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अन्धकार का परिचय गुप्त का उल्लेख करते हैं वह भी उनका काश्मीरी पण्डितों के साथ गाद विद्या परिचय सूचित करता है।
वि० सं० ११६६ ( ई० स० १११० ) में हकीस वर्ष की आयु में सोमचन्द्र हेमचन्द्रसूरि हुए यह युवावस्था में प्राप्त असाधारण पाण्डित्य का प्रभाव होगा । तर्क, लक्षण और साहित्य ये उस युग की महाविद्याएँ श्री और इस त्रयी का पाण्डित्य राजदरबार और जनसमाज में अग्रगण्य होने के लिए आवश्यक था। इन तीनों में हेमचन्द्र को अनन्य साधारण पाण्डित्य था यह उनके उस उस विषय के ग्रन्थों पर से स्पष्ट दिखाई देता है।
आचार्य होने के बाद और पहले हेमचन्द्र ने कहाँ कहाँ विहार किया होगा इसे ब्योरे से जानने के लिए हमारे पास कोई साधन नहीं है। आचार्य होने से पूर्व गुजरात के बाहर खूब धूमे होंगे यह सम्भव है, परन्तु, ऊपर जैप्ता कहा है, गुरुकी आज्ञा से गुर्जर देश में ही अपना क्षेत्र मर्यादित करने के लिए बाध्य हुए ।
हेमचन्द्र अणहिल्लपुर पाटन में सबसे पहले किस वर्ष में आए, जयसिंह के साथ प्रथमसमागम कब हुआ इत्यादि निश्चित रूप से जानने का हमारे पास कोई साधन नहीं है। परन्तु वह राजधानी पण्डितों के लिए आकर्षण थी। इसलिए विद्याप्राप्ति एवं पाण्डित्य को कसौटी पर कसने के लिए हेमचन्द्र का आचार्य होने से पूर्व ही वहां आना-जाना हुआ हो यह संभव है। ___प्रमावक चरित' और 'रबन्ध चिन्तामणि' के अनुसार कुमुदचन्द्र के साथ शास्त्रार्थ के समय हेमचन्द्र उपस्थित थे अर्थात् वि० सं० १९८१ ( ई० स० ११२५) में वे जयसिंह सिद्धराज की पण्डित सभा में विद्यमान थे। उस समय उनकी आयु इकत्तीस वर्ष की होगी तथा आचार्यपद मिले एक दशक बीत गया होगा। उस समय हेमचन्द्र वादी देवचन्द्रसूरि जितने प्रतिष्ठित नहीं होंगे, अथवा उनका वाद कौशल शान्तिसूरि आदि की तार्किक परम्परा वाले वादिदेवसूरि जितना नहीं होगा। ___ 'प्रभावकचरित' के अनुसार जयसिंह और हेमचन्द्र का प्रथम मिलन अणहिल्लपुर के किसी वंग मार्ग पर हुआ था जहां से जयसिंह के हाथी को गुजरने में रुकावट पड़ी थी और जिस प्रसंग पर एक तरफ से हेमचन्द्र ने 'सि' को निशंक होकर अपने गजराज को ले जाने के लिए कहा और श्लेष से स्तुति की। परन्तु इस उल्लेख में कितना ऐतिहासिक तथ्य है, यह कहना कठिन है।
सिद्धराज जयसिंह के मालवा की अंतिम विजय के समय भिन्न मिन्न सम्प्रदायों के प्रतिनिधि उसे अभिनन्दन देने के लिए आए; उस समय जैन-सम्प्रदाय के प्रतिनिधि के रूप में
उल्लेखनीय यह है कि 'काव्यप्रकाश' की सम्भाव्य प्रथम टीका 'संकेत' गुजरात के माणिक्य चन्द्र ने लिखी है।
२. कारय प्रसरे सिद्ध हस्तिराजमशक्वितम् । अस्यन्तु दिग्गजाः किं भूस्त्वयैवोद्भूता बत्तः ॥ ६ ॥
३. 'कुमारपाल प्रबन्ध' हेमचन्द्र और जयसिंह का प्रथम-समागम इस प्रसंग से पूर्व भी हुआ था ऐसा सूचित करता है।