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भारतीय प्रमाणशास्त्र में प्रमाणमीमांसा का स्थान उत्पति के पहले भी शक्ति रूप से या कारणामेद दृष्टि से कार्य सत् कहा जा सकता है। शक्ति रूप से सत् होने पर भी उत्पादक सामग्री के अभाव में वह कार्य भाविभूत या उत्पन्न न होने के कारण उपलब्ध नहीं होता, इसलिए वह असत् भी है। तिरोभाव दशा में अब कि कटक उपलब्ध नहीं होता तब भी कुण्डलाकारधारी सुवर्ण कटक रूप बनने की योग्यता रखता है इसलिए उस दशा में असत् भी कटक योग्यता की रष्टि से सुवर्ण में सत् कहा जा सकता है।
बौद्धों का केवल परमाणु-पुष-वाद और नैयायिकों का अपूर्वावयवी वाद ये दोनों आपस में टकराते हैं। पर अनेकान्तहष्टि ने कन्ध का-जो कि न केवल परमाणु-पुञ्ज है और न अनुभववाधित अवयवों से भिन्न अपूर्व अवयकी रूप है-स्वीकार करके विरोध का समुचित रूप से परिहार व दोनो वादों का निर्दोष समन्वय कर दिया है। इसी तरह अनेकान्तदृष्टि ने अनेक विषयों में पवर्तमान विरोधी वादों का समन्वय मध्यस्थ भाव से किया है। ऐसा करते समय अनेकान्तवाद के आसपास नयवाद और भगवाद आप ही आप फलित हो जाते हैं। क्योंकि जुदे जुदे पहल या दृष्टिबिन्दु का पृथक्करण, उनकी विषयमर्यादा का विभाग और उनका एक विषय में यथोचित विन्यास करने ही से अनेकान्त सिद्ध होता है।
मकान किसी एक कोने में पूरा नहीं होता। उसके अनेक कोने भी किसी एक ही दिशा में नहीं होते। पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण आदि परस्पर विरुद्ध दिशा वाले एक-एक कोने पर खड़े रहकर किया जाने वाला उस मकान का अवलोकन पूर्ण तो नहीं होला, पर यह अयथार्थ भी नहीं । जुदे जुदे संभावित सभी कोनों पर खड़े रह कर किये जाने वाले सभी संभावित अवलोकनों का सार समुच्चय ही उस मकान का पूरा अवलोकन है। प्रत्येक कोण संभवी प्रत्येक अवलोकन उस पूर्ण अवलोकन के अनिवार्य अंग है। वैसे ही किसी एक वस्तु या समग्र विश्व का ताविक चिंतन-दर्शन भी अनेक अपेक्षाओं से निष्पन्न होता है। मन की सहज रचना, उस पर पड़ने वाले आगन्तुक संस्कार और चिन्स्य वस्तु का स्वरूप इत्यादि के सम्मेलन से ही अपेक्षा बनती है। ऐसी अपेक्षाएँ अनेक होती हैं, जिनका आश्रय लेकर वस्तुका विचार किया जाता है। विचार को सहारा देने के कारण या विचार स्रोत के उदगम का आधार बनने के कारण ने ही अपेक्षाएँ दृष्टिकोण या दृष्टिबिन्दु भी कही जाती है। संभावित सभी अपेक्षाओं से-चाहे वे विरुद्ध ही क्यों न दिखाई देती हो-किये जाने वाले चिंतन ५ दर्शनों का सार समुच्चय ही उस विषय का पूर्ण-अनेकान्त दर्शन है। प्रत्येक अपेक्षासंभवी दर्शन उस पूर्ण दर्शन का एक एक अर है जो परस्पर विरुद्ध होकर भी पूर्ण दर्शन में समन्वय पाने के कारण वस्तुतः अविरुद्ध ही है।
जब किसी की मनोवृत्ति विश्वके अन्तर्गत सभी भेदों को-चाहे वे गुण धर्म या स्वरूप कृत हो या व्यक्तित्व कृत हो-मुला कर अर्थात् उनकी ओर झुके बिना ही एक मात्र अखण्डता का ही विचार करती है, तब उसे अस्खण्ड था एक ही विश्व का दर्शन होता है। अभेद की उस भूमिका पर से निष्पन्न होने वाला 'सत्' शब्द के एक मात्र अखण्ड अर्थ का दर्शन
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