________________
पृ. ४. पं० १६.]
भाषाटिप्पणानि । प्र. ३. पं० १६. 'बटमहं जानामि तुलना- घमहमात्मना वेनि। कर्मक्त् कत करणक्रियाप्रतीते: ।-परी. १.८, ६.
पृ० ३. पं० १७. 'न च अप्रत्यक्षोपलम्भस्य -तुलना-"सदाह-धर्मकीर्सि: 'अप्रत्यक्षो.' न्यायत्रि० टी० लि. पृ० १०६ B; पृ० ५४२ B. "अप्रसिद्धोपलम्भस्य नार्थ वित्तिः प्रसिद्धयति" तरणसं ० का २०७४.
पृ० ३. पं० २२ 'तस्मादोन्मुख'-तृलना--"स्वान्मुखतया प्रतिभासने स्वस्थ व्यवसायः । अर्थस्येव तदुन्मुखतया ।" परी० १, ६, ७.
पृ० ५.५० १०. 'स्वनिर्णय-पा० हेमचन्द्र ने अपने लक्ष में 'स्व' पद जो पूर्ववर्ती सभी जैनाचार्यों के लक्षण में वर्तमान है इसे जब नही रखा तब उनके सामने प्रश्न उपस्थित हुआ कि क्या प्राचीन प्राचार्यसंमन स्वप्रकाशस्त्र' इष्ट न होने से 'स्व'पद का त्याग करते 10 हो या अन्य किसी दृष्टि से १ । इसका उत्तर उन्होंने इस सूत्र में दिया कि ज्ञान तो 'स्वप्रकाश ही है पर व्यावसक न होने से लक्षण में उसका प्रवेश अनावश्यक है। ऐसा करके अपना विचारस्वातंत्र्य उन्होने दिखाया और साथ ही वृद्धों का खण्डन न करके स्वापदप्रयोग की उनकी दृष्टि दिखाकर उनके प्रति आदर भी व्यक्त किया।
.
पृ. ४. पं० १५ 'ननु च परिच्छिनमधम-नृलना-"अधिगस चार्थमधिगमयता प्रमाणेन 13 पिष्टं पिदं स्यात् । -न्यायवा • पृ० ५.
पृ० ४. पं० १६, 'धारावाविज्ञानानाम-भारतीय प्रमाणशास्त्रों में स्मृति के प्रामाण्य-अप्रामाण्य की चर्चा प्रथम से ही चली पाती देखी जाती है पर धारावाहिक सानो के प्रामाण्य-प्रामाण्य की चर्चा संभवत: बौद्ध परम्परा में धर्मकीत्ति बाद दाखिल हुई। एक बार प्रमामशास्त्रों में प्रवेश होने के बाद तो फिर वह मर्वदर्शनव्यापी हो गई और १) इसके पक्ष-प्रतिपक्ष में युक्तियाँ तथा वाद स्थिर हो गये और खास-खास परम्पराएँ बन गई।
वाचस्पति, श्रीधर, जयन्त, उदयन आदि सभो' भ्याय-वैशेषिक दर्शन के विद्वानों ने 'धारावाहिका ज्ञान का अधिगतार्थक कहकर भी प्रमाण ही माना है और उनमें 'सूपमकाल. कला' के भान का निषेध ही किया है। अन्नपत्र उन्होंने प्रमाण लक्ष में 'अनधिस' 25 प्रादि पद नहीं रक्खे ।
१ "अनधिगतार्थगन्तृत्व च धागवाहिकायज्ञानानामधिगतागाचगणः लोकसिद्धप्रमाणभावानां प्रामाण्यं विहन्तीति नाद्रियामहे। न च कालभेदेनानाधिगतगोचरत्वं धारावाहिकानामिति युक्तम् । परमसूक्ष्माणां कालकलादिभेदानां पिशिललोचनरस्मादशैरनाकलनात् । न चायनव विज्ञान नोपदर्शितस्वादर्थस्य प्रवर्तितत्वात् पुरुपस्य प्रापितत्यायोत्तरेवामप्रामारवनंब जानानामिलि वाथ्यम् । नांह विज्ञानत्यार्थप्राप प्रवर्तनादन्यद्, न च प्रवर्तनमर्थप्रदर्शनादन्यत् । तस्मादर्थप्रदर्शनमाध्यागरमेव ज्ञानं प्रवत्त के प्रापकं च । प्रदर्शन च पूर्ववदुत्तरेषामपि विज्ञानानामभिन्नमिति कथ पूर्वमेव मार नोत्तराण्याप ।'-तारपर्य० पृ०२१. कन्दली पृ० ६१. न्यायम० पृ. २२. न्यायकु०४.१ ।