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प्रस्तावना
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दोनों पहलू अपनी-अपनी कक्षा में यथार्थ होकर भी पूर्ण तभी बनते हैं जब समन्धित किये जायें। वैसे ही अनादि-अनन्त कालप्रवाह रूप वृक्ष का ग्रहण नित्यत्व का व्यञ्जक है और उसके घटक अंशो का ग्रहण अनित्यत्व या क्षणिकत्व का द्योतक है । आधारभूत नित्य-प्रवाह के सिवाय न तो अनित्य घटक सम्भव है और न अनित्य घटको के सिवाय वैसा नित्य प्रवाह ही । अतएव एकमात्र नित्यत्व को या एकमात्र अनित्यत्व को वास्तविक कह कर दुसरे विरोधी अंश को अवास्तविक कहना ही नित्य अनित्यवादों की रकर का बीज है जिसे अनेकान्तदृष्टि हटाती है
अनेकान्तदृष्टि अनिर्वचनीयत्व और निर्वचनीयत्व वाद की पारस्परिक टनर को भी मिटाती है । वह कहती है कि वस्तु का वही रूप प्रतिपाय हो सकता है जो संकेत का विषय बन सके। सूक्ष्मतम अद्धि के द्वारा किया जानेवाला संकेत भी मधुल अंश को ही विषय पर सकता है । वस्तु के ऐसे अपरिमिल भाव हैं जिन्हें संकेत के द्वारा शब्द से प्रतिपादन करना संभव नहीं। इस अर्थ में अखण्ड सत् या निरंश क्षण अनिर्वचनीय ही है जब कि मध्यवर्ती स्थूल भाव निर्वचनीय भी हो सकते हैं। अतएव समग्र विश्व के या उसके किसी एक तत्त्व के बारे में जो अनिर्वचनीयत्व और निर्वचनीयत्व के विरोधी प्रवाद है वे वस्तुतः अपनीअपनी कक्षा में यथार्थ होने पर भी प्रमाण तो समूचे रूप में ही हैं।
एक ही वस्तु की भावरूपता और अभावरूपता भी विरुद्ध नहीं । मात्र विधिभुख से या मात्र निषेधमुख से ही वस्तु प्रतीत नहीं होती। दुध, दुध रूप से भी प्रतीत होता है और अदधि या दधिभिन्न रूप से भी। ऐसी दशा में वह भाव-अभाव उभय रूप सिद्ध हो जाता है और एक ही वस्तु में भावस्व या अभावत्व का विरोध प्रतीति के स्वरूप भेद से हट जाता है। इसी तरह धर्म धर्मी, गुण-गुणी, कार्य-कारण, आधार-आषेय आदि इन्द्रों के अभेद और भेद के विरोध का परिहार भी अनेकान्त दृष्टि कर देती है।
जहाँ आप्तत्व और उसके मूल के प्रामाण्य में संदेह हो वहाँ हेतुबाद के द्वारा परीक्षा पूर्वक ही निर्णय करना क्षेमेकर है; पर जहाँ आप्तस्व में कोई संदेह नहीं वहाँ हेतुवाद का प्रयोग अनवस्थाकारक होने से त्याज्य है। ऐसे स्थान में अगमवाद ही मार्गदर्शक हो सकता है। इस तरह विषयभेद से या एक ही विषय में प्रतिपाद्य भेद से हेतुधाद और आगमवाद दोनों को अवकाश है । उनमें कोई विरोध नहीं । यही स्थिति देव और पौरुषवाद की भी है। उनमें कोई विरोध नहीं । जहाँ बुद्धि पूर्वक पौरुष नहीं, वहाँ की समस्याओं का हल दैववाद कर सकता है। पर पौरुष के बुद्धिपूर्वक प्रयोगस्थल में पौरुषवाद ही स्थान पाता है। इस तरह जुदे जुदै पहल की अपेक्षा एक ही जीवन में देव और पौरुष दोनों बाद समन्वित किये जा सकते हैं।
कारण में कार्य को केवल सत् या केवल असत् मानने वाले वादों के विरोध का भी परिहार अनेकान्त दृष्टि सरलता से कर देती है। वह कहती है कि कार्य उपादान में सत् भी है और असत् भी ! कटक बनने के पहले भी सुवर्ण में कटक बनने की शक्ति है इसलिए
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