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प्रमाबमीमांसायाः
[१० १०, पं० १४शान्तरक्षित ने कुमारिल तथा अन्य सामट, यझट प्रादि मीमांसकों की दलीलों का बड़ो सूक्ष्मता से सविस्तर खण्डन (सयस • का० ३२६३ से ) करते हुए कहा है कि-वेद स्वयं ही भ्रान्त एवं हिंसादि दोषयुक्त होने से धर्मविधायक हो नही सकता। फिर उसका प्राय
लेकर उपदेश देने में क्या विशेषता है १६ बुद्ध ने स्वयं ही शानुभव से अनुकम्पाप्रेरित 5 होकर प्रभ्युदय निःश्रेयसाधक धर्म बलझाया है। मूर्ख शूद्र आदि को उपदेश देकर तो उसने अपनी करुणावृत्ति के द्वारा धार्मिकता ही प्रकट की है। वह मीमांसकों से पूछता है कि जिन्हें तुम ब्राह्मण कहते हो उन की ब्राह्मणता का निश्चित प्रमाण क्या है। प्रतीसकाल बड़ा लम्बा है, स्त्रियों का मन भी चपल है, इस दशा में कौन कह सकता है कि प्राभाय कहलाने
वाली सम्मान के माता-पिता शुद्ध नाम ही रहे हो और कभी किसी विजातीयता का 10 मिश्रण हुआ न हो। शान्तरक्षिसरे ने यह भी कह दिया कि सच्चे प्रामथ और श्रमग्य
बुन शासन के सिवा सय किमी धर्म में नहीं है ! का० ३५८६-६२)। अन्त में शाम्तरसित ने पहिले सामान्यरूप से सर्वस्व का सम्भव सिद्ध किया है, फिर से महावीर, कपिल आदि में असम्भव बतलाकर केवल बुद्ध में ही सिद्ध किया है। इस विचारसरणी में शान्तरक्षित
की मुख्य युक्ति यह है कि वित्त स्वयं ही प्रभावर अतएव स्वभाव से प्रज्ञाशील है। 18 क्लेशावरण, शेयावरण मादि मल आगन्तुक हैं। नैरारम्यदर्शन जो एक मात्र सस्यशान है,
इसके द्वारा प्रावरणों का क्षय हेकर मानायल से अन्त में स्थायी सर्वज्ञता का लाभ होला है। ऐकान्तिक अधिकरवशान, नैरास्यदर्शन आदि का अनेकान्तोपदेशी ऋषम, पर्वभानादि में तथा आत्मोपदेशक कपिलादि में सम्भव नहीं प्रतएक उनमें प्रावरणमय द्वारा सर्वज्ञत्व का भी सम्भव न हों। इस तरह सामान्य सर्वशव की सिद्धि के द्वारा अन्त में
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१ "करुणापरतन्त्रास्तु सारतत्वनिदर्शिनः । सर्वापवादनिःशङ्काश्चक : सर्वत्र देशनाम् ॥ यथा यथा च मौख्यादिदोषदुष्टो भवेजनः । तथा तथैद नाथानां दया नेषु प्रवर्तते-" सवसंक का० ३५७१.२ ।
२ "प्रतीतच महान् कालो योषितां चातिचापलम् । तद्भवत्यपि निश्चेतु ब्राह्मणत्वं न शक्यते ।। अतीन्द्रियपदाथज्ञो नहि कश्चित् समस्तिषः। तदन्धयविशुद्धिं च नित्यो वेदोपि नोक्तवान् ॥” तस्वसं का०३५७8-20|
३"ये च घाहितापवाद ब्राह्मणाः पारमार्थिकाः। अभ्यस्लामलनैरात्म्यास्ते मुनेरेय शासने ॥ इहैव अमरतेन चतुर्दा परिकीरयते। शून्याः परप्रवादा हि अमगौाह्मणैस्तथा ॥ तश्वसं का ३५८६-०.
"प्रत्यक्षीकृतनैरात्म्येन दालभते स्थितिम तद्विरुद्धल बा दीप्ते प्रदीप तिमिरं यथा तश्वसं. का०३३३८। "एवं क्लेशावरणप्रहारा प्रसाध्य ज्ञ यावरगाहार प्रतिपादयन्नाह साक्षात्कृतिविशेषादिति ----साक्षात्कृतिविशेषाच वाष नास्ति सयासनः। सर्वशत्यमत: सिद्धं सर्वावरमामुक्तिः ।-तस्वसंकाय ३३३६ । “प्रभास्वरमिदं चिर्त तस्यदर्शनसात्मकम् । प्रकृत्यैव स्थित यस्मात् मलारस्वागन्तवो मताः।" सस्यसका०३४३५ । प्रमाणबा० ३.२० ।
५ "इदं च बर्द्धमानादरात्म्यशानमीदृशम्। न समस्त्यात्मवृष्टौ हि विनष्टाः सर्वतीर्थकाः ।। स्याहादाक्षणिकस्या(त्या)दिप्रत्यक्षादिमा(धितम् । बवायुक्तमुक्त यैः स्युः सर्वज्ञाः कथं नु ते ॥" तस्वसं० ३३२५-२६ ।
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