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प्रमाणमीमांसायाः
[ पृ० २. पं०७
के व्याख्याकार 1 वह भाष्य तथा उसके आधारभूत सूत्र, पदार्थों के उद्देश एवं लक्षणात्मक हैं, उनमें परीक्षा का कहीं भी स्थान नहीं है जब कि वात्स्यायन के व्याख्येय मूल न्यायसूत्र ही स्वयं उद्देश, लक्षण और परीक्षाक्रम से प्रवृत्त है। त्रिविध प्रवृतिवाले शास्त्रों में avara aण्डन-मण्डन प्रणाली अवश्य होती है-जैसे न्यायसूत्र उसके भा 5 आदि में द्विविध प्रवृत्तिवाले शास्त्रों में बुद्धिप्रधान स्थापनप्रणाली मुख्यतया होती है जैसे कणादसूत्र, प्रशस्तपादभाष्य, तस्वार्थसूत्र, उसका भाष्य आदि । कुछ ग्रन्थ ऐसे भी हैं जो श्रद्धाप्रधान होने से उन्हें मात्र केवल उद्देशमात्र हैं जैसे जैनागम स्थानांग, धर्मसंग्रह आदि । धारणायोग्य समझना चाहिए ।
to हेमचन्द्र ने वात्स्यायन का हो पदानुगमन करीब-करीब उन्हीं के शब्दों में 10 किया है।
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शास्त्रप्रवृत्ति के चतुर्थ प्रकार विभाग का प्रश्न उठाकर अन्त में उद्योतकर ने न्यायवार्तिक में और जयन्त ने न्यायसहजरी में विभाग का समावेश उद्देश में ही किया है और I प्रा० हेमचन्द्र ने भो विभाग के बारे में वही त्रिविध प्रवृत्ति का ही पक्ष स्थिर किया है प्रश्न उठाया है और समाधान भी वही किया है।
पृ० २ ० ७ 'उद्दिस्य' - 'लक्षण' का लक्षण करते समय आ० हेमचन्द्र ने 'असा उसका स्पष्टीकरण नव्यन्यायप्रधान तर्कसंग्रह
धारणधर्म' शब्द का प्रयोग किया है ।
को टीका दीपिका में इस प्रकार है
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एतदूषणत्रय ( अव्यापत्यतिव्यापत्यसंभव ) रहितो धर्मो लचणम् । सानादिमम | a warsarartrधर्म इत्युच्यते ।
यथा गोः लच्यतावच्छेदकसम नियतत्वमसा
20 धारयत्वम् " पृ०१२ |
पृ० २. पं० १२. 'पूजितविचार' - वाचस्पति मिश्र ने 'मीमांसा' शब्द को पूजितविचारares कहकर विचार की पूजितता स्पष्ट करने को भामती में लिखा है कि-जिस विचार का फल परम पुरुषार्थ का कारणभूत सूक्ष्मतम अर्थनिय हो वही विचार पूजित है । आ० हेमचन्द्र ने वाचस्पति के उसी भाव को विस्तृत शब्दों में पल्लवित करके अपनी मीमांसा' 25 शब्द की व्याख्या में उतारा है, और उसके द्वारा 'प्रमाणमीमांसा अन्य के समय मुख्य प्रतिपाद्य विषय को सूचित किया है, और यह भी कहा है कि- 'प्रमाणमीमांसा' ग्रन्थ का उद्देश्य केवल प्रमाणों की चर्चा करना नहीं है किन्तु प्रमाशा, नय और सोपाय बन्ध-मोच इत्यादि परमपुरुषार्थोपयोगी विषयों की भी चर्चा करना है ।
१ "त्रिविधा चास्य शास्त्रस्य प्रवृत्तिरित्युक्तम्, उद्दिष्टविभागश्च न त्रिविधायां शास्त्रप्रवृत्तावन्तभवतीति । तस्मादुद्दिष्टविभागो युक्तः; न; उद्दिष्टविभागस्यादेश एवान्तर्भावात् । कस्मात् ? । लक्षणसामान्यात् । समानं लक्षण नामधेयेन पदार्थाभिधानमुद्देश इति ।" न्यायवा० १. १. ३. न्यायम० पृ० १२. परमपुरुषार्थ हेतुभूतसूक्ष्मतार्थनिर्णयफलता च २ " पूजितविचारो मीमांसाशब्दः । विचारस्य पूजितता"-भामती० पृ० २७.