपदम् । ६ ... । पत्र... डे. १७-०रुकमा डे। --. .स्य सम्भ+ - '. 1 ६ दोषोपेतम् .. २० । १० विशेष्ये ० ..डे । ११ उत यत्लान्तरीमिका - ता । उत प्रयत्नानन्तरीयिका -डे।
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
Healingan
निग्रहस्थानस्य निरूपणम् । ] प्रमाणमीमांसा । क्षयायेकान्ते सर्वथार्थक्रियाविरोधात् सन्चानुपपत्तेरिति च समयते । तावता च परोक्तहेतोर्दूषणाकिमन्योचारणेन ?। अतो यनान्तरीयिका साध्यसिद्धिस्तस्यैवाप्रत्युच्चारणमननुभाषण प्रतिव्यम् । अथ सूचितुमसमर्थः शास्त्रार्थपरिज्ञानविशेषविकलत्वात् । तदायमुराप्रतिपत्तेरेय तिरस्क्रियते न पुनरननुभाषणादिति १४ । ___६९५. पर्षदा विज्ञातस्यापि वादिवाक्यार्थस्य प्रतिवादिनो यदज्ञानं तदज्ञानं नाम । निग्रहस्थानं भवति । अविदितोचरविषयो हि कोत्तरं ब्रूयात् ।। न चाननुभाषणमेवेदम् , ज्ञातेsपि वस्तुन्यनुभापणासामर्थ्यदर्शनात् । एतदप्यसाम्प्रतम्, प्रतिज्ञाहान्यादिनिग्रहस्थानानां भेदाभावानुषङ्गात् , तत्राप्यज्ञानस्यैव सम्भवात् । तेषां तत्प्रभेदत्वे वा निग्रहस्थानप्रतिनियमाभावप्रसङ्गः, परोक्तस्याऽर्धाज्ञानादिभेदेन निग्रहस्थानानेकत्वप्रसङ्गात् १५।
६९६. परपक्षे गृहीतेऽप्यनुभाषितेऽपि तस्मिन्नुत्तराप्रतिपत्तिरप्रतिभा नाम निग्रह- 10 स्थानं भवति । एषाप्यज्ञानान्न भिद्यते १६ ।
६९७. "कार्यव्यासलात् कथाचिच्छेदो विक्षेप:" [म्याअसू० ५. २. १९] नाम निग्रहस्थानं भवति । सिषाधयिषितस्यार्थस्याशक्यसाधनतामवसाय कथां विच्छिनति'इदं मे करणीयं परिहीयते, पीनसेन कण्ठ उपरुद्धः' इत्याधभिधाय कथां विच्छिन्दन विक्षेपेण पराजीयते । एतदथ्यज्ञानंतो नार्थान्तरमिति १७ ॥
15 ६९८, स्वपक्षे परापादितदोषमनुवृत्य तमेव परपक्षे प्रतीपमापादयतो मतानुना नाम निप्रहस्थानं भवति । चौरो भवान् पुरुषत्वात् प्रसिद्धचौरबदित्युक्ते-भवानपि चोरः पुरुषत्वादिति ब्रुवन्नात्मनः परापादितं चौरत्वदोषमभ्युपगतवान् भवतीति मतानुशया निगृह्यते । इदमप्यज्ञानान भिद्यते । अनैकान्तिकता वात्र हेतोस हात्मीयहेतोगत्मनवानैकान्तिकतां दृष्ट्वा प्राह-भवत्पक्षेऽप्ययं दोषः समानस्त्वमपि पुरुषोऽसीत्यनैकान्तिकत्व- 20 मेवोद्धावयतीति १८ ।
९९. निग्रहप्राप्तस्यानिग्रहः पर्यनुयोज्योपेक्षणं नाम निग्रहस्थानं भवति । पर्यनयोज्यो नाम निग्रहोपपत्त्यावश्यं नोदनीयः 'इदं ते निग्रहस्थानमुपनतमतो निगृहीतोऽसि इत्येवं वचनीयस्तमुपेक्ष्य न निगृह्णाति यः स पर्यनुयोज्योपेक्षणेन निगृह्यते । एतच 'कस्य निग्रहः' इत्यनुयुक्तया परिषदोद्धापनीयं न स्वसावात्मनो दोषं विघृणुयात 'अहं 25 निग्राधस्त्वयोपेक्षितः' इति । एतदप्यज्ञानात्र भिद्यते १९।
१००, “अनिग्रहस्थाने निग्रहस्थानानुयोगो निरनुयोज्यानुयोगः" [ न्यायसू० '.. २. २२ ] नाम निग्रहस्थानं भवति । उपपत्रवादिनमप्रमादिनमनिग्रहार्हमपि 'निगृहीतोऽसि' इति यो ब्रूयात्स एवाभूतदोषोद्भावनाभिगृह्यते । एतदपि नाज्ञानाद्वयतिरिच्यते २० ।
30
RAAMIma.
TAMANANA
तावता परो-डे । २ मेदा -. । ३ -मतो न मियते। स्व.-मु-पा०४-रास्मीयेनैव - 21 पुरुषो भवसी० - ३०। ६-०स्थानामियो -मु-पा० ।
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२
10
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिता [अ० २, आ० १, सू० ३५. १०१ "सिद्धान्तमभ्युपेत्यानियमास्कथाप्रसङ्गोऽपसिद्धान्ता" न्यायम० ५. २. २३ ] नाम निग्रहस्थानं भवति ! यः प्रथमं कश्चित् सिद्धान्तमभ्युपगम्य कथामुपक्रमते । तत्र च सिपाधयिपितार्थसाधनाय परोपालम्भाय वा सिद्धान्तविरुद्धमभिधत्ते सोऽपसिद्धान्तेन निगृह्यते । एतदपि प्रतिवादिनः प्रतिपक्षमाधने सत्येव निग्रहस्थान 5 नान्यथेति २१ ।
६१०२ "हेत्वाभासाश्च यथोक्ताः" [न्यायमू० ५, २. २४ ] असिद्धविरुद्धादयो निग्रहस्थानम् । अत्रापि विरुद्धहेतूद्भावनेन प्रतिपक्षसिद्धेनिग्रहाधिकरणत्वं युक्तम् , असिद्धायुद्धाचने तु प्रतियादिना प्रतिपक्षसाधने कृते तद्युक्तं नान्यथेति २२ ॥ ३४ ।। १०३. तदेवमक्षपादोपदिष्टं पराजयाधिकरणं परीक्ष्य सौगतागमितं' तन् परीक्ष्यते
नौप्यसाधनाङ्गवचनादोषोद्भावने ॥ ३५॥ ६१०४. स्वपक्षस्यासिद्धिरेव पराजयो 'न' 'असाधनाङ्गवचनम्' 'अदोषोद्भावनम्' च । यथाह धर्मकीर्तिः
"असाधनाङ्गवचनमदोषोदावनं व्योः।
निग्रहस्थानमन्यातुन युक्तमिति नेष्यते॥" -विादन्यायः का० १] 15 १०५. अत्र हि स्वपक्षं साधयन् असाधयन् वा वादिप्रतिवादिनोरन्यतरोऽसाध
नाङ्गवचनाददोषोद्भावनाद्वा परं निगृहाति । प्रथमपक्षे स्वपक्षसिद्ध्यवास्य पराजयादन्योद्भावनं व्यर्थम् । द्वितीयपक्षे असाधनाङ्गवचनाद्युद्भावनेपि न कस्यचिजयः, पक्षसिद्धरुभयोरभावात् ।
६१०६. यचास्य व्याख्यानम्-साधनं सिद्धिस्तदङ्गं त्रिरूपं लिङ्गं तस्यावचनम्20 तूष्णीम्भावो यत्किञ्चिद्भाषणं वा, साधनस्य वा विरूपलिङ्गस्याङ्गं समर्थन
विपक्षे बाधकप्रमाणोपदर्शनरूपं तस्यावचनं वादिनो निग्रहस्थानमिति तत् पञ्चावयवप्रयोगवादिनोऽपि समानम् । शक्यं हि तेनाप्येवं वक्त सियङ्गस्य पश्चावयवप्रयोगस्यावचनात् सौगतस्य वादिनो निग्रहः । ननु चास्य तदवचनेऽपि न निग्रहः,
प्रतिज्ञानिगमनयोः पक्षधर्मोपसंहारसामर्थेन गम्यमानत्वात् , गम्यमानयोश्च बचने 25 पुनरुतत्वानुषङ्गात , तत्प्रयोगेऽपि हेतुप्रयोगमन्तरेण साध्याप्रिसिद्ध, इत्यप्यसत,
पक्षधर्मोपसंहारस्याप्येवमवचनानुषङ्गात् । अथ सामागम्यमानस्यापि यत् सत् तत् सर्व चणिकं यथा घटः, संश्च शब्द इति पक्षधर्मोपसंहारस्य वचनं हेतोरपक्षधर्मत्वेना
- मितं परी. - ता.। २ नासाध - सामू। ३ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां प्रमाणमीमांसा द्वितीयस्थाध्यायस्य क्रियन्ति सूत्राणि ॥ श्रीदामातनयाय नमः ॥ शुभं भवतु देखकपाटकाय सदा ॥छ -से-मु.। ४-०पि कस्य -ता। पू-पि निप्रडे । ६ एक्षधर्मोपक्षधमपिसं०पक्षपापक्षधोपम-मु०। ७हेतुना प्रयो०-ता. ८-प्ये यच ..3- इवचनहे. ...३० । १०.०क्षधर्मत्वे त्वसि. -डे ।
Belawwwssswww
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
MANTRA
MAHARiddline
निग्रहस्थानस्य निरूपणम् । ] प्रमाणमीमांसा । सिद्धत्वव्यवच्छेदार्थम् ; तर्हि साध्याधारसन्देहापनोदार्थ गम्यमानाया अपि प्रतिज्ञायाः, प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयानामेकार्थत्वप्रदर्शनार्थं निगमनस्य वचनं किं न स्यात् ? । नहि प्रतिज्ञादीनामेकार्थत्योपदर्शनमन्तरेण सङ्गतत्वं घटते, मिनविषयप्रतिज्ञादिवत् । ननु प्रतिज्ञातः साध्यसिद्धौ हेत्वादिवचनमनर्थकमेव स्यात् , अन्यथा नास्याः साधनाङ्गतेति चेत्, तर्हि भवतोऽपि हेतुतः साध्यसिद्धौ दृष्टान्तोऽनर्थकः । स्यात् , अन्यथा नास्य साधनाङ्गतेति समानम् । ननु साध्यसाधनयोर्व्याप्तिप्रदर्शनार्थत्वात् नानर्थको दृष्टान्तः, तत्र तदप्रदर्शने हेतोरगमकत्वात् । इत्यध्ययुक्तम् , सर्वानित्यत्यसाधने सच्चादेदृष्टान्तासम्भवतोऽगमकत्वानुषशाद । विपक्षव्याच्या सत्वादेर्गमकत्वे या सर्वत्रापि हेतौ तथैव ममकत्वप्रसङ्गात् दृष्टान्तोऽनर्थक एवं स्यात् । विपक्षव्यावृत्त्या च हेतुं समर्थयन् कथं प्रतिक्षा प्रतिक्षिपेत् । । तस्याश्यानभिधाने क हेतुः साध्यं वा 10 वर्तते १ । गम्यमाने प्रतिज्ञाविषय एवेति चेत् ; तहिं गम्यमानस्यैव हेतोरपि समर्थनं स्थान तुक्तस्य । अथ गम्यमानस्यापि हेतोर्मन्दमतिप्रतिपत्यर्थ वचनम् । तथा प्रतिज्ञावचने कोऽपरितोषः ।
६१०७. यश्चेदमसाधनाङ्गमित्यस्य व्याख्यानान्तरम्-साधर्येण हेतोर्वचने वैधHवचनम् , वैधयेण च प्रयोगे साधर्म्यवचनं गम्यमानत्वात् पुनरुक्तमतो न साधनाङ्गम् ; 15 इत्यप्यसाम्प्रतम् . यतः सम्यक्साधनसामर्थेन स्वपक्षं साधयतो वादिनो निग्रहः स्यात् , असाधयतो वा । प्रथमपक्षे न साध्यास प्रतिबन्धिवचनाधिक्योपालम्भमात्रेपास्य निग्रहः, अविरोधात् । नन्वेवं नाटकादिघोषणतोऽप्यस्य निग्रहो न स्यात् सत्यमेतत, स्वसाध्यं प्रसाध्य मृत्यतोऽपि दोषाभावाश्लोकवत् , अन्यथा ताम्बूलभक्षणभ्रक्षेप-खादकृत-हस्तास्फालनादिभ्योऽपि सत्यसाधनवादिनोऽपि निग्रहः स्यात् । अथ 20 स्वपक्षमप्रसाधयतोऽस्य ततो निग्रहः। नन्वत्रापि किं प्रतिवादिना स्वपक्षे साधिते वादिनो वचनाधिक्योपालम्भो निग्रहो लक्ष्येत, असाधिते वा ? | प्रथमपक्षे स्वपक्षसियैवास्य निग्रहावचनाधिक्योडायनमनर्थकम् , तस्मिन् सत्यपि पक्षसिद्धिमन्तरेण जयायोगात । द्वितीयपक्षे तु युगपद्वादिप्रतिवादिनोः पराजयप्रसङ्गो जयप्रसङ्गो वा स्यात, स्वपक्षसिद्धेरभावाविशेषात् ।
25 __१०८. ननु न स्वपक्षसियासिद्धिनिबन्धनौ जयपराजयौ, तयोर्ज्ञानाज्ञाननिबन्धनत्वात् । साधनवादिना हि साधुसाधनं ज्ञात्वा वक्तव्यम् , दूषणवादिना च दूषणम् । तत्र सौधर्म्यवचनाद्वैधर्म्यवचनाद्वाऽर्थस्य.प्रतिपत्तौ तदुभयवचने वादिनः प्रतिवादिना सभायामसाधनाङ्गवचनस्योडावनात् साधुसाधनाज्ञानसिद्धेः पराजयः । प्रतिवादिनस्तु तद्दपणज्ञाननिर्णयाजयः स्यात् । इत्यप्यविचारितरमणीयम् , यतः स प्रतिवादी सत्साधन- 80 वादिनः साधनाभासवादिनो वा वचनाधिक्यदोषमुद्भावयेत् । तत्राद्यपक्षे वादिनः कथं साधुसाधनाज्ञानम् , तद्वचनेयताज्ञानस्यैवाभावात् ।। द्वितीयपक्षे तु न प्रतिवादिनो दूषणज्ञानमष्ठिते साधनाभासस्यानुद्भावनात् । तद्वचनाधिक्यदोषस्य ज्ञानात् दुषणलो
२.कार्थप्रतिप्रद -मु । काप्रतिज्ञाप्रद० - डे०१२ साधर्म्यवचनाद्वार्थस्य - हे । ३- तदन. ...
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
७५
SansaATRILOKATHA
M
आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिता [अ० २, आ० १, सू० ३५. ऽसाविति चेत् । साधनाभासाझानाददूषणशोऽपीति नैकान्ततो यादिनं जयेत् , तददोषोडावनलक्षणस्य पराजयस्यापि निवारयितुमशक्तेः। अथ वचनाधिक्यदोषोद्भावनादेव प्रतिवादिनो जयसिद्धौ साधनाभासोद्भावनमनर्थकम् । नन्वेवं साधनाभासानुद्भावना
तस्य पराजयसिद्धौ वचनाधिक्योद्भावनं कथं जयाय प्रकल्पेत ? । अथ वचनाधिक्यं 6 साधनाभासं वोद्भावयतः प्रतिवादिनो जयः, कथमेवं साधर्म्यवचने वैधर्म्यवचनं
वैधर्म्यवचने वा साधर्म्यवचनं पराजयाय प्रभवेत् । कथं चैवं बादिप्रतिवादिनोः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहवैयथ्य न स्यात, क्वचिदेकत्रापि पक्षे साधनसामथ्यज्ञानाज्ञानयोः सम्भवात ? न खलु शब्दादौ नित्यत्वस्यानित्यत्वस्य या परीक्षायामेकस्य साधनसामथ्र्य ज्ञानमन्यस्य
चाज्ञानं जयस्य पराजयस्य वा निबन्धनं न भवति । युगपत्साथनासामर्थ्याने च 10 वादिप्रतिवादिनोः कस्य जयः पराजयो वा स्यादविशेषात् । न कस्यचिदिति चेत : तर्हि
साधनवादिनो वचनाधिक्यकारिणः साधनसामर्थ्याज्ञानसिद्धेः प्रतिवादिनश्च बचनाधिक्यदोषोडावनात्तदोषमात्रज्ञानसिद्धेर्न कस्यचिञ्जयः पराजयो वा स्यात् । नहि यो यद्दोषं वेत्ति स तद्गुणमपि, कुतश्चिन्मारणशक्ती वेदनेऽपि विषद्रव्यस्य कुष्ठापनयन
शक्ती संवेदनानुदयात् । तत्र तत्सामर्थ्यज्ञानाज्ञाननियन्धनौ जयपराजयो व्यवस्थाप15 यितुं शक्यौ, यथोक्तोसुङ्गात् । क्षसिसिसिपिवमानौ तु तो निरवद्यौ पक्ष
प्रतिपक्षपरिग्रहवैयर्याभावात् । कस्यचित् कुतश्चित् स्वपक्षसिद्धौ सुनिश्चितायां परस्य तत्सिद्धथभावतः सकृञ्जयपराजयग्रसङ्गात् ।
६१०९. यझेदमदोषोभायनमित्यस्य व्याख्यानम्-प्रसज्यप्रतिषेधे दोषोद्भावनाभावमात्रम्-अदोषोद्भावनम् , पर्युदासे तु दोषाभामानामन्यदोपाणां चोद्भावनं प्रतिवादिनो निग्रह20 स्थानमिति-तत् वादिनाऽदोषवति साधने प्रयुक्ते सत्यनुमतमेव यदि वादी स्वपक्षं साध
येनान्यथा| वचनाधिक्यं तु दोषः प्रागेव प्रतिविहितः । यथैव हि पञ्चावयवप्रयोगे वचनाधिक्य निग्रहस्थान तथा व्यवयवप्रयोगे न्यूनतापि स्याद्विशेषाभावात् । प्रतिज्ञादीनि हि पञ्चाप्यनुमानाङ्गम् ---"प्रतिज्ञाहेतृदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः"
न्याय सू० १.१.३२] इत्यभिधानात् । तेषां मध्येऽन्यतमस्याप्यनभिधाने न्यूनताख्यो दोषो. 25 ऽनुपज्यत एव “हीनमन्यतमेनापि न्यूनम्" न्यायसू० ५.२.१२] इति वचनात् । ततो जयेतरव्यवस्थायां नान्यनिमित्तमुक्तानिमित्तादित्यलं प्रसङ्गेन ॥ ३५ ।।
६११०. अयं च प्रागुक्तश्चतुरङ्गो वादः कदाचित्यत्रालम्बनमध्यपेक्षतेऽतस्तल्लक्षणमनावश्याभिधातव्यं यतो नाविझातस्वरूपस्यास्यावलम्बनं जयाय प्रभवति न चाविज्ञातस्वरूप परपत्रं भेत्तुं शक्यमित्यहि
१ नैकान्ततो जयेत् - ३० । २ -भासं चोद्भा० - डे० । ३ जयति कथम् - ई-। ५-स्य निवता०५-मात्रे ज्ञा. -ता । ६ विषयद्र. - ता । ७-सिद्धो निथि-डे।८-क्य सभा नि-डे -माने प्रा-डे । १० ॥ ॥ श्रीः पछामालम् ॥ महाधीः ॥ श्री ॥ - सा । --मित्याहः। इत्याचार्यश्री ५ श्रीहेमचन्द्रविरचितायाः प्रमाणमीमांसायास्तवृतेश्च द्वितीयस्याध्यायस्य प्रथमाहिक समातम् ॥श्री। संवन् १७.४ वर्षे मार्गशीर्षमासे कृष्णतृतीयायां पुण्यतिथी रविवासरे श्रोअणहिलपुरपसनमध्ये पुस्तके लिखित्तमिदं ॥छ। शुभं भवतु । श्रीकल्याणमस्तु ॥ १॥ श्री ॥९॥छ॥छ ॥ -- है ।
ESHAMARAVAHEAmAREAMMAHARLES.APPLIBRARI
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
BRARAMAIRA
S
प्रमायसीमाराना
eatheirmwareilim
॥ भा पा टि प्प णा नि ॥
mannmarrintiwar
ehilewafashisthumsemiatimementatamann.........
10
हैमी प्रमाणमीमांसा विशयतेऽथ टिप्पणैः।
ऐतिम-तुलनास्पृग्भी राष्ट्रभाषोपजीविभिः ।। पृ० १. पं० २. 'तायिने -तुलना-"प्रणम्य शास्त्रे सुगशाय तायिने ...प्रमाणस० १. १. "नायिनामिति स्वाधिगतमार्गदेशकानाम् । यदुक्कम-'साय: स्वदृष्टमाक्ति:' ( प्रमाणवा० २, १४५.) इति दत् विद्यने येषामिति । अथवा सायः संतानार्थः ।"-बोधिचर्या ५० पृ० ७५
पृ०१.०६. 'पाणिनि-पाणिनि का सूत्रात्मक प्राध्यायी शब्दानुशासन प्रसिद्ध है। पिङ्गल का छन्दःशास्त्र प्रसिद्ध है। कशाद और अक्षपाद क्रम से दशाम्यायी वैशेषिकसूत्र और पत्राभ्यायी न्यायसूत्र के प्रणेता हैं।
४० १. ६० ६. 'वाचकमुख्य'--उमास्वाति और उनके तत्वार्थसूत्र के बारे में देखो मेरा लिखा गुजराती तस्वार्थविवेचन का परिचय ।
०१. पं० ११. अकखई-प्रकलङ्क ये प्रसिद्ध दिगम्बराचार्य हैं। इनके प्रमाबसंग्रह, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, लघीयत्रयी प्रादि जैनन्यायविषयक भनेक प्रकरण प्रन्थ है। इनका समय ईसवीय अष्टम शताब्दी है।
पू. १.५० ११. 'धर्मकीति-धर्मकीर्ति ( ई० स० ६२५ ) बौद्ध तार्किक हैं। इनके प्रमाणवार्तिक, हेतुविन्दु, न्यायविन्दु, वादन्याय प्रादि प्रकरणमन्य हैं।
पृ० १. पं० १२. 'नास्य स्वेच्छा'---सुलना-"वचनं राजकीय वा वैदिक वापि वियते ।" श्लोकवा सू० ४. श्लो• २३५ ।
पृ० १. पं० १४. 'वर्णसम्हा-दुलना-"शास्त्र पुन: प्रमाणादिवाचकपदसमूहो ध्यूहविशिष्टः, पदं पुनर्वर्णसमूहः, पदसमूहः सूत्रम् , सूत्रसमूहः प्रकरणम्, प्रकरबसमूह प्राज्ञिकम्, माहिकसमूहोऽध्यायः, पन्चाभ्यायो गानम् ।"न्यायवा० पृ० १
पृ० १.५० १७. 'अय प्रमाण-मारतीय शाख-रचना में यह प्रथाली बहुस पहिले से चली पाती है कि सूत्ररचना में पहिला सूत्र ऐसा बनाया जाय जिससे अन्य का
16
20
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमाणमीमांसायाः
[१०१.१० १८
विषय सूचित हो और जिसमें प्रन्थ का नामकरण भी पा जाय । जैसे पासवाल योगशाख
का प्रथम सूत्र है 'अथ योगानुशासनम्, जैसे अकलंक ने 'प्रमाणसंग्रह' ग्रन्थ के प्रारम्भ में 'प्रमाणे इति संग्रहः' दिया है, जैसे विद्यानन्द ने 'प्रध प्रमाणपरीक्षा' इस वाक्य से ही 'प्रमावपरीक्षा का प्रारम्भ किया है। मा० हेमचन्द्र ने उसी प्रणाली का अनुसरण 5 फरके यह सूत्र रचा है।
'प्रथ' शब्द से शास्त्रारम्भ करने की परम्परा प्राचीन और विविध विषयक शासगामिनी है। जैसे "प्रथात दर्शपूर्णमासी व्याख्यास्यामः" ( आप० श्री. सू० १. १. १.), "अथ शब्दानुशासनम्" (पात. महा.), 'प्रथात धर्मजिज्ञासा' (जैमि० सू० १. १. १ ) इत्यादि ।
प्रा. हेमचन्द्र ने अपने काव्यानुशासन, छन्दोनुशासन की तरह इस ग्रन्थ में भी वही 10 परम्परा रक्खी है।
पृ० १. पं० १८. 'अथ-इत्यस्य-अथ शब्द का 'अधिकार' अर्थ प्राचीन समय से ही प्रसिद्ध है और उसे प्रसिद्ध प्राचार्यों ने लिया भी है जैसा कि हम व्याकरणभाष्य के प्रारम्भ में “प्रथेत्ययं शब्दोऽधिकारार्थ:" ( १. १. १. पृ० ६ ) तथा योगसूत्रभाष्य में (१.१.)
पाते हैं। इसके सिवाय उसका 'आनन्तर्य अर्थ मी प्रसिद्ध है जैसा कि शवर ने अपने 13 मीमांसाभाष्य में लिया है। शङ्कराचार्य ने 'आनन्वय' अर्थ तो लिया पर 'अधिकार' अर्थ
को प्रसङ्गत समझकर स्वीकृत नहीं किया। शङ्कराचार्य को अथ शब्द का "मङ्गला अर्थ लेना इष्ट था, पर एक साथ सीधे तौर से दो अर्थ लेना शास्त्रीय युक्ति के विरुद्ध होने से उन्होंने आनन्यर्थिक 'अथ' शब्द के श्रवण को ही मत मानकर 'मङ्गल' अर्थ लिये बिना
हो, 'मङ्गल' का प्रयोजन सिद्ध किया है। योगभाष्य के और शाङ्करभाष्य के प्रसिख 20 टीकाकार बाचस्पति ने तस्वदेशारदी और भामती में शङ्करोक्त 'प्रथाशब्दश्रुति की मङ्गलप्रयो
अनसा- मृदङ्ग, शङ्ख प्रादि ध्वनि के मांगलिक क्षण की उपमा के द्वारा -पुष्ट की है और साथ ही जलादि अन्य प्रयोजन के वास्ते लाये जानेवाले पूर्ण जलकुम्भ के मांगलिक दर्शन की उपमा देकर एक अर्थ में प्रयुक्त 'प्रय' शब्द का अर्थान्तर बिना किये ही उसके श्रवण की माङ्गलिकता दरसाई है।
Resistoyetups
h itading
t .........
१"सत्र लोकेऽयमयशब्दो वृत्तादनन्तरस्य प्रक्रियाओं दृष्टः-.--शापरभा० १.१.१.
२ "तप्राथशब्द: प्रानन्तर्यार्थः परिगृह्यते माधिकारार्थः, ब्रह्मजिज्ञासाया अनधिकार्यत्वात् , मङ्गलस्य च वास्यार्थे समन्वयाभावात् । अर्थान्तरप्रयुक्त एवं प्रथशब्द'; श्रुत्या मङ्गलप्रयोजनो भवति"--- प्र० शासकरभा० १.१.१.
३ "अधिकारार्थस्य चायशब्दस्यान्यार्थ नीयमानोदकुम्भदर्शनमिव श्रवणं मङ्गलायोपकल्पत इति मन्तव्यम-तत्वयै०१.१, सन चेह मङ्गलमयशब्दस्य पाच्य वा लक्ष्य था, किन्तु मृदभ्यनिवदथराम्दश्रवणमात्रकार्यम् । तथा च 'प्रोकारवायशब्दश्च दावेतो ब्रमणः पुरा कर मिया विनियाँती तस्मान्मानलिकावुभौ ॥' अर्थान्तरेवानन्तर्यादिषु प्रयुक्तोऽथराब्दः अन्या श्रषणमात्रेण वेणुगोसाध्वनिवन्मङगलं कुर्वन् , मङगलप्रयोजनो भवति अन्यार्थमानीयमानेादकुम्भदर्शनवत्" - भामती १.१.१.
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृ. २. ५०.]
भाषाटिप्पदानि ।
मा० हेमचन्द्र ने उपर्युक्त सभी परम्पराओं का उपयोग करके अपनी भ्याल्या में 'प्रथ' शब्द को अधिकारार्थक, भानन्तर्यार्थक और मंगलप्रयोजनवाला बतलाया है। उनकी उपमा भी शब्दशः वही है जो वाचस्पति के उक ग्रन्थों में है।
पृ० २. ५० ३. श्रायुष्म'-तुलना- "मङ्गलादीनि हि शास्त्राणि प्रचन्चे वीरपुरुषाणि व भवन्ति, आयुष्मत्पुरुषाणि याध्येतारश्च सिद्धार्था यथा स्युरिति-पास. महा० १.१.१.
पृ०२.५० ४. 'परमेष्ठि-जैन परम्परा में महत्, सिद्ध, प्राचार्य, सपाध्याय और साधु ऐसे श्रात्मा के पांच विभाग लोकोत्सर विकास के अनुसार किये गये हैं, जो पंचपरमेष्ठी कहलाते हैं। इनका नमस्कार परम मंगल समझा जाता है
"एष पश्चनमस्कारः सर्वपापक्षयरः । मङ्गलानां र सगा प्रथा भपति मजलाम् ।।"
10 पृ० २. ५० ५. 'मकर्षण-वात्स्यायन ने अपने न्यायभाध्य में ( १. १, ३.) 'प्रमाण शब्द को करणार्धक मानकर उसकी निरुक्ति के द्वारा 'प्रमाण' का लक्षण सूचित किया है। वाचस्पति मिश्र ने भी सांख्यकारिका की ( तत्त्वको० का• ४ ) अपनी व्याख्या में 'प्रमाण' का लक्षण करने में उसी निर्बयनपद्धति का अवलम्बन किया है। प्रा. हेमचन्द्र भी 'प्रमाण शब्द की उसी तरह निरुक्ति करते हैं। ऐसी ही निरुति शब्दशः 'परीक्षामुख की व्याख्या 15 प्रमयरत्नमाला ( १. १.) में देखी जाती है।
पृ. २. पं. ६. 'त्रयी हि'-उपलभ्य अन्यों में सब से पहिले वास्यायनभाष्य में ही शास्त्रप्रवृत्ति के विषय की चर्चा है और तीनों विधाओं का स्वरूप भी बतलाया है। श्रीधर ने अपनी कंदही'२ में उस प्राचीन विभ्य के कयन का प्रतिवाद करके शास्त्रप्रवृत्ति को श लसणरूप से विविध स्थापित किया है और परीक्षा को अनियत कहकर उसे विध्य में से 20 कम किया है। श्रोधर ने नियतरूप से द्विविध शालप्रवृत्ति का और वात्स्यायन ने त्रिविध शासप्रसि का कथन किया इसका समय स्पष्ट है। श्रीधर कखादसूत्रीय प्रशस्तपादभाष्य
१ "त्रिविधा चाप शास्त्रस्य प्रवृत्तिः उद्देशो लक्षणं परीक्षा चरित। तत्र मामधेयेन पदार्थमात्र. स्याभिधानं उद्देशः। तत्रोद्दिष्टस्य तत्त्वव्यवच्छेदको धो लक्षणम् । लक्षितस्य यथालक्षणमुपपद्यते न वेति प्रमाणैरत्रधारमा परीक्षा. न्यायभा० १.१.२.
२ "अनुद्दिष्टेषु पदार्थेषु न तेषां लक्षणानि प्रवर्तन्ते निविषयत्वात् । अलक्षितेषु च सवरतीत्य. भावः कारणाभावात् । अतः पदार्थव्युत्पादनाय प्रवृत्तस्य शास्त्रस्योभयथा प्रवृत्ति:-उद्दशी लक्षण' च, परीक्षावास्तु न नियमः। यत्राभिहिते लक्षणे प्रवादान्तरध्याक्षेपात् तत्वनिश्चधा न भवति तत्र परपक्षन्युदासार्थ परीक्षाविधिरधिक्रियते। यत्र तु लक्षणाभिधानसामर्थ्यादेव तत्त्वनिश्चयः स्यात् तत्रायं व्ययों नार्थते । योऽपि हि विविधा शास्त्रस्य प्रवृत्तिमिति तस्यापि प्रयोजनादीनां नास्ति परीक्षा। तत् कस्य हेतालक्षणमात्रादेव में प्रलीयन्ते इति । एवं चेदर्थप्रतीत्यनुरोधात् शास्त्रस्य प्रवृत्तिनं विश्व । नामधेयेन पदार्थानामभिधानमुद्देशः । उद्दिष्टस्य स्वपरजातीयव्यावर्त का धर्मो लक्षणम् | लक्षितस्य यथालक्ष विचार: परीक्षा -- कन्दली पृ०२६.
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमाणमीमांसायाः
[ पृ० २. पं०७
के व्याख्याकार 1 वह भाष्य तथा उसके आधारभूत सूत्र, पदार्थों के उद्देश एवं लक्षणात्मक हैं, उनमें परीक्षा का कहीं भी स्थान नहीं है जब कि वात्स्यायन के व्याख्येय मूल न्यायसूत्र ही स्वयं उद्देश, लक्षण और परीक्षाक्रम से प्रवृत्त है। त्रिविध प्रवृतिवाले शास्त्रों में avara aण्डन-मण्डन प्रणाली अवश्य होती है-जैसे न्यायसूत्र उसके भा 5 आदि में द्विविध प्रवृत्तिवाले शास्त्रों में बुद्धिप्रधान स्थापनप्रणाली मुख्यतया होती है जैसे कणादसूत्र, प्रशस्तपादभाष्य, तस्वार्थसूत्र, उसका भाष्य आदि । कुछ ग्रन्थ ऐसे भी हैं जो श्रद्धाप्रधान होने से उन्हें मात्र केवल उद्देशमात्र हैं जैसे जैनागम स्थानांग, धर्मसंग्रह आदि । धारणायोग्य समझना चाहिए ।
to हेमचन्द्र ने वात्स्यायन का हो पदानुगमन करीब-करीब उन्हीं के शब्दों में 10 किया है।
४
15
शास्त्रप्रवृत्ति के चतुर्थ प्रकार विभाग का प्रश्न उठाकर अन्त में उद्योतकर ने न्यायवार्तिक में और जयन्त ने न्यायसहजरी में विभाग का समावेश उद्देश में ही किया है और I प्रा० हेमचन्द्र ने भो विभाग के बारे में वही त्रिविध प्रवृत्ति का ही पक्ष स्थिर किया है प्रश्न उठाया है और समाधान भी वही किया है।
पृ० २ ० ७ 'उद्दिस्य' - 'लक्षण' का लक्षण करते समय आ० हेमचन्द्र ने 'असा उसका स्पष्टीकरण नव्यन्यायप्रधान तर्कसंग्रह
धारणधर्म' शब्द का प्रयोग किया है ।
को टीका दीपिका में इस प्रकार है
44
एतदूषणत्रय ( अव्यापत्यतिव्यापत्यसंभव ) रहितो धर्मो लचणम् । सानादिमम | a warsarartrधर्म इत्युच्यते ।
यथा गोः लच्यतावच्छेदकसम नियतत्वमसा
20 धारयत्वम् " पृ०१२ |
पृ० २. पं० १२. 'पूजितविचार' - वाचस्पति मिश्र ने 'मीमांसा' शब्द को पूजितविचारares कहकर विचार की पूजितता स्पष्ट करने को भामती में लिखा है कि-जिस विचार का फल परम पुरुषार्थ का कारणभूत सूक्ष्मतम अर्थनिय हो वही विचार पूजित है । आ० हेमचन्द्र ने वाचस्पति के उसी भाव को विस्तृत शब्दों में पल्लवित करके अपनी मीमांसा' 25 शब्द की व्याख्या में उतारा है, और उसके द्वारा 'प्रमाणमीमांसा अन्य के समय मुख्य प्रतिपाद्य विषय को सूचित किया है, और यह भी कहा है कि- 'प्रमाणमीमांसा' ग्रन्थ का उद्देश्य केवल प्रमाणों की चर्चा करना नहीं है किन्तु प्रमाशा, नय और सोपाय बन्ध-मोच इत्यादि परमपुरुषार्थोपयोगी विषयों की भी चर्चा करना है ।
१ "त्रिविधा चास्य शास्त्रस्य प्रवृत्तिरित्युक्तम्, उद्दिष्टविभागश्च न त्रिविधायां शास्त्रप्रवृत्तावन्तभवतीति । तस्मादुद्दिष्टविभागो युक्तः; न; उद्दिष्टविभागस्यादेश एवान्तर्भावात् । कस्मात् ? । लक्षणसामान्यात् । समानं लक्षण नामधेयेन पदार्थाभिधानमुद्देश इति ।" न्यायवा० १. १. ३. न्यायम० पृ० १२. परमपुरुषार्थ हेतुभूतसूक्ष्मतार्थनिर्णयफलता च २ " पूजितविचारो मीमांसाशब्दः । विचारस्य पूजितता"-भामती० पृ० २७.
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
PAEROBBERA
पृ० २. पं० २०.]
भाषाटिप्पणानि ! __पृ. २ पं० २०. सम्यगर्थ-प्रमाणसामान्यलक्षण की सार्किक परम्परा के अपलब्ध इतिहास में कणाद का स्थान प्रथम है। उन्होंने “अदुष्टं विद्या" (९. २. १२) कहकर प्रमाणसामान्य का लक्षण कारणशुद्धिमूलक सूचित किया है। अभपाद के सूत्रों में लक्षणक्रम में प्रमागसामान्यलक्षण के अभाव की त्रुटि को वात्स्यायन ने 'प्रमाण' शब्द के निर्वचन द्वारा पूरा किया। उस निर्वचन में उन्होंने कणाद की तरह कारणशुद्धि की । तरफ ध्यान नहीं रक्खा पर मात्र उपलब्धिरूप फल की पर नज़र रखकर "उपलब्धिहेतुत्व" को प्रमाणसामान्य का लक्षण वसल्लाया है। वात्स्यायन के इस निर्वचनमूलक लाख में आनेवाले दोषों का परिहार करते हुए वाचस्पति मिश्रर ने 'अर्थपद का सम्बन्ध जोड़कर और 'उपलब्धि' पद को ज्ञानसामान्यबोधक नहीं पर प्रमाणरूपशानविशेषरोधक मानकर प्रमाणसामान्य के लक्षण को परिपूर्ण बनाया, जिसे उदयनाचार्य ने कुसुमाञ्जलि में 'गौतम- 10 नयसम्मत' कहकर अपनी भाषा में परिपूर्ण रूप से मान्य रक्खा जो पिछले सभी न्यायवैशेषिक शास्त्रों में समानरूप से मान्य है। इस न्याय-वैशेषिक की परम्परा के अनुसार प्रमाणसामान्यलक्षण में मुख्यतया तीन बातें ध्यान देने योग्य है
१-कारणदोष के निवारण द्वारा कारणशुद्धि की सूचना । २-विषयबोधक अर्थ पद का लक्षण में प्रवेश ।
३-लक्षण में स्व-परप्रकाशस्व की चर्चा का प्रभाव तथा विषय की अपूर्वता-अनधिगतता के निर्देश का अभाव ।
__ यद्यपि प्रभाकर और उनके अनुगामी मीमांसक विद्वानों ने 'अनुभूति मात्र को ही प्रमाणरूप से निर्दिष्ट किया है तथापि कुमारिल एवं उनकी परम्परावाले अन्य मीमांसकों ने न्याय-वैशेषिक तथा बौद्ध दोनों परम्परामों का संग्राहक ऐसा प्रमाश का लक्षण रचा है; 300 जिसमें 'अदुष्टकारारब्ध' विशेषण से कणादकथित कारणदोष का निवारण सूचित किया और 'निधित्व' तथा 'अपूर्वार्थत्व' विशेषण के द्वारा बौद्ध परम्परा का भी समावेश किया।
15
U
n
tilகப்ப
ப்ப
ப்பப்பப்ப
ctisithinriirrittiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiii'
१ "उपलब्धिसाधनानि प्रमाणानि इति समाख्याभिर्वचनसामात् बौद्धध्वं प्रमीयते अनेन इति करणार्थाभिधानो हि प्रमाणशब्द:"-क्यायमा० १.१. ३.
२ "उपलब्धिमात्रस्य अर्थाध्यभिचारिण: स्मृरन्यरूप प्रमाशब्देन अभिधानात्" तात्पर्यपृ०२१.
३ "अार्यानुभयो मानमनपेक्षतष्यते ॥ मितिः सम्यक परिच्छित्तिः तद्वत्ता च प्रमातृता । तदयोगव्यवच्छेदः प्रामाण्यं गौतमे मते ||"-न्यायकु०४.१.५.
४ "अनुभूतिश्न नः प्रमाणम्" बृहती १.१, ५, ४
५ "श्रौत्पचिकगिरा दोषः कारणस्य निवार्यते । अबाधोऽव्यतिरेकेण स्वतस्तेन प्रमागता || सर्वस्यानुपलब्धेऽर्थे प्रामाण्यं स्मृतिरन्यथा "-श्लोकचा औत्प० श्लो०१०, ११. "एतच्च विशेषणत्रयमुपादानेन सूत्रकारेण कारणदोषवाधकज्ञानरहितम् अगृहातग्राहि ज्ञानं प्रमाणम् इति प्रमाणलक्षण सूचितम्। -शानदी० पृ० १२३, “अनधिमतार्थगन्त प्रमाणम् इति भट्टमीमांसका पाहुः"-सिचन्द्रो पृ० २०.
६ "अज्ञाताशापके प्रमाणम् इति प्रमाणसामान्यलक्षणभ ।'.--प्रमाणस. टी० पृ० ११.
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमाणमीमांसायाः
[पृ. २. पं० २० "तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवर्जितम् ।
अदुष्टकारणारब्धं प्रमाण लोकसम्मतम् ॥" यह श्लोक कुमारिलकत्सक माना जाता है। इसमें दो बातें खास ध्यान देने की है१-लक्षण में अनधिगतबोधक 'अपूर्व' पद का अर्थविशोषण रूप से प्रवेश । २-स्व-परप्रकाशत्व की सूचना का प्रभाव ।
बौद्ध परम्परा में दिल्नागर ने प्रमाणसामान्य के लक्षण में 'स्वसंवित्ति' पद का फल के विशेष रूप से निवेश किया है। धर्मकीतिर के प्रमाणवार्तिकवाले लक्षण में वात्स्यायन के प्रवृतिसामर्थ्य का सूचक तथा कुमारिल आदि के निधित्व का पर्याय 'अधिसंवादित्या विशेष देखा जाता है और उनके न्यायविन्दुवाले लक्षण में दिङ्नाग के अर्थसारथ्य का 10 हो निर्देश है ( न्यायधिः १. २०.)। शान्तरक्षित के लक्षण में दिनाग और धर्मकीर्ति दोनों के प्राशय का संग्रह देखा जाता है
"विषयाधिगतिधात्र प्रमाणफलमिच्यते ।
स्ववितिर्वा प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि का ॥"-तत्त्वसं ० का० १३४४.
इसमें भी दो बाते' खास ध्यान देने की है15 १-अभी तक अन्य परम्पराओं में स्थान नहीं प्राप्त 'स्वसंवेदनविचार का प्रवेश और लद्वारा शामसामान्य में स्व-परप्रकाशत्व की सूचना । ।
असङ्ग और बसुबन्धु नै विमानवाद स्थापित किया। पर दिङ नाग ने उसका समर्थन बड़े जोरों से किया। उस विज्ञानवाद की स्थापना और समर्थनपद्धति में ही स्वसंविदितत्व या
स्वप्रकारास्व का सिद्धान्त स्फुटधर हुआ जिसका एक या दूसरे रूप में अन्य दार्शनिकों पर 20 भी प्रभाव पड़ा--देखो Buddhist Logic vol. i. P. 12
२-मीमांसक की तरह स्पष्ट रूप से 'अनधिगसार्थक ज्ञान का ही प्रामाण्य ।
श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों जैन परम्पराओं के प्रथम तार्किक सिद्धसेन और समन्तभद्र ने अपने अपने लक्षण में स्व-परप्रकाशार्थक स्व-परावभासक' विशेषण का समान रूप से निवेश किया है। सिद्धसेन के लक्षण में बाधविवर्जित' पद उसी अर्थ में है जिस अर्थ में मीमांसक 25 का वायवर्जित' या धर्मकीर्ति का 'अविसंवादि' पद है। जैन न्याय के प्रस्थापक अकलंक'
१ "स्वसंवित्तिः फलं दात्र तद्रूपादर्थनिश्चयः 1 विषयाकार एवास्य प्रमाणं न मीयते ।।"प्रमाणस०१.१०.
प्रमागामविसंवादि ज्ञानमक्रियास्थितिः। अविर्सबादनं शाब्देष्यभिप्रायनिवेदनात प्रया. एमा० २.१.
. ३ "प्रमाणं स्वपरामासि ज्ञान बाधविवर्जितम् ।"..-न्याया० १. "तत्त्वज्ञान प्रमाणं ते युगपत्सर्वभास. नम् ।"-आप्तमी० १०१. "स्वपरायभासक यया प्रमाणं मुनि बुद्धिलक्षणम्"-१० स्वयं० ६३.
४ "प्रमाणमक्सिंवादि शानम् , अनधिगतार्याधिगमलक्षणत्वात् ।": अष्टश० अष्टस पृ० १७५. तदुरूम्-"सिद्ध मन परापेक्षु सिद्धौ स्वपररूपयाः । तत् प्रमाणं ततो नान्यदविकल्पमचेतनम् ।" न्यायधिक टी.लि. पृ. ३०. उत्त कारिका सिद्धिविनिश्चय की है जो अकलंक की ही कृति है।
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
RSamittaisaswwws
०२.५० २०]
भाषाटिप्पणानि ।
ने कहीं 'अनधिगतार्थक' और "अविसंवादिः दोनों विशेषणों का प्रवेश किया और कहीं 'स्वपरावभासक विशेषण का भी समर्थन किया है। प्रकलंक के अनुगामी माषिक्यानन्दी' ने एक ही वाक्य में 'मह' तथा 'अपूर्वार्थ पद दाखिल करके सिखसेन-समन्तभद्र की स्थापित
और अकलंक के द्वारा विकसित जैन परम्परा का संग्रह कर दिया। विद्यानन्द ने अकलंक तथा माशिक्यनन्दी की उस परंपरा से अलग होकर केवल सिद्धसेन और समन्समद्र की व्याख्या । को अपने स्वार्थव्यवसायात्मक' जैसे शब्द में संग्रहीत किया और 'अनधिगत' या 'अपूर्व पद जो अकलंक और माणिक्यनम्दी की व्याख्या में हैं, उन्हें छोड़ दिया। विद्यानन्द का व्यवसायात्मक' पद जैन परम्परा के प्रमाण लक्षण में प्रथम ही देखा जाता है पर वह प्रक्षपादरे के प्रत्यक्षलाण में खो पहिले ही से प्रसिद्ध रहा है। सम्मति के टोकाकार अभयदेव ने विद्यानन्द का ही अनुसरण किया पर 'व्यवसाय के स्थान में निर्णाति पद रक्खा | वादी५ 10 देवसूरि ने तो विद्यानंद के ही शब्दों को दोहराया है। मा० हेमचन्द्र ने उपर्युक जैन-जैनेतर भिन्न भिन्न परंपराओं का भौचित्य-अनौचित्य विचार कर अपने लक्षण में केवल 'सम्यक', 'अर्थ' और 'निर्णय य तीन पद रक्स। अपयुक्त जैन परम्परानी को देखते हुए यह कहना पड़ता है कि प्रा. हेमचन्द्र ने अपने लक्षण में काट-छोट के द्वारा संशोधन किया है। उन्होंने 'स्व' पद जो पूर्ववर्ती सभी जैनाचार्यों ने लक्षण में समिविष्ट किया था, निकाल दिया। 15 'अवमास', 'ध्यवसाय मादि पदों को स्थान न देकर अभयदेव के 'निर्णाति पद के स्थान में 'निर्णय' पद दाखिल किया और उमारवाति, धर्मकीर्ति तथा भासर्वज्ञ के सम्यक६ पद को प्रपनाकर अपना 'सम्यगनिया नाम निर्मित किया है।
प्राधिक तात्पर्य में कोई खास मतभेद न होने पर भी सभी दिगम्बर-श्वेताम्बर प्राचार्यों के प्रभाखलसच में शाब्दिक भेद है, जो किसी अंश में विचारविकास का सूचक 20 और किसो अंश में तत्कालीन भिन्न भिन्न साहित्य के अभ्यास का परिणाम है। यह भेद संक्षेप में चार विभागों में समा जाता है। पहिले विभाग में 'स्व-परावभास' शब्दवाला सिद्धसेन-समन्तभद्र का लक्षण माता है जो संभवत: बौद्ध विज्ञानवाद के स्व-परसंवेदन की विचारछाया से खाली नहीं है, क्योंकि इसके पहिले पागम अन्धों में यह विचार नहीं देखा जाता । दूसरे विभाग में प्रकलक-मासिक्यनन्दी का लक्षण प्राता है जिसमें 'अविसंवादि', 'अनधिगत' 25 और 'अपूर्व' शब्द आते हैं जो प्रसंदिग्ध रूप से बौद्ध और मीमांसक प्रन्यों के ही हैं। तीसरे
ASURPRIYAKHABARooting""""""
१ "स्वापूर्थिव्यवसायात्मक ज्ञान प्रमाणम् । परी० १.१
२ तत्स्वायव्यवसायात्मशानं मान मितीयता। लक्षणेन गलार्थत्वात् व्ययं मन्यविशेषणम् ||"- सस्वार्थ श्लोक १, १०.७७, प्रमाणप० पृ. ५३.
३ "इन्द्रियार्थसन्निकर्पोत्पन्नं ज्ञानभव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मक प्रत्यक्षम् ।'-स्याय सू० १.१.४. ४ "प्रमाणे स्वार्थनिणतिस्वभाव शानम् ।"-सन्मतिटी०, पृ०५१. ५ "स्वपरव्यवसायि ज्ञान प्रमाणम्"-प्रमाणन.१.२.
६ "सम्यग्दर्शनशानचरित्राणि मेक्षिमार्ग: । तरवार्थ० १.१. "सम्यमान पूर्विका सर्व पुरुषार्थ. मिद्धिः ।"---न्यायवि० १.१. सम्यगनुभवसाधन प्रमाणम् 1*-यायसार कर
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमाद्यमीमांसायाः
[१० २.५० २१
माय
विभाग में विद्यानन्द, अभयदेव और देवसरि के लरुख का स्थान है जो वस्तुतः सिद्धसेन समन्तभद्र के लक्षण का शब्दान्तर मात्र है पर जिसमें प्रभास के स्थान में 'स्यवसाय' या 'नि:सि। पद रखकर विशेष अर्थ समाविष्ट किया है। अन्तिम विभाग में मात्र प्रा० हेमचन्द्र का समय है जिसमें , 'अपूर्व, 'AIR: मादि रूप उभार परिष्कार किया गया है।
०२. पं० २१. 'प्रसिद्धानुवादेन'-लत्तण के प्रयोजन की विभिन्न चर्चाओं के अन्तिम तात्पर्य में कोई भेद नहीं जान पड़ता तथापि उनके ढंग जुदे जुदे और बोधप्रद हैं। एक और न्याय-वैशेषिक शास्त्र हैं और दूसरी और बौद्ध तथा जैनशाल हैं। सभी म्याय-वैशेषिक
अन्धों में लक्षण का प्रयोजन इतरभेदशापन' बदलाकर लक्षण को 'व्यतिरेकिहेतु' माना 10 है और साथ ही व्यवहार' का भी प्रयोजक बसलाया है।
बौद्ध विद्वान धर्मोत्तर ने प्रसिद्ध का अनुवाद करके अप्रसिद्ध के विधाम को लखख का प्रयोजन विस्तार से प्रतिपादित किया है. जिसकार देवसरि ने बड़े विस्तार तथा प्राटोप के साथ निरसन किया है। प्रकलंक का मुकाव व्याक्ति को प्रयोजन मानने की ओर है, परन्तु
पा० हेमचन्द्र ने धर्मोत्तर के कथन का आदर करके अप्रसिद्ध के विधान को लक्षवार्थ In बतलाया है।
पृ० २. पं० २३. 'भवति हि-हेमचन्द्र ने इस जगह जो 'लक्ष्य' को पक्ष बना कर लक्षण' सिद्ध करनेवाला 'हेतुप्रयोग किया है वह बौद्ध-जैन ग्रन्थों में एक सा है।
RAMA
SARAMARTHREnमरवार
१"तोद्दिष्टस्य सत्यव्यवच्छेदको धो लक्षणम्" यायभा० १.१.२. "लक्षणस्य इतरम्यवच्छेद हेतुत्वात्"... न्यायवा०१.१.३. "लक्षणं नाम व्यतिरकिहेतुवचनम्। तद्धि समानासमानजातीयेभ्यो
पद्य लक्ष्य व्यवस्थापयति "-हारपर्य० १.१.३. "समानासमाजातीयव्यवच्छेदो लक्षणार्थ:-न्यायम पृ०६५."लक्षणस्य व्यवहारमात्रसारतया समानासमानजातीयव्यवच्छेदमात्रसाधनस्वेन चान्याभावप्रतिपादनासामध्यात्" कन्दली०पू०. "ध्यानस्वैव लक्षणस्वे व्यावृत्ती अभिधेयत्यादौ च अलिब्यासिवारणाय सन्द्रि भत्वं भ्रमविशेषण देयम् । व्यवहारस्यापि लक्षणप्रयोजनत्वे द न देयम्, व्यावृत्तेरपि व्यवहारसाधनस्यात् । - दीपिका पृ० १३. "व्यावृत्ति-वहारो वा लक्षणस्य प्रयेाजनम् 1"-तर्कदी. गंगा पृ० १६, "मनु लक्षणमिदं व्यतिरकिलिङ्गभितरभेदसार्थक व्यवहारसाधकं वा ।"वै० उप० २.१.१.
२"तत्र प्रत्यक्षमनूद्य कल्पनापोदल्यमभ्रान्तत्वं च विधीयते । यत्तद्भवलामस्माकं चार्थेषु साक्षात्कारिज्ञानं प्रसिद्ध तत्कल्पनापोटाप्रान्तत्वयुक्तं द्रश्य । न चैतन्मन्तव्यं कल्पनापोढाभ्रान्तत्वं चंदप्रसिद्ध किमन्यत् प्रत्यक्षस्प ज्ञानस्य रूपमवशिष्यते यत्प्रत्यक्षशब्दवाच्यं सदनूयतेति ?। यस्मादिन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधाव्यथेषु साक्षात्कारिज्ञान प्रत्यक्षशब्दवाच्यं सर्वेषां सिद्धं तदनुबादेन कल्पनाढाभ्रान्तत्त्वविधिः " , टी०१.४. "श्रवाई धर्मात्तर:-साक्ष्यलक्षणभावविधानवाक्ये लक्ष्यमन्य लक्षणमेव विधीयते। लक्ष्य हि प्रसिद्ध भवति तलस्तदनुवाधम्, लक्षयां पुन: अप्रसिद्धमिति तदिधेयम् । अज्ञात शापन विधिरित्यभिधानात् । सिद्धे तु लक्ष्यलक्षणभावे लक्षणमनूद्य लक्ष्यमेश्य विधीयते इतिः तदेतदवन्धुरमा च्यवनक्षणस्यापि प्रसिद्धिर्न हिन सिद्धति कुतस्तस्यायशातत्वनिबन्धनो विधिरप्रतिबद्धः सिद्ध्येत् ।" स्याद्वादर० पृ० २०.
३ "घरस्परव्यतिकरे सति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम् ।” तत्त्वार्थरा०पृ०५२.
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
Mobiswar
पृ० ३, ५० ३.]
भाषाटिप्पयानि ।
और 'विशेष' को 'पक्ष' बनाकर 'सामान्य' को हेतु' मनाने की युक्ति भी एक जैसी है।
पृ. ३.५० १. 'तत्र निर्णया-तुलना-"विमृश्य पक्षप्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारण निर्णय:-..न्यायसू० १. १. ४१ ।
पृ. ३. पं० ३. 'अयंते अयते'-प्रमेय-अर्थ के प्रकार के विषय में दार्शनिकों का मत. भेद है। न्याय वैशेषिक परम्परा के सभी प्रधान प्राचार्यो २ का मत हेय-उपादेय-उपेक्षणीय. रूप से तीन प्रकार के अर्थ मानने का है। बौद्ध धर्मोत्तर उपेक्षणीय को इय में अन्तर्भावित करके दो ही प्रकार का अर्थ मानता है जिसका शब्दशः अनुसरय दिगम्बर तार्किक प्रभावन्द्र ने माणिक्यनंदी के सूत्र का यथाश्रुत अर्थ करके किया है। देवसरि की सूबरचना में ते माणिक्य नन्दी के सूत्र की यथावत् छाप है फिर भी स्वपिज्ञ व्याख्या में देवसूरि ने धर्मो- 10 सर के मत को प्रभाचन्द्र की तरह स्वीकार न करके विविध अर्थ माननेवाले न्याय-वैशेषिक पक्ष को ही स्वीकार किया है, जैसा कि सम्मविटीकाकार (पृ. ४६६ ) ने किया है।
१ सिम्यशान प्रमाणां प्रमाणत्वान्यथानुपपत्ते:"-प्रमाणप० पृ०१. न्यायकुमु०लि.पृ०३६. प्रमेयक. १. १. "तत्सम्भवसाधकस्य प्रमाणत्वाख्यस्य हेतोः सद्भावात् । चनु यदेव प्रमाण धमित्वेनात्र निर. देशि कथं तस्यैव हेनुत्पमपपन्नमिति चेत् ; ननु किमस्य हेतुत्वानुपपत्तौ निमित्तम्-कि धमित्वहेतुत्वयोविरोध: । किं मा प्रतिश्चा) के वेशत्वम् । यदाऽनन्धयत्वम् । तत्राद्यपदेऽयमभिप्राय:-धर्माणामधिकरणं धर्मों तदधिकरणस्तु धर्मः। ततो यान प्रमाण धर्मि कर्थ हेतु: । स चेत् ; कथं धमि, हेतोधमत्वात् धर्मधर्मिणोश्क्यानुपपत्तः । तदयुक्तम् । विशेष धमिर विधाय सामान्य हेतुमभिदता दोषासम्भयात् । प्रमाणं हि प्रत्यक्षपरीक्षव्यक्तिलक्षणं धर्मि | प्रमाणत्वसामान्यं हेतुः। ततो नाव सर्वथैक्यम् । कथश्चिदैवयं तु भवति न धर्मधर्मिभाव विरुणद्धि । प्रत्युत तत्प्रयोजकमेव, तदन्तरेण धर्म धर्मिभावेऽतिप्रसङ्गात्।"स्याद्वादर० पृ. ४२, ४२. प्रमेयर० १.१ "ननु प्रत्यविशेगी धर्मी सामान्य साधन मिति न पतिकार्यकदेशताप्रपाणबार्सिकालङ्कार पृ०६२।
२ प्रदीरमानमर्थ कममाजिशासते ?। ते तत्वता शातं दास्यामि योपादास्य उपेक्षिष्ये वेति । ता एता हानोपादानापेक्षायुद्ध यस्तत्वशानस्यार्थस्तदर्थमयं जिज्ञासते"-न्यायमा० १.१.३२. “पुरुषापेक्षया तु प्रामाण्ये चन्द्रतारकादिविज्ञानस्य पुरुषानपेक्षितस्य अप्रामाण्यप्रसङ्गः । न चातिदवीयस्तया तदर्थस्य हेपतवा तदपि पुरुषस्यापेक्षितम , तस्योपेक्षणीयविषयत्वात् । न चोक्षणीयमपि अनुपादेयत्वात् हेयमिति निवेदविष्यने" । १. १. ३. पृ. १०३ -तात्पर्य पृ० २१. न्यायमः पृ० २४. "प्रमितिर्मुणदोषमाध्यस्थ्यदर्शनम् । गुणदर्शनमुपादेयत्वज्ञानम्, दोपदर्शनं हेपत्वज्ञानम्, माध्यस्थ्यदर्शनं न हेयं नागदेयमिति ज्ञान प्रमिति: "कन्दली पृ० १६६।
३ "पुरुषस्यार्थ: अयंत इत्यर्थः काम्यत इति यावत् । हेयोऽर्थः उपादेयो वा। हेयो हाथों हातुमिष्यते उपादेयोप्युपादातुम् । न च हेयोपादेया-पामन्यो राशिरस्ति । उपेक्षणीयेा खानुपादेयत्वात् हेय एच-न्यायनिक टी० १.११
४ "हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ हि प्रमाण ततो ज्ञानमेव तत्"-परी १. २. "अयंते अमिलभ्यते प्रयोजनार्थिमिरित्यर्थो हेय उपादेयश्च । उपेक्षणीयस्यापि परित्यजनीयत्वात् हेयत्वम् , उपादानक्रिया प्रत्ति अकर्मभावात् नापादेयत्वम् हानकियां प्रति विपर्ययात् तस्वम् । तथा च लोका बदलि-अहमनेन उपेक्षणीयदेवेन परित्यक्त इति"-प्रमेयक० पृ०२ A. "अभिमतानभिमतवस्तुस्वीकारतिरस्कारक्षम हि प्रमाणम् अतो
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
10
15
20
25
प्रमाणमीमांसायाः
[ ५०३, पं० ४
आ० हेमचन्द्र ने भी उसी त्रिविध अर्थ के पक्ष को ही लिया है पर उसके स्थापन में नई युक्ति का उपयोग किया है F
पृ० ३ ०४. 'न चानुपादेय' - तुलना- 'ननु कोयमुपेक्षणीयो नाम विषय: १ । सहि उपेक्षीयत्वादेव नोपादीयते स तर्हि व अनुपादेयत्वादिति । नैतद् युक्तम्, उपे क्षणीय विषयस्य स्वसंवेद्यत्वेन प्रत्याख्येयत्वात् ।
१०
हेयोपादेययेोरस्ति दुःख-मीतिनिमित्तता । यत्नेन हानेोपादाने भवतस्तत्र देहिनाम् ॥ यत्नसाध्यद्वयाभावादुभयस्यापि साधनात् । ताभ्यां विसदृशं वस्तु स्वसंविदितमस्ति नः || उपादेये च विषये दृष्टे रागः प्रवर्तते । इतरत्र तु विद्वेपस्तत्रीभावपि दुर्लभौ ||
यत्तु अनुपादेयत्वात् य एवेति तदप्रयोजकम् न त्वं भवति यदेतद् नपुंसकं स मानवान् । स्त्री वा नपुंसकं अनुंस्त्वादिति । खीपुंसाभ्यामन्यदेव नपुंसकम्, तोपलभ्यमानत्वात् । एवमुपेक्षणीयोऽपि विषयो हेयोपादेयाभ्यामर्थान्तरम्, तथेोपलम्भादिति । यदेतत् तृणादि चकास्ति पनि गच्छतः ।
नीवादिवत् तत्र न च काकोदरादिवत् ।।" यायम० १० २४-२५.
पृ० ३. पं० ६ 'सभ्यम् - तुलना - "तत्र सम्यगिति प्रशंसार्थी निपातः समवतेव भावः " तस्याश्रमा १. १.
पृ० ३. पं० ११. 'संभव'-तुलना
"संभवव्यभिचाराभ्यां स्वाद्विशेषामर्थवत् ।
न शैत्येन न चाष्णयेन क्वापि विशिष्यते ।।" ००२० "संभवव्यभिचाराभ्यां विशेषणविशेष्ययोः ।
विशेष लोके यथेापि तथेक्ष्यताम् ||" - वृ० ० ० २०१२.
"संभवे व्यभिचारे च विशेष युक्तम्- "० टी०लि० पृ० ६१.
पृ० ३. पं० १६. ' न चासावसन् आ० हेमचन्द्र ने 'स्वप्रकाश' के स्थापन और ऐकान्तिक 'परप्रकाशकत्व' के खंडन में बौद्ध, प्रभाकर, वेदान्त आदि सभी 'स्वप्रकाशवादियों की युक्तियों का संग्राहक उपयोग किया है।
↑
ज्ञानमेवेदम् " प्रमाणन० १ ३ । अभिमताननिमवयोरुपलक्षणत्वादभिमतानभिमतो भयाभावश्यमान उपेक्षयोऽन्यत्रार्थी लक्षयितव्यः । गोचर: स्वभिमतः । पियोऽनभिमतः । रागद्वेपािनालम्बनं 1 शृणादिरुपेक्षणीयः । तस्य चर्वेक्षक प्रमाणं तपेक्षायां समर्थमित्यर्थः || ” स्याद्वादर० १.२ ।
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृ. ४. पं० १६.]
भाषाटिप्पणानि । प्र. ३. पं० १६. 'बटमहं जानामि तुलना- घमहमात्मना वेनि। कर्मक्त् कत करणक्रियाप्रतीते: ।-परी. १.८, ६.
पृ० ३. पं० १७. 'न च अप्रत्यक्षोपलम्भस्य -तुलना-"सदाह-धर्मकीर्सि: 'अप्रत्यक्षो.' न्यायत्रि० टी० लि. पृ० १०६ B; पृ० ५४२ B. "अप्रसिद्धोपलम्भस्य नार्थ वित्तिः प्रसिद्धयति" तरणसं ० का २०७४.
पृ० ३. पं० २२ 'तस्मादोन्मुख'-तृलना--"स्वान्मुखतया प्रतिभासने स्वस्थ व्यवसायः । अर्थस्येव तदुन्मुखतया ।" परी० १, ६, ७.
पृ० ५.५० १०. 'स्वनिर्णय-पा० हेमचन्द्र ने अपने लक्ष में 'स्व' पद जो पूर्ववर्ती सभी जैनाचार्यों के लक्षण में वर्तमान है इसे जब नही रखा तब उनके सामने प्रश्न उपस्थित हुआ कि क्या प्राचीन प्राचार्यसंमन स्वप्रकाशस्त्र' इष्ट न होने से 'स्व'पद का त्याग करते 10 हो या अन्य किसी दृष्टि से १ । इसका उत्तर उन्होंने इस सूत्र में दिया कि ज्ञान तो 'स्वप्रकाश ही है पर व्यावसक न होने से लक्षण में उसका प्रवेश अनावश्यक है। ऐसा करके अपना विचारस्वातंत्र्य उन्होने दिखाया और साथ ही वृद्धों का खण्डन न करके स्वापदप्रयोग की उनकी दृष्टि दिखाकर उनके प्रति आदर भी व्यक्त किया।
.
पृ. ४. पं० १५ 'ननु च परिच्छिनमधम-नृलना-"अधिगस चार्थमधिगमयता प्रमाणेन 13 पिष्टं पिदं स्यात् । -न्यायवा • पृ० ५.
पृ० ४. पं० १६, 'धारावाविज्ञानानाम-भारतीय प्रमाणशास्त्रों में स्मृति के प्रामाण्य-अप्रामाण्य की चर्चा प्रथम से ही चली पाती देखी जाती है पर धारावाहिक सानो के प्रामाण्य-प्रामाण्य की चर्चा संभवत: बौद्ध परम्परा में धर्मकीत्ति बाद दाखिल हुई। एक बार प्रमामशास्त्रों में प्रवेश होने के बाद तो फिर वह मर्वदर्शनव्यापी हो गई और १) इसके पक्ष-प्रतिपक्ष में युक्तियाँ तथा वाद स्थिर हो गये और खास-खास परम्पराएँ बन गई।
वाचस्पति, श्रीधर, जयन्त, उदयन आदि सभो' भ्याय-वैशेषिक दर्शन के विद्वानों ने 'धारावाहिका ज्ञान का अधिगतार्थक कहकर भी प्रमाण ही माना है और उनमें 'सूपमकाल. कला' के भान का निषेध ही किया है। अन्नपत्र उन्होंने प्रमाण लक्ष में 'अनधिस' 25 प्रादि पद नहीं रक्खे ।
१ "अनधिगतार्थगन्तृत्व च धागवाहिकायज्ञानानामधिगतागाचगणः लोकसिद्धप्रमाणभावानां प्रामाण्यं विहन्तीति नाद्रियामहे। न च कालभेदेनानाधिगतगोचरत्वं धारावाहिकानामिति युक्तम् । परमसूक्ष्माणां कालकलादिभेदानां पिशिललोचनरस्मादशैरनाकलनात् । न चायनव विज्ञान नोपदर्शितस्वादर्थस्य प्रवर्तितत्वात् पुरुपस्य प्रापितत्यायोत्तरेवामप्रामारवनंब जानानामिलि वाथ्यम् । नांह विज्ञानत्यार्थप्राप प्रवर्तनादन्यद्, न च प्रवर्तनमर्थप्रदर्शनादन्यत् । तस्मादर्थप्रदर्शनमाध्यागरमेव ज्ञानं प्रवत्त के प्रापकं च । प्रदर्शन च पूर्ववदुत्तरेषामपि विज्ञानानामभिन्नमिति कथ पूर्वमेव मार नोत्तराण्याप ।'-तारपर्य० पृ०२१. कन्दली पृ० ६१. न्यायम० पृ. २२. न्यायकु०४.१ ।
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमायमीमांसाया:
[पृ० ४. पं० १६
R TwimmiNSARNIRMER
i t
मीमांसक को प्रभाकरीय और कुमारिलीय दोनो परम्परामों में भी धारावाहिक ज्ञानों का प्रामाण्य ही स्वीकार किया है। पर दोनों ने उसका समर्थन भिन्न-भिन्न प्रकार से किया है। प्रभाकरानुगामी शालिकनाथ' 'कालकला' का भान बिना माने ही 'अनुभूति' होने मात्र से उन्हें प्रमाण कहते हैं, जिस पर न्याय-वैशेषिक परम्परा की छाप स्पष्ट है। 5 कुमारिलानुगामी पार्थसारथिर, 'सूक्ष्मकालकला' का भान मानकर ही उनमें प्रामाण्य का
उपपादन करते हैं क्योंकि कुमारिलपरम्परा में प्रमाणलक्षण में 'अपूर्व' पद होने से ऐसी कल्पना बिना किये 'धारावाहिक' ज्ञानों के प्रामाण्य का समर्थन किया नहीं जा सकता। इस पर बौद्ध और जैन कल्पना की छाप जान पड़ती है।
बौद्ध-परम्पग में यद्यपि धर्मोसर ने स्पष्टतया 'धारावाहिक' का उल्लेख करके तो कुछ 10 नहीं कहा है, फिर भी उसके सामान्य कथन से उसका मुकाव धारावाहिक को अप्रमाण
मानने का ही जान पड़ता है। हेतुबिन्दु की टोका में अर्चद ने 'धारावाहिक के विषय में अपना मन्तव्य प्रसंगवश स्पष्ट बतलाया है। उसने योगिगत 'धारावाहिक' ज्ञानों को तो 'सूक्ष्म कालकला' का भान मानकर प्रमाण कहा है। पर साधारण प्रमातानों के धारा
वाहिकों को सूचमकालभेदमाहक न होने से अप्रमाश ही कहा है। इस तरह बौद्ध पर15 परा में प्रमाला के भेद से 'धारावाहिक' के प्रामाण्य-अप्रामाण्य का स्वीकार है।
RINAMRATARISMS
a
i A
m ssipatientistrea
MHTRATIसरकलSONAMOHAM लावर
१ "धारावाहिक रविज्ञानानि स्मृतिप्रमाणादविशिष्टानि कथं प्रमाणानि?। सत्राह-अन्योन्यनिरपेक्षास्तु धारावाहिकबुद्धयः। च्याप्रियमाणे हि पूर्व विज्ञानकारणकलाप उत्तरेषामव्युत्पत्तिरिति न प्रतीतित उत्पत्तितो वा धारावाहिकविज्ञानानि परस्परस्यातिशेरत इति युक्ता सघामपि प्रमाणता ।"-प्रकरणय पृ० ४२-४३. वृहतीप० पृ० १०३.
२ मिन्नेवं धारावाहिकेषुत्तरेषां पूर्वगृहीतार्थविषयकत्वादप्रामाण्यं स्यात् । तस्मात् 'अनुभूतिः प्रमाणम्' इति प्रमाणलक्षणम् । ., तस्मात् यथार्थमगृहीतग्राहि ज्ञान प्रमाणमिति वक्तव्यम् । धारावाहिकेत्र'युत्तरोत्तरेषां कालान्तरसम्बन्धस्याग्रहीतस्य ग्रहणाद् युक्त प्रामाण्यम् । सनधि कालभेदोऽलिसूत्रमत्यान्न परामृष्यत इति चेत् : अहो सूक्ष्मदशी देवानांप्रियः ! यो हि समानविषयमा विज्ञानधारवा चिरमवस्थायोपरतः सेोऽनन्तरक्षणसम्बन्धितयार्थ स्मरति । तथाहि-किमत्र घटोऽवस्थित इति पृधः कथयति-अस्मिन् क्षणे मयो फलब्ध इति । तथा प्रातरारभ्यैतावत्कालं मयापलब्ध इति । कालभेदे पगृहीते कथमेवं वदेत् । तस्मादस्ति कालभेदस्य परामर्शः। तदाधिक्याच सिद्धमुत्तरेषां प्रामाण्यम । -शास्त्रदी० पृ० १२४-१२६.
३ "अत एव अनधिगतविषयं प्रमाणम् । येनैव हि शानेन प्रथममधिगतोऽर्थः तेनैव प्रवर्तितः पुरुषः प्रापितश्चार्थः तत्रैवार्थे किमन्येन ज्ञानेन अधिक कार्यम् । ततोऽधिगतविषयमप्रमाणन " न्यायबि० टी०. पृ०३.
"यदैकस्मिन्नेव नीलादिवस्तुनि धारावाहीनीन्द्रियशामान्युत्पद्यन्ते तदा पूर्वेणाभिभूयोगक्षेमत्त्वात् उत्तरेषामिन्द्रियज्ञानानामपामाण्यप्रसङ्गः । न चैवम् , अतोऽनेकान्त इति प्रमाणसंप्लववादी दर्शयन्नाह पूर्वप्रत्यक्षक्षणेन इत्यादि । एतत् परिहरति-तद् यदि प्रतिक्षणं क्षणविवेकदर्शिनोऽधिकल्याच्यते तदा भिन्नोपयोगितया पृथक् प्रामाण्यात् नानेकान्तः। श्रथ सर्वपदायवेकत्वाध्यायसायिनः सांध्यबहारिकान् पुरुषानभिप्रेत्याच्यते तदा सकलमेव नीलसन्तानमेकम स्थिररूपं तत्साध्या चाकियामेकात्मिकामध्यवस्यन्तीति प्रामाण्यमान्वुत्तरेषामनिष्टमेदेति कुतोऽनेकान्तः ? --हेतु. टी.लि. पृ० ३६ B-A.
.....singhvane.veoodia.duismilestinidiandesiasi .
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३
पृ० ४. पं० १६.
भाषा टिप्पणानि ।
अब
जैन तर्कों में 'धारावाहिक' ज्ञानों के प्रामाण्य अप्रामाण्य के विषय में दो परम्पराएँ है - दिगम्बरीय और श्वेताम्बरीय | दिगम्बर परम्परा के अनुसार 'धारावाहिक' ज्ञान तभी प्रमाण हैं जब वे क्षणभेदादि विशेष का भान करते हों और विशिष्टप्रमाजनक होते हो । वे ऐसा न करते हो तब प्रभाग नहीं हैं। इसी तरह उस परम्परा के अनुसार यह भी ना चाहिए कि विशिष्टप्रमाजनक होते हुए भी 'धारावाहिक' ज्ञान जिस द्रव्यांश में 5 विशिष्टप्रमाजनक नहीं हैं उस अंश में वे प्रमाण और विशेषांश में विशिष्टप्रमाजनक होने के कारण हैं अर्थात् एक ज्ञान व्यक्ति में भो विषय भेद की अपेक्षा से प्रामाण्याप्रामाण्य है । अकलङ्क के अनुगामी विद्यानन्द और माणिक्यनन्दी के अनुगामी प्रभाचन्द्र के channal का पूर्वापर अवलोकन उक्त नतीजे पर पहुँचाता है। जैनाचार्यो की तरह निर्विवाद रूप से 'स्मृतिप्रामाण्य' का समर्थन freeनन्द पने-अपने प्रमाण
क्योंकि अन्य सभी करनेवाले प्रकलङ्क और 10 के समान 'अनधिगत'
और 'अपूर्व पद रखते हैं तब उन पदों की सार्थकता उक्त तात्पर्य के सिवाय और किसी प्रकार से बतलाई ही नहीं जा सकती चाहे विद्यानन्द और प्रभाचन्द्र का स्वतन्त्र मत कुछ भी रहा हो ।
1
बौद्ध faare freल्प और स्मृति दोनों में, मीमांसक स्मृति मात्र में स्वतन्त्र प्रामाण्य नहीं मानते । इसलिए उनके मत में तो 'अनधिगत' और 'अपूर्व' पद का प्रयोजन स्पष्ट है । पर जैन परम्परा के अनुसार वह प्रयोजन नहीं है ।
परम्परा के सभी विद्वान एक मत से धारावाहिज्ञान को स्मृति की तरह प्रमाण मानने के ही पक्ष में हैं। अतएव किसी ने अपने प्रमाणलचण में 'अनधिगत' 'अपूर्व आदि जैसे पद को स्थान ही नहीं दिया । इतना ही नहीं, बल्कि उन्होंने स्पष्टरूपेण 2 यह कह दिया कि चाहे ज्ञान गृहीतमाही हो तब भी वह प्रगृहोतग्राही के समान ही प्रमाण है । उनके विचारानुसार गृहीतमाहित्व प्रामाण्य का विधायक नहीं, प्रतएव उनके मत से एक arrates ज्ञानव्यक्ति में विषयभेद की अपेक्षा से प्रामाण्य-अप्रामाण्य मानने की ज़रूरत नहीं और न तो कभी किसी को अप्रमाण मानने की ज़रूरत है I
१ "हीतमग्रहीत वा स्वार्थ यदि व्यवस्यति । तन्न लेोके न शास्त्रेषु विजहाति प्रमाणताम् ॥”तस्वार्थलो०] १. १०. ॐ प्रमान्तरागृहीतार्थ प्रकाशित्वं प्रपञ्चतः । प्रामाण्यं च गृहीतार्थग्राहित्यपि कथंचन ||" वालो० १.१३.६४ । गृहीतग्रहणात् तत्र न स्मृतेश्चेत्प्रमाणता । धारावात्यचविज्ञानस्यैवं लभ्येत फेन सा ||" स्वार्थश्लोकवा० १. १३. १४. "जम्वेवमपि प्रमाणसं लववादितव्याघातः प्रमाणप्रतिपन्नेऽर्थे प्रमाणान्तराप्रतिपत्तिरित्यचेोद्यम् । श्रर्थपरिवितिविशेषसद्भावे तत्प्रवृत्तेरप्यभ्युपगमात् । प्रथमप्रमाने वस्तुन्याकारविशेषं प्रतिपद्यमानं प्रमाणान्तरमपूर्वार्थमेव वृक्षो न्योध इत्यादिवत् । -- प्रमेयक० पृ० १६ /
२ " यद् गृहीताहि ज्ञानं न तत्प्रमाणं यथा स्मृतिः, गृहीतग्राहो व प्रत्यक्षभावी विकल्प इति व्यापकविरुद्धीपलब्धि-सरवसं० प० का० १२६८ |
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४
प्रमाथामीमांसाया:
[पृ०४, पं०१८
श्वेताम्बर आचार्यों में भी प्रा० हेमचन्द्र की खास विशेषता है क्योंकि उन्होंने गृहीत. माही और प्रोष्यमाणमाही दोनों का समत्व दिखाकर सभी धारावाहिज्ञानों में प्रामाण्य का जो समर्थन किया है वह स्वास मार्के का है ।
पृ० ४. पं० १८. 'तत्रापूर्वार्थ-तुलमा-हेतु वि० टी० लि. पृ० ८७.
पृ० ४.५० १८ ग्रहीष्यमाण'-'बम्मधिगत' या 'अपूर्व' पद जो धर्मोत्तर अकलंक, माणिक्यनन्दी प्रादि के लक्षवाक्य में है उसको आ० हेमचन्द्र ने अपने लक्षगन में जब स्थान नहीं दिया तब उनके सामने यह प्रश्न आया कि 'धारावाहिक' और 'स्मृति आदि शान जो अधिगतार्थक या पूर्वार्थक हैं और जिन्हें अप्रमाया समझा जाता है उनको प्रमाण मानते हो या
अप्रमाग ?। यदि अप्रमाण मानते हो तो सम्यगर्थ निर्णयरूप लक्षण अतिव्याप्त हो जाता है। 10 अतएव 'अनधिगत' या 'अपूर्व पद लक्षमा में रखकर 'प्रतिव्याप्ति का निरास क्यों नहीं
करते है। इस प्रश्न का उत्तर इस सूत्र में प्रा. हेमचन्द्र ने उक्त शान का प्रामाण्य स्वीकार करके ही दिया है। इस सूत्र की प्रासादिक और अर्थपूर्ण रचना हेमचन्द्र की प्रतिभा और विचारविशदता की योतिका है। प्रस्तुत अर्थ में इतना संश्चिम, प्रसन्न और सयुक्तिक वाक्य अभी तक अन्यत्र देखा नहीं गया।
पृ. ४. पं० २०. 'द्रव्यापेक्षया-यद्यपि न्यायावतार की टीका में सिद्धर्षि ने भी अनधिगत विशेषमा का वण्डन करते हुए द्रव्यपर्याय रूप से यहाँ जैसे ही विकल्प उठाये हैं तथापि वहाँ पाठ विकल्प होने से एक तरह की जटिलता प्रा गई है । आ० हेमचन्द्र ने अपनी प्रसन्न पार संक्षिप्त शैली में दो विकल्पों के द्वारा ही सब कुछ कह दिया है। सरवोपतत्र 'प्रन्थ के
भवलोकन से और प्रा. हेमचन्द्र के द्वारा किये गये उसके अभ्यास के अनुमान से एक बात 20 कल्पना में प्राती है। वह यह कि प्रस्तुत सूत्रगत युक्ति भार शब्दरचना दोनों के स्कुरा का
निमित्त शायद प्रा. हेमचन्द्र पर पड़ा हुआ तस्वोपप्लव का प्रभाव ही हो।
पृ० ५.५० * 'श्रनुभयात्र-संशय के उपलभ्य लक्षणों को देखने से जान पड़ता है कि कुछ तो कारणमूलक हैं और कुछ स्वरूपमलक । माद, पक्षपाद और किसी बौद्ध-विशेष के
१. "तत्रापि सोऽधिगम्योऽर्थः किं द्रव्यम्, उत पर्याया वा, द्रव्यविशिधपर्यायः, पर्यायविशिष्ट वा द्रव्यमिति, तथा कि सामान्यम्, उत्त विशेषः, प्राहीस्वित् सामान्यविशिष्ट विशेषः, विशेषविशिष्टं वा सामान्यम् इत्यष्टी पक्षाः । भ्याया० सिटी०पू०१३.
२. "अन्ये तु अनधिमतार्थगन्तृत्वेन प्रमाणलक्षणमभिदधति, ते स्पयुक्तवादिनो द्रष्टव्याः । कथमयुक्त. पादिता तेषामिति चेत्, उभ्यते--विभिनकारकोत्पादिलैकार्थविज्ञानानां बथाव्यवस्थितैकार्थग्रहीतिरूपत्वाविशेषेपि पूर्वोत्रविज्ञानस्य प्रामाण्य मोत्तरस्य इत्यत्र नियामकं वक्तव्यम् । अथ यथावस्थितार्थहीतिरूपत्वाविशेषेपि प्रोल्पद्रविज्ञानस्य प्रामाश्यमुपपद्यते न प्रथमोप्सरविज्ञानस्यः तदा अनेनैव न्यायेन प्रथमस्थाप्यमामार प्रसत्तम, गृहीतार्थग्राहित्याविशेषात् । -तस्वी० लि. पू. ३०.
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृ. ५. पं० १७.]
भावाटिप्पयानि
बचाव कारण भूल है। येसूरि की लय भारत और स्वरूप उभयमूलकर है जब कि मा० हेमचन्द्र के इस लखाण में केवल स्वरूप का निदर्शन है, कारण का नहीं।
पृ० ५.५० ६. 'साधकबाधक'-तुलना-"साधकबाधकप्रमाणाभावात् तत्र संशोसि:लघी० स्थवि० १. ४. अष्टश० का० ३, “सेयं साधकबाधकप्रमाणानुपपसी सत्यां समानधर्मोपजब्धिविनश्यदवस्थाविशेषस्मृत्या सहाविनश्यदवस्थयकस्मिन् क्षणे सती संशयज्ञानस्य हेतुरिति । सिद्धम् । तात्पर्य ० १. ५ २३. "न हि साधकबाधकप्रमाणभावमवधूय समानधर्मादिदर्शना. देवासो"-न्यायकु पृ.८.
पृ० ५.५० १३. 'विशेषा'-प्रत्यक्ष-अनुमान उभय विषय में श्रमभ्यवसाय का स्वरूप बतलाते हुए प्रशस्तपाद ने लिखा है कि
अनन्यसायोपि प्रत्यक्षानुमानविषय एव सजायते। सत्र प्रत्यसविषये तावत् 10 प्रसिद्धार्थेष्वप्रसिद्धार्थेषु वा ध्यासनादनार्थत्वावर किमित्यालोपनमात्रमनध्यवसायः। यथा बाहीकस्य पनसादिष्वनभ्यवसायो भवति । तत्र सत्ताद्रव्यत्वपृथिवीत्ववृक्षत्वरूपवरकादिशाखापपेशोऽध्यवसायो भवति । पनसत्वमपि पनसेष्वनुवृत्तमानादिभ्यो झ्यावृत्तं प्रत्यत्तमेव केवलं तूपदेशाभाषाद्विशेषसज्ञाप्रतिपसिन भवति । अनुमानविषयेऽपि नारिकेलद्वीपवासिनः सास्नामात्रदर्शनात् को न खल्वयं प्राणी स्यादित्यनभ्यवसायो भवति ।"-प्रशस्त. पृ. १८२, 16
उसी के विवरण में श्रीधर ने कहा है कि-"सेयं संज्ञाविशेषानवधारहात्मिका प्रतीतिरमध्यवसाय; "कन्दली. पृ० १८३.
प्रा० हेमचन्द्र के लक्षण में वही भाव समिविष्ट है।
पृ० ५.५० १५-'परेषाम्'-तुलना--"प्रत्यक्षं कल्पनापोडं नामजास्थाधसंयुतम्" प्रमाणसमु०१.३. "सत्र प्रत्यक्ष कल्पनापाढं यजहानम रूपादी नामजात्यादिकल्पनारहितं तदसमक्ष 20 प्रति वर्तते इति प्रत्यक्षम्"-न्यायप्र० पृ० ७. "कल्पनापोहमभ्रान्तं प्रत्यक्षमा न्यायवि० १.४.
पृ ५. पं० १७, 'अतस्मिन्-प्रा. हेमचन्द्र का प्रस्तुत लक्षण कणाद के लक्षण की तरह कारणमूलक नहीं है पर योगसूत्र और प्रमामयतत्वालोक के लक्षण की तरह स्वरूपमूलक है।
____25
१. "सामान्यप्रत्यक्षाद्विशेषाप्रत्यक्षाद्विशेषस्मृतेश्च संशयः" " च दृष्टवत्" "यथामादृष्टवा" "विद्याऽविद्यातश्च संशया-वैशेष सू० २. २. १७-२०. "समानाऽनेकधर्मोत्तेविप्रतिपसेरुपलमध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातश्च विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः"-न्यायसू० १. १. २३. "अन्ये तु संशयलक्षणमन्यथा व्याचक्षते-साधर्म्यदर्शनाद्विशेषोपलिप्सोर्थिमशः संशय इति"-स्थायवा०-१.१.२३. "बौद्धाभिमतं संशयलक्षणमुपन्यस्यति । अन्ये स्विति । तारपर्य० १.१.२३.
२. "साधकबाधकप्रमाणाभावादनवस्थितानेककाटिसंस्पशि ज्ञान संशयः ।"-प्रमाणन० १, १२. ३. इन्द्रियदोषात् संस्कारदोषाचाविद्या" वैशे० सू०६. २. १०. ४. “विपर्ययो मिथ्याशानमतद्पप्रतिष्ठा । योगसू०१.८ प्रमाणन०१.१०, ११.
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
TAMINORIHINmst
प्रमाणमीमांसायाः
[ ३०५. पं. १६पृ५. पं० १८. 'तिमिरादिदोषात-तुलना--"सया रहि सिमिराशुभ्रमखनीयानसंक्षोभाधनाहितविभ्रम शान प्रत्यक्षम्"-न्यायवि० १. ६. "तिमिरम् अशा विलकः इन्द्रियगतमिदं विभ्रमकारयम् । श्राशुभ्रमणमलातादेः । मन्दं भ्रम्यमासे अस्मातादी न चाम्तिरुत्पद्यते
वदर्थमाशुभहणेन विशेष्यते भ्रमणम् । एतरुच विषयगतं विभ्रमकारणम् । मावा गमन 5 नौयानम्। गच्छन्त्या नावि स्थितस्य गच्छदृशादिभ्रामितरुत्पद्यते इति यानग्रहणम्, एसप बायाश्रयस्थितं विभ्रमकारणम् । संशोभा वातपित्तश्लेष्मणाम् । वातादिषु हि सोमं गतेषु ज्वलितस्तम्भादिभ्रान्तिसत्पथवे, एतच अध्यात्मगतं विभ्रमकारसम् । न्याययि० टी० १.६.
i
mamm
gpune
M
पृ० ५. पं० २२. 'तत्प्रामाण्यं तुतुलना--"तथाहि विज्ञानस्य तावत्प्रामाण्यं स्वतो वा 10 निश्चीयते परतो वा? । न तावत् पूर्वः कल्यः न खलु विज्ञानभनात्मसंवेदनमात्मानमपि गृहाति
प्रागेव तत्प्रामाण्यम् | नापि विज्ञानान्तरम् । तत् विज्ञानमित्येव गृहीयाम पुनरस्थाव्यभिचारि. त्वम् । सानत्वमात्रं च सदाभासलाधारमामिति न स्वतः प्रामाण्यावधारणम् । एवेन संवेदननयेऽपि अव्यभिचारग्रहणं प्रत्युक्तम् । नापि परसः । परं हि तद्गोचरं वा ज्ञानमभ्यु
पंथेत, अर्थक्रियानिर्भास वा ज्ञानान्तरम्, तद्गोचरनान्तरीयकान्तग्दर्शन वा? | तब सर्व 15 स्वताऽनवधारितप्रामाण्यमाकुलं सत् कथं पर्द' प्रवर्तके शानमनालये । स्वता वारस्य
प्रामाण्ये किमपराद्धं प्रवर्तकशानेन, येन रिमपि तन्त्र स्यात् । नव प्रामाण्यं ज्ञायते स्वत इत्यावेदितम् । 'तापर्य १. १. १.
पृ. १. पं० १. 'प्रामाण्य'-...दर्शनशास्त्रों में प्रामाण्य और अप्रामाण्य के 'स्वतः 'परत:' की चर्चा बहुत प्रसिद्ध है। ऐतिहासिक दृष्टि से जान पड़ता है कि इस चर्चा का ५) मूल वेदों के प्रामाण्य मामने न माननेवाले दो पक्षों में है। जब जैन, बौद्ध आदि विद्वानों
ने वेद के प्रामाण्य का विरोध किया सब वेदप्रामाण्यवादी भ्याय-वैशेषिक-मीमांसक विद्वानों ने वेर्दा के प्रामाण्य का समर्थन करना शुरू किया। प्रारम्भ में यह चर्चा 'शब्द'प्रमाग्ध तक ही परिमित रही जान पड़ती है पर एक बार उसके तार्किक प्रदेश में प्राने पर फिर वह
व्यापक बन गई और सर्व ज्ञान के विषय में प्रामाण्य किंवा अप्रामाण्य के 'स्वत:' 'परत:' ॐ का विचार शुरू हो गया।
इस चर्चा में पहिले मुख्यतया दो पक्ष पड़ गये। एक तो वेद-अप्रामाण्यवादी जैनबौद्ध और दूसरा वेदप्रामाण्यवादी नैयायिक, मीमांसक प्रादि। वेद-प्रामाण्यवादियों में भी उसका समर्थन भिन्न-भिन्न रीति से शुरू हुआ। ईश्वरवादी न्याय वैशोषिक दर्शन ने वेद का प्रामाण्य ईश्वरमूलक स्थापित किया। जब उसमें वेदप्रामाण्य परत: स्थापित किया
enimARHAIRMALADMAAmanyIMAJHASAWAIIAHuniyliyu... IIIIII IIIIIIIIIIII II II III
१. "ौतिकस्त शझदस्यान मम्बन्धस्तस्य ज्ञानमुपदेशोऽव्यतिरेकश्चाये ऽनुपलधै तत् प्रमाण बादरायणास्थानपेक्षयात्" जैमि० सू० १.१.५. "तत्मात तत् प्रमाणम अनपेक्षत्वात् । नख सति प्रत्ययान्तरमपेक्षितव्यम्, पुरुपान्तरं धाषि; स्वयं प्रत्ययो ह्यसौ ।"-शाबरभा० १.१. ५. वृहती०१.१.५. "सविज्ञानविषयमिदं नारप्रतीयताम् । प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे स्वतः कि परसोऽयचा ||"-श्लोकवा चोद० श्लो०३३.
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
8080sement
०६.५० १.]
भाषाटिप्पणानि ।
15
.
Prast
..........npreneumodamak...
गया सब बाकी के प्रत्यक्ष प्रादि सब प्रमाणों का प्रामाण्य भी 'फ' हो सिद्ध किया गया
और समान युति से उसमें अप्रामाण्य को भी 'परतः' ही निश्चित किया। इस तरह मायामास दोगों का ही नामशेषिक सम्मत हुए।
मीमांसक ईश्वरवादी न होने से वह तन्मूलक प्रामाण्य तो वेद में कह ही नहीं सकता था। असएब उसने वेदप्रामाण्य स्वत: मान लिया और उसके समर्थन के वास्ते प्रत्यक्ष प्रादि सभी शानों , का प्रामाण्य स्वत: ही स्थापित किया । पर उसने अप्रामाण्य को तो 'परत:' ही माना है।
यद्यपि इस चर्चा में सांख्यदर्शन का क्या मन्तव्य है इसका कोई उल्लेख उसके उपलब्ध प्रचों में नहीं मिलता फिर भी कुमारिल, शान्तरक्षित और माधवाचार्य के कथनों से जान पक्षता है कि सख्यिदर्शन प्रामाण्य-अप्रामाण्य दोनों को 'स्वस. हो मानने वाला रहा है। शायद उसका सद्विषयक प्राचीन साहित्य मष्टप्राय हुमा हो। उझ पाचार्यों के प्रन्थों में 10 हो एक ऐसे पक्ष का भी निर्देश है जो ठोक मीमांसक से प्रलदर है अर्थात् वह अप्रामाण्य को स्वतः ही और प्रामाण्य को 'परत:' ही मानता है। सर्वदर्शन संग्रह में-सौगताश्चरम स्वत: (सर्वद० पृ० ३७६ ) इस पक्ष को बौद्धपक्ष रूप से वर्णित किया है सही, पर सवसंप्रइ में जो बौद्ध पक्ष है वह बिलकुल जुदा है। संभव है सर्वदर्शनसंग्रहनिर्दिष्ट बौद्धपक्ष किसी अन्य बौविशोष का रहा हो।
शान्तरसिल ने अपने बौद्ध मन्तव्य को स्पष्ट करते हुए कहा है कि-----प्रामाण्य अप्रामाण्य अभय 'स्वत:', २-भय 'परता', ३-दोनों में से प्रामाण्य स्वमा और अप्रामाण्य परसः, तथा
-प्रप्रामाण्य स्वतः, प्रामाण्य परस:-इन पार पक्षों में से कोई भी बौद्धयत नहीं है क्योकि वे चारो पक्ष नियमवाले हैं। बीलुपस प्रनियमवादी है मर्धात् प्रामाण्य हो या अप्रामाण्य दोनों में कोई स्वत:' तो कोई 'परतः अनियम से है। अभ्यासदशा में तो स्वत:' समझना 20 चाहिए चाहे प्रामाण्य हो या प्रप्रामाण्य । पर अनभ्यासदशा में 'परत:' समझना चाहिए ।
१ "प्रमागतोऽर्थप्रतिपनी प्रवृत्तिमामादर्थवत् प्रमाणम्'-ज्यायभा० पृ० । तात्पर्य० १.१.१। कि विज्ञानानां प्रामाण्यमप्रामाण्यं चेति द्वयमार स्वतः उत उभषमरि परत: श्राहोस्त्रिदप्रामाण्यं स्वतः मामाण्य तु परत: उतस्वित् प्रामाण्यं स्वत: अप्रामारावं तु परत इति । तत्र परत पत्र वेदस्य प्रामारयमिति वक्ष्याम: 1...स्थितमेतदर्थक्रियाशानात् प्रामाण्यनिश्चय इति । तदिदमुक्तम् । प्रमाणतोऽप्रतिपत्ती प्रवृत्तिसामध्यांदर्यवत् प्रमाणमिति । तस्मादप्रामाण्यममि परोक्षामित्यता इयमपि परत इत्येष एव पक्षः श्रेयान् । न्यायप्र० पृ० १६०-१७४ 1 कन्दली पृ०२१७-२२०! मायाः परतन्त्रत्वात् सर्मप्रलयमम्भवात् । तदन्यस्मिन्ननाश्चासान विधान्तरसम्भव: .."-स्यायकु० २.१॥ तस्वचि प्रत्यक्ष पृ० १८३-२३३ ।
१ "स्वत: सर्वप्रमाणानां प्रामायणमिति गम्यताम् । न हि स्वतोऽसती शक्तिः कतु मन्येन शक्यते ॥"-लोकया. सू०२. श्लो०५७।
३ श्लोकवा० सू० ३. मो० ८५ ।
"निदाहु स्वत: ।" लोकवा० सू० २."श्लो० ३४३ तस्वसं० १० का० २०११. "प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे स्वत: सांकमा समाश्रिता::"-सर्वद० जैमि०पू०२७६ ।
५ "नादि बौद्ध रपां चतुर्णामेकतमेाऽपि पक्षोऽभीष्टोऽनियमपक्षस्थेष्टस्वात्। तथाहि उमयमध्येतत् किशित स्वत: किंचित् परत: इति पूर्वभुपवर्णितम् । अत एव पक्षचतुष्टयोपन्यासऽप्ययुक्तः। श्चमस्याप्य - नियमपक्षस्य संभवात् । तस्वसं० प० का० ३१२३।
...
....
.........
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमाणमीमांसाया:
[१०६.५० १४
RIMARoma
जैन परम्परा ठीक शान्तरक्षिसकथित बौद्धपक्ष के समान ही है। वह प्रामाण्यअप्रामाण्य दोनों को अभ्यासदशा में 'स्वतः' और अमभ्यासदशा में 'परसः' मानती है। यह मन्तव्य प्रमागान यतस्वालोक के सूत्र में भी स्पष्टतया निर्दिष्ट है। यद्यपि प्रा. हेमचन्द्र ने प्रस्तुत सूत्र में प्रामाण्य-प्रप्रामाण्य दोनों का निर्देश न करके परीक्षामुख की तरह केवल प्रामाण्य के स्वत;-परतः का ही निर्देश किया है तथापि देवसूरि का सूत्र पूर्णतया जैन परम्परा का द्योतक है। जैसे---"तत्प्रामाण्यं स्वतः परसश्चेति ।" परी० १. १३. ! "तदुभयमुत्पत्ती परत एष सप्तौ तु स्वत: परतश्योसि-प्रमाणन० १.२१॥
इस स्वत:-परत: की चर्चा कमशः यहाँ तक विकसित हुई है कि इसमें उत्पत्ति, शनि और प्रवृत्ति दोनों को लेकर स्वतः परत: का विचार बड़े विस्तार से सभी दर्शनों में प्रा 100 गया है और यह विचार प्रत्येक दर्शन की अनिवार्य चर्चा का विषय बन गया है। और इस पर परिष्कारपूर्ण तस्वचिन्तामणि, गादापरप्रामाण्यवाद प्रादि जैसे जटिल अन्ध बन गये हैं।
पृ० ६. पं० १४. 'अष्टार्थे तु'...अागम के प्रामाण्य का जब प्रश्न अासा है सब उस का समर्थन खास खास प्रकार से किया जाता है । प्रागम का जो भाग परोक्षार्थक नहीं है
उसके प्रामाण्य का समर्श ने संवाद सादिया मुकर है पर असका जो भाग परोसार्थक, 15 विशेष परोक्षार्थक है जिसमें चर्मनेत्रों को पहुँच नहीं, उसके प्रामाण्य का समर्थन कैसे
किया जाय ?। यदि समर्थन न हो सके सब तो मारे मागम का प्रामाण्य डूबने लगता है। इस प्रश्न का असर सभी सांप्रदायिक विद्वानों ने दिया और अपने-अपने भागों का प्रामाण्य स्थापित किया है। मीमांसक ने वेदों का ही प्रामाण्य स्थापित किया है पर वह
'अपौरुषेयत्वा युक्ति से, जब कि उन्हीं वेदों का प्रामाण्य भ्याय-वैशेषिक ने अन्य प्रकार से 20 स्थापित किया है।
मक्षपाद वेदों का प्रामाण्य प्राप्तप्रामाण्य से वसलाते हैं और उसके दृष्टान्त में वे कहते हैं कि जैसे वेद के एक अंश मन्त्र-आयुर्वेद मादि यथार्थ होने से प्रभाव है वैसे ही बाको के अम्य अंश भी समान प्राप्तप्रसीत होने से प्रमाण हैं-"मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्याच तत्प्रामाण्य
प्राप्तप्रामाण्यास । यायमू० २. १. ६६ । 28 प्रा. हेमचन्द्र ने प्रागमनामाण्य के समर्थन में अक्षपाद की ही युक्ति का अनुगमन किया है पर उन्होंने मन्त्र-आयुर्वेद को दृष्टान्त न बनाकर विविधकार्यसाधक ज्योतिष-गणित शास्त्र को ही दृष्टान्त रखा है। जैन प्राचार्यों का मन्त्र-मायुर्वेद की अपेक्षा ज्योतिष शास की ओर विशेष मुकाव इतिहास में जो देखा जाता है उसके प्रा. हेमचन्द्र अपवाद नहीं है ।
___ यह मुकाव प्राचीन समय में भी कैसा था इसका एक नमूना हमें धर्मकीर्ति के 30 अन्ध में भी प्राप्य है। धर्मकीति के पूर्वकालीन या समकालीन जैन आचार्य अपने पूज्य
तीर्थकरों में सर्वस्व का समर्थन ज्योतिषशास्त्र के उपदेशकत्वहेतु से करते थे इस मतलब का जैनपच धर्मकीति ने जैन परम्परा में से लेकर खण्डित या दूषित क्रिया है-"प्रत्र
TAMAREE
१ प्रभेयक पु. ३८ B-४४ B.
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०७. पं०७.]
भाषाटिप्पखानि ।
वैधयोदाहरणम्-यः सर्व प्रास्तो पनि मादिकामुपधान तद्यथा ऋषभवल. मानादिरिवि ।” न्यायधि. ३. १३१ । इसका ऐतिहासिक अंश अनेक दृष्टि से जैन परम्परा और भारतीय दर्शनों की परम्परा पर प्रकाश डालनेवाला है।
पृ०६.५० १६. 'प्रोपलब्धिहेतु: प्रा० हेमचन्द्र ने प्रमाखसामान्य के लक्षण का विचार समाप्त करते हुए दर्शनप्रसिद्ध बण्डनप्रणाली के अनुसार केवल न्याय-बौद्ध परम्परा के, सीन हो लक्षणधास्यों का निरास किया है। पहिले और दूसरे में न्यायमरी और पायसार के मन्तव्य की समीक्षा है। तीसरे में धर्मकीर्मि के मत की समीया है जिसमें शाम्सरहिस के विचार की समीक्षा भी प्रा आती है। सुलना--"आपलब्धिहेतुश्च प्रमासम् ।"भायभा० २. १. १२ । चरकस पृ० २६६ ।
पृ. ६.५० १८ 'अथ क कर्मादि'तुलना--"अपर पुनरावक्षसे-साममो नाम समुदि. 10 तानि कारकायि तेषां वरूप्यमहदयङ्गमम्, प्रच च हानि पृथगवस्थितानि कर्मादिभावं मजन्ते । प्रय च तान्येव समुदिहानि करखोभवन्तोति कोऽयं नयः । तस्मात् का कर्मव्यतिरिक्तमयभि. चारादिविशेषणकार्थप्रमाजनक कारकं करामुच्यते। सदेव च तृतीयया श्यपदिशन्ति ।...... तस्मात् कर्तृकर्मविवक्षया संशविपर्ययरहितार्थबोधविधायिनी बोषायोधस्वमात्रा सामग्री प्रमाणमिति युक्तम् ।" न्यायम • पृ० १४-१५ ।।
पृ० ६. पं० २७ 'सांपचारिक'-तुलना-"मास्यवहारिकस्येदं प्रमाणस्य लक्षवम् , 'प्रमाणमषिसंवादि शानम्' इति ।" तत्वसं ० ५० का २६८१, २८२ ।
पृ० १. पं० २८ 'उत्तरकालभाविनो-तुलना-"ननु च यद्यविकल्पक प्रत्यक्षं कथं वेन व्यवहारः, तथाहि इदं सुखसाधनं इर्द दुःखस्येति यदि निश्चिनाति तदा तयोः प्राप्तिपरिहाराय प्रवर्तसे--
"अविकल्पमपि झानं विकल्पोत्पत्तिशक्तिमत् ।
निःशेषव्यवहाराङ्ग तद्द्वारेण भवत्यतः ॥ सद्वारेणेति । विकल्पद्वारेखाविकल्पकमपि निश्चय हेतुलेन सकलव्यबहाराज भवति । तथाहि प्रत्यक्ष कल्पनापोतमपि सजातीयविजातीयव्यावृतमननादिकमर्थ सदाकारनिर्भासोत्यसितः परिस्छिन्ददुत्पद्यते। सच नियतरूपव्यवस्थितवस्तुप्राहित्याद्विजातीयव्यावस्थाका- 23 रानुगतत्वाय नव वस्तुनि विधिप्रतिषेधावाविर्भावयति-अनलोऽयं नासौ कुसुमस्सवकादिरिति । क्षयोप विकल्पयोः पारम्पर्येव वस्तुनि प्रतिबन्धाद[वि]संवादियेऽपि न प्रामाण्यमिष्टम् । हरयविकल्प्ययोरेकस्वाभ्यवसायेन प्रवृत्तेरनधिगतवस्तुरूपाधिगमाभावात्। तस्वस ०५० का० १३०६॥
म. १. प्रा० १. सू० -१० पृ० ७. जैन परंपरा में ज्ञान चर्चा दो प्रकार से है-पहनी प्रागमिकविमागाश्रित और दूसरी तार्किकविभागाश्रित | जिसमें मति, श्रुत मादि रूप से 30 विभाग करके चर्चा है वह प्रागमिविभागाश्रित और जिसमें प्रत्यक्ष पादिरूप से प्रमाखों का
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमाणमीमांसायाः
[ ७. ०७
farm रके चर्चा है वह तार्किकविभागाश्रित। पहली वर्षा का अमिश्रित उदाहरण है आवश्यक नियुक्ति और दूसरी चर्चा का श्रमिश्रित उदाहरण है न्यायाववार ।
जैन परंपरा में प्राचीन और मौलिक चर्चा तो आगमिक विभागाश्रित ही है। सार्किकfaभागात चर्चा जैन परंपरा में कब और किसने सर्वप्रथम दाखिल की, इसे निश्चितरूप से कहना अभी संभव नहीं । स्थानान और भगवती ये दोनों गंगाधरकृत समझे जानेवाले ग्यारह में से हैं और प्राचीन भी अवश्य हैं। उनमें यद्यपि तार्किक विभाग का निर्देश स्पष्ट है तथापि यह मानने में कोई विरोध नहीं दीखता कि स्थानांङ्ग भगवती में वह तार्किक विभाग निर्युतिकार साहु के बाद ही कभी दाखिल हुआ है क्योंकि आवश्यक नियुकि जो भद्रबाहुकृत मानी जाती है और जिसका आरम्भ ही ज्ञानचर्चा से होता है उसमें प्रागमिक विभाग 10 है पर तार्किक विभाग का सूचन तक नहीं है। जान पड़ता है नियुक्ति के समय तक जैन आचार्य यद्यपि ज्ञानचर्चा करते तो थे श्रागमिक विभाग के द्वारा ही, फिर भी वे दर्शनान्तरप्रतिष्ठित प्रमाणचर्चा से बिल्कुल अनभिज्ञ न थे। इतना हो नहीं बल्कि प्रसङ देखकर वे दर्शनान्तरीय प्रभावशैली का उपयोग एवं उसमें संशोधन भी कर लेते थे । अतएव उसी भद्रबाहु की कृति मानी जानेवाली दशवैकालिक नियुक्ति में हम परार्थानुमान की चर्चा पाते हैं 15 जी अवयवांश में ( गा० ५० ) दर्शनान्तर की परार्थानुमानशैली से अनोखी है।
जान पड़ता है सबसे पहिले प्रार्थरक्षित ने, जो जन्म से ब्राह्मण थे और वैदिक शास्त्रों का अभ्यास करने के बाद ही जैन साधु हुए थे, अपने ग्रन्थ अनुयोगद्वार ( पृ० २११ ) में प्रत्यक्ष, अनुमानादि चार प्रमाणों का विभाग जो गौतमदर्शन ( न्यायसू० १.१.३ ) में प्रसिद्ध है, उसको दाखिल किया । उमास्वाति ने अपने स्वार्थ सूत्र ( २.१०-१२ ) में प्रत्यक्ष-परोक्ष 20 रूप से जिस प्रमाणद्वयविभाग का निर्देश किया है वह खुद उमास्वातिकक है या किसी अन्य आचार्य के द्वारा निर्मित हुआ है इस विषय में कुछ भी निश्चित कहा नहीं जा सकता । जान पड़ता है आगम को संकलना के समय प्रमाणचतुष्टय और प्रमाषद्वयवाले दोनों विभाग स्थानाङ्ग तथा भगवती में दाखिल हो गये। आगम में दोनों विभागों के संनिविष्ट हो जाने पर भी जैन आचार्यों की मुख्य विचारदिशा प्रसाद्वयविभाग की ओर 25 ही रही है। इसका कारण स्पष्ट है और वह यह कि प्रमाणचतुष्टयविभाग असल में न्याय
दर्शन का ही है, ear उमास्वाति ने उसे 'नयवादान्तरे' ( तत्वार्थमा १.६ ) कहा है जब कि प्रमाणविभाग जैनाचार्यों का स्वोपज्ञ है। इसी से सभी जैन तर्कप्रन्थों में उसी विभाग को लेकर प्रमाण चर्चा व ज्ञान चर्चा की गई है। प्रा० देमचन्द्र ने भी इसी सबब से उसी प्रभाविभाग को अपनाया है ।
२०
00
हेऊ
१ "दुविहे नाणे पत्ते तंजदा पथक्खे चेत्र परोकखे चैव ।" स्था० २. पृ० ४६ A. "श्रा हे पं० ० पचक्खे, अणुमाणे, ग्रोवम्मे, आगमे ।" स्था० ४. पृ० २३४ A. “से कि व पमाणे १ । पमाणे च उत्रिहे परते, तं जहा - पच्चखे ....... जहा गदारे तहा यव्व' | 2
भग० शु० ५. ३० ३. भाग २. पृ० २११ /
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
णा ..
Belope0
भाषाटिप्पणानि ।
५० ७.५० .]
Narstinatin...
Rashtanisimilaisividiositio
n
S
iraiminatinatier -100..........
न्याय वैशेषिक आदि सर्वप्रधान वैदिक दर्शनों के प्रभाव के कारण बौद्ध भिक्षु तो पहिले ही से अपनी पिटकोचित मूल मर्यादा के बाहर बादभूमि और तदुषित तर्क-प्रमाणवाद की ओर झुक ही गये थे। क्रमश: जैन भिक्षु भी वैदिक और बौद्धदर्शन के सर्कवाद के असर से भरी न रह सके अतएव जैन प्राचार्यो में जैन परम्परा में शानविमा की भूमिका के अपर प्रमाणविभाग की स्थापना की और प्रतिवादी विद्वानों के साथ उसी प्रमाणविभाग को लेकर गोष्टी या चर्चा करने लगे। आर्यरहित ने प्रत्यक्ष-अनुमान प्रादिरूप से चतुर्विध प्रमाणविभाग दर्शाते समय प्रत्यक्ष के वर्णन में ( अनुयो० ४० २११ } इन्द्रियप्रत्यक्षरूप मतिज्ञान का और आगमप्रमाण के वर्णन में श्रुतज्ञान का स्पष्ट समावेश सूचित कर ही दिया था फिर भी प्रागमिक-तार्किक जैन आचार्यों के सामने बराबर एक प्रश्न प्राया ही करता था कि अनुमान, नपमान, अर्थापत्ति प्रादि दर्शनान्तरप्रसिद्ध प्रमाणों को जैनझामप्रक्रिया मानती है 10 या नहीं। अगर मानवी है तो धनका स्वतन्त्र निरूपण या समावेश उसमें स्पष्ट क्यों नहीं पाया जाता है। इसका जवाब जहाँ तक मालूम है सबसे पहिले मास्वाति ने दिया है (तस्वार्थमा० १.१२ ) कि वे अनुमानादि दर्शनाम्तरीय सभी प्रमाण मति, अस जिन्हें हम परोक्ष प्रमाण कहते हैं उसी में अन्तर्भूत हैं। उमास्वाति के इसी अवाम का अक्षरश: अनुसरण पूज्यपाद ने ( सर्वार्थसि० १.१२ ) किया है। पर उसमें कोई नया विचार या विशेष स्पष्टता 10 नहीं की।
चतुर्विध प्रमाण विभाग की अपेक्षा विविध प्रमाविभाग जैन प्रक्रिया में विशेष प्रतिष्ठा पा चुका था और यह हुमा भी योग्य । अलपत्र नन्दीसूत्र में उसी द्विविध प्रमाणविभाग को लेकर ज्ञानचर्चा विशेष विस्तार से हुई। नन्दोकार में अपनी शानचर्चा की भूमिका तो रची विविध प्रमाणविभाग पर फिर भी उन्होंने आरक्षित के चतुर्विध प्रमागा- 20 विभागाश्रित वर्णन में से मुख्यतया वो तस्व लेकर अपनी चर्चा की। इनमें से पहिला तत्व से यह है कि लोक जिस इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष समझते व कहते हैं और जिसे जैनेतर सभी तार्किको ने प्रत्यक्ष प्रमाण हो माना है, उसको जैन प्रक्रिया में भी प्रत्यक्ष प्रमाण कहकर प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद कर दिये । मन्दीसू ३) जिससे एक में उमास्वातिकथित अवधि आदि मुख्य प्रमाण रहे और दूसरे में इन्द्रियजन्य झान भी प्रत्यक्षरूप से रहे। 25 दूसरा तश्व यह है कि जिसे दर्शनान्तर आगम प्रमाण कहते हैं वह वस्तुतः श्रुतज्ञान ही है और परोक्ष प्रभाव में समाविष्ट है।
यपि प्रागमिक शानचर्चा चलती रही फिर भी जैन विचारप्रक्रिया में तार्किकता बल पकड़ने लगी। इसी का फल न्यायावतार है। उसमें द्विविध प्रमाणविभाग लेकर तार्किक शैली से ज्ञान का निरूपण है । उसका मुख्य उद्देश्य जैन प्रक्रियानुसारी अनुमान-न्याय 80 को बतलाना....यह है। हम देखते हैं कि न्यायावतार में परोक्षप्रमाण के भेद के वर्णन ने ही मुख्य जगई रोकी है फिर भी इसमें यह नहीं कहा है कि जैन प्रक्रिया परोक्षप्रमाण के अमुक और इतने ही मानती है जैसा कि आगे आ कर अन्य प्राचार्यों ने कहा है।
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२
[ पृ० ७.
प्रमाणमीमांसायाः
जिनभद्र क्षमाश्रमण ने अपने प्रति विस्तृत भाष्य में द्विविध प्रमाण विभाग में आगमिक पक्ष ज्ञानविभाग का तर्कपुरःसर समावेश बतलाया और आर्यरक्षितस्थापित तथा नन्दीकार द्वारा स्त्रीकृत इन्द्रियजन्य- नोइन्द्रियजन्य रूप से द्विविध प्रत्यक्ष के वर्णन में आनेवाले उस fara saafरक और पारमार्थिक प्रत्यक्ष ऐसा नाम देकर सबसे पहले परिहार किया- "मोभयं जं तं संववहारपश्चकखं |”--विशेषा० भा० गा० ५- जिसे प्रतिवादी पार्किंग जैन सार्किनी को भावले भिया घरते थे। विरोध इस तरह बतलाया जाता था कि जब जैनदर्शन अस-आत्माश्रित ज्ञान को ही प्रत्यक्ष कहता है तब उसकी प्रक्रिया में इन्द्रिय ज्ञान का प्रत्यक्षरूप से स्थान पाना विरुद्ध है । क्षमाश्रममाजी ने यह सब कुछ किया फिर भी उन्होंने कहीं यह नहीं बतलाया कि जैन प्रक्रिया परोक्ष प्रभाग के इतने भेद 10 मानती है और वे अमुक हैं ।
इस तरह अभी तक जैन परंपरा में श्रागमिक ज्ञान चर्चा के साथ ही साथ, पर कुछ प्रधानता से प्रमाणचर्चा हो रही थी, फिर भी जैन तार्किकों के सामने दूसरे प्रतिवादियों की ओर से यह प्रश्न बारवार आता ही था कि जैन प्रक्रिया अगर अनुमान, आगम आदि दर्शनान्तर प्रसिद्ध प्रमाणों को परोक्ष प्रमागारूप से स्वीकार करती है तो उसे यह स्पष्ट करना 15 आवश्यक है कि वह परोक्ष प्रमाण के कितने भेद मानती है, और हरएक भेद का सुनिश्चित
पं०
लक्षण क्या है ? |
जहाँ तक देखा है उसके आधार से निःसंदेह कहा जा सकता है कि उक्त प्रश्न का Rare सबसे पहिले भट्टारक अफलङ्क ने दिया है। और वह बहुत ही स्पष्ट तथा सुनिश्चित है। अकलङ्क ने अपनी लघोयलयो में बतलाया कि परोक्ष प्रमाण अनुमान, प्रत्यभिज्ञान, 30 मर, तर्क और आगम ऐसे पाँच भेद हैं। उन्होंने इन भेदों का अक्षय भी स्पष्ट बाँध दिया । हम देखते हैं कि मकलङ्क के इस स्पष्टोकरण ने जैन प्रक्रिया में आगमिक और तार्किक ज्ञान चर्चा में बारबार खड़ो होनेवाली सब समस्याओं को सुलझा दिया । इसका फल यह हुआ कि अङ्क के उत्तरवर्ती दिगम्बर श्वेताम्बर सभी तार्किक वसी अकलङ्कदर्शित रास्ते पर ही चलने लगे। और उन्हीं के शब्दों की एक या दूसरे रूप से लेकर यत्र तत्र विकसित कर 25 अपने अपने छोटे और बृहत्काय ग्रन्थों को लिखने लग गये। जैन तार्किकमूर्धन्य यशो fare ने भी उसी मार्ग का अवलम्बन किया है । यहाँ एक बात जान लेनी चाहिए कि जिन अकलक ने परोक्ष प्रमाण के भेद और उनके लक्षणों के द्वारा दर्शनान्तरप्रसिद्ध अनुमान, श्रर्थापति, उपमान आदि सब प्रमाणों का जैन प्रक्रियानुसारी निरूपण किया है वेही प्रकलङ्क राजवार्त्तिककार भी हैं, पर उन्होंने अपने वार्शिक में दर्शनान्तरप्रसिद्ध उन प्रमायों का 30 समावेश यत्रयी के अनुसार नहीं पर तस्वार्थसाध्य और सर्वार्थसिद्धि के अनुसार किया है ऐसा कहना होगा। फिर भी क भाष्य और सिद्धि की अपेक्षा अकलङ्क ने अपना
१ "ज्ञानमा मतिज्ञा चिन्ता चाभिनिवेशनम् । प्रानामयोजनाच्छे भुतं शब्दानुयोजनात् । aat० ३ १. स्वषि० ३. १ । २ “सूरा -अकलङ्कन वार्त्तिककारेण" सिद्धि चि० टी० पृ० २५४. B.
!
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाषाटिप्पणानि ।
२३
प्रकार कुछ दूसरा ही बतलाया है ( राजा००५४)। अकलङ्क ने परोक्ष प्रमाण के पांच भेद करते समय यह भ्यान अवश्य रक्खा है कि जिससे उमास्वाति आदि पूर्वाचार्यों का समन्वय विरुद्ध न हो जाय और आगम तथा नियुक्ति आदि में मतिज्ञान के पर्यायरूप से प्रसिद्ध स्मृति, सञ्ज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध इन शब्दों की सार्थकता भी सिद्ध हो जाय । ast कारण है कि अकलङ्क का यह परोक्ष प्रभाग के पंच प्रकार तथा उनके लक्षण कथन का प्रयत्न अवापि सकल जैन सार्किकमान्य रहा । आ० हेमचन्द्र भी अपनी मीमांसा में पराच के हो भेदों को मानकर निरूपणा करते हैं।
3
.]
०७. पं० १७.
"
पृ० ७. पं० १० वैशेषिका : '- प्रशस्तपाद ने शाब्द- उपमान आदि प्रमाणों को अनुमान में ही समाविष्ट किया है। अतएव उत्तरकालीन तार्किको? मे वैशेference से प्रत्यक्षअनुमान दो ही प्रमाणों का निर्देश किया है । स्वयं कणाद का भी "एतेन शाब्द व्याख्यातम्- 10 वैशे० सू० १, २. ३- इस सूत्र से बढ़ी अभिप्राय है जो प्रशस्तशद, शङ्कर मिश्र आदि ने निकाला | विद्यानन्द प्रादि जैनाचार्यों ने भी वैशेषिकसम्मत प्रमाणद्वित्व का ही निर्देश ( प्रमाणप पृ० ६६ ) किया है तब प्रश्न होता है कि प्रा० हेमचन्द्र वैशेषिकमत से प्रभात्रय का कथन क्यों करते हैं ? । इसका कल नहीं है कि वैशेषिकसम्मत प्रमात्रित्व की परम्परा भी रही है जिसे भा: हेमचन्द्र ने लिया और प्रमाखद्वित्ववाली परम्परा का निर्देश 15 नहीं किया। सिद्धर्षिकृत न्यायावतारवृति में ( 3०६) हम उस प्रमाणत्रित्ववालो वैशेषिक परम्परा का निर्देश पाते हैं। वादिदेव ने तो अपने रत्नाकर ( पृ० ३१३, १०४१ ) में वैशेषिकसम्भवरूप से द्वित्व और त्रित्व दोनों प्रमायसंख्या का निर्देश किया है।
पृ० ७. पं० ११ 'साङख्या :- तुलना सांख्यका० ४ | पं० ११' नैयायिका: ' तुलना-न्यायसू० १.१.३ ३
4
पृ० ७. पृ० ७. प्रकरणप० पृ० ४४.
पं० १२
20
प्राभाकराः ' तुलना - "तत्र पञ्चविधं मानम्... इति गुरोर्मतम् -
पृ० ७. पं० १२ ' भाडा - पुलना-"अत: पहेंव प्रमाणानि - शास्त्री० पृ० २४६ ॥
पृ० ७. पं० १७ ' अश्नुते 'प्रत्यक्ष शब्द की व्युत्पत्ति में 'अ' पद का 'इन्द्रिय' अर्थ मानने की परम्परा सभी वैदिक दर्शनों तथा बौद्ध दर्शन में एक सी है। उनमें से किसी दर्शन 25 में 'ऋ' शब्द का श्रात्मा अर्थ मानकर व्युत्पत्ति नहीं की गई है । दर्शने' के अनुसार इन्द्रियाश्रित ज्ञान ही प्रत्यक्षरूप से फलित होता है। और तदनुसार उनको इन्द्रियाश्रित प्रत्यक्ष माने जानेवाले ईश्वरीय ज्ञान आदि के विषय में प्रत्यक्ष का प्रयोग उपचरित ही मानना पड़ता I
अतएव वैदिक-ata
१ "शब्दोपमानयनिक पृथक प्रामाण्यसिध्यते । "मुक्तावली का० १४० ।
voww
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमाणमीमांसाया: [१०५.९० १८जैन परम्परा में 'अ' शब्द का 'आत्मा' मर्थ मानकर व्युत्पत्ति की गई है। सदनुसार उसमें इन्द्रियनिरपेक्ष केवल प्रास्माश्रित माने आनेवाले शानों को ही प्रत्यक्ष पद सा मुख्य अर्थ माना है और इन्द्रियाश्रित शान को वस्तुतः परोक्ष ही मामा है। उसमें प्रमपद का इन्द्रिय अर्थ लेकर भी व्युत्पत्ति का आश्रयमा किया है पर वह अन्यदर्शनप्रसिद्ध । परम्परा तथा लोकव्यवसात के संग्रह की प्रति से। म र पाशा के अनुसार इन्द्रियाश्रित ज्ञान में प्रत्यक्ष पद का प्रयोग मुख्य महों पर गाय है।
इन्द्रिय सापेक्ष ज्ञान को मुख्य प्रत्यक्ष माननेवाले हो या भात्ममात्र सापेन को पर के सभी प्रत्यक्ष को साक्षात्कारात्मक ही मानते व कहते हैं।
पृ० ७.५० १८. 'असं प्रतिगतम-तुलमा-"अनस्यारतस्य प्रतिविषयं वृति: प्रत्यक्षम्"10 न्यायमा ० १.१ । “प्रत्यक्षमिति । प्रतिगसमाश्रितमक्षम् । पायबि० टी० १.३॥
पृ०७. पं० २१. 'पकारः-तुलना-"चकारः प्रत्यक्षानुमानयोस्तुल्यबस्तत्वं समुश्चिनाति" न्यायवि० टी० १. ३. न्याया० सिटी Y०१६ ।।
पृ० ७. पं० २३. 'ज्येष्ठतेति'-प्रमाणों में ज्येष्ठरम-अज्येष्ठत्व के विषय में तीन परम्पराएं हैं। न्याय और सांस्य परम्परा में प्रत्यक्ष का ज्येष्ठत्व और अनुमानादि का उसकी अपेक्षा 15 अज्येष्ठत्व स्थापित किया है। पूर्व उत्सरमीमांसार में अपौरुषेय मागमवाद होने से प्रत्यक्ष
की अपेक्षा मी प्रागम का ज्येष्ठरव स्वाकार किया गया है। बौद्ध परम्परा में प्रत्यश-अनुमान दोनों का समबलत्व बसलाया है।
जैन परम्परा में दो पक्ष देखे जासे है। प्रकलङ्क और तदनुगामी विधानन्द ने प्रत्यक्ष का ही ज्येष्ठत्व न्यायपरम्परा की तरह माना और स्थापित किया है, अब कि सभी
.-..........
......-
--
-
-
..raman
१ "अक्षणोति ध्यानाति जानतीत्यक्ष आरमा, तमेव प्राप्तक्षयोपशम प्रक्षीणावमा वा प्रतिनियत वा प्रत्यक्षम । -सर्वाथ.१.१२१ जीको श्ररनो अस्थवावराभोवणगुणरियो जेणु । संपई वढूंद नाण' जं पच्चक्रवं तथं लिविहं ।"-विशेषा० भा० मा०८६ "तथा भगवान् भद्रबाहुः जीश्रो श्रक्यो त पई जं बट्टई तं तु होइ पचक्रवं । परसो पुग्ण अक्खस्स बट्टन्त र पारोक्दे ।।' न्याया० टि० पृ० १५ ॥
"श्रादौ प्रत्यक्षग्रहण प्राधान्यात् .........तत्र कि शब्दस्वादानुपदेशो भवतु अाहोस्थित् प्रत्यक्षस्येति ? । प्रत्यक्षरोति युक्तम । कि कारण है। सर्वप्रमाणाना प्रत्यक्षपूर्वकत्वात् इति ।-न्यायषा० १. १.३ सालयता का०५ | न्यायम०पू०६५, १०६ ।
३ च ज्येचप्रमाणप्रत्यक्षविरोधादाम्नायस्यैव तदपेक्षस्याप्रामाण्यमुप्चरितार्थत्वं चेति युक्तम् । নাখাব নিরাপাধায়, বাগনা মনঃসিমাখনৰয় লঙ্কা মদিনাবাদামুभासती पृ०६।
अर्थसंवादकत्वे च समाने ज्येष्ठताऽस्य फा। तदभावे तु नैव स्यात् प्रमाणमनुमादिकम् । तस्वसं० का०४६ । न्यायवि० टी० १.३ ।
५ अश० श्रष्टस० पृ०००।
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
posmatam
२५
पू०८.५० २०.?
भाषाटिप्पणानि । श्वेताम्बर प्राचार्यो १ ने प्रत्यक्ष-परोक्ष दोनों का समवलन बौद्ध परम्परा की तरह स्वीकार किया है।
पृ०७. पं० २६. 'व्यवस्था-इस सूत्र में चार्वाक के प्रति प्रमाणान्तर की सिद्धि करते हुए धीन युक्तियों का प्रयोगा . हेमचन्द्र ने किया है जो धर्मकीर्ति के नाम से उद्धृत कारिका में स्पष्ट है। वह कारिका धर्मकीर्ति के उसरवर्ती समी बौद्ध, वैदिक और जैन । अन्धों में पाई जाती है।
वृत्ति में तीनों युक्तियों का जो विवेचन है वह सिद्धर्षि की न्यायावतारवृत्ति के साथ शब्दश: मिलता है। पर वात्पर्यटोका और सांख्यसस्त्रकौमुदी के विवेचन के साथ उसका शब्दसादृश्य होने पर भी अर्थसाहश्य ही मुख्य है।
"स हि काश्चित् प्रत्यसव्यक्तीरर्थक्रियासमर्थार्थप्रापकत्वेनाव्यभिचारिणीरुपलभ्यान्या- 10 रतविपरीततया व्यभिचारिणीश्व, तत: कालान्सरे पुनरपि सादृशेतरण प्रत्यक्षव्यक्तीनां प्रमाणतेतरते समायक्षीत "न्याया० मि० टी० पृ. १८ ॥
"पृष्टप्रामाण्याप्रामाण्याशानन्यसाधयेण हि कासाधिव्यक्तीनां प्रामाण्यमप्रामाय बर विदधीव। दृष्ट साधर्म्य सानुमानमेवेति कथं तेनैव तस्याप्रामाण्यम् । अपि चानुमानमप्रमाणमिति बाक्यप्रयोगोऽशं विप्रतिपन्न सन्दिग्धं व पुरुषं प्रत्यर्थवान्, न च पर- 15 पुरुषवर्तिनी देहधर्मा अपि संदेहाज्ञानविपर्यासा गौरवादिवत् प्रत्यक्षता बोच्यन्ते, म च नदपनाल प्रतीयन्ने, वचमस्यापि प्रत्यक्षादन्यस्याप्रामाण्योपामात् । पुरुषविशेषमनधिकृत्य तु वचनमनर्थकं प्रयुकजाना नायं लौकिकर न परीक्षक इत्युन्मसवदनवधेयवचन: स्यात् ।"-तापर्य० १.१.५ ॥
मानुमानं प्रमाणमिति वदता लोकायतिकेनाऽप्रतिपन्नः सन्दिग्धो विपर्यस्तो वा पुरुषः कथं प्रतिपद्येस । न च पुरुषान्तरगता प्रज्ञानसन्देहविपर्ययाः शक्या अर्वाग्डशा प्रत्यने 20 प्रतिपसुम् । नापि मानान्तरण, अनभ्युपगमात् । प्रमत्रधृताज्ञानसंशयविपर्यासस्तु यं कश्चित्पुरुषं प्रति प्रवर्तमानोऽनवधेयक धनतया प्रेक्षावधि मन्मनवदुपेक्ष्येत । तदननाज्ञानादयः पर. पुरुषवर्तिनाऽभिप्रायभेदावधनभेदाद्वा लिङ्गानुमावण्याः, इत्यकामेनाप्यनुमान प्रमाइमभ्युपेयम् । सांख्यत• का०५ !
Parin................
....
पृ०८.५० २०,'अर्थस्याऽसंभो तुलना-तस्वसं ०५० पृ. ७७५ | विधिवि. न्यायक० पृ. १६३ । 25 सिद्धिवि० टी० लि. पृ० १५५ A, अष्टसह ० पृ० ११५ । सन्मतिटी० पृ.१७, ७३, ५५५ । न्यायविक टी० लि. पृ.६A.
१ न्याया० सिटी० पृ०१६। स्याद्धादर पृ० २६०। . २ कन्दली पू० २५५ प्रमाणप० पृ०६६। प्रमेयक पृ०४६। स्थाद्वादर, पृ० २६१ । न्यायसारता० पृ०५८।
1000RNAMONUPAL
andsamniwandwwwwwwmun
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
5
10
प्रमाणमीमांसायाः
[ पृ० ८. पं० २६
पृ० ८. पं० ३०. 'भावाभावा' - प्रभावप्रमाथा के पृथक् अस्तित्व का बाद बहुत पुराना जान पड़ता है क्योंकि न्यायसूत्र और उसके बाद के सभी दार्शनिक प्रथों में तो उसका खण्डन पाया ही जाता है पर अधिक प्राचीन माने जानेवाले कणादसूत्र में भी प्रशस्तपाद की व्याख्या के अनुसार उसके खण्डन की सूचना I
विचार करने से जान पड़ता है कि यह पृथक अभावमाबाद मूल में मीमांसक परम्परा का हो होना चाहिए । भ्य सभी दार्शनिक परम्पराएँ उस बाद के विरुद्ध हैं । शायद इस विरोध का मीमांसक परम्परा पर भी असर पड़ा और प्रभाकर उस बाद से सम्मत न रहे। ऐसी स्थिति में भी कुमारिल ने उस बाद के समर्थन में बहुत जोर लगाया और सभी तरकालीन विरोधियों का सामना किया ।
प्रस्तुत सूत्र के विवेचन का न्यायावदार टीका ( पृ० २१ ) के साथ बहुत कुछ शब्दसाम्य है ।
२६
अ० १ ० १ सू० १३-१४ ० ८ प्रत्यक्ष के स्वरूप के विषय में सामान्यरूप aata परम्पराएँ हैं । बौद्ध परम्परा निfoners को ही प्रत्यक्ष मानती है। न्यायवैशेषिकादि वैदिक परम्पराएँ निर्विकल्पक सल्पिक दोनों को प्रत्यक्ष मानती है । जैन तार्किक परम्परा सांख्ययोग दर्शन की तरह प्रत्यक्षप्रमाणरूप से afreen 15 को ही स्वीकार करती है i आ० हेमन्द्र मे धस परा के अनुसार निर्विकल्पक को अध्यवसाय कहकर प्रमाणासामान्य की कोटि से ही बहिर्भूत रक्खा है।
raft प्रत्यक्ष के लक्ष में विशद या स्फुट शब्द का प्रयोग करनेवाले जैन तार्किक में से पहले अकल ही जान पड़ते हैं तथापि इस शब्द का मूल बौद्ध सपथों में
१ न्यायसू० २.२.२ ।
२ “अभावोऽपि अनुमानमेत्र tree कार्य कारणभावे लिङ्गम् एत्रमनुत्पन्न कार्य कारणा सद्भावे लिङ्गम् ।" प्रश० पृ० २२५ । बै० सू० ६.२.५ /
३ शापरभा० १.१.५ ।
४ ति चेयं प्रसिद्धिमीमांसकानां षष्ठं किलेद प्रमाणमिति केयं तहिं प्रसिद्धिः १ । प्रसिद्धिवैश्यन्प्रसिद्धिवत् । "बृहती पृ० १२० । “यदि तावत् केचिन्मीमांसकाः प्रमाणाम्यत्वं मन्यन्ते ततश्च वयं कि कुर्मः ।" बृहती० पृ० १२३ | प्रकरण० पृ० ११८-१२५ ।
५ "भावो वा प्रमाणेन स्वानुरूपेण मीयते । प्रमेयत्वाद्यथा भावस्तस्माद्भावात्मकात्पृथक् ॥" श्लोकवा० प्रभाव० श्लो० ५५. ।
न्यायप्र० पृ० ७ ।
६ "प्रत्यक्ष कल्पनापोई नामनात्याद्यसंयुतम् । प्रमाणस० १.३ । न्यायवि० १.४ ।
७ " द्वयी प्रत्यक्षजातिः अविकल्पिक सविकल्पका चेति । तत्र उभयी इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं शानमव्यभिचारीति लक्षणेन संग्रहीतापि स्वशब्देन उपान्ता तत्र विप्रतिपत्तेः । तत्र अविकल्पिकायाः पदम् श्रव्यपदेश्यमिति सक्किल्पिकायाश्च व्यवसायात्मकमिति ।" - तात्पर्य० पृ० १२५ । प्रश० પૃથ્વ १८६-१८५ ।
प्रमेयक० १.३ । स्यावादर० १. ७. २ सांख्यतः का० ५ । योगभा० १. ७. ।
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
sajistanivisionaom
१०१२.५० १४.
मावाटिप्पणानि।
है क्योकि प्रकलङ्क के पूर्ववर्ती धर्मकीर्शि प्रादि बौद्ध सार्किकों ने इसका प्रयोग प्रत्यक्षस्वरूपनिरूपण में किया है। प्रकलयू के बाद से जैन परम्परा में भी इसका प्रयोग रूढ़ हो गया। वैशय किंवा स्पष्टत्व का निर्वचन तीन प्रकार से पाया जाता है। प्रकलङ्क के-"अनुमानायतिरेकेष विशेषपसिभासनम्" ( लत्री १. ४ )-निर्वचन का देवनारे और यशोविजयजी ने अनुगमन किया है। जैन तर्फवासिक में (पृ०६५) 'इदन्वया' अथवा 'विशेषक्सया' प्रतिभास-5 वाले एक ही निधन का सूचन है। मासिक्यनन्दी ने ( परीक्षा मु. २.४) "प्रतीत्यतराव्यवधान और विशेष प्रतिमास दोनों प्रकार से वैशय का निर्वचन किया है जिसे प्रा. हेमचन्द्र ने अपनाया है। ४०. पं० २६. 'प्रत्यक्ष धर्म-तुलना--"
विज्ञानात्मकं प्रत्यक्ष प्रत्यक्षत्वात... पर्मियो हेतुत्वेऽनम्बयप्रसज्म इति वेतन, विशेष धर्मिग कृत्वा सामान्य हेतु अवat दोषाऽ- 10 संभवास-प्रमाणप० पृ० ६७. प्रमेयर० २.३.
memperintender
५० १, मा० १. सू० १५-१७, पृ० १०. लोक और शास्त्र में सर्वच शब्द का रुपयोग, योगसिद्ध विशिष्ट प्रतीन्द्रिय ज्ञान के सम्भव में विद्वानों और साधारण लोगों की अबा, जुदे जुदे दार्शनिकों के द्वारा अपने अपने मन्तव्यानुसार भिन्न भिन्न प्रकार के विशिष्ट शानरूप अर्थ में सर्वश जैसे पदों को लागू करने का प्रयत्न और सर्वशरूप से माने जाने. 16 बाले किसी व्यक्ति के द्वारा ही मुख्यतया उपदेश किये गये धर्म या सिद्धान्त की अनुगामियों में वास्तविक प्रतिष्ठा-इतनी बातें मावान महावीर और बुद्ध के पहिले भी थी---इसके प्रमाण मौजूद हैं। भगवान महावीर और बुद्ध के समय से लेकर आज तक के करीब ढाई हज़ार वर्ष के भारतीय साहित्य में तो सर्वज्ञत्व के अस्ति-नास्तिपक्षों की, उसके विविध स्वरूप तथा समर्थक और विरोधी युक्तिवादों की, क्रमशः विकसित सूक्ष्म और हरमतर स्पष्ट एवं मना- 20 वरूजक चर्चाएं पाई जाती हैं।
सर्वज्ञत्व के नास्सिपचकार मुख्यतया सीन हैं-हार्वाक, प्रज्ञानवादी और पूर्वमीमासक। उसके अस्विरक्षकार तर अनेक दर्शन हैं, जिनमें न्याय वैशेषिक, सांस्य योग, वेदान्त, बौद्ध और जैन दर्शन मुख्य हैं।
चार्वाक इन्द्रियाम्य भौतिक लोकमान को मानता है इसलिए उसके मत में प्रतीन्द्रिय 27 भास्मा था उसकी शक्तिरूप सर्वज्ञत्व प्रादि के लिए कोई स्थान ही नहीं है। प्रज्ञानवादी का अभिप्राय माधुनिक वैज्ञानिको की सरह ऐसा जान पड़ता है कि ज्ञान और प्रदीन्द्रिय बान की भी एक प्रतिम सीमा होती है। शान कितना ही उठच कथा का क्यो न हो पर मा कालिक सभी स्थूल सूक्म भावों को पूर्ण रूप से जानने में स्वभाव से ही असमर्थ है।
प्रत्यक्षं कल्पनापोर्ट
.१ "न पिकल्पानुबद्धस्य स्पष्टार्थप्रतिभासिता ।"-प्रमाणमा ३, २८३। वेधतेऽतिपरिस्फुटम् १" तस्वसं० का० १२३४
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८
प्रमाणमीमांसायाः [पृ० १०.५० १४अर्थात् अन्त में कुछ न कुछ अज्ञेय रह हो जाता है। क्योंकि शान की शक्ति ही स्वभाव से परिमित है। वेदवादी पूर्वमीमांसक नात्या, पुनर्जन्म, पोट भादि प्रतीन्द्रिय पदार्थ मानता है। किसी प्रकार का प्रतीन्द्रिय ज्ञान होने में भी उसे कोई भापत्ति नहीं फिर भी वह अपौरुषेयवेदवादी होने के कारण वेद के अपौरुषेयत्व में बाधक ऐसे किसी भी प्रकार ॐ के प्रतीन्द्रिय मान को मान नहीं सकता। इसी कमात्र अभिप्राय से उसने वेद-निरपेक्ष साक्षात् धर्मज्ञ या सर्व के अस्तित्व का विरोध किया है। वेद द्वारा धर्माधर्म या सर्व पदार्थ जाननेवाले का निषेध नहीं किया।
बौद्ध और जैन दर्शनसम्मत साक्षात् धर्मश वाद या साक्षात् सर्वशवाद से बेद के अपौरुषेयत्व का केवल निरास ही अभिप्रेत नहीं है बल्कि उसके द्वारा दो में अप्रामाण्य 10 बतलाकर वेदभिन्न आगों का प्रामाण्य स्थापित करना भी अभिप्रेत है। इसके विकत
जो न्याय-वैशेषिक प्रादि वैदिक दर्शन सर्वज्ञवादी हैं उनका तात्पर्य सर्वज्ञवाद के द्वारा वेद के अपारुषेयत्ववाद का निरास करना अवश्य है, पर साथ ही उसी वाद के द्वारा वेद का पौरुषेयत्व बतलाकर उसीका प्रामाण्यस्थापन करना भी है।
न्याय-वैशेषिक दर्शन ईश्वरवादी हैं। वे ईश्वर के ज्ञान को निस्यर-उत्पाद-विनाश1: रहित और पूर्ण-त्रैकालिक सूचम-स्थूल समप्रभावों को युगपत् जाननेवाला-मानकर सद्वारा
उसे सर्वज्ञ मानते हैं। ईश्वरमिन्न प्रात्मानों में वे सर्थज्ञस्य मानते हैं सही, पर सभी प्रात्मानों में नहीं किन्तु योगी आत्माओं में। योगियों में भी सभी योगियों को वे सर्वज्ञ नहीं मानवे किन्तु जिन्होंने योग द्वारा वैसा सामर्थ्य प्राप्त किया हो सिर्फ उन्हीं को ३ । न्याय-बैशेषिक
मलानुसार यह नियम नहीं कि सभी योगियों को वैसा सामर्थ्य अवश्य प्राप्ष हो । इस मन में 20 जैसे मेोच के वास्ते सर्वशत्वप्राप्ति अनिवार्य शर्त नहीं है वैसे यह भो सिद्धान्त है कि माख.
१“चोदना हि मूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूरुमं व्यवहितं विप्रकृष्टमित्येवं जातीयकमर्थ शम्नोत्यवगमयितुम, नान्यत् किञ्चनेन्द्रियम्"-शायरमा १.१.२ | "नानेन वचनेनेह सर्वशस्वनिराक्रिया । बचनात . इत्येवमपवादा हि संश्रितः॥ यदि घडभिः प्रमाणैः स्यात् सर्वशः केन वार्यते । एकेन तु प्रमाणेन सर्वशी येन कल्यते ॥ भूनं स चक्षुण्ण सर्वान् रसादीन् प्रतिपद्यते ।" श्लोकया चोद० श्लोक ११०-२। "धर्मशल्यनिषेधश्च केवलोऽत्रीपयुध्यते । सर्वमन्यद्विनानस्तु पुरुषः केन वार्यते ॥"-तस्वसं० का० ३१२८ । यह श्लोक तस्त्रसंग्रह में कुमारिल का कहा गया है पृ०४४। २मच बुद्धीलाप्रयत्नानो नित्यत्वे कश्चिद्विरोध: दृष्टा हि गुणानामाश्रयमे देन यी गतिः नित्यता
पादीनामपि भविष्यतीति ।"... कन्दली पृ०६०1"एतादृशानुमिती लाघवज्ञानसहकारेण शानिच्छाकृतिषु नित्यत्वमेकत्वं च भासते इति नित्यैकत्वसिद्धिः ।" -दिनकरी पृ० २६ ।
३ वै० सू० १. १.११-१३ । “अस्मद्विशिष्टानां तु योगिनां युक्तानां योगजधर्मानुगृहोतेन मनसा स्यात्मान्नराकाशदिक्कालपरमाणुवायुमनस्सु तत्समवेतगुणकर्मसामान्यविशेषेषु समवाये चावितयं स्वरूप दर्शनमुत्पद्यते । वियुक्तानां पुनश्चतुष्टयसनिकांद्योगजधर्मानुपहसामयात् सूक्ष्मव्यवहितविप्रष्टेषु सत्य. क्षमुत्पद्यते ।"-प्रश० पू०१८७ वै० सू०.१.११.१३ ।
४ "तदेवं धिषणादीनां मवानामपि मूलतः। गुणानामात्मनो यमः सेाऽपवर्गः प्रकीर्तितः " न्यायमा पृ० ५०८.।
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृ० १०. पं० १४ ]
भाषाविनि ।
२६
प्राप्ति के योगियों की नाके को पूर्ण ज्ञान शेष नहीं रहता, क्योंकि वह ज्ञान ईश्वरज्ञान की तरह नित्य नहीं पर योगजन्य होने से अनित्य है ।
सांख्य, योग? और वेदान्त दर्शनसम्मत सर्वज्ञत्व का स्वरूप वैसा ही है जैसा न्यायवैशेषिकसम्मत सर्वज्ञत्व का । यद्यपि योगदर्शन न्याय-वैशेषिक की तरह ईश्वर मानता है तथापि वह न्याय-वैशेषिक की तरह वेतन आत्मा में सर्वज्ञत्व का समर्थन न कर सकने के कारण विशिष्ट बुद्धिश्वर में ही ईश्वरीय सर्वज्ञरव का समर्थन कर पाता है। सांख्य, योग और वेदान्त में बौद्धिक सर्वशत्व की प्राप्ति भी मोक्ष के वास्ते अनिवार्य वस्तु नहीं है, जैसा कि जैन दर्शन में माना जाता है। किन्तु न्याय-वैशेषिक दर्शन की तरह वह एक योगविभूति मात्र होने से किसी-किसी साधक को होती है।
,
सर्ववाद से सम्बन्ध रखनेवाले हज़ारों वर्ष के भारतीय दर्शनशास्त्र देखने पर भी 10 यह पता स्पष्टरूप से नहीं चलता कि अमुक दर्शन ही सर्वशवाद का प्रस्थापक है। यह भी fare से कहना कठिन है कि सर्वज्ञत्व की चर्चा शुद्ध तत्रचिन्तन में से फलित हुई है, या साम्प्रदायिक भाव से धार्मिक खण्डन-मण्डन में से फलित हुई है । यह भी प्रमाण बतलाना सम्भव नहीं कि ईश्वर, ब्रह्मा मादि दिव्य आत्माओं में माने जानेवाले सर्वज्ञत्व के विचार से मानुषिक सर्वज्ञत्व का विचार प्रस्तुत हुआ, या बुद्ध-महावीरसदृश मनुष्य में 15 माने जानेवाले सर्वज्ञत्व के विचार प्रान्दोलन से ईश्वर, ब्रह्मा मादि में सर्वज्ञत्व का समर्थन किया जाने लगा था देव-मनुष्य अभय में सर्वेक्षत्व माने जाने का विचारप्रवाह परस्पर निरपेक्ष रूप से प्रचलित हुआ ? | यह सब कुछ होते हुए भी सामान्यरूप से इतना कहा जा सकता है कि यह चर्चा धर्म-सम्प्रदायों के खण्डन-मण्डन में से फलित हुई है और पीछे से उसने तत्वज्ञान का रूप धारण करके तास्विक चिन्तन में भी स्थान पाया है। और वह तटस्थ 20 Rafast a faचारणीय विषय बन गई है । क्योकि files जैसे पुरातन और प्रबल वैदिक दर्शन के सर्वशत्व सम्बन्धी अस्वीकार और शेष सभी वैदिक दर्शनों के सर्वशत्व सम्बन्धी स्वीकार का एक मात्र मुख्य उद्देश्य यही है कि वेद का प्रामाण्य स्थापित करना जब कि जैन, बौद्ध आदि मनुष्य सर्वज्ञत्ववादी दर्शनों का एक यह उद्देश है कि परम्परा से माने जाने वाले वेदप्रामाण्य के स्थान में इतर शास्त्रों का प्रामाण्य स्थापित करना और वेदों का अप्रामाण्य | 26 जब कि वेद का प्रामाण्य- अप्रामाण्य ही असर्वज्ञबाद, देव सर्वज्ञवाद और मनुष्य- सर्वज्ञवाद की चर्चा और उसकी दलीलों का एकमात्र मुख्य विषय है तब धर्म-संप्रदाय को इस तस्वचर्चा का उत्थानबोज मानने में सन्देह को कम से कम अवकाश f
"तारकं सर्वविषयं सर्वथा विषयमक्रमं चेति विवेक ज्ञानम् ||" योगसू० ३.५४ ।
२ “निर्धूतरजस्तमेोमलस्य बुद्धिसत्त्वस्थ परे वैशारद्ये परस्यां वशीकारसंज्ञायां वर्त्तमानस्य सत्पुरुषान्यताख्यातिमात्ररूपप्रतिष्ठस्य... सर्वज्ञातृस्वम्, सर्वात्मनां गुग्णानां शान्तादिताव्यपदेश्यधर्मत्वेन व्यवस्थितानामकमोपारूढं विवेकजं ज्ञानमित्यर्थः । " योगभा० ३. ४६ ।
३ " प्राप्त विवेकजज्ञानस्य अमाप्तविवेकजज्ञानस्य वा सरवपुरुषयेाः शुद्धिसाम्ये कैवल्यमिति । "--- योगसू० ३.५५ ।
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमाणमीमांसायाः
[ पृ० १०. पं०१४
5
frienधुरी कुमारिल ने धर्मज्ञ और सर्वज्ञ दोनों वादों का निराकरण बड़े आवेश और युक्तिवाद से किया है ( मीमांसारखी० सू० २. श्लो० ११० से १४३ ) वैसे ही बौद्धप्रवर शान्तरक्षित ने उसका जवाब उक्त दोनों वादों के समर्थन के द्वारा बड़ी गम्भीरता और स्पष्टता से दिया है ( तस्व० पृ० ४ ) । इसलिए यहाँ पर एक ऐतिहासिक प्रश्न होता है कि क्या और सर्वज्ञ दोनो बाद अलग-अलग सम्प्रदायों में अपने-अपने युक्तिबल पर स्थिर होंगे, या किसी एक बाद में से दूसरे वाद का जन्म हुआ है १ । अभी तक के चिन्तन से यह जान yer है कि धर्म और सर्वश दोनों वादों की परम्परा मूल में अलग-अलग ही है। बौद्ध सम्प्रदाय धर्मवाद की परम्परा का अवलम्बी खास रहा होगा क्योंकि खुद बुद्ध ने ( मज्यिम० चूल-मालुक्यपुत्तसुत २.१ ) अपने को सर्वक्ष उसी अर्थ में कहा है जिस 10 अर्थ में धर्मज्ञ या मार्गश शब्द का प्रयोग होता है । बुद्ध के वास्ते धर्मशाता, धर्मदेशक आदि विशेषण पटकप्रन्थों में प्रसिद्ध हैं । १धर्मकीर्ति ने बुद्ध में सर्वशत्व को अनुपयोगी aaree hair after हो स्थापित किया है, जब कि शान्तरक्षित ने प्रथम धर्मज्ञत्व सिकर tray से सर्वज्ञ को भी स्वीकार किया है ।
३०
सर्वज्ञबाद की परम्परा का अवलम्बी मुख्यतया जैन सम्प्रदाय ही जान पड़ता है क्योंकि 15 जैन आचार्यों ने प्रथम से ही अपने तीर्थकरों में सर्वज्ञस्य को माना और स्थापित किया है । ऐसा सम्भव है कि जब जैनों के द्वारा प्रबलरूप से सर्वशत्व की स्थापना और प्रतिष्ठा होने लगी तब बौद्धों के वास्ते बुद्ध में सर्वज्ञत्व का समर्थन करना भी अनिवार्य और आवश्यक हो गया । यही सबब है कि बौद्ध तार्किक प्रन्थों में धर्मज्ञवादसमर्थन के बाद सर्वेक्षवाद कर समर्थन होने पर भी उसमें वह जोर और एकतानता नहीं है, जैसी कि जैन तार्किक पन्थों में है ।
20
मीमांसक (श्लो० सू० २ श्लो० ११०-१४३. ० का० ३१२४-३२४६ पूर्व ) का मानना है कि यागादि के प्रतिपादन और उसके द्वारा धर्माधर्मादि का, किसी पुरुषविशेष
१८ हैयोपदेवत स्वस्य साभ्युपायस्य वेदकः । यः प्रमाणमाविष्टो न तु सर्वस्य वेदकः || तुरं पश्यतु वा मा वा त्वमिष्टं तु पश्यतु " प्रमाणवा० २. ३२.३३ ।
२ स्वर्गापवर्गासहेतुज्ञोऽस्तीति यम्यते । सान्नान्न केवलं किन्तु सर्वशोऽपि प्रतीयते ।। " तस्वसं० का० ३३०६ | "मुख्य हि तावत् स्वर्गमोक्षसभ्यापक हेतृशत्वसाधनं भगवतोऽस्माभिः क्रियते । यत्पुनः अशेषार्थपरिशातृत्वसाधनमस्य तत् प्रासङ्गिकमन्यत्रापि भगवती ज्ञानप्रवृत्तेः बाधकप्रमाणाभावात् साक्षादशेषार्थ परिज्ञानात् सर्वज्ञो भवन् न केनचिद् बाध्यते इति, अतो न प्रेावतां तत्प्रतिक्षेपो युक्तः ।" तर० प० पृ० ८६३ | ३ से भग अहं जिसे केवली सम्पन्नू सन्यभावदरिसी सदेवमगुवासुरस्त लोगस्स पज्जाए जागर, ० आगई गई कि चयj उववायं सुतं पीयं क पडिसेवियं श्राविकम्मं रोकम्मं लविय कहिय मोमासय सम्बलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाई जारामागे पासमा एवं च यं विहर।" श्राचा० श्र० २. चू० ३. पृ० ४२५ A. “तं नत्थ जंन पास भूयं भव्यं भविस्सं च" आव० नि० मा० १२७ । भगव ०१. उ० ३२ ॥ सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽन्यादिरिति सर्वशसस्थितिः ॥" आप्तमी० का ५ ।
"यैः स्वेच्छासो वयते तन्मतेनाप्यसौ न विरुध्यते इत्यादर्शयन्नाह यद्यदित्यादि --- यद्यदिच्युति श्रोतु ं वा तत्तद्वेत्ति नियोगतः । शक्तिरेवंविधा तस्य प्रहीयावरयो त्यसौ ।" - तरवले० का० २६२८ । मिलि० ३. ६.२ ।
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
१० १०. पं० १४.]
मापाटिप्पणानि । की अपेक्षा रक्खे बिना ही, स्वतन्त्र विधाम करना यही वेद का कार्य है। इसी सिद्धान्त को स्थिर रखने के वास्ते कुमारिल में कहा है कि कोई भले ही धर्माधर्मभिन्न अन्य सब वस्तु साक्षात जान सके पर धर्माधर्म को वेदनिरपेक्ष होकर कोई साक्षात् नहीं जान सकता, चाहे वह जामनेवास्ता बुद्ध, जिन आदि जैसा मनुष्य योगी हो, चाहे वह ब्रह्मा, विद्या प्रादि जैसा देव हो, चाहे वह कपिल, प्रजापति आदि जैसा ऋषि या अवतारी हो। कुमारिल का है कहना है कि सर्वत्र सर्वदा धर्ममादा एक सी है, जो सदा सर्वत्र एकरूप वेद द्वारा विहित मागमे पर ही सङ्गत हो सकती है। बुद्ध प्रादि व्यक्तियों को धर्म के साक्षात प्रतिपादक मानने पर वैसी मर्यादा सिद्ध हो नहीं सकती क्योंकि बुद्ध आदि उपदेशक कभी निर्वाण पाने पर नहीं भी रहते। जीवितदशा में भी बे सब क्षेत्रों में पहुँच नहीं सकते। सब धर्मोपदेशको की एकवाक्यता भी सम्भव नहीं। इस तरह कुमारिल साक्षात् धर्मझत्व का निषेधर करके 10 फिर सर्वस्त्र का भी सब में निषेध करते हैं। वह पुराणोक्त प्रमादि देवों के सर्वज्ञत्व का मर्थ मो, जैसा उपनिषदों में देखा जाता है, केवल प्रात्मज्ञान परक करते हैं। बुद्ध, महावीर आदि के बारे में कुमारिल का यह भी कथन है कि वे वेदज्ञ ब्राह्मण जाति को धर्मोंपदेश न करने और वेदविहीन मूर्ख नगद रद को को पहेश म हामः सेवामासो एवं वेद द्वारा धर्मझ भी नहीं थे। युद्ध, महावीर आदि में सर्वशरवनिषेध को एक प्रबल युक्ति 15 कुमारिल ने यह दी है कि परस्परविरुखभाषी बुद्ध, महावीर, कपिल मादि में से किसे सर्वज्ञ माना जाय और फिसे न माना जाय ? । अतएव उनमें से कोई सर्वश नहीं है। यदि वे सर्वज्ञ छस्ते तो सभी वेदवतू अविरुद्धभाषी रखे, इत्यादि।
Himthis
१ "नहि अतीन्द्रियार्थे वचनमन्तरेण अवगतिः सम्भवति, तदिदमुक्तम्-अशा हि तत् पुरुषेण शादमृते रचनात्'-शाषरमा० १.१.२। श्लो० न्याय० पृ०७६ |
२ "कुख्यादिनिःसूतत्वाश्च नाश्वासो देशनासु नः किन्नु बुद्धमणीताः स्युः किम कैश्चिद् दुरात्मभिः । अदृश्यः विप्रलम्भार्थ पिशाचादिभिरीरिताः। एवं वैः केवलं शानमिन्द्रियाद्यनपेक्षिणः । सूरमातोदि विषय जीवस्य परिकल्पितम् ॥" -माया सू०२. श्लोक १३६-४१। “यत्तु वेदवादिभिरेव कैश्चिदुक्तम्-- नित्य एकाऽयं वेदः प्रजापतेः प्रथममार्षशानेनावबुद्धो भवतीति तदपि सर्वज्ञरदेव निराकामित्याह-नित्यति"..लोक न्यायक सू०२, १५३1 "श्रथापि वेदत्वात् ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः। सर्वज्ञानमवाददात्माश्य मानुषस्य किम् ॥"-तस्वसं० का० ३२०८, ३२१३-१४ ।
३ "शानं वैराग्यमैश्वर्यमिति यापि दशाव्ययः । शङ्करः श्रूयते सोऽपि शानवानात्मवित्तया 11.-- तस्वसं का० ३२०६।
"शाक्यादिवचनानि तु कतिपयदमदानादिवचनवर्ज सर्वाणयेष समस्तचतुर्दश विद्यास्थानविरुद्धानि त्रयोमार्गब्युस्थिा विद्याचरणैश बुद्धा दिमिः प्रणीतानि । यीबाय भ्यश्चतुर्थवर्णभिरत्रसितप्रायेभ्यो व्यामू. वेभ्यः समर्पितानोति न वेदमूलत्वेन संभाव्यन्ते । सन्त्र वा पृ० ११६ । तस्व सं० का० ३२२६-२७ ।
५ "सर्वशेषु च भूयःसु विरुद्धार्थीपदेशिषु। तुल्यहेतुषु सर्वेषु को मामैकोऽक्वायताम् ॥ सुगतो यदि सर्वशः कफ्लिो नेति का प्रमा। अधोभावपि सर्वही मतभेदः तयोः कथम् ॥"-सत्स्यसं० का
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
eaction
R
SASRANSamasoosinopsistomeran
प्रमाबमीमांसायाः
[१० १०, पं० १४शान्तरक्षित ने कुमारिल तथा अन्य सामट, यझट प्रादि मीमांसकों की दलीलों का बड़ो सूक्ष्मता से सविस्तर खण्डन (सयस • का० ३२६३ से ) करते हुए कहा है कि-वेद स्वयं ही भ्रान्त एवं हिंसादि दोषयुक्त होने से धर्मविधायक हो नही सकता। फिर उसका प्राय
लेकर उपदेश देने में क्या विशेषता है १६ बुद्ध ने स्वयं ही शानुभव से अनुकम्पाप्रेरित 5 होकर प्रभ्युदय निःश्रेयसाधक धर्म बलझाया है। मूर्ख शूद्र आदि को उपदेश देकर तो उसने अपनी करुणावृत्ति के द्वारा धार्मिकता ही प्रकट की है। वह मीमांसकों से पूछता है कि जिन्हें तुम ब्राह्मण कहते हो उन की ब्राह्मणता का निश्चित प्रमाण क्या है। प्रतीसकाल बड़ा लम्बा है, स्त्रियों का मन भी चपल है, इस दशा में कौन कह सकता है कि प्राभाय कहलाने
वाली सम्मान के माता-पिता शुद्ध नाम ही रहे हो और कभी किसी विजातीयता का 10 मिश्रण हुआ न हो। शान्तरक्षिसरे ने यह भी कह दिया कि सच्चे प्रामथ और श्रमग्य
बुन शासन के सिवा सय किमी धर्म में नहीं है ! का० ३५८६-६२)। अन्त में शाम्तरसित ने पहिले सामान्यरूप से सर्वस्व का सम्भव सिद्ध किया है, फिर से महावीर, कपिल आदि में असम्भव बतलाकर केवल बुद्ध में ही सिद्ध किया है। इस विचारसरणी में शान्तरक्षित
की मुख्य युक्ति यह है कि वित्त स्वयं ही प्रभावर अतएव स्वभाव से प्रज्ञाशील है। 18 क्लेशावरण, शेयावरण मादि मल आगन्तुक हैं। नैरारम्यदर्शन जो एक मात्र सस्यशान है,
इसके द्वारा प्रावरणों का क्षय हेकर मानायल से अन्त में स्थायी सर्वज्ञता का लाभ होला है। ऐकान्तिक अधिकरवशान, नैरास्यदर्शन आदि का अनेकान्तोपदेशी ऋषम, पर्वभानादि में तथा आत्मोपदेशक कपिलादि में सम्भव नहीं प्रतएक उनमें प्रावरणमय द्वारा सर्वज्ञत्व का भी सम्भव न हों। इस तरह सामान्य सर्वशव की सिद्धि के द्वारा अन्त में
domNAINAHANALAYAL
A MMedalsode
-
१ "करुणापरतन्त्रास्तु सारतत्वनिदर्शिनः । सर्वापवादनिःशङ्काश्चक : सर्वत्र देशनाम् ॥ यथा यथा च मौख्यादिदोषदुष्टो भवेजनः । तथा तथैद नाथानां दया नेषु प्रवर्तते-" सवसंक का० ३५७१.२ ।
२ "प्रतीतच महान् कालो योषितां चातिचापलम् । तद्भवत्यपि निश्चेतु ब्राह्मणत्वं न शक्यते ।। अतीन्द्रियपदाथज्ञो नहि कश्चित् समस्तिषः। तदन्धयविशुद्धिं च नित्यो वेदोपि नोक्तवान् ॥” तस्वसं का०३५७8-20|
३"ये च घाहितापवाद ब्राह्मणाः पारमार्थिकाः। अभ्यस्लामलनैरात्म्यास्ते मुनेरेय शासने ॥ इहैव अमरतेन चतुर्दा परिकीरयते। शून्याः परप्रवादा हि अमगौाह्मणैस्तथा ॥ तश्वसं का ३५८६-०.
"प्रत्यक्षीकृतनैरात्म्येन दालभते स्थितिम तद्विरुद्धल बा दीप्ते प्रदीप तिमिरं यथा तश्वसं. का०३३३८। "एवं क्लेशावरणप्रहारा प्रसाध्य ज्ञ यावरगाहार प्रतिपादयन्नाह साक्षात्कृतिविशेषादिति ----साक्षात्कृतिविशेषाच वाष नास्ति सयासनः। सर्वशत्यमत: सिद्धं सर्वावरमामुक्तिः ।-तस्वसंकाय ३३३६ । “प्रभास्वरमिदं चिर्त तस्यदर्शनसात्मकम् । प्रकृत्यैव स्थित यस्मात् मलारस्वागन्तवो मताः।" सस्यसका०३४३५ । प्रमाणबा० ३.२० ।
५ "इदं च बर्द्धमानादरात्म्यशानमीदृशम्। न समस्त्यात्मवृष्टौ हि विनष्टाः सर्वतीर्थकाः ।। स्याहादाक्षणिकस्या(त्या)दिप्रत्यक्षादिमा(धितम् । बवायुक्तमुक्त यैः स्युः सर्वज्ञाः कथं नु ते ॥" तस्वसं० ३३२५-२६ ।
Im
m
ernmigmine
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
Founiysia
१० १०.५० १६.]
भाषाटिप्पणानि ।
PATRA
san
अन्य तीर्थदूरों में सर्वशरव का असम्भव बतलाकर केवल सुगत में ही उसका अस्तित्व सिद्ध किया है और उसी के शास्त्र को प्राह बतलाया है।
शान्तरक्षित की तरह प्रत्येक सांस्य या जैन प्राचार्य का भी यही प्रयत्न रहा है कि सर्वज्ञत्व का सम्भव अवश्य है पर दे सभी अपने-अपने तीर्थों में ही सर्वज्ञत्व स्थापित करते हुए अन्य तीरों में उसका नितान्त असम्भव बतलाते हैं।
जैन प्राचार्यों की भी यही दलील रही है कि अनेकान्त सिद्धान्त श्री सत्य है। उसके यथावत् दर्शन और आचरण के द्वारा ही सर्वज्ञत्व लभ्य है। अनेकान्त का साक्षात्कार व उपदेश पूर्णरूप से अषभ, वर्द्धमान मादि ने ही किया अतएव वे ही सर्वज्ञ और उनके उपदिष्ट शाख हो निर्दोष व ग्राह्य है। सिद्धसेन हों या समन्तभद्र, अकलत हो या हेमचन्द्र सभी जैनाचार्यों ने सर्वसिद्धि के प्रसङ्ग में वैसा ही युक्तिवाद अक्लम्बित किया है जैसा बौद्ध 10 सांख्यादि प्राचार्यों ने। अन्तर सिर्फ इतना ही है कि किसी ने नैराम्यदर्शन को तो किसीर ने पुरुष प्रकृति आदि तत्वों के साक्षात्कार को, किसी में द्रव्य-गुणादि छ: पदार्थ के तत्त्वज्ञान को किसी ने केवल प्रात्मज्ञान को यथार्थ कहकर उसके द्वारा अपने-अपने मुख्य प्रवर्तक तीर्थङ्कर में हो सर्वशरद सिद्ध किया है, जब जैनाचार्यों में अनेकान्तवाद की यथार्थता दिखाकर इसके द्वारा भगवान् ऋषभ, बर्द्धमान आदि में ही सर्वज्ञत्व ] स्थापित किया है। जो कुछ हो, इतना साम्प्रदायिक भेद रहने पर भी सभी सर्वज्ञवादी दर्शनों का, सम्यग्ज्ञान से मिथ्याज्ञान और तजन्य क्लेशों का नाश और तद्द्वारा ज्ञानावरा के सर्वथा नाश की शक्यता आदि तात्विक विचार में कोई मतभेद नहीं।
पृ.१०.५०१५. 'दीर्घकाल'-तुलना-"स तु दीर्घकालनरन्तर्यसरकारासेवितो दृढभूमिः।"योगसू. १, १४।
पृ० १०. पं० १६. “एकत्ववितर्क' तुलना-'पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूचमक्रियाप्रतिपातिव्यु. परतक्रियानिवृत्तीनि !" "अविचारं द्वितीयम् ।" तस्यार्थ६. ४१, ४४ । “वितर्कविचारानन्दाऽ. स्मितारूपानुगमास् संप्रज्ञातः ।" "सत्र शब्दार्थज्ञानविकरूपैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः । "निर्विचारवैशारण्यात्मप्रसाद: ।। योगसू० १. १५, ४२, ४७, ४८ । “से खो अहं ब्राह्मण
"अद्वितीयं शिवद्वार कुदृष्टीनां भयंकरम् । विनेये या हितायोक्त नैरात्म्यं तेम तु शफुटम् ॥"तरवसं का० ३३२२१
एवं तत्वाभ्यासानास्मि म मे नाहमित्यारिशेषम् । अविपर्ययाद्विशुद्धं केवलमुत्पद्यते शानम् ||"-- सांख्यका०६४।
३ “धर्मविशेषप्रसूतात् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषमयायानां पदार्थानां साधयंवैधय्यांच्या तत्वज्ञानानिःश्रेयसम् "-वै० सू० १.१.४। .४ "आत्मनो का अरे दर्शनेन श्रवणेन माया विशानेन इदं सर्व विदितम् ।"-बृहदा० २.४, ५।
स्वमतामृतबाल्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम् । प्राप्ताभिमानदग्धान स्वेष्ट टेन पावते. आप्तमी० का०७] अयोग का०२८ ।
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमाणमीमांसायाः
[ पृ० १०. पं० २३
fafada कामेहि विविध प्रसलेहि धम्मेहि सवितर्क सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमकानं उपसंपज विहासिं; तिक्कविचारानं वृपसमा अक्षं संपसादन चेतसा एकोदिभाव भवितक्के अविचारं समाधि पीतिसुखं दुतियकानं उपसंपण विहासि । १ मज्झिम ०] १. १. ४ । १० १०. पं० २३. 'न खलु कश्चिदहमस्मि' - तुलना- “ नहि जातु कश्चिदत्र संदिग्धे 5 वा नाहं वेति न च विपर्यस्वति नाहमेवेति" ब्रह्म० शाङ्करभा० १० २ । सुखी पृ० २२ ।
"
10
३४
15
खराटन० पृ० ४८
प्र० १० १० २४. 'बादधृत्वात्'-तुलना
" प्रभास्वरमिदं चितं तत्त्वदर्शनसात्मकम् ।
प्रकृत्यैव स्थितं यस्मान् मलास्त्रागन्तवो मताः ॥" - तवसं० १० ३४३५ |
५० १०. पं० २७. 'अथ प्रकाश' – पुनर्जन्म और मोक्ष मानने वाले सभी दार्शनिक देहादि जड़भिन्न आत्मतत्व को मानते हैं। चाहे वह किसी के मत से व्यापक हो या किसी के मत से अध्यापक, कोई उसे एक माने या कोई अनेक किसी का मन्तव्य क्षणिकत्वविषयक हो या किसी का नित्यस्वविषयक पर सभी को पुनर्जन्म का कारण अज्ञान आदि कुछ न कुछ मानना ही पड़ता है । wara ऐसे सभी दार्शनिकों के सामने ये प्रश्न समान हैं-
जन्म के कारणभूत तव का श्रात्मा के साथ सम्बन्ध कब हुआ और वह सम् कैसा है ? | अगर वह सम्बन्ध अनादि है तो अनादि का नाश कैसे ? | एक बार नाश होने के बाद फिर वैसा सम्बन्ध होने में क्या अड़चन ? इन प्रश्नों का उत्तर सभी अधुनरावृषिरूप मात्र माननेवाले दार्शनिकों ने अपनी-अपनी जुदी जुदी परिभाषा में भी वस्तुत: एक रूप से ही दिया है ।
20
सभी ने आत्मा के साथ जन्म के कारण के सम्बन्ध को अनादि ही कहा है। सभी मानते हैं कि यह बतलाना सम्भव ही नहीं कि अमुक समय में जन्म के कारण मूलत का आत्मा से सम्बन्ध हुआ । जन्म के मूलकारण को अज्ञान कहो, अविद्या कहो, कर्म कहो या और कुछ पर सभी स्वसम्मत अमूर्त आत्मतत्व के साथ सूक्ष्मतम मूर्तस्व का एक ऐसा विलक्षण सम्बन्ध मानते हैं जो अविद्या या अज्ञान के अस्तित्व तक ही रहता है और 25 फिर नहीं । अतएव सभी द्वैतवादी के मत से अमूर्त और मूर्त का पारस्परिक सम्बन्ध निर्विवाद है। जैसे अज्ञान अनादि होने पर भी नष्ट होता है वैसे वह अनादि सम्बन्ध भी ज्ञानजन्य अज्ञान का नाश होते ही नष्ट हो जाता है। पूर्णज्ञान के बाद दोष का सम्भव न होने के ntra ज्ञान आदि का उदय सम्भावित ही नहीं अतएव अमूर्त मूर्त का सामान्य सम्बन्ध मोक्ष दशा में होने पर भी वह अज्ञानजन्य न होने के कारण जन्म का निमित्त बन नहीं 30 सकता । संसारकालीन वह प्रात्मा और मूर्त द्रव्य का सम्बन्ध अज्ञानजनित है जब कि Hraatain सम्बन्ध वैसा नहीं है ।
सांख्ययोग दर्शन आत्मा-पुरुष के साथ प्रकृति का, न्याय-वैशेषिक दर्शन परमाणुओं का, ब्रह्मवादी अविद्या-माया का बौद्ध दर्शन विश-नाम के साथ रूप का, और जैन दर्शन
3
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्र० १२. ५० ५.]
भाषाटिप्पमानि ।
मममी
जीब के साथ कमर्माणुओं का संसारकालीन विलक्षण सम्बन्ध मानते हैं। ये सब मान्यता पुनर्जन्म और मोक्ष के विचार में से ही फलित हुई है।
पृ० १०. पं० २७. 'अथ प्रकाशस्वभावत्व'-तुलना-"अतएव क्लेशगणेोऽत्यन्तसमुद्धतोऽपि नैरात्म्यदर्शनसामर्थ्यमस्योन्मूलयितुमसमर्थः । भागन्तुकप्रत्ययकृतत्वेनाढत्वात् । नैरास्म्यज्ञानं तु स्वभावत्यात प्रमाणसहायत्वाच बहवदिति लुल्येऽपि विरोधित्वे प्रात्मदर्शने प्रति एछो छयवस्थाप्यते ।......नापि ताम्रादिकाठिन्यादिवत् पुनरुत्पति सम्भवा दोषाणाम् , सद्वि
रोधिनैरात्म्यदर्शनस्यात्यन्ससाम्यमुपगतस्य सदाऽनपायात् । साम्रादिकाठिन्यस्य हि यो विरोधो वह्निस्तस्य कादाचित्कसमिहितत्वात् काठिन्यादेस्तदभाव एव भवतः पुनस्तदपायादुस्पविर्युक्ता । नत्वेवं मलानाम् । अपाऽपि वा मार्गस्य भरमादिभिरनेकान्तानावश्य पुनरुत्पतिसम्भवो दोषाणाम्, तथाहि-काष्ठादेरग्निसम्बन्धास्मसाभूतस्य तदपायेऽपि न प्रासनरूपा- 1) नुवृत्तिः, तद्वदोषाणामपीत्यनैकान्तः। किश्वागन्तुकतया प्रागप्य समर्थाना मलाना पश्चास्सास्मीभूतं तन्नरात्म्य बाधितु कुतः शक्तिः, नहि स्वभावो यत्नमन्तरेण निवर्तयितु शम्यते । न च प्राध्यपरिहर्तव्ययोर्वस्तुनोर्गुणोषदर्शनमन्तरेण प्रेजाया हातुमुपादातु वा प्रयनो युक्तः । न च विपक्ष सा( न चाविपर्यस्ता ? त्मनः पुरुषस्य दोषेषु गुणदर्शनं प्रतिपक्षे वा दोषदर्शनं सम्भवति, प्रविपर्यस्तस्वात् । नहि निर्दोष बस्त्वविपर्यस्तधियो दुष्टस्वेनोपाददते, नापि दुष्टं 15 गुणवस्वेन ---तस्वसं० प० पृ० ८७३-४ ।
१०.११. पं० ६. 'अमाया अपि-नुलना--"अमूर्तीया अपि चेतनाशमंदिरामदनको. द्रवादिभिराकरणोपपत्त: ।”–प्रमेवर० पृ० ५६ ।
१०. ११. पं० ६. 'वर्षातपा'-नुलना-"तदुक्तं-वर्षातफा"---गमती २. २. २६ । न्यायम
पृ०.११.५० १७. 'ननु प्रमाणाधीना-नुलना ."प्रमेयसिद्धि प्रमाणाद्धि । ...पारस्यका० ४ । पृ० ११.५० २७. 'विधावेव-तुलना-जमि० १.२.१३
पृ०.१२. पं० १. 'प्रज्ञाया अतिशय -तुलना.-"यदिदमतीतानागतप्रत्युत्पन्न प्रत्येकसमुचयातीन्द्रियग्रहणमल्पं बतिति सर्वज्ञवीजम्, एतद्धि वर्धमान यत्र निरतिशयं स सर्वशः। अस्ति काष्ठाप्राप्ति: सर्वज्ञवीशस्य सातिशयत्वात् परिमाणवदिति, यत्र काष्ठाप्राप्तिानस्य स सर्वज्ञ: म 25 * पुरुषविशेष इति । ...योगमा० १. २५ । तत्त्ववै० १. २५ ।
पृ०.१२. पं० ३. मूक्ष्मान्तरित-तुलना-श्राप्नर्मा० का० ५। पृ. १२. पं० ४. 'ज्योतिान' तुलना
"ग्रहाधिगतयः सर्वाः सुखदुःखादिहेतवः । येन साक्षात्कृतास्तेन किम साक्षात्कृतं जगत् ।
आत्मा योऽस्य प्रवक्तायम्परालीढसत्पथः । नात्यक्षं यदि जानाति नोपदेष्टुं प्रवर्तते ॥
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________ AR A प्रमायामीमांसाया; [पृ० 12, पं० 14. . शाखे दुरवगाहार्यतत्त्वं राष्ट्र हि केवलम् / ज्योतिर्मानादिवत् सर्प स्वत एव प्रणेभिः / / -न्याययि० 3. 28, 75, 80 / "ज्योतिर्ज्ञान ज्योतिशास्त्रम्, मादिशब्दादायुर्वेदादि संग सवयथा ज्योति:शावादी सत्ता सष्ट हैसदर्शनस्य समर्थितस्यात् बद्वदन्यदपि सर्व सतह मेवान्यथा तद्विक्यानुपदेगालिङ्गानन्वयव्यतिरेकाविसम्हादिशासप्रायनानुपपसः / -न्याषिक टी० लि. पृ०. 563 / 10. 12. पं० 17. सर्वमस्ति'-गुलना-स्थाद्वादम का. 14 / "सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् / असदेव विपर्यासात् न चेन व्यवतिष्ठते ।।"-प्राप्तमी० का० 15 / / "स्वरूपपररूपाभ्यां नित्यं सदसदात्मके ! वस्तुनि ज्ञायते कैश्चिद्र किंचित् कदाचन / / श्लोकश्रा० अभाव. श्ला० 12 / पू०. 12. पं० 27. 'झानममति'-तुलना-शास्त्रा० 3.2 / "इतिहासपुराणेषु ब्रह्मादियोपि सर्ववित् / भानमविषं यस्य वैराग्य चेति कीर्तितम् / / " तस्वसं० फा० 3166 / 10. 12. 50 30. 'यत्कुमारिला'-तुलना-" एतावत्कुमारिलेनोक्त पूर्वपक्षीकृतम् .. 1 तस्वसं 0 50 पृ०८३६-४ | पू०.१३.६० 1. 'माः सर्वत-यहाँ था. हेमचन्द्र ने कुमारिल के प्रति जैसा साम्प्रदायिक रोष व्यक्त किया है वैसा ही कुमारिख, शहराचार्य प्रादि ने बुख मादि के प्रति व्यक्त किया है। -"EREर्माविकमेव च मेन त्रिय सता प्रवक्तत्वप्रविणही प्रविपत्री स धर्ममविप्लुसमुपदेस्यतीति क: समाभास: "तन्त्रवा० पृ. 116 // s alimoniashlusivisimiligminenimiriNitrintainstitional 20 पृ० 14. पं०८ 'बापकामावा-इस सूत्र का जो विषय है उसे विस्तार और पारीको के साथ समझने के वास्ते तवसंग्रह की 'प्रतीन्द्रियदर्शिपुरुवपरीक्षा का-घोविताखिलवस्तुः स्यादित्यत्रोक्तं न पायकम्" ( का० 3266 } से-"तस्मात्सर्वज्ञसदभाषबाधक नास्ति किचन ( का० 3307) सक का भाग पत्रिका सहित खास देखने योग्य है, जो मीमांसको के पूर्वपन का खासा जबाव है। पृ०. 14. 50 5. 'सुनिश्चिता'-तुलना-श्राप्तप, का० 16 / "दस्ति सुनिश्चिवासभाषकप्रमाणत्वात् सुखादिवत-सी elammaNHAREine HRIRRRRRRRRRRRRRRRRRIORIES AMRRRRRRRRRRRRE REETERRRRIKARLESBIAARI ARRRRRRRRRRRRRRRARIRRRRRRE MINIMiniviviwwwwINRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRREE HAMARAHMIRIRRRRRRRIA MIMARRARAMMARRIERMERRIERRRRRRRRRRE AMMARRAAMANNA RIMARIAARAMMMMMMMMMMARITALIORRORIODI CICICIA