________________
प्रमायमीमांसाया:
[पृ० ४. पं० १६
R TwimmiNSARNIRMER
i t
मीमांसक को प्रभाकरीय और कुमारिलीय दोनो परम्परामों में भी धारावाहिक ज्ञानों का प्रामाण्य ही स्वीकार किया है। पर दोनों ने उसका समर्थन भिन्न-भिन्न प्रकार से किया है। प्रभाकरानुगामी शालिकनाथ' 'कालकला' का भान बिना माने ही 'अनुभूति' होने मात्र से उन्हें प्रमाण कहते हैं, जिस पर न्याय-वैशेषिक परम्परा की छाप स्पष्ट है। 5 कुमारिलानुगामी पार्थसारथिर, 'सूक्ष्मकालकला' का भान मानकर ही उनमें प्रामाण्य का
उपपादन करते हैं क्योंकि कुमारिलपरम्परा में प्रमाणलक्षण में 'अपूर्व' पद होने से ऐसी कल्पना बिना किये 'धारावाहिक' ज्ञानों के प्रामाण्य का समर्थन किया नहीं जा सकता। इस पर बौद्ध और जैन कल्पना की छाप जान पड़ती है।
बौद्ध-परम्पग में यद्यपि धर्मोसर ने स्पष्टतया 'धारावाहिक' का उल्लेख करके तो कुछ 10 नहीं कहा है, फिर भी उसके सामान्य कथन से उसका मुकाव धारावाहिक को अप्रमाण
मानने का ही जान पड़ता है। हेतुबिन्दु की टोका में अर्चद ने 'धारावाहिक के विषय में अपना मन्तव्य प्रसंगवश स्पष्ट बतलाया है। उसने योगिगत 'धारावाहिक' ज्ञानों को तो 'सूक्ष्म कालकला' का भान मानकर प्रमाण कहा है। पर साधारण प्रमातानों के धारा
वाहिकों को सूचमकालभेदमाहक न होने से अप्रमाश ही कहा है। इस तरह बौद्ध पर15 परा में प्रमाला के भेद से 'धारावाहिक' के प्रामाण्य-अप्रामाण्य का स्वीकार है।
RINAMRATARISMS
a
i A
m ssipatientistrea
MHTRATIसरकलSONAMOHAM लावर
१ "धारावाहिक रविज्ञानानि स्मृतिप्रमाणादविशिष्टानि कथं प्रमाणानि?। सत्राह-अन्योन्यनिरपेक्षास्तु धारावाहिकबुद्धयः। च्याप्रियमाणे हि पूर्व विज्ञानकारणकलाप उत्तरेषामव्युत्पत्तिरिति न प्रतीतित उत्पत्तितो वा धारावाहिकविज्ञानानि परस्परस्यातिशेरत इति युक्ता सघामपि प्रमाणता ।"-प्रकरणय पृ० ४२-४३. वृहतीप० पृ० १०३.
२ मिन्नेवं धारावाहिकेषुत्तरेषां पूर्वगृहीतार्थविषयकत्वादप्रामाण्यं स्यात् । तस्मात् 'अनुभूतिः प्रमाणम्' इति प्रमाणलक्षणम् । ., तस्मात् यथार्थमगृहीतग्राहि ज्ञान प्रमाणमिति वक्तव्यम् । धारावाहिकेत्र'युत्तरोत्तरेषां कालान्तरसम्बन्धस्याग्रहीतस्य ग्रहणाद् युक्त प्रामाण्यम् । सनधि कालभेदोऽलिसूत्रमत्यान्न परामृष्यत इति चेत् : अहो सूक्ष्मदशी देवानांप्रियः ! यो हि समानविषयमा विज्ञानधारवा चिरमवस्थायोपरतः सेोऽनन्तरक्षणसम्बन्धितयार्थ स्मरति । तथाहि-किमत्र घटोऽवस्थित इति पृधः कथयति-अस्मिन् क्षणे मयो फलब्ध इति । तथा प्रातरारभ्यैतावत्कालं मयापलब्ध इति । कालभेदे पगृहीते कथमेवं वदेत् । तस्मादस्ति कालभेदस्य परामर्शः। तदाधिक्याच सिद्धमुत्तरेषां प्रामाण्यम । -शास्त्रदी० पृ० १२४-१२६.
३ "अत एव अनधिगतविषयं प्रमाणम् । येनैव हि शानेन प्रथममधिगतोऽर्थः तेनैव प्रवर्तितः पुरुषः प्रापितश्चार्थः तत्रैवार्थे किमन्येन ज्ञानेन अधिक कार्यम् । ततोऽधिगतविषयमप्रमाणन " न्यायबि० टी०. पृ०३.
"यदैकस्मिन्नेव नीलादिवस्तुनि धारावाहीनीन्द्रियशामान्युत्पद्यन्ते तदा पूर्वेणाभिभूयोगक्षेमत्त्वात् उत्तरेषामिन्द्रियज्ञानानामपामाण्यप्रसङ्गः । न चैवम् , अतोऽनेकान्त इति प्रमाणसंप्लववादी दर्शयन्नाह पूर्वप्रत्यक्षक्षणेन इत्यादि । एतत् परिहरति-तद् यदि प्रतिक्षणं क्षणविवेकदर्शिनोऽधिकल्याच्यते तदा भिन्नोपयोगितया पृथक् प्रामाण्यात् नानेकान्तः। श्रथ सर्वपदायवेकत्वाध्यायसायिनः सांध्यबहारिकान् पुरुषानभिप्रेत्याच्यते तदा सकलमेव नीलसन्तानमेकम स्थिररूपं तत्साध्या चाकियामेकात्मिकामध्यवस्यन्तीति प्रामाण्यमान्वुत्तरेषामनिष्टमेदेति कुतोऽनेकान्तः ? --हेतु. टी.लि. पृ० ३६ B-A.
.....singhvane.veoodia.duismilestinidiandesiasi .