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बास स्वरूप
मात्र ही मानता है और बौद्ध दर्शन की तरह ज्ञान की निद्रव्यकधारामात्र । जैनाभिमत समय चेतन तत्व मध्यम परिमाण वाले और संकोच-विस्तारशील होने के कारण इस विषय में बड़ द्रव्यों से अत्यन्त विलक्षण नहीं । न्याय-वैशेषिक और योगदर्शन मानते हैं कि आत्मत्व या चेतनत्व समान होने पर भी जीवात्मा और परमात्माके बीच मौलिक भेद है अर्थात् जीवात्मा कभी परमात्मा या ईश्वर नहीं और परमात्मा सदा से ही परमात्मा या ईश्वर है कभी जीव-- बन्धनवान नहीं होता । जैन दर्शन इससे बिलकुल उल्टा मानता है ताकि वेदान्त आदि मानते हैं । वह कहता है कि जीवात्मा और ईश्वर का कोई सहज भेद नहीं। सब जीवात्माओं में परमात्मशक्ति एक-सी है जो साधन पाकर व्यक्त हो सकती है और होती भी है । अलबत्ता जैन और वेदान्त का इस विषय में इतना अन्तर अवश्य है कि बेदान्त एकपरमात्म्बादी है जब जैनदर्शन चेतन बहुत्ववादी होने के कारण तात्त्विकरूप से बहुपरमात्मवादी है।
जैन परम्परा के तस्वप्रतिपादक प्राचीन, अर्वाचीन, प्राकृत, संस्कृत कोई भी ग्रन्ध क्यों न हो पर उन सबमें निरूपण और वर्गीकरण प्रकार भिन्न भिन्न होने पर भी प्रतिपादक दधि और प्रतिपाद्य प्रमेय, प्रमाता आदि का स्वरूप वही है जो संक्षेप में ऊपर स्पष्ट किया गया। 'प्रमाणमीमांसा' भी उसी जैन दृष्टि से उन्ही जैन मन्तव्यों का हार्द अपने ढंग से प्रगट करती है।
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$ २. बाह्य स्वरूप। प्रस्तुत 'प्रमाणमीमांसा' के बाल स्वरूप का परिचय निम्न लिखित मुद्दों के वर्णन से हो सकेगा--शैली, विभाग, परिमाण, और भाषा ।
प्रमाणमीमांसा सूत्रशैली का ग्रन्थ है। वह कणाद सूत्रों या तत्त्वार्थ सूत्रों की तरह न दश अध्यायों में है, और न जैमिनीय सूत्रों की तरह बारह अध्यायों में । बादरायण सूत्रों की तरह बार अध्याय भी नहीं और पातञ्जल सूत्रों की तरह मात्र चार पाद ही नहीं। वह अक्षपाद के सूत्रों की तरह पांच अध्यायों में विभक्त है और प्रत्येक अध्याय कणाद या अक्षपाद के अध्याय की तरह दो दो आदिकों में परिसमाप्त है । हेमचन्द्र ने अपने जुदे २ विषय के प्रन्थों में विभाग के जुदे जुदे क्रम का अवलम्बन करके अपने समय तक में प्रसिद्ध संस्कृत बाङ्मय के प्रतिष्ठित सभी शाखाओं के प्रन्थों के विभाग क्रम को अपने साहित्य में अपनाया है। किसी में उन्होंने अध्याय और पाद का विभाग रखा, कहीं अध्यायमात्र का और कही पर्य, सर्ग काण्ड आदि का । प्रमाणमीमांसा तर्क अन्य होने के कारण उसमें उन्होंने अक्षपाद के प्रसिद्ध न्यायसूत्रों के अध्याय-आहिक का ही विभाग रखा, जो हेमचन्द्र के पूर्व अकलह ने जैन वाङ्मय में शुरू किया था।
प्रमाणमीमांसा पूर्ण उपलब्ध नहीं। उसके मूलसूत्र भी उतने ही मिलते हैं जितनों की वृत्ति लभ्य है । अतएव अगर उन्होंने सब मूलसूत्र रचे भी हो तब भी पता नहीं चल सकता कि उनकी कुल संख्या कितनी होगी। उपलब्ध सूत्र १०० ही हैं और उतने ही सूत्रों की
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