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भारतीय प्रमाणशास्त्र में प्रमाणमीमांसा का स्थान
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बन नहीं सकता । इस विचार से हेमचन्द्र ने एक ऐसा प्रमाण विषयक अन्थ बनाना चाहा जो कि उनके समय तक चर्चित एक भी दार्शनिक विषय की चर्चा से खाली न रहे और फिर भी वह पाठ्यक्रम योग्य मध्यम कद का हो। इसी दृष्टि में से 'प्रमाणमीमांसा' का जन्म हुआ । इसमें हेमचन्द्र ने पूर्ववर्ती आगमिक तार्किक सभी जैन मन्तम्यों को विचार व मनन से पचा कर अपने ढंग की विशद व अपुनरुक्त सूत्रशैली तथा सर्वे समाहिणी विशदतम स्वोपज्ञ वृद्धि में सन्निविष्ट किया । यद्यपि पूर्ववर्ती अनेक जैन ग्रन्थों का सुसंबद्ध दोहन इस मीमांसा में है जो हिन्दी टिप्पणों में की गई तुलना से स्पष्ट हो जाता है फिर भी उसी अधूरी तुलना के आधार से यहाँ यह भी कह देना समुचित है कि मस्तुत अन्य के निर्माण में हेमचन्द्र ने प्रधानतया किन किन अन्य अन्धकारों का आश्रय लिया है। निर्युक्ति, विशेषावश्यक भाष्य तथा aesर्थ जैसे आगमिक अन्य तथा सिद्धसेन, समन्तभद्र, अकड, माणिक्यनन्दी और विद्यानन्द की प्रायः समस्त कृतियाँ इसकी उपादान सामग्री बनी हैं। प्रभाचन्द्र के मार्तण्ड का भी इसमें पूरा असर है। अगर अनन्तवीर्य सचमुच हेमचन्द्र के पूर्ववर्ती या समकालीन वृद्ध रहे होंगे तो यह भी सुनिश्चत है कि इस ग्रन्थ की रचना में उनकी छोटीसी प्रमेयलमाला का विशेष उपयोग हुआ है। वादी देवसूरि की कृति का भी उपयोग इसमें स्पष्ट है; फिर भी जैन तार्किकों में से ones और arrrrrrrat का ही मार्गानुगमन प्रधानतया देखा जाता है । उपयुक्त जैन
थों में गाए हुए ब्राह्मण बौद्ध ग्रन्थों का उपयोग हो जाना तो स्वाभाविक ही था; फिर भी प्रमाणमीमांसा के सूक्ष्म अवलोकन तथा तुलनात्मक अभ्यास से यह भी पता चल जाता है कि हेमचन्द्र ने बौद्ध-त्राह्मण परंपरा के किन किन विद्वानों की कृतियों का अध्ययन व परिशी न विशेषरूप से किया था जो प्रमाणमीमांसा में उपयुक्त हुआ हो। दिङ्नाग, खास कर धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर, अर्चेट और शान्तरक्षित ये बौद्ध तार्किक इनके मध्ययन के विषय अवश्य रहे हैं। कणाद, मासर्वज्ञ, व्योमशिव, श्रीधर, अक्षपाद, वात्स्यायन, उद्योतकर, जयन्त, वाचस्पति मिश्र, शवर, प्रभाकर, कुमारिल आदि जुदी जुदी वैदिक परंपराओं के प्रसिद्ध विद्वानों की सब कृतियाँ प्रायः इनके अध्ययन की विषय रहीं । चार्वाक एकदेशीय जयराशि भट्ट का तस्वiप भी इनकी दृष्टि के बाहर नहीं था। यह सब होते हुए भी हेमचन्द्र की भाषा तथा निरूपण शैली पर धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर, अर्चट भासर्वच, वात्स्यायन, जयन्त, वाचस्पति, कुमारिल आदि का ही आकर्षक प्रभाव पड़ा हुआ जान पड़ता है । अतपय यह मधूरे रूप में उपलब्ध प्रमाणमीमांसा भी ऐतिहासिक दृष्टि से जैन तर्कसाहित्य में तथा भारतीय दर्शनसाहित्य में एक विशिष्ट स्थान रखती है।
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$ ४ भारतीय प्रमाणशास्त्र में प्रमाणमीमांसा का स्थान
arrate entrants में प्रमाणमीमांसा का वस्वज्ञान की दृष्टि से क्या स्थान है इसे ठीक २ मझने के लिये मुख्यतया दो प्रश्नों पर विचार करना ही होगा | जैनतार्किकों की भारतीय प्रमाणareast क्या देन है, जो प्रमाणमीमांसा में निविष्ट हुई हो और जिसको
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