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प्रस्तावना
'सुचारित्ररूपी जलयान द्वारा इस संसार समुद्र से पार लगाइए ।' बालक का मामा नेमि गुरु से परिचय करवाता है ।
"देवचन्द्रसूरि कहते हैं कि-'इस बालक को प्राप्त कर हम इसे निःशेष शास्त्र परमार्थ में अवगाहन करावेंगे; पश्चात् यह इस लोक में तीर्थर जैसा उपकारक होगा। इसलिए इसके पिता चञ्च से कहो कि इस चक्रदेव को व्रत ग्रहण के लिए आज्ञा दे।"
"बहुत कहने सुनने पर भी पिता अतिस्तेह के कारण आज्ञा नहीं देता, परन्तु पुत्र 'संयम ग्रहण करने के लिए दृढमना है । मामा की अनुमति से वह चल पड़ता है और गुरु के साथ खम्भतिस्थ' (खम्मात ) पहुँचता है ।"
सोमप्रभसूरि के कथन मे हटना तो स्पण है कि पिता की अनुमति नहीं थी; माता का अभिप्राय क्या होगा इस विषय में वह मौन है । मामा की अनुमति से चंगदेव घर छोड़कर चल देता है। सोमप्रभसूरि के कथन का तात्पर्य ऐसा भी है कि बालक चंगदेव स्वयं ही दीक्षा के लिए दृढ़ था। पाँच या आठ वर्ष के बालक के लिए ऐसी हदवा मनोविज्ञान की दृष्टि से कहाँ तक सम्भव है इस शंका का जिस तरह निराकरण हो उसी तरह से इस विषय का ऐतिहासिक दृष्टि से निराकरण हो सकता है। सम्भव है, केवल साहित्य की छटा लाने के लिए भी इस प्रकार सोमप्रभसूरि ने इस प्रसंग का वर्णन किया हो।
चंगदेव का श्रमण सम्प्रदाय में कब प्रवेश हुमा इस विषय में मतभेद है। 'प्रभावक परित' के अनुसार वि० सं० ११५० (ई० स० १०९४ ) अर्थात् पाँच वर्ष की आयु में हुआ। जिनमण्डनकृत 'कुमारपाल प्रबन्ध' वि० सं० ११५४ (ई० सं० १०९८ ) का वर्ष बतलाता है जब कि प्रबन्ध चिन्तामणि, पुरातन-प्रबन्ध-संग्रह और प्रबन्धकोश आठ वर्ष की आयु बतलाते हैं। दीक्षा विषयक जनशास्त्रों का अभिशय देखें तो आठ वर्ष से पूर्व दीक्षा सम्भव नहीं होती। इसलिए चंगदेव ने साधु का वेश आठ वर्ष की अवस्था में वि० सं० ११५४ (ई० स० १०९८) में ग्रहण किया होगा, ऐसा मानना अधिक युक्तियुक्त है।'
सोमसोमसूरि के कथनानुसार:--"उस सोममुह'...सौम्यमुस्त्र का नाम सोमचन्द्र रखा गया। थोड़ा समय जिनागम कथित तप करके वह गंभीर श्रुतसागर के भी पार पहुँचा । 'दुषम समय में जिसका सम्भव नहीं है ऐसा गुणोषवाला' यह है ऐसा मनमें विचार कर श्रीदेवचन्द्रसूरि ने उसे गणधर पद पर स्थापित किया । हेम जैसी देह की क्रान्ति थी और चन्द्र
, देखो 'कुमारपाल प्रतियोध'. २७। देखो प्रभावकारित पृ. ३४७ श्लोक ८४८+
देस्त्री काव्यानुशासन प्रस्तावना पृ. २६५- प्रमावकचरित में विसं. ११५.(ई.स.१.९४) वर्ष कैसे आया यह विचारणीय प्रश्न है। मेरा अनुमान ऐसा है कि धंधुका में देवचन्द्रसूरि की दृष्टि अंगदेव पर उस वर्ष में जभी होगी; मन्यचिन्तामणि के अनुसार अंगदेव देवचन्दरि के साथ प्रथम कविती आया; वहाँ उदयन मंत्री के पुत्रों के साथ उसका पालन हुआ और अन्त में चरुच (प्रवन्ध चिन्तामणि के अनुसार चाचिग) के हाथों ही दीक्षा महोत्सब सम्मान में हुआ। उस समय चंगदेव की आबु आठ अर्ष की हुई होगी । बन को सम्मति प्राप्त करने में तीन वर्ष गए हों ऐसा मेरा अनुमान है।