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गया सब बाकी के प्रत्यक्ष प्रादि सब प्रमाणों का प्रामाण्य भी 'फ' हो सिद्ध किया गया
और समान युति से उसमें अप्रामाण्य को भी 'परतः' ही निश्चित किया। इस तरह मायामास दोगों का ही नामशेषिक सम्मत हुए।
मीमांसक ईश्वरवादी न होने से वह तन्मूलक प्रामाण्य तो वेद में कह ही नहीं सकता था। असएब उसने वेदप्रामाण्य स्वत: मान लिया और उसके समर्थन के वास्ते प्रत्यक्ष प्रादि सभी शानों , का प्रामाण्य स्वत: ही स्थापित किया । पर उसने अप्रामाण्य को तो 'परत:' ही माना है।
यद्यपि इस चर्चा में सांख्यदर्शन का क्या मन्तव्य है इसका कोई उल्लेख उसके उपलब्ध प्रचों में नहीं मिलता फिर भी कुमारिल, शान्तरक्षित और माधवाचार्य के कथनों से जान पक्षता है कि सख्यिदर्शन प्रामाण्य-अप्रामाण्य दोनों को 'स्वस. हो मानने वाला रहा है। शायद उसका सद्विषयक प्राचीन साहित्य मष्टप्राय हुमा हो। उझ पाचार्यों के प्रन्थों में 10 हो एक ऐसे पक्ष का भी निर्देश है जो ठोक मीमांसक से प्रलदर है अर्थात् वह अप्रामाण्य को स्वतः ही और प्रामाण्य को 'परत:' ही मानता है। सर्वदर्शन संग्रह में-सौगताश्चरम स्वत: (सर्वद० पृ० ३७६ ) इस पक्ष को बौद्धपक्ष रूप से वर्णित किया है सही, पर सवसंप्रइ में जो बौद्ध पक्ष है वह बिलकुल जुदा है। संभव है सर्वदर्शनसंग्रहनिर्दिष्ट बौद्धपक्ष किसी अन्य बौविशोष का रहा हो।
शान्तरसिल ने अपने बौद्ध मन्तव्य को स्पष्ट करते हुए कहा है कि-----प्रामाण्य अप्रामाण्य अभय 'स्वत:', २-भय 'परता', ३-दोनों में से प्रामाण्य स्वमा और अप्रामाण्य परसः, तथा
-प्रप्रामाण्य स्वतः, प्रामाण्य परस:-इन पार पक्षों में से कोई भी बौद्धयत नहीं है क्योकि वे चारो पक्ष नियमवाले हैं। बीलुपस प्रनियमवादी है मर्धात् प्रामाण्य हो या अप्रामाण्य दोनों में कोई स्वत:' तो कोई 'परतः अनियम से है। अभ्यासदशा में तो स्वत:' समझना 20 चाहिए चाहे प्रामाण्य हो या प्रप्रामाण्य । पर अनभ्यासदशा में 'परत:' समझना चाहिए ।
१ "प्रमागतोऽर्थप्रतिपनी प्रवृत्तिमामादर्थवत् प्रमाणम्'-ज्यायभा० पृ० । तात्पर्य० १.१.१। कि विज्ञानानां प्रामाण्यमप्रामाण्यं चेति द्वयमार स्वतः उत उभषमरि परत: श्राहोस्त्रिदप्रामाण्यं स्वतः मामाण्य तु परत: उतस्वित् प्रामाण्यं स्वत: अप्रामारावं तु परत इति । तत्र परत पत्र वेदस्य प्रामारयमिति वक्ष्याम: 1...स्थितमेतदर्थक्रियाशानात् प्रामाण्यनिश्चय इति । तदिदमुक्तम् । प्रमाणतोऽप्रतिपत्ती प्रवृत्तिसामध्यांदर्यवत् प्रमाणमिति । तस्मादप्रामाण्यममि परोक्षामित्यता इयमपि परत इत्येष एव पक्षः श्रेयान् । न्यायप्र० पृ० १६०-१७४ 1 कन्दली पृ०२१७-२२०! मायाः परतन्त्रत्वात् सर्मप्रलयमम्भवात् । तदन्यस्मिन्ननाश्चासान विधान्तरसम्भव: .."-स्यायकु० २.१॥ तस्वचि प्रत्यक्ष पृ० १८३-२३३ ।
१ "स्वत: सर्वप्रमाणानां प्रामायणमिति गम्यताम् । न हि स्वतोऽसती शक्तिः कतु मन्येन शक्यते ॥"-लोकया. सू०२. श्लो०५७।
३ श्लोकवा० सू० ३. मो० ८५ ।
"निदाहु स्वत: ।" लोकवा० सू० २."श्लो० ३४३ तस्वसं० १० का० २०११. "प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे स्वत: सांकमा समाश्रिता::"-सर्वद० जैमि०पू०२७६ ।
५ "नादि बौद्ध रपां चतुर्णामेकतमेाऽपि पक्षोऽभीष्टोऽनियमपक्षस्थेष्टस्वात्। तथाहि उमयमध्येतत् किशित स्वत: किंचित् परत: इति पूर्वभुपवर्णितम् । अत एव पक्षचतुष्टयोपन्यासऽप्ययुक्तः। श्चमस्याप्य - नियमपक्षस्य संभवात् । तस्वसं० प० का० ३१२३।
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