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०२.५० २०]
भाषाटिप्पणानि ।
ने कहीं 'अनधिगतार्थक' और "अविसंवादिः दोनों विशेषणों का प्रवेश किया और कहीं 'स्वपरावभासक विशेषण का भी समर्थन किया है। प्रकलंक के अनुगामी माषिक्यानन्दी' ने एक ही वाक्य में 'मह' तथा 'अपूर्वार्थ पद दाखिल करके सिखसेन-समन्तभद्र की स्थापित
और अकलंक के द्वारा विकसित जैन परम्परा का संग्रह कर दिया। विद्यानन्द ने अकलंक तथा माशिक्यनन्दी की उस परंपरा से अलग होकर केवल सिद्धसेन और समन्समद्र की व्याख्या । को अपने स्वार्थव्यवसायात्मक' जैसे शब्द में संग्रहीत किया और 'अनधिगत' या 'अपूर्व पद जो अकलंक और माणिक्यनम्दी की व्याख्या में हैं, उन्हें छोड़ दिया। विद्यानन्द का व्यवसायात्मक' पद जैन परम्परा के प्रमाण लक्षण में प्रथम ही देखा जाता है पर वह प्रक्षपादरे के प्रत्यक्षलाण में खो पहिले ही से प्रसिद्ध रहा है। सम्मति के टोकाकार अभयदेव ने विद्यानन्द का ही अनुसरण किया पर 'व्यवसाय के स्थान में निर्णाति पद रक्खा | वादी५ 10 देवसूरि ने तो विद्यानंद के ही शब्दों को दोहराया है। मा० हेमचन्द्र ने उपर्युक जैन-जैनेतर भिन्न भिन्न परंपराओं का भौचित्य-अनौचित्य विचार कर अपने लक्षण में केवल 'सम्यक', 'अर्थ' और 'निर्णय य तीन पद रक्स। अपयुक्त जैन परम्परानी को देखते हुए यह कहना पड़ता है कि प्रा. हेमचन्द्र ने अपने लक्षण में काट-छोट के द्वारा संशोधन किया है। उन्होंने 'स्व' पद जो पूर्ववर्ती सभी जैनाचार्यों ने लक्षण में समिविष्ट किया था, निकाल दिया। 15 'अवमास', 'ध्यवसाय मादि पदों को स्थान न देकर अभयदेव के 'निर्णाति पद के स्थान में 'निर्णय' पद दाखिल किया और उमारवाति, धर्मकीर्ति तथा भासर्वज्ञ के सम्यक६ पद को प्रपनाकर अपना 'सम्यगनिया नाम निर्मित किया है।
प्राधिक तात्पर्य में कोई खास मतभेद न होने पर भी सभी दिगम्बर-श्वेताम्बर प्राचार्यों के प्रभाखलसच में शाब्दिक भेद है, जो किसी अंश में विचारविकास का सूचक 20 और किसो अंश में तत्कालीन भिन्न भिन्न साहित्य के अभ्यास का परिणाम है। यह भेद संक्षेप में चार विभागों में समा जाता है। पहिले विभाग में 'स्व-परावभास' शब्दवाला सिद्धसेन-समन्तभद्र का लक्षण माता है जो संभवत: बौद्ध विज्ञानवाद के स्व-परसंवेदन की विचारछाया से खाली नहीं है, क्योंकि इसके पहिले पागम अन्धों में यह विचार नहीं देखा जाता । दूसरे विभाग में प्रकलक-मासिक्यनन्दी का लक्षण प्राता है जिसमें 'अविसंवादि', 'अनधिगत' 25 और 'अपूर्व' शब्द आते हैं जो प्रसंदिग्ध रूप से बौद्ध और मीमांसक प्रन्यों के ही हैं। तीसरे
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१ "स्वापूर्थिव्यवसायात्मक ज्ञान प्रमाणम् । परी० १.१
२ तत्स्वायव्यवसायात्मशानं मान मितीयता। लक्षणेन गलार्थत्वात् व्ययं मन्यविशेषणम् ||"- सस्वार्थ श्लोक १, १०.७७, प्रमाणप० पृ. ५३.
३ "इन्द्रियार्थसन्निकर्पोत्पन्नं ज्ञानभव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मक प्रत्यक्षम् ।'-स्याय सू० १.१.४. ४ "प्रमाणे स्वार्थनिणतिस्वभाव शानम् ।"-सन्मतिटी०, पृ०५१. ५ "स्वपरव्यवसायि ज्ञान प्रमाणम्"-प्रमाणन.१.२.
६ "सम्यग्दर्शनशानचरित्राणि मेक्षिमार्ग: । तरवार्थ० १.१. "सम्यमान पूर्विका सर्व पुरुषार्थ. मिद्धिः ।"---न्यायवि० १.१. सम्यगनुभवसाधन प्रमाणम् 1*-यायसार कर