________________
प्रस्तावना तर्क-दर्शन निष्णात जैन आचार्यों ने नयवाद, सवभनी और बनेकान्तवाद की प्रबल और सह स्थापना की ओर इतना अधिक पुरुषार्थ किया कि जिसके कारण जैन और जैनेजर परंपराओं में जैन दर्शन अनेकान्त दर्शन के नाम से ही प्रतिष्ठित हुआ । और बौद्ध तथा प्रामण दार्शनिक पण्डितों का लक्ष्य भनेकान्त खण्डन की ओर गया तथा वे किसी-न-किसी प्रकार से अपने अन्यों में मात्र अनेकान्त या सप्तभङ्गी का खण्डन करके ही जैन दर्शन के मन्तव्यों के खण्डन की इतिश्री समझने लगे। इस युग की अनकान्त और तभूलक वादों की स्थापना इतनी गहरी हुई कि जिसपर उत्तरवर्ती अनेक जैनाचार्यों ने अनेकधा पल्लवन किया है फिर भी उसमें नई मौलिक युक्तियों का शायद ही समावेश हुआ है। दो सो वर्ष के इस युग की साहित्यिक प्रवृत्ति में जैन न्याय और प्रमाण शास्त्र की पूर्वभूमिका तो तैयार हुई जान पड़ती है पर इसमें उस शास्त्र का व्यवस्थित निर्माण देखा नहीं जाता । इस युग की परमतों के सयुक्तिक खण्डन तथा दर्शनान्तरीय समर्थ विद्वानों के सामने स्वमत के प्रतिष्ठित स्थापन की भावना ने जैन परंपरा में संस्कृत भाषा के तथा संस्कृतनिबद्ध दर्शनान्तरीय प्रतिष्ठित अन्धों के परिशीलन की प्रबल जिज्ञासा पैदा कर दी और उसी ने समर्थ जैन आचार्यों का लक्ष्य अपने निजी न्याय तथा प्रमाण शास्त्र के निर्माण की ओर खींचा, जिसकी कमी बहुत ही अखर रही थी।
.".'.'
....
...."...
"ntauruttamataronment * *...
३. न्याय-प्रमाणस्थापन युग उसी परिस्थिति में से अफला जैसे धुरंधर व्यवस्थापक का जन्म हुआ। संभवतः अकल ने ही पहिले-पहल सोचा कि जैन परंपरा के शान, ज्ञेय, ज्ञाता आदि सभी पदावों का निरूपण तार्किक शैली से संस्कृत भाषा में वैसा ही शास्त्रबद्ध करना आवश्यक है जैसा आक्षण और बौद्ध परंपरा के साहित्य में बहुत पहिले से हो गया है और जिसका अध्ययन अनिवार्य रूपसे जैन तार्किक करने लगे हैं। इस विचार से अकला ने द्विमुखी प्रवृत्ति शुरू की। एक ओर तो बौद्ध और ब्रामण परंपरा के महत्वपूर्ण अन्धोंका सूक्ष्म परिशीलन और दूसरी ओर समस्त जैन मन्तव्यों का तार्किक विश्लेषण । केवल परमतों का निरास करने ही से अकला का उद्देश्य सिद्ध हो नहीं सकता था। अतएव दर्शनान्तरीय शास्त्रों के सूक्ष्म परिशीलन में से और जैन मत के तलस्पर्शी ज्ञान से उन्होंने छोटे-छोटे पर समस्त अनतर्कप्रमाण शास्त्र के आधारस्तम्भभूत अनेक न्याय-प्रमाण विषयक प्रकरण रचे जो दिङ्नाग और खासकर धर्मकीर्ति जैसे बौद्ध तार्किकों के तथा उद्योतकर, कुमारिल आदि जैसे ब्रामण तार्किको के प्रभाव से भरे हुवे होने पर भी जैन मन्तव्यों की बिलकुल नये सिरे और स्वतन्त्रभाव से स्थापना करते हैं। अकलाने न्याय-प्रमाण शास्त्रका जैन परंपरा में जो प्राथमिक निर्माण किया, जो परिभाषाएँ, जो लक्षण व परीक्षण किया, जो प्रमाण-प्रमेय आदिका वर्गीकरण किया
और परार्थानुमान तथा पादकथा आदि परमत-प्रसिद्ध पस्तुओं के संबंधमें जो जैन प्रणाली स्थिर की, संक्षेप में अबतक में जैन परंपरा में नहीं पर अन्य परंपराओं में प्रसिद्ध ऐसे तर्क. शास्त्र के अनेक पदार्थों को जैनदृष्टि से जैन परंपरा में ओ सात्मीभाव किया तथा आगम सिद्ध