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आभ्यन्तर स्वरूप दृष्प्रिसृष्टिबाद आदि अनेक रूपों में और भी दृष्टि परिवर्तन व विकास हुआ। इस तरह एक तरफ बौद्ध और बेदान्त दो परम्पराओं की दृष्टिपरिवतिष्णुता और बाकी के सब दर्शनों की दृष्टि-अपरिवर्तिणुता हमें इस भेद के कारणों की खोज की ओर प्रेरित करती है ।
स्थूल जगत् को असत्य या व्यावहारिक सत्य मानकर उससे भिन्न आन्तरिक जगत् को ही परम सत्य मानने वाले अवास्तववाद का उद्गम सिर्फ तभी संभव है अब कि विश्लेषण क्रिया की पराकाष्ठा-आत्यन्तिकता हो या समन्वय की पराकाष्ठा हो । हम देखते हैं कि यह योग्यता नीड़ परा और दाल के सिवाय अन्य किसी दार्शनिक परम्परा में नहीं है। बुद्ध ने प्रत्येक स्थूल सूक्ष्म भाव का विश्लेषण यहां तक किया कि उसमें कोई स्थायी द्रव्य जैसा तत्व शेष न रहा । उपनिषदों में भी सब मेदों का-विविधताओं का समन्वय एक ब्रम-स्थिर तत्त्व में विश्रान्त हुआ । भगवान बुद्ध के विश्लेषण को आगे जा कर उनके सूक्ष्मप्रज्ञ शिष्यों ने यहां तक विस्तृत किया कि अन्त में व्यवहार में उपयोगी होने वाले अखण्ड द्रव्य या द्रव्यभेद सर्वथा नाम शेष हो गए। और क्षणिक किन्तु अनिर्वचनीय परम सत्य ही शेष रहा । दुसरी ओर शङ्कराचार्य ने औपनिषद परम अम की समन्वय भावना को यहां तक विस्तृत किया कि अन्त में भेदप्रधान व्यवहार जगत नामशेष या मायिक ही होकर रहा। बेशक नागार्जुन और शङ्कराचार्य जैसे ऐकान्तिक विश्लेषणकारी या ऐकान्तिक समन्वयकर्ता न होते तो इन दोनो परम्पराओं में व्यावहारिक और परम सत्य के भेद का आविष्कार न होता । फिर भी हमें भूलना न चाहिए कि अवास्तववादी दृष्टि की योग्यता बौद्ध और वेदान्त परंपरा की भूमिका में ही निहित रही जो न्याय वैशेषिक आदि वास्तववादी दर्शनों की भूमिका में बिलकुल नहीं है । न्याय-वैशेषिक, मीमांसक और सांख्य योग दर्शन केवल विश्लेषण ही नहीं करते बक्षिक समन्वय भी करते हैं उनमें विश्लेषण और समन्बय दोगों का समप्राधान्य तथा समानबलत्व होने के कारण दोनों में से कोई एक ही सत्य नहीं है अतएव उन दर्शनों में अवास्तववाद के प्रवेश की न योग्यता है और न संभव ही है । अतएव उनमें नामार्जुन शडराचार्य आदि जैसे अनेक सूक्ष्मप्रज्ञ विचारक होते हुए भी वे दर्शन वास्तववादी ही रहे । यही स्थिति जैन दर्शन की भी है। जैन दर्शन द्रव्य द्रव्य के बीच विश्लेषण करते करते अन्त में सूक्ष्मतम पर्यायों के विश्लेषण तक पहुँचता है सही, पर यह विश्लेषण के अन्तिम परिणाम स्वरूप पर्यायों को वास्तविक मान कर भी द्रव्य की वास्तविकता का परित्याग बौद्ध दर्शन की तरह नहीं करता । इसी तरह वह पर्यायों और द्रव्यों का समन्वय करते करते एक सत् तत्त्व तक पहुँचता है और उसकी वास्तविकता का स्वीकार करके भी विश्लेषण के परिणाम स्वरूप द्रव्य भेदों और पर्यायों की वास्तविकताका परित्याग, ब्रह्मवादी दर्शन की तरह नहीं करता। क्योकि वह पर्यायाधिक और द्रव्याथिक दोनों हटिओं को सापेक्ष भाव से तुल्यबल
और समान सत्य मानता है । यही सबब है कि उसमें भी न बौद्ध परंपरा की तरह आत्यन्तिक विश्लेषण हुआ और न वेदान्त परंपस की तरह आत्यन्तिक समन्वय । इसीसे जैन दृष्टि का वास्तववादिल स्वरूप स्थिर ही रहा ।
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