________________
२८
प्रमाणमीमांसायाः [पृ० १०.५० १४अर्थात् अन्त में कुछ न कुछ अज्ञेय रह हो जाता है। क्योंकि शान की शक्ति ही स्वभाव से परिमित है। वेदवादी पूर्वमीमांसक नात्या, पुनर्जन्म, पोट भादि प्रतीन्द्रिय पदार्थ मानता है। किसी प्रकार का प्रतीन्द्रिय ज्ञान होने में भी उसे कोई भापत्ति नहीं फिर भी वह अपौरुषेयवेदवादी होने के कारण वेद के अपौरुषेयत्व में बाधक ऐसे किसी भी प्रकार ॐ के प्रतीन्द्रिय मान को मान नहीं सकता। इसी कमात्र अभिप्राय से उसने वेद-निरपेक्ष साक्षात् धर्मज्ञ या सर्व के अस्तित्व का विरोध किया है। वेद द्वारा धर्माधर्म या सर्व पदार्थ जाननेवाले का निषेध नहीं किया।
बौद्ध और जैन दर्शनसम्मत साक्षात् धर्मश वाद या साक्षात् सर्वशवाद से बेद के अपौरुषेयत्व का केवल निरास ही अभिप्रेत नहीं है बल्कि उसके द्वारा दो में अप्रामाण्य 10 बतलाकर वेदभिन्न आगों का प्रामाण्य स्थापित करना भी अभिप्रेत है। इसके विकत
जो न्याय-वैशेषिक प्रादि वैदिक दर्शन सर्वज्ञवादी हैं उनका तात्पर्य सर्वज्ञवाद के द्वारा वेद के अपारुषेयत्ववाद का निरास करना अवश्य है, पर साथ ही उसी वाद के द्वारा वेद का पौरुषेयत्व बतलाकर उसीका प्रामाण्यस्थापन करना भी है।
न्याय-वैशेषिक दर्शन ईश्वरवादी हैं। वे ईश्वर के ज्ञान को निस्यर-उत्पाद-विनाश1: रहित और पूर्ण-त्रैकालिक सूचम-स्थूल समप्रभावों को युगपत् जाननेवाला-मानकर सद्वारा
उसे सर्वज्ञ मानते हैं। ईश्वरमिन्न प्रात्मानों में वे सर्थज्ञस्य मानते हैं सही, पर सभी प्रात्मानों में नहीं किन्तु योगी आत्माओं में। योगियों में भी सभी योगियों को वे सर्वज्ञ नहीं मानवे किन्तु जिन्होंने योग द्वारा वैसा सामर्थ्य प्राप्त किया हो सिर्फ उन्हीं को ३ । न्याय-बैशेषिक
मलानुसार यह नियम नहीं कि सभी योगियों को वैसा सामर्थ्य अवश्य प्राप्ष हो । इस मन में 20 जैसे मेोच के वास्ते सर्वशत्वप्राप्ति अनिवार्य शर्त नहीं है वैसे यह भो सिद्धान्त है कि माख.
१“चोदना हि मूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूरुमं व्यवहितं विप्रकृष्टमित्येवं जातीयकमर्थ शम्नोत्यवगमयितुम, नान्यत् किञ्चनेन्द्रियम्"-शायरमा १.१.२ | "नानेन वचनेनेह सर्वशस्वनिराक्रिया । बचनात . इत्येवमपवादा हि संश्रितः॥ यदि घडभिः प्रमाणैः स्यात् सर्वशः केन वार्यते । एकेन तु प्रमाणेन सर्वशी येन कल्यते ॥ भूनं स चक्षुण्ण सर्वान् रसादीन् प्रतिपद्यते ।" श्लोकया चोद० श्लोक ११०-२। "धर्मशल्यनिषेधश्च केवलोऽत्रीपयुध्यते । सर्वमन्यद्विनानस्तु पुरुषः केन वार्यते ॥"-तस्वसं० का० ३१२८ । यह श्लोक तस्त्रसंग्रह में कुमारिल का कहा गया है पृ०४४। २मच बुद्धीलाप्रयत्नानो नित्यत्वे कश्चिद्विरोध: दृष्टा हि गुणानामाश्रयमे देन यी गतिः नित्यता
पादीनामपि भविष्यतीति ।"... कन्दली पृ०६०1"एतादृशानुमिती लाघवज्ञानसहकारेण शानिच्छाकृतिषु नित्यत्वमेकत्वं च भासते इति नित्यैकत्वसिद्धिः ।" -दिनकरी पृ० २६ ।
३ वै० सू० १. १.११-१३ । “अस्मद्विशिष्टानां तु योगिनां युक्तानां योगजधर्मानुगृहोतेन मनसा स्यात्मान्नराकाशदिक्कालपरमाणुवायुमनस्सु तत्समवेतगुणकर्मसामान्यविशेषेषु समवाये चावितयं स्वरूप दर्शनमुत्पद्यते । वियुक्तानां पुनश्चतुष्टयसनिकांद्योगजधर्मानुपहसामयात् सूक्ष्मव्यवहितविप्रष्टेषु सत्य. क्षमुत्पद्यते ।"-प्रश० पू०१८७ वै० सू०.१.११.१३ ।
४ "तदेवं धिषणादीनां मवानामपि मूलतः। गुणानामात्मनो यमः सेाऽपवर्गः प्रकीर्तितः " न्यायमा पृ० ५०८.।