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प्रमाणमीमांसायाः
[ पृ० ८. पं० २६
पृ० ८. पं० ३०. 'भावाभावा' - प्रभावप्रमाथा के पृथक् अस्तित्व का बाद बहुत पुराना जान पड़ता है क्योंकि न्यायसूत्र और उसके बाद के सभी दार्शनिक प्रथों में तो उसका खण्डन पाया ही जाता है पर अधिक प्राचीन माने जानेवाले कणादसूत्र में भी प्रशस्तपाद की व्याख्या के अनुसार उसके खण्डन की सूचना I
विचार करने से जान पड़ता है कि यह पृथक अभावमाबाद मूल में मीमांसक परम्परा का हो होना चाहिए । भ्य सभी दार्शनिक परम्पराएँ उस बाद के विरुद्ध हैं । शायद इस विरोध का मीमांसक परम्परा पर भी असर पड़ा और प्रभाकर उस बाद से सम्मत न रहे। ऐसी स्थिति में भी कुमारिल ने उस बाद के समर्थन में बहुत जोर लगाया और सभी तरकालीन विरोधियों का सामना किया ।
प्रस्तुत सूत्र के विवेचन का न्यायावदार टीका ( पृ० २१ ) के साथ बहुत कुछ शब्दसाम्य है ।
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अ० १ ० १ सू० १३-१४ ० ८ प्रत्यक्ष के स्वरूप के विषय में सामान्यरूप aata परम्पराएँ हैं । बौद्ध परम्परा निfoners को ही प्रत्यक्ष मानती है। न्यायवैशेषिकादि वैदिक परम्पराएँ निर्विकल्पक सल्पिक दोनों को प्रत्यक्ष मानती है । जैन तार्किक परम्परा सांख्ययोग दर्शन की तरह प्रत्यक्षप्रमाणरूप से afreen 15 को ही स्वीकार करती है i आ० हेमन्द्र मे धस परा के अनुसार निर्विकल्पक को अध्यवसाय कहकर प्रमाणासामान्य की कोटि से ही बहिर्भूत रक्खा है।
raft प्रत्यक्ष के लक्ष में विशद या स्फुट शब्द का प्रयोग करनेवाले जैन तार्किक में से पहले अकल ही जान पड़ते हैं तथापि इस शब्द का मूल बौद्ध सपथों में
१ न्यायसू० २.२.२ ।
२ “अभावोऽपि अनुमानमेत्र tree कार्य कारणभावे लिङ्गम् एत्रमनुत्पन्न कार्य कारणा सद्भावे लिङ्गम् ।" प्रश० पृ० २२५ । बै० सू० ६.२.५ /
३ शापरभा० १.१.५ ।
४ ति चेयं प्रसिद्धिमीमांसकानां षष्ठं किलेद प्रमाणमिति केयं तहिं प्रसिद्धिः १ । प्रसिद्धिवैश्यन्प्रसिद्धिवत् । "बृहती पृ० १२० । “यदि तावत् केचिन्मीमांसकाः प्रमाणाम्यत्वं मन्यन्ते ततश्च वयं कि कुर्मः ।" बृहती० पृ० १२३ | प्रकरण० पृ० ११८-१२५ ।
५ "भावो वा प्रमाणेन स्वानुरूपेण मीयते । प्रमेयत्वाद्यथा भावस्तस्माद्भावात्मकात्पृथक् ॥" श्लोकवा० प्रभाव० श्लो० ५५. ।
न्यायप्र० पृ० ७ ।
६ "प्रत्यक्ष कल्पनापोई नामनात्याद्यसंयुतम् । प्रमाणस० १.३ । न्यायवि० १.४ ।
७ " द्वयी प्रत्यक्षजातिः अविकल्पिक सविकल्पका चेति । तत्र उभयी इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं शानमव्यभिचारीति लक्षणेन संग्रहीतापि स्वशब्देन उपान्ता तत्र विप्रतिपत्तेः । तत्र अविकल्पिकायाः पदम् श्रव्यपदेश्यमिति सक्किल्पिकायाश्च व्यवसायात्मकमिति ।" - तात्पर्य० पृ० १२५ । प्रश० પૃથ્વ १८६-१८५ ।
प्रमेयक० १.३ । स्यावादर० १. ७. २ सांख्यतः का० ५ । योगभा० १. ७. ।