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प्रमाथामीमांसाया:
[पृ०४, पं०१८
श्वेताम्बर आचार्यों में भी प्रा० हेमचन्द्र की खास विशेषता है क्योंकि उन्होंने गृहीत. माही और प्रोष्यमाणमाही दोनों का समत्व दिखाकर सभी धारावाहिज्ञानों में प्रामाण्य का जो समर्थन किया है वह स्वास मार्के का है ।
पृ० ४. पं० १८. 'तत्रापूर्वार्थ-तुलमा-हेतु वि० टी० लि. पृ० ८७.
पृ० ४.५० १८ ग्रहीष्यमाण'-'बम्मधिगत' या 'अपूर्व' पद जो धर्मोत्तर अकलंक, माणिक्यनन्दी प्रादि के लक्षवाक्य में है उसको आ० हेमचन्द्र ने अपने लक्षगन में जब स्थान नहीं दिया तब उनके सामने यह प्रश्न आया कि 'धारावाहिक' और 'स्मृति आदि शान जो अधिगतार्थक या पूर्वार्थक हैं और जिन्हें अप्रमाया समझा जाता है उनको प्रमाण मानते हो या
अप्रमाग ?। यदि अप्रमाण मानते हो तो सम्यगर्थ निर्णयरूप लक्षण अतिव्याप्त हो जाता है। 10 अतएव 'अनधिगत' या 'अपूर्व पद लक्षमा में रखकर 'प्रतिव्याप्ति का निरास क्यों नहीं
करते है। इस प्रश्न का उत्तर इस सूत्र में प्रा. हेमचन्द्र ने उक्त शान का प्रामाण्य स्वीकार करके ही दिया है। इस सूत्र की प्रासादिक और अर्थपूर्ण रचना हेमचन्द्र की प्रतिभा और विचारविशदता की योतिका है। प्रस्तुत अर्थ में इतना संश्चिम, प्रसन्न और सयुक्तिक वाक्य अभी तक अन्यत्र देखा नहीं गया।
पृ. ४. पं० २०. 'द्रव्यापेक्षया-यद्यपि न्यायावतार की टीका में सिद्धर्षि ने भी अनधिगत विशेषमा का वण्डन करते हुए द्रव्यपर्याय रूप से यहाँ जैसे ही विकल्प उठाये हैं तथापि वहाँ पाठ विकल्प होने से एक तरह की जटिलता प्रा गई है । आ० हेमचन्द्र ने अपनी प्रसन्न पार संक्षिप्त शैली में दो विकल्पों के द्वारा ही सब कुछ कह दिया है। सरवोपतत्र 'प्रन्थ के
भवलोकन से और प्रा. हेमचन्द्र के द्वारा किये गये उसके अभ्यास के अनुमान से एक बात 20 कल्पना में प्राती है। वह यह कि प्रस्तुत सूत्रगत युक्ति भार शब्दरचना दोनों के स्कुरा का
निमित्त शायद प्रा. हेमचन्द्र पर पड़ा हुआ तस्वोपप्लव का प्रभाव ही हो।
पृ० ५.५० * 'श्रनुभयात्र-संशय के उपलभ्य लक्षणों को देखने से जान पड़ता है कि कुछ तो कारणमूलक हैं और कुछ स्वरूपमलक । माद, पक्षपाद और किसी बौद्ध-विशेष के
१. "तत्रापि सोऽधिगम्योऽर्थः किं द्रव्यम्, उत पर्याया वा, द्रव्यविशिधपर्यायः, पर्यायविशिष्ट वा द्रव्यमिति, तथा कि सामान्यम्, उत्त विशेषः, प्राहीस्वित् सामान्यविशिष्ट विशेषः, विशेषविशिष्टं वा सामान्यम् इत्यष्टी पक्षाः । भ्याया० सिटी०पू०१३.
२. "अन्ये तु अनधिमतार्थगन्तृत्वेन प्रमाणलक्षणमभिदधति, ते स्पयुक्तवादिनो द्रष्टव्याः । कथमयुक्त. पादिता तेषामिति चेत्, उभ्यते--विभिनकारकोत्पादिलैकार्थविज्ञानानां बथाव्यवस्थितैकार्थग्रहीतिरूपत्वाविशेषेपि पूर्वोत्रविज्ञानस्य प्रामाण्य मोत्तरस्य इत्यत्र नियामकं वक्तव्यम् । अथ यथावस्थितार्थहीतिरूपत्वाविशेषेपि प्रोल्पद्रविज्ञानस्य प्रामाश्यमुपपद्यते न प्रथमोप्सरविज्ञानस्यः तदा अनेनैव न्यायेन प्रथमस्थाप्यमामार प्रसत्तम, गृहीतार्थग्राहित्याविशेषात् । -तस्वी० लि. पू. ३०.