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१०१२.५० १४.
मावाटिप्पणानि।
है क्योकि प्रकलङ्क के पूर्ववर्ती धर्मकीर्शि प्रादि बौद्ध सार्किकों ने इसका प्रयोग प्रत्यक्षस्वरूपनिरूपण में किया है। प्रकलयू के बाद से जैन परम्परा में भी इसका प्रयोग रूढ़ हो गया। वैशय किंवा स्पष्टत्व का निर्वचन तीन प्रकार से पाया जाता है। प्रकलङ्क के-"अनुमानायतिरेकेष विशेषपसिभासनम्" ( लत्री १. ४ )-निर्वचन का देवनारे और यशोविजयजी ने अनुगमन किया है। जैन तर्फवासिक में (पृ०६५) 'इदन्वया' अथवा 'विशेषक्सया' प्रतिभास-5 वाले एक ही निधन का सूचन है। मासिक्यनन्दी ने ( परीक्षा मु. २.४) "प्रतीत्यतराव्यवधान और विशेष प्रतिमास दोनों प्रकार से वैशय का निर्वचन किया है जिसे प्रा. हेमचन्द्र ने अपनाया है। ४०. पं० २६. 'प्रत्यक्ष धर्म-तुलना--"
विज्ञानात्मकं प्रत्यक्ष प्रत्यक्षत्वात... पर्मियो हेतुत्वेऽनम्बयप्रसज्म इति वेतन, विशेष धर्मिग कृत्वा सामान्य हेतु अवat दोषाऽ- 10 संभवास-प्रमाणप० पृ० ६७. प्रमेयर० २.३.
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५० १, मा० १. सू० १५-१७, पृ० १०. लोक और शास्त्र में सर्वच शब्द का रुपयोग, योगसिद्ध विशिष्ट प्रतीन्द्रिय ज्ञान के सम्भव में विद्वानों और साधारण लोगों की अबा, जुदे जुदे दार्शनिकों के द्वारा अपने अपने मन्तव्यानुसार भिन्न भिन्न प्रकार के विशिष्ट शानरूप अर्थ में सर्वश जैसे पदों को लागू करने का प्रयत्न और सर्वशरूप से माने जाने. 16 बाले किसी व्यक्ति के द्वारा ही मुख्यतया उपदेश किये गये धर्म या सिद्धान्त की अनुगामियों में वास्तविक प्रतिष्ठा-इतनी बातें मावान महावीर और बुद्ध के पहिले भी थी---इसके प्रमाण मौजूद हैं। भगवान महावीर और बुद्ध के समय से लेकर आज तक के करीब ढाई हज़ार वर्ष के भारतीय साहित्य में तो सर्वज्ञत्व के अस्ति-नास्तिपक्षों की, उसके विविध स्वरूप तथा समर्थक और विरोधी युक्तिवादों की, क्रमशः विकसित सूक्ष्म और हरमतर स्पष्ट एवं मना- 20 वरूजक चर्चाएं पाई जाती हैं।
सर्वज्ञत्व के नास्सिपचकार मुख्यतया सीन हैं-हार्वाक, प्रज्ञानवादी और पूर्वमीमासक। उसके अस्विरक्षकार तर अनेक दर्शन हैं, जिनमें न्याय वैशेषिक, सांस्य योग, वेदान्त, बौद्ध और जैन दर्शन मुख्य हैं।
चार्वाक इन्द्रियाम्य भौतिक लोकमान को मानता है इसलिए उसके मत में प्रतीन्द्रिय 27 भास्मा था उसकी शक्तिरूप सर्वज्ञत्व प्रादि के लिए कोई स्थान ही नहीं है। प्रज्ञानवादी का अभिप्राय माधुनिक वैज्ञानिको की सरह ऐसा जान पड़ता है कि ज्ञान और प्रदीन्द्रिय बान की भी एक प्रतिम सीमा होती है। शान कितना ही उठच कथा का क्यो न हो पर मा कालिक सभी स्थूल सूक्म भावों को पूर्ण रूप से जानने में स्वभाव से ही असमर्थ है।
प्रत्यक्षं कल्पनापोर्ट
.१ "न पिकल्पानुबद्धस्य स्पष्टार्थप्रतिभासिता ।"-प्रमाणमा ३, २८३। वेधतेऽतिपरिस्फुटम् १" तस्वसं० का० १२३४