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आभ्यन्तर स्वरूप का साद्गुण्य मानकर भी अन्तःकरण की स्वतन्त्र यथार्थशक्ति मानता है। न्याय-वैशेषिक आदि भी मन की वैसी ही शक्ति मानते हैं पर फर्क यह है कि सांख्य-योग आत्मा का स्वतन्त्र प्रमाणसामर्थ्य नहीं मानते क्योंकि वे प्रमाणसामर्थ्य बुद्धि में ही मानकर पुरुष या चेतन को निरतिशय मानते हैं। जब कि न्याय-वैशेषिक आदि चाहे ईश्वर के आत्मा का ही सही पर
आत्मा का स्वतन्त्र प्रमाण सामर्थ्य मानते हैं। अर्थात् वे शरीर-मन का अभाव होने पर भी ईश्वर में ज्ञान शक्ति मानते हैं। वैभाषिक और सौत्रान्तिक भी इसी पक्ष के अन्तर्गत हैं। क्योंकि वे भी इन्द्रिय और मन दोनों का प्रमाणसामर्थ्य मानते हैं।
५. आगमाधिपत्य पक्ष वह है जो किसी न किसी विषय में आगम के सिवाय किसी इन्द्रिय या अनिन्द्रिय का प्रमाणसामर्थ्य स्वीकार नहीं करता। यह पक्ष केवल पूर्व मीमांसक का ही है । यद्यपि वह अन्य विषयों में सांख्य-योगादि की तरह उभयाधिपत्य पक्ष का ही अनुगामी है फिर भी धर्म और अधर्म इन दो विषयों में वह आगम मात्र का ही सामर्थ्य मानता है। यद्यपि वेदान्त के अनुसार ब्रह्म के विषय में आगम का ही प्राधान्य है फिर भी वह आगमाधिपत्य पक्ष में इसलिये नहीं आ सकता कि ब्रह्म विषय में ध्यानशुद्ध अन्तःकरण का भी सामर्थ्य उसे मान्य है।
५. प्रमाणोपप्लव पक्ष वह है जो इन्द्रिय, अनिन्दिय या आगम किसी का सागुण्य या सामर्थ्य स्वीकार नहीं करता । वह मानता है कि ऐसा कोई साधन गुणसंपन्न है ही नहीं जो अबाधित ज्ञान की शक्ति रखता हो । सभी साधन उसके मत से पंगु या विप्रलम्भक हैं। इसका अनुगामी तत्त्वोपलववादी कहलाता है जो आखिरी हद का चार्वाक ही है। यह पक्ष जयराशिकृत. तत्त्वोपलय में स्पष्टतया प्रतिपादित हुआ है।
उक्त पाँच में से तीसर! उभयाधिपत्य पक्ष ही जैन दर्शन का है | क्योंकि वह जिस तरह इन्द्रियों का स्वतन्त्र सामर्थ्य मानता है इसी तरह वह अनिन्द्रिय अर्थात् मन और आत्मा दोनों का अलग अलग भी स्वतन्त्र सामथ्र्य मानता है। आत्मा के स्वतन्त्र सामर्थ्य के विषय में न्याय-वैशेषिक आदि के मन्तव्य से जैन दर्शन के मन्तव्य में फर्क यह है कि जैन दर्शन सभी आत्माओं का स्वतन्त्र प्रमाणसामर्थ्य वैसा ही मानता है जैसा न्याय आदि ईश्वर मात्र का । जैन दर्शन प्रमाणोपप्लव पक्ष का निराकरण इस लिये करता है कि उसे प्रमाणसामर्थ्य अवश्य इष्ट है। वह चार्वाक के प्रत्यक्षमात्र बाद का विरोध इस लिये करता है कि उसे अनिन्द्रिय का भी प्रमाणसामर्थ्य इष्ट है। वह विज्ञान, शुन्य और ब्रह्मा इन तीनों वादों का निरास इस लिये करता है कि उसे इन्द्रियों का प्रमाणसामर्थ्य भी मान्य है। वह आगमाधिपत्य पक्षका भी विरोधी है, सो इसलिये कि उसे धर्माधर्म के विषय में अनिन्द्रिय अर्थात् मन और आत्मा दोनों का प्रमाणसामर्थ्य इष्ट है।
४. प्रमेय प्रदेशका विस्तार जैसी प्रमाणशक्ति की मर्यादा वैसा ही प्रमेय का क्षेत्र विस्तार अतएव मात्र इन्द्रियसामर्य माननेवाले चार्वाक के सामने सिर्फ स्थूल या दृश्य विश्वका ही प्रमेय क्षेत्र रहा, जो एक
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