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प्रमाणमीमांसाया: [१०५.९० १८जैन परम्परा में 'अ' शब्द का 'आत्मा' मर्थ मानकर व्युत्पत्ति की गई है। सदनुसार उसमें इन्द्रियनिरपेक्ष केवल प्रास्माश्रित माने आनेवाले शानों को ही प्रत्यक्ष पद सा मुख्य अर्थ माना है और इन्द्रियाश्रित शान को वस्तुतः परोक्ष ही मामा है। उसमें प्रमपद का इन्द्रिय अर्थ लेकर भी व्युत्पत्ति का आश्रयमा किया है पर वह अन्यदर्शनप्रसिद्ध । परम्परा तथा लोकव्यवसात के संग्रह की प्रति से। म र पाशा के अनुसार इन्द्रियाश्रित ज्ञान में प्रत्यक्ष पद का प्रयोग मुख्य महों पर गाय है।
इन्द्रिय सापेक्ष ज्ञान को मुख्य प्रत्यक्ष माननेवाले हो या भात्ममात्र सापेन को पर के सभी प्रत्यक्ष को साक्षात्कारात्मक ही मानते व कहते हैं।
पृ० ७.५० १८. 'असं प्रतिगतम-तुलमा-"अनस्यारतस्य प्रतिविषयं वृति: प्रत्यक्षम्"10 न्यायमा ० १.१ । “प्रत्यक्षमिति । प्रतिगसमाश्रितमक्षम् । पायबि० टी० १.३॥
पृ०७. पं० २१. 'पकारः-तुलना-"चकारः प्रत्यक्षानुमानयोस्तुल्यबस्तत्वं समुश्चिनाति" न्यायवि० टी० १. ३. न्याया० सिटी Y०१६ ।।
पृ० ७. पं० २३. 'ज्येष्ठतेति'-प्रमाणों में ज्येष्ठरम-अज्येष्ठत्व के विषय में तीन परम्पराएं हैं। न्याय और सांस्य परम्परा में प्रत्यक्ष का ज्येष्ठत्व और अनुमानादि का उसकी अपेक्षा 15 अज्येष्ठत्व स्थापित किया है। पूर्व उत्सरमीमांसार में अपौरुषेय मागमवाद होने से प्रत्यक्ष
की अपेक्षा मी प्रागम का ज्येष्ठरव स्वाकार किया गया है। बौद्ध परम्परा में प्रत्यश-अनुमान दोनों का समबलत्व बसलाया है।
जैन परम्परा में दो पक्ष देखे जासे है। प्रकलङ्क और तदनुगामी विधानन्द ने प्रत्यक्ष का ही ज्येष्ठत्व न्यायपरम्परा की तरह माना और स्थापित किया है, अब कि सभी
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१ "अक्षणोति ध्यानाति जानतीत्यक्ष आरमा, तमेव प्राप्तक्षयोपशम प्रक्षीणावमा वा प्रतिनियत वा प्रत्यक्षम । -सर्वाथ.१.१२१ जीको श्ररनो अस्थवावराभोवणगुणरियो जेणु । संपई वढूंद नाण' जं पच्चक्रवं तथं लिविहं ।"-विशेषा० भा० मा०८६ "तथा भगवान् भद्रबाहुः जीश्रो श्रक्यो त पई जं बट्टई तं तु होइ पचक्रवं । परसो पुग्ण अक्खस्स बट्टन्त र पारोक्दे ।।' न्याया० टि० पृ० १५ ॥
"श्रादौ प्रत्यक्षग्रहण प्राधान्यात् .........तत्र कि शब्दस्वादानुपदेशो भवतु अाहोस्थित् प्रत्यक्षस्येति ? । प्रत्यक्षरोति युक्तम । कि कारण है। सर्वप्रमाणाना प्रत्यक्षपूर्वकत्वात् इति ।-न्यायषा० १. १.३ सालयता का०५ | न्यायम०पू०६५, १०६ ।
३ च ज्येचप्रमाणप्रत्यक्षविरोधादाम्नायस्यैव तदपेक्षस्याप्रामाण्यमुप्चरितार्थत्वं चेति युक्तम् । নাখাব নিরাপাধায়, বাগনা মনঃসিমাখনৰয় লঙ্কা মদিনাবাদামুभासती पृ०६।
अर्थसंवादकत्वे च समाने ज्येष्ठताऽस्य फा। तदभावे तु नैव स्यात् प्रमाणमनुमादिकम् । तस्वसं० का०४६ । न्यायवि० टी० १.३ ।
५ अश० श्रष्टस० पृ०००।