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प्रस्तावना
होकर मी
फिर भी
केवल कोई अविभाज्य रूप या रस आदि का अंश ही रह जाता है और अन्त में वह भी शुम्यवत् मासित होता है। जलराशि में अखण्ड एक समुद्र की बुद्धि भी वास्तविक है और अन्तिम अंश की बुद्धि भी । एक इसलिए वास्तविक है कि वह भेदों को अलग २ रूप से स्पर्श न करके सब को एक साथ सामान्यरूप से देखती है। स्थान, समय आदि कृत भेद जो एक दूसरे से व्यावृत हैं उनको अलग २ रूप से विषय करनेवाली बुद्धि भी वास्तविक है। क्योंकि वे भेद वैसे ही हैं। जलराशि एक और अनेक उभयरूप होने के कारण उसमें होनेवाली समुदबुद्धि और अंशबुद्धि अपने २ स्थान में यथार्थ कोई एक बुद्धि पूर्ण स्वरूप को विषय न करने के कारण पूर्ण प्रमाण नहीं है। दोनों मिलकर पूर्ण प्रमाण है। वैसे ही जब हम सारे विश्व को एक मात्र सत् रूप से देखें अथवा यो कहिए कि जब हम समस्त भेदों के एकमात्र अनुरुप्रथा स्वरूप का विचार करें तब हम कहते हैं कि एकमात्र सत् ही है। क्योंकि उस सर्वग्राही सा के विचार के समय कोई ऐसे भेद भासित नहीं होते जो परस्पर में व्यावृत हो । उस समय तो सारे मेद समष्टिरूप में या एक मात्र सत्ता रूप में ही भासित होते हैं। और सभी सद्-भद्वैत कहलाता है । एकमात्र सामान्य की प्रतीति के समय सत् शब्द का अर्थ भी उतना विशाल हो जाता है। कि जिसमें कोई शेष नहीं बचता। पर हम जब उसी विश्व को गुणधर्म कृतभेदों में जो कि परस्पर व्यावृत हैं, विभाजित करते हैं, तब वह विश्व एक सत् रूप से मिट कर अनेक सत् रूप प्रतीत होता है। उस समय सत् शब्द का अर्थ भी उतना ही छोटा हो जाता है। हम कभी कहते हैं कि कोई सत् जड़ भी है और कोई चेतन भी । हम और अधिक मेदों की ओर झुक कर फिर यह भी कहते हैं कि जडसत् भी अनेक हैं और चेतनस भी अनेक हैं। इस तरह जब सर्वग्राही सामान्यको व्यावर्तक भेदों में विभाजित करके देखते हैं तब हमें नाना सत् मालूम होते हैं और यही सद्-द्वैत है । इस प्रकार एक ही विश्व में प्रदूव होनेवाली सद्-अद्वैत बुद्धि और स- द्वैत बुद्धि दोनों अपने २ विषय में यथार्थ होकर भी पूर्ण प्रमाण तभी कही जायँगी जब वे दोनों सापेक्ष रूप से मिलें। यही सद्-अद्वैत और सद्-द्वैत बाद जो परस्पर विरुद्ध समझे जाते हैं उनका अनेकान्त दृष्टि के अनुसार समन्वय हुआ ।
इसे वृक्ष और वन के दृष्टान्त से भी स्पष्ट किया जा सकता है। जब अनेक परस्पर भिन वृक्ष व्यक्तियों को उस उस व्यक्ति रूप से ग्रहण न करके सामूहिक या सामान्य रूप में वन रूप से ग्रहण करते हैं तब उन सब विशेषों का अभाव नहीं हो जाता । पर वे सब विशेष सामान्य रूप से सामान्यग्रहण में ही ऐसे लीन हो जाते हैं मानो वे हैं ही नहीं। एक मात्र वन ही वन नज़र आता है यही एक प्रकार का अद्वैत हुआ। फिर कभी हम जब एक-एक वृक्ष को विशेष रूप से समझते हैं तब परस्पर भिन्न व्यक्तियाँ ही व्यक्तियाँ नजर आती हैं, उस समय विशेष प्रतीति में सामान्य इतना अन्तर्लीन हो जाता है नहीं | अब इन दोनों अनुभव का विश्लेषण करके देखा जाय तो यह कि कोई एक ही सत्य है और दूसरा असल्य। अपने अपने विषय में दोनों की सत्यता होते.
कि मानों वह है ही
नहीं कहा जा सकता