________________
प्रमाणमीमांसाया:
[१०६.५० १४
RIMARoma
जैन परम्परा ठीक शान्तरक्षिसकथित बौद्धपक्ष के समान ही है। वह प्रामाण्यअप्रामाण्य दोनों को अभ्यासदशा में 'स्वतः' और अमभ्यासदशा में 'परसः' मानती है। यह मन्तव्य प्रमागान यतस्वालोक के सूत्र में भी स्पष्टतया निर्दिष्ट है। यद्यपि प्रा. हेमचन्द्र ने प्रस्तुत सूत्र में प्रामाण्य-प्रप्रामाण्य दोनों का निर्देश न करके परीक्षामुख की तरह केवल प्रामाण्य के स्वत;-परतः का ही निर्देश किया है तथापि देवसूरि का सूत्र पूर्णतया जैन परम्परा का द्योतक है। जैसे---"तत्प्रामाण्यं स्वतः परसश्चेति ।" परी० १. १३. ! "तदुभयमुत्पत्ती परत एष सप्तौ तु स्वत: परतश्योसि-प्रमाणन० १.२१॥
इस स्वत:-परत: की चर्चा कमशः यहाँ तक विकसित हुई है कि इसमें उत्पत्ति, शनि और प्रवृत्ति दोनों को लेकर स्वतः परत: का विचार बड़े विस्तार से सभी दर्शनों में प्रा 100 गया है और यह विचार प्रत्येक दर्शन की अनिवार्य चर्चा का विषय बन गया है। और इस पर परिष्कारपूर्ण तस्वचिन्तामणि, गादापरप्रामाण्यवाद प्रादि जैसे जटिल अन्ध बन गये हैं।
पृ० ६. पं० १४. 'अष्टार्थे तु'...अागम के प्रामाण्य का जब प्रश्न अासा है सब उस का समर्थन खास खास प्रकार से किया जाता है । प्रागम का जो भाग परोक्षार्थक नहीं है
उसके प्रामाण्य का समर्श ने संवाद सादिया मुकर है पर असका जो भाग परोसार्थक, 15 विशेष परोक्षार्थक है जिसमें चर्मनेत्रों को पहुँच नहीं, उसके प्रामाण्य का समर्थन कैसे
किया जाय ?। यदि समर्थन न हो सके सब तो मारे मागम का प्रामाण्य डूबने लगता है। इस प्रश्न का असर सभी सांप्रदायिक विद्वानों ने दिया और अपने-अपने भागों का प्रामाण्य स्थापित किया है। मीमांसक ने वेदों का ही प्रामाण्य स्थापित किया है पर वह
'अपौरुषेयत्वा युक्ति से, जब कि उन्हीं वेदों का प्रामाण्य भ्याय-वैशेषिक ने अन्य प्रकार से 20 स्थापित किया है।
मक्षपाद वेदों का प्रामाण्य प्राप्तप्रामाण्य से वसलाते हैं और उसके दृष्टान्त में वे कहते हैं कि जैसे वेद के एक अंश मन्त्र-आयुर्वेद मादि यथार्थ होने से प्रभाव है वैसे ही बाको के अम्य अंश भी समान प्राप्तप्रसीत होने से प्रमाण हैं-"मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्याच तत्प्रामाण्य
प्राप्तप्रामाण्यास । यायमू० २. १. ६६ । 28 प्रा. हेमचन्द्र ने प्रागमनामाण्य के समर्थन में अक्षपाद की ही युक्ति का अनुगमन किया है पर उन्होंने मन्त्र-आयुर्वेद को दृष्टान्त न बनाकर विविधकार्यसाधक ज्योतिष-गणित शास्त्र को ही दृष्टान्त रखा है। जैन प्राचार्यों का मन्त्र-मायुर्वेद की अपेक्षा ज्योतिष शास की ओर विशेष मुकाव इतिहास में जो देखा जाता है उसके प्रा. हेमचन्द्र अपवाद नहीं है ।
___ यह मुकाव प्राचीन समय में भी कैसा था इसका एक नमूना हमें धर्मकीर्ति के 30 अन्ध में भी प्राप्य है। धर्मकीति के पूर्वकालीन या समकालीन जैन आचार्य अपने पूज्य
तीर्थकरों में सर्वस्व का समर्थन ज्योतिषशास्त्र के उपदेशकत्वहेतु से करते थे इस मतलब का जैनपच धर्मकीति ने जैन परम्परा में से लेकर खण्डित या दूषित क्रिया है-"प्रत्र
TAMAREE
१ प्रभेयक पु. ३८ B-४४ B.