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प्रस्तावना
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६. हेतु का रूप-हेतु के स्वरूप के विषय में मतभेदों के अनेक अखाड़े कायम हो गये थे। इस युग में जैन तार्किकों ने यह सोचा कि क्या हेतु का एक ही रूप ऐसा मिल सकता है या नहीं, जिस पर सब मतभेदों का समन्वय भी हो सके और जो वास्तविक भी हो। इस चिन्तन में से उन्होंने हेतु का एक मात्र अभ्यथानुपपत्ति रूप निश्चित किया जो उसका निर्दोष लक्षण भी हो सके और सब मतों के समाप ले साथ जो साम्य भी हो । जहाँ तक देखा गया है. हेतु के ऐसे एकमात्र तात्त्विक रूप के निश्चित करने का तथा उसके द्वारा तीन, चार, पाँच और छ:, पूर्वप्रसिद्ध हेतु रूपों के यथासंभव स्वीकार का श्रेय जैन तार्किकों को ही है।
७. अवयवों की प्रायोगिक व्यवस्था-परार्थानुमान के अवयवों की संख्या के विषय में भी प्रतिद्वन्द्वीभाव प्रमाण क्षेत्र में कायम हो गया था । अन तार्षिकों ने उस विषय के पक्षभेद की यथार्थता-अयथार्थता का निर्णय श्रोता की योग्यता के आधार पर ही किया, जो वस्तुतः सची कसौटी हो सकती है । इस कसौटी में से उन्हें अवयव प्रयोग की व्यवस्था ठीक २ सूझ आई जो वस्तुतः अनेकान्तदृष्टि मूलक होकर सर्वसंग्राहिणी है और वैसी स्पष्ट मन्य परंपराओं में शायद ही देखी जाती है ।
८. कथा का स्वरूप--आध्यात्मिकता-मिश्रित तस्वचितन में भी साम्प्रदायिक बुद्धि दाखिल होते ही उसमें से आध्यात्मिकता के साथ असंगत ऐसी चर्चाएँ जोरों से चलने लगी, जिनके फल स्वरूप जश्य और वितंडा कथा का चलाना भी प्रतिष्ठिन समझा जाने लगा, जो छल, जाति आदि के असत्य दाव पेचों पर ही निर्भर था । जैन तार्किक साम्प्रदायिकता से मुक्त तो न थे, फिर भी उनकी परम्परागत अहिंसा ब वीतरागत्व की प्रकृति ने उन्हें वह असंगति सुझाई जिससे प्रेरित हो कर उन्होंने अपने तर्कशास्त्र में कथा का एक वादात्मक रूप ही स्थिर किया, जिसमें छल आदि किसी भी चाल बाजी का प्रयोग यज्य है और जो एकमात्र तस्वजिज्ञासा की दृष्टि से चलाई जाती है। अहिंसा की आत्यंतिक समर्थक जैन परंपरा की तरह बौद्ध परम्परा भी रही, फिर भी छल आदि के प्रयोगों में हिंसा देख कर निध ठहराने का तथा एक मात्र वादकथा को ही प्रतिष्ठित बनाने का मार्ग जैन-तार्किकों ने प्रशस्त किया। जिसकी ओर तस्व-चिंतकों का लक्ष्य जाना जरूरी है ।
९. निग्रहस्थान या जय-पराजय व्यवस्था-वैदिक और बौद्ध परम्परा के संघर्ष ने निग्रह-स्थान के स्वरूप के विषय में विकास सूक बड़ी ही भारी प्रगति सिख की थी फिर भी उस क्षेत्र में जैन तार्किकों ने प्रवेश करते ही एक ऐसी नई बात सुझाई जो न्यायविकास के समग्र इतिहास में बड़े मा की और अब तक सबसे अंतिम है । वह बात है जय-पराजय व्यवस्था का नया निर्माण करने की। वह नया निर्माण सत्य और अहिंसा दोनों तत्वों पर प्रतिष्ठित हुआ जो पहले की जय पराजय व्यवस्था में न थे ।
टिषण पू. ८० ५० ३.। टिपण पृ. १४ पं. १४। ३ नियम ५. १०८.५० १५ । पृ५ ११५, ५० २८॥ टिप्पण पृ. ११९५० ।
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