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भारतीय प्रमाणशास्त्र में प्रमाणमीमांसा का स्थान
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१०. प्रमेय और प्रमाता का स्वरूप- प्रमेय जड़ हो या चेतन, पर सबका स्वरूप जैन तार्किक ने अनेकान्त-दृष्टि का उपयोग करके ही स्थापित किया और सर्व व्यापक रूप से कह दिया कि वस्तु मात्र परिणामी नित्य है । नित्यता के ऐकान्तिक आग्रह की धुन में अनुभवसिद्ध अनित्यता का इनकार करने की अशक्यता देख कर कुछ तत्व चिंतक गुण, धर्म आदि में अनित्यता घटा कर उसका जो मेल नित्य-द्रव्य के साथ खीचातानी से बिठा रहे थे और कुछ ava fiतक अनित्यता के ऐकान्तिक आमह की धुन में अनुभव सिद्ध नित्यता को भी जो कल्पना मात्र बतला रहे थे उन दोनों में जैन तार्किकों ने स्पष्टतया अनुभव की आंशिक असंगति देखी और पूरे विश्वास के साथ बल पूर्वक प्रतिपादन कर दिया कि अब अनुभव न केवल नित्यता का है और न केवल अनित्यता का तब किसी एक अंश को मान कर दूसरे अंश का बलात् मेल बैठाने की अपेक्षा दोनों अशों को तुल्य सत्य-रूप में स्वीकार करना ही न्याय संगत है। इस प्रतिपादन में दिखाई देने वाले विशेष का परिहार उन्होंने द्रव्य और पर्याय या सामान्य और विशेष ग्राहिणी दो दृष्टियों के स्पष्ट पृथक्करण से कर दिया । द्रव्य-पर्याय की व्यापक दृष्टि का यह विकास जैन- परम्परा की ही देन है ।
जीवात्मा, परमात्मा और ईश्वर के संबन्ध में सद्गुण-विकास या आचरण साफल्य की ष्ट से असंगत ऐसी अनेक कल्पनाएँ तत्व चिंतन के प्रदेश में प्रचलित थीं । एकमात्र परमात्मा ही है या उससे भिन्न अनेक जीवात्मा चेतन भी हैं, पर तत्त्वतः वे सभी कूटस्थ निर्वि कार और निर्लेप ही हैं। जो कुछ दोष या बन्धन है वह या तो निरा श्रान्ति मात्र है या अ प्रकृति गत है । इस मतलब का तत्त्व- चितन एक ओर था दूसरी ओर ऐसा भी चिंतन था जो कहता कि चैतन्य तो है, उसमें दोष, वासना आदि का लगाव तथा उससे अलग होने की योग्यता भी हैं पर उस चैतन्य की प्रवाह-बद्ध पारा में कोई स्थिर तत्त्व नहीं है। इन दोनों प्रकार के तव चितनों में सद्गुण-विकास और सदाचार- साफल्य की संगति सरलता से नहीं बैठ पाती । वैयक्तिक या सामूहिक जीवन में सद्गुण विकास और सदाचार के निर्माण के सिवाय और किसी प्रकार से सामंजस्य जम नहीं सकता । यह सोच कर जैन- चिकों ने आत्मा का स्वरूप ऐसा माना जिसमें एक सी परमात्म शक्ति भी रहे और जिसमें दोष, वासना आदि के निवारण द्वारा जीवन-शुद्धि की वास्तविक जवाबदेही भी रहे। आत्मविषयक जैन-चिंतन में वास्तविक परमात्म-शक्ति या ईश्वर- भाव का तुल्य रूप से स्थान है, अनुभव सिद्ध आगन्तुक दोषों के निवारणार्थ तथा सहज-शुद्धि के आविर्भावार्थ प्रयत्न का पूरा अवकाश है । इसी व्यवहार - सिद्ध बुद्धि में से जीवभेदवाद तथा देहममाणवाद स्थापित हुए जो संमिलित रूप से एक मात्र जैन परम्परा में ही हैं।
११. सर्वज्ञत्व समर्थन - प्रमाण - शास्त्र में जैन सर्वज्ञ बाद दो दृष्टियों से अपना खास स्थान रखता है । एक तो यह कि वह जीव-सर्वज्ञ याद है जिसमें हर कोई अधिकारी की सर्वज्ञत्व
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१ टिप्पण पु० ५३, ५० ६ ० ५४. पं० १७ । २०५७ २० २१ । २०७० ८०० १३६. ०११ ।