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मन्धकार का परिचय खाने से जिस प्रकार पुनः मनुष्य हो सका उसी प्रकार भक्तिसे सर्वदर्शन का माराधन करने से स्वरूप न जानने पर भी मुक्ति मिलती है, ऐसा अभिप्राय देते हैं।"
__ यह 'सर्वदर्शनमान्यता की दृष्टि साम्प्रदायिक चातुरी की थी जैसा कि डॉ० ब्युम्हर मानते हैं, अथवा सारग्राही विवेक बुद्धि में से परिणत थी इसका निर्णय करने का कोई बाप साधन नहीं है। परन्तु अनेकान्तवाद के रहस्यज्ञ हेमचन्द्र में ऐसी विवेकबुद्धि की सम्मावना है क्योंकि हेमचन्द्र और अन्य जैन तार्किक अनेकान्त को 'सर्वदर्शनसंग्रह के रूप मैं भी घटाते हैं। इसके अलावा उस युग में दूसरे सम्प्रदायों में भी ऐसी विशालहष्टि के विचारकों के दृष्टान्त भी मिलते हैं। प्रथम भीमदेव के समय में शैवाचार्य डानभिक्षु और मुविहित जैन साधुओं को पाटन में स्थान दिलानेवाले पुरोहित सोमेश्वर के दृष्टान्त 'प्रभावक चरित' में वर्णित हैं । अर्थात् प्रत्येक सम्प्रदाय में ऐसे थोड़े बहुत उदारमति माचामों के होने की सम्भावना है।
ऐसा मानने के लिए कारण लि. मारय-विजय के बर से जयसिंह की मृत्युपर्यन्त उसके साथ हेमचन्द्र का सम्बन्ध अबाधित रहा; अर्थात् वि० ० ११२१ के अन्त से वि० सं० ११९९ के आरम्भ तक लगभग सात वर्ष यह सम्बन्ध अस्खलित रहा | जयसिंह की मृत्यु के समय हेमचन्द्र की आयु ५४ वर्ष की थी। इन सात वर्षों में हेमचन्द्र की साहित्यप्रकृति के अनेक फल गुजरात को मिले ।
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आचार्य हेमचन्द्र का कुपारपाल के साथ प्रथम परिचय किस वर्ष में हुआ यह जानने का कोई साधन उपलब्ध नहीं है। 'कुमारपाल प्रतिबोध' पर से ऐसा ज्ञात होता है कि मंत्री वाग्भटदेवबाहरदेव द्वारा कुमारपाल के राज्य होने के पश्चात् वह हेमचन्द्र के साथ गाढ परिचय में आया होगा। परन्तु, डॉ. ब्युल्हर के कथनानुसार साम्राज्य निमितक युद्ध पूर्ण होनेके अनन्तर प्रथम परिचय हुआ होगा ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है । फिर भी धर्म का विचार करने का अवसर उस प्रौढवय के राजा को उसके बाद ही मिला होगा।
जयसिंह के साथ का परिचय समवयस्क विद्वान् मित्र जैसा लगता है जब कि कुमारपाल के साथ गुरु-शिष्य जैसा प्रतीत होता है। हेमचन्द्र के उपदेश से, ऐसा मालूम होता है कि, कुमारपाल का जीवन उत्तरावस्था में प्रायः द्वादश व्रतधारी श्रावक जैसा हो गया होगा । परन्तु इस पर से ऐसा अनुमान करने की आवश्यकता नहीं है कि उसने अपने कुल-देव शिव की पूजा छोड़ ही दी होगी।"
देखो सिद्धहेम--सकलदर्शनसमूहात्मकस्याद्वादसमाश्रयणम् - इत्यादि पृ. ३ और सिद्धर्षि की विभूति सहित 'भ्यायावतार' पृ. १३८ ।
२देखे काथ्यानुशासन प्रस्तावना पृ० २८३ !
३ एक ओर जिस तरच हेमचन्द्र अपने ग्रन्धों में उसे 'परमाईत' कहते हैं उसी तरह दूसरी ओर प्रभासपाटन के 'गण्ड' भाव बृहस्पति ने वि० सं० १२२९ (ई. १० ११५३) के भद्रकाली के शिलालेख में