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प्रस्तावना
ग्रन्यपरिचय।
१ आभ्यन्तर स्वरूप । प्रस्तुत अन्य प्रमाणमीमांसा का ठीक-ठीक और वास्तविक परिचय पाने के लिये यह अनिवार्य रूप से जरूरी है कि उसके भाभ्यन्तर और बाह्य स्वरूप का स्पष्ट विश्लेषण किया जाय तथा जैन तर्क साहित्य में और तदद्वारा तार्किक दर्शन साहित्य में प्रमाणमीमांसा का क्या स्थान है, यह भी देखा जाय ।
आचार्य ने जिस दृष्टि को लेकर प्रमाणमीमांसा का प्रणयन किया है और उसमें प्रमाण, प्रमाता, प्रमेय आदि जिन तत्वों का निरूपण किया है उस दृष्टि और उन तत्वों के हार्द का स्पष्टीकरण करना यही ग्रन्थ के माभ्यन्तर स्वरूप का वर्णन है। इसके वास्ते यहां नीचे लिखे चार मुख्य मुद्दों पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया जाता है .....१. जैन दृष्टि का स्वरूप, २. जैन दृष्टि की अपरिवर्तिष्णुता, ३. प्रमाण शक्ति की मर्यादा, ४. प्रमेय प्रदेशका विस्तार |
१जैन दृष्टि का स्वरूप भारतीय दर्शन मुख्यतया दो विभागों में विभाजित हो जाते हैं कुछ तो हैं वास्तववादी और कुछ है अवास्तववादी । जो स्थूल अर्थात् लौकिक प्रमाणगम्य जगत् को भी वैसा ही वास्तविक मानते हैं जैसा सूक्ष्म लोकोतर प्रमाणगम्य जगत को अर्थात् जिनके मतानुसार व्यावहारिक और पारमार्थिक सत्य में कोई भेद नहीं; सत्य सब एक कोटि का है चाहे मात्रा न्यूनाधिक हो अर्थात् जिनके मतानुसार भान चाहे न्यूनाधिक और स्पष्ट-अस्पष्ट हो पर प्रमाण मात्र में भासित होनेवाले सभी स्वरूप वास्तविक है, तथा जिनके मतानुसार वास्तविक रूप भी वाणीप्रकाश्य हो सकते हैं-वे दर्शन वास्तववादी हैं। इन्हें विधिमुख, हदमित्यवादी या एवंवादी भी कह सकते हैं-जैसे चार्वाक, न्याय-वैशेषिक, पूर्वमीमांसा, सांख्य-योग, वैभाषिकसौत्रान्तिक बौद्ध और माध्यादि वेदान्त ।
जिनके मतानुसार बा इश्य जगत् मिथ्या है और आन्तरिक जगत् ही परम सत्य है। अर्थात् जो दर्शन त्य के व्यावहारिक और पारमार्थिक अथवा सांकृतिक और वास्तविक ऐसे दो भेद करके लौकिक प्रमाणगम्य और वाणीप्रकाश्य भावको अवास्तविक मानते हैं-वे