Book Title: Prabandhavali - Collection of Articles of Late Puranchand Nahar
Author(s): Puranchand Nahar
Publisher: Vijaysinh Nahar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ belo *2lcloblo ‘lo?lar313 ફોન : ૦૨૭૮-૨૪૨૫૩૨૨ ૩૦૦૪૮૪૬ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धावली [ स्वर्गाय पूर णचन्द नाहर के लेखों का संग्रह | प्रकाशक विजय सिंह नाढर — कलकत्ता १६३७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकविजय सिंह नाहर ४८ इण्डियन मिरर स्ट्रोट, कलकत्ता मुद्रक -- उमाकान्त मिश्र विश्व विनोद प्रेस ४८ इण्डियन मिरर स्ट्रीट कलकत्ता www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक शब्द स्वर्गीय पूज्य पिताजी के हृदय में अपने हिन्दी निबन्धों के संग्रह के प्रकाशन की बात बहुत पहले उठी थी, सहृदय जनों के अनुरोध और प्रेरणा से उन्होंने प्रस्तुत 'प्रबन्धावा के रूप में संग्रह छपाना प्रारम्भ कर भी दिया था। पर ३-४ फार्म ही छपे थे कि वे दक्षिण भारत की तीर्थ-यात्रा के लिये चले गये और प्रवास से लौटने के कुछ ही दिनों बाद उनका देहान्त हो गया, जिससे 'प्रबन्धावली का काम एकाएक आगे बढ़ने से रुक गया । कालगति से हाथ में लिया हुआ जो काम वे पूरा नहीं कर सके थे, वह मैं अब पूरा करना अपना कर्तव्य समझता हूँ। न मुझ में पिताजी की विद्वत्ता है, न लगन; अतः 'प्रबन्धावली' में जो कमियाँ रही होगी. तथा जो देरी हुई है, उसके लिये विद्वजनों से मैं विनम्र भाव से क्षमाप्रार्थी हूँ। 'प्रबन्धावली' की उपयोगिता पर सम्मतियाँ भेज कर, आशा है, समीक्षक गण आगे के प्रकाशनों के लिये मेरा उत्साह बढायेंगे । कलकत्ता. विजयसिंह नाहर त० १.११.३७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकथन हमारे देश के विभिन्न समाजों और सम्प्रदायों के साहित्य, कला और सभ्यता के विषय में जिन्होंने थोड़ी बहुत भी आलोचना की है, अथवा सुनी है, वे यह स्वीकार करेंगे कि जैनियों का प्राचीन साहित्य अत्यन्त श्रेष्ठ और विशाल है । यद्यपि इस साहित्य का अधिकांश भाग प्राकृत और मागधी भाषा में लिखा गया था; किन्तु मनीषी व्यक्ति जानते हैं कि संस्कृत में भी इस समाज द्वारा रचा हुआ साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। तदतिरिक्त राजस्थानी, गुजराती, हिन्दी और तामिल इत्यादि भाषाओं में भी जो जैन-साहित्य मिलता है, वह अत्यन्त उच्च श्रेणी का है। प्राकृत के लिये सुप्रसिद्ध विद्वान् जैकोबी ने एक बार कहा था कि यदि जैन-साहित्य निकाल लें तो प्राकृत में कुछ नहीं बचेगा। और यही बात हाल ही में गुजराती और राजस्थानी के बारे में कही गई है। बारहवें गुजराती साहित्य-सम्मेलन में इतिहास-पुरातत्व परिषद् के अध्यक्ष पद से श्री मुनि जिनविजयजी ने कहा था- "इस तरह के संकड़ों जैन पण्डित हुए हैं जिन्होंने प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और गुजराती भाषा में हजारों ग्रन्थ लिखे हैं।” दक्षिण की कनाड़ी, तामिल आदि भाषाओं के अनेक प्रन्थ भी जैनियों के ही सिद्ध हुए हैं। ऐसा कहा जाता है कि तामिल का 'कुरल' नाम का सुप्रसिद्ध प्रन्थ भी जैनाचार्य की ही रचना है। विषय की कसौटी से देखें, तो भी एक सम्प्रदाय विशेष का साहित्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) होते हुए भी इसमें मनोभावों का विश्वजनीन आवेदन अनुप्राणित है। हमारे लिये यह अत्यन्त गौरव का विषय है कि पूर्व जैनाचार्यों ने साहित्य और सभ्यता की एकदेशीयता, एक भारतीयता को बिल्कुल भुला नहीं दिया था। धार्मिक-साहित्य की रचना के साथ-साथ अनेक आचार्यों ने देववाणी संस्कृत में नाटक, काव्य, आख्यायिका, चम्पू इत्यादि की रचनाएँ की थीं, जिनमें से अधिकांश ग्रंथ इसलिये अज्ञात रह गए मालूम होते हैं कि उस समय जैनेतर विद्वानों में धार्मिक अनुदारता की मात्रा अधिक होने के कारण उन्होंने उन ग्रन्थों का उल्लेख नहीं किया। किन्तु अब ज्यों-ज्यों इस देश में ऐतिहासिक अनुसन्धान और पुरातत्व का अध्ययन विशाल होता जा रहा है, जैनियों का गुस्तर साहित्य प्रकाश में आता जा रहा है और अनेक संस्थाएँ उसको प्रकाश में लाने का सुकार्य कर रही हैं। कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्र के नाम से आज कोई भी देशी-विदेशी विद्वान् अनभिज्ञ नहीं हैं। भाषा-शास्त्र और साहित्य का प्रत्येक मर्मज्ञ इस बात को मानता है कि हेमचन्द्राचार्य के समान धुरन्धर और अगाध विद्वान् संसार में बहुत कम हुए हैं। इस हीनावस्था में भी संसार के विद्वान भारतीय साहित्य, दर्शन और कला का जो लोहा मानते हैं, उसका मुख्य कारण भारतीय वाङ्गमय की अलौकिक उन्नति और विस्तृति ही है। भारतीय कला और साहित्य की इस भव्य उन्नति और विस्तृति के मूल में भारत के सभी समाजों और धर्मों के साहित्य का समन्वय है । हिन्दुओं का वैदिक और पौराणिक साहित्य, बौद्ध-साहित्य और जैनसाहित्य सबके योग से ही भारतीय वाङ्गमय की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति होती है। जैन-साहित्य का अतुल भण्डार अभी भी अंधकार में पड़ा है, जिसके प्रकाशित होने से भारत का सिर ऊँचा होगा। भाषातत्व के सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री सुनीतिकुमार चटर्जी ने जेन-साहित्य की महत्ता के लिये लिखा है "The Jain literature of western India, Gujrat, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rajputana and Malwa during the medierål and earls modern periods forms quite a distinctire thing in the expression of Indian culture and by its extent and variets presents a veritable embarres de richesse." __ दुर्भाग्य से आज जैन समाज की ऐसी हालत है कि २५०० शताब्दियों में जो विपुल साहित्य रचा गया, वह केवल भण्डारों और वस्त्रों में बन्द है। जैन-समाज व्यापार में प्रवेश करके इतना व्यापारी हो गया कि वह साहित्य और कला की महत्ता को बिल्कुल भूल गया और धार्मिक झानशीलता के अभाव में साहित्य की सृष्टि कक गई, सच्चे विद्वानों और कलावानों का आदर इस समय में घट गया, जिसके कारण समाज की अप्रगति का मार्ग अवरुद्ध हो गया है। नये साहित्य की सृष्टि की बान तो दूर, आज तो समाज में इस बात की भी दरकार नहीं समझो जाती कि हमारा प्राचीन साहित्य अधिकाधिक प्रकाश में आवे, हम उससे फायदा उठाव और संसार भी उसकी महत्ता, गुरुता और प्रामाणिकता समझ सके। हमारे देश का यह दुर्भाग्य ही है कि अपने घर की ज्योति उस समय तक छिपी रहती है, जब तक विदेशी विद्वान् आकर हमको वह बतलाव नहीं। हमारे साहित्य की महत्ता समझाने के लिये टाड, फार्बस, वाटसन, हार्नल, जैकोबी और विन्टर नित्स आते हैं और उनके द्वारा हमारे धर्म-साहित्य के जो प्रामाणिक और सुसम्पादित प्रकाशन होते हैं, उनको देख कर हमें दांतों तले उंगली दबानी पड़ती है। आज हमारे कितने ऐसे वीर हैं जिन्होंने अपने साहित्य और दर्शन के लिये जीवन उत्सर्ग किया हो; कितने ऐसे हैं जिन्होंने उत्सर्ग करनेवालों का सम्मान किया है या कर सकते हैं ? क्या हम एक भी वाटसन. एक भी जैकोबो या एक भी हार्नल नहीं पैदा कर सकते-नहीं नैयार कर सकते; पर यहाँ साहित्य का महत्व ही क्या है ? महात्मा गान्धी ने एक बार जैनसाहित्य की अवस्था के विषय में कहा था- गुजरात में जैन-धर्म की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) पुस्तकों के बहुत भण्डार हैं, किन्तु वे बनियों के घर में हैं। उन्होंने उन पुस्तकों को सुन्दर रेशमी वस्त्रों में लपेट कर रखा है। पुस्तकों की ऐसी दशा देख कर मेरा हृदय रोने लगता है, पर जो रोने लगे तो ६३ वर्ष तक जीता कैसे ? किन्तु मुझे ऐसा लगता है कि यदि चोरी कोई गुनाह नहीं समझा जाता हो तो मैं उन पुस्तकों को चुरा ले और फिर उनसे कहूँ कि ये पुस्तकें तुम्हारे योग्य नहीं होने से मैंने उनको चुरा लिया। वणिकों के पास ये ग्रन्थ शोभा नहीं देते, वणिक तो पैसा एकत्रित करना जानते हैं, और इसीलिये आज जैन-धर्म और जैन-साहित्य अस्तित्व रखते हुये भी निर्जीव पड़े हैं।" जैन-साहित्य के अन्वेषण, शोधन और प्रकाशन को इस समय संसार को अत्यन्त आवश्यकता है। जिसकी कल्पना समाज के भविष्य तक पहुँच सकती है, जो आज की जड़ता को महसूस करता है, वह अवश्य पुकार-पुकार कर इस बात को कहेगा कि यदि जैन-समाज सचमुच अपने जीवन की सुखद कल्पना करता है, यदि वह अतुल साहित्य की श्री में संसार का आदर भाजन होना चाहता है, यदि वह अपनी भावी संतति के हृदयों में समुन्नत्त आदर्शों की रचना करना चाहता है, तो उसे अपने गौरवपूर्ण साहित्य की रक्षा, वृत्ति और शोध के लिये कर्मशील हो जाना चाहिये। ज्ञान और साहित्य की साधना के अभाव में धर्म की ज्योति अनन्त काल तक नहीं रह सकती। यदि उसको अनन्त काल तक अक्षुण्ण रखना है. तो साहित्य के संरक्षण और उद्धार का कार्य आवश्यक है। आधुनिक जैन समाज ने जो भी साहित्यिक सुपुत्र पैदा किये, उनसे न केवल समाज और धर्म का मुखोज्जल हुआ, परन्तु समस्त देश की साहित्यिक प्रगति को जीवन और बल मिला। श्रद्धय प० सुखलालजी जैसे विद्वानों ने भारतीय साहित्य और विचार को प्रोत्साहन दिया। जैन समाज के इन्हीं बिरले लालों में स्वर्गीय पूर्णचन्द्रजी नाहर थे। सुपुत्र पद की साहित्यिक ने भारतीय लालो । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत प्रन्थ स्वर्गीय नाहरजी के कतिपय साहित्यिक प्रबन्धों का संकलन है, जिनको उन के सुयोग्य पुत्र और मेरे अत्यन्त प्रिय मित्र श्री विजयसिंहजी नाहर ने प्रकाशित किया है। मुझे स्वर्गीय पूर्णचन्द्रजी के दर्शन का ही सौभाग्य मिला था, क्यों कि मैं उनके निकट सम्पर्क में आता और उनकी कुछ सेवा कर सकता, इससे पहले ही हमारे दुर्भाग्य ने उन्हें हमारे बीच में से उठा लिया। मुझे नहीं मालूम था कि उस महापुरुष के इन कतिपय निबन्धों के प्राव.थन रूप में मुझे कुछ लिखना पड़ेगा। पर मेरे लिये यह कम सौभाग्य का विषय नहीं है कि जिस नररत की आजीवन साहित्य-साधना के चरणों पर मैं सादर नत-मस्तक हूँ, आज इस लेखनी द्वारा उनकी अमर वचनसम्पत्ति की सेवा कर रहा हूँ। आज उन्हीं के विषय में ये दो पंक्तियाँ लिखने का सौभाग्य मुम अल्पज्ञ को मिला है। श्रीयुक्त नाहरजी जैन समाज के एक अत्यन्त आदरणीय पुरुष थे जिनका अपना निजी व्यक्तित्व था जैसा कि प्रत्येक साहित्यिक का होता है। सच्चा साहित्य सच्चे व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है। यह आश्चर्य का ही विषय है कि मुर्शिदाबाद के एक धनी परिवार में जन्म लेकर भी नाहर जी किस प्रकार साहित्य और पुरातत्व की रुचिर लगन और साधना उत्पन्न कर सके। उनके जीवन की जो सामग्री हमें उपलब्ध होती है उससे हमें तो कोई भी ऐसी बात नहीं मालूम होती कि जिसके आधार पर हमें यह कहने में हिचकिचाहट हो कि श्री नाहरजी में साहित्य और पुरातत्व-शोध की प्रतिभा और प्रवृत्ति जन्मजात और संस्कारगत थी। अपनी आमरण साहित्य साधना से उन्होंने यह सिद्ध कर दिया था कि उनके जीवन का प्रत्येक अंश साहित्य और इतिहास की सेवा के लिये था। उन के संग्रह कार्य के लिये मित्रों से सुना जाता है कि एक अखबार के कवर के लिये वे सैकड़ों कठिनाइयों को भी परवाह न कर के बेहद उत्साह के साथ चेष्टारत रहते थे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी संग्रह वृत्ति का परिणाम आज 'गुलाबकुमारी पुस्तकालय' का बहुमूल्य संग्रह हमारे लिये-विशेषकर अध्ययनशील विद्वानों के लिये अद्भुत खजाना पड़ा है। श्रीयुक्त नाहरजी ने संस्कृत, प्राकृत और अंग्रेज़ी की उच्च शिक्षा प्राप्त की थी और उनमें उनका ज्ञान उत्कृष्ट था। आपने हिन्दी, अंग्रेज़ी और बँगला में अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। उनके जैन लेख संग्रह' तीन भागों में हिन्दुस्तान के विभिन्न भागों से संकलित किये हुये करीब ३००० शिलालेखों का संग्रह है जिनसे जैन इतिहास और पुरातत्त्व का महान् उद्धार हुआ है। उनका 'Epitome of Jainism' नामक बृहद् ग्रन्थ जैन-साहित्य का एक पठनीय ग्रन्थ है। इसके अतिरिक्त उनका विशाल संग्रहालय भी पुकार पुकार कर उनकी परिश्रम-प्रियता और सच्ची पुरातत्व-प्रियता का प्रकाश करता है। उनके विशाल पाण्डित्य, अद्भुत परिश्रम, अपूर्व शास्त्रज्ञान और विस्तृत अध्ययन की प्रशंसा में हिन्दी-साहित्य के आचार्य श्री महावीरप्रसादजी द्विवेदी ने आज से ७ वर्ष पूर्व कहा था "विज्ञान-विद्या विभवप्रसारमधीत जैनागम शास्त्र सारम् । चन्द्रं पुराकृत तमोत्कार, त्वां पूर्णचन्द्रं शिरसा नमामि ॥" और यही कहा था, महाकवि श्री मैथिलीशरणजी गुप्त ने 'बहुरत्ना वसुदा विदित और धनी भी भूरि । दुर्लभ है ग्राहक तदपि पूर्णचन्द्र सम सरि ॥" जैन-धर्म का प्राचीन इतिहास और पुरातत्त्व ही श्री नाहरजी का मुख्य लेखन-विषय था। बिना प्राचीन इतिहास के हमलोग प्राचीन गौरव और कीर्ति नहीं जान सकते और वास्तव में यह इतना महान विषय है भी कि उसमें अवगाहन करके कोई भी अन्य विषय की आवश्यकता नहीं रहती। साहित्यिक अथवा सामाजिक विषयों पर वे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखते जरूर थे और हमारी दृष्टि में तो वह भी कमाल का ही लिखते थे, पर उनका असली विषय पुरातत्त्व था। यह बात उन्होंने अपने कई निबन्धों में कही भी है, जैसे- "मैं केवल प्राचीन शिला-लेख आदि की खोज में ही लगा रहता हूँ।” या “पुरातत्त्व विषय-शोध का ही प्रेमी होने के कारण..........." इस प्रबन्धावली में अधिकांश महत्त्वपूर्ण लेख प्राचीन खोज-सम्बन्धी ही हैं, किन्तु फिर भी प्रबन्धावली के लेखों से हमको यह मालूम पड़ता है कि आधुनिक साहित्यिक और सामाजिक विषयों में भी उनकी दिलचस्पो कम नहीं थी। वे सामयिकता का महत्त्व समझते थे। उन्होंने लिखा है-"चाहे तीर्थकर, चक्रवत्ती, शिशु चाहे युवक कोई भी क्यों न हो, समय की गति को अबाध्य करने में समर्थ नहीं। जैनागम के स्थान-स्थान पर 'तणं कालणं, तेणं समयेणं' का उल्लेख मिलता है।" प्राचीन वस्तुओं की शोध और प्रकाशन में लगे रहते हुए होने पर भी सामाजिक और पारिवारिक जीवन में वे समय के प्रभाव को पहचानते थे। उन विषयों के विश्लेपण में भी अपनी लेखनी का उपयोग करते थे। पर्द, स्त्री-शिक्षा, साहित्यिक रुचि आदि के विषय में उन्होंने कई बार उदगार प्रकट किये थे । स्त्री-शिक्षा के विषय में लिखा है-- "कोई भी जाति की सच्ची उन्नति उसी समय हो सकती है, जब कि उस जाति को महिलाएं सुशिक्षिता हों और उनके विचार उच्च-कोटि के हो। जब तक ऐसा न होगा, तब तक सची और स्थायी उन्नति सम्भव नहीं है।" साहित्य को महत्ता के विषय में उन्होंने लिखा है-“समाज-वृक्ष का साहित्य फल है और साहित्य-रूपो फल में समाज-रूपी वृक्ष को हरा-भरा रखने की शक्ति विद्यमान है।" ___ कहने का मतलब यह है कि पुरातत्त्व ही से उनका जो तृप्त नहीं हुआ था आधुनिक समस्याओं पर भी उनका ध्यान था। यह बात उनके लिये इस देश के डायरकर ऑफ आर्कियालोजी ने भी कही है-- Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) “He held fast in his loyalty to all that was best in the old culture and still not unresponsive to the needs of the new age" प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रबन्धों में भी सभी सुरुचि के पाठकों को सामग्री मिलेगी। नाहरजी का जन्म उस प्रान्त में हुआ था जो वस्तुतः हिन्दी भाषा का प्रान्त नहीं समझा जाता; यद्यपि अब यह बात नहीं, क्योंकि हिन्दी के ग्रहण में अब प्रान्तीय क्षद्र-भावना को स्थान नहीं रहा है। यह एक स्वर से राष्ट्रीय भाषा स्वीकार की गई है। तथापि भाषा विज्ञान के साधारण नियमों के अनुसार भाषा में किंचित स्वरूप भेद तो संभव है ही। एक पुरातत्वज्ञ के नाते स्वयं नाहरजी का भाषातत्त्व का अच्छा ज्ञान था जिसको छाया हमें उनके प्रवन्धों में स्थान स्थान पर दृष्टिगोचर होती है। वे खुद कहते थे-"प्रचलित भाषा पांच पांच, दस दस, या सौ सौ कोसों पर कुछ न कुछ बदली हुई प्रतीत होती है।" भाषा के विकास और परिवर्तन में भौगोलिक कारण अति प्रधान होता है। नाहरजी की भाषा में प्रौढ़ता और प्रभविष्णुता की कमी नहीं है यद्यपि कहीं कहीं उसमें बंगाली या मुर्शिदाबादी स्लैंग आजाने के कारण व्याकरण की अशुद्धता रह गई है। किन्तु कहीं कहीं उनके वाक्य भाषा और शैली की दृष्टि से बडे ओजपूर्ण मालम पड़ते हैं। जैसे____ “यदि जैन धर्म केवल आचार्यों पर निर्भर न रहता, तो जाति बंधारण की कदापि ऐसी सृष्टि नहीं होती। यदि वीर परमात्मा की वाणी सुनने के लिये केवल उन लोगों के मुख कमल की तरफ ताकना न पड़ता तो सम्भव है कि जैन जाति के वर्तमान बंधारण में जिस कारण विशेष हानि उपस्थित है, उसे देखने का अवसर नहीं मिलता।" __इन वाक्यों का शब्द-चयन तथा गठन काफी ओजपूर्ण है। ऐसी प्रौढ़ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) भाषा हर कोई नहीं लिख सकता । प्रस्तुत पुस्तक के प्रबन्धों से उनकी निष्पक्षता भी पूर्ण से मालूम होती है। वे किसी भी बात के विरोध में उस समय तक नहीं पड़ते थे, जब तक कि उस विषय की पूरी छानबीन न कर लेते थे । 'कूएं भांग' शीर्षक उनका प्रबन्ध इस बारे में पठनीय है। 'धार्मिक उदारता', 'वर्तमान समस्या' और 'श्वेताम्बर' दिगम्बर सम्प्रदायों की प्राचीनता' आदि प्रबन्ध इस बात के द्योतक हैं। जैन साहित्य को उत्तम से उत्तम रूप में प्रकाश में लाने की उनकी अतृप्त आकांक्षा थी। वे केवल प्रन्थों का येन केन प्रकारेण प्रकाशन कराना ही अलम् नहीं समझते थे, प्रत्यों के निर्वाचन, सम्पादन और प्रकाशन के विषय में भी उनकी भव्य कल्पनाएं थीं। उन्होंने लिखा है____ "कोई प्रन्थ क्यों न हो, उसका गौरव उसके कर्ता के हाथ से निकलने पर जो था, उतना ही नहीं, परन्तु उससे कई गुना अधिक बनाये रखने के लिये हमें आवश्यक है कि हम उन्हें सुपात्र उत्तराधिकारी की तरह अच्छी प्रकार समालोचना और उपयुक्त टीका टिप्पणी के साथ बड़ी सावधानी के साथ प्रकाशित करें।.............."यदि पुस्तक शुद्ध ही नहीं हुई, पूरी छानबीन, जांच पड़ताल के साथ छापी ही न गई तो दूसरी गौण बातों पर कौन ध्यान देता है ?" वास्तव में, प्रन्थों के सम्पादन और प्रकाशन की यह बुराई अनेक प्रन्थों में दिखाई देती है। बिदेशों में जो संस्कृत आदि आर्य भाषाओं के प्रन्थ प्रकाशित होते हैं, उनमें शायद ही अशुद्धि रहती है, शायद ही उसमें कोई विषय छूटता है। इसका कारण यह है कि वहां के विद्वानों को प्रन्यों से सचा प्रेम होता है। वे उनके प्रणयन या सम्पादन में अपना जीवन भर भी लगा सकते हैं, लगा देते हैं। श्री नाहरजी इसी मादर्श के व्यक्ति थे-यथासाध्य उन्होंने इस बात को बराबर ध्यान में रखा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) अपनी जीवन पर्यन्त को हुई साहित्यिक तपस्या के बल से जैन साहित्य का मस्तक ऊँचा रखनेवाले एवं हममें अपने उदाहरण से आत्मचेतना पैदा करनेवाले, उस महान साहित्यिक के निधन से आज हम कितने दीन हो गये हैं; इसका अनुमान सहज ही नहीं लग सकता, पर उन पवित्रात्मा के प्रति जैन समाज का यह कर्तव्य है कि वह अधिकाधिक रूप में उनके द्वारा किये हुये यज्ञ को जारी रखे प्राचीन ग्रन्थरत्नों का शीघ्रता के साथ प्रकाशन किया जावे। यह हमारा एक कर्त्तव्य है, जिसके पालन में हमें क्षणमात्र के लिये भी निश्चेष्ट नहीं रहना चाहिये। जड़ता ही मृत्यु है । आज यह समय आ गया है कि इस धर्म के अहिंसा और अनेकान्त जैसे उच्च सिद्धान्तों की तरफ पीड़ित मानवता को ध्यान देना ही होगा । हिंसा के आतंक से घुटा हुआ मानव, आज अहिंसा की शरण लेना चाहता है। दुनिया की छाती पर हिंसा के फोड़ों में बहुत मवाद भर गया है - शरीर जर्जरित हो रहा है, अहिंसा का मलहम चाहिये । इसलिये जैन साहित्य का प्रचार अधिकाधिक होने से एक तरफ तो भारतीय साहित्य की श्री - वृद्धि होगी, जनता में लोक-कल्याण और सुखशान्ति विधायक सिद्धान्तों का सच्चा प्रकाश फैलेगा और दूसरे तरफ धर्म की सच्ची आत्मा जागृत होगी, उसकी भव्य प्रेरणा कार्यान्वित होगी । आज के युग में हर एक धर्म और सम्प्रदाय का साहित्य प्रकाश में आना चाहिये जिससे ज्ञान का विकास हो और धार्मिक, सांस्कृतिक समन्वय की स्थापना हो । सच्चा जिज्ञासु आज प्रत्येक मजहब को विश्लेषणात्मक और बौद्धिक कसौटी पर कसना चाहता है । बौद्धधर्म जैनधर्म से बाढ़ का है और एक दफा भारत में उसका प्रकाश ओझल हो गया था, किन्तु इन १० वर्षों में बौद्ध साहित्य की तरफ जनता आकृष्ट हो रही है, दिन प्रतिदिन बौद्ध साहित्य के ग्रन्थरत्न प्रकाश Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में आ रहे हैं। इसका कारण यही है कि उनके प्रचार में आधुनिकता है। उन्होंने इस धर्म के पुनर्जीवन के लिये ज्ञान और ज्ञानियों की शरण ली है। उसके लिये बौद्ध भिक्षुओं ने मिशन स्पिरिट ग्रहण की है। हमारे वर्तमान आचार्य भी यदि इस बात की ओर ध्यान दें तो बहुत कुछ कल्याण हो सकता है। जैनधर्म के सिद्धान्त सर्व-जनहितकारी और नैतिक बौद्धिक दृष्टि से बड़े सबल हैं। अहिंसा से तो माज इस देश को लड़ाई लड़ी जा रही है। बौद्ध साहित्य के प्रकाशन और प्रचार के लिये उस धर्म के अनुयायी तन, मन, धन से चेष्टा कर रहे हैं। आज अंग्रेज़ी, जर्मन, जापानी, चीनी, हिन्दी, बंगाली, मराठी और गुजराती आदि सभी भाषाओं में बौद्ध ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं । धम्मपद, त्रिपिटिक, मच्मिमनिकाय, सुत्तनिकाय, दीघनिकाय, जातक कथा, मादि सभी प्रमुख प्रन्थ आज अंग्रेज़ी, जर्मन और राष्ट्रभाषा हिन्दी में विद्यमान हैं। यह युग ही धर्म-मन्थन का है। प्रत्येक धर्म में कान्त-जीवन का उदय हो रहा है–यदि नहीं हुआ है तो होना चाहिये। जैन-साहित्य का, जैसा मैं पहले कह चुका हूँ, बड़ा विशाल भविष्य है, यदि हममें उस तरफ कार्य करने की लगन हो। आज कितने शर्म की बात है कि धर्म-प्रवर्तक श्री महावीर का कोई प्रामाणिक, बौद्धिक कसौटी पर खरा उतरनेवाला निरपेक्ष भाव से लिखा हुआ जीवन-चरित्र नहीं है। श्रद्धय पण्डित सुखलालजी जैसे महान प्रतिभा सम्पन्न और गहन अध्ययनवाले विद्वान् को शीव इस विषय को लेना चाहिये। यदि उन्होंने यह कार्य किया तो अवश्य जैन साहित्य का, भारतीय-समाज और मानव जाति का महान् उपकार होगा। मैं धार्मिक विच्छेद या मातंक की बात नहीं कहता। में धार्मिक स्वतन्त्रता का कायल हूँ, किन्तु मेरा मतलब यह है कि प्रत्येक धर्म एक सुदीर्घ अनन्त सत्य की ज्योति से प्रोद्भासित हुआ था; वह ज्योति सत्र में किसी न किसी आवरण में प्रचलित है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) उसे जनता के दर्शन, आत्मा के प्रकाश, तिमिर-विनाश के लिये सामने लाना चाहिये। आज की अवस्था तो हमारे लिये लज्जा और दुःख की अवस्था ही है। प्रत्येक साक्षर का कर्त्तव्य है कि वह जैन-साहित्य में रुचि पैदा करे, प्रत्येक विद्वान का कर्तव्य है कि वह जैन-साहित्य को सेवा का प्रण करे । आज यह आवश्यकता है कि जैन-ग्रन्थों को आधुनिक भाषाओं में आधुनिक प्रणाली से सम्पादन करके, भूमिकाओं और टिप्पणियों के साथ उपयोगी बना कर प्रकाशित किया जाय । यूनिवर्सिटियों में पाश्चात्य साहित्य-प्रणालियों का अध्ययन करनेवालों ग्रेजुएटों को जैन साहित्य की-घर के हीरों की भी खबर लेनी चाहिये। जैन-धर्म और जैन-साहित्य से भारतीय-साहित्य और भारतीय-दर्शन की एक नयी ज्योति उद्भासित हो सकेगी। जहाँ हिंसा और दमन का आतंक है, वहाँ अहिंसा और शान्ति की बूंदे बरस सकेंगी। स्वर्गीय नाहरजी की अन्तरात्मा इसी ज्योति की प्रभा के प्रसार के लिये लालायित थी-उसीके लिये उनकी कार्य-शक्ति आलोडित थी। आज वे नहीं हैं, तो क्या उनकी प्रेरणा भी जीवित नहीं है ? जैसे उनकी कीर्ति अमर है, साधना अक्षुण्ण है, उसी तरह उनके जीवन की आदर्शात्मक प्रेरणा जीवित है। और हमें उसको ग्रहण करना चाहिये। आशा है, जैन-धर्म के हितैषी और ज्ञान-विकास के सच्चे हिमायती सत्त्वर गति से इस जिम्मेवारी को कार्यान्वित करेंगे। ___ अन्त में, मैं स्वर्गीय नाहरजी की मृतात्मा, किन्तु सजीव प्रेरणा के लिये श्रद्धा और अर्चना प्रकाश करता हुआ, भाई विजयसिंहजी को ये साहित्यिक-प्रबन्ध प्रकाशित करने और मुझे ये पंक्तियां लिखने का दुर्लभ अवसर देने के लिये धन्यवाद देता हूँ। कलकत्ता भँवरमल सिंघी ता. २३-११-३७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूरण चन्द नाहर जन्म १५ मई १८७५ मृत्यु ३१ मई २६३६ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय श्री पूरणचन्दजी नाहरका जन्म सं० १९३२ (१८७५ ई० ) की बैशाख शुक्ला दशमीको अजीमगंज ( मुर्शिदाबाद ) में हुआ था । आपके पिता रायबहादुर सिताबचन्दजी नाहर ओसवाल समाज के एक धार्मिक, विद्याप्रेमी तथा सुप्रतिष्ठित जमीन्दार थे। नाहरजीने एन्ट्रन्सकी शिक्षा अपने पितामही के नामपर पिताजी द्वारा स्थापित "बोबी प्राण कुमारी जुबिली हाईस्कूल" में पायी थी । १८६५ ६० में आपने प्रेसिडेन्सी कौलेजसे बी० ए० पास किया । आप बंगाल के जैनियोंमें सर्वप्रथम ग्रेजुएट हुए थे । तत्पश्चात् आपने कानून का अध्ययन किया एवं पाली भाषा में कलकत्ता यूनिवर्सीटीसे एम० ए० की डिग्री प्राप्त की । आपने कुछ दिन बरहमपुर ( मुर्शिदाबाद ) की जिला अदालत में वकालत भी की। तत्पश्चात् सन् १६१४ में कलकत्ता हाईकोर्ट में एडवोकेट हुए । आप कुछ दिन तक औनरेवल मिस्टर भूपेन्द्रनाथ बसु सौलीसीटर के पास आर्टिकल क्लर्क रहे। इस समयसे आपको साहित्य एवं पुरातत्वसे प्रेम बढ़ता गया एवं आइनजीवीका कार्य छोड़कर आपने अध्ययन एवं प्राचीन बस्तुओं की खोज तथा संग्रहमें ही जीवन व्यतीत करना शुरु किया । आप सार्वजनिक कार्योंमें भी अच्छा भाग लेते थे। बहुत दिनोंतक आप बनारस हिन्दू विश्वविद्यालयके कोर्ट में श्वेताम्बर जैनियोंकी ओरसे प्रतिनिधि रहे । कलकत्ता विश्वविद्यालयमें मैट्रिक, इन्टरमीडियट और बी० ए० परीक्षाओंके कई वर्ष तक आप परीक्षक भी रहे। पी० आर० एस० के बोर्डमें भी आपने परीक्षक का कार्य किया था । आप इंगलैण्ड के रौयल एसिएटिक सोसाइटी इंडिया सोसाइटी आदि तथा बंगाल एसियेटिक सोसाइटी, विहार उड़िसा रिसर्च Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोसाइटी, बंगीय साहित्य परिषद्, भंडारफर ओरियन्टल इन्सीट्यूट, नागरी प्रचारणी सभा आदि संस्थाओंके सदस्य थे। बहुत दिनोंतक मुर्शिदाबाद के तथा लालबाग कोर्टके औनररी मैजिस्ट्रेट, अजीमगंज म्युनिस्पैलिटीके कमिश्नर तथा मुर्शिदाबाद डिस्ट्रिक बोर्ड के सदस्य एवं एडवर्ड कोरोनेशन स्कूलके सेक्रेटरी भी थे। आप आर्कियोलोजिकल डिपार्टमेन्टके औनररी कोरेस्पोन्डेन्ट तथा भंडारकर इन्स्टीट्यूट, पूना; जैन श्वेताम्बर एज्यूकेशन बोर्ड, बम्बई; राममोहन लाइब्रेरी, कलकत्ता तथा जैन साहित्य संशोधक समाज, पूमा, के आजीवन सदस्य थे। बाल्यावस्थासे ही आपको भ्रमणका बहुत शौफ था और आपने प्रायः समस्त प्रसिद्ध जैनतीर्थोंकी यात्रा भी की थी। यात्राके साथसाथ आप पुरानी वस्तुओंका तथा तीर्थों में मूर्तियों पर के लेखों आदिका संग्रह करते रहते थे। मृत्युके कुछ दिन पूर्व ही आप दक्षिण भारतके प्रसिद्ध स्थानों तथा शत्रुजय आदि गुजरात प्रान्तके और राजपूतानाके तीर्थों की यात्रा कर लौटे थे। जैन समाजमें आप एक उच्चकोटिके विद्वान थे। आपका इति. हास पुरातत्व सम्बन्धी शौक बहुत बढ़ा चढ़ा था। प्राचीन जैन इतिहासकी खोजमें आपने बहुत कष्ट सहा और धन भी बहुत खचं किया। आपने जो जैन-लेख संग्रह' तीन भाग, 'पाषापुरी तीर्थका प्राचीन इतिहास', 'एपिटोम आफ जैनिज्म' तथा 'प्राकृत सूत्र रत्नमाला' आदि ग्रन्थ प्रकाशित किये हैं वे ऐतिहासिक दृष्टिसे बहुत महत्वपूर्ण और नवीन अनुसन्धानोंसे पूर्ण हैं। ___ 'आपको विद्वता पर ओसवालोंको नाज था तथा आपकी तीर्थ सेवाओंपर श्वेताम्बर जैनियोंको घमंड था।' आपने श्री महावीर स्वामीकी निर्वाण भूमि 'पावापुरी' तीर्थ तथा 'राजगृह' तीर्थक विषयमें समय, शक्ति और अर्थसे अमूल्य सेवा की है। पावापुरी तीर्थ के वर्तमान मन्दिर , जो सम्राट शाहजहांके राजस्वकालमें सं० १९९८ में बना था, उस समयकी मन्दिर-प्रशस्ति, जिसके अस्तित्वतकका पता न Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ग] था, आपने ही मूलवेदीके नीचेसे उद्धार किया और उसी मन्दिस्में लगवा दिया है। इस तीर्थके इलाके में कुछ गांव थे जिसकी आमदनी भंडारमें नहीं आती थी, सो आपके अथक परिश्रम और प्रयत्नसे आने लगी है। आपने पावापुरीमें दोन-हीनोंके लिये एक 'दीन शाला' बनवा दी है जो विशेष उपयोगो है। तीर्थ राजगृहके विपुलाचल पर्वत पर जो श्री पार्श्वनाथजीका प्राचीन मन्दिर है, उसकी सं० १९१२ की गद्यपद्यबन्ध प्रशस्ति के विशाल शिलालेखका आपने बड़ी खोजसे पता लगाया था। वह शिलालेख अभी राजगृहमें आपके मकान 'शान्तिभवन' में है। इस तीर्थके लिये श्वेताम्बरियों और दिगम्बरियों के बीच मामला छिड़ा था। उसमें विशेषज्ञोंकी हैसियतसे आपने गवाही दो थी और आपसे महीनोंतक जिरह की गयी थी। इसमें आपके जैन इतिहास और शालके ज्ञान, आपकी गम्भीर गवेषणा और स्मृति-शक्तिका जो परिचय मिला, वह वास्तवमें अद्भुत था। पश्चात् दोनों सम्प्रदायोंमें समझौता हो गया। उसमें भी आप ही का हाथ था। आपने पटना ( पाटलिपुत्र ) के मन्दिरके जीर्णोद्धारमें मच्छी रकम प्रदान की थी। ओसियां (मारवाड़) के मन्दिरमें जो ओसवालोंके लिये तीर्थ रूप है, डूंगरी पर जो चरण थे, उनपर मापने पत्थर की सुन्दर छतरी बनवाई थी।' तीर्थ-सेवाके साथ साथ आपने बरावर अपनेको समाज-सेषामें भो तत्पर रखा। आप समाज-सेवाकी हृदयसे कामना रखते थे और घोषणा द्वारा अपनेको दिखानेकी आपने कभी बेष्टा नहीं की। शांतिपूर्वक सेवा करना ही आपका ध्येय था। आप समाज सुधारमें पूर्ण विश्वास रखते थे और प्रबल समाज-सुधारक थे। आपने अपने यहां के विवाह प्रभृति सामाजिक कार्यों में बहुत सुधार किये, जिसके कारण आपसे आपके गांवके लोग विरोधी हो गये थे परन्तु मापने किसीकी कुछ पर्वाह न की और दिन-ब-दिन सुधारके लिये मप्रसर ही होते गये। भाप किसीके ऊपर बल देकर सुधार करानेके विरोधी थे।' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ घ ] 'कलकत्ताके ओसवालोंमें जब देशी-विलायतीका युद्ध षड़ी खुरी तरहसे चला था तब उसे भी आपने बड़ी दूरदर्शिता और प्रेमके साथ निपटा कर समाज का बहुत हित किया। श्री अखिल भारतवर्षीय ओसवाल महासम्मेलन के प्रथम अधिवेशन पर जब आपको प्रेसिडेन्ट चुना गया तब आपने १०४ डिग्री बुखार होते हुए भी कलकत्ताले अजमेर तक रेलमें सफर किया और समाज-सेवासे मुख म मोड़ा।' इस अवसर पर आपका भाषण बहुत महत्वपूर्ण तथा समयोपयोगी हुआ था। आपको पुरानी चीजोंकी खोजके साथ साथ उनका संग्रह करनेका भी बहुत शौक था। आपने बहुत अर्थ व्यय कर पुराने सुन्दर भारतीय चित्रों, भारतके विभिन्न स्थानोंकी प्राचीन मूर्तियों, सिक्कों, क्यूरियो, हस्तलिखित पुस्तकों आदिका संग्रह किया और उसे कलकत्तेमें अपने कनिष्ठ भ्राता की स्मृतिमें बने हुए कुमार सिंह हालमें प्रदर्शित कर रखा है। अपनी माताजी के नाम पर आपने ई० सन् १९१२ में श्री गुलाब कुमारी पुस्तकालयकी स्थापना की थी एवं आज वह पुस्तकालय जैन ग्रंथों एवं पुरातत्वकी पुस्तकों के लिये कलकत्तेमें ही नहीं बल्कि भारतवर्षमें एक प्रसिद्ध संस्था हो रही है । आप हर तरहका संग्रह करते थे। 'आपमें संग्रहकी प्रवृत्ति एक जन्मजात संस्कार ही था। छोटी-छोटी चीजोंका भी वे ऐसा संग्रह करते थे कि जो कलाकी दृष्टिसे बहुत महत्वपूर्ण और दर्शनीय हो जाता था। आपके यहां मासिक पत्रोंके मुखपृष्ठका जो संग्रह है वह इस बातका प्रमाण है। इन मुखपृष्ठोंको एकत्रित करनेमें आपने जो परिश्रम और समय व्यय किया उसकी सार्थकता एक साधारण व्यक्ति नहीं समझ सकता, फिर भी इतिहास और कलाप्रेमीके लिए वह संग्रह कम कीमत नहीं रखता। इसी प्रकार विवाहकी कुंकुम पत्रिकाओंका संग्रह भी आपने किया था और इससे यह बतला दिया था कि छोटी-छोटी वस्तुएँ भी अपना महत्व रखती हैं।' 'आप प्रत्येक वस्तुको बड़े सुन्दर ढंगसे सजाकर रखते थे। आपका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व ] उपे चित्रोंकी पन्द्रह वीस चित्रावलियों, पुराने टिकटों, कलाकी वस्तुओं, अखबारोंकी कतरन, जैन-सम्बन्धी लेखों तथा समाचारों, सम्राट् की रजत-जयन्ती, राज्याभिषेक तथा शव-जुलस का संग्रह, बड़ा ही अनुपम हुआ है, जो कि और कहीं नहीं मिल सकता।' आप ३१ मई; १९३६ को संध्याके सवा पांच बजे पूर्ण ज्ञानमें समाधीके साथ ४ पुत्र, ५ कन्या तथा पौत्र प्रपौत्र आदि परिवार को छोड़कर देव-लोक पधारे। आपके विषयमें प्रसिद्ध विद्वान श्री ब्रजमोहनजी बर्माने 'विशाल भारत' में लिखा है:___ 'नाहरजो को महान् विद्वत्तासे कहीं बढ़कर थी उनकी सजनता । जो कोई भी उनसे मिलता, वही उनको सजनताकी तारीफ करता था। नाहरजी धनी थे. सुशिक्षित थे, विद्वान थे, लेकिन सबसे बढ़कर वे थे आदमी और आजकल आदी होना आसान नहीं है "हमने माना है फरिश्ता शेखजी, ‘आदमी' होना बहुत दुश्वार है !" नाहरजीका सरल स्वभाव और उनका सहज प्रेम ऐसा था, जो सभीको आकर्षित कर लेता था। यद्यपि नाहरजी वयोवृद्ध थे, साठ वर्षसे ऊपरके हो चुके थे, फिर भी उनमें युवकोंसे बढ़कर उत्साह और शक्ति थी। वे दिन में कभी सोते नहीं थे। उनको सुबहसे शाम तक काम करते देखकर युवक भी लजित हो जाते थे। जो कोई भी उनका संग्रह देखने जाता, उसे वे बड़े प्रेम और उत्साहसे दिखलाते थे। अपने अद्भुत संग्रहकी दुर्लभ वस्तुओंको दिखलाने में चार-चार पांच-पांच घंटे लगाकर भी वे थकते न थे। आगत सज्जनोंका आदर-सत्कार करनेके अतिरिक उन्हें मिलाने-पिलानेका मी नाहरजो को बड़ा शौक था। उनकी सबसे बड़ी बी यह थी कि वे बुडोंमें बुड़े, प्रोढ़ोंमें प्रौढ़, युवकोंमें युवक और बच्चोंमें पच्चे बन जाते थे, इसीलिए बच्चोंसे लेकर बूढ़ोंतक जो कोई भी इनसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ छ ] मिलता था, उसे यही जान पड़ता था कि वह अपने किसी पूर्व परिचित मित्रसे मिल रहा है। गरीब हो या अमीर- यहां तक कि नौकरों तक उनका वर्ताव एक-सा होता था । नाहरजी अपने टाइपके एक विशेष उदाहरण थे-ऐसे टाइपके, जो आजकल प्रायः दुर्लभ है ।' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन परिचय सूची-पत्र प्राचीन जैन हिन्दी साहित्य सम्पादक का कर्तव्य वैमासिक शिलालेख राजगृह के दो हिन्दी लेख स्त्री शिक्षा साहित्य और समाज रन कुंवरी बीबी मगाशिष कुए भांग धार्मिक उदारता साहित्यिक धार्मिक धार्मिक हिसाब तपासणी खाता वर्तमान समस्या श्वेताम्बर और दिगम्बर जैन सम्प्रदायोंकी प्राचीनता १ २० ३५ ३६ ૪૩ ४६ ५३ ५६ ६५ ८१ १३ 10 १०० ११३ पावापुरीका जल मन्दिर जैन धर्मपर विद्वानोंके भ्रम ११५ जैन जाति का आधुनिक बंधारण हानिकारक है या लाभदायक १९८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान पार्श्वनाथ जैन धर्म में शक्ति पूजा पार्श्वनाथ और शंकरनाथ सामाजिक जैसवालोंकी उत्पत्ति पर विचार समय पुरुष बलवान ओसवाल समाज का अग्निकुण्ड श्री ओसवाल उत्पत्ति पत्र हमारे महान पूर्वज विविध अशुद्ध कुंकुम ( केसर) श्री राजगृह प्रशस्ति एक दृश्य चौरासी लोकमान्य का संस्मरण कलकत्ते में कला प्रदर्शनी १४५ १४८ १५३ १६० १६४ १७४ १७८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन जैन हिन्दी साहित्य जैनियों के साहित्य का भण्डार पूर्ण है। मैं केवल प्राचीन शिलालेख आदि की खोज में ही लगा रहता है। साहित्य के विषय में एक प्रकार से मन है। इस विषय पर लिखने के लिये जैन साहित्य का मान पूरा पूरा चाहिए। अतएव प्राचीन साहित्य के ज्ञान की अपूर्णता और तत्सामयिक इतिहास के ज्ञान की संकीर्णता के कारण मेरे विचारों में भ्रम होना संभव है। मैं हिन्दी को और जैन साहित्य को पृथक् पृथक् नहीं समझता है। हिन्दी साहित्य में जैन साहित्य का स्थान उच्च है। सब को विदित है कि प्राकृत में ही जैनियो के मूल सूत्र सिद्धान्त रचे हुए हैं। प्राकृत और हिन्दी के सम्बन्ध में इतना ही कहना यथेष्ट है कि प्राकृत का रूपान्तर हो हिन्दी है अर्थात् हिन्दी का प्रारुत ही जन्मदाता है। सब विद्वानों को हात है कि भारत में विदेशी राजाओं के आने से देश की भाषा पर भी पूग असर पहुंचा। फ़ारसी अरवी का प्रभाव बढ़कर उस समय को प्राकृत और अपभ्रंश भाषाएं हो हिन्दी बन गई। क्रमशः प्राकृत शब्दों का व्यवहार घटते घटते प्राकृत का अस्तित्व लोप होने लगा। पुनः उर्दू के आविर्भाव के साथ हिन्दी की दशा और भी विगहने लगी। उस समय हिन्दी प्रेमी सुधार को चेष्टा करने लगे मोर लुप्त. प्राय प्राकृत के स्थान में संस्कृत शब्दों के तत्सम रूपों का यथायथ हिन्दी में अधिक होना आरम्भ हुआ। प्राचीन जैन साहित्य से हिन्दी या क्रमकार अत्युत्तम इतिहास बन सकता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *२* * प्रबन्धावलो. हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सप्तम अधिवेशन पर “जैन हितैषी” के सुयोग्य सम्पादक, सुप्रसिद्ध लेखक और ऐतिहासिक विद्वान् पंडित नाथूरामजी प्रेमी ने 'हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास' नामक एक गवेषणापूर्ण लेख लिखा है। उस निबन्ध से मुझे बहुत कुछ सहायता मिली है। उन्होंने जैन भाषा साहित्य का प्राचीन काल से वर्तमान समय तक का इतिहास बड़ी योग्यता से लिखा है। मिश्रबन्धु महोदयों ने जो हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा है, उसमें हिन्दी की उत्पत्ति सं० ७०० से मानी है। वे पुष्य नामक हिन्दी के पहले कवि का समय सं० ७०० कहते हैं और लिखते हैं कि इसका न तो कोई ठीक हाल ही विदित है और न इसकी कविता ही हस्तगत होता है। तदनन्तर सं० ८६० के लगभग 'खुमान रासा' के कर्ता भाट कवि का होना लिखा है, परन्तु यह ग्रन्थ भी अलभ्य है। वर्तमान 'खुमानगसा' बहुत पीछे का है। सं०१००० में गोता के अनुवादकर्ता भुवाल कांव का लमय लिखकर उनकी कविता का जो उदाहरण प्रकाशित किया है, उस कविता से कवि का सं० १००० हाने में सन्देह होता है। कविता की भाषा ब्रजभाषा है और उसकी परिपाटी गोस्वामी तुलसीदास जी की कविता को सो प्रतीत होती है। अनुमान से इस कविता की रचना वि० सं० १६०० के लगभग को होनी चाहिए। प्रन्थ के अन्त में “संवत् कर अब करौं बखाना। सहस्र से संपूरण जाना" है, इससे इतिहासकारों ने सं० १००० निर्णय कर लिया है परन्तु इसके दूसरे चरण के छन्द में गड़बड़ है। 'सहस्र' की * प्रेमी जी के "जैन हितैषी” में कई ऐतिहासिक लेख निरन्तर छपते रहते हैं जो जैन आचार्यों, इतिहास और साहित्य पर स्चा प्रकाश डालते हैं। धार्मिक दुर ग्रह के कारण कुछ जैन उन लेखों की कद्र भले ही न करें, किन्तु वे सत्य ऐतिहासिक खोज और पक्षपातरहित विवेचन से पूर्ण होते हैं। हिन्दी साहित्य के लिये वे गौरव को वस्तु हैं। [सं०] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावलं. * जगह 'सोलह' हो तो छन्द और समय दोनों के सामंजस्य का सम्भव है । और प्रथम चरण में षष्ठी के अर्थ में जो 'कर' शब्द दिया है वह पिछली परिपाटी को द्योतित करता है। मिश्रबन्धु सं० ११३७ में नन्द कवि का होना लिखते हैं, परन्तु उन्होंने उसके किसी ग्रन्थ का उल्लेख नहीं किया है । प्रसिद्ध चन्दबरदाई से पूर्व २-३ मुसलमान कवि और एक चारण कवि का उल्लेख किया है परन्तु लिखा है कि उनके ग्रन्थ देखने में नहीं आए। कवि चन्दबरदाई को कविता का समय सं० १२.५ से १२४६ तक माना जाना चाहिए और हिन्दो की उत्पत्ति का समय सं० ७०० से अनुमान किया गया है । तब से चन्दबरदाई पर्यन्त साढ़े पांच सौ वर्ष के लगभग, एक बड़ा विस्तृत काल है। न तो इस समय का पूर्ण इतिहास और न कोई विशेष उल्लेख योग्य हिन्दी ग्रन्थ उपलब्ध है । यदि निष्पक्ष होबर सोचा जाय तो संवत् सात सौ आठ सौ में हिन्दी के ग्रन्थों को रचना होना असम्भव ज्ञात होता है, एकारक किसी भाषा को उन्नति न हुई है और न हो सकती है । एकादश शताब्दो में जब विदेशी लोगों के आगमन का प्रारम्भ हुआ और देश-जय के पश्चात् यवन लोगों को यहां स्थिति हुई तब से हो भाषा के बदलने और संस्कृत की चर्चा का ह्रास होने से कत्रियों को प्राचोन हिन्दी में रचना करने के उत्साह का आरम्भ हुआ। जहां तक इतिहास और ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं उनसे द्वादश शताब्दी से ही हिन्दो की उत्पत्ति का समय मान लेना अनुचित न इगा। प्राचीन हिन्दी साहित्य की वही बाल्यवस्था है । जैसे अपने को उस अवस्था की केवल दो चार बड़ी बड़ी घटनाओं का स्मरण रहता है, उसी प्रकार उस समय में न तो बचना का हो सम्भव है और न अधिक उपलब्ध हैं । अवस्था का अर्थात् द्वादश से चतुर्दश शताब्दी तक का इतिहास अधिक ग्रन्थों को इस कारण उस क्षेत्र में सूत्रित का प्रावांन जेन साहित्य में हिन्दी के स्थान का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावलो समय पन्द्रहवीं शताब्दी से अठारवीं शताब्दी तक मान लेना उचित समझता हूं। तत्पश्चात् देश की राष्ट्रीय दशा के साथ साथ साहित्य को भी अवनत अवस्था हुई। पुनः उन्नीसवीं शताब्दो के शेष भाग में ब्रिटिश सरकार की कृपा से देश में शान्ति के साथ अपनी हिन्दी भाषा को भी उन्नति होने लगी। परन्तु वह पुष्टि नव्य ढंग से हुई और आज हिन्दी में उत्तमोत्तम काव्य, इतिहास और उपन्यास आदि रचे जाकर सब विषयों के ग्रन्थों की पूर्ति हो रही है। नवीन जैन साहित्य भी धीरे धोरे समय के साथ अबसर है। हिन्दी साहित्य के विषय में स्वनामख्यात बाबू श्यामसुन्दर जी ई० सं० १६०० को खोज को रिपोर्ट में लिखते हैं कि ई० १२ वीं सदो के प्रारम्भ से १६ वीं सदी के मध्य तक का समय हिन्दी साहित्य की परीक्षा का काल है। उसी समय में राजस्थान के चारणों, भाटों आदि ने बहुत से ऐतिहासिक प्रन्थ लिखे हैं और उनमें प्राकृत और प्राचीन हिन्दी मिली हुई है। तत्पश्चात् हिन्दी साहित्य को पूर्णावस्था का आरम्भ होता है। और ई०१६-१७ वीं सदी में ही हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि और विद्वान् हुए हैं। इसका भावार्थ मेरे पूर्वोक्त कथन को पुष्टि करता है। भाषा की दृष्टि से प्राकृत और हिन्दी का सम्बन्ध अविछिन्न है । ___ हमारे श्वेताम्बरी जैनों की अपेक्षा दिगम्बरी भाई आज कल हिन्दी साहित्य की अधिक सेवा कर रहे है। प्राचीन हिन्दो जैन साहित्य की पुस्तकं दिगम्बर सम्प्रदाय को हो अधिक संख्या में प्रकाशित हुई हैं। और इसो कारण प्रेमी जी ने अपने जैन हिन्दी साहित्य के इतिहास में उस सम्प्रदाय के ही हिन्दी प्रन्थों का विवरण बाहुल्य से किया है। उनका यह लिखना यथार्थ है कि "श्वेताम्बरों का हिन्दी साहित्य अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ।" और उनको भी पूर्ण विश्वास है कि खोज करने से हिन्दी के प्राचोन जैन ग्रन्थ बहुत मिलेंगे। अद्यावधि विद्वानों की इस ओर दृष्टि आकर्षित नहीं हुई है और जब तक ऐतिहाधिक और भाषा की मुख्य द्वष्टि से अच्छी तरह कुछ समय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धाक्ला तक प्राचीन भण्डारों को तथा आवार्य साधुओं के संग्रहों की खोज नहीं होगी तब तक प्राचीन साहित्य रूपी रखों का प्रगट होना सम्भव नहीं है। भारत के सभी प्रधान स्थानों में नियों का किसी न किसी समय, कहीं अल्प और कहीं विस्तृत, प्रभाव था। दक्षिण का प्राचीन साहित्य भी जैन साहित्य से पूर्ण सम्बन्ध रखता है। यहां तक कि कनाड़ी आदि भाषाओं का सबसे प्राचीन साहित्य जैन साहित्य हो सिद्ध हुआ है। गुजरात और सौराष्ट्र भी जेनियाँ का प्रधान स्थान रहा है। गुजरातो भाषा साहित्य के प्राचीन ग्रन्थ प्राचीन जैन साहित्य ही है। वर्तमान हिन्दी और गुजराती में क्रम क्रम से बहुत अन्तर पड़ गया है और कुछ समय से गुजराती माषा स्वतन्त्र सी हो गई है। परन्तु प्रायोन जैन साहित्य के बहुत से ग्रन्थों को गुजराती जंन साहित्य समझकर हिन्दो जैन साहित्य से अलग करना मैं अनुचित समझता हूं। आदि में स्थानीय कारण से सामान्य अन्तर के सिवाय भारत की उत्तर प्रान्त को भाषाओं में कोई भेद नहीं था। विशेषतया जैनियों की अधिक संख्या के व्यागर वाणिज्य में फंसे रहने के कारण साहित्य चर्चा का काम आचार्य साधु करते रहे और गृहस्थ लोग अवकाश पर उसीका रसास्वाइन करते थे। संस्कृत तथा प्राकृत प्रन्यों के अतिरिक प्राचीन जैन भाषा साहित्य में शुद्ध हिन्दो वा शुद्ध गुजराती ग्रन्थों की संख्या अल्प है। जैन साधु शिष्य परंपरा से होते थे। उनमें देशविशेष का बन्धन न था, कोई मारवाड़ी साधु गुजरात में शिष्य या आचार्य बना, या मालवे का साधु दिल्लो में, तो उन्होंने अपनी रचना में एक साधारण भाषा का आश्रय लिया जिसमें कुछ न कुछ प्रादेशिक छीटों के होने पर भी भाषा पुरानी हिन्दी ही थी। जो गुजरातो साधु राजपूताने में गए उनकी रचना में कुछ कुछ गुजरात प्रान्त के अपनश शब्दों का संमिश्रण होता रहा और विपरीत में इससे विपरीत भी हुआ। तिसरी गुजराती साहित्य परिषद् को लेखमाला में श्रीयुत मनसुखलाल कीरतचन्द मेहता जो जैन साहित्य के निबन्ध में लिखते हैं कि "सं० १४१३ मां बनेलो 'मयण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रवन्धावली * रेह' रालमां कई कई मरुभूमिनो भाषानो छाया आवे छे, पण सामान्य घरण गुजर तीनु छें।" ऐसे ग्रन्थों को हिन्दी में ही स्थान देना उचित होगा। चाहे डिङ्गल चाहे पिङ्गल, चाहे गुजरातो चाहे ब्रजभाषा सभी एकही हिन्दी को संतति हैं । देशभेद से अल्पविस्तर भाषा और शब्दों का भेद होता गया है। मैं प्राचीन हिन्दी जैन साहित्य में प्रांतिक विभाग करना उचित नहीं समझता । *६* वर्त्तमान में जो प्राचीन हिन्दो जैन साहित्य उपलब्ध हैं उसमें गद्य साहित्य को अपेक्षा पद्य साहित्य की संख्या बहुत अधिक है । जो कुछ हिन्दी में रचना होती थी, सभी पद्यमय थी । मूल सूत्रों की व्याख्या, तथा टिप्पणी ( जिसको 'टब्बा' भी कहते हैं ) और संस्कृत: प्राकृत धर्मशास्त्र के ग्रन्थों की भाषा, वृत्ति, वचनिका और क्लिष्ट दाशनिक विषयों पर छोटे छोटे लेखों के सिवा कोई साहित्य के गद्य ग्रन्थ हमारे देखने में नहीं आए हैं । परन्तु पद्य साहित्य की भरमार श्वेतास्वरी दिगम्बरी दोनों सम्प्रदायों में पाई जाती है । पद्य साहित्य में चरित्र, रास, चतुष्पदी ( चौपाई ) प्रधान हैं। इनके सिवा चौढालिया, ढाल, सिज्झाय, वार्त्ता, विनती, वंदना, लावनी आदि भी हैं। स्तवनों की भी संख्या बाहुल्य से मिलती है; उनमें बड़े छोटे कवित्त, छन्द, दोहा, आदि दोनों सम्प्रदायों के उच्च कोटि के कवियों के रचे हुए सैंकड़ों हैं । मूर्तिपूजन से भी भाषा साहित्य में बहुत कुछ सहारा लगा है। खास करके सत्रहवीं शताब्दी से इस विषय पर नाना प्रकार की पूजाओं की रचना दोनों संप्रदायों में मिलती है और साहित्य की दृष्टि से इसका भी स्थान उच्च है । + गुरु + जैन विद्वानों को सदा से इतिहास से अधिक प्रीति रही और की मात्रा श्वेताम्बर जैनों में अधिक थी, इसलिये गुरुओं की 'प्रभावना' के वर्णन के चरित्र, ऐतिहासिक घटनाओं से पूर्ण, उनके यहां अधिक मिलते हैं। अब गुजरात के श्वेताम्बर जेनों में ऐतिहा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रवन्धावली बौद्धों को तरह जैन लोग क्रम क्रम से वैदिक धमवालों से द्वेष न बडाते हुए परस्पर का सम्बन्ध दूर नहीं करते रहे, बल्कि बहुत से श्रावक नाममात्र जैनी कहलाने के सिवा सांसारिक आचार व्यवहार ध्यादि वैदिक हिन्दुओं की तरह करते और अद्यावधि करते चले आते हैं। बौद्ध विद्वानों ने वैदिक विद्वानों के ग्रन्थों की मर्यादा नहीं रक्खा। परन्तु प्राचीन जैन विद्वान् जैनेनर कवियों के साहित्य का बहुत कुछ आदर करते रहे। प्रायः हिन्दुओं के प्रसिद्ध प्रसिद्ध साहित्य ग्रन्थों को अच्छी अच्छी टीकाएँ जैन विद्वान् लोग बड़े प्रेम और पाण्डित्य से लिख गये हैं, इसका यही कारण है कि साहित्य का दृष्टि से जेनेतर विद्वानों के रचे हुए ग्रन्थों को वे लोग अपना ही समझते थे। जैन विद्वानों की बनाई हुई साहित्य के सिवा व्याकरण, न्याय, अलङ्कार : वैद्यक, ज्योतिष आदि के : जैनेतर ग्रन्थों की टीकार, वृत्ति आदिया, उन पर स्वतन्त्र ग्रन्थ बहुत से हैं । अर्जुन प्राचीन ऋयों का रक्षा भी प्रायः जैन भण्डारों में ही हुई जैसा कि उपलब्ध पोथियों का इतिहास कहता है । ब्राह्मणों के पहले दो कर्मों, अध्यापन और अध्ययन का प्रकृत अनुसरण जैन आचार्यों तथा साधुओं ने यहुत पूर्ण रीति से किया । *9 सिक प्राचीन साहित्य की खोज और प्रकाशन की रुचि बढ़ी है जिसका श्रेय मुख्यतः श्री विजयधमं सूरि जो और उनके योग्य शिष्य श्री इंद्रविजयजी आदि को है । आचाय्यं जी ने ऐतिहासिक रासमाला, ऐतिहासिक सिज्झायमाला आदिःका विवेचनपूर्ण प्रकाशन आरम्भ किया है। जैनों के यहां यह आग्रह नहीं। रहा कि स्तुति, पूजन आदि प्राचीन भाषा में ही हों । मन्त्र तथा धर्मग्रन्थ प्राकृतः में रहते आए, किन्तु स्तुति, गीत तथा प्रवचन देश भाषा में होता रहा । ब्रज की नई कृष्णपूजा में यदि ब्रजभाषा के गीत संस्कृत मन्त्रों की तरह न चल जाते तो अट्टछाप के कवियों को मधुर कवितावली का विकास या प्रचार न होता । जैन स्तवनों तथा गीतों के पुराने संग्रहों में यह भो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्थावली सत्रहवीं शताब्दो को प्राचीन हिन्दी जैन साहित्य की मध्यावस्था समझना चाहिए। विक्रम संवत् १६.१ में अकबर सम्राट् के गही पर बैठने के पश्चात् परावर ही भाषा साहित्य प्रन्थों की संख्या बढ़ती गई। अच्छे अच्छे कवि, विद्वान् इसी समय में हुए। हिन्दू और जैन आदि सभी सम्प्रदायों के लोगों को इस समय शांति से धर्म और साहित्य की सेवा का अवसर प्राप्त हुआ, और जो कुछ प्राचीन साहित्य के अच्छे अच्छे ग्रन्थ वर्तमान हैं वे सब इसी समय के रचे हमारे कवियों को भाषा साहित्य में कहांतफ उत्साह था यह लिखा रहता है कि अमुक गीत किस प्रचलित गीत को ढाल या लय पर गाया जाय, इससे उस उस समय के “अधामिक” अर्थात् लौकिक गोतों का भी पता चलता है। जैन साहित्य के सुरक्षित और उपलब्ध होने के मुख्य कारण ये है.- प्रधान मंदिरों में भण्डारों का आवश्यक होना और उनपर सुगठित पंचायत का अधिकार होना; जैनों के यहां पुस्तक लिखवाकर साधुओं तथा वाचकों को बांटने को अतिपुण्य कर्म मानना ( कई पोथियों की पुष्पिका में लिखा मिलता है कि अमुक सेठ या सेठानी ने अपने या किसी और के पुण्य के लिये यह लिखवाई), निःसंग साधुओं की अधिकता जो मिक्षामात्र पर निर्वाह करते, किसी प्रकार का परिग्रह न लेते, दिन रात पुस्तकें लिखते और स्वयं उन्हें उठाए फिरते श्रद्धालु श्रावकों का गुरुओं को कांचन न भेट करके ( जिसका उन्हें कोई उपयोग न था ) अपने श्रद्धानुसार अन्य लिखवाने में व्यय करना ( छापाखाने का प्रचार होने पर "श्राद्ध" लोग गुरुनिदेश से पुस्तकों को अतिसुन्दरता से छपवाकर बांटने का समयानुसार परिवर्तन दिखा रहे हैं); गुरुओं को पुस्तकों के अतिरिक्त और प्रकार को संपत्ति न होने से उनकी सम्हाल में विक्षेप न होना, आदि। जैसे आदि प्राकृत साहित्य जैनों का है वैसे आदि अपभ्रंश या मादि हिन्दी साहित्य पर भी जैनों को प्राप है। [सं.]. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धापली. एक ही दृष्टांत से प्रगट होगा कि जैनियों के नवपद की, जिसको सिद्धचक भी कहते हैं. महिमा पर उज्जैन के श्रीपाल पति की कथा संस्कृत-प्राकृत में है। उसीपा भाषा में पृथक् पृथक् कवियों की नविन नौ रचनाएं नो मेरे तुच्छ संग्रह में हैं और दूसरे भंडारा की खोज करने से और भी मिलना संभव है। इससे यह स्पष्ट है कि भाषा साहित्य पर जैन विद्वानों का पूरा प्रेम था। विक्रम की सोमहवीं शताब्दी में रचे हुए श्रीपाल जी के भिन्न भिन्न चरित्रों के माति और अंत के कुछ काव्य यहां उद्धृत करता है (१)सं० १५३१ में उपाध्याय ज्ञानसागर कृतप्रारम्भ कर कमल जोड़ेवि कर सिद्ध सय पणमेव । श्री श्रीपाल नरेंद्र नो रास बंध पमछ। ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... मंत-भषिया:भावे नित नमो श्रीगुणदेव सूरिपाय । तास.सीसएगस रच्यो मानसागर उवझाय ॥ पनर एकत्रिसे मिगसिरे उजली वीज गुरुवार। गस रच्यो सिद्ध चक नो गावो श्री नवकार ॥ सिद्ध चक महिमा सुणो भविया कर्णधरेवि । मन बंछित फल दायक एजे सुणे नितमेव ॥ एक मना जे नित जपे ते घर मंगल माल । ऋद्धि अनंती भोग जिम भूपति श्रीपाल (२) सं० १७२६ कवि ज्ञानसागर कृतमारम्म-सकल सुगसुर जेहना पूजा भावे पाय । पुरीसादाणी पासजी ते प्रणम् चित लाय॥ .... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... मंत-सत्तर ख्वीसानी मासो वदी भाठम दिन सार। सिद्धि योग कीयो रास संपूरण पुष्यनक्षत्र गुरुवार । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धावला. रेघपुर में सरस संबंध ए ज्ञानसागर कहियो रंगे। धन्यासिरि में ढाल चालिसी सुणज्यो सहू चित चंगे। (३) वार खंड की श्रीपाल चौपाई में से, जिसकी ७५० गाथा रचने के अनंतर श्री विनयविक्रय जी का स्वर्गवास हो गया और जिसे श्री यशोविजय जी ने सं० १७३८ में १८२५ गाथाओं में पूर्ण किया था। बम्बई के जैन पुस्तक प्रकाशक श्रा० भीर्मासह मापिक ने इसे छपाया है। आदि-कल्पवेलि कवियण तणी सरसति करि सुपसाय । सिद्ध चक्र गुण गावतो पूर मनोरथ माय ॥ गुरु परंपरा के विवरण के पश्चात् - अंत-संवत सतर अड़तीस बरसे रही रानेर चौमासे जी। संघ तणा आग्रह थी माड्यो रास अधिक उल्लासे जी ॥ (४) सं० १७४० में श्री जिनहर्षसूरि जी कृत श्रीपालगस भी बहुत मनोज्ञ है। यद्यपि इसमें कुछ गुजराती अपभ्रंश शब्द हैं तथापि संस्कृत शब्द इसमें ऐसे चुने चुने गुथे हुए हैं कि यह ग्रंथ लालत्य में उच्च कोटिका हिंदी साहित्य है। प्रारम्भ-श्री अरिहंत अनंतगुण धरिये हिय ध्यान । केवल ज्ञान प्रकाश कर दूरि हटै अज्ञान ॥ अंत-संवत सतरे सै चालिसे, चैत्रादिक सुजगीस रे। सातम सोमवार सुभदिवस पाटण विसवावीसे रे॥ श्री खरतरगच्छ महिमाघारी जिनचंदसूरि पटवारी रे। शांतिहर्ष वाचक सुखकारी तास सीस सुविचारी रे॥ कहे जिनहर्ष भविक नर सुणिज्यो नवपद महिमा थुणिज्यो रे। उनपञ्चासे ढाले गुणिज्यो निज पातिक वन लुणिज्यो रे ॥ (५) उक्त ग्रंथकर्ता ने पुनः सं० १७४२ में अर्थात् दो ही वर्ष के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रबन्धावला. पश्चात् और एक श्रीपालनप रास बनाया। इसकी एक प्रति कालवत्ता संस्कृत कालेन लाईब्रेरी में भी मौजूद है ( नं० १७२ ) । प्रारम्भ-चौविसे प्रणमुं जिन राय, तास साये नवनिधि थाय । सुअ देवी धरि हृदय मंझार, कहिसुनवपद नो अधिकार ॥ अंत-श्री खन्तरगछ पति प्रगट, श्री जिनचंद्र सूरीस । गणि शांति हरष वाचक तणौ, कहे जिन हर्ष सुर्गस ॥ (१) सं. १८३७ में कवि लालचंद जी रचित श्रीपाल चौपाई । आदि-स्वस्ति श्री दायक सदा, चौतिस अतिशयवंत । प्रणमुबे कर जोडिने, जगनायक अरिहंत ॥ अंत की कविता बरस अठारे सै सैतीसे, सुदि आसाढ़ कहीस जी। द्वितीया मंगलवार सुदीस, मिथुन संक्रांति जगीस जी। लालचंद निज हित सभाली, विकथा दूरै टाली जी। हेमचंद्र कृत चरित्र निहाली, चौपई कोधी रसाली जी ॥ (७) कवि चेतनविजयजी स्त श्रीपाल चौपाई, सं० १८५३ की रखी हुई। प्रारम्भ-देवधरम गुरु सेवके, नवपद महिमा धार । अरिहंत सिद्ध आचारज, पाठक साध अपार ॥ अत-वाचक द्धिविजय गुरुक्षानी, तास शिष्य सुध चेतन जानी। गस रच्यो श्रीपाल नो भावे, जे भणसे सुणसै सुख पावे ॥ भठारसे बेपन विक्रम शाषा । फागुन सुदि दुतिये शुभ भाषा ॥ (2) #. १८५६ में रूपमुनि न श्रीपाल चौपाई के प्रारम्भ का पद - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *१२** प्रथम नमो गुरु चरण कुं पायो ज्ञान अंकूर । जसु प्रसाद उपगार थी, सुख पावे भरपूर ॥ अंत - संवत अठारा छप्पने कहवाया, फागुन मास सवायाजी । कृष्ण सप्तमी अति हितकारी, सूर्य वार जयकारी जी ॥ एकतालीसमी ढाल बखानी, रूपमुनि हितकारी जी । सुने सुना रहे हितकारी, लहै मंगल: जयकारी जी ॥ ( १ ) षीं चौपाई में संवत् नहीं है। इसके कर्त्ता मुमि तत्व कुमार है। आदि का पद - * प्रयन्धावला आदि पुरुष आदीसरू, आदिराय आदेय । परमात्मा परमेसरू, नमो नमो नाभेय ॥ अंत का पद तासि सीस मुनि तत्वकुमार, तिन ए गायो चरित उदार । जैन भाषा साहित्य के जो प्राचीन ग्रन्थ मिलते हैं वे आचार्य साधुओं के रचे हुए ही अधिक उपलब्ध हैं । श्रावक लोग व्यापार में फँसे रहते थे, और साधु लोग साहित्य खर्चा के प्रेम से उन भाषक लोगों के उपयोगी विषयों पर ग्रन्थ रचकर अपना पाण्डित्य देखाते थे। जैनों के यति आचार्य आदि चातुर्मास, अर्थात् श्रावण से कार्त्तिक तक, अपने धर्म के नियमानुसार एक ही स्थान में रहने के - कारण जिस समय और जिस स्थान में ठहरते थे उसी समय की और जिस नगर में श्रावकों की संख्या अधिक रहती थी उसी स्थान की प्रन्थ रचना अधिकतया मिलती है। ऐसे नगरों में बनारस, • आगरा, .िल्ली, मुर्शिदाबाद, जैसलमेर, जोधपुर, अहमदाबाद, पाटन, सूरत आदि मुख्य हैं। मेड़ता, : नागोर, खेद का विषय है कि भाषा साहित्य की ऐसी बहुलता रहने पर -भी हमारे प्राचीन हिन्दी जैन-साहित्य का अभी तक बहुत ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •प्रबन्धावला. कम ज्ञान है। इस विषय का जितना ही प्रकाश बढ़ेगा उतनी ही हिन्दी साहित्य की पुष्टि होगी और जैन साहित्य की प्रतिभा दिन दिन बढ़ेगी। प्राचीन जैन साहित्य के द्वादश शताब्दी से भठारहवीं शताब्दी तक के कुछ उपलब्ध प्रन्यों का दिग्दर्शन यहां कराया जाता है। बारहवीं शताब्दी। विक्रम संवत् ११६७ में जैन श्वेताम्बराचार्य श्री अभयदेव सूरि जी के स्वर्गवास के पश्चात् उनके पट्ट पर श्री जिनवल्लभ सूरि आचार्य हुए, और उसी संवत् में थोड़े ही समय बाद इनका देहान्त हुआ। आप भी बड़े विद्वान् और प्रभावशाली हुए थे। इनके रचे हुए संघपट्टक' आदि सूत्र और कई संस्कृत के अन्य पर्तमान हैं। जहां तक मुझको उपलब्ध हुआ है हिन्दी जन साहित्य में इनका 'वृद्धनवकार' सब से प्राचीन मालूम होता है। इस स्तुति के अन्त में केवल इनका नाम है। संवत् का उल्लेख नहीं है। परन्तु सं० ११६७ में इनका खा. पास होने के कारण उक्त प्रन्थ की रचना का समय सं० ११६० से पूर्व निश्चित किया जा सकता है। इस संवत् के पूर्व की कोई जैन हिन्दी रचना मुझे नहीं मिली है। इसकी प्रारम्भ की और अन्त की कविता इस प्रकार है वृद्धनवकार । किंकप्पत्ता रे भाषण चिंतउ मण मितरि। किंचितामणि कामधेनु आराहो बहुगरि ॥१॥ चित्रावेली काज किसे देसंतर लंघउ । यण रासि कारण किसे सापर उल्लंघउ । बवदह पुरष सार युगे एक नवकार । सयस काज महिगल सरे दुत्तर तरे संसार ॥२॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १४* * प्रबन्धात्रला* अन्त के पद - एक जीह इण मंत्र तणा गुण किना यखाणु। नाण हीन छउ मत्थ एह गुण पारन जाणु ॥ ३४ ॥ जिम सेत्रुजे तित्थ राउ महिमा उदयवंतौ। तिम मंत्रह धुरि एह मंत्र राजा जयवतौ ॥ ३५ ॥ अड़संपय नव पय सहित इगसठ लघु अक्षर । गुरु अक्षर सत्तेव एह जाणो परमाक्षर ॥ ३६ ॥ गुरु जिनवल्लह सूरि भणे सिव सुर के कारण । मरय तिरिय गट्ट रोग सोग बहु दुक्ख निवारण ॥ ३ ॥ जल थल पन्वय वन गहन समरण हुवे इक चित्त । पंच परमेष्टि मंत्रह तणी सेना देज्यो नित्त ॥ ३८ ॥ तेरहवीं शताब्द।। इस शताब्दो में प्रसिद्ध हेनबन्द्राचार्य जी के बनाए हुए संस्कृत प्राकृत बहुत से ग्रन्य हैं परन्तु उनका बनाया हिन्दी ग्रन्थ कोई नहीं मिला है। केवल उनके व्याकरण में अपभ्रंश और उस समय के प्रचलित अन्यों में से उद्धृत उदाहरण मिलते हैं।। पण्डित नाथूराम जी ने इस समय के निम्न लिखित चार ग्रन्थों का उल्लेख किया है (१)-जम्बूस्वामी रासा-सं० १२६६, धर्मसूरि कृत। (२)-रेवंतगिरि रासा - स. १२८८ के लगभग, विजयसेन. सूरि कृत। (३) और ( ४ )-विनयचन्दसूरि कृत-'नेमिनाथ चउपई' और 'उवएस माला कहाणय छप्पय' । 'उनके बनाए हुए कुमारपाल चरित ( प्राकृतव्याश्रय काव्य ) का कुछ अंश अपभ्रंश अर्थात् उस समय की हिन्दी में है, देखो ना०प्र० पत्रिका भा० २, पृ० १२१ । [सं०] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धावली. शताब्दी। पंडित नाराम जी ने इस शताब्दी के ५ ग्रन्थों का उल्लेख किया है। देश में पोर राजनैतिक विप्लव के कारण इस समय में अधिक अन्य रचना होने की सम्भावना नहीं थो तथा अभी तक और प्रन्थ उपलब्ध मो नहीं हुए हैं। (१) सप्तनि राम-सं. १३२७, कर्ता का नाम नहीं है। (२) संघपति समास रास । (३) थूलिभद्र फागु। ..४) प्रवन्धचिन्तामणि के माषा फयानक (1) (५) कच्छुलि ससा। पंजहवीं शताब्दी। पण्डित नाथूराम जी प्रेमी ने इस शताब्दी के केवल तीन ही अन्यों का उल्लेख किया है परन्तु इस शताब्दी के और भी प्रत्य उपलब्ध हैं। इसी समय से भाषा साहित्य उन्नति के सोपान में चढ़ने लगा और सत्रहवीं अठारहवीं शताब्दी में उम्व शिखर पर पहुंचा। (१) सं० १४१२ में उपाध्याय विनयप्रम कृत 'मौतम रासा', इसमें चरम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य गौतम स्वामी का संक्षिस परित्र है। इस स्तुति को लामदायक और मांगलिक समझकर श्रावक सोग इसका नित्य पाठ करते हैं। यह छोटा प्रन्य है और अन्त में संवत् तथा ॐ विनयप्रभ का नाम है। प्रेमी जी तथा और लेखक किस कारण से 'विनयप्रम' के स्थान में इनका "उदयवंत' या 'विजयभद्र' नाम लिखते हैं यह समझ में नहीं आता। स्तुति के अन्त में नाम स्पष्ट है । “विनय पहु उवम्झाय धुणीजे" (२) २०१४२३, ज्ञान पंचमी नउई-वियण कत । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • प्रबन्धारली. (३) सं० १४८६, धमदत्त चरित्र-दयासागर सूरि कृत । इस समय के निम्न लिखित ग्रन्थ और भी मिले हैं। (४) हंस वच्छ रास। (५) शोलरास। दोनों के कर्ता विनयप्रभ उपाध्याय हैं। (६) सं० १४१३, मयणरेहा रास-हरसेवक मुनि कृत। (७) सं० १४५०, आराधना गस-सोमसुन्दर सूरि कृत । (८) सं० १४५५, शांतरस गस-मुनि सुन्दर कृत । पंडित मनसुखलाल कीरतचन्द मेहता ने अपने जैन साहित्य के निबंध में निम्नलिखित तीन अन्थों का उल्लेख किया है। (६) सं० १४२३, शिवदत्तरास-सिद्धसूरि छत (पाटण भंडार) (१०) सं० १४२६, कलिकालरास-हीरानन्दसूरि कृत ( जेसलमेर भंडार) (११) सं० १४८५, विद्याविलास रास-(भडोच नगर भंडार ) इनके सिवा मुझे (१२) सं १४८१ का उपाध्याय जयसागर कृत 'कुशलमूरि स्तोत्र' मिला है। इसके आदि और अन्त की कविता इस प्रकार है। प्रारंभ-रिसह जिणे.सर सो जयो, मंगल केलि निवास। वासव वंदिय पय कमल, जग सह पूरे आस ।। ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... मन्त-संवत् बौदह इक्यासी बरसे मुलक वाहणपुर में मन हरषै अजिय जिनेसर वर भवणे । कीयो कवित्त ऐ. मंगल कारण विघन हरण सहु पाप निवारण कोई मत संशों धरो मने ॥१॥ जिम जिम सेवै सुस्नर राया श्री जिनकुशल मुनीसर पाया जय सायर उवझाय थुणे। इम जो सद गुरु गुण अभिनंदे ऋद्धि समृद्धे सो चिर न मन बंच्छित फल मुझ हुवो ए ॥ २॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली ● सोलहवीं शताब्दी | प्रेमी जी ने इस शताब्दी के केवल पांच प्रन्थों का उल्लेख किया है। (१) सं० १५४८, सार सिखावन रास - सवेगसुन्दर कृत । (२) सं० १५६१, ललितांग चरित्र - ईश्वर सूरि कृत । (३) सं० १५७८, रामसीता चरित्र - बालचन्द्र कृत । ( ४ ) सं० १५८०, कृपण चरित्र ठकुरसी कृत । (५) सं० १५८१, यशोधर चरित्र - गौरवदास कृत । बाबू ज्ञानचन्द जैनी ने 'दिपम्बर भाषा ग्रन्थावली' में उपर्युक्त नं० ५ के सिवा 'सं० १५१८, श्रावकाचार - पं० धर्मदास कृत' का उल्लेख किया है । वकील मोहन दलोचन्द जी ने 'जैनरासमाला पुरवणी' में इस्रो समय के २३ ग्रन्थों की टीप इस प्रकार लिखी है । (१) सं० १५०२, ऋषिदत्ता रास १५१२, सिद्धांत रहस्य " ( २ ) ( ३ ) ( 8 ) (५) ( ६ ) " ( ७ ) ( ८ ) (e) (१०) 10 D " १५३४, बारव्रत चौपाई १५५०, मुनिपति रास १५५३, घनद रात " ललितांग रास - क्षमाकलस कृत १५५६, गजसिंह कुमर चौपाई – कविसुन्दर कृत (११) (१२) १५६०, नंदबचिसी कोपाई - ज्ञानशील कृत (१३) १५६१, अजाकुमार रास - धर्मदेव कृत 39 (१४) सुदर्शन सेठ रास (१५) देवराज बच्छराज चौपाई - लावण्यरत्न कस ܡ "" " " D n 13 १५१३, मच्छोदर रास - लावण्यरन कृत । १५२२, जम्बूस्वामी रास १५२३, जिनभवस्थिति - ज्ञान सागर कृत १५३१, धन्ना शालिभद्र रास - देवकीर्त्ति कृत " 99 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली* (१६) " १५७३, यशोधर रास-लावण्यरत्न कृत (१७) " १५७६, चंपकमाला-सौभाग्यसागर शिष्य कृत " १५८३, धनसार पंचशाली रास-लाभमंडन कृत (१६) " १५८४, कुलध्वजकुमार चौपाई-धर्मसुरेन्द्र कृत १५८८, आत्मराजा रास-सहज सुन्दर कृत " १५६०, इच्छापरिणाम चौपाई-भावसागर कृत (२२) " १५६४, कृतकर्म कुमार चौपाई (२३) " " तेतली पुत्र गस-कवियण कृत कलकत्ता गवर्नमेंट सस्कृत कालेज लाइब्रेरी के हस्तलिखित जैन प्रन्थों की सूची में उक्त शताब्दी के कई भाषा ग्रन्थ हैं। उनमें से कुछ अन्थों का विवरण यहां दिया जाता है। (१)सं० १५८५, पण्डित धर्मदास गणि रचित 'उपदेशमाला' प्रन्य का बालबोध, यह गद्य है। (२) सं० १५५०, रासचन्द्र सूरि कृत 'मुनिपति राजर्षि चरित।" इसके अन्त का पद है संवत् पनर पचासो जाणि वदि वैसाख मास मन आणि । दिन सप्तमी रचिउ रविवार भणइ सुणइ तिह हर्ष अपार ॥ (३) सं. १५६२, में मुनि आनन्द का रचा हुआ 'विक्रम पापर रित'। इनके सिवा उस समय के उल्लेख योग्य कुछ ग्रन्थ मेरे संग्रह में है, जैसे (१) पण्डित लावण्यसमय गणि कृत सं० १५६८ का विमल मन्त्री रास' और (२) सं० १५७५ का कर 'संवाद रास' हैं। (३)सं० १५७२ का कवि सहन सुन्दर कृत 'गुणरत्नाकर छंद है। इसके प्रारम्भ की कविता इस प्रकार हैप्रारंभ-शशिकर निकर समज्ज्वल मराल मारुह्य सरस्वती देवी। विचरति कविजन हद्रये सदये संसार भय हरणी ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •प्रवन्धावला. हस्ते काडल पुस्तक वीणा सोहै नाण माण गुण लीणा। अ लील विलासं सा देवी सरसई जयउ॥ इसी प्रकार शारदा की स्तुति संस्कृत प्राकृत हिंदी मिली हुई है। स्तुति के अन्त के पद पय पणमु सरसती माता सुणि एक बिण्णत्ती। मांगू अविरल वाणी दियो वरदान गुण जाणी।। आणी नव नव बंध नव नव छंदैन नवनवाभावा । गुण रयणा यच्छंदं वण्णिसु गुण धूलभहस्स.. मंधारे दीपक जिम कीजै उजवाले परमारथ लीजै । एलमह तिम ध्यान धरंता नाम जपे फल होई अनंता ।। अंत में रचयिता का नाम और संवत् जल भरियां सायर त दिवायर तेज करें जा चंद। सहि गुरुपय बंदौं तां लगि नदौं गुण रत्नाकर उन्द ॥ उपएसगण मंत्रण दुरिय विहंडन गिल्या रयण समुद्द। उवझाय पुरंदर महिमा सुन्दर मंगल करौं सुभद्द ॥ संवत् पनर बहुत्तरि बरस ए मैं छन्द रच्यो मन हरये। मिल्यो गणरह क्य नय चन्दै सहज सुन्दर बोलौ आणंदे॥ सत्रहवीं शताब्दी। मारत के साहित्य की उन्नति के लिये यह शताब्दी सर्व प्रकार से एक अतुलनीय समय है। इस समय के साहित्य का पूरा इतिहास लिखने से एक बड़ा प्रन्य हो सकता है। "मिश्रबंधु' ने और पांच कवियों का उल्लेख किया है : (१) यति उदयराज (२) विद्याकमल (३) मुनि लावण्य (४) गुणसूरि (५) लूण सागर । परिरत नायुगम जी ने नौ कवियों और उनके मुख्य प्रन्थों का वर्णन किया है : Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * २० * * प्रय धावली. (१) बनारसी दाल (२) कायाग देव ( ३ ) मालदेर ( ४ ) हे विजय (५) रूपचन्द (६) रावल (७) कुंवरपाल (८) जिन दास (१) हेमराज। इस शताब्दी के और भी उल्लेख योग्य कवियों के नाम और कुछ उपलब्ध ग्रन्थ इस प्रकार है कवि ऋषभदासजी ने कई अच्छे अच्छे ऐतिहासिक रास रचे हैं जनमें सं० १६६२ का 'राजा श्रेणिक रास' और सं० १६७० का 'कुमारपाल रास' और 'रोहिणीय रास' प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। उपाध्याय समय सुन्दरजी भी श्वेताम्बर साधुओं में एक श्रेष्ठ कवि हो गये हैं। इनकी रचना बहुत सरल है, छोटे बड़े सैंकड़ों प्राथ इनके धनाए हुर मिलते हैं। उनमें से शत्रुजय रास, शांव प्रद्युम्न रास, प्रियमेलक चौपाई, पोषह विधि चौपाई, जिनदत्तर्षि कथा, प्रत्येकबुद्ध चौपाई, करकंडू चौपाई, नल दमयन्ती चौपाई, घल्कल वीरी चौपाई आदि विशेष प्रचलित है। रास चरित्र चौपाई आदि बड़े प्रन्थों के सिवा श्रावकों के प्रतिक्रमण के समय पाठ योग्य धर्म नीति चरित्रादि पर इनके रचे हुए छोटे छोटे बहुत ग्रन्थ हैं। * ये बड़े भावुक कवि हो गये हैं। इनकी कविता का एक सुन्दर उदाहरण देखिये। करम भरम जग-तिमिर-हरन खग, उरग-लखन-पग शिव-मग दरसि । निरखत नयन भविक जल वरषत, हरषत अमित भविक-जन सरसि ॥ मदन-कदन-जित परम-धरम-हित, सुमिरत भगत भगत सब डरसि। सजल-जलद-तन मुकुट-सपत-फन, कमठ-दलन जिन नमत बमरसि ॥१॥ समयसार नाटक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रवन्धावलो. सं० १६८६ में पंडित कुशलधोर गणि रुत 'वेलि' का गद्यात्मक पालबोध इस समय के हिंगल गद्य जन साहित्य का अच्छा ममूना है। पावू श्यामसुन्दरदास जी ने अपनी रिपोर्ट में सं० १६१६ के कवि प्रझरायमल कृत 'हणुवंत मोक्षगामी कथा' का उल्लेख किया है। वकील मोहनलाल दलीचन्द जी ने भी इस शताब्दी के बहुत से भाषा जैन प्रन्थों के नाम प्रकाशित किए हैं। उक्त शताब्दी के कुछ प्रन्थों की क्रमवार तालिका : संवत् नाम फर्ता (१) १६०१, अगरदस रास-सुमति मुनि (२) १६०६, धन्ना रास-हेमराज (३) १६१२, पारेवत रास-प्रीति विजय (४) १६१६, क्षुलक कुमार रास-सोमविमल (५) १६१८, सप्तरभेदी पूजा-साधुकीर्ति (६) १६२२, पेचाख्यान चौपाई-गुणमेरु सूरि (0) १६२४, भाषढ़भूति प्रवंध-साधुकीर्ति 1८) १६२५, धर्मपरीक्षा-मुमति सूरि (६) १६३२, मुनिमालिका-चारित्र सिंह (१०) १६३३, क्षुलक कुमार चरित्र-सोमविमल (११) १६३४, बारवली चरित्र-विजय देव सूरि (१२) १६३८, शत्रुजय उधार स्तव-नयसुन्दर (१३) , शालिभद्र चौपाई-मतिसार (१४) , भाषाड़ भूति चोढालिया-कनकसोम (१५) १६४४, सुन्दर सति चोपाई-आनन्द सूरि (१६) १६४५, रसरमा सार-जयचन्द्र (१७) १६५०, अमय कुमार चौपाई-पनराज (१८) १६५७, छिन्नु जिनस्तुति-जयसोम (१६) :६५६, प्रत्येक बुद्ध रास -सौभाग्य सुन्दर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * २२ * * प्रबन्धावली. संवत् नाम कर्ता (२०) १६६३, कर्पूर मंजरी राम-कनक सुन्दर (२१) १६६४, विजय देव सूरि रास- कनक सौभाग्य (२२ १६६७, जीव स्वरूप चौपाई-गुण विनय (२३) १६६६, शील रक्षा प्रकाश - नय सुन्दर अगरहवीं शताब्दी। गत शतादी से ही बराबर साहित्य की पूरी जाग्रति देखने में आती है और इस समय के बहुन से गद्य पद्य प्रन्थ विद्यमान हैं। प्रेमौजी ने दोनों सम्प्रदायों के २५ विद्वानों के नाम तथा उनके भाषा साहित्य के प्रन्थों का कुछ हाल दिया है। मिश्रबन्धु विनोद में ६ कवियों का उल्लेख किया गया है। वकील मोहनलाल दलीचन्द जी 'ने लगभग ३० ग्रन्थकर्त्ता और उनके प्रन्थों की टीप लिखी है। बाबू श्यामसुन्दरदास जी ने इस शताब्दी के निम्न लिखित प्रन्य और ग्रन्थ फर्ताओं का उल्लेख किया है। (१) सं० १७१५ में अवल कीर्ति आचार्य कृत 'विषापहार भाषा' । (२) सं० १७४१ में धर्ममन्दिर यणि कृत 'प्रबोधचिन्तामणी' । (३) सं० १७७५ में मनोहर खण्डेलवाल कृत 'धर्मपरीक्षा'। फलकत्ता संस्कृत कालेज में इस शताब्दी के जैन भाषा साहित्य की का उत्तम उत्तम हस्तलिखित पुस्त्र के विद्यमान हैं। इसके अतिरिक्त इस समय के जो भाषा साहित्य के उत्तम ब्रन्थ उपलब्ध हैं उनमें से कुछ प्रकाशित हैं और बहुत से अप्रकाशित है । कवि लाल विजयजी के शिष्य पं० सौभाग्य विजय कृत सं० १७५० का 'तीर्थमाला स्तवन' अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है । यह छन्दोबद्ध तीर्थयात्रा का विवरण बड़ी ही योग्यता से बनाया गया है। कवि ___ * यह तीर्थमाला गुजराती में "प्राचीन तीर्थम्मला संग्रह" नाम की पुस्तक में छपी है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धावली. आगरे से प्रायः सभी प्रधान तीर्थस्थानों में गये है और प्रत्येक स्थान का वर्णन काव्यरस पूर्ण है। इसके आदि और अन्त के काव्य इस प्रकार हैभारम्मदोहा-आनन्द दाई गरे प्रणमौ पाय निणंद। चिंतामणि चिंताहरण केवल शाम दिनंद । समरू शारद स्वामिनी जिन पाणी सुखदाय । जास प्रसाद कवियण तणी वाणी निरमल थाय । प्रणमी श्री गुरु करणयुग प्राणी अधिक उल्लास । तीर्थमाल प्रवतणी करस्यों बचन विलास ॥ जहां जहां श्री जिनराज के कल्याणक कहिवाय । विज नयणे निरख्या जिके देश गाम ने टाय । कहिस्यों ते सघला हिवै सुणज्योःचतुर सुजाण । सुणतां तीरथमाल ने जनम हुवै सुप्रमाण । अंत में-- तीर्थमाला, अतिरसाला, पंच कल्याणक तणी। संवत सप्तरसे पचासे लाभ आणी मैं थुणी । श्री विजयरत्न सूरि गछपत्ति सदा संघ सुहं करो। गुरु लालविजय तणे पसाए सौभाग्य विजय जय २ करो। इस समय प्रसिद्ध अध्यात्मिक लेखक यशविजय हो गये हैं, जिन्दोंने जैन तत्वज्ञान के विषय में (१) अध्यात्म सार (२) समाधि सतक (३) समता सतक (४) द्रव्यगुणपर्याय रास (५) योग दूधि स्वाध्याय (६) वीर स्तुति (७) वाहन समुद्र विवाद-(८) निश्चय-व्यवहार नय विवाद (१) दिकपट चौरासी बोल (१०) षट्स्थान सरूप चौपाई आदि कई भाषा अन्य रचे हैं। इस शताबी के यहां कुछ प्रचलित भाषा ग्रन्थों को तालिका दी जाती है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली संघत् माम (१) १७०७, भंजना सुन्दरी चौपाई-भुवन फोर्ति (२) १७१४, गुणावली चौपाई-गजकुशल (३) १७१६, धर्मनाथ विनती-कीर्ति विजय (५) १७१६, विक्रमादित्य लीलावती चौपाई-सुमति मंदिर (५) , आषाढ़ भूति चौपाई - ज्ञान सागर (६) १७२१, फयकन्ना चौपाई-जयतसिंह (७ १७२३, अष्ट प्रकारी पूजा-जिनवन्द्र (८) १७२४. अमर सेन वयर सेन योगाई-इन्द्र जी (१) , गुणमंजरी वरदत्त चौपाई-ऋषभ सागर (१०) , विक्रम सेन नरेन्द्र चौपाई-मानसागर (११) १७२६, अट्ठाईस लब्धि-धर्म सिंह (१२) १७२७, मानतुङ्ग मानवती चौपाई- अभय सोम (१३) १७२८, चन्द्रलेहा चौपाई-मति कुशल (१४) १७२६, बौत्रीश दंडक स्तुति-धरमप्ती (१५) १७३२, नन्दसेन विरोचन चौपाई - आनन्द सूरि (१६) १७३५, सुर सुन्दरी चौपाई-हर्षविजय (१७) १७३६. रखपाल रास- सूर विजय (१८) , सुर सुन्दरी सती चौपाई-धर्म वर्द्धन (१६) १७३८, विक्रमादित्य चौपाई-लक्ष्मी वल्लभ (२०) , रात्री भोजन चौपाई -, , (२१) , पंच दण्ड चौपाई- , , (२२) १७४१, खेमाहरालियानो रास-लक्ष्मी न (२३) , मोह विवेक रास - धर्म मंदिर (२४) , अवंति सुकुमाल चौपाई - शांति हर्ष (२५) १७४२, भीम यौपाई-कीर्ति सागर सूरि (२६) , कुमार पाल रास-हर्ष सूरि (२७) , धर्म बुद्धि चौपाई-लाल चन्छ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •प्रवन्धावली. संवत् नाम (२८) १७४६, वित्र सम्भूत चौपाई-जीव राज (९) १७४०. भचामर कथा-विनोदी लाल (३०) १७५१, अजित खेन फनकावती चौपाई-हर्ष सूरिस्त (३१) १७५२, ऋषि दत्ता चौपाई-प्रीति सागर (३२) , उत्तम कुमार चौपाई-विजय बन्द (३३) १७५४, पर प्रकारी पूजा-उदय रत (३४) १७५७, दशारण भद्र चौढालिया-जिनचन्द सूरि (३५) १५५८, जंवू स्वामी चौपाई-नय विमल (२३) , रसिंह कुमार चौपाई-मोहन विजय (३७) १७५६, श्रेणिक अभय कुमार चौपाई-कीर्ति सुन्दर (३८) १७६०, मानतुन मानववी चौपाई-मोहर विजय (३६ १७६६, सम्यक विचार गर्मित महावीर स्तवन-न्यायसागर १०) १९६६, मुवन मानु केक्ली रास-उदय रन (४१) , जिन रस खिझाय-घेणी राम (४२) १७७६, मानम सारोवार-देवचन्द्र (४३) , मोक्षमार्ग वनिका-" (४४) १०८३, सुमति पहेली चौपाई-पायवन्द (४५) १७८५, शांतिनाथ रास-राम विजय (४६) १७६८, माणिक देवी रास-निहाल चन्द (४६) १७६६, संयम श्रेणिक स्तुति-उत्तम विजय संवत् नंद निधि मुनि बंद, देव दया कर पायो। प्रथम जिनेश्वर पारण दिवसें,स्तवतां कलश बढ़ायो। नागरी प्रचारिणी पत्रिका (नवीन संस्करण सं० १६७४) मा०३ . २, १० १७१-१८८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादक का कर्त्तव्य आज कल जिस ओर दृष्टिपात करते हैं उधर ही सम्वाद पत्रों, मासिक पत्रिकाओं और छोटे बड़े प्रकाशित प्रन्थों का बहुधा प्रचार देखने में आता है। दैनिक, सप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक आदि सब प्रकार के सामयिक साहित्यपत्र भारत के प्रायः सब ही प्रान्तों से प्रकाशित हो रहे हैं। अजैन सामयिक मौर स्थायी साहित्य की तो गणना होनी कठिन है; परन्तु प्राकृत, संस्कृत, गुजराती, हिन्दी आदि भाषाओं में प्रकाशित जैन प्रन्थों और साहित्य पत्रों की संख्या भी प्रति दिन बढ़ती ही चली जा रही है। किन्तु यह अनुभव सिद्ध है . कि थोड़ा सा सुटङ्खलित कार्य बहुत से शृङ्खलाविहीन और सत्रुटि कार्य से कहीं अच्छा होता है। कभी २ तो यथावत् न किये हुए काम का होना उस के न होने के ही समान हो जाता है। जैसे किसी पुस्तक का अशुद्ध और नष्ट भ्रष्ट संस्करण विद्वानों को दृष्टिमें बहुत ही दोषनीक होता है। विशेष साहित्य के प्रन्थों के सम्पादन के लिये बड़े शक्तिशाली हाथों और व्युत्पन्न मस्तिष्क की आवश्यकता है। मैं सम्पादन के कार्य को दो भागों में लेता हूँ : ( १ ) प्रन्ध सम्पादन । (२) सामयिक पत्र सम्पादन । प्रथम सर्व प्रकार के साहित्य प्रचार के कार्य में प्राचीन साहित्य का सम्पादन कार्य विशेष कठिन है। प्राचीन साहित्य के प्रचार के लिये सम्पादक को सर्व प्रथम उस की भाषा पर ध्यान देना होगा। जब तक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * २८ ** प्रबन्धावली * मूल प्रन्थकर्त्ता का विचार अविकल रूप से सर्व साधारण में न प्रचा रित हो तब तक उस प्रन्थ का सच्चा प्रचार हुआ ऐसा समझना नहीं चाहिये 1 भौर यह तब हो सक्ता है कि जब सम्पादक मूल ग्रन्थकार के आशय को ठीक समझ कर अपने काम में हाथ दें। यह हम लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि प्रचलित भाषा पांच २ या दस २ या सौ सौ कोसों पर कुछ न कुछ बदली हुई प्रतीत होती हैं । और हम जितने अधिक दूर जायेंगे उतना ही हमें प्रत्यक्ष और परोक्ष अन्तर मिलेगा 1 यहां तक कि दो तीन सौ कोस पर जाकर इतना अन्तर हो जाता है कि परस्पर की भाषा समझने में भी कठिनाइयां पड़ती हैं। देखिये यदि कोई काश्मीर से पांच २ या दस २ कोस प्रति दिन चलता हुआ बंगाल पहुंचेगा तो उसे बंग भाषा सीखे बिना ही समझ में आती जायगी । और यदि विश्राम करता हुआ आवे तो उसे क्रमागत अन्तर प्रतीत नहीं होगा । संयुक्त प्रांत की भाषा पंजाब व बिहार से समता रखती है बिहार की भाषा में बंगला रंग चढ़ने लगता है, मिथिला होते हुए बंगाल पहुंचने तक वही पंजाबी बंगला हो जाती है । अथवा यदि बंगाल से पंजाब जांय तो वही बंगला भाषा क्रमशः पंजाब पहुंचने तक पंजाबी बनी हुई मिलेगी । जो सज्जन किसी भाषा के प्राचीन साहित्य के मर्मज्ञ होना चाहते हैं उन्हें आवश्यक है कि प्रथम उसी भाषा के वर्तमान रूप से यथेष्ट परवित होकर क्रमशः पीछे को चलें, जैसे कि हमें हेमचन्द्राचार्य के प्राकृत व्याकरण का पूरा ज्ञान हो तो पहिले वर्तमान समय के कुछ प्राकृत व्याकरण प्रन्थ देखकर क्रम से आगे के ग्रन्थ पढ़ते चले जांय । और उन के समय के पोछे के जहां तक ग्रन्थ मिलते जांय, इसी प्रकार बढ़ते हुए वहां तक देखते जांय, तो उन के व्याकरण के मर्म्म जानने में बहुत कम कठिनाई होगो । अस्तु इस रीति से ज्ञान प्राप्त कर लेने पर ही हम अपनी टीका टिप्पणी द्वारा यथावत् मूल ग्रन्थकर्त्ता के मनोभावों को शुद्ध रूप से विद्वानों के समक्ष रखने में समर्थ हो सके हैं। यदि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “प्रबन्धावलो. एक बार ही छलांग मारकर प्राचीन साहित्य सम्पादन करने बैठेंगे तो हमें अगणित ठोकरें खानी पड़ेगो और हम भरोसे के साथ न कह सगे कि हमारा अर्थ निस्सन्देह ग्रन्थकार के भाव का यथावत द्योतक है। अतएव अन्यसम्पादन कार्य के लिये भाषा का ज्ञान अत्यावश्यक है। इसी ज्ञान से सम्पादकों को लेखों की भूले, सुलेखों के अक्षरों को मरोड़े, और उनकी व्यक्तिगत अभिरुचि और भावों का सौन्दर्य सम्पूर्ण रूप से प्रतीत हो जायगा। और यही भाषा-ज्ञानरूपी कवच धारण करके सर्व प्रकार की कठिनाइयों से युद्ध करते हुए हम सम्पा. दन रूप कठोर कार्यक्षेत्र में अग्रसर होते चले जायगे। दूसरा प्रन्य निर्वाचन कार्य भी कठिन है। कौन से अन्य के जोर्णोद्धार का प्रचार पहिले होना आवश्यक है, वह अन्य किस विषय का है और कितना पुराना है, उस के सम्पादन कार्य में कौन समर्थ है कि जिन्हें वह सौंपा जाय इत्यादि बातें इस विषय में विचारणीय है। हमारे विवार से दार्शनिक वा वैज्ञानिक प्रन्थों की रक्षा सर्वोपरि है। परंतु ये हर किसी के हाथों से न्याय पाने वाले विषय नहीं है। अत. एव इस विषय में यदि इन बातों पर ध्यान नहीं दिया गया तो इस कार्य में लगाई हुई शक्ति और अर्थ व्यर्थ ही जायगा। प्राचीन जैन साहित्य के निर्वाचन पर हो उन का सम्पादन कार्य सर्वथा निर्भर है। भाजकल इस कार्य में किसी प्रकार का नियम, किसा भांति की ला, कोई विषय विभाग का विचार पूर्ण रूप से नहीं किया जाता है। कहां तक कहें कुछ है ही नहीं! हमें माज तक पूग पता नहीं कि हमारे घर में कितने व्याकरण है, कितने कोष है, और उनमें से किन्हें पहिले सम्पादन करना उचित है। पुस्तकों के निर्वाचन सम्पादन वा प्रकाशन में कुछ न कुछ उद्देश्य, सिद्धांत, कोई निश्चित अभीष्ट अवश्य होना चाहिये। परंतु वह हमारे यहां कुछ भी नहीं। एक पुस्तक का एक मंश अथवा भाग छपा है तो दूसरे की कुछ भी खबर नहीं ली गई। इसी प्रकार से समय का विचार या विषय का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • प्रवन्धावली विभाग सम्पादकों को या तो हुआ ही नहीं या उन्होंने उसे कार्य में परिणत करना व्यर्थ समझा। जिस समय देश में मुद्रायंत्र न थे, पुस्तकों के लिखवाने वा प्रकारा करने में बड़ी कठिनाइयां होती थीं, पर जब से छापे की प्रथा भारत में प्रारम्भ हुई हमारी बहुत कठिनाइयां दूर हो गई हैं। परंतु दुःख है कि अपने जैन भ्राताओं ने छापे का उतना लाभ नहीं उठाया कि जितना अन्य हिन्दू भ्राताओं ने उससे उठाया है। हम मुद्रायंत्र का इतिहास देखते हैं तो आज सवा सौ वर्ष से भारत में छापने का काम चल रहा है। सब से पहिले ईस्वी सन् १७६२ में बङ्गाल में बङ्गले टाइप में संस्कृत पुस्तक, छापी गई थी। जैन धर्म की सब से पहिली छपी पुस्तक, जो मेरे देखने में भाई है, वह ई० सन् १८६८ में मुद्रित हुई थी । परन्तु अनेक वार हमारो अनुदारता और अंध विश्वास हमें संसार के साथ समुन्नत होने में सहस्र बाधा डालता है। कितनेक महाशय प्रन्थों के छापने के ही विरोधी हैं कितने ही लिखित पुस्तकों को भूलों के संशोधन के शत्रु हैं यहां तक कि बहुतों को शब्द अलग २ काट कर लिखने और ठहरने के चिन्हों और विरामों के देने का भी विरोध है ! समय परिवर्तनशील है। हमें संसार के साथ चलना हो नहीं है किन्तु हमें अपने धर्म प्रन्थ साहित्य भंडार और अपने प्राचीन गौरव को सुरक्षित रखना है। इन महत् कार्यों के लिये महत् उद्योग करना होगा। हमारा कार्पण्य, हमारी अन्धपरम्परा, हमारा हठ काम न . देगा। इस के विना फल यह होगा कि संसार प्रकाश में रहे और जैन अन्धेरै गर्त में हो पड़े पड़े देखा करें। कोई अन्य क्यों न हो उसका गौरव उसके कर्ता के हाथ से निकलने पर जो था उतना ही नहीं परन्तु उससे कई गुना अधिक बनाये रखने के लिये हमें आवश्यक है कि हम उन्हें सुपात्र उत्तराधिकारी को भांति अच्छी प्रकार समालोचना और उपयुक्त टीका टिप्पणो के साथ बड़ी सावधानी से प्रकाशित करें। कई प्रकार के मोटे पतले Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • प्रबन्धावली अक्षरों का मोर आवश्यकानुयायो लाल पीले रंगों से संकेतों का व्यवहार जो बहुत प्राचीन काल से चला आता है, वह नियम भा सम्पादकों को पूरा ध्यान में रखना चाहिये। इसके अतिरिक्त अन्य को सुबोध और सर्वप्रिय समय बचाने वाला करने के लिये प्रकाशित करने के समय अन्य को आवश्यकीय सूचियां दाखिल करनी भो सम्पादक का प्रधान कर्तन्य है। यदि पुस्तक शुद्ध हो नहीं हुई पूरी छान चीन जांच पड़ताल के साथ छापा हान मई तो दूसरी गौण पातों पर जोन ध्यान देता है। यह अधिक समय की बात नहीं है कि मुर्शदाबाद निवासी स्वर्गीय रायबहादुर धनपतिसिंह जी ने बहुत सा द्रन्य व्यय करके श्वे. जैन प्रन्यों को सम्पादत कराकर प्रकाशित किया था। बड़े दुःख के साथ कहना पड़ता है कि वे पुस्तक अशुद्धियों के कारण विद्वानों में यथेष्ट सम्मानित नहीं हुई। इनके प्रकाशित अन्यों पर श्रद्धेय डाकूर हार्नल साहब लिखते हैं: “As an edition it is worthless, being made with no regard whatsoever to textual or grammatical correctness, both in its Sanskrit and Prakrit portions" ( Upasaka-dasa, Bibliotheca Indica Series, Introduction, page xi, Calcutta 1890, ) तात्पर्य यह है कि हम अन्यों के सम्पादन कार्यकर्ता को मापने बिलकुल ही बसलाया। परन्तु यह पुल की बात है कि धन लगाया जाय भोर लाम में उल्टी बदनामी मिले। यह केवल थोड़ी सो असायपानी का हो फल होता है। अतएव उपर्युक विषयों पर ध्यान रखकर सम्पादन कार्य सदा धैर्य के साथ करना चाहिये। माल की प्रसिद्ध ऐशियाटिक सोसाइटी से रार हानले ने उक 'भो उपासक पशा' नामक जैन श्वेताम्बर भागम का सानुबाद संस्करण प्रकाशित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *३२ * ४ प्रबन्धावली किया है। आज तक भारत वर्ष से प्रकाशित कोई भी जैन ग्रन्थ इसके मुकाबले में नहीं छपा है। सम्पूर्ण आवश्यकोय टीका टिप्प. णियों और सूचियों के साथ ऐसा शुद्ध संस्करण एक आदर्श स्थल है। हाल में अमेरिका के “Harvard Oriental Series'' में हार्टल साहबने पूर्णभद्र गणि कृत "पंचतंत्र का एक संस्करण सम्पादित किया है। आपने इस कार्य में लगभग १० हस्तलिखित पुस्तकों को बड़े कष्ट से दूर दूर से एकत्रित करके मूल को मिलाया है और एक र अक्षरों को देखा है। कितने ही पाठान्तरों और कथाओं के हेर फेर पर सतर्क वादानुवाद किया है। भूलों का परिशोधन और उपयुक्त प्रस्तावना और परिशिष्टों द्वारा ग्रन्थ को विभूषित करना आप का हो काम है। इतने आन्तरिक गुण होने पर भी बाह्यरूप पर का ध्यान नहीं दिया गया है। मैंने आज तक इतना सुन्दर संस्करण किसी भी भारतीय ग्रन्थ का नहीं देखा । अतएव मैं विश्वास करता हूं कि सम्पा. दन कार्य इस ही उपर्युक्त प्रकार के आदर्श पर होने से चाहे वे अन्य प्राचीन हों वा नवोन हों समस्त संसार में सुयोग्य सम्पादन के बल से निस्सन्देह सम्मानित होंगे। अशुद्ध पुस्तकों से बहुधा विद्या के स्थान पर अविद्या ही फैलती है। पाठकगण यह न समझे कि मैं केवल अपने अन्य सम्पादन कार्य की त्रुटियां लिख रहा हूं। नहीं प्रत्युत मुझे आज तक यहां के प्रकाशित अमूल्य ग्रन्थों के अच्छे २ संस्करणों का घरावर स्मरण है। अपने जैन श्वेताम्बर सिद्धान्त ग्रन्थों के प्रकाशन कार्य में बम्बई को श्री आगमोदय समिति तथा रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, सूरत की श्री देवचंद लाल भाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था, बनारस की श्री यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, भावनमर की श्री जैनधर्म प्रसारक सभा, जामनगर के पं० श्रोमान् हीरालाल हंसराज ने जो २ ग्रन्थ प्रकाशित किये हैं, वे अवश्य प्रशंसनीय हैं। हमारे अच्छे २ दिगम्बर जैन सिद्धान्त ग्रन्थों का इन वर्षों में जैन सिद्धान्त भवन आस से, बाबई की माणिक्यचंद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली # * ३३ * जैन ग्रन्थ माला - और जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, तथा कलकत्ता की जैन सिद्धांत प्रकाशिनी संस्था से एवं सूरत के दि० जैन पुस्तकालय : तथा लाहौर के स्व० ज्ञानचन्द जी द्वारा प्रकाशन हुआ है । साहित्य प्रेमी श्रीमान् बड़ौदा नरेश की तरफ से गायकवाड़ ओरियंटल सिरीज़ में भी कई जैन ग्रन्थों का अत्युत्तम संस्करण छप चुका है और छप रहा है। बम्बई संस्कृत सिरीज़ में भी कई प्राकृत, संस्कृत जैन ग्रन्थों का अच्छा सम्पादन हुआ है । इनके सिवाय इंग्लैण्ड, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, इटाली नावें आदि स्थानों में अर्जुन विद्वानों ने जो कुछ मूल, अनुवाद, टीका टिप्पणियों के साथ ग्रन्थ प्रकाशित किये हैं उनके लिये समस्त जैन समाज आभारी है। यह अव दूसरा विषय सामयिक पत्रों के सम्पादन का कार्य है । भी काम बहुत कठिन है। आज कल सम्पादक उसे कहते हैं कि जो महाशय प्रबन्ध लिखे, प्रूफ पढ़ें और पत्र पत्रिका छपवावें । परन्तु यह धारणा भी भ्रमपूर्ण समझना चाहिये। इन कार्यों के सम्पादक का प्रधान कर्त्तव्य उचित विषयों का चुनना, उन पर लिखे लेखों को पसंद करना उन्हें स्थान देना और निष्पक्षपात के साथ पूर्णरूप से सम्पादन का कार्य करना है । यदि सम्पादक स्वयं लिखें तो कोई अपराध नहीं है, परन्तु यह सम्भव नहीं है कि आप औरों के ही लेखों को पढ़ कर उनके गुण दोषों को देखें और सम्पादन के प्रत्येक काम को स्वयं देख रेख करे और स्वयं ही लिखते रहें । परन्तु आवश्यकतानुसार उन्हें अपनी लेखनी से भो काम लेना चाहिये । तो भी मुख्यतः विषयों का सुधार करना ही पत्रों के सम्पादक का प्रधान कार्य होना चाहिये । पत्रों के सम्पादन में साहस और धैर्य के साथ धन, समय और शक्ति की भी आवश्यकता है। और इन सबों का सदुपयोग सर्वथा वांछनीय है । मेरे विचार से निम्नलिखित कई बात पर ध्यान रखने से पत्र सम्पादन कार्य में सहायता मिलेगी : — ( १ ) पत्र पत्रिका की भाषा जितनी सुवोध होगी हतनी ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •प्रबन्धावली. अधिक पढ़ी जायगी। कठिन भाषा के पत्रों को केवल विद्वान हो (१) पत्र पत्रिका ऐसी प्रकाशित होनी चाहिये कि जिन्हें देखकर चित्त प्रसन्न हो। उनमें काग़ज़ आदि भी ऐसे दिये बांय कि वह कुछ लमय अवश्य ठहरें। (३) उनके मूल्य पर भी ध्यान रखना चाहिये। अथशास्त्र के सिद्धांत के अनुसार थोड़े मुनाफे से अधिक माल बेचना, बहुत लाभ से थोड़ा माल बेचने से अधिक लाभदायक होता है। जहां तक बने लागत से दुना दाम रक्खा जाय तो ठीक है। यदि कम करना संभव हो तो और अच्छी बात है। (४) पत्र पत्रिका प्रकाशित होने पर उनका सर्वत्र प्रचार होना चाहिये। इस कार्य में देशान्तरों में अधिक अर्थ व्यय करते हैं। (५) प्रकाशित विषयों पर स्वतन्त्र आलोचना आमन्त्रित करना चाहिये। इससे वे विषय निर्दोष होते जाते हैं और उनकी त्रुटियां भी ज्ञात होती जाती है। कहना बाहुल्य है कि समालोचना से पुस्तक की बिक्री भी बढ़ती है। अंग्रेजी में सम्पादन कार्य के विषय पर कई ग्रन्थ हैं परन्तु यहां इस विषय की चर्या कम रहने के कारण अपने भारतवासी सम्पादन कार्य में अधिक अवसर नहीं हो सके हैं वर्तमान समय में इस विषय की आवश्यकता प्रति दिन बढ़ती जा रही है। इस कारण आशा है कि सम्पादन कार्य के गुरुत्व पर उचित ध्यान रखने से इस देश में भी सम्पादक लोग सफलता प्राप्त केगे और सर्वत्र प्रशंसापात्र होवेंगे। "वीर" वर्ष-२(१९२४-२५), अङ्क ११-१२, पृ० २६८-३०२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाषिक शिलालेख जिस समय दिल्ली के सिंहासन की कि नाना कारणों से दुल हो जाने से विशाल मुगल साम्राज्य में स्थान स्थान पर अशान्ति फैली हुई थी, उस समय का ठोक इतिहास दुष्प्राप्त सा है। उस समय लोग अपनी जान और माल की चिन्ता में से थे। उनको साहित्य या इतिहास की खबर लेने का अवसर ही न मिलता था। ऐसे समय ब्रिटिश सरकार बङ्गाल प्रान्त में अपना पाया जमाने के प्रयन में लगी थी। यह उसी समय का शिलालेख है। बात से पाठक "रानी मवानी के नाम से परिचित होंगे। उनकी राजधानी मुर्शिदाबाद के पास ही भागीरथी के पश्चिमी तट पर देवीपुर नाम का एक कस्या है। किसी समय वह साधु महन्त लोगों का लोलाक्षेत्र था। स्थान स्थान से सब श्रेणी के धार्मिक सजन यहाँ माकर मन्दिर, मठादि प्रतिष्ठित करके वहीं जीवन व्यतीत करते थे। इस समय देवोपुर का थोड़ा ही टुकड़ा रह गया है। वहाँ महन्त लोगों के तीन अखाड़े थे, बहुत से मन्दिर प्रतिष्ठित थे, मोर देवसेवा तथा अव्वस्त्र की मच्छी व्यवस्था थी। भाज तक ऐसे अखाड़ों की बड़ी बड़ी टी इमारतें मोर भएरहर देखने में भाते हैं। मुझे खबर मिलो थी किवहां के एक अखाड़े में एक बड़ा शिलालेख है। मैने पता लगाकर जब उस लेख को देखा, तप श्याम पाषाण का २८१ सम्बा और १४ चोड़ा एक विशाल शिलालेख पाया। उसके राकिनागे में सुन्दर नशे की बेल बनी हुई है। उसके अक्षरे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रबन्धावली. हुए हैं। शिलालेख के मा भाग : लंबी रेखा से नीचे का अंश भी दो भागों में विभक्त है। कार के एक अंश में हिन्दी और नीचे की बाई तरफ बङ्गला अक्षरों में और दाहिनी तरफ फारसी अक्षरों में लेख खुदे हुए हैं। ऐसा तीन भाषाओं का शिलालेख कम देखने में आता है। इसका चित्र देखने से पाठकगण अच्छी तरह समझ लेंगे। इस शिलालिपि का अक्षरान्तर नीचे प्रकाशित किया जाता है। सारांश यह है कि विक्रम संवत् १७६१, शकाब्द १६५६ के वैशाख महीने में अक्षय तृतीया के दिन महाराज गंधर्वसिंह ने यहादुरपुर के समीप देवीपुर के दक्षिण गंगा के तट पर जमीन खरीदकर धर्मार्थ हरि-मन्दिर और कूआं तैयार कराया था। लेख में ज़मीन का परिमाण २२ बीघा ८ कट्ठा और उसकी चौहद्दी लिखी है। जमीन रत्नेश्वर की स्त्री से खरीदी गई थी। हिन्दो और बङ्गला में केवल रत्नेश्वर को स्त्रो का उल्लेख है; परन्तु फ़ारसी में ब्राह्मण जाति के रत्नेश्वर की ईश्वरोदेवी नाम को विधवा स्त्री से खरीदने का उल्लेख है। फ़ारसी लेख में लेख खोदनेवाले का नाम और राज्य वर्ष १६ अर्थात् दिल्ली के मुगल बादशाह मुहम्मद शाह के राजत्व का १६ वां वर्ष, हिजरी सन् ११५६ तारीख ६ सव्वाल खुदा हुआ है। ईसवी सन् १७३४ से संवत् १७६१ और हिजरी सन् ११४६ मिलता हैं। इस हिसाब से शकाब्द १६५६ होना चाहिये। वंगला में शकाब्द सोलह सौ स्पष्ट है ; परन्तु आगे के अक्षर साफ पढ़े नहीं जाते। प्रचलित इतिहास में राजा गन्धर्वसिंह का नाम देखने में नहीं आया। गन्धर्वसिंह का बंगाल देशके किसी न किसी स्थान से संबंध अवश्य होगा; और वे कोई साधारण स्थिति के नहीं थे। बंगला अक्षरों में “महाराजा गन्धर्वसिंह बहादुर" और फ़ारसी में "राजा गन्धर्वसिंह” लिखा है। हिन्दी में पहले "नप गन्धर्वसिंह" और पोछे "महाराजा" भी खुदा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • प्रवन्धावली. लिपि की भाषा के विषय में यहां केवल इतना ही कहना है कि मैं फ़ारसी भाषा से परिचित नहीं हैं, परन्तु शिलालेख का बंगला और हिन्दी भाषा की लिखावट आधुनिक नहीं है। हिन्दी और फ़ारसी के लेख पद्य में हैं और बंगला लेख गद्य है। ऐतिहासिक दृष्टि से लेख में जो जो साधन वर्तमान है, उनका खोज की आवश्यकता है। यह लेख पहले मैंने "बंगोय साहित्य परिषद्” को पत्रिका में प्रकाशित किया था; परन्तु अभी तक राजा गन्धर्वसिंह के विषय में कुछ विशेष पता नहीं लगा है। शिलालेख का अदरान्तर ( ऊपर के नक्शे की बेल में ) धोकृष्ण वासुदेव जू सदा सहाई । ( नीचे के नकशे का बेल में ) था गनेसाय न्म श्री श्राः ॥ ( दाहिने नकशे को बेल में ) ॥ श्री रघुनाथाय नमः ॥ (बाएँ नकशे की बेल में ) श्रो लछमनाय नमः ॥ (ऊपर की तरफ हिन्दी में) (१) संवत् १७८१ बैसाष मास सुदि तीज ॥ भी नप गंधर्वसिंध भुव मोल ले वयौ धर्म को वोज ॥ देवपुरी अस्थातु य (२)ह वागु गंग के तीर ॥ जर परीदी लोनों सोई श्री हरि सुनन को धीर ॥ रतनेसुर की नारि ने दयौ पुसी करि मोलाथ (३)रि रोपी महाराज ने धर्मपुरी अडोल ॥ उत्तर देवीपुर बसे पछिम गंगा आलि ॥ मेंद बहादुरपुर लगी दछिन (४) पूरव पालि ॥ वीघा वीस पर दोय हैं आठ विसे परिमांन ॥ हरि मंदिलु कीन्हों तहां वाध्यो कृप निवांन ॥५॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर प्रबन्धावलो (नीचे दाहिनी तरफ बंगला में) (१) ॐ श्री महाराजा गन्धर्वसिंह बहादुर रत्ने (२) सरेर स्त्रि स्थाने बाग हाते बाइश बीघा आर (३) काठा इह पश्चिमे गंगार आलि उत्तरे देवि पु (४) र पूर्व दक्षिण बाहादुरपुर जर खरिद लइया (५) सकान्दा सोलषसाचा सने पैसाख मापेर अ (६) क्षय त्रितिया दिवशे हरिमंदिर ओ कूप दिला। (नीचे बाई तरफ फारसी में ) . (१) राजा गन्धर्वसिंह बहादुर घारा करदन्द जर खरीद शुर नमूद अन्दर हवेली चाह शीरीं अफ़जोद । (२) मे गिरफ्त अज निज्द मुसम्मात ईसरी देव्या बोबुद __ भहलिये रतनेसर जुन्नारदार मुतब्धफ वजूद। (३) बिस्त दो बीघा मवाज़ो हस्त बिस्व लाखिराज, हद्द मग़रिब भौज परियाये मौज दर मौज मिजाज । ( ४ ) पूर बहादुर हर दो सूद मशरिक वो जुनूव दारद ज़मीन, ता शुमाल हद्द देवीपुर मुकरर शुद । अमोन । (५) अज़ तवारीख नहुम शबाल दह वो शश् सन् जुलूस यक हज़ार वो यक सद वो बेहल व शश् हिजरी मनुश। (६) मज़ खत रामकृष्ण। भागरी प्रचारिणी पत्रिका' (नवीन संस्करण, सं० १९८३ भाग. संख्या १ पृष्ठ १-५) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजगृह के दो हिन्दी लेख भारत की प्राचीन नागरियों में राजगृह की गणना भी है। इस स्थान का वर्णन बहुत से प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। जैनियों के बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत स्वामी का जन्म, दीक्षा यहीं हुई थी। उन लोगों के शास्त्रानुसार इस घटना को कई लान वर्ष बीत चुके हैं। हिन्दुभों के प्रन्यों में खास श्रीकृष्ण और जरासंध की कथाओं का स्थान भी यही था। बुद्धदेव का भी यही लीला-क्षेत्र था। बिहार उड़ीसर प्रांत के बिहार के दक्षिण में गया जिले के समीप चही राजगृह आज तक वर्तमान है। प्राचीन राजगृह नगरी के स्थान निर्देश के विषय में बड़े बड़े विद्वानों और पुरातत्वों के विचारों पर मैं विवेचन करने में असमर्थ हूं। केवल इतना हो सूचित करना आव. श्यक है कि वहां पर जो कुछ ठण्ढे और गरम जल के कुण्ड विद्यमान हैं, उनका लेख प्रायः सभी प्राचीन प्रन्यों में है। माज मैं पाठकों के सन्मुख जो दो हिन्दी लेख उपस्थित करता है, वे इन्हीं कुण्डों में लगे हैं। इनमें से पहला लेख संवत् १६०४ का वैभारगिरि के नीचे सत. धारा ( सप्तधाग ) में पूरब को दीवार पर लगा है और दूसरा विपुल. गिरि के नीचे सूर्यकुण्ड की पश्चिमी दीवार पर लगा है। दोनों लेख काले पत्थर पर खुरे हैं। इन दोनों लेखों का अक्षरान्तर इस प्रकार है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली. पहला लेख ॥ श्री गणेशायनमः ॥ बोहा-आदि मंक युत शि(सि)दि निधि ब्रह्मनाम सम लेषि। ___ता सम्बत यहि कुण्ड को रचेउ नवीन विशेषि ॥ १॥ नृपति जसा को नाम लष भपै मध्य पिचार । राजकुण्ड है नाम यहि महिमा अगम अपार ॥२॥ क्षपै--- अलज भसन मानसनिवासि विक्रम कुल देसा) वाल। जो न जरत ताका मनत पस अनुमती(ति) धर्म फलि। पाइन तिय जल जान नारि जाते सुहाग लहु । क्षिति अरु जुगल लोक भनि जासु कीरति प्रताप यहु । दुतिय नाम सब शबद को अर्थ विचारि करि लेषिौ। नाम नपति जस मान को मध्यक्षर महँ पेषिौ * ॥२॥ - तस्य क्ष के मध्यक्षर को. उदाहरण कमल अहार मराल उजैन पाताल अजर कुअर मलीन पाषान अबला जाहाज सदुर धरती। इसरा लेख श्री हरि ॐ दोहा - विमल भक्ति रत जानि जेहि, कृपा कराह रघुवीर । तेपि धरत पगु धर्म मग, लहत सुजस मतधीर ॥१॥ राजगृही ते कोश दस, भग्निकोण भिराम । बकसंडापुर यसत जह, बाबू सीताराम ॥२॥ धर्मधुरन्धर ध्रुव विभव, राज राज सुखदेन । अष्टपुत्र पौत्रादि युत, भोगत गज सुखेन ॥३॥ - - - * महाराज ताजअलो खाँ बहादुर । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रबन्धावली. सो सुदन्य निज खर्च करि, सुरनर मुनि सुखहेतु । गजगृही सुम तीर्थ महँ, बांधे भवनिधि सेतु ॥ ४ ॥ कुण्ड सप्तधाग विरचि, सप्त मुनिन को स्प। रवि नवीन मन्दिर रूविर, स्थापे सब मुनि भूप ॥ ५॥ वेद गगन अरु ग्रह ससि (शशि) हिं, सुभ संवत अनुमान । ज्येष्ठ सु(शुक्ल तिथि द्वादसो (शो), सप्तधार निर्मान ॥ ६ ॥ सम्बत १९०४ ज्येष्ठ सु(शुक्ल द्वादसी (शो) लिखा नौबतलाल आत्मज बावू सीताराम । नोट-लेखक को वैभारगिरि के उत्तर दिशा में सरस्वती की धारा पर 'वेणीमाधव' के मन्दिर के नीचे वायू सीताराम का बंधाया हुवा जो पक्का घाट है उसकी दाहिनी ओर श्याम पाषाण में खुदा हुवा ५ पंकियों का लेख मिला है, वह इस प्रकार है: १ सीताराम बासिंदा २ मोजे वकसंडा प्रगनाह ३ पंचरुषी जीला गया सम्बत् ४ १९२५ मोतावि (क ) सन् १२७५ ५ साल 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' (नवीन संस्करण, सं० १९८३ भाग . संख्या ४ पृ० ४७७-४७६) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्री-शिक्षा मनुष्य मात्र को शिक्षा की आवश्यकता है। हिताहित ज्ञान ही मनुष्य को पशुओं से पृथक् करता है और इस विवेक का केवल शिक्षा से ही विकाश होता है। चाहे माध्यात्मिक विषय हो चाहे वैज्ञानिक हो एकमात्र शिक्षा से ही यह शान सम्यक् परिस्फुटित हो सकता है। अतः शिक्षा की आवश्यकता और उपयोगिता सदैव रही है। मनुष्यसृष्टि में पुरुष और स्त्री दोनों का सम्बन्ध अविग्नि है, दोनों के महत्व में भी कोई पार्थक्य नहीं है। अपने जातीय जीवन में महिलाओं का स्थान भी वैसा ही उच्च कोटि का है जैसा कि पुरुषों का। भाप संसार के किसी भी देश में जाइये, किसी भी कौम को देखिये बालक बालिकाओं की शिक्षा का कुछ न कुछ प्रबन्ध अवश्य मिलेगा। यदि माताएं सुशिक्षित हों तो उनके बच्चों पर वही प्रभाव पड़ेगा और वह बचपन की शिक्षा उनके जीवन के शेष मुहर्त तक उसी प्रकार अङ्कित रहेगी। जातीय जीवन की उन्नति और अवनति ऐसी शिक्षामों पर निर्भर है। कोई भी जाति की सथी उन्नति उसी समय हो सकती है जब कि उस जाति की महिलाएं सुशिक्षित हों और उनके विचार उच कोटि के हों। जब तक ऐसा न होगा तब तक सभी और सावी उमति सम्भव नहीं है। केवल माता ही अपने बच्चे के सुकोमल हृदय में मावी महत्व के बीज लगा सकती है। खेद का विषय है कि अपने भारतवासियों में खासकर अपने मोखपाल समाज में स्त्री शिक्षा का विशेष अभाव है। यदि मैं यह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *४४ * ● प्रबन्धावली कहूं कि मेरा यह लेख, जो कि 'महिलाङ्क' के लिये ही लिख रहा हूं, यह अपने समाज की कुछ इमो गिनी स्त्रियों के अतिरिक्त बहिनों की अपेक्षा भाई ही अधिक संख्या में पढ़ेंगे तो असत्य न होगा। परन्तु यदि अपने प्राचीन भारत की स्त्रियों की उन्नत दशा से वर्त्तमान भारत की स्त्रियों की शिक्षा की तुलना की जाय तो हताश होना पड़ता है । चाहे हम भारतीय वैदिक युग को देखें, चाहे जैन युग अथवा बौद्ध युग को देखें, भारतवर्ष में विद्यावती और कलावती स्त्रियां वर्त्तमान थीं । समाज एक जीती जागती वस्तु है; जैसे जीव देह का कोई अंश अपुष्ट रहे तो उसका प्रभाव और २ अङ्गों पर पड़ता है उसी प्रकार समाज का अङ्ग दुर्बल अथवा अपूर्ण रहे तो उस समाज की उन्नति की आशा करना निरर्थक होगा । पुरुषों की तरह स्त्रियां भी समाज का भङ्ग है और उनका स्थान भी पुरुष के बराबर है । विद्वानों ने स्त्रियों को अर्द्धाङ्गिनी की आख्या दी है । यदि आधा अंग ही निकम्मा रहे तो कोई भी कार्य पूर्ण सफलता से होना सम्भव नहीं है । यद्यपि अपने भारतवासी सभी समाजवाले अपनी २ उम्नति के पथ में और जातीय - जीवन के सुधार में लगे हैं परन्तु इनमें से इने गिने कुछ समाजों के अतिरिक्त और समाज और खास कर अपना ओसवाल समाज स्त्री शिक्षा के विषय में बहुत पीछे रहा हुआ है । अद्यावधि इस विषय का कोई सराहनीय प्रवन्ध नहीं है और इसी कारण लमाज कोई विशेष उल्लेखनीय उन्नति नहीं कर सका है। जिस प्रकार पुरुषों में शिक्षा का भारम्भ हुआ है उसी प्रकार महिलाओं के लिये भी समयानुकूल प्रबन्ध होना चाहिये । खेद है कि अभी तक भारत के किसी प्रान्त में अपने समाज में स्त्री शिक्षा का प्रबन्ध नहीं है । द्रम्य, क्षेत्र और काल की कदापि उपेक्षा करना उचित नहीं। अपने को मर्यादा के नाम पर अथवा हठवाद से, आगे की कुप्रथा अथवा समय विरुद्ध आचार व्यवहार को लकीर के फकीर की तरह लेकर बैठे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रवन्धावली ● * ४५ ● रहना नहीं चाहिये परन्तु समय और शक्ति नष्ट नहीं करके समयानुकूल सुधार लेना चाहिये । यदि धर्म की अथवा मर्यादा की दुहाई देकर बैठ रहेंगे तो मागे बढ़ नहीं सकेंगे और दूसरे समाज की प्रतियोगिता में पीछे पड़े रहेंगे । यद्यपि शिक्षा कार्य बाल्यकाल से आरम्भ होता है, परन्तु मनुष्य का सारा जीवन ही शिक्षा का है । हिन्दू समाज में विशेषतः ओसचाल समाज में बाल विवाह से शिक्षा कार्य पर प्रथम कुठाराघात होता है । परदा प्रथा भी मोटी अन्तराय हो जाती है, मैं इन बाधाओं के विषय में अधिक कहना नहीं चाहता इतना हो यथेष्ट होगा कि अब ऐसी २ सामाजिक प्रथाओं का सुधार होना अत्यावश्यक है । मैं पहिले कह भाया हूं कि स्त्रियां भो समाज में पुरुषों के ही सदृश स्थान की अधिकारिणी हैं । बाहर का और परिश्रम का कार्य पुरुषों का है । दैनिक गृह कार्य सन्तान पालन व रोगियों की परिचर्यादि कार्य महिलाओं का है, परन्तु इन विषयों की शिक्षा का कोई प्रबन्ध नहीं है । भावश्यकता पड़ने पर टेक कर सीखना अथवा शिक्षा पाकर कार्य में अग्रसर होना इन दोनों का अन्तर बुद्धिमान स्वयं सोच लें । यदि समाज की उन्नति करना हो और अपना गृह सुख शान्ति मय करना चाहें तो समाज के प्रत्येक भाई को स्त्री शिक्षा का महत्व सदैव स्मरण रखना चाहिये । उच्च शिक्षा के विषय में उल्लेख अनावश्यक है, अपने समाज में तो स्त्रियों की प्रारम्भिक शिक्षा का ही अभाव है । "कन्याप्येवं पालनोया शिक्षणी याति यखतः । " अपनी कन्याओं को अति यतः शिक्षा देने के स्थान में अल्प यक्षतः भी शिक्षा नहीं देते। यदि इस विषय में कोई भाई उच्च विचार प्रगट करते हैं तो दूसरे भाई का उत्साहित करना दूर की बात है ये कह उठेंगे कि लड़कियों को क्या हुण्डी बलानो प्रिय पाठक. ! अब हुण्डी पुर्जों के दिन गये अब तो सब काम तो www.umaragyanbhandar.com ३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat I Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली हो योग्यता पर निर्भर है। यदि स्त्रियां शिक्षित रहे तो सांसारिक जीवन सुख शांति मय होता है। पुरुषों को गृह कार्य में उनसे बड़ी सहायता मिलती है। परन्तु अपने तो उनको एक स्थावर सम्पत्ति-सा मान रखा है। न तो अपने महिलाओं का स्वास्थ्य का ख्याल रखते हैं और न उनकी शिक्षा का। व्यायाम, स्वच्छ वायु सेवम, आदि स्वास्थ्यकर व्यवस्था उनके भाग्य में मानों लिखी हो नहीं है। हजारों के लाखों के जेवरों से लाभ नहीं होगा। उपरोक्त कारणों से अपने समाज की प्रायः स्त्रियां अस्वस्थ रहती है। क्षयरोग, रक्ताल्पता आदि कठिन व्याधि पीड़ित महिलाओं को संख्या बढ़ती जाती है। अवशेष में उनका सारा जीवन नष्ट हो जाता है। रात दिन वैद्य और डाक्टरों के पीछे अर्थ नाश करना पड़ता है और वे बिचारी कष्ट भोगती हैं और साथ हो अपना गार्हस्थ्य जीवन दुःखमय हो जाता है। अतः समाज का कर्तव्य है कि पुरुषों की शिक्षा के साथ २ स्त्री शिक्षा का समयानु. कूल प्रबन्ध करे, पुरानी रूढ़ियों को हटावे, स्त्रियों के व्यायाम को और शुद्ध आहार विहार और स्वच्छ वायु सेवन आदि की व्यवस्था करे। रोगी वर्या, शिशु पालन, सिवन कार्य, पाक प्रणालो, संगीत चर्चा, चित्रकलादि विषयों पर प्रत्येक बड़े २ स्थानों में तथा प्रत्येक घरों में जहां तक सम्भव हो इस प्रकार अग्रसर होने से थोड़े ही काल में विशेष सफलता होगी। मैंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है और सुविज्ञ पाठक भी स्वयं अनुभव किये होंगे कि बालकों की अपेक्षा बालिकाओं की बुद्धि तीब्र होती है। बालक जो कुछ पाठ महीने भर में तैयार करेगा वही कन्या १५-२० दिन में अभ्यास कर सकती है। खेद है कि उनकी शिक्षा पर अपने तनिक भी ध्यान नहीं देते। उनके विवाहादि की मुख्य चिन्ता रखते हैं। गहने और कपड़े, अलङ्कार वेष भूषादि केवल बाह्य आडम्बर है। शिक्षा ही असली गहना है और उनका सारा जीवन सुखी हो सकता है। कला आदि के अभ्यास से उनको अपने उदर पूर्ति के लिये दूसरों का मुखापेक्षि होना नहीं पड़ेगा। दुःख आने पर विचलित नहीं होंगो। सारांश यह है कि अपने समाज में स्त्रो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •प्रबन्धाधली शिक्षा का और उनकी आवश्यकीय कलाओं के अभ्यास का शीघ्र प्रबन्ध होना चाहिये ताकि छोटे बड़े धनी निर्धन सब महिलाएं भनायास से शिक्षा का लाभ उठाकर जातोय जीवन उन्नत कर समाज का मुख उज्ज्वल करें। 'ओसवाल नवयुगक' (महिलांक, सं० १६८८ वर्ष ४, संख्या ४, पृ. २११-२१८) Shree Sud armaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य और समाज साहित्य और समाज का ऐसा घनिष्ट सम्बन्ध है कि यदि कोई इस विषय पर लिखें तो अनायास एक विशाल प्रन्थ बन सकता है। साहित्य से समाज पर और समाज का साहित्य पर कौन २ समय में किस प्रकार प्रभाव पड़ा, इतिहास अवलोकन से इनके दृष्टान्त बहुधा मिलेंगे। यहां कुछ शब्दों में इस ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया जाता है। मनुष्य सृष्टि की एक ऐसी वस्तु है कि उसको अपने मनो वृत्ति विकास के क्षेत्र की सदा आवश्यकता रहती है और सहे पुरुष हो चाहे स्त्री हो वह अपने साथी को चाहता है कि जिस के साथ वह अपने विचारों को प्रकट करता रहे। इसी कारण मनुष्य अपनो २ भाषा में चाहे गद्य में. चाहे पद्य में, अपने २ भावों को विकास में लाते रहते हैं और इसी में उनको आनन्द मिलता है। इस प्रकार मनुष्यों के मनोगत भावों का विकास हो साहित्य है और समाज भी कुछ ऐसे लोगों को समष्टि मात्र है। स्त्रो पुरुष दोनों ही समाज के अंग है और इन युगलों के रहन सहन और विचारों में एकता होने से समाज को सृष्टि होती है। समाज वृक्ष का साहित्य फल है और साहित्य रूपो फल में समाज रूपो वृक्ष को हराभरा रखने को शक्ति विद्यमान है। मानव जाति के इतिहास से ज्ञात होता है कि इन दोनों ने किस प्रकार एक दूसरे को सहायता पहुंचाई है। जिस प्रकार समाज को परिधि मात विस्ता है उसी तरह साहित्य क्षेत्र भी विशाल है। जैसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ५० * * प्रबन्धावली* परिश्रम के साथ अनुकूल समय पर खेत में बीज बोने से फल अच्छे मिलते हैं, उसी प्रकार अपने गम्भीर विचारों को ध्यान पूर्वक भाषा द्वारा प्रकाश करने से वह साहित्यिक फल सदा के लिये उपयोगी होते हैं। मनुष्य के वित्त वृत्तियों को विद्वानों ने प्राचीन काल से ही छः विभागों में विभक्त किया है और वे भाव-श्रोत ही साहित्य जगत में छः रसों के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन छः रसों में से एक २ को प्रधा. नता लेकर पृथक र साहित्य रचे गये हैं। इनके अतिरिक्त साहित्य को और भी शाखायें हैं और प्रशाखा भी अनेक हैं। मिश्र साहित्य की तो संख्या करनी कठिन सी है। साहित्य को प्राचीन, मध्य और वर्तमान के भेद से हम तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं। इस प्रकार हिन्दी साहित्य के भी तीन विभाग किये जा सकते हैं। प्राकृत, अपभ्रन्श आदि हिन्दी भाषा का प्रारम्भिक रूप था और सम्भव है कि ईस्वी एकादश शताब्दी के लगभग से हिन्दी का स्वतन्त्र भाषा रूप का अस्तित्व आरम्भ हुआ है। उस समय से षोडश शताब्दि तक हिन्दी का प्राचीन युग मान लिया जा सकता है। सप्तदश शताब्दि से उनविंश शताब्दि के मध्य तक मध्ययुग और उनविंश शताब्दि के मध्य से आधुनिक काल तक हिन्दी साहित्य का वर्तमाम युग है। प्राचीन हिन्दी साहित्य जहां तक उपलब्ध है उससे ज्ञात होता है कि उस समय हिन्दी के विद्वानों का धार्मिक और नैतिक विषयों पर ही अधिक प्रेम था। पश्चात् अपना देश विदेशियों के हस्तगत होता गया ! उस समय उन विदेशी विधर्मी लोगों के उत्पीड़न के कारण राजमाता विषय पर तो कोई लिखने का साहस नहीं कर सकते थे। जान ओर माल दोनों संकट में थे। लोग उनकी रक्षा में तत्पर रहते थे। परन्तु समाज और साहित्य का अविछिन्न सम्बन्ध है, एक - "सरे पर परा प्रभाव रहता है। इस कारण प्रा .. - . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ● प्रबन्धावळी ● मिलती हैं। राजस्थानी हिन्दी में ख्यात, रासो आदि गद्य पद्य के अनेकों ऐतिहासिक साहित्य मौजूद हैं । साहित्य का प्रभाव भी समाज पर कम न था । बड़ी २ कठिन समस्यायें साहित्य के द्वारा अनायास से हल की गई हैं। कई सौ वर्ष पहिले की बात है कि राजा जयसिंह अपनी नव विवाहिता पत्नी पर मुग्ध होकर शत-दिन अन्तःपुर में पड़े रहते थे । राज काज चौपट हो रहा था । मन्त्रीगण समझा कर थक गये परन्तु कोई फल न हुआ । समस्त राज्य का अस्तित्व संकट में पड़ गया । भविष्य अन्धकार पूर्ण दिखाई देता था । राजा तथा राज्य की रक्षा करने की शक्ति किसी में दिखलाई नहीं देती थी। इसी समय कविवर बिहारीलाल जी भाये और यह दोहा लिखकर राजा के पास भिजवा दियाः " नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकाश यहि काल । अली कली में यों भुल्यो, आगे कौन हवाल | इस दोहे को पढ़ते ही महाराज की आंखें' खुल गई 1 उन्हें अपने वास्तविक अस्तित्व का पता लगा । बड़े २ राजनीतिज्ञों का दिमाग जो काम न कर सका था वही काम बिहारी जी के गिने गिनाये शब्दों ने कर दिखाया । इनके द्वारा समाज और राज्य की रक्षा हुई। महाराजा राज काज देखने लगे। यह साहित्य के प्रभाव का एक छोटा सा दृष्टान्त है । मध्ययुग के बहुत समय तक साहित्य और समाज का इसी प्रकार सम्बन्ध चलता रहा । क्रमशः जय देश में शान्ति बढ़ने लगी और लोगों का समाज की ओर विशेष ध्यान चिंचा, उस समय साहित्य पर इसका प्रभाव अधिक पड़ने लगा और साहित्य में सामाजिक विषयों को स्वतन्त्र स्थान मिला 1 धार्मिक नैतिक, ऐतिहासिक साहित्य के साथ ? उपन्यास साहित्य का रचना होने लगी और इसमें समाज का प्रभाव परिस्फुट होता गया। संगीत और नाट्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ * प्रबन्धावली " साहित्य से भी समाज पर अच्छा प्रभाव पड़ता है । इस समय के हिन्दी साहित्य में ऐसे विषयों का प्रचार विशेष देखने में आता है । वर्तमान काल में दैनिक, साप्ताहिक, मासिक, आदि; पत्र पत्रिकाओं का अधिक प्रचार है। इन साहित्य से सामाजिक जोवन पर बहुत कुछ प्रभाव पड़ रहा है। आज महात्मा गांधी आदि देश के महापुरुष गण इनके द्वारा अपने सिद्धान्तों को सफलता पूर्वक : प्रचार करने में समर्थ हुए हैं । प्रायः प्रत्येक समाज और प्रतिष्ठित संस्थाओं की एक न एक पत्रिका हैं और वार्षिक विवरण आदि भी प्रकाशित होते रहते हैं। इसी प्रकार समाज और साहित्य की घनिष्टता बढ़ रही है और ऐसे प्रचार से यह सम्बन्ध और भी बढ़ता जायगा इसमें सन्देह नहीं । 'आत्मानन्द' ( मार्च १६३२ वर्ष ३, अङ्क ३, पृ० २-४ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्न कुंवरी बीबी जोधपुर के मुन्शी देवी प्रसादजी के नाम से हमारे बहुत से पाठक परिचित होंगे। आप इतिहास के प्रसर विद्वान थे, मुख्यतः भारत की मुसलमानी अमलदारी एवं मुसलमान बादशाहों तथा देशी राजाओं के जीवन-चरित्र और राजपुताने के तबारिख का आप को पूर्ण ज्ञान था। आपने इतिहास का अध्ययन, मनन और तविषयक प्रन्य लिखने में ही जीवन व्यतीत किया। इस प्रकार आप का इतिहास पर अतुलनीय प्रेम देखकर मुझे इस विषय की ओर आसक्ति उत्पन्न हुई थी और भाप मुझे बारम्बार उत्साहित किया करते थे। आज मैं पाठकों के सन्मुख जिन महिला रन के विषय में कुछ कह रहा है यह उक्त मुन्सिफ साहेब की “महिला मृदुवाणी” नामक अन्य के आधार पर ही लिखा गया है। यह पुस्तक ई० सन् १९०५ में याने आज से २० वर्ष पूर्व काशी की प्रसिद्ध नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित हुई थी। भाप पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं: "भारतवर्ष की पुण्य भूमि में अकेले पुरुष ही बौदह विद्या निधान नहीं एप है परन त्रियां भी समय २ में ऐसी होती रही है जो सोने चांदी मोर ग जड़ित आभूषणों के अतिरिक्त विद्या, बुद्धि और काव्यकला के दिव्य भूषणों से मी भूषित थीं और अब मी है। जिनके पखान भनेक पुस्तकों और जन श्रुतियों में विद्यमान है। पर हम को यहां केवल कविया कांताओं से प्रयोजन है जिन की भाषा कविता का भब तक कोई स्वतन्त्र प्रत्य हमारे देखने में नहीं माया था और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ५४ . * प्रबन्धावली * हमने जो भाषा कवियों का इतिहास लिखने के लिये प्राचीन ग्रन्थों और कवि वृत्तांतों की खोज को थी तो उस प्रसंग में कुछ कविता ऐसी भी मिली जो कान्य कुशला कमलाओं के कोमल मुखार्विन्दा की निकली हुई थीं। हमने उसीको संग्रह करके यह छोटा सा प्रन्थ बनाया है और 'महिला मृदुवाणी' नाम रक्खा है।" इस प्रन्य में मुन्शीजो ने ३५ महिलाओं का जोवन-चरित्र और काव्य रचना का वर्णन किया है। इसकी सूची में एक ओसवाल जाती की ललना का नाम देखकर मैंने उत्साह से पढ़ा। सूची की १६ वीं संख्या में “रत्न कुवरी बीबी, जाती ओसवाल, स्थान काशी और संवत् १८४४” यह लिखा है और इनका वर्णन पृष्ठ ७२-७४ में है। पाठकों के कौतुहलार्थ उसका कुछ अंश यहां उद्धृत किया जाता है: ___ “ये कविया फुलांगना जगत सेठ मुरशिदाबाद के घराने में हुई है। इनकी कविता मति रुचिर और रसमयी हैं इन्होंने 'प्रेम रत्न' नामक एक प्रन्थ संवत् १८४४ में बनाया था जिस का भगवत् भक्तों में बहुत प्रचार है क्योंकि उसमें श्रीकृष्ण ब्रजवन्द आनन्द कन्द की लीलाओं का उल्लेख परम प्रेम और प्रचुर प्रीति से किया गया है।" भारत गवर्नमेण्ट के विद्याविभाग के सुविख्यात ग्रन्थकार राजा शिव प्रसाद सितारेहिन्द जो मभी कई वर्ष पहले तक विद्यमान थे इन्हीं रन कुवरीजी के पोते थे। इन्होंने 'प्रेमरत्न' प्रन्थ के विज्ञापन में भपनी दादी के गुणों का बखान इस प्रकार किया है। "वे संस्कृत में बड़ी पण्डिता थी। छहों शास्त्र की वेत्ता, फारसी भाषा भी इतनी जानती थी कि मौलाना रूम की 'मसनवो' और 'दोषान शम्सत वरेज़' जब कभी हमारे पिता पढ़ कर सुनाते तो वह उसका सम्पूर्ण आशय समझ लेतीं। गाने बजाने में भत्यन्त निपुण थी और चिकित्सा यूनानी और हिन्दुस्तानी दोनों प्रकार की जानती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रवन्धावली * ५५ ● थीं। योगाभ्यास में परिपक्त्र और यम नियम और वृत्ति ऋषि मुनियों का सो, सत्तर वर्ष की अवस्था में भी बाल काले और आंखों की ज्योति बालकों की ली, वह हमारी दादी थीं इससे हम को अब उनको अधिक प्रशंसा लिखने में लाज आती है परन्तु जो साधु सन्त और पंडित लोग उस समय के उनके जाननेवाले काशी में वर्तमान हैं वे उनके गुणोंका अद्यावधि स्मरण करते हैं ।" “प्रेमरक्ष” के मंगलावरण और समाप्ति के कुछ सोरठों के नमूने यहां दिये जाते हैं: -- ८. मंगलाचरण अचिगत आनन्द कन्द, परम पुरुष परमातमा । सुमिरि सुपरमानन्द, गावत कल्लु हरि यश विमल ॥ १ ॥ पुनि गुरुपद शिरमाय, उर धरि तिनके बचन वर । रूपा तिनहिं की पाय, प्रेमरतन भाषत रतन ॥ २ ॥ अगम उदधि मधि जाहि, पंगु तरहि बिनु जिमि तरणि । तै सिय रुवि मन याहि, अमित कान्ह यश गानकी ॥ ३ ॥ प्रशस्ति ठारह से चालीस, अंत चतुर वर्ष जब वितत भय । विक्रम नृप अवनीस, भए भयो यह प्रन्थ तब ॥ ४ ॥॥ माह माह के माह, अति शुभ दिन सित पञ्चमी । गायो परम उछाह, मङ्गल मङ्गल वार वर ॥ ५ ॥ कह्यो ग्रन्थ अनुमान, त्रय शत मरसठ चौपई । तिहि अर्ध रु अटजान, दोहा सोरह सोरठा ॥ ६ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • प्रवन्धावलो. काशी नाम सुठाम, धाम सदा शिव को सुखद। तीरथ परम ललाम, सुभग मुक्ति बरदान छम ॥ ७ ॥ ता पावन पुर मांहि, भयो जन्म या ग्रन्थ को। महिमा वरणि न जाहि, सगुण रूप यस रस भस्रो ॥ ८॥ कृष्ण नाम सुख मूल, कलिमल दुख भंजन भजत । पावहि भवनिधि कूल, जाके मन यह रस रमहि ॥६॥ कुरुक्षेत्र शुभ थान, ब्रजवासी हरि को मिलन । लीला रस को खान, प्रेम रन गायो रतन ॥१०॥ बङ्गाल हाते के जैन शिला लेखों की खोज में मैं जगत सेठ वंशके इतिहास का भी पता लेता रहा। ई० सन् १९२३ में जब कलकत्ते में 'इण्डियन हिस्टरिकल रेकर्डस कमीशन' बैठा था उस समय मैंने जगत सेठ की वंशावली पर एक निबन्ध पढ़ा था और उक्त रत्न कुंवर बीवी के विषय में मुझे खो साधन मिले थे उसका सारांश यह है कि वह लखनऊ के राजा बच्छराज की कन्या थीं और राजा शिवप्रसाद जी के पितामह राजा उत्तमचन्द जी से उनका विवाह हुभा था और उनके पुत्र कुवर गोपीचन्द जी थे। कुवर गोपीचन्द जी के पुत्र ही प्रसिद्ध राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द थे और उनकी कन्या गोमती बीवी थी। आप भी बड़ी धर्मात्मा और विदुषी थीं। 'गुणस्थान क्रमारोह' आदि कठिन जैन विषयों का आपने अच्छा अभ्यास फिया था। मुर्शिदाबाद के जगत सेठ घराने वालों से रत्न कुवरिजी के सम्बन्ध के विषय में कुछ लिख देना उचित होगा। जगत सेठ वंश के पूर्वज साह होरानन्द जी प्रथम पङ्गाल आये थे। इनके सेठ माणिकचन्द जी बगैरह सात पुत्र और धनवाई नाम की एक कन्या थी जिन का विवाह आगरा निवासी राय उदयचन्द जी गोखरू से हुआ था। इनके चार पुत्र थे जिन में तीसरे पुत्र फतेचन्द जी को पेठ माणिकचन्द जी ने गोद लिया था और उन्हें ही दिल्ली के बादशाह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली. फर्रुखशियर ने प्रथम जगत सेठ की पदवी दी थी। राय उदयचन्द जी के मध्यम पुत्र सभाचन्द जी थे, इनके पुत्र अमरचन्द जी और उनके पुत्र गजा डालचन्द जी बनारस बसे। इन्हीं के पुत्र गजा उत्तमवन्द जी की धर्मपत्नी यह रत्न कुवर थीं आप के पुत्र गोपीचन्द जी और पौत्र प्रसिद्ध राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द हुर । भारतीय भाषावित्यसिद्ध विद्वान् सर जी० ए० प्रियसन साहेव ने भी 'Modern Vernacular Litcrature of Hindustan' नामक ग्रन्थ के पृ. ६६ में रत्न कुंवर के विषय में क्रमिक नं. ३७६ में वर्णन किया है। प्रत्यकर्ता स्वयं उनके पौत्र राजा शिवप्रसाद जी के मित्र थे और इनके विषय में राजा साहब ने ग्रियर्सन साहब को सन् १८८७ में जो पत्र लिखा था उसका सारांश यह था कि बीबी रत्न कुंवर जी लगभग ४५ वर्ष हुए कि स्वर्गवास हुआ था उस समय गजा साहब की अवस्था १६ वर्ष की और उनको पितामही को ६० और ७० के बीच की थी। 'प्रेमरत्न' प्रन्थ के अतिरिक्त आप के रचे और भी बहुत से पद्य हैं तथा अपने हाथ की लिखी प्रति मौजूद है। भाप संस्कृत जानती थीं और राजा साहब आप से बहुत कुछ शिक्षा पाये थे। हस्ताक्षर आप के सुन्दर थे तथा संगीत पर आप का प्रेम था, कुछ २ फारसी सी पढ़ी हुई थीं। The Heritage of India Series में २० कवै० साहब ने हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा है, उस पुस्तक के पृ० ७६ में पीबी रख कुंवरि और उनके 'प्रेमरत्न' प्रत्यादि की रचना का उल्लेख है । माशा है कि हमारे प्रिय पाठकगण ओसवाल समाज में और जो २ विदुषियों हो गई हैं उनकी खोज कर पूरा इतिहास प्रकाशित करने का प्रयत करेंगे। 'मोसवाल नवयुवक' ( सं० १९८६ वर्ष ५, अङ्क ५, १० १८७-१८६ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगा शिष वीरात् ७० वर्षे, संवत् २२२ अथवा और किसी समय में श्री रतप्रभ सूरि जी ने उपकेश ( भोशियां ) नगर निवासी राजपूत आदि लोगों को जैनी बनाया था। उस समय उन लोगों के पुरोहितों ब्राह्मणों ने उनका पौरोहित्य कर्म छोड़ दिया था। ऐसी दशा में जिन लोगों ने वैदिक धर्म छोड़ कर जैन धर्म स्वीकार किया था; उन्हें बहुत अड़चन पड़ने लगो, कारण, गृहस्थाश्रम में विवाहादि संस्कारों की बराबर आवश्यकता रहती है । उस समय वहां के मग ब्राह्मण लोगों ने इस इकरार पर उन लोगों का पौरोहित्य स्वीकार किया कि वे लोग बराबर पीढ़ियों तक इन ब्राह्मणों को निभायें और ये लोग भी सिवाय इन जैनियों के दूसरे से याचना न करें। ये ब्राह्मण आजकल भोजक के नाम से प्रसिद्ध है- वैदिक धर्म पालते हैं और जैनियों को यजमान मानते हैं। विवाह के पश्चात् वर कन्या तथा उपस्थित लोगों को ये लोग जो भाशि और मङ्गल सुनाते हैं वे जैन दृष्टि से भी महत्व के हैं। इन भोजक ब्राह्मणों का उल्लेख भशियां स्थित सवियाय माता के मन्दिर के संवत् १२३६ के शिला लेख में पाया जाता है। ये मारवाड़, बीकानेर, राजपूताने में ही अधिकतर हैं और जैनियों के पौरोहित्य के अतिरिक्त उन लोगों के मन्दिरों में भी पुजारी का काम करते हैं। परन्तु बेद का विषय है कि इन लोगों में विद्या का प्रचार बहुत कम है. यह अधिकतया अशिक्षित होते हैं। प्राचीन काल में ● 'जंन लेख संग्रह' भाग १, पृ० १६८ लेख नं० ८०४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ६० * प्रयन्धावली. इन में फविवर वृन्द जी आदि विद्वान हो गये है। उनके वंशज पं० जयलाल जी शर्मा कृष्णगढ़ दरबार के महकुमा तवारीख में थे। उन्हों ने 'मगाशिष भाष्य' नामक पुस्तक प्रकाशित को थो जिस में आशिष के दो अर्थ अर्थात् स्मात धर्मानुसार और जैन सिद्धान्त के अनुकूल लिखे हैं। इस आशिष की रचना किसी समय वाहड़ नाम के भोजफ ने छप्पय में की थी। प्रस्तुय विषय संख्यावाची शब्दों में है। और वे लोग जो मङ्गल कहते हैं उस कविता में रचयिता का कोई नामोल्लेख नहीं है। और मङ्गल में प्रथम कवित्त और पीछे छन्द है और उसी प्रकार संख्यावाची शब्द हैं। यह मङ्गल मैंने अद्यावधि कहीं भी प्रकाशित हुआ नहीं देखा हैं, इसको कविता इस प्रकार है: वदन अष्टकर दोय जीभ पन्द्रह वखानू सोलह नयन सुचेत चरण को अन्त न जानू। कई चरण हैं गुप्त दोय मैं परगट दिट्ठा कहीं जीभ विष वसै कहीं रस चवै सुमिट्ठा। फर दोय देह एक पूछड़ी सकल वल्य रस चवै प्रसन देव हम तुम सदा सो अर्थ पूछ पण्डित लभे ॥ २४ २४ २४ २४ अठतीया चौछका वारेदना अठतीगुना अरिहंत मङ्गल । मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमप्रभु मङ्गलं स्थूलभद्रायाः जैनधर्मोस्तु मङ्गलं ॥ मङ्गल में प्रथम श्रीपार्श्वनाथ की स्तुति हैं। यहां पाठकों को यह सूचित करना अप्रासङ्गिक नहीं होगा कि जैनियों के चौबीस तीर्थंकर रहते हुए पार्श्वनाथ की स्तुति करने की आवश्यकता यह हुई कि उनके पट्ट परम्परा में जो उपकेशगच्छ था उसके आचार्य रत्नप्रभ सूरि थे और उनके द्वारा जैनो बनाये जाने के कारण कवि ने पार्श्वनाथ का ही बन्दना किया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली वदन अष्ट से भगवान् का एक मुख और उनके ऊपर छत्र किये सर्पों की संख्या सात लेकर आठ मुख हुए, कर दोय से भगवान के दो हाथ - कारण, सर्पों के हाथ नहीं होते, जोभ पन्द्रह से सर्प द्विजिह्वा होने के कारण उनके चौदह ओर भगवान के एक, सोलह नयन से सर्पों के चौदह और उनके दो, “चरण को अन्त न जानु” पद से सर्पों के पदों की संख्या नहीं कही जा सकती यह सूचीत करते हुए कवि ने फिर कहा है “कई चरण है गुप्त दोय मैं परगट दिट्ठा” अथात् भगवान के दो चरण प्रत्यक्ष हैं और सर्पों के अद्गश्य, कहीं जीभ विष वसं से सप को जीभ में विष रहता है और कहीं रस चबे सुमिट्ठा से भगवान के जिह्वा में अमृत रहना सूचित करता है इत्यादि । आगे के संख्यावाचक शब्दों के अर्थ इस प्रकार होते हैं। अठतीसा से २४ होता है यह चौबीस केवल ज्ञानी आदि अतीत तीर्थंकरों को संख्या है, वांछका से जो २४ होता है उससे ऋषभादि वर्तमान तीर्थंकरों की संख्या और वारेदूना ले २४ होता है उससे पद्मनाभ अनागत चौबीस तीर्थंकरों की संख्या हुई, अठतोगुना से भा १४ होता है-ऐसे २४ अर्हन्त मंगल करें । अन्त में जो संस्कृत श्लोक हैं वह जैनियों में प्रसिद्ध है । अब आशिष का छप्यय और जेन धर्मानुसार उसका अर्थ पाठकों की सेवा में उपस्थित किया जाता है: 1 २७ 9 १८ ३० ६ ६ ६ ३६ ३ १३ ३३ सत्ताईसे सात भाठ भट्ठारह तीसा छे छे नवे छत्तीस तीन तेरह तैंतीस ४२ ५२ ४ १२ ७२ ३॥ ६४ ५ १५ १ बयालोस बावन्न चार बारह बहोत्तर । आऊंट बोसट्ट पांच पनरह एकोवर ६६ १.४ नव . नवे ववदह रयण दिन चाहड़ जप्पें अभय भुत्र । गुरु मुल प्रमाणहि न्याण सुं ते रछ करंत सुत्र ॥ १ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्यावली * सत्ताई से से प्राणातिपात विरमग वतादि साधु के २७ गुण अर्थात् ऐसे गुणालंकृत साधुओं का सम्मान करना जैनियों का कर्तव्य है। . सात से गमादि ७ नय अर्थात् इन सब नय को मिला कर स्याद्वाद नय से जैनियों को चलना चाहिये। आठ ले ज्ञानावरणो आदि आठ कर्म अर्थात् आप लोग इस को क्षय करने में समर्थ हों ( इन फर्मों से छूटने से ही मुक्ति होती है)। अठारह से प्राणातिपात आदि १८ पापस्थान अर्थात् इन पापस्थानों से बचते रहें। तीसा से मोहिनी कर्म के तोस भेद अर्थात् मोहिनो फर्मों से दूर रहें। छ से पृथ्वीकाय भादि ६ प्रकार के जीव अर्थात् इनकी रक्षा करें। छ से प्रोष्मादि ६ ऋतु अर्थात् ये ऋतु सुखदायो हों। नवे से वस्ति आदि ६ वाड़. अर्थात् शील को नववाड़ रक्षा करो। छत्तीस से प्रतिरूप आदि आचार्य के ३६ गुण अर्थात् ऐसे गुणवान आचार्यों की सेवा करें। तीन से मन गुप्ति आदि तीनों गुप्तियों से सर्व जीवों की रक्षा करो। तेरह से आलस आदि १३ काठिया से बचते रहो। तेतीसां से ज्ञान दर्शनादि को ३३ आशातना नहीं करना चाहिये। बयालोस से आधा कर्मो आदि अहार के ४२ दोष से निर्दूषित आहार साधुओं का देते रहो। बावन्न से अहारादि के जो ५२ अनाचार हैं उनको टालते हुए जो संयमी साधु हैं उनकी सेवा करते रहें। चार से दानादि धर्म के चारों मार्ग में तत्पर रहें। बारह से अनित्यादि १२ भावना भावते रहें। बहोत्तर से अतीत, वर्तमान और अनागत समस्त तीर्थंकरों को ध्याते रहें। आऊंरे* अर्थात् साढ़े तीन-इससे यह सूचित होता है कि साढ़े तीन करोड़ रोमावली की चौबीसों तीर्थंकर रक्षा करें। चौसठ से चमरेन्द्र श्रादि ६४ इन्द्र रक्षा करें। पांच से मति आदि ५ ज्ञान की प्राप्ति हो । पनरह से तीर्थसिद्धा आदि सिद्धों के १५ भेद पोधित होते है उनमें भी श्रद्धा रहे। एकोवर से राग द्वेष आदि दोषों से रहित सर्वज्ञ, सर्वगुण * यह अपभ्रंश शब्द है, अद्यावधि मारवाड़ी भाषा में ३१ को हूंटा कहते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • प्रवन्धावली. मय एक परमात्मा सदा ध्यान में रहे। नव से जीव आदि ६ तत्व सूवित होते हैं। इनका भी पूर्ण ज्ञान प्राप्त करें। नवै से अरिहन्न मादि ६ पद होता है इनको सदा स्मरण रखें। चौदह से उत्पादना आदि १४ पूर्व ज्ञात होता है इनका सारभूत पूर्वोक्त नघ पद है। इन पूर्वो से ज्ञान प्राप्त हुए धर्मोपदेशकगण आप लोगों की ज्ञान वृद्धि करें। अन्त में चाहड़ नाम के कवि जप्पै अर्थात् कहते हैं कि भुव अर्थात् पृथ्वी में रयण दिन ( गत दिन ) आप लोग अभय ( निर्भय ) रहें । मैंने ये सब ज्ञान गुरुमुख प्रमाण से कहा है ये सब आप लोगों की रक्षा करते रहें। इस शेष पद के विषय में कवि जयलाल जी से मेरा मतभेद है जिसे 'मगाशिष भाग्य' के पृष्ठ ४२ में उन्हों ने कृपया सूचित किया है। भाप 'हिन्याण' को 'हित्याण' सिद्ध करते हुए उसका अर्थ यह करते हैं कि जिप्त समय जैनियों ने अपने पुरोहित भोजकों को लाग मर्याद नहीं दी उस समय उन लोगों ने आत्मघात किया । पश्चात् जेनी लोग लाग मर्याद देने लगे और आशीर्वाद में कहते हैं कि उनका हित्याण ( हत्या ) से एते ( २७ से १४ तक ) तुव अर्थात् तुम्हारो ( यजमानों की ) रक्षा करें। मेरे विवार से उनका पाठ और अर्थ ( देवो पृ० १२,२२ ) सर्वथा भ्रमपूर्ण विदित होता है। कारण प्रथम तो आशोर्वाद में हत्या आदि शब्दों का प्रयोग नहीं होता क्योंकि यह अमंगलवावा शब्द है। दूसरे यह कि जब भोजक ब्राह्मण थे तो एक सामान्य लाग के लिये आत्मघात, जो कि उनके धर्मानुसार भो महापाप समझा जाता है, नहीं किये हांगे। यदि किसी कारणवश ऐसी परना हुई भी हो तो ऐसे निन्दनीय विषय को प्रसिद्धि में लाना सम्भव नहीं दिखता। अद्यावधि भोजक लोग श्रीपार्श्वनाथ की स्तुति में अच्छे २ कवित रचना करते हैं। एक नमूना देखिये : जनम बनारस थान, मात बामा कुलनन्दन । पिता राय भश्वसेन, कमठ को मान विहंडन । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ६४ * * प्रवन्धावली : पंचेन्द्रि वश करन, एक आसन चित लायो । बरष्यो मेघ अपार, आन बासुक फण छायो ॥ उपज्यो केवल ज्ञान, आन सुर दुन्धुभि बज्जै । चौसठ इन्द्र आन, मिल सिंहासन छज्जै ॥ तीन लोक तारण तरण, श्रीपार्श्वनाथ निशदिन जयो । श्री ऋद्धि सिद्धि मंगल करन ॥ 'आत्मानन्द' ( मार्च १६३३ वर्ष ४, अङ्क ३, पृ० १८-२१ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुएँ नाम गजस्थान में कुएँ भांग को कहावत प्रसिद्ध है। मारवाड़ की मरुभूमि में पानो भूगर्भ के बहुत निम्नस्तर में रहता है, इस कारण वहां कुओं, बावलो आदि बनाना व्ययसाध्य है। बङ्ग, बिहार आदि प्रान्तों की तरह वहां घर-घर में कुएं नहीं रहते। जैसलमेर प्रदेश के कई. प्रामों में तो कोसों से पानी लाया जाता है । परन्तु साधारणतः राजपूताने के गांवों में एक ही कुआं होता है, उसोका पानो सब लोग व्यवहार करते हैं। ऐली दशा में यदि कुएं में भांग डाल दिया जाय, तो उसके पानी पीनेवाले सव लोगों को नशा हो जाना अनिवार्य है। तात्पर्य यह है कि किसी बड़े से कभी कोई भ्रम हो गया, तो सभी लोग वही भ्रम कर बैठते हैं। 'गोरा चावल की कथा' पर भी यह बात ठीक घटती है। डिंगल साहित्य के 'गोरा बादल की कथा' का नाम तो मैं बहुत दिनों से सुनता आता था, और उसकी एक हस्त-लिखित प्रति मेरे संग्रह में भी थी; परन्तु उसके विषय में और अधिक मुझे पात न था। कुछ समय हुआ बीकानेर-निवासी इतिहास-प्रेमी श्री भंवर. लाल जी नाहटा ने मुझसे कहा कि इस 'बारता' के रचयिता कवि अटमल नाहर गोत्रीय ओसवाल थे। इस बात को सुनकर मेरो इच्छा उनके विषय में और अधिक जानने को हुई। मालूम हुआ कि वे गहोर के निकटवतों सिंबुला ( सुबला, सबल ) ग्राम के रहनेवाले थे। वे एक अछे कवि थे। वे जैनधर्मावलम्बी थे, और उनकी धर्म पर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *६६ * * प्रबन्धावली विशेष श्रद्धा भी थी। धार्मिक विषय पर उनकी बनाई हुई 'बावनी', 'प्रेमरास' आदि रचनाएँ मिलती हैं। 'लाहोर की गज़ल' उनके दूसरे काव्य का पता मिला है। 'गोरा वादल की कथा' को अन्य प्रतियों की खोज में मैं बराघर रहा। मेरी प्रति संवत् १७८० की लिखी हुई है; परन्तु कई स्थानों में उसके कुछ अंश नष्ट हो गये हैं। बीकानेर से श्री भंवरलाल जी ने राजपूताने के कोटा शहर में सं० १७५२ की लिखी हुई एक प्रति मुझे भेजी थी, जिसकी नकल मेरे पास है। कलकत्ता विश्वविद्यालय के भूतपूर्व डिंगल के अध्यापक जोधपुर निवासी पं. रामकर्णजी ने एक पुरानी प्रति की नकल स्वहस्त से लिखकर भेजी है। इस में कोई लिखन संवत् नहीं है। गत वर्ष जब में अखिल भारतवर्षीय ओसवाल महासम्मेलन के अवसर पर अजमेर गया था, उस समय सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान् महामहोपाध्याय राय यहादुर पं० गौरीशंकर ओझा ने मुझसे कहा था कि बीकानेर-स्थित डूंगर-कालेज के अध्यापक पं. नरोत्तमदास जी जटमल-रचित 'गोरा धादल को कथा' का सम्पादन कर रहे हैं। कवि जटमल नाहर गोत्र के महाजन थे, इसलिये आप के पास उनके विषय में जो कुछ सामग्री हो, उनको भेज दें, तो इस कार्य में उन्हें विशेष सहायता मिलेगी। मैंने इसे सहर्ष स्वीकार कर अपने पास उनके विषय में जो सामग्री थी, उन्हें भेज देने को कहा। ओझा महोदय ने उनको मुझ से पत्रव्यवहार करने को लिख दिया। कलकत्ते लौटने पर मुझे यथासमय अध्यापक नरोत्तमदास जी का पत्र मिला, जिस का आवश्यक अंश यहां उद्धृत हैं : “मैं अपने दो सहयोगियों (बीकानेर राज्य के शिक्षा विभाग के डाइरेक्टर ठा० रामसिंह जी तथा पिलानी के विड़ला-कालेज के पाइस्प्रिन्सिपल पं० सूर्यकरण जो पारीक) के साथ प्रसिद्ध जटमल-रचित 'गोरा बादल री बात' नामक ग्रन्थ का सुजम्पादित सटीक संस्करण तैयार कर रहा हूं। राजस्थान के विभिन्न स्थानों से कई हत्त-लिसित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • प्रबन्धावली. प्रतिया हमने प्राप्त की हैं। सम्पादन और टिप्पणी का बहुत कुछ कार्य हो चुका है। जटमल के विषय में विशेष हाल प्रयत्न करने से भी हमें बात नहीं हो सका। अजमेर के सुप्रसिद्ध विद्वान् गौरीशंकर जी ओझा से हमने पूछ-ताछ की, तो उन्होंने अपने पत्र में लिखा कि फलकत्ते के थावू पुरणचन्द जी नाहर से आप को जटमल के विषय में बहुत-सी बातें मालूम हो सकती हैं, क्योंकि जटमल उन्हीं के गोत्र का महाजन था। उन्होंने यह भी लिखा है कि आप के संग्रह में उक्त प्रन्थ की कई प्रतियां हैं, और यदि हम उन्हें देखना चाहें, तो आपने उदारता पूर्वक सहें हमारे पास भेजना स्वीकार किया है। हम आप के अत्यन्त कृतज्ञ होंगे, यदि आप उक्त प्रतियां हमारे पास भेजने की कृपा करें। जटमल के सम्बन्ध में तथा नाहर-वंश के तत्कालीन महत्व और अन्य महापुरुषों के सम्बन्ध में भी आप जो पाने बतला सकते हों, उनको बतलाने की कृपा भी करें। एक यात और। हिन्दी के विद्वानों में प्रसिद्ध है कि जटमल का उक्त अन्य गद्य में है, पर हमें अभी तक जो प्रतियां मिली हैं, वे सब पद्य में है, गद्य की एक पंक्ति भी उनमें नहीं। काशी के घावू श्यामसुन्दरदास जो लिखते है कि उन्होंने गद्य कथा देखी है, और उसकी कोई प्रति 'बंगाल एशियाटिक सोसायटी के पुस्तकालय में है। यदि आप को विशेष कष्ट न हो, तो इस विषय का निश्चित पता लगाने का प्रयत्न करके हमें अनुगृहोत करें, और यदि सम्भव हो, तो गद्य-कापी का प्रतिलिपि भी भिजवा दें।" मेरे पाल जो कुछ साधन थे, मैंने उनको यथासमय लिख दिया था; परन्तु कार्यवश बंगाल एशियाटिक सोसायटी के पुस्तकालय में जाकर वहां की प्रति को देखने का मुझे अवकाश ही नहीं मिला। इस बीच पं० नरोत्तमदास जी और ठा. रामसिंह जी, डाइरेकर आप एज्युकेशन, बीकानेर-स्टे, काकते पधारे। उन्होने दंगल एशिया. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ * * प्रवन्धावली बाद में टिक सोसायटी के पुस्तकालय में जाकर 'गोरा बादल की कथा' की प्रति तलाश की; परन्तु उन्हें उसका कुछ पता न लगा । घे दोनों सज्जन मेरे पास आये और अपनी इस असफलता को बात सुनाई। उन्होंने कहा कि रायबहादुर श्यामसुन्दरदास जी की 'ऐनुयल रिपोर्ट आनू दि सर्च फार हिन्दी मैनुसक्रिप्ट फार दि इयर १६०१' के पृष्ठ ४५ में नं० ४८ पर 'गोरा बादल की कथा' की प्रति का संग्रहा लय (प्लेस आफ डिपोजिट ) 'पशायटिक सोसायटी आफ् बंगाल, कलकत्ता' लिखा है। खैर, दूसरे दिन दोनों सज्जनों को साथ लेकर मैं सोसायटी में पहुंचा और प्रति को ढूंढ़कर निकलवाया। श्री श्यामसुन्दरदास जी ने रिपोर्ट में प्रति का इस प्रकार वर्णन किया है, और मेरी समझ में इस ग्रन्थ पर साहित्यिकों का भ्रम यहां से ही फैला - "Annual Report on the search for Hindi Manuscripts for the year 1901 by Syam Sunder Das, B.A., Allahabad, 1904. p. 45. No. 48. गोरा बादल को कथाProse & Verse. Substance-country-made Paper . Leaves—43. Size 91 / 2x7 1 / 2 inches....... Complete Incorrect. Character – Devanagri. Place of Deposit — Asiatic Society of Bengal, Calcutta. Gora Badala Ki Katha-The story of Ratnasena & Padmavati & connected with it that of Gora & Badala, who animated by the noble sentiments of patriotism and honour sacrificed themselves for the cause of their chief, their queen & their country. This story was written by Jatamala in Samvat 1630 (1623 A D.)" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रवाधावली. आरम्भ-श्री रामजी प्रसन्न होये। धीगनेस साये नमः । लक्ष्माकान्त । हैवाल कीसा चित्तौड़ गड़ के गोरा बादल हुआ है जोन का बारता की कीताब होंदवी में बनाकर तैयार करी है ॥ सुक सपत दायेक सकल सींद वुद सहेत गणेश बीगण वीजर ला वोन सो वेलो मुज परणमेश ॥ १ ॥ दूहा ॥ जटमल वाणी सर सरस कहतां सरस वर वंद। चइवाण कुल उवधारो हुवा जुवा चावंद ॥२॥ समाप्ति-गोरेको आवरत आवेसा वचन सुनकर आपने पावंदको पगड़ी हाथ में लेकर वाहा सती हुई सो सीवपुर में जाके वाहा दोनों मेले छुवे ॥ १४४ ॥ गोरा बादल को कथा गुरू के घस सरस्वतो के महरवानगी से पुरन भई तीस वास्ते गुरु कू सरस्वती कू नमसकार करता हु ॥ १४५ ॥ ये कथा सोलसे आसी के साल में फागुन सुदी पुनम के रोज बनाई। ये कथा में दोर सेह वोरा रस व सीनगार रस हे सो कया ॥ १४६॥ मोरछड़ो नाव गाव का रहनेवाला कवेसर जगहा उस गांव के लोग भोहोत सुकी है घर-घर में आनन्द होता है कोई घर में फकोर दोषता नहीं ॥ १४७ ॥ ___ उस जग आलीपान बाबा राज करता है मसीह वा का लड़का हे सो सब पटानों में सरदार है जयेसे तारों में चन्द्रमा सरदार हे आयेसा वोहे ॥ १४८॥ धरमसी नावका वेतलीन का वेटा जटमल माव फवे. सर ने ये कथा सबल गांव में पुरण करी ॥ १४६ ॥ विषय-मेवाण की महारानी पद्मावती की रक्षा में गोग और बादल की कीर्ति की कथा। नोट-प्रन्यकर्ता का नाम जटल है, और उसने संवत् १६८० में यह ग्रन्थ बनाया। सोसायटी की प्रति देखने पर मालूम हुआ कि वह हस्त-लिखित प्रत्य कालेज आफ् फोर्ट विलियम के सरकारी संग्रह को हिन्दी-प्रतियों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . •प्रधधायलो. में से है। प्रति में वहां को छाप भी मौजूद है, और उसके प्रथम पत्र में उसका वर्णन भंगरेजी में इस प्रकार है "Sent by E. Wellesley Resident at Indore to Mr. Atkinson Reed. June 2nd 182 +. Legend of the Padmavatee wife of the Ranah of Chittore including the attack on Chittoregurl by Allauddeen on her acc:) unt, & the actions of Gorah & Badul in her defence. The original version is in mixed Hindovee provincial Dialect as given in one column-the other column is a version in ordinary Hindovee." इससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि फोर्ट विलियम कालेज के अधिकारियों ने जिस प्रकार पं० लल्लूलाल जी वगैरह से हिन्दो की गद्य पुस्तक तैयार कराई थीं, उसी प्रकार प्रायद इन्दौर के रेज़िडेण्ट वेलेस्लो साहब ने भो कित्ता से इस 'गोरा वादल का कथा' का हिन्दी अनुवाद कराकर अपने मित्र ऐटकिंसन साहब को भेजा था। यह प्रति सन् १८२४ को २ जून को फोरेंविलियम कालेज में प्राप्त हुई थी। ___ अंगरेज़ी के उपयुक्त वर्णन में अथवा प्रति के अन्त में जहां मूल और अनुवाद समाप्त हुए हैं, कहीं भी उसके लेखक आदि का नाम, स्थान अथवा लिखन-संवत् आदि की चर्चा नहीं है। प्रति बहुत भशुद्ध लिखी हुई है। अक्षर मारवाड़ी हिन्दी हैं, और बहुत प्राचीन नहीं मालूम होते। उसके अनुवाद को भाषा दुढारी हिन्दी प्रतीत होती है, और सम्भव है कि अनुवादक महाशय शायद जयपुर आदि पूर्व-राजस्थान के ही निवासा होंग। कारण, अनुषाद में उस तरफ़ के बहुत से प्रचलित शब्द मिलते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रवन्धावली ** ७१ * अतः बाबू श्यामसुन्दरदासजी ने हिन्दी की खोज की रिपोर्ट में इस ग्रन्थ को किस प्रकार गद्य-पद्यमय लिखा, समझ में नहीं आता । शायद बाबू साहब ने इस प्रति का स्वयं निरीक्षण नहीं किया होगा. नहीं तो इतना भ्रम होना कदापि सम्भव नहीं था। इसके अतिरिक्त सोसायटी की प्रति के आदि-अन्त के अंश भी जो उद्धृत किये गये हैं, वे भी अशुद्ध हैं 1 सोसायटी की प्रति में आदि-अन्त इस प्रकार है मादि गनेसः घीगण मूल - रुफ संपत दायेक सकल सीद वुद सहेत वीजरण वीम सो पेलो तुज परणमेस ॥ १ ॥ दुहा । जटमल वाणी सरस रस कहता सरस वरवंद चहवाण कुल उधारो हुवा जु वाचा चंद ॥ २ ॥ दुहा | गोरो शवत आत गुणो वादल आत वलवंत वोलीस बात बीहुणी सांभल जो सब संत ॥ ३ ॥ दुहा । लड भीडने साको कीये वसुधा वा वीष्यति चीत्रकुट चाव कीये तेहे सुनो आवदात ॥ ४ ॥ अनुवाद --सुक संपन के देणवाले सब वातका सुक सब आकलके बेणवाले आयेसे गणपत हे सो पेले तुम कु नमसकार करता हु ॥ १ ॥ आरथपेलो जटमल नावकवेसर के ते हे ये कथा वनाई हामारे वचन सच जु सेन हे ये कथा कयेसी हे के गोरा बादल दोनो काका भतींजा हुवे हे तीनो ने चुत्राण कुल उधाला व लडभीड ने सां को कीये वचन के पालनेवाले हुवे ॥ २ ॥ गोरो वलवान वोहोत गुणी बादल माहा वलबान है सो ये दोनो को बात मे केता हुं आयेलो को तुम सुनो ॥ ३ ॥ गोरा बादलने पातस्याहा आलाउदीन से लडाई करके तमाम पोरथोमें नाव कीया चीतोड गड कुटावा कीया सो उनोकी काहानी हाम देते है ॥ ४ ॥ आरथ चवथा अन्त 1 मूल—दुहां | सोलसे आसी ये सम फागुण पुनम मास वीरा रस सीणगार रस कह जटमल सुपरकास ॥ १४६ ॥ हां । वासे 10 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रपन्धावली : मोरछडो आचल सुपी गईयेत लोक हानद उठ वोहोत घर घर दीपवत नहीं सोग ॥ १४७ ॥ दुहां । राज तीहा आलीपानी इषाण नासीर नंद सीरवार सकल जु पटाण में नषेत्रामें चंद ॥ १४८ ॥ दुहां। धरम सीहे को नदन जटमल वाको नाव जोण कही कथ बनाये के वीच सवल के गाव ॥ १४६ ॥ दुहां। के ता आणद उपजे सुणता सब सुख होये जटमल नवे गुणी जन वीघतन लागे कोये ॥ १५० ।। अनुघाद-गोरे की आवरत आयेसा वचन सुनकर आपने पावंद की पगडी हात मे लेकर वाहा सती हुइ सो सीवपुर में जाके वाहा दोनो भेले हुवे ॥ १४४ ॥ गोरा वादलकी कथा गुरूके व सरस्वती के मेहरवानगी से पुरन हुइ तीस वास्ते गुरु कु व सरस्वती कु नमसकार करता हु ॥ १४५ ॥ ये कथा सोलसे आसी के साल मे फागुन सुदी पुनमके रोज वनाइ ये कथा मे दो रस हे वीरा रस व सोनगार रस हे सो कया ॥ १४६ ॥ मोरछडो नाव गाव का रहने वाला कधेसर जाहा उस गाव के लोग भोहोत सुकी हे घर घर मे आनंद होता है कोइ घर मे फकीर दीषता नहीं ॥ १४७ ॥ उस जग आलोषान वाव राज करता हे नसीरुल षा का लडका हे सो सब पटानो मे सरदार है जयेसे तारो मे चंद्रमा सरदार हे आयेसा वो है ॥ १४८ ॥ धरमसी नाव कायेत तीनका वेटा जटमल नाव कवेसर ने ये कथा सवल गाव मे पुरण करी ॥ १४६ ॥ गोरा बादलकी कथा तमाम हुइ जो कोइ वांचे तोसकु दुवा पोचेगा॥ ____ उनको रिपोर्ट की इस भूल से हिन्दी-साहित्य के इतिहास में खड़ी पोलो का स्थान बिल्कुल भ्रमात्मक हो गया है। ___ इस रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद 'मिश्रबन्धुविनोद', प्रथम भाग, पृ० ४१६ नं. २५५ में इस प्रकार कवि जटमल के विषय में लिखा गया है___"इस कवि ने संवत् १६८० में गोरा बादल की कथा गद्य में कही भौर इस भाषा में खड़ी बोली का प्राधान्य है। अतः खड़ी बोली Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली प्रधान गद्य का गंगाभाट के पीछे सत्र से प्रथम रचयिता यही जटमल कवि है। __ गोरा बादलकी कथा गुरु के बस सरस्वतीके महरवानगी से पूरन भई तिस वास्ते गुरू कू व सरस्वती क नपस्कार करता हूं। ये कथा सोलसे आसी के साल में फागुन सुदी पुनम के रोज वनाई । मोरछड़ो नाव गावका रहनेवाला कवेसर जगहा उस गांवके लोग भोहोत (बहुत) सुकी है, घर-घरमें आनन्द होता है, कोई घरमें फकीर दीखता नहीं। धरमसी नाय का वेतलीन का वेटा जटमल नाव कसर ने ये कथा सबळ गांवमें पूरण करी।" उक्त पुस्तक के द्वितीय भाग, पृ० ६१२-१३ नं० १११७ में गध इति. हास के वर्णन में ऐसा लिखा है___ “वर्तमान गद्य के जन्मदाता सदल मिश्र और लल्लूजी लाल माने जाते हैं कुछ वैद्यक आदि की पुस्तकें भो लिखी गई और कई ग्रन्थों की टोकायें भी ब्रजभाषा गद्यमें बनीं, परन्तु पहले पहल गोरखनाथ ने गद्य-काव्य किया और फिर खड़ो बोली प्रधान गद्य में पुस्तक रूप से गंगभाट ने काव्य किया और जटमलने सं० १६८० में गोग बादल की लड़ाई लिखो। उसके पीछे सूरति मिश्रने वैतालपचीसो का संस्कृत से ब्रजभाषा में अनुवाद संवत् १७५० के लगभग किया। इनके प्रायः १०० वर्ष बाद इन्हीं दोनों महाशयोंने गद्यमें काव्यग्रन्थ लिने और तभी से वर्तमान गद्य हिन्दी को जड़ दृढ़तासे स्थिर हुई।" पश्चात् मिश्रबन्धुभों ने हिन्दो-साहित्यका संक्षिप्त इतिहास प्रकाशित किया, और उसके पृ० ३०, ३१ और ०८ में भी इस गद्य अनुवाद के विषय में उसी सिद्धान्त को पुष्ट किया, जो इस प्रकार है "जटमल बड़ी बोली गय का द्वितीय लेखक है। इसने गोरा बादल की कथा नामक ग्रन्थ में उसी का प्राधान्य रखा है। विठ्ठलनाथ, गोकुलनाथ, गंगाभाट, बनारसीदास और अरेमल इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *७४ * • प्रवन्धायली. समयके गद्य-लेखक है। इस काल में भाषा में अनुप्रास यमकादि का विशेष आदर नहीं हुआ। ___जटमल ( संवत् १६८० वि०) हे वात की चीतौड़ गड़ को गोरा बादल हुआ है जीन की वार्ता की किताब हींदवी में बना कर तैयार करी है। गोरे को भावरत आवे का बचन सुनकर आप ने पावंद की पगड़ी हाथ में लेकर वाहा सती हुई सो शिवपुर में जाके वाहा दोनों मेले हुवे। उस जग आलीषान बाघा राज करता है मसीह वाका लड़का है सो सब पठानों में सरदार है जयेसे तारों में चन्द्रमा सरदार है भोयसा वो है।” फिर बाद में पं० रामचन्द्र शुक्लजी ने भी उसो भ्रमपूर्ण धारणा से 'हिन्दी-साहित्य के इतिहास के पृष्ठ ४७३ में जटमल और उनकी रचनापर निम्नलिखित बात लिखो है___ "वत् १६८० में मेघाड़ के रहनेवाले जटमल ने गोरा बादल की जो कथा लिखी थी, वह कुछ राजस्थानोपन लिये खड़ी बोली में थी। भाषा का नमूना देखिये___ गोरा बादल की कथा गुरू के बस, सरस्वती के मैहरबानगी से, पुरन भई, तिल वास्ते गुरू व सरस्वती • नमस्कार करता है । ये कथा सोल से असी के साल में फागुन सुदी पूनम के रोज बनाई। ये कथा में दो रस हे-बीर रस व सिंगार रस है, सो कथा मोरछड़ो नावं गांव का रहनेवाला कवेसर। उस गांव के लोग भोहोत सुखी है। घर-घर में आनंद होता है, कोई घर में फकीर दीखता नहीं। इन दोनों अवतरणों से स्पष्ट पता लगता है कि अकबर और जहाँगीर के समय में ही खड़ी बोली भिन्न-भिन्न प्रदेशों में शिष्ट समाज के व्यवहार की भाषा हो चली थी। यह भाष, उर्दू नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • प्रबन्धावली. कही जा सकती, इसम 'नमस्कार', 'सुखी' 'आनंद', 'धीररस' आदि संस्कृत शब्द उसी प्रकार आये हैं, जिस प्रकार आजकल आते हैं। यह हिन्दी खड़ी बोली है।" ___ कवि जटमल ने मेवाड़ की रानी पद्मावती की कथा लिखी, इसलिए शुक्जी ने उनका मेवाड़ का रहनेवाला बताया है। यह ठीक नहीं है. क्या कि वे लाहोरके निकटवर्ती प्रामके रहनेवाले थे। शुक्लजी ने इस वर्णन में खड़ी वोली के शब्दोंपर जो कुछ विवेचन किया है, उसपर यहाँ कुछ कहना अनावश्यक है ।. फिर रायबहादुर श्यामसुन्दरदासजी ने 'हिन्दी भाषा और साहित्य' नामक एक विशाल प्रन्थ प्रकाशित किया। उस पुस्तक के १० ४६० पर भी इसी भ्रमवश उन्होंने जटमल को गद्य-लेखक माना है। परन्तु जहां तक मेरा खयाल है, कवि जटमलने गद्य में एक भी रचना नहीं की। इन लेखकों के बाद पं. रामशंकरखी शुक्ल 'रसाल' एम० ए० का भी सन् १९३१ में हिन्दी साहित्य का इतिहास' प्रकाशित हुआ है। इस प्रथमें भी उन्हों ने गोरा बादल की कथापर भ्रमवश जो टिप्पणी लिस्त्री है, उसे यहाँ उद्धृत किया जाता है___ "गोरा बादल की कथा-बड़ी गोली को प्राधान्य देते हुए सं० १९८० में जटमल कविने इसे गद्य में लिखा। गंगके बाद यही प.वि खड़ी बोली गद्य का द्वितीय प्रधान लेखक कहा गया है। इसको भाषा बहुत कुछ ब्रजभाषासे प्रभावित है। कारकादि के रुप तो खड़ी बोली के रूपों से मिलते है, किन्तु क्रियाओं के रूप ब्रजभाषाको ओर झुकते हैं। बद्रीनाथ भट्ट पो० ५०, हिन्दी-अध्यापक, लखनऊ-विश्वविद्या. लय ने हिन्दी की उत्पत्ति और हिन्दीसाहित्यके विकासपर हिन्द।' नामक पुस्तक लिखी है, जिसकी तुतोषावृत्तिके पृ० ३५-३६ पर इस प्रकार हैShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली * “जटमल ने संवत् १६८० में जो गोरा बादल की कथा' लिनी है. उसमें 'हिंदवी' शब्द लिखा है। इन सब बातोंसे सूचित होता है कि इस सयय तक हिन्दीके अरबी फारसी मिश्रित रूपका नाम 'उदु' नहीं पड़ा था।" परन्तु वास्तवमें जटमल ने अपने काव्य में 'हिंदवी' ऐसा कोई शब्द ही नहीं लिखा है। फिर पृ. ७६ पर भट्टजी ने भी वहो वर्णन किया है_ “जटमल ने 'गोरा बादल की कथा' गद्य में लिखी। इसकी भाषा शुद्ध खड़ी बोली नहीं है, यद्यपि चेष्टा उसी में लिखने की की गई है।" मुझे आशा है कि अध्यापक नरोत्तमदासजो अपने सुसम्पादित संस्करण को प्रकाशित कर हिन्दी-साहित्यके इतिहास के इस भ्रमको दूर करेंगे, तथा और भी विद्वान्गण इस काव्यको प्रतियों की खोजकर कवि जटमल की अन्य कृतियोंको प्रकाशित करेंगे। रायबहादुर श्यामसुन्दरदासजी की रिपोर्ट में तथा बाद में प्रकाशित हिन्दी-भाषा के इतिहासों में गोरा बादल की कथा' के मूल और अनुवाद के पाठ में भी स्थान-स्थान में घहो भ्रम चला आता है। सोसायटी की प्रति एवं बोकानेर और जोधपुरको प्रतियों की नकल और अपनी प्रतिके निरीक्षण से जो शंकाएँ उठती हैं, उनमें मुख्य यह हैं रचनाकाल बीकानेर को प्रति में काव्य का रचनाकाल संवत् १६८६ है 'संवत सोलइ सै छयासो, भला भाद्रव मास । एकादसी तिथि वोर के दिन करी धरि उलास ।' सोसायटो को प्रति में रचनाकाल सं० १६८० है 'सोलसे आसीये सम फागुण पुनम मास । वीरा रस सीणगार रस का जटमल सुपरकास।' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रवन्यावली. . जोधपुरकी प्रति में नथा मेरी प्रति में रचनाकाल के समय का कोई उल्लेख नहीं है। घोकानेर की प्रति का लिखन संवत १७९२ है, यानो इन चारों में सब से पुरानो है। मेरी प्रति संवत् १७८० की लिखी हुई है। ऐसी दशा में इस काव्य की और भी प्रतियां को मिलाकर इसके रचनाकालका ठोक पता लगाना चाहिए। अन्यकर्ता कवि जटमल का नाहर गोत्रीय होने के विषयमें सोसायटी की प्रति के सिवा और तीनों प्रतियोंमें इस प्रकार स्पष्ट उल्लेख है:सोसायटी की प्रति में 'धरम सीहे को नंदन जटमल वाको नाव । जीण कही कथ बनाये के बीच सवलके गाव ।' बीकानेर की प्रति में 'धरमसी को नंद माहर जाति जटमल नाउं । तिन करी कथा बनाय के विचि सुबला के गांम।' जोधपुर की प्रति में 'धरमसी को नंद नाहर खांप जटमल नाम । जिण कही कथा वणाय के वोचि सुबुलाकै गाम ।' मेरी प्रति में 'धर्मसी को नंदन नाहर जाति जटमल नाम । जिण कही कथा बनायविव सिंधुला के गांम।' यद्यपि सोसायटी की प्रति में अन्यकर्ता के गोत्र का उल्लेख नहीं है. तथापि जब और तीनों प्रतियों में उनका गोत्र पाया जाता है, तो इस में शंका नहीं होनी चाहिए । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * निवास स्थान सोसायटी की प्रति में प्रन्थकर्ता का वासस्थान जो 'मोरछड़ो' लिखा है, वह भो अशुद्ध प्रतीत होता है । सोसायटी की प्रति मैं 'वासे मोरछड़ो भावल सुत्री रईयेत लोक । हानद उठ वोहोत घर घर दोषवत नहीं सोग ।' परन्तु बोकानेर की प्रति में 'अब वसह मुह छ अडोल अविचल सुखी रईयत लोक । आणंद घरि २ होय मंगल देखीये नहीं सोक ।' जोधपुर की प्रतिमें 'वर्क्स मोस अडोल अविचल सुखी रईयत लोग । आनंद उच्छा होत घरि घरि देवीयत नहि सोग ।' मेरी प्रति में * प्रवन्धावली * 'वसै मांच अडोल अविचल लुष रईयत लोग 1 आनंद उच्छव होत घरि घरि देषीयत नहि सोग ।' मंगलाचरण C. मंगलाचरण के पदों में भी प्रतियों में अन्तर है । सोसायटी की प्रति में -- 'सुक संपत दायेक सकल सींद वुद सेहत गनेस । घीगण वीजरण वीन सो पेलो तुज परणमेस |१| ' बीकानेर की प्रति में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat 'चरण कमल वितु लाय । सम श्री श्री सारदा । सुहमति दे मुझ माय । करू कथा तुहि ध्याइ कै । १ ' www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • प्रस्थावली - जोधपुर की प्रति में करके दीजै मो रूपा, पावन सुमत गणेत। विधन विडारण सुजकरण, जय जय सुतन महेस ।१।' मेरो प्रति में 'सु ( ल संपति ) दायक सकल । सिद्धि बुद्धि सहित गणेश । वियन विडारण विनय सौं। पहिलो तुझ प्रणमेश । १ ।' इन सब विषयों के अतिरिक्त प्रतियों के पाठान्तर आदिपर भी विषेचन करनेको आवश्यकता है, परन्तु इस प्रबन्ध का फलेयर बढ़ाना अनुचित समझकर इसको यहां समाप्त करता हूं। 'विशाल भारत' वर्ष १२ अंक ६, दिसम्बर, १९३३, पृ० ०२६-११५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक उदारता संसार में धर्म ही एक ऐसी वस्तु है कि जिसकी सृष्टि सब धर्मवाले अलौकिक बताते हैं। कोई इसको अनादि कहते है, कोई स्वयं ईश्वर का वचन अथवा कोई ईश्वरतुल्य अवतार के कहे हुए उपदेश और नियमादि के पालम को ही धर्म कहते है। चतुर्दश रज्ज्वात्मक जोरलोक में जितने भी जीव हैं सुखप्राप्ति के लिये सब लालायित रहते हैं। जीव की मुक्ति अर्थात् निर्वाण के अतिरिक्त जितने प्रकार के सुख हैं सब सामयिक तथा निर्दिष्टकाल और परिमाण के होते हैं । 'धर्म' शब्द के अर्थ को देखिये तो यही ज्ञात होगा कि यह ऐसी वस्तु है कि जो जीव को दुःख में पड़ते हुए से बवावे । जो अपने को कष्ट से रचावे और सुख की प्राप्ति करावे ऐसी वस्तु को कोन नहीं चाहता ? सारांश यह है कि किसी न किसी प्रकार का 'धर्म मनुष्यमात्र को चाहिये। चाहे उनका धर्म सनातन हो, चाहे जैन, चाहे बौद्ध, वाहे ईसाई हो, चाहे वे मुसलमान हों, चाहे नास्तिक हों, उनको किसी न किसी धर्म की अथवा किसी महापुरुष के चलाये हुए मत की दुहाई देनी पड़ती है। जिस प्रकार समाज में चाहे वह गरीब हो चाहे सेठ साहूकार अथवा राजा महाराजा हो सामाजिक दृष्टि से सबों का दर्जा एक है, उनमें कोई बड़ा छोटा नहीं समझा जाता उसी प्रकार धार्मिक दृष्टि से भी एक ही धर्म के पालनेवाले सालोगों को गणना एक ही श्रेणी में होती है। परन्तु अपने अपने धर्मवाले उनको धार्मिन दष्टिकोण से दूसरे धर्मानुयायियों को घृणा के भाव से देखते हैं। इतिहास कहता है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली. धर्म के नाम पर मुसलमान लोगों ने कई बार संग्राम छेड़ दिया था। मैं कुरान शरीफ से परिचित नहीं हूं परन्तु सम्भव है उनके धर्मप्रवर्तक महम्मद साहब का ऐसा उपदेश न होगा। दूसरों के धर्मका नाश करके अपने धर्म का प्रचार करना दूसरी बात है, परन्तु मनुष्य होकर इस प्रकार दूसरे मनुष्यको कष्ट पहुंचाना धर्म नहीं हो सकता। अपने धर्मानुयायियों की संख्या वृद्धि करने को धर्म समझना स्वाभाविक है, परन्तु वे लोग इस विचार को कार्यरूप में लाने के समय सीमा के बाहर जाते थे। जैन धर्म के तत्व में अन्य धर्म को अथवा अन्य धर्मावलम्बियों को 'न निविजई न बदिजई' यहाँ तक कि निन्दा फरना मना है। धार्मिक विषयों में ऐसी उदारता अवश्य होनी चाहिये । हमारे तीर्थंकर जातिनिर्विशेष से उपदेश दिया करते थे। जैनियोंके धर्मग्रन्थ से स्पष्ट है कि तीर्थंकरों के 'समवसरण' में अर्थात् जिस स्थान से तीर्थकर धन्मोपदेश देते थे वहां पर सब जीवोंका-पशुपक्षियों तक का भी स्थान रहता था और देवता से लेकर तिर्यंच तक सर्व प्रकार के प्राणी अपनी अपनी भाषा में भगवान का उपदेश समझ लेते थे। इस अलौकिक शक्ति को तीर्थकरों का 'अतिशय' बताया गया है। जैनियों के अन्तिम तीर्थंकर श्रीमहावीर स्वामी को हुए आज २५ शताब्दी हो चली तो भी जैनियों में वही उदारता देखने में आती है। इधर कई शताब्दी तक मुसलमान सम्राटगण भारत के शासक रहे। यहाँ के निवासियों से उलोगों का राजा प्रजा का सम्बन्ध हुआ था। ये लोग हिन्दू धर्मावलम्बियों को समय समय पर उत्पीड़ित करते रहे। देखिये - हिन्दुओं के प्रसिद्ध तीर्थस्थान 'सोमनाथ' जो भारत के सुदूर सौराष्ट्र प्रांत में है वहाँ महम्मद गजनी ने जिस प्रकार मूर्ति को नष्ट किया था वह कथा भारत के समस्त इतिहास की पुस्तकों में वर्णित हैं। शताब्दियों तक अनाचार होता रहा और रही सही लगभग १७ वीं शताब्दी में 'काला पहाड़ में बिहार और बंगप्रान्त www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रवन्धावली ● परन्तु के सब हिन्दू, बौद्ध देवता और देवियों की मूर्त्तियां तोड़ दी थीं । धार्मिक उदारता के कारण जैनियों पर कोई विशेष अत्याचार का उल्लेख नहीं मिलता। मुझे कुछ समय पूर्व तीर्थ - राजगृह के पंच पहाड़ों में से पहिले विपुलाचल के श्रीपार्श्वनाथ मंदिर की विशाल प्रशस्ति मिली थी। यह संस्कृत भाषा में गद्य-पद्यमय है और इसका समय विक्रम संवत् १४१२ अर्थात् १५ वीं शताब्दी है । उस समय सम्राट् फिरोज़ शाह राज्य करते थे । उक्त प्रशस्ति में उल्लेख है कि मुसलमानगण भी जैनियोंके धार्मिक कार्य में सहायता देते थे प्रशस्ति के आदि और अन्त के कुछ भावश्यक अंश यहां उधृत किये जाते हैं : 1 I “ॐ नमः श्रीपार्श्वनाथाय । श्रेयः श्रीविपुलाचला मरगिरिस्थेयः । स्थितिस्वाकृतिः । पत्रश्रेणिरमाभिरामभुजगाधीशस्कटासंस्थितिः ॥ पादासोनदिवस्पतिः शुभफलो कीर्त्तिपुष्पो दामः । श्रीसंघाय ददातु बांछितफलं श्रीपार्श्व कल्पद्रुमः ॥ १ ॥ श्रीराजगृह महातीर्थे । गजेंद्राकारमहा पोतप्राकार श्री विपुलगिरिविपुल वूलापीठे सफलमहीपालचक्रचूलामाणिक्यमरोचिमंजरोपिंजरितचरणसरोजे । सुरत्राणश्रीसाहिपरोजे महमनुशासति । तदीयनियोगान्मगधेषु मलिकवयो नाम मंडलेश्वरसमये । तदीयसेवकसद्दण सदुर दीनसाहाय्येनइति विक्रम संवत् १४१२ आषाढ़ बदि ६ दिने । श्रीखरतरगच्छशृङ्गारसुगुरुश्रीजिनलन्धिविट्टालंकारश्री जिन चंद्रसूरि णामुपदेशेन ।....... बच्छराज ठ० देवराज सुश्रावकाभ्यां कारितः श्रीपार्श्वनाथ प्रासादस्य प्रशस्तिः ॥ * ...... ......... ..... ... .४० भावार्थ यह है कि सुलतान फिरोजशाह ने मलिकचय को मगध प्रदेश का सूबा अर्थात् शासक नियुक्त किया था। सूबा के कार्यकर्त्ता शाह नासिरुद्दर्शन की सहायता से मगधदेश स्थित राजगृह तीर्थ के निलगिरि पर आचार्य श्रीजिनचन्द्र सूरि के उपदेश से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली वच्छराज देवराज ने श्रीपार्श्वनाथ का मंदिर सं० १४१५ आषाढ़ वदी ६ को बनवाया । # 28 # सम्राट् अकबर की धाम्मिंक उदारता प्रसिद्ध है । जहाँगीर, शाहजहाँ आदि बादशाहों के समय में भी जैनियों को धार्मिक विषयों मैं सहायता मिली थी। उनके पवित्र तीर्थक्षेत्रों के संरक्षण के लिये समय समय पर गुजरात, मालवा, बंगाल आदि प्रान्त के सूबों में लोगों से फरमाण आदि भी प्राप्त किये थे I · जैनियों में श्वेताम्बर और दिगम्बर दो मुख्य सम्प्रदाय हैं। मैं दिगम्बर - साहित्य से विशेष परिचित नहीं हूं । श्वेताम्बर - साहित्य के इतिहास को मैंने जहां तक अवलोकन किया है, उससे यह स्पष्टः प्रतीत होता है कि श्वेताम्बर आचार्य और विद्वानों ने प्राचीन काल से अजैन विद्वानों की कृतियों को निःसंकोच से अपनाया था । उनका अभ्यास करते थे, उन पर पाण्डित्यपूर्ण टीकायें रची हैं, उनके साहित्य को बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे । यही धार्मिक उदारता है । जैनियों के श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सिद्धसेन दिवाकर, उमाखति वाचक* हरिभद्र अभयदेव से लेकर हेमचन्द्राचार्य आदि तथा दिगम्बर सम्प्रदाय में कुंककुंदाचार्य, समंतभद्र, अकलंकदेव, प्रभाचंद्र, विद्यानंदि, जिनसेन आदि बड़े बड़े प्रख्यात विद्वान हो गये हैं जिनकी कृतियों की पाश्चात्य विद्वानगण भी भूरि भूरि प्रशंसा करते हैं । परन्तु सनातन धर्मावलम्बी पण्डितों ने उन्हें कहीं अपनाया हो ऐसा देखने में नहीं आता यहाँ तक कि वे महत्वपूर्ण जैमग्रन्थों के नामोल्लेख करने में भी हिचकते थे । यह अनुदार भाव उन लोगों की धार्मिक - * - * ये तथा आगे के भी दो एक आचार्य दिगम्बर-सम्प्रदाय में भी मान्य हैं - सम्पादक । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रवन्धावली # * ८५ * संकीर्णता है। * अर्जन विद्वानों के नाना विषय के प्रस्थों को श्वेताम्बर लोगों ने किस प्रकार अपनाया है इसका कुछ द्वष्टांत मैं यहां उपस्थि करूंगा । आशा है कि दिगम्बर विद्वानगण भी इस प्रकार धार्मिक उदारता को प्रकाशित करेंगे। हाल ही में अमेरिका के पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय के संस्कृताध्यापक डा० नरमैन ब्राउन साहब में 'कालिकाचार्य कथा' + नामक अङ्गरेजी में पुस्तक प्रकाशित को है, जिसको भूमिका पृ० ४ में जैनाचार्यों के विषय में इस प्रकार लिखते हैं : "It is perhaps permissible to record here my appreciation not merely of the courtesy and scholarship of Jain monks and laymen but also of their lofty ideals and noble lives. They are of the greatness that is India. There is a spirit of helpfulness, tolerence and sacrifice coupled with their intelligence and religious devotion that marks them as one of the world's choice com munities.* भर्थात् " जैन साधुओं और गृहस्व जनों के शिष्टाचार और विद्वता के साथ साथ उनके ऊंचे भादशं और उत्कृष्ट जीवन का यहां उल्लेख • प्रबन्ध प्रकाशित होने के पश्चात् मैसूर के प्रसिद्ध विद्वान् डा० ए०, काटा सुबेया महोदय ने सूचित किया है कि कर्णाटक देश के सनातन विद्वान गण जैन साहित्य को उदारता से अपनाये हैं । लेखक (f) · The Story of Kalaka' by W. Norman Brown, Prof, of Sans, in the University of Pennsylvania, Washington U. S. A. 1933, Preface p. IV. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • अपधावली. कर देना शायद उचित होगा। उनके बड़प्पन से भारत गौरवान्वित है। उन में सहायता, सहनशीलता और त्याग की शक्ति है। उनकी बुद्धि और धार्मिक लवलीनता इन सब गुगों के साथ मिलकर इन्हें संसार के आदर्श सम्प्रदायों में से एक प्रमाणित करती है।" __ यह देखकर आश्चर्य होता है कि भारत के किन्हों भी धम्मावल. स्त्रियों में जैनियों की तरह धार्मिक उदारता नहीं पाई जाती है। यदि अजैन विद्वानगण अपने २ साहित्य से ऐसे २ दृष्टांत प्रकाशित कर सकें तो मेरा यह भ्रम दूर हो जाय। अजैन साहित्य के नाना ग्रन्थों पर जैन लोगों ने किस प्रकार टीका, वृत्ति आदि की रचना की है यह निम्न लिखित तालिका से पाठकों को विदित होगा। यहां तक कि हिन्दीग्रन्थ पर भी जैनाचार्योंने कई टोकायें रच डाली हैं। जैनविद्वानों ने सिद्धान्त के अतिरिक्त व्याकरण, न्याय, काव्य, कोष, अलंकार, नीति, ज्योतिष आदि नाना विषयों पर अच्छे २ ग्रन्थ रचे हैं। केवल हेमचन्द्राचार्य के ही अनेक ग्रन्थ विद्यमान हैं। इनके पूर्व सिद्धर्षि आचार्यने 'उपमिति-भव-प्रपंच-कथा' नामक ग्रन्थ लिखा था जो को साहित्यिक दृष्टि से बड़े महत्व का है। इस लेख में इन सबों का उल्लेख करना अनावश्यक है। इतना ही लिखना यथेष्ट होगा कि श्रीमहावीर स्वामी के पश्चात् आज लगभग पच्चीस शताब्दी तक जैन लोग धार्मिक उदारताके साथ साहित्य की सेवा बजा रहे हैं। जैनाचार्यगण महत्वपूर्ण अजैन ग्रन्थों के नाम लेकर स्वयं अच्छे अच्छे काव्य रचे हैं। ११ वीं शताब्दी में श्रीजिनेश्वर सूरिने "जैननैषधीय" नामका एक सुन्दर काव्य की रचना की थी। श्रीजयशेखर सरिने "जैन-कुमार-संभव" लिखा है जो उनकी विद्वत्ता प्रकट करती है। “जैनमेघदूत' की रचना भी प्रशंसनीय है। भारतवर्ष के अन्य विद्वानों में कहीं भी इस प्रकार की उदारता का दृष्टान्त नहीं मिलेगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रयधावली. अर्जन ग्रन्थोंपर वताम्बर जंन विद्वानोंकी टीका : - व्याकरण कानन्य-पत्र*-बर्द्धमान मरियत कातंत्र विस्तार' । सोमकीर्ति सरिकन ( कलार) 'कातंत्र पंजिका' वृत्त। जिनप्रभ सरिकृत 'कातंत्र. विभ्रा' वृत्त । वारित्रसिंहकन 'कातंत्रविभ्रमावरि' । मेरुगरिकृत 'बालायबोध' वृत्ति। विजयनन्दनकृत 'पाहता'। दुर्गसिंहकृत वृत्ति । पृथ्वीचंद्र सूरिकृत 'दौसिंह' वृत्त । मुनिशेखरकृत वृत्ति । प्रयोध मूर्तिकृत 'दुगपदप्रयोध' वृत्त । मुनिचंद सूरिकृत वृत्ति । गौतम कृत कातंत्रदीपिका' । विजयानंदकृत 'कातंत्रोत्तर' । पाणिनि - रामचंद्रहित वानुगाट' टीका। सिद्धांत वन्द्रिका-ददित 'सुवाधिनी' टोका। मुग्धवध - कुलमंडनात 'मुग्धावबोध उक्ति' । काशिकान्यास-जिनंदबुद्धिकृत ।। कविकल्पद्म- विजयविलका अवचरे । सारस्वत - सहजातिशत वृत्त । भानुचन्त टीका। दयारत्नकृत वृत्त । मेघरत्नरत छुटिका' वृत्त । यतीराहत 'सार. स्व दापिका' वृत्ति । चन्द्रकीर्तित वृत्ति । नयसुन्दर हत टीका। श्रः मंडनहत सारस्वत-मण्डन टोका। वाक्यप्रकाश- उदयधर्मकृत टीका। हर्ष कुलस्त टोका। रतसूरि रुत टाका। अनि कारिका-शनामाणिस्पन अपरि। हर्षकोतिशत वृत्ति । * इसा कातन्त्र सूत्र पर दिगम्परावार्य भारत विश्व कृत भी “कानन्त्ररूमाला" नाम का एक प्रशत वृत्त है। बलिक कई विधान कातनापरवाया शवाक: जवानी दें। [सं.] 12 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्पावली* 'शाश्ट्रप्रभेद'- ज्ञानधिमलकृत 'शब्दभेदप्रकाश' वृत्ति । (महेश्वर फषि रचित) अलंकार वृत्तरत्नाकर- सोमचन्द्रसूरिकृत टीका । हर्षकीर्तिकृत टीका । समय सुन्दरकृत टीका। श्रुतपोध- हर्षराजकृत टीका । हर्षकीर्तिकृत टीका। छन्दः शास्त्र- वर्द्धमान सूरिकृत टीका । श्रीचन्द्र सूरिकृत टीका। पद्मप्रभसूरिकृत टीका। पगलसार- विवेककीर्तिकृत टीका। काव्यालंकार- नमिसाधुकृत टीका। काव्यप्रकाश-- यशोविजयकृत टीका । माणिक्यचन्द्रकृत 'काव्यप्रकाश संकेत'। गाथासप्तशती-भुवनपालकृत वृत्ति । विदग्धमुखमंडन-शिवचन्द्रकृत टीका। जिनप्रभसूरिकृत चूर्णि। काव्य कादम्बरी- सूरचन्द्रकृत टीका। मदनमन्त्रिकृत 'कादम्बरीदर्पण' टीका। भानुचन्द्रकृत टीका (पूर्व खंड ) सिद्धिचन्द्र कृत टीका ( उत्तर खंड) भट्टी काव्य- कुमुदानंदकृत "सुबोधिनी" टीका। रघुवंश--- चारित्रवर्द्धनकृत 'शिशुहितैषिणी' टीका। धर्ममेरुकृत 'सुबोधिनी' टीका। सुमतिविजयकृत 'सुगमान्वया' टीका। समुद्रसूरिकृत टीका । रत्नचन्द्रकृत टीका। विजयगणिकृत टीका। समयसुन्दरकृत टीका। गुण विजयकृत टीका। कुमार संभव- विजयणकृत वृत्ति । लक्ष्मीबल्लभकृत टीका । चारित्र. वर्द्धनकृत शिशु हितैषिणी' टीका। मुनिमतिरकृत 'भवरि'। जिनभद्रसूरि कृत 'यालयोधिनी' टीका। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • प्रबन्धावली. पीक मेघदून - क्षेमहंसकृत वृत्ति। महीमेरुकृत 'बालावबोध' टीका । सुमतिविजय कृत 'अवचूरि'। मेरुतुंगसूरिकृत वृत्ति । महिमसिंहकृत टीका। आसड़ात टीका। नैषध जिमराजसूरिकृत टीका । श्रीनाथसूरिकृत 'नेपथाकाश' टीका। चारित्रवर्द्धनकृत टीका। किरातार्जुनीय-विनयसुन्दरकृत वृत्ति। धर्मविजयकृत वाद: टीका। शिशुपालवध- वल्लभदेवकृत टीका। चारित्रवर्द्धनकृत टीका। नलोदय- मादित्यसूरिकृत टीका। पासवदत्ता- सिद्धिचन्द्रकत वृत्ति। सर्वचन्द्रकृत वृत्ति। नरसिंह सेनकृत टीका। राघवपांडवीय-पद्मनंदीकृत टीका । पुष्पदन्तकत टोफा। वारिस. वर्द्धनकृत टीका। मंडप्रशस्ति- गुणविनयपत 'सुबोधिका' वृत्ति । अयसोमगणित टीका। विजयगणिकृत टीका। कर्पूरमंजरी- प्रेमराजवत लघु टीका। राजशेखरकत टीका । धम्म ____ चन्द्रप.त वृत्ति। भर्तृहरिशतक-धनसारसाधुकृत टीका। जिनसमुद्रसरिकृत टीका। रूपचन्द्रकृत ट्वार्य। अवरुशतक- आपकद्रकृत स्वार्थ पर पंचाशिका-उ० महिमोदयक्त घालावोध' टोका अगदाभरणकाव्य-बानप्रमोवकृत टीका घटकपरकाव्य शांतिसूरिकृत रीका वृन्दावनकान्य शिवभद्रकाव्य राक्षसकाव्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०% नाटक जिनहर्षकृत वृत्ति । नरचन्द्रकृत टिप्पण | देवप्रभकृत । 1 'रहस्यादर्श' टीका । प्रबोधचन्द्रोदय - रत्नशेखरकृत वृत्ति जिनहर्षकृत वृत्ति । कामदास कृत वृत्ति । अनर्घराघव ― राघवाभ्युदय रामचन्द्रकृत टीका I दमयन्ती- चम्पू – प्रबोधनाणिक्यकृत टिप्पण | चंडपालकृत टीका । गुणविजयगणिकृत टीका । नलचम्बू - - -- तर्कभाषा— तकं फक्किका क्षमाकल्याणकृत तर्क रहस्यदीपिका - गुणरत्नसूरिकृत । न्यायाबदली— नरचन्द्रसूरिकृत टीका : राजशेखरसूरिकृत पंजिका । रत्नशेखरसूरिकृत टीका । - न्यायप्रवेश - हरिभद्रसूरिवृत टीका जयसिंहसूरिकृत टोका न्यायसार न्यायलंकार - अभयतिलककृत वृत्ति न्यायबोधिनी - नेतृ सिंहकृत टीका पातांजलयोगदर्शन – यशोविजयकृत टीका योगमाला - गुणाकरकृत लघुवृत्ति ज्योतिष न्याय शुभविजय कृत वार्त्तिक । टीका । — * प्रबन्धावली : जातक हष विजयकृत 'जातकदीपिका' वृत्ति लघुजातक - मतिसागरकृत 'बालावबोध' वचनिका ताजिकसार - सुमतिहर्षकृत वृत्ति वसन्तराजशकुन - भानुचन्द्रकृत टीका स्वप्नसप्ततिका सर्वदेवसूरिकृत वृत्ति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat - www.umaragyanbhandar.com Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवन्धायला महाविद्या- भुवनमुन्दरकृत वृत्ति मंत्रशास्त्र- मल्लिरेण कृत टीका मंत्रराजरहस्य-सिंहतिलकमूरिकृत टीका योनिप्राभृत- हरिषेणकृत टीका योगरत्नाकर- नयशेखरकृतटीका वैद्यक योगरत्नमाला-गुणाकरकृत टीका रमचिन्तामणि-अनंतदेवमूरिकृत टीका वैद्यकसारसंग्रह-हर्षीर्तिकृत टीका चंद्यकसारोद्धार-हर्षकीर्तिकृत टीका वैद्यकल्लभ- हम्तिरुचिगणिकृत टीका योगचिन्तामणि-हर्षकीर्तिकृत टीका ज्यराटक - मलदेवकृत टीका सन्निपान कलिका--हेमनिधानकृत टीका लक्षण संग्रह- रत्नशेखरकृत टीका नाषा विहारी-सतसई-समरथकविकृत टीका रसिकप्रिया- कुशलधीरकृत 'रसिक-प्रिया विवरण' पृथ्वीराजवेलो-कविसारंगकृत संस्कृत टीका। कुशलधीरकृत टीका । शिवनिधानकृत टोका। श्रीसारस्त टीका। जय. कीर्तिकृत टीका । राजसोमकत टीका। 'जैन-सिद्धान्त-भास्कर' भाग २. किरण १, ( जून १९३५), पृ. ३२-४१ । जैन सिद्धान्त भवन आगसे प्रकाशित। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक हिसाब तपासणी खाता। मान्यघर प्रमुख साहब, समागत प्रतिनिधियों, समस्त सहधर्मी बन्धुओं: "श्रेयः श्री विपुलावलामरगिरि स्थेयः स्विति स्वीकृतिः । पत्रश्रेणिरमाभिराम भुजगाधीश स्फटा संस्थितिः ॥ पादासीन दिवस्पति शुभफलं श्रीकीर्तिपुष्पोदग्मः । श्री संघाय ददातु वांछितफलं श्रीपाश्वंकल्पद्रुमः ॥१॥" मैं आज अंगरेजी संवत्सर के शुभदिन को मांगलिक प्रार्थना करता हुआ श्री चतुर्विधसंघ को नमस्कार करके जो प्रस्ताव अनुमोदन करने के लिये आप साहबोंके सम्मुख उपस्थित हुआई, अपनी कान्फोन्स की बहुत से प्रबन्धों में यह भी एक अत्यावश्यकीय विषय है इसमें संदेह नहीं। अपनी कान्फ्रेंस ने इसको ध्यान में लेकर र्का घाँसे जो कुछ कार्य किया है, उसका हाल आप लोगों को अनरी अडिटर साहब की रिपोर्टसे ज्ञात हुये हैं और उसको सर्टिफाएष्ड एकाउटेंट मि० हीराचन्द लीलाधर जवेरीने अच्छी तरइसे विवेचन किया है । इस प्रस्तावमें विचारने योग्य बहुतसी बातें हैं, परन्तु समय संक्षेप है तो भी ११ बात कहने को इच्छा रखता, माप लोग ध्यान दीजिये। जैसे अपने शरीर की रक्षा के लिये दाल रोटी की जरूरत है उसी प्रकार अपनी आत्मा के फल्याण के लिये धार्मिक व्यवस्था की भी आवश्यकता है। इस कारण परंपरासे महानुभाव सजन पुरुष लोग मंदिर, उपासरा, ज्ञानमंडार, धर्मशाला, नौकारशी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रवन्धावली * आदि नाना प्रकार धर्म और सत्कार्य के लिये अर्थ दे गये हैं और उस फंडमें अभीतक आमदनी होती है। ऐसे ऐसे कार्यों से समस्त श्रोसंघ लाभ उठा रहे हैं। जहां जहां जैन भाई लोग वसते हैं वहां वहां ऐसे धर्मादे पडकी कमी नहीं है, खास कर इसे यह पूर्व देश में तीर्थ स्थानों की संख्या अधिक होने के कारण बहुत से धर्मादे फण्ड वर्त्तमान हैं । परन्तु बहुतसे फण्डों के हिसाब की रिपोर्ट प्रकाशित होते देखी नहीं गई । * ६४ I बहुत से स्थान ऐसे हैं कि जहां कई कारणों से धर्मादे फण्ड की व्यवस्था ठीक नहीं है । यदि वहां को तपासणी को जाय और जो २ त्रुटियाँ दोख पड़े उसके सुधार की व्यवस्था हो जाय तो आमदनी वृद्धि होने की आशा है और दिन २ धर्मादे फण्ड की अवश्य उन्नति होगी । और जहाँ अच्छी बहुत से स्थानों में ऐसा भी देखने में आता है कि सर्व प्रकार के साधन रहते भी किसी तुच्छ कारण से श्रीसंघ में मतभेद होकर व्यवस्था में गडबड़ चल रहा है। वहां पर ऐसे कारणों को शोध कर के सत्र श्रीसंघ को समझा कर उनको एक मत कर के सुधार किया जाय तो बहुत ही लाभ हो सक्ता है और भविष्यत् में अधिक हानि का कारण भी दूर हो जा सकता है। धर्मादेकी रकम का हिसाब तो जहां तक बने साफ रहना ही उचित है, दशा में रहती है, वहां पर उस धर्मादे फण्ड के उद्देश्य की भी अच्छीतरह सफलता प्राप्त होती है और कार्य वाहकों को भी अधिक उत्साह रहा करता है। जहां गड़बड़ रहता है वहां जो मुख्य २ कारण होते हैं, वह यह है कि प्रथम तो धार्मिक फण्ड द्रव्यत्रान शेठ साहुकारों के हाथ में रहता है उन लोगों को अपने २ कामों से ही अवकाश नहीं मिलता तो धर्ना का कार्य कौन संभाले ? उनके गुमास्तों के हाथ तें बिलकुल छोड़ा हुआ रहता है जो यदि भाग्यवश विश्वासी मिल गये तो ठीक है नहीं तो सिद्ध श्री रकम में ही गड़बड़ हो जाता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली. और मान लिया जाय कि रकम ठीक है परन्तु गुमास्तं लोग खास काम के योग्य न हों तो ठीक व्यवस्था होना असम्भव है। ऐसी जगह तपास होने से बहुत सुधार हो सकता है। फिर समझिये ये धोसंघ के तरफ से श्रीमंत और पूरे धर्मानुरागी जानकर जिस शेठ साहूकार को धर्मादे फंडका भार दिया गया था, कहीं २ ऐसा होता है कि वे तो अच्छी तरह अपना कर्तव्य पालन कर परलोक सिधारे और घरको पुण्याई भी उसके साथ गई। जो भौलाद पोछे रही, नालायक निकली। पहिले तो अपना ही घर खराब किया, पीछे उनकी धर्मादे फज पर दृष्टि पड़ी, रकम उठतो गई साथ साथ व्यवस्था में भो गड़बड़ मची। सोवा, श्रीसंघ में अपना पक्ष लेने वाले नहीं रहने से आगे गाड़ा अटक जायगा, अब अन्याय पक्ष बनाने लगे। इस अवसर में यदि सुधारकी व्यवस्था न हो तो कुछ दिन पीछे फिर ऐसे फंड से हाथ धोना पड़ता है। पुनः कई जगह ऐसे फंड के ट्रस्टोलोग आपस वालों को अपनो देख रेख में जो धर्मादा फंड है उससे उधार देते हैं, पर समय पर वसूल करने को चेष्ठा नहीं करते। फिर जब उनके मित्रका काम मंवा पड़ा, उसने इनसालभैंसी ले लिया तो उनको जो धर्मादे की रकम उधार दी गई थी प्रायः सब डूब जाती है। ऐसी हालत में बराबर जांच होती रहे तो यह नतीजा न गुजरे। किसो २ जगह वहोवट करने वाले लोग फजूल काम में ज्यादे रकम सर्च देते हैं वह भो बराबर तपास होती रहतो तो यह उकसान न होने पाता। और अब भी उन स्थानों में तपास होने से माये को हानि रुक सकती है । पुनः किसी २ स्थलों में ऐसा होता है कि बहुत दिनोंसे हिसाब नहीं देखा गया यहांतक कि खुद द्रष्टो ने भी न देखा होगा। फिर जब समय आया, श्री संघ येते, तब दृष्टी साहेब की मा खलो। देखा, बहुत रकम नामें आती है। सायत् बात बढ़े तो क्या करना। तब पहिले वही खाते कजे कर चट वकील के यहां सलाह लेने दौड़े। “द्रव्येन सबैवशाः" । फिर क्या ? फोस मिलते ही ओपिनियन । 'कुछ उपाय तो है नहीं' एक बंदोवस्त हो सकता है, 18 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १६ . * प्रबन्धावली. अगर धर्मादा खाता और रकम अपनी खानगी (प्राइवेट) बनावो तो छुटकारा हो सकता है। खैर, 'मरता क्या नहीं करता'.इस न्याय से उन्होंने ऐसा ही किया। अपना परलोक डुबाया, साथ ही धर्मादा फउ भी डूवा । परन्तु तपासणी होती रहती तो ऐसा कदाचित् न होता। किसी २ स्थान में जहाँ श्रीजिनदैत्यालय के लिये धर्माद फंड थे वहां के दृष्टी लोग मंदिर मार्ग छोड़कर तेरेपंथी हुए हैं वे लोग प्रायः उस फंड के उद्देश्य पर उचित ध्यान नहीं देते और अपने नामों से रिपोर्ट बाहर निकालने में उनके साथ में निन्दा और उनके धर्ममें हानि पहुंचानेकी शंका रखते हैं। उन लोगों से भी विनीत प्रार्थना है कि वे इस ख्याल को छोड़ कर इस कार्य को एक श्रीसंघ का उचित और धर्मभार समझ कर उस फण्ड की अच्छी तरह सार संभाल करें और बराबर हिसाब को प्रकट करें। इसी प्रकार बहुत से दृष्टांत देखे जाते हैं और आप लोग रिपोर्ट में भी इस बातका खुलासा सुन चुके हैं। अपनी प्रजा बत्सल गवर्णमेंट मी इस ओर ध्यान देने. बालो थी परन्तु यह कर्त्तव्य खास अपना ही है। यदि अपने आलस्य को त्याग कर इस खातेके सुधार पर पूरी मदद देवें तो आशा है कि यह प्रस्ताव सब जगह कार्यमें परिणत होकर इसका उद्देश्य शीघ्र सफलता को प्राप्त करेगा। प्रस्ताव तो भाई लोगों के सामने हो उपस्थित है और मैं अनुमोदन करता हुआ पूर्ण आशा रखता हूं कि यह प्रस्ताव श्रीवीर शासन को जय बोलते हुए सर्व सम्मति से ग्रहण होगा। ११ वीं जैन श्वेताम्बर कान्फरेन्स १६७४, कलकत्ता के अवसर पर धार्मिक हिसाब तपासणी खाता' विषयक प्रस्ताव के अनुमोदनार्थ व्याख्यान ; ता० १ जनवरी १९१८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान समस्या मैं जब से परिव्राजक स्वामी सत्यदेवजी का लेख सुनकर डाक्टर पानाजी के नाम से परिचित हुआ हूं तब से उनको एकवार मेरे नेत्र दिवाने की आंतरिक इच्छा थी। इन दिनों मेरे माखोंका धुधलापन बढ़ जाने के कारण शीघ्र ही बम्बई जाकर उक्त डाक्टर साहेब से परीक्षा करा लेने का विचार करता ही था कि एकाएक समाचार. पत्रों में यहाँ के जैनी भाइयों में परस्पर धैमनस्य पढ़ कर कलह के विकट स्वरूप होनेका भौर पुलिस तक की सहायता लेने की नौबत मा जाने का समाचार सुनकर चिन्ता हुई। __मस्तु, मैं नागपुर मेल से रवाना हुमा और यथासमय बोरीबंदर स्टेशन पहुंचा । प्लेटफार्म पर मेरे मित्र उपलित थे। वे मुझे अपने मोटर से बंगले में ले गये। वह एक स्वास्थ्यकर स्थान था और शहर से कुछ मील के फासले पर था। इसी कारण डाक्टरों से आंखें दिखलाने में श३ दिन लग गये। और भी कई कारणों से. वहां कई दिन ठहरना पड़ा। वहां के साधम्नी बन्धुओं में पहले ही दीक्षा' विषय पर जो हलचल मच रही थी इस पर प्रतिदिन संवाद पत्रिकाओं मोर हैंडबीलों से जनता के विचार और वहां की परिणिति मुझे भच्छी तरह उपलब्ध होती रही। मैं भी इस विषय पर सोचता रहा और वर्तमान समस्या पर जो कुछ मेरा अनुभव हुआ है वह दो अक्षरों में पाठकों के सम्मुख उपलित करने का साहस किया ई। माशा है हमारे विचारशील पाठकों को अरुचिकर न होगा। __ सहृदय बन्धुगण समझते होंगे कि आज 'दीक्षा' का जो प्रश्न. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ६८ * * प्रवन्धावली * उठा है उसकी मीमांसा अपने आगमादि सिद्धान्त के वाक्य पर ही निर्भर है, और श्रीवीर परमात्मा से लेकर आज तक जितने अल्पवयस्कों की दीक्षा हुई है उन दृष्टान्तों पर ही यह प्रश्न हल हो सकता है और इस विषय पर जो झगड़ा छिड़ा हुआ है उसका यही मुख्य कारण है। परन्तु हम यह कदापि स्वीकार नहीं करेंगे। आज अपने जितने बड़े २ केन्द्र हैं जैसे 'राजनगर, जामनगर, सुरत, पाटन, पालनपूर, राधनपुर,' चाहे 'जैन' जैन-जीवन, वोरशासन' इत्यादि सर्व स्थान और पत्रिकाओं में भी उपस्थित 'दोक्षा' प्रश्न पर वादविवाद बढ़ता जाता है। 'दोक्षा' को ही प्रधान रोग समझ कर उसके निदान और औषधि की चारों ओर से चेष्टा हो रही है। मेरे तुच्छ विचार में इस रोग का कैसा ही निदान क्यों न हो, कैसी ही कड़ी से कड़ी औषधि क्यों न सेवन कराई जाय, यह रोग मुक्त को कदापि आशा नहीं है। कारण रोग दूसरा ही है। यह व्याधि कोई व्यक्तिगत, पानज, धार्मिक या सामाजिक नहीं है । यह समय का ज्वलंत उदाहरण है। आज आप जिस ओर आखें खोल कर देखें वहीं समय का फोटो खिंचा हुआ मिलेगा। जो सजन असली स्वरूप को भूल कर नामवरी के लिये चाहे अंध-विश्वास से अथवा बहकाने से गढिया प्रवाह की तरह अंध सत्ता को सरफेंगे वे थोड़े ही काल में अवश्य ठोकर खांयगे । मैं किसी पक्ष की बातें पुष्ट करने को यह लिखने का प्रयास नहीं किया हूं, बल्कि अपने श्रीसंघ को साधु. साध्वो, श्रावक, श्राविकाओं की शक्ति, समय और अर्थ अयथा नष्ट होते देखकर समय रहते अपना विचार प्रगट करना कर्तव्य समझ कर ही धृष्टता किया है। देखिये ! छोटे बड़े सभों की दीक्षा बराबर होती चली आती थो, फिर आज ऐसा प्रश्न क्यों उठा! मेरा यही एक उत्तर है कि समय के कारण ही आज यह तूफान उठा है, यह दलबंदियां हो रही हैं, लड़ने के लिये कोष संग्रह हो रहे हैं, यहांतक कि धर्म कथाओं में भी यही दंतकथा सुनी जाती है। व्याख्यान में नाना प्रकार के कटाक्षपूर्ण जोशीले भाषण हो रहे हैं और जनता इसी पर अपना महत्व समझ रही है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रवन्धावली मैं अब बम्बई में था, सुना कि परस्पर में समझौते के लिये दोनों पक्ष से निर्दिष्ट संख्यक मेम्बर चुनाव होकर कलह का भन्त करेंगे । ऐसे सरल प्रस्ताव को कार्यरूप में परिणत करने की चेष्टा भा होती रही परन्तु यहां तो रोग दूसरा ही था, कोई आशाप्रद शांति मार्ग दिखाई न पड़ा। देखिये ! आज सभो समाज, सभी धर्मवाले 'यात्रा बाक्यं प्रमाणम्' का हठ छोड़ कर उन्नति के पथ पर अग्रसर हो रहे हैं। चाहे किसी स्थान के कोई साधर्मो बन्धु अथवा किसी गच्छ के कोई भी आचार्य, किसी भी जैनागम के कोई भी मूल या टीकाओं की ओट में समय के विरूद्ध कुछ भी सफलता प्राप्त नहीं कर सकेंगे। यदि किसीको इस सिद्धान्त के विपरीत विश्वास हो तो उनका भ्रम है। ये धोखा खांयगे । इस विषय पर एक ही सिद्धान्त को स्मरण रखिये कि समय कभी भन्याय का श्रोत नहीं बहाता । जिस समय लोग अपना २ कर्त्तव्य समझेंगे, दूसरों के हकों पर धाषा नहीं डालेंगे, स्निग्धमस्तिष्क से जनता का मूल सिद्धान्त भाखें खोल कर देखेंगे तो हस्तामलकवत् स्वयं शान्ति हो जायगी, पुनः पूर्ण शक्ति और बल प्राप्त होगा। यह समय भविष्य के अन्धकार में है। यदि वर्त्तमान में रोग की अवधि दीर्घव्यापी होगी तो न जाने दिनोदिन कैसे २ नये उपसर्ग खड़े होते जायेंगे । नये २ स्थानों में भा विकट स्थिति दिखायी देगी और समझौते की बैठकों का कोई भी फल न होगा और जब भवधि के अन्त का समय समीप रहेगा उस समय अनायास ही पूर्ण शान्ति प्राप्त हो जायगी । अन्त में परमात्मा से प्रार्थना है कि श्रीसंघ की ऐसो वर्त्तमान संकटमय समस्या के समय पारस्परिक ईर्षा और द्वेषभाष को दूर हटा दें और समयानुकूल विचार की शक्ति देकर श्रीसंघ के महत्व को अक्षुण्ण रखें 1 'जेन-जीवन' ता० २३ सेप्टेम्बर, सन् १६२६, एवं जैन-युन पु० ५, अङ्क १-२-३ १६८५-८६ पृ० १६-१७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर और दिगम्बर जैन सम्प्रदायों की प्राचीनता इस बात से प्रायः सभी लोग परिचित हैं कि जैन सम्प्रदाय श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दो सम्प्रदायों में विभक्त है । पाश्चात्य भौर भारतीय विद्वानोंने आज तक जितनी खोज की है, उससे इन दोनों सम्प्रदायों की प्राचीनता के सम्बन्ध में कोई संतोषप्रद ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता है। भारतीय विद्वानों में डा० भण्डारकर, डा० भाचार्य्य, डा० बरुभा, डा०ला, और प्रोफैसर चक्रवतीं प्रो० विद्याभूषण प्रो० भट्टाचार्य, प्रो० शील इत्यादि बंगीय विद्वान आजकल जैमतत्व इतिहासादि विषयों की विशेष चर्चा करते हैं। ये महानुभाव पुस्तक तथा निबन्धादि लिख कर जैनतत्व और इतिहास की जो अमूल्य सेवा कर रहे हैं उसके लिये जैन समाज उनका चिर ऋणी रहेगा। वर्तमान कालमें पाश्चात्य विद्वानों में भी जैनियों के प्राचीन इतिहास, तत्वज्ञान, इतिहास एवं आचार व्यवहार के बारे में विशेष खर्चा हो रही है जिनमें कन्धप्रतिष्ठ स्वर्गीय डा० वूलर, डा० बर्जेस, डा० हारनेल तथा डा० हार्मन जैकोबी, डा० ग्लासेनप, डा० गोएरीनो, डा० वीन्टनज आदिके नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त डा० वार्पेन्टियर, डा० टामस, प्रो० श्रुत्रि, मि० वारेन, डा० लोओमैन, डा० हार्टेल, डा० वर्नेट, डा० कुमारस्वामी और प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्व० विन्सेन्ट स्मिथ इत्यादि विद्वानोंने जैन धर्म सम्बन्धी भिन्न भिन्न विषयों पर गवेषणापूर्ण पुस्तकें और निबन्ध लिखे हैं जिनसे अधिकांश पाठक भी परिचित होंगे। इन दोनों सम्प्रदायों की प्राचीनता के विषय में मैंने जो कुछ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ● प्रबन्धावली ● ऐतिहासिक अनुसन्धान किया है उन्हीं को पाठकों के समक्ष इस लेख में रख रहा हूं, आशा है जेन इतिहास प्रेमी भारतीय विद्वानगण इधर ध्यान देंगे और मुझे विश्वास है कि उनके परिश्रम के फलस्वरूप थोड़े ही समय मैं सत्य का और भी पता लगेगा और इस विषय की एक प्रामाणिक पुस्तक तैयार हो सकेगी। यह लिखने की आवश्यकता नहीं कि हिन्दी और गुजराती भाषाओं में दोनों सम्प्रदायों की प्राचीनता की पुष्टिकै लिये अलग अलग कई पुस्तकें लिखी गई है। मैं उन पुस्तकोंके सम्बन्ध में टीका टिप्पणी करने के उद्देश्य से अथवा श्वेताम्बर होनेके कारण अपने सम्प्रदाय की मर्यादावृद्धि के अभिप्राय से यह निबन्ध नहीं लिख रहा हूँ बल्कि निरपेक्ष होकर प्रकृत सत्यके अनुसन्धान द्वारा इस विषय के भ्रम को दूर करने की पवित्र भावना से प्रेरित होकर ही इस ओर प्रयत्नशील हुआ हूं । ܕܘ श्वेताम्बर और दिगम्बर शब्दों की व्याख्या करने से यही धारणा होती है कि दिगम्बर सम्प्रदाय अर्थात् वस्त्ररहित : या नग्न अवस्था, श्वेताम्बर मर्थात् सफेद वस्त्रधारी सम्प्रदाय से पुराना है, पर वास्तव मैं यह धारणा भ्रमपूर्ण है। जिस प्रकार प्राकृत और संस्कृत शब्दोंके अर्थों पर ध्यान देने से यह मालूम होगा कि प्राकृत अवस्था संस्कृत से पहिले की है अतः प्राकृत भाषा संस्कृत भाषा की अपेक्षा प्राचीन होनी चाहिये परन्तु यह भ्रमात्मक है। वर्तमान समय में प्राकृत भाषा के जिसने ग्रन्थ मिळते हैं वे सब संस्कृत भाषा के बेदादि ग्रन्थों से बहुत पीछे के हैं यद्यपि नाम से यह मालूम होता है कि प्राकृत भाषा बहुत पुरानो है और उसी प्राकृत भाषा के क्रमशः परिमार्जित होनेसे संस्कृत भाषा की उत्पत्ति हुई है तथापि वैदिक काल से पूर्वका प्राकृत भाषा में लिखे हुये किसी अन्य का भी पता आजतक नहीं चलता । प्राचोन जैन इतिहास के देखने से यही मालूम होता है कि जैन सम्प्रदाय के श्वेताम्बर मौर दिगम्बर सम्प्रदायों की उत्पत्ति का इतिहास भी उपर्युक्त संस्कृत और प्राकृत भाषा के दृष्टान्त के समान हो है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १०२ . • प्रबन्धावली. जैनलोग जिनदेव अर्थात् तीर्थंकरों के भक्त हैं और उनलोगों का यह विश्वास है कि जिनदेव द्वारा प्रणोदित शुद्ध धर्म-मार्ग ही निर्वाण प्राप्ति का एकमात्र साधन है। उनके मतानुसार सृष्टि और कालचक अनादि हैं। कालचक्र अनादि काल से चल रहा है भौर बराबर चलता रहेगा। उनलोगोंने कालचक्र को दो भागों में विभक्त किया है-अवसर्पिणी और उत्सपिणो। कुण्डलाकार बैठे हुये किसी सांप के सिर से क्रमशः पूंछ पत और पुनः पूंछ से सिरतक यदि कोई चक्र चलता रहे और सिर से पूंछ और फिर पुंछ से सिरका यह क्रम मारी रहे तो जिस प्रकार उस वक्र की समाप्ति नहीं होगी ठीक उसी गति के समान. कालचक्र भी घूमता है ऐसा समझना चाहिये। सिर से पूंछ की तरफ जानेकी गति को अवसर्पिणी और उसके विपरीत गति को उत्सपिणो नाम दिया गया है। इस अवसर्पिणी और उत्सर्पिणो काल की गति से इतना ही समझाना पर्याप्त होगा कि जिस समय कालचक्र अवसर्पिणी गति से भ्रमण करेगा उस समय अच्छी अवसा से क्रमशः बुरी अवस्था की तरफ और जिस समय उत्सर्पिणी गतिमें रहता है उस समय हीन अवस्था से क्रमशः अच्छो अवस्था को तरफ अग्रसर होता रहेगा। जैन मतानुसार यही कालचक्र हैं। जिस प्रकार हिन्दुओंने काल को सत्य लेता छापर और कलि इन चार भागोंमें विभक्त किया है उसी प्रकार जैन लोगोंने भी भवसर्पिणी मोर उत्सर्पिणी को क्रमशः छः छः भागोंमें विभक्त किया है। भेद इतना ही है कि हिन्दू मतानुसार कलियुग के बाद प्रलय होकर पुमः सत्ययुग का आविर्भाव होता है परन्तु जैनमत से कलियुग अर्थात् निकृष्ट अवस्था से एक वार ही सत्ययुग नहीं हो जाता बल्कि क्रमशः श्रेषता प्राप्त होती है। वैज्ञानिक दृष्टि से भी यही अधिक सत्य प्रतीत होता है। प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल में २५ तीर्थकर आविर्भूत होते हैं। किन्तु यहां पर आप्रासङ्गिक होनेके • भयसे इस विषय की अधिक आलोचना करना उचित नहीं है। इस विषय का अधिक जानकारी के लिये प्रेमी पाठक जैन ग्रन्थों का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •प्राधावली. अवलोकन कर सकते हैं। यहां इतना ही बतलाना पर्याप्त होगा कि वर्तमान काल की गति अवसर्पिणी है, इस काल में प्रथम तीर्थंकर से लेकर महावीर तक कुल २४ तीर्थकर हो चुके हैं इनमें अन्तिम तीर्थंकर महाबोर स्वामीने ई० सन् से ५२७ वर्ष पूर्व निर्वाण लाभ किया था इनके पूर्ववतों तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथने महाबोरसे अढ़ाई सौ वर्ष पूर्व यानो ७७७ खष्ट पूर्व में निर्वाण प्राप्त किया था। आधुनिक विद्वानगण तीर्थंकर पार्श्वनाथ को ऐतिहासिक युगके महापुरुष और इनके पूर्ववतों शेष २२ तीकरों को Prehistoric Perial अर्थात् ऐतिहासिक युगसे पूर्व का मानते हैं। भगवान महावीर के समय में जैनधर्म किसी सम्प्रदाय में विभक्त नहीं था। उनके बाद भी कई शताब्दो नक इसके अविभक्त रहने के प्रमाण मिलते हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदायवालों के आवारांग सूत्रादि ४५ प्राचीन धर्म ग्रन्थ हैं और उन्हें वे लोग जैन सिद्धान्त कहते हैं, परन्तु दिगम्र सम्प्रदायवाले इन प्राचीन सूत्रादि को अमान्य करने हैं । दिगम्बगे लोग कहते हैं कि उक्त प्राचीन समस्त जैनागम नष्ट हो गये है। अतः वे लोग श्वेताम्बर सम्प्रदायवालों के मान्य आगमों को यथार्थ नहीं मानते थे। इन बातोंपर अच्छी तरह से विचार करने पर यह बतलानेकी आवश्यकता नहीं रह जातो कि प्राचीन जैन तत्व इतिहासादि के सम्बन्ध में दिगम्बर ग्रन्थों का उपादान श्वेताम्बर ग्रन्थों की अपेक्षा बहुन कम है। जैन दशनवित् ममम्न विद्वानोंने भी श्वेताम्बर प्रन्योंकी प्राचीनता मुक्त कंठसे स्वीकार को है। दिगम्बरियोंमें ऐसे प्राचीन अन्य उपलब्ध नहीं है। सम्राट अशोकके समयमें जैन साधु निर्ग्रन्थ नामसे पुकारे जाते थे और उनके प्राचीन शिला लेख में इसी नामका उल्लेख भी है किन्तु निनन्य शब्दका नग्न साधु अर्थ करना उचित नहीं। निन्य शब्दका अर्थ यहा प्रन्थि रहित अर्थात गगह पादि बन्धन मुक्त साधु समझना होगा। सम्राट अशोकके बाद कलिङ्गाधिपति महाराज बालके नाम 14 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ * * प्रवन्धावली * से बहुत लोग परिचित होंगे । लब्धप्रतिष्ठ ऐतिहासिक मि० के० पी० जयसवाल महोदयने उदयगिरि और खण्डगिरिस्थि हस्तिगुफा नामक गुफासे प्राप्त उक्त जैन सम्राट खार्वेलके प्रसिद्ध शिला लेखको विस्तृत आलोचना को है । इसका समय ई० सन्से १७० वर्ष पूर्व निर्धारित हुआ है। इस शिलालेख में सम्राट् खार्वेल द्वारा जैन साधुओं को भांति भांतिके पट्ट वस्त्र और श्वेतवस्त्र देनेका स्पष्ट वर्णन है । अतः यह अकाट्यरूपसे प्रमाणित होता है कि उस समय जैन साधुगण श्वेत और रेशमी वस्त्र भी धारण करते थे । प्रसिद्ध दिगम्बर ग्रन्थ लेखक देवसेनाचार्यने अपनी दशनसार नामक पुस्तक में लिखा है कि सितपट अर्थात् श्वेताम्बर संघकी उत्पत्ति सं० १३६ विक्रमीयमें हुई है परन्तु यह सर्वथा भ्रमात्मक और पक्षपातपूर्ण है । दिगम्बर मतानुसार यदि श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति सं० १३६ माना जाय तो उक्त शिला लिपिमें कथित महाराज खार्वेल द्वारा जैन साधुओं को श्वेतवस्त्र दान देने का वर्णन सम्भव नहीं, क्योंकि यह शिला लेख ही विक्रमाब्द के प्रारम्भ से ११० वर्ष पूर्वका खुदा है। श्वेतास्वर ग्रन्थानुसार महावीर तीर्थंकरके पूर्व, भगवान ऋषभदेवके बादसे भगवान पार्श्वनाथ पर्यंत २२ तीर्थंकरोंके समय में जैन साधुगण वस्त्र व्यवहार करते थे । इसके बाद यानी चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी के अभ्युदय कालमें सम्पूर्ण वस्त्र त्यागकी पद्धति चली । इससे यह अनुमान होता है कि भगवान् महावीरके समय तपस्या की कठोरता अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुकी थी । महावीर स्वामी गृह त्यागी होकर सन्यास ग्रहण करनेके बाद कुछ समयतक शरीरपर एक वस्त्र धारण करते थे, परन्तु पीछे उन्होंने अपने एकमात्र वस्त्रका भी त्याग कर दिया। उन्होंने किस कारण से सम्पूर्ण वस्त्रोंका परित्याग किया था, इसका निरूपण करना बास्तवमें बड़ा कठिन है । उस समयकी घटनाओं का जो कुछ संग्रह हो सका है, उससे यह प्रगट होता है कि महावीर स्वामीके समय में धार्मिक प्रतियोगिता पराकाष्ठा पर पहुंच चुकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राधावली. थी और धर्म सम्बन्धी आध्यात्मिक विचार पूर्ण उन्नति लाभ कर चुके थे। प्रचलित धर्मोंके विरोधीगण बहुत बड़ी संख्यामें उस समय देश-देशान्तरों में भ्रमण कर रहे थे और सम्पूर्ण रूपसे संसार त्यागके गुणागुण के निर्णय की वर्वा जोरों पर थी। भगवान् महावीर ने भी सर्व त्यागी होकर अर्थात् अपने एक मात्र वस्त्र का भी त्याग कर उस समय के आदर्श त्याग की उग्रता को दिखाया था। सम्भवतः समी वस्त्रों के त्याग का नियम उन्होंने अपने समकक्ष उच्च श्रेणी के जैन साधुओं के लिये ही निर्धारित किया था। उन्होंने किसी युग विशेष अथवा समस्त जैन साधुओं और साध्वियों के लिये इस प्रकार से वस्त्र त्याग का समर्थन नहीं किया था, तो भी दिगम्बर मतावलम्बी साधुगण न मालूम क्यों इस समय भी उलङ्ग रहते हैं। इस प्रकार विगम्बर लोगों द्वारा प्राचीन जैन सूत्रादि की अवहेलना कर नवीन जैनशास्त्र और इतिहास की रचना करने के फलस्वरूप मूल जैन सिद्धान्त, प्रकृत जैन धार्मिक तत्व तथा इतिहास में जो कुछ परिवर्तन हुआ है उसकी विस्तृत व्याख्याकर लेख के कलेवर को बढ़ाने की आवश्यकता नहीं। दो एक दृष्टान्त हो इसके लिये पर्याप्त होंगे। दिगम्बर सम्प्रदायवाले स्त्रियों के मुक्ति के अधिकार को नहीं मानते, किन्तु मौलिक जैन सिद्धान्त की दृष्टि से स्त्री-पुरुषों की आत्मा में कुछ विभिन्नता नहीं है। आत्मा अनन्तबली है। वह केवल कमवशात् स्त्री या पुरुष रूप में जन्म ग्रहण करती हैं। अर्जित कर्मों के क्षय हो जानेसे मुक्ति प्राप्त होती है इसमें जाति अथवा लिङ्ग भेद कुछ भी बाधक नहीं। श्वेताम्बर सम्प्रदायवाले इस अनादि और प्राचीन जैन सिद्धान्त को मानते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार स्त्री और पुरुष दोनों को समान रूप से मुक्ति का अधिकार है। श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायवालों में इसी प्रकार के और भी अनेक भेद देखने को मिलेंगे। दिगम्बर सम्प्रदायवाले चौबीसवें तीर्थंकर श्री महावीरखामी को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १०६ * * प्रबन्धावली * अविवाहित और बाल ब्रह्मवारी मानते हैं । परन्तु श्वेताम्बर मतानुसार महावीर स्वामी का विवाह हुआ था और उनकी विवाहिता स्त्री यशोदा के गर्भ से प्रियदर्शना नाम की एक कन्या भी उत्पन्न हुई थी । दिगम्बराचार्य जिनसेन द्वारा रचित हरिवंश पुराण में महावोरस्वामी के विवाह का उल्लेख है । दिगम्बर मतावलम्बी जैन विद्वान् प्रोफेसर हीरालाल जैन पिटर्सन की चतुर्थ रिपोर्ट के १६८ वें पृष्ठ के ६ से लेकर ८ श्लोकों में हरिवंश पुराण से उद्धृत उक्त उत्सव का वर्णन देखकर इस अंशके उक्त पुराण की किसी पुरानी हस्तलिखित प्रतिमें होने के बारे में सन्देह किया था परन्तु बंगाल की एशियाटिक सोसाइटो के पुस्त कालय तथा और स्थानों में सुरक्षित हरिवंश पुराण की पुरानी प्रतियों में यह अंश वर्तमान है । अतएव इन श्लोकों की प्राचीनता के सम्मन्ध में सन्देह का कोई कारण नहीं है । जिनसेनाचार्य के समान प्राचीन प्रामाणिक ग्रन्थकारने जब अपनी पुस्तक में महावीरस्वामी के विवाहो - त्सव का वर्णन किया है, तब यह समझ में नहीं आता कि किस कारण से दिगम्बर लोग उन्हें अविवाहित मानते हैं । अब मूर्ति और मूर्तिपूजा द्वारा भी इन दोनों सम्प्रदायों की प्राचीनता की आलोचना करनी उचित समझता हूं । मूर्तिपूजा बहुत प्राचीन काल से चली आ रही है, इस सिद्धान्तमें मतभेद नहीं है । इससे यह प्रमाणित होता है कि जैन लोग प्राचीन कालसे मूर्तिपूजा करते आ रहे हैं। इसका काफी प्रमाण मिलता है कि भगवान महावीर के निर्वाणलाभ के बहुत समय पीछे तक उनके मतावलम्बियों में श्वेताम्बर और दिगम्बर नामका कोई सम्प्रदायभेद नहीं था । वान महावीर ने सम्पूर्ण वस्त्रोंका परित्याग कर तत्सामयिक अवस्थानुसार निश्चय ही त्यागकी चरम सीमाका आदर्श रखा था और इसके फलस्वरूप उनके मतावलम्बियोंने नग्न मूर्तिकी प्रतिष्ठा की इसमें कोई आश्चर्य नहीं है । इसी कारण मथुरा के निकट कंकाली टीला नामक स्थान से जितनी जनमूर्तियां खोदकर निकाली गयी है, उनमें से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com भग · Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ● प्रबन्धावली ● अधिकांश कायोत्सर्ग मुद्राकी खड़ी मूर्तियां दिगम्बर है अर्थात् उनमें पुरुष चिन्ह वर्तमान हैं I इन प्राचीन जैन मूर्तियोंपर जो कुछ खुदा है, उससे उस समय के प्रचलित गण, गोत्र, कुल, शाखा और गच्छ इत्यादिका पूर्ण विवरण मिलता है । किसी-किसी मूर्ति में समसामयिक महाराज कनिष्क और हविष्क इत्यादि राजाओंके शासनकालका भी उल्लेख हैं, परन्तु विक्रमकी ११ वीं शताब्दी से पूर्व उस समय के जैन लोगों में सम्प्रदाय विभेदका कुछ भी उल्लोख आजतक नहीं मिला है । विक्रमकी ११ वीं शताब्दी के वादकी जो कुछ मूर्तियां वहां मिली है, उनमें कहीं कहीं श्वेताम्बर शब्दका उल्लेख बर्त्तमान है; किन्तु उस समय की मूर्तियों की शिला लिपिमें आजतक "दिगम्बर" शब्द कहीं नहीं मिला । पाठकगण इससे सहज ही अनुमान कर सकते हैं कि प्राचीन काल में जैनियों में कोई सम्प्रदाय भेद नहीं था । इन शिला लिपियों में कुल, गण शाखा गच्छ इत्यादिका जो कुछ उल्लेख आया है, प्रायः वह सब श्वेताम्बरी लोगों के कल्पसूत्रादि प्रन्थों में वर्णित हैं, किन्तु दिगम्बर लोगों के किसी ग्रन्थमें इन शाखा कुल प्रभृतिका उल्लेख नहीं मिलता। अतएव श्वेताम्बर सम्प्रदायकी अपेक्षा दिगम्बर सम्प्रदायको प्राचीन कहना भ्रमपूर्ण है । पाठकगण निम्नाङ्कित एक और दृष्टान्त से यह भली भांति समझ जायेंगे कि दिगम्बर सम्प्रदायवाले अपने सम्प्रदायकी प्राचीनता सावित करने के लिये चाहे जितने भी प्रमाण और व्याख्याएं क्यों न उपस्थित करें, पर वे इतिहास की दृष्टि से मूल्यवान नहीं हो सकते और इस दृष्टान्त द्वारा श्वेताम्बर सम्प्रदाय की प्राचीनता स्पष्ट सिद्ध होती है 1 श्वेताम्बर सम्प्रदाय के मतानुसार चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर अपनी क्षत्रियानी माता त्रिशला के गर्भ से जन्म ग्रहण करने के पूर्व देवानन्दा नामक ब्राह्मणी के गर्भ में अवतीर्ण हुए थे 1 पश्चात् इन्द्रादेश से हरीनेगमेसी नामक देवनाने देवानन्दाके गर्भ से भगवान् महावीरको उठाकर माता त्रिशलाके गर्म में स्थापित किया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली * था। यह घटना श्वेताम्बरी लोगों के प्रसिद्ध कल्पसूत्र नामक ग्रन्थ में सविस्तार वर्णित है। इसी दृश्य की एक सुन्दर भास्कर शिला मथुराके कांकाली टीले से प्राप्त हुई है। पाठक विंसेट स्मिथकी 'जैनस्तूप एन्ड अदर एन्टीक्वीटीज आफ मथुरा' Vincent Smith's Jaina Stupa and other Antiquit es of Mathura नामक पुस्तकके २५ वें पृष्ठ में इसे देख सकते हैं। लिपितत्त्वविशारदों ने इस बातको प्रमाणित किया है कि उक्त शिला लेख ई० सन् से एक शताब्दी पूर्व से भी कुछ पहलेका है। दिगम्बर सम्प्रदाय के किसी ग्रन्थ और उन लोगों द्वारा रचित महावीर स्वामी की जीवनी में इस प्रकार को किसी घटना का उल्लेख नहीं मिलता। वे लोग इस गर्भापहारकी आख्यायिका पर भी विश्वास नहीं करते। इससे यह सिद्ध होता है कि दिगम्बर ग्रन्थों की अपेक्षा श्वेताम्बर प्रन्थ अधिक प्रावोन हैं और इनके विचार और भी पुराने हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय की प्राचीनता और दिगम्बर सम्प्रदाय की अर्वाचीनता के सम्बन्ध में और भी एक उल्लेखनीय विषय पाठकों के समक्ष रख मैं इस निबन्ध को समाप्त करूंगा। जैन तीर्थंकर न केवल स्वयं सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होते हैं, बरन् वे तीर्थ अर्थात् संघोंकी स्थापना भी करते हैं। प्राचीन जैन सिद्धान्तानुसार ये तीर्थ अथवा जैन संघ चार प्रकार के होते हैं। बौद्ध धर्म में भी भगवान बुद्ध देवने संघ की स्थापना की थी। जैन संघ के साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका ये चार भेद हैं। जैन ग्रन्थोंमें वर्णित चउविह संघ अर्थात् चारों प्रकार के संघों की, प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव से लेकर चौबीसवें तीर्थंकर महावीरतक प्रत्येक तीर्थंकर ने अपने अपने अभ्यु. त्थान कालमें इसो प्रकारसे स्थापना की थी। जैन साधु अर्थात् पुरुष संसारत्यागी संन्यासी, साध्वी अर्थात स्त्री संसारत्यागिनी संन्यासिनी, श्रावक यानी जैन धर्मोपासक पुरुष गृहस्थ और श्राविका अर्थात् जैन धर्मोपासिका स्त्री गृहल इन चार प्रकार के संघों को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • प्रबन्धावली. * १०६. खापना सम्बन्धी पहले तीर्थडर ऋषभदेवसे लेकर तेईसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ तकका ! तिहास दुष्प्राप्य है। इतिहास से यह मालूम होता है कि दिगम्बरी लोगों को यह धारणा सर्वथा निर्मूल है कि महावीर स्वामी के समय में जब संघोंकी स्थापना हुई थी, उस समय मुक्ति के विषय में स्त्रियोंका पुरुषों के समान अधिकार नहीं था और स्त्रियों के लिये संन्यास ग्रहण वर्जित था। उस समय उत्तर भारत में वैदिकधर्मको शक्ति पराकाष्ठापर थी। ब्राह्मण लोग धर्म और धर्मानुष्ठानके एकमात्र ठेकेदार बन बैठे थे और धर्म के नामपर असंख्य पशुओं के रक से पृथ्वी रंजित को जाती थी। बुद्धदेव इस अमानुषिक हिंसा और तत्कालीन कठोर तपस्याको निस्सारता दिखाकर अपने ज्ञानार्जित नवीन धर्म का प्रचार कर रहे थे। भगवान महावीर भी लुप्तप्राय जैन धर्ममें पुनः प्राण प्रतिष्ठा कर आत्मा के कल्याणार्थ सत्य-धर्म मार्ग का उपदेश कर रहे थे। इस धार्मिक द्वन्दकाल में यदि महावीर स्वामी दिगम्बर मतानुसार स्त्री जातिको हीन समझ कर उन्हें अपने स्वाभाविक अधिकारों से वंचित करते तो जैन धर्म का अस्तित्व हो मिट जाता। तीर्थकर महावीर के उपदेश, उदार और सरल थे। उनके मतानुसार जैन, अजैन, श्वेताम्बर, दिगम्बर, हिन्दू, बौद्ध, इत्यादि सभी धर्मावलम्बी को आत्मा को निर्वाणलाभ का अधिकार है। परन्तु दिगम्बर मतानुसार केवलमात्र दिगम्बर मतावलम्बो और उनमें भी पुरुष ही मुक्ति के अधिकारी है। प्राचीन जैन धर्मग्रन्थों में कहीं भी इस प्रकार का अनुदार भाव दृष्टिगोचर नहीं होता। सभी प्राचीन जैनधर्मोपदेशों में उसादर्श के जाज्वल्यमान प्रमाण भरे पड़े हैं और इन मौलिक प्रधों की प्राचानता भी वैज्ञानिक ढंग से सिद्ध हो चुकी है किन्तु यह दुख का विषय है कि दिगम्बर सम्प्रदाय ने इन मूल प्रन्थों को अग्राह्य कर दिया है। सम्भवतः दिगम्बर सम्प्रदाय के धर्मतत्व और नीति अनुदार तथा अदूरदशी होने केही कारण मुसलमान राजत्व काल में किसी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली * प्रकार की भी उन्नति न हो सकी। अबुल फजल ने अपनो आईनी अकघरी नामक पुस्तक में लिखा है कि सम्राट अकबर के समय में बहुत चेष्टा करने पर भी जैनियों के इस नग्न यानो दिगम्बर सम्प्रदाय का कोई पता नहीं चला परन्तु इस समय अंग्रेज राजत्व काल में शान्तिमय युग में वे अपनी मर्यादा वृद्धि करने की चेष्टा कर रहे हैं। इस प्रसंग में और भी एक बात का उल्लेख कर देना उचित होगा। भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् पंचम संघनायक यशोभद्रजी ने सम्भूति विजय और भद्रबाहु नामक दो शिष्योंको रखकर स्वर्गारोहण किया। इनके पश्चात् आवार्य सम्भूतिविजय छठे और उनके गुरुभाई सातवें संघ नायकके पदपर अधिष्ठिन हुए। दिगम्बर लोगोंका कहना है कि उन्हींके समय सम्राट चन्द्रगुप्त के राजत्वकाल में १२ वर्षव्यापी भीषण अकाल पड़ा । उस समय अन्नाभावके कारण जैन साधुओं के लिये जीवन यापन करना कठिन हो गया, अतः भद्रबाहु स्वामी यह विकट स्थिति देख बहुत साधुओं के साथ पाटलीपुत्र (पटने) से दक्षिण दिशा में चले गये। दिगम्बरी लोग कहते हैं कि इसी समय सम्राट चन्द्रगुप्त ने भी भद्रबाहु स्वामो के साथ दक्षिण दिशा में प्रस्थान किया और जैन दीक्षा ग्रहण कर श्रवण बेलगोले के निकट पहाड़ की कन्दरा में तपस्याकर प्राण त्याग किया। आज भी यह स्थान चन्द्रगिरो के नाम से प्रख्यात है और यहां की शिलालिपि में इस घटना का वर्णन भी खुदा है, परन्तु किसी संघ के इतिहास अथवा श्वेताम्बर धर्म ग्रन्थों में इस प्रकार चन्द्रगुप्त के दक्षिण जाने और साधु होने का उल्लेख नहीं है। और भी जातक प्राचीन अजैन इतिहास देखने को मिलता है, उसमें मौर्यसम्राट चन्द्रगुप्त की ही दक्षिणयात्रा अथवा दक्षिण दिशा में मृत्युका कहीं वर्णन नहीं मिला है। दिगम्बरो लोगोंद्वारा कथित और शिलालेख द्वारा प्रमाणित घटना की दो प्रकार से व्याख्या की जा सकती है। (१) यातो महाराज चन्द्रगुप्त का यह वृत्तान्त सत्य घटनाओं के आधार पर खोदा गया होगा अथवा (२) चन्द्रगुप्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रचन्धावली और भद्रबाहु ये दोनों व्यक्ति मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त और श्रुतकेवली भद्रबाहु न होकर इसी नाम के दूसरे भद्रबाहु और कोई दूसरा चन्द्रगुप्त नामधारी राजा होंगे। इस दूसरी व्याख्या को ही आजकल के इतिहासवेत्ता ठीक मानते हैं। ___ उपयुक्त दुर्भिक्षकाल में अनेक जैन साधु दक्षिणदिशामें चले गये और वहां अपने अहिंसा के सिद्धान्त का प्रचार किया यह सर्वमान्य है। इतिहासमें इसके पर्याप्त प्रमाण हैं कि जैनधर्मप्रचारमें यहां उन्हें काफी सफलता भी मिली थी। उस समय धर्मोपदेशोंको पुस्तका. कारमें लिखनेकी आवश्यकता पड़ी। उत्तर भारतके सभी जैन साधुगणोंमें प्रसिद्ध मथुरा नगरी और सौराष्ट्र प्रान्तल बल्लभी नामक नगरी में एकत्रित होकर प्राचीन सूत्रादि और भगवान महावीर के उपदेशों का संग्रह कर लिपिबद्ध किया था। किन्तु दक्षिण प्रान्तीय साधुओं ने उत्तर प्रान्त के साधुओं की तरह न तो कहीं एकत्रित होकर प्रान्तीय मौलिक तत्व और इतिहासादि का संग्रह ही किया और न उत्तर भारत के साधुओं द्वारा संगृहोत सूत्रादि को हो प्रमा. णित माना, बल्कि उन लोगोंने स्वेच्छा पूर्वक अलग ही धर्मग्रन्थ और इतिहासादि की रचना कर डाली। उस समय के लिखे हुए धर्मग्रन्यादि ही वर्तमान दिगम्बर सम्प्रदायवाले जैनियों के प्राचीन धर्मग्रन्थ हैं। इतिहास और प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि इसी प्रकार क्रमशः जैन सम्प्रदाय में दो विभाग हुए और ईस्वी की पहिलो शताब्दो में श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दो विभिन्न सम्प्रदायों का नामकरण हुआ। उपर्युक्त सभी बातोंको भलीभांति मनन करने और ऊपर बतलाये प्रमाणों तथा दोनों संप्रदायों के मान्यग्रन्थों और इतिहासादि के अध्ययन के पश्चात् निरपेक्ष भाव से समालोचना करने से श्वेताम्बर सम्प्रदाय की सब प्रकार से प्राचीनता सिद्ध होती है। श्वेताम्बरी 15 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *११२ * * प्रबन्धावली* लोग ही मूल जैन सम्प्रदाय के हैं और दिगम्बर सम्प्रदाय की पृथक नवीन सृष्टि होनेपर ये श्वेताम्बर नामसे प्रसिद्ध हुए। सेयंवरो य आसं वरो य बुद्धो अ अहव अन्नो वा, समभाव भावि अप्पा लहेइ मोख्खं न सन्देहो। ___-श्वेताम्बराचार्य रनशेखर 'ओसवाल नवयुवक' (सं० १९८६ वर्ष २, अङ्क १०, पृ० ३४५-३५२) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावापुरी का जल मन्दिर आप श्री पावापुरी का नाम अवश्य सुने होंगे। यहां का जलमन्दिर बहुत रमणीय है । यहां का न केवल दृश्य ही मनोहर है वरन इसी स्थानमें जैनियों के अन्तिम तीर्थंकर श्रीमहावीर स्वामी का निर्वाण होने के कारण इसका महत्व और भी बढ़ गया है। आज से २४५७ वर्ष पहले पावापुरी ग्राम में भगवान महावीर का मोक्ष हुआ था और ग्राम के बहिर्भाग में जहाँ उनके भौतिक देह का अग्नि संस्कार हुआ था वहां मंदिर 'जलमंदिर' के नाम से प्रसिद्ध है । श्वेताम्बरी शास्त्रका कथन है कि जहां महावीर तीर्थकर का अग्निसंस्कार हुआ था उस स्थान को पवित्र समझ कर देवता मनुष्यादि उस समय जितने उपस्थित हुये थे वहांको मिट्टो और भस्म उठा ले गये थे और इसीसे वहां गढा हो गया था । पश्चात् अन्य जो लोग वहां गये वे सब भी वहां का थोड़ा २ मिट्टी ले गये और वह गढ़ा क्रमशः तालाव सा हो गया । कार्त्तिक कृष्ण अमावस्या की रात्रिको भगवान का निर्वाण होनेके कारण इस दिवाली पर यहां भारत के नाना स्थान से श्व ताम्बरी और दिगम्बरी दोनों सम्प्रदाय के जैनी लोग आज भी सैकड़ों हजारों की संख्या में आते हैं । उस समय यहां की शोभा देखने ही योग्य होती है । यह स्थान पटना जिला के बिहारशरीफ शहर से दक्षिण और लगभग सात मीलपर स्थित है । वहां का तालाव भी जिसके बीच में वह जलमंदिर है बड़ा विस्तृत है। मंदिर में पहुंचने के लिये सुन्दर पत्थर का प्रायः दो सौ गज लम्बा एक पुल भी बना हुआ है। मंदिर में मकराने की तीन वेदियों में महावीर भगवान और उनके प्रथम शिष्य गणधर गौतम तथा पांचवें शिष्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ११४ * * प्रबन्धावली * सुधर्मस्वामिके चरण श्वेताम्बरी सम्प्रदाय की ओरसे प्रतिष्ठित हैं । दिगम्बरी लोग भी सेवा पूजा करते हैं। बड़े ही दुःखके साथ लिखना पड़ता है कि ऐसे तोर्थस्थान में भी अशांति चल रहा है । शताब्दियों से इस तीर्थ का कुल प्रबन्धादि श्व ेताम्बर सम्प्रदाय की ओरसे ही होता चला आ रहा है; परन्तु खेद है कि मतभेद और कलह बढ़ाने के अभिप्राय से ही दिगम्बरी लोगोंने कुछ दिनोंसे और और तीर्थों की तरह यहां पर भी मुकदमा किया है जिसका फैसला पटना सबजज कोट से हाल ही में हो चुका है । समय, शक्ति और अर्थव्यय के अतिरिक्त इस से कोई लाभ नहीं होता । धार्मिक और सामाजिक विषयों का अंत मुकद्दमाबाजी से कदापि नहीं हो सकता है। हजारों रुपये स्वाहा करके अंत में स्थिर होकर बैठना ही पड़ता है । यदि ये द्रव्य स्वार्थान्ध होकर मुकद्दमे वगैरह में न खर्च किया जाय और ऐसे ऐसे अपव्यय का दूसरा २ सदुपयोग हो तो देशवासियों को इससे कितना लाभ हो ? अभी देश में कितनी अच्छी संस्थायें तथा कितने आवश्यक सर्व साधारण उपकारार्थ कार्य है जो अर्थ के अभाव में शिथिल पड़े हैं, लेकिन इस ओर कोई भी ध्यान नहीं देते । 'श्रीपात्रापुरी ग्राम में जो मंदिर है वह भी बहुत भव्य बना हुआ है । दिगम्बर सम्प्रदाय वाले उस स्थान को अवश्य पवित्र नहीं मानते परन्तु श्व ेताम्बरी लोग भगवान महावीर का वहीं निर्वाण स्थान कहते हैं और उसी मंदिर में भगवान की मूर्त्ति और चरणों की सेवा पूजा करते हैं। यहां महावीर स्वामी के गौतम आदि १८ प्रधान शिष्यों के चरण भी प्रतिष्ठित हैं । प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि शाहजहां बादशाह के समय में बिहार निवासी मथियान श्वेताम्बर श्रीसंघ की ओरसे वर्तमान मंदिर की प्रतिष्ठा सं० १६६८ में हुई थी। यहां पर यात्रियों के ठहरने का अच्छा इन्तजाम है और बिहार निवासी बाबू धन्नूलालजी सुनंती, जमींदार श्वेताम्बर श्रीसंघ की ओरसे देख रेख करते हैं । 'स्वाधीनभारत' ( दिवाली का साधारण अंक, मंगलवार २१ अक्तूवर १६३०; भाग २ अंक ८१ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म पर विद्वानों के चम आज पाठकों के सन्मुख जिन महत्वपूर्ण उद्देश्यों को लेकर यह संघजान पत्रिका उपस्थित हुई है उनमें से एक उद्देश्य जैनधर्म के विषय में फैले हुए भ्रममूलक विचारों को दूर करना भी है, यह चेष्टा सर्वथा प्रशंसनीय है। इस पवित्र धर्म और इसके तत्त्वोंके सम्बन्धमें जो भ्रमात्मक विचार अजेनों में फैले हुए हैं उनका समाधान करना हमारा प्रधान कर्तव्य है। पाश्चात्य विद्वानों द्वारा भारत के विभिन्न धर्म और समाज पर जितने गवेषणापूर्ण निबन्ध और पुस्तकें प्रकाशित हातो गई उन सभों के उल्लेख को यहां आवश्यकता नहीं है परन्तु उन में भ्रमपूर्ण विषयों के समावेश के कारण फलस्वरूप अद्यावधि जो कुछ भ्रम देखने में आते हैं, उन पर ही २-१ शब्द लिखने का साहस किया है। यदि मेरे प्रयास से तनिक भी उद्देश्य की सफलता हुई नो मैं अपने को कृतकृत्य समझूगा। देखिये! हाल में हो भारतीय रेलवे पब्लिसिटी व्युरो से भारत और ब्रह्मदेश' ( India anl Burma ) भ्रमण के लिये एक हैण्डबुक प्रकाशित हुई है जिस के आठवें परिच्छेद पृ० ८३ में विभिन्न धर्मों की वर्णना करते हुए जैनधर्म पर इस प्रकार लिखते हैं कि जैनधर्म के जन्म. दाता महावीर जिन के धर्मोपदेश बौद्धधर्म से मिलते जुलते थे, बुद्धदेव के समकालीन थे। देखिये ! वर्षों होने चले कि कई बड़े२ विद्वानों ने पूर्णरूप से ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध कर के जैनधर्म को • अति प्राचीन बतलाते हुए बौद्धधर्म के शताब्दियों पहले से ही इस का भस्तित्व खोकार किया है। भतः भाज पुनः यह भ्रम हमाद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली * का विषय है। प्रस्तुत पुस्तिका का यह निबन्ध ई० रोजेन्थल एफ० आर० ओ० एस० ( E.Rosenthal F. R. G. S. ) महोदय का लिखा हुआ है। इस देश में पहुंचते हो यदि विदेशियों को इस धर्म की प्राचीनता का भाव इस प्रकार विपरीत हो जाय तो वह शीघ्र दूर होना कठिन होगा। आप लिखते हैं कि ये दोनों याने बुद्धदेव और महावीर हिन्दूधर्म के संस्कारक थे, ध्वंसकारक न थे। पर'तु यह युक्ति भी असत्य है। जैनधर्म के विचार स्वतंत्र हैं, वैदिकधर्म का रूपांतर नहीं है बल्कि स्याद्वादरूपी पक्की नींव पर अवस्थित है। बुद्धदेव के विवार भी वैदिकधर्म के संस्कृत रूप में नहीं हैं। आप ने भी स्वतंत्र क्षणभंगुर मत पर अपना धर्म विचार फैलाया था। जैनतत्त्व पर लेखक महोदय को धारणा यह है कि जैन लोग तिर्यंच और वनस्पति में जीव ( आत्मा ) मानते हैं। यह विचार असम्पूर्ण है। जैनधर्म के तत्त्वों से यदि वे परिचित होते तो इस के जीव विचार भी इस प्रकार अपूर्ण नहीं लिखते। जैन लोग तिर्यंच और वनस्पति के अतिरिक्त जल, अग्नि, वायु पृथ्वी में भी एकेन्द्रीय जीव होना मानते हैं। लेखक आगे चल कर यह विचार प्रगट करते हैं कि जैन लोग हवा के प्रतिकूल नहीं चलते शायद ऐसा करने से उम के मुखविवर में कीट प्रवेश न कर जाय और इसी कारण वे लोग पानीय जल को भी तीन पार छान कर व्यवहार में लाते हैं। पाठक सोचें कि जैनियों के नित्य नैमेत्तिक आचारों पर अजैन लोग किस प्रकार कटाक्ष करते हैं इस का मूल कारण जैन धर्म के विषय में उन लोगों की अज्ञानता है। इसी प्रकार हाल में ही 'इण्डियन स्टेट रेलवे मेगजिन' ( Indian State Railway Magazine ) जुलाई १९३० वर्ष ३ संख्या १० पृ० ७८८ में भी मैसूर अंतर्गत श्रावन वेलागोला के जैन मूर्तियों का एक प्लेट प्रकाशित हुआ है वह दिगम्बर जैन मूर्तियों का है परंतु , उंहें शिव की मूर्ति बतलाया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली* * १९७* देखिये! मिस कैथरिन वल नाम की एक प्रसिद्ध अमेरिकन विदुषी जो संसार भ्रमण के लिये निकली है, थोड़े ही दिन हुए कल. फत्ते आई हैं। आप क्यालिफोर्णिया के अंतर्गत स्यानफ्रांसिस्को के विद्यालय में शिल्पकला का अध्ययन करती हैं। सन् १९२६ में आपने सैकड़ों चित्रों से सुशोभित 'डेकोरेटिव मोटिव्स आफ़ ओरिएण्टल आर्ट' ( Decorative motives of Oriental Art ) नामक एक पुस्तक लिखी है। उस के पृष्ठ २२३ में 'मयूर' पर आप का जो विवरण है उस का कुछ अंश हमारे पाठकों के कौतुहलार्थ नीचे उद्धृत किया जाता है "Another deity shown using the peacock for a mount, is of the five manifestations of Kokuzo, the Hindu Akasa Garbha, a God of wisdom, while again among the Jains of Tibet of the five celebrated Buddhas, the meditative Dhyani of the west also uses a peacock for the same purpose." उपरोक्त अंश देने का तात्पर्य इतना ही है कि निब्बत में भी जैन. धर्मावलम्बी हैं ऐसी अमेरिका निवासियों की भ्रमात्मक धारणा अब तक है, परन्तु तिब्बत में एक भी जैनी नहीं है। इसी प्रकार सारे सभ्य संसार में अपने जैनियों और जैनधर्म के विषय में नाना प्रकार के भ्रममूलक सिद्धान्त देखने में आते हैं। ऐसे फैले हुए विरुद्ध भ्रमों को दूर करना अत्यावश्यक है। 'आत्मानन्द' (जनवरी-फरवरी १६३१, वर्ष २ अङ्क १, पृ० ३१.३३) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जाति का आधुनिक बंधारण दानि कारक है या लाज दायक ? कुछ समय हुआ कि “श्वेताम्बर जैन " ( भा० ४ संख्या ३६ ) में मुनि महाराज श्री विद्याविजयजी का “जैन जाति” शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ था। आपने इसमें जैन जातियों के सामाजिक संकुचित भावों को विशद रूप से दिखलाया है। आपके विचार में इसी कारण जाति संख्या घट रही है। आप प्रश्न करते हैं "जैन जाति का आधुनिक बंधारण जैन धर्म और जैन समाज को हानिकारक है या लाभकारक ?” और प्रत्येक जैनियों को खास कर जैन नेताओं को इस प्रश्न पर विचार करने के लिये कहते हैं। पश्चात् आपने विद्वत्ता के साथ वर्त्तमान जाति बंधारण से समाज और धर्मपर जिस प्रकार अनिष्ट हो रहा है वे बड़ी सुन्दरता से दिखालये हैं । परन्तु मैं समझता हूं कि समाज की यह हानियां जाति बंधारण के लिये नहीं आरम्भ हुई हैं। धार्मिक बंधारण, धार्मिक उपदेशकों और आचार्यों के मतभेद ही इनका मूल कारण हैं। यदि जैन धर्म केवल आचार्यों पर निर्भर न रहता तो जाति बंधारण की कदापि ऐसी सृष्टि नहीं हो सकती। यदि वीर परमात्मा की वाणी सुनने के लिये केवल उन लोगों के मुख कमल की तरफ ताकना न पड़ता, तो संभव है कि " जैन जाति" के वर्त्तमान बंधारण में जिस कारण विशेष हानि उपस्थित है उसे देखने का अवसर न मिलता । यदि धार्मिक विषयों में मतभेद न रहे, यदि धर्म का समाज पर पूर्ण शासन रहे तो समाज में अथवा जाति में मनमाने बंधारण होने की संभावना नहीं रहती । अत: चाहे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धाबली ११६ * श्वेताम्बर चाहे दिगम्बर, चाहे स्थानकवासी चाहे तेरहपन्थी कोई भी हो जैनी नाम धारक समस्त जैनाचार्यों को और जैन धर्मोपदेशकों को नम्र निवेदन है कि धार्मिक मतभेद रूप अग्निकुण्ड जिसमें जैन समाज की तरह और और समाज भी भस्म हो रहे हैं, इस विषय पर गंभीर विचार करें और शीघ्र ही समयानुकूल उपाय निकाल कर समस्त डोन जाति और समाज की रक्षा करें। "श्वेताम्बर जैन" ६ अगस्त १६३१ ( भाग ६ संख्या ३५, पृ० ७ ) 16 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगवान पार्श्वनाथ आज से प्रायः २८०० वर्ष पूर्व इतिहास प्रसिद्ध पवित्र बनारस नगरी में इक्ष्वाकु वंशीय अश्वसेन राजा की महिषी रानी वामादेवी के गर्भ से पौषमास कृष्णपक्ष की दसमी तिथि को आधीरात के समय जैनियों के तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जन्म ग्रहण किया था। युवावस्था प्राप्त होने पर कुशस्थलाधिपति राजा प्रसेनजित की कन्या प्रभावती के साथ उनका विवाह हुआ। भगवान् पार्श्वनाथ तीस वर्ष की अवस्था तक गृहस्थाश्रम में रहने के बाद सर्व परिग्रह परित्याग करके दीक्षा ग्रहण करके घोर तपस्या में लग गये। उन्होंने केवल ८३ दिन तक तपस्या की। इस तपस्या काल में दैविक, भौतिक और मानुषिक आदि नाना प्रकार के उपसर्गों के उपस्थित होनेपर भी धे ध्यानसे विचलित नहीं हुये। ८३ वें दिन के अन्तमें उनको लोकालोक प्रकाशक केवल ज्ञान प्राप्त हुआ, इसी जीवनमुक्त कैवल्यावस्था में १० वर्ष तक तीर्थंकर रूपसे धर्म प्रचार करते हुये ७१७ खष्ट पूर्व १०० वर्ष की अवस्था में श्रावण शुक्ला अष्टमी तिथि को उन्होंने परम निर्वाण लाभ किया। यही भगवान् पार्श्वनाथ की संक्षिप्त जीवनो है। १६ वीं शताब्दी तक इतिहास वेत्ता गण भगवान् पार्श्वनाथ को पौराणिक अथवा काल्पनिक व्यक्ति समझते थे। परन्तु वर्तमान कालमें प्राचीन जैन और बौद्ध ग्रन्थों के अन्वेषण के फलस्वरूप इस धारणा में परिवर्तन हुआ हैं और पार्श्वनाथ ऐतिहासिक युग के व्यक्ति माने जाने लगे हैं। इस समय प्रो० जैकोबी, वीन्सेण्ट स्मिथ, डा. गोंएरीनों, डा. ग्लसेनप इत्यादि पाश्चात्य विकानोंके सतसे अन्तिम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -प्रबन्धावली. • १२१ . तीर्थकर भगवान् महावीर के पूर्व भगवान् पार्श्वनाथ द्वारा प्रणोदित चतुर्याम धर्म प्रचलिन था। ___यही चतुर्याम धर्म जैन धर्मका मूल तत्व है और भगवान् महावीर के माता पिता भी इसी अहिंसादि चतुर्याम धर्मके अनुयायी थे। पश्चात् भगवान् महावीर ने पञ्चयाम धर्म का प्रचार किया। यद्यपि प्रायः ३००० वर्ष बीत गये तो भी भगवान् पार्श्वनाथ के व्यक्तित्व की स्मृति आज भी प्रत्येक जैन के हृदय पट में साहित्य, इतिहास और भाम्कर में अक्षुण्ण रूप से वर्तमान है। श्वेताम्बर मनावलम्बियों के प्रसिद्ध कल्पसूत्र के प्रथम अंश के प्रारम्भ में जो तीर्थकों की जीवनी दी गई है, उसमें भगवान पार्श्वनाथ की केवल संक्षिप्त जीवनीमात्र है। परन्तु प्राकृत और संस्कृत भाषाओं में लिखी हुई उनको अनेक विस्तृत जीवनी मिलती हैं। उनमें से नीचे लिखी हुई कई एक जीवनियां विशेष उल्लेखनीय है : (१) वि० सं० ११३६ पद्मसुन्दर गणि कृत पाश्वनाथचरित्र (२) , , ११६५ देवभद्र सूरि ,, , (सं० प्रा.) (३) ,. ., १२२० हेमचन्द्राचार्य , ( त्रिविष्ठ शलाका पुरुष चरित्र नवम पर्ष) (४) ,, ,, १२७७ माणिकचन्द्र कृत पार्श्वनाथ चरित्र (संस्मत) (५) , . १४१२ भावदेव सूरि ., , , [ डा. ब्लूम फिल्ड इसका भनुवाद अंग्रेजी में किये है। (६) , , १६३२ हेम विजयगणि कृत पार्श्वनाथ चरित्र (सं.) (.) , , १६५४ उदयवीर गणि कृत पार्श्वनाथ चरित्र (सं.) (८) .. , विजयचन्द्र कृत पार्श्वनाथ बरित्र (संस्कृत) (१) , , सर्वानन्द , , , , दिगम्बर सम्प्रदाय में भी पार्श्वनाथ स्वामो के कई जीवन परिष मिलते है। उनमें से वादिराज कृत पार्श्वनाथ चरित्र माणिक्यना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • १२२ * प्रबन्धावली - दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति से प्रकाशित हुआ है और पाश्वनाथ नामक ग्रन्थ का भूधर-कवि द्वारा रचित भाषानुवाद भी सूरत से प्रकाशित हुआ है। अन्यान्य धर्मावलम्बियों की तरह जैनियों ने भी अपने आराध्य तीर्थंकरों को नाना प्रकार स्तुति स्तवनादि की रचना की है। यह प्रथा प्राचीनकाल से लेकर अब तक चली आ रही है परन्तु अन्यान्य तीर्थंकरों की अपेक्षा भगवान् पार्श्वनाथ की स्तुति, स्तोत्र, कविता, भजनादि अधिक परिमाण में मिलते हैं। चाहे पुराने काल के प्राकृत या संस्कृत के स्तोत्रादि हों अथवा देशी भाषाओं के लिखे हुये भांति भांति के भक्ति रस पूर्ण पद्य, सभी में भगवान पार्श्वनाथ के नाम की प्रधानता है। इसलिये भगवान् पार्श्वनाथ को जैन धर्म का मेरुदण्ड कहा जाय तो कुछ अत्युक्ति नहीं होगी। कल्पसूत्र में उनको पुरूषप्रधान विशेषण से विभूषित किया गया है। जनसाधारण में भी भगवान् पार्श्वनाथ का जितना नाम प्रसिद्ध है उतना किसी अन्य तीर्थंकर का नहीं। हजारीबाग जिले में जैनियों का प्रसिद्ध सम्मेत शिखर नामक जो तीर्थ है उस पर्वत पर २४ तीर्थंकरों में से २० तीर्थकरों ने निर्वाण लाभ किया था। इस घटना का उल्लेख श्वेताम्बर और दिगम्बर जैन ग्रन्थों में है। अन्य तीर्थंकरों के नाम से यह पहाड़ प्रख्यात न होकर भगवान पार्श्वनाथ के ही नाम से आजकल 'पारस नाथ पहाड़' पुकारा जाता है। अजैनलोगों की धारणा है कि भगवान् पार्श्वनाथ ही जैनियों के एकमात्र आराध्य देव हैं और यह विश्वास ऐसा दृढ़ हो गया है कि वे किसी जैन मन्दिर को 'पारसनाथ का ही मन्दिर कहते हैं। उदाहरणार्थ कलकत्ते के मानिकतला में हलसी बगान स्थित स्वर्गीय राय बद्रीदास बहादुर वगैरह द्वारा बनवाये हुए जैन मन्दिर पारसनाथ के मन्दिर के नाम से हो प्रसिद्ध है। परन्तु उनमें भगवान पार्श्वनाथ का एक भी मन्दिर नहीं है। इन मन्दिरों में पहिला मंदिर ८ व तीर्थंकर श्रीचन्द्रप्रभ, दूसरा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रबन्धावली* * १२३ * १०वं तीर्थंकर श्री शोतल नाथ और तोसरा २४ वें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी का है। ऐसे ही इस नगरी के बड़ा बाजार स्थित काटन स्ट्रीट के जैन मन्दिर से कार्तिक शुका पूर्णिमा को जो प्रतिवर्ष रथ यात्रा निकलती है वह महोत्सव पारसनाथ के ही नाम से प्रसिद्ध है। परन्तु इस रथोत्सव में १५ वें तीर्थंकर भगवान् धर्मनाथ की प्रतिमा पूजी जाती है। भारतवर्ष के उत्तर, पश्विम और गुजरात प्रान्त के प्रसिद्ध नगर और जैन तीर्थों में जहां जहां हमें जाने का मौभाग्य प्राप्त हुआ है वहां प्रायः सर्वत्र ही हमें भगवान पार्श्वनाथ के मन्दिर देखने में आधे हैं। जिस प्रकार हिन्दुओं का शिबलिङ्ग या शिवमूनि भिन्न भिन्न स्थानों में विभिन्न विशेषणों से सम्बोधित होतो है उसी प्रकार श्री पार्श्वनाथ की मूर्ति भी अनेक स्थानों में भिन्न भिन्न नामों से पुकारा जाती है और पूजी जाती है। इस तरह भिन्न भिन्न नामों की पार्श्वनाथ की मूर्ति की संख्या भी सेकड़ों है। उनमें से कुछ प्रसिद्ध मूर्तियोंको नामावलि पाठकों के सामने उपस्थित कर हम निबन्ध समाप्त करेंगे। जैनियों के उपास्य नीर्थंकरों में क्यों केवल पार्श्वनाथ ही सैकड़ों नामों से अलंकृत होकर पूजे जाते हैं इस का रहस्य आज तक प्रकाशित नहीं हुआ। भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्य परंपरा में रत्नप्रभ सरि ने राजपूताना स्थित ओशिया नामक नगर में अनेक राजपूतों को जैन धर्म में दीक्षित किया था वे ही आगे चल कर ओसवाल नाम से प्रसिद्ध हुए इसी ओसवाल वंशमें इतिहास प्रसिद्ध जगत् सेठ हुए थे और ओसवाल लोग आज भी वाणिज्य व्यवसाय में लोन होकर भारत में सर्वत्र फैले हुए हैं। जेनियों में आसवाल और श्रीमाल दुसरे नीर्थकरों की अपेक्षा भगवान् पार्श्वनाथ में अधिक श्रद्धा भकि रखते हैं। हमारे विचार से श्वेताम्बर सम्प्रदाय के जैन लोग भगवान पार्श्वनाथ की पूजार्चना जिस प्रकार करते हैं वैसी दिगम्बर सम्प्रदाय में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १२४* * प्रबन्धावली नहीं पाई जाती । यद्यपि दिगम्बरी जैन वर्तमान काल में श्व ेताम्बर सम्प्रदाय प्रतिष्ठित पार्श्वनाथ के मन्दिरों में पूजा करते हैं तो भी उनके पार्श्वनाथ की मूर्ति का श्व ेतास्वरियों की तरह भिन्न २ नामों से पूजार्चना करने का प्राचीन इतिहास नहीं मिलता । भगवान बुद्धदेव की जीवनी के सम्बन्ध में विभिन्न भाषाओं में अनेकों छोटो बड़ी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं परन्तु यह बड़े दुःख का विषय है कि आज तक पीछे उल्लिखित पुस्तकों को छोड़ कर किसी जैन या अजैन लेखकों द्वारा रचित गवेषणापूर्ण भगवान् पार्श्वनाथ का कोई भी जीवन चरित्र नहीं दृष्टि गोचर होता । आशा हैं कि पुरातत्त्वविद् विद्वान् गण इस महापुरुष के जीवन सम्बन्धी सभी उपलब्ध तथ्यों का संग्रह कर एक महत्त्व पूर्ण ग्रंथ की रचना द्वारा इस बड़े अभाव की यथा शक्ति पूर्ति करेगें । ( श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा प्रतिष्ठित पार्श्वनाथ की आकारादि क्रमानुसार भिन्न २ नामों की सूची पाठक 'पार्श्वनाथ और शंकरनाथ' में देखें । ) “प्रभात ” – सचित्र उत्सवाङ्क वर्ष २, संख्या ३-४, ( अप्रैल-जुलाई १६३० पृ० ५५-६१ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म में शक्ति-पूजा शक्ति की उपासना का यदि वाह्य रुप लिया जाय तो वह जैन-धर्म में नहीं है। हिन्दु अथवा बौद्ध-तन्त्रों में शक्ति का जो स्वरुप मिलता है वह जैन-धर्म के सिद्धान्तों में नहीं पाया जाता। आत्मा की जो सहज स्वाभाविक शक्ति है और जो अनन्त कही गयी है, उसकी अभिव्यक्ति के अतिरिक्त कोई दूसरी स्वतन्त्र शक्ति नहीं है। इसके तीन स्वरूप हैं-सम्यग दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र। और इन तीनों की अभिव्यक्ति के प्रकार भी असंख्य हैं। यहो जब अलो. किक रूप धारण कर लेती हैं तब उन्हें शास्त्रीय भाषा में 'लब्धि' अथवा चमत्कार कहते हैं। हिन्दू धर्म के अनुसार 'शक्ति' ईश्वरत्व का सर्वोच्च स्वरुप है-इसे ही प्रकृति का व्यक्त-साकार स्वरुप समझिये अथवा ईश्वर की सर्व व्यापक शक्ति समझिये। शक्ति-उपासना के विधि-विधानों का निर्माण तो बहुत पहले ही हो चुका था और अथर्ववेद के समय से ही हम शाक्त-धर्म अथवा आगम-सम्प्रदाय का आविर्भाव पाते हैं। धीरे-धीरे हिन्दू-धर्म से यह मत बौद्ध-धर्म में प्रवेश कर गया और आगे चलकर कुछ अंशों में जैन धर्म के मतावलम्बियों पर भी इसने कुछ प्रभाव डाला। तन्त्र-शाल के सिद्धान्तों तथा साधन का इतना अधिक प्रचार हुआ कि प्रायः सभी धर्म और सम्प्रदायों पर इसका प्रभाव पड़े विना न रहा। परन्तु जैन धर्ममें 'आगम-सम्प्रदाय' जैसी कोई वस्तु नहीं है। हिन्दू-धर्म तथा बौद्ध-धर्म में पुरुष और स्त्री शक्ति का 'महाशक्ति' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १२६ * * प्रबन्धावली* रुप में जो विचित्र वर्णन मिलता है, वह जैन-धर्म में नहीं है। जैनशास्त्र पृथ्वी के ऊपर और नीचे के देवी-देवताओंके निवास तथा श्रेणियों का वर्णन करते हैं। उनकी पूजा-अर्चा और वरदान से सभी प्रकार के सांसारिक उद्देश्यों और कामनाओंकी पूर्ति हो सकती है-- ऐसा माना गया है। जैन-धर्म के श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में शक्ति-उपासना का यही रुप है। यक्ष और यक्षिणी, योगिनी, शासन देवी तथा अन्य देवियों की उपासना-अर्चा के अनेक रुप जैन-धर्म में प्रचलित हैं और इन शक्तियों का आवाहन सामान्यतया मन्दिरों को प्रतिष्ठा और मूर्तियों को स्थापना अथवा किसी तप-अनुष्ठान के प्रारम्भ और समाप्ति में किया जाता है। शक्ति-उपासना का विधान तन्त्रों में मिलता है और हिन्दू-धर्म तथा बौद्ध-धर्म में तन्त्र साहित्य का भरपूर भण्डार मिलता है। परन्तु जैन-धर्म में एक भी तन्त्र नहीं मिलता। 'शक्ति' का दर्शन यन्त्रों में और श्रवण मन्त्रों में होता है और भिन्न भिन्न संकेतों और रुपों में इसकी अभिव्यक्ति हुई है। जैन धर्म में भी ऐस यन्त्रों और मन्त्रों को कमी नहीं है, परन्तु शक्ति-उपासना को किसी प्रकार प्रोत्साहन अथवा समर्थन नहीं मिलता। वरं जैन धर्म में 'शक्ति-पूजा' का प्रचार उठ रहा है। 'कल्याण' 'शक्तिअङ्क' वर्ष ६ संख्या १ ( अगस्त १९३४ ) पृ० ५६५, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ और शंकरनाथ एक बार मुझे लखनऊ के स्वर्गीय लाला चुन्नीलालजी साहब की हवा से एक प्राचीन कोष्टक ( चार्ट ) देखने को मिला था । यह कोष्टक बहुत बड़ा कई फीट लम्बा था और उसमें जैन धर्म के चौबीसों तीर्थंकरों के १७२ वोल क्रमानुसार लिखे हुये थे । कोष्टक में खाने बनाकर प्रत्येक तीर्थंकर के आविर्भाव से लेकर उनके मोक्ष प्राप्ति के समय तक की गणना और बातें दिखाई गई थीं। इन खानों में से एक खाने में प्रत्येक तीर्थंकर के समय के प्रचलित धर्म दिखाये गये थे । जैन धर्म का दूसरा शैव धर्म का और तीसरा सांख्य का नाम था । इससे प्रकट होता है कि जैनियों के मतानुसार भी शैव धर्म अत्यन्त प्राचीन है। शिव या महादेव की पूजा इस देशमें कब से हो रही है, इसका पता इतिहास भी नहीं बता सकता। 'कल्याण' के 'शिवाङ्क' मैं प्रकाशित 'बृहत्तर भारत में शिव' नामक प्रवन्ध से प्रकट होता है कि महेनजोदड़ो की खुदाई बाद से इतिहासज्ञ यह मानने लगे हैं कि भारत में आर्यों के आगमन के पहले से ही शिव पूजा प्रचलित थी । दक्षिण भारत में ईसा से दो शताब्दी पूर्व की प्रतिष्ठित शिव मूर्त्ति आज भी विद्यमान है। कुशाण और गुप्त काल की अनेक शिव मूर्तियों का पता चलता है। कुशाण युग के सिक्कों पर भी शिव चित्र मिलता है I शिब- पूजा भारत के उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम प्रत्येक प्रान्त में पाई जाती हैं। इतना ही नहीं, वरन् भारत के बाहर सुमात्रा जाभा, वाली, कम्बोडिया, मलाया आदि स्थानों में भी, जहां जहां 17 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ • * प्रबन्धावली * हिन्दू धर्म और हिन्दू संस्कृति गई वहां वहां भी शिवोपासना प्रचलित हुई । इन स्थानों में आज भी अनेक शिव मूर्त्तियां मौजूद हैं । जैन धर्म और हिन्दू धर्म का तुलनात्मक अध्ययन करते हुये मुझे यह विचित्र बात दीख पड़ी कि हमारे तेईसवें भगवान् श्री पार्श्वनाथ और हिन्दुओं के भगवान् शंकर में कई बातों में समता है । पहली बात यह है कि जिस प्रकार हिन्दुओं में ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन तीनों मुख्य देवताओं में सब से अधिक पूजा शिव की होती है, उसी प्रकार जैनियों के चौबीस तीर्थंकरों में सब से अधिक श्री पार्श्वनाथ ही पूजे जाते हैं । काशी शिवजी की प्रधान पुरी है । इसलिये वह हिन्दुओं का महान तीर्थ स्थान है । प्रति वर्ष लाखों तीर्थं यात्री भगवान् विश्वनाथ के दर्शन के लिये काशी आते हैं । जैनियों के भगवान् पार्श्वनाथ का जन्म स्थान भी काशी ही है । श्वेताम्बर, दिगम्बर दोनों सम्प्रदाय के हजारों यात्री बाराणसो को पवित्र तीर्थ स्थान समझकर आते जाते रहते हैं । तीसरी बात यह है कि शिवजी की मूर्तियों में सर्प बहुतायत से बनाया जाता है। कुछ शिव मूर्त्तियों के गले में सर्प माल दीख पड़ती है और बहुतों के मस्तक पर सर्प के फनों के छत्र मिलते हैं । इसी प्रकार श्री पार्श्वनाथ की मूर्तियों के मस्तक पर भी सर्प के फनों के छत्र मिलते हैं । चौथी और अर्थ पूर्ण बात यह है कि जिस प्रकार जेन लोग मंदिर की वस्तुओं को देव द्रव्य समझकर अपने काम में नहीं लाते हैं उसी प्रकार शिवजी की पूजा में बढ़ी हुई वस्तुओं को निर्माल्य समझ कर हिन्दू लोग भी व्यवहार नहीं करते और इसलिये शिवजी का प्रसाद कोई नहीं ग्रहण करता । यह बात शंकरजी के अतिरिक्त अन्य किसी देवता पर लागू नहीं है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्राधावली* * १२६ . एक ऐसा प्रवाद प्रचलित है कि जैनाचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने श्री पार्श्वनाथ की स्तुति में "कल्याण मंदिर" स्तोत्र रचकर उज्जयिनी के 'महाकाल शिव' के मन्दिर में पढ़ा था उस पर शिव लिंग फट गया और उसमें से पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट हुई, जो आज तक 'ऐति पार्श्वनाथ' के नामसे प्रसिद्ध है। ___ सबसे महत्व पूर्ण बात यह है कि जैसे शंकरजी को पूजा अलग२ स्थानों में अलग २ नामों से होती है। ठीक इसी प्रकार श्री पावनाथ की पूजा विभिन्न स्थानों में सैकड़ों विभिन्न नामों से होती है। 'काठमांडू' के शिवजी 'पशुपतिनाथ' के नाम से, काशी के 'विश्वनाथ' के नाम से, काश्मीर के 'अमरनाथ' के नाम से पूजे जाते हैं। श्री पाश्वनाथ की पूजा भी विभिन्न स्थानों में विभिन्न नामों से होती है । जैसे 'अन्तरीक्ष', 'चिन्तामणि', 'संखेश्वर', 'कलिकुड' आदि । यहां पर मैं विभिन्न स्थानों के भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् शंकरनाथ के नामों की कुछ सूची देता हूं, जिससे पाठकों को इन दोनों जैन और हिन्दू देवताओं की ऐसी विचित्र समता का अंदाज लग सकेगा। नाम और स्थानों की सूची पार्श्वनाथ खान शंकरनाथ सान १ अंजारा काठियावाड़ १ अचलेश्वर आबू, जोधपुर २ अंतरीक्ष २ अमरनाथ काश्मीर ३ अमीझरा गिरनार ३ ओंकारनाथ नासिक ४ ऐवन्ति उज्जन ४ एक लिंग मेवाड़ ५करेरा मेवाड़ ५ कपिलेश्वर राजगिर ६ कलिकुण्ड केम्बे ६ केदारनाथ हिमालय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १३० * पार्श्वनाथ ७ कलकंठ ८ कल्याणी ६ कन्सारी १० कम्विया ११ कापड़ा १२ किकला १३ काक १४ कोका १५ केशरिया १६ खोखला १७ गम्भारी १८ गौड़ी १६ घृतकल्लोल २० चम्पा २१ चिन्तामणि २२ जग बल्लभ २३ जीराउला २४ टांकला २५ दादा स्थान पाटन पालनपुर कैम्बे गुजरात मारवाड़ पाटन "" कैम्बे पालनपुर गुजरात बम्बई बड़ौदा शंकरनाथ 9 कोटेश्वर ८ कुम्भेश्वर ६ गोकर्ण १० गोपेश्वर ११ गोतमेश्वर १२ गुप्तेश्वर पाटन, घोघा कॅम्बे १३ जम्बूकेश्वर १४ जालेश्वर १५ तारकेश्वर १६ त्र्यम्बकेश्वर १७ दर्शनेश्वर मेवाड़ २५ वटेश्वर सिरोही, अहमदाबाद २६ वानेश्वर कैम्बे १८ दुग्धेश्वर १६ नीलेश्वर २० नागेश्वर * प्रबन्धावको "" अजमेर, पाली, उदयपुर कच्छ, पाटन पाटन, लखनऊ आगरा, मेड़ता, २१ नीलकण्ठ सादड़ी, जैसलमेर, २२ पशुपतिनाथ नेपाल मुर्शिदाबाद २३ पिप्पलेश्वर मथुरा अहमदाबाद, २४ पञ्चवक्त्रेश्वर हरिद्वार २६ नक्खंडा २७ नव पल्लव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat स्थान भुज कुम्भकोनम् लखीमपुर मथुरा कुम्भकोनम् बृन्दावन, कानपुर, जबलपुर कांची जलपाईगुड़ी हुगली नासिक अयोध्या रुद्रपुर पटना कुम्भकोनम् अयोध्या कालींजर, प्रयाग, सिकोहाबाद कुम्भकोनम् २७ वालकेश्वर बम्बई २८ वराहेश्वर २६ भूतेश्वर ३० भुवनेश्वर ३१ मन महेश्च बिन्ध्याबल मथुरा उड़ीसा, चित्रकूट पठान कोट www.umaragyanbhandar.com Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •प्रधावली. पार्श्वनाथ स्थान शंकरनाथ स्थान २८ नव रंग पाटन ३२ महाकाल उज्जैन २६ नवलक्षा पाला ३३ मुक्तेश्वर गोरखपुर ३० नाकाड़ा मेवाड़ ३४ मावण्येश्वर पुरी ३१ पंचासरा गुजरात ३५ मत्स्येश्वर लङ्का ३२ पल्लवीया पाटन ३६ माधवेश्वर मानसरोवर ३३ फलवर्द्धि __ मारवाड़ ३७ रंगेश्वर मथुरा ३४ बरकाना , ३८ रामेश्वर सेतुवन्ध ३५ भद्रावती बगर ३६ रूपनाथ श्रीहद ३६ भीड़भंजन ऊणा, खेड़ा ४० वैद्यनाथ सौंताल परगना, ३७ मक्शी ग्वालियर कांगड़ा ३८ मन-मोहन पाटन ४१ विश्वनाथ काशी ३६ मनरगा महिसाना ४२ वृहदीश्वर तंजोर ४० मुनि पाटन ४३ वामनेश्वर कुरुक्षेत्र ४१ लोढ़न डभोई ४४ वीरश्वर इडर ४२ लोद्रवा जैसलमेर ४५ सिद्धान्त राजगिर, ४३ बिजय-चिन्तामणी अहमदाबाद साहाबाद ४४ शेषफण जूनागढ़ ४६ सोमनाथ काठियावाड़ ४५ शखेश्वर गुजरात ४७ सम्मिदेश्वर चित्तौड़ ४६ सहस्रकूट पाटन ४८ सर्वेश्वर कुरुक्षेत्र ४७ सहस्रफण , जोधपुर ४६ सङ्गमेश्वर त्रिवेणो ४८ सांबलिया पाटन ५. हायलेश्वर हाले विद ४६ सोम चिन्तामणि कैम्बे ५० स्तम्भन पाटन 'सुधा' वर्ष , खंड १, संख्या ५ (दिसम्बर, १९३५) पृ० ५३५.५३८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसवालों की नत्पत्ति पर विचार जैनियों के सर्वज्ञ वचनानुसार यह संसार क्षण २ में परिवर्तनशील है। जब हम स्वयं केवल साठ सत्तर वर्ष की हो अवस्था में नाना प्रकार के हेर फेर देखते हैं तब सैकड़ों नहीं सहस्रों वर्ष की बात में परिवर्तन होना सर्वथा सम्भव है। आज भारतवासी वर्तमान सरकार के इस शांतिमय राजत्व के समय अपने २ धर्म इतिहास आदि के खोज में तत्पर हैं। मुझ को जहां तक ज्ञान है जैनियों के इतिहास का ऐसा अध्याय, कि जिस में पूर्वाचार्यों ने कौन समय किस स्थान में किस २ जाति को अहिंसा का उपदेश देकर जैनी बनाया, इसका वर्णन ठोक २ नहीं मिलता है। किस कारण से उन लोगोंने इस विषय को अन्धकार में ही रहने दिया इसका भी पता हमें अभी तक नहीं लगा है। जन-प्रवाद और किम्बदन्तियों को बिलकुल ही असत्य समझ कर दूर कर देना भी बहुत कठिन है बल्कि बहुतसा ऐतिहासिक तत्व उन्ही प्रवादों और किम्वदन्तियों से हो पाया जाता है। चतुर्विध मंघ के साधु साध्वी, श्रावक-श्राविका के विषय में प्राचीन भण्डारों के अगले पत्र अथवा कुछ प्राचीन नाघ्र शासन या शिला लेखों के सिवा कोई क्रमवार इतिहास का आज तक पता नहीं मिला है। जो कुछ पुस्तकाकार में इस विषय पर छपे है और मेरे देखने में आये है वे सब अधिकांश में विश्वस्त प्रमाणों पर लिखे हुए नहीं भात पड़ते मोर बहुत सो अत्युक्तियों से भरे हुए हैं। ऐसी अवस्था में मैंने ऐसे विषयों से अलग रहना हो उचित समझा था। परन्तु हमारे इस "जैसवाल जेन" पत्र के सुयोग्य सम्पादक महाशय की भाशानुसार मैंने अपने दो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१३४. ** प्रबन्धावली. एफ विचार पाठकों के सम्मुख उपस्थित करने का साहस किया है। आशा है कि सुज्ञ पाठक इसे क्षीरनीरवत् अङ्गीकार करेंगे। भविष्य में हमारे भी जो और नये विचार होवेंगे उन्हें पाठकों को सेवा में उपस्थित करूंगा। इस पत्र के प्रथम वर्ष के १०-११ संख्या के २८२ पृष्ठ से ८६२ पृष्ठ तक के "जैसवालों का प्रादुर्भाव" शीर्षक लेख में "जैसवालों" का जो हाल लिखा है मैं उस लेख से सहमत नहीं हो सकता। लेखक महाशय ने पूर्ण गवेषणा करके ही विचार पूर्वक लिखा होगा। परन्तु चाहे मेरा विचार भ्रम हो चाहे उनका भ्रम हो इस के लिये कोई भी सोच नहीं है। परन्तु जहां तक सम्भव हो असली तत्व को प्रकाश करना और पूर्व भ्रम को दूर करना ही ऐसे खोजों का मूल सिद्धान्त समझना चाहिये। उस लेख में लिखा है कि "जैसवाल" क्षत्रो हैं और शेर का बच्चा और भेड़ियों के दृष्टान्त से उन लोगों का वैश्य कह. लाना बताया है। दूसरी बात यह है कि उस लेख में लिखते हैं कि दक्षिण में “जैसनेर" नाम का स्थान था। उस देश का राजा इक्ष्वाकु वंश का क्षत्री था। उसी के कुटुम्बी जैसनेर वाले कहलाते थे। जो कि धीरे धीरे पीछे बिगड़ कर जैसवाले या जैसवाल कहलाने लगे। "बोकानेर से युक्ति वारिधि उ० श्री रामलाल जी गणि ने “महाजन बंश मुक्तावली” नामक एक पुस्तक छपवाई है। उस पुस्तक के १६४ पृष्ठ में मध्य देश के "८४ वणिक" जातियों के नाम के ३२ संख्या में "जैसवाल" का नाम लिखते हैं। उसी में नं० ३० में "जायलावाल" नाम है और उक्त 'जायलावाल' जायल स्थान से कहलाने का हकीकत है। परन्तु जैसवाल के विषय में उस पुस्तक में कुछ हाल नहीं लिखा है कि वे वैश्य हैं या क्षत्री । जैनियों के सर्व साधारण जाति निमन्त्रण में जो साढ़े बारह न्यात एकत्रित होते हैं उसमें 'जैलवाल' का नाम नहीं पाया जाता है। अवश्य मुझे यह बात अच्छी तरह ज्ञात है कि यहसाढ़े बारह न्यातों का स्थान विशेष और पुस्तक विशेष में दो चार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली : ★ १३५ * हेर फेर हैं । परन्तु किसी में भी मुझे यह नाम मिला नहीं । यति श्रीपालजी मे “जैन सम्प्रदाय शिक्षा" नाम की जो पुस्तक छपवाई है उसके ६८५ पृष्ट में मध्यप्रदेश ( मालवा ) की बारह न्यातों में संख्या ६ में " जैसवाल" नाम है और उसी पुस्तक के ६८७ पृष्ठ में चौरासी न्यात और उनके स्थानों के वर्णन में ३२ संख्या में “जैसवाल गढ़" से “जैसवालों” की उत्पत्ति लिखी है । उसीके ६८८ पृष्ठ में पुन: दक्षिण प्रान्त की ८४ न्यातों के नामों में संख्या ५ में " जैसवाल” नाम पाया जाता है । मुझको जोधपुर ( मारवाड़) में वहां के यतियों के पास जो ८४ जति श्रावकों के नाम मिले हैं उसमें नं० १६ में “जायलावाल” नाम है । इस विषय पर जितनी हस्तलिखित या छापे की पुस्तकें. हमारे दृष्टिगोचर हुई हैं किसी में भी " जैसवाल" जैनियों का क्षत्री या राजपूत से जैनी होना नहीं पाया गया है । यदि कोई महाशय यह सोचें कि हमारा स्थान क्षत्रियों से उठा कर एक क्रम नीचे वैश्यों में करना ठीक नहीं उनसे मैं विनय पूर्वक कहना चाहता हूं कि अपने जैनियों में हिन्दुओं की भांति वर्णभेद नहीं माना गया है । श्री ऋषभ देव आदि तीर्थंकरों के समय से ही सब मनुष्य एक थे । पश्चात् “असिजीव” “मसिजीव" आदि अर्थात् क्षत्रिय वैश्य कहलाने लगे 1 तथा अपने जैनियों के धर्मानुसार "जातिमद" "कुलमद" आदि पापों की गणना में है । इस कारण सुज्ञ पाठक तत्व को अन्वेषण करते हुये उच्च नीच का विचार न लावेंगे। मूल विषय पर ध्यान देने से यह सम्भव जान पड़ता है कि जैसे ओसिया से ओसवाल, भीनमाल से श्रीमाल, खंडेले से खंडेलवाल, बघेरा से बघेरवाल आदि हुये हैं उसी तरह चाहे मालवा चाहे राजपुताना के जैसलगढ या और कोई उसी तरह के नाम के स्थान से " जैसवाल" शब्द की उत्पत्ति हुई हो परन्तु दक्षिण के जैसने से होना कदापि सम्भव नहीं है। मुझे जहां तक ज्ञात है वर्त्तमान या प्राचीन काल में दक्षिण के किसी भी स्थान के नाम के अन्त में "नेर” नहीं पाया जाता। राजपुताना में ही ऐसे नाम पाये जाते हैं जैसे “गजनेर” “बीकानेर” इत्यादि । 15 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १३६ * * प्रबन्धावली * ___ मैं पुरातत्व विषय के खोज में जो कुछ संग्रह कर सका हूं उसमें हमारे इस "जैसवाल जैन" के विषय में दिल्ली में नवघरे के मन्दिर में एक सर्व धातु की प्रतिमा पर सं० १५०४ का लेख पाया है जिसमें इस प्रकार लिखा है :___ सं० १५०४ वर्ष आ० सु० ६ श्री मूलसंघे भ० श्रीजिनचन्द्र देवाः जैसवालान्वये सा० लर भार्या रैनसिरि तत्पुत्र सोनिग भार्या प्रेमा प्रणमति ।” (१) ___ और पटने (पाटलिपुत्र ) के जैन मन्दिर में सं० १६१० का निम्न लिखित लेख पाषाण को मूर्ति पर मौजूद है :___ “श्री सं० १६१० शाके १७७५ साल मिती वैशाख शुक्ल पञ्चम्यां गुगै पाटली-पुरसर जिनालय पूर्वक श्री श्री नेमनाथ मन्दिरजी जैसवाल माणकचन्द तत्पुत्र मटरूमल तत्पुत्र सीवनलाल प्रतिष्ठा कारायितु श्रीरस्तु ॥” (२) __इस से यह बात निश्चित है कि "जैसवाल" यह नाम कुछ नया नहीं है। साढ़े चार सौ वर्ष से भी अधिक समय से इसका अस्तित्व पाया जाता है और दिगम्बरी आचार्योंने ही जहां तक सम्भव है इन लोगों को प्रतिबोधित किया है। मैंने अन्दाज दो हजार जैन लेख संग्रह किया है तिस में उपरोक्त केवल दो लेखों के और कोई जैसवालों के प्रतिष्ठित प्रतिमा अथवा शिलालेख नहीं पाया। इस से यह भी सिद्ध होता है कि उनकी संख्या अधिक नहीं थी। चारण और भाटों के पास जो वंशावली मिलती है उसमें अधिकांश ओसवालों का ही वर्णन मिलता है और उन लोगोंको क्षत्रिय राजपूत से जैनी होनेका संतोषदायक प्रमाण भी मिलता है। उपर्युक्त दो एक विचारों से जैसवालों की उत्पत्ति का आगे पर खोज करने के प्रबन्ध में थोड़ा भो सहारा पहुंचेगा तो मैं अपना प्रयास सफल समगा। (१) जैन लेख संग्रह, प्रथम खण्ड पृ० ११२ नं० ४७२ । (२) जैन लेख संग्रह, प्रथम खण्ड पू० ८२ नं० ३२८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय पुरुष बलवान एक प्रबल पराक्रांत विजयी सम्राट् की तरह समय सदाकाल अपना आधिपत्य विस्तार कर रहा है। यह किसी का दास नहीं हैं। जगत के सर्वस्थानों के सर्व जीवों पर इसका शासन अखण्ड विद्यमान है । चाहे तीर्थंकर, चक्रवर्ती, शिशु चाहे युवक कोई भी क्यों न हों, समय की गति के अवोध्य करने को कोई समर्थ नहीं। समय ही एक अनादि अनन्त ऐसा पदार्थ है जिसका स्थान जैनियों के शास्त्र में विलक्षण रूप से वर्णित है। जैनागम के स्थान २ पर तेणं कालेणम् तेणं समयेणम्' का उल्लेख मिलता है। जो विषय स्वप्न के अगोचर था वह समय के ही कारण प्रत्यक्ष रूप से दृष्टि के सम्मुख मूर्त्तिमान उपस्थित है। यदि संसार में कोई भी अमूल्य और अतुलनीय पदार्थ का ज्ञान सर्वोत्कृष्ट समझा जाय तो समय का नाम ही सर्वप्रथम रहेगा । काल की अज्ञानता के कारण ही मनुष्य को समय २ पर हताश होना पड़ता हैं । समय का पूर्ण रूप से महत्व जानने के पश्चात् कार्य में अग्रसर होने से ईप्सित फल मिलने में सन्देह नहीं रहता । आज यदि हमारे नवयुवक भाई समयानुकूल अपना संगठन, विद्याभ्यास और व्यापारिक चर्चा में तत्पर रहें, गुरुजन समयानुकूल देशोन्नति, समाजोन्नति पर ध्यान दें और धर्माचार्य साधुलोग समयानुकूल धर्मोन्नति के पथ-प्रदर्शक बनें तो आज हम भारत के और २ समाजों के साथ ही नहीं वरं उनसे भी कहीं आगे बढ़ सकते हैं। यदि लकीर के फकीर होकर सदा समय के मूल्य को तुच्छ ही समझते रहेंगे तो हमलोग धार्मिक, व्यापारिक, अथवा सांसारिक किसी प्रकार की उन्नति नहीं कर सकेंगे। एक समय में ही इतनी शक्ति है बो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १३८ * * प्रबन्धावली * असंभव को संभव बना सकता है । इसी कारण मैं प्रथम ही कह चुका हूं कि हमारे जेन शास्त्रों में समय को : बहुत उच्च स्थान दिया गया है । चाहे पुरातत्व देखिये चाहे नव्य इतिहास अबलोकन कीजिये आपको प्रत्येक में समय का झलकता हुआ चित्र दिखाई पड़ेगा । इसलिये जो व्यर्थ कार्यों में अपने समय, शक्ति और अर्थ व्यय करते हैं वे बड़ी भूल करते हैं। आज हमारे देशमें किस वस्तु की विशेष आवश्यकता है, आज हमें कैसी शिक्षा दी जानी चाहिये, आज किस ढङ्ग के व्यापार से द्रव्योपार्जन कर सकते हैं, आज किस विधि से हम धर्म पालन कर सकते हैं इत्यादि विचार यदि समयानुकूल न होंगे तो हमारी समस्त शक्ति नष्ट होगी । अतएव हमारे नवयुवकों का प्रथम कर्त्तव्य यही है कि समय के महत्व को अपने अन्तः करण में सदा स्मरण रखें । एक समय था कि हमारे ओसवाल भाइयों के द्वार पर वृटिश सरकार के प्रतिनिधि साक्षात् करने के लिये अपेक्षा किया करते थे और आज एक समय है कि उसी सरकार की आधीनता में ओसवाल भाइयों का स्थान भारतीय अन्य कौमों के बहुत पीछे है । यदि मनुष्य समय का ज्ञान सम्यक् प्रकार उपलब्ध करके यथासमय कर्मक्षेत्र में अग्रसर होवे तो असम्भव को भी अनायास से प्राप्त करने को समर्थ हो सकता है । एक समय था जब कि मुसलमानों के अत्याचारों के कारण हिन्दू ललनाओं के मान मर्यादा की रक्षा करनी कठिन हो गई थी । स्त्री शिक्षाके विषय में तो कहना ही क्या, बालिकाओं को अन्तःपुर से बाहर भेजना भी संकटपूर्ण था । आज एक समय है कि प्रत्येक समाज में स्त्री शिक्षा अत्यावश्यक समझी जाती है। यदि समय की अज्ञानता के कारण इससे पूर्ण लाभ न उठा सकें तो समय परिवर्तन होनेपर जो कुछ त्रुटियां रह जांयगी वे कदापि पूर्ण न हो सकेंगी और सदाकाल के लिये हानिकारक तथा कष्टदायक हो जायगी । अतः विशेष रूप से हमारे युवकों को उचित है कि संसार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली १३६ * क्षेत्र में समय को सर्वश्रेष्ठ स्थान दें और इसी बलवान पुरुष की छाया में रहते हुये कर्मक्षेत्र में अग्रसर होकर अपने धर्म, समाज और वंश का मुखोज्ज्वल करें । देखिये ! जिन मुसलमानों के भाव परदे के विषय में इतने कट्टर थे, यह समय की ही खूबी है कि उनलोगों के भी विवारों में आज परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं। यहां तक कि आफगानिस्तान के अमीर अमानुल्लाह भी इस प्रथा के घोर विरोधी हैं। इसी प्रकार और २ त्रिषयों में भी अपना विचार समयानुकूल कर लेना चाहिये । पाठक स्थिरचित्त से किसी भी ओर ध्यान देंगे तो समय का प्राधान्य ही दृष्टि- गोचर होगा । आज यद्यपि आपका प्राप्य अक्षरशः सत्य है तौभी राजद्वार में निर्दिष्ट समय के उपरान्त उपस्थित होने से आपको कुछ भी फल न मिलेगा। अवसर से नूकने पर केवल पश्चाताप ही रह जाता है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी समय के ऊपर कैसी अच्छी शिक्षाप्रद कविता लिखी है 'का घरथा जब कृषी सुखाने, समय चूक पुनि का पछिताने' । अतः नवयुवकों से मेरा हार्दिक अनुरोध है कि वे किसी प्रकार आलस्य में अथवा प्रमाद में डूब कर समय को नष्ट न करें, अवसर हाथ से न जाने दें तथा उसकी उपेक्षा न करें । 'ओसवाल नवयुवक' - युवकांडू वर्ष २, संख्या १ ( अप्रैल १९२९ ) पृ० ३६.३७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोसवाल समाज का अग्निकुण्ड मैं भी इस विषय पर दो अक्षर लिखने का साहस कर रहा हूं। सहृदय पाठक यह न समझें कि मैं अपनी प्रशंसा, अथवा रौप्यपदक प्राप्तिको आशा से यह लिख रहा हूं, बल्कि ओसवाल नवयुवकों के सन्मुख अपना विचार प्रगट करना एक कर्त्तव्य सोच कर ही कुछ लिखना उचित समझता हूं। इससे यदि विचारशील पाठक कुछ भी सार ग्रहण करेंगे तो मैं अपना परिश्रम सफल समदूंगा। देखिये, "ओसवाल समाजका अग्निकुण्ड" इस शीर्षक में 'ओसवालसमाज' गुणवाचक है और 'अग्निकुण्ड' मुख्य शब्द हैं जिसका अर्थ स्पष्ट है। जिस कुण्ड में अग्नि विद्यमान है उसमें किसी को भी कुछ प्राप्ति की आशा नहीं रहती है-सब स्वाहा हो जाता है। जब तक किसी दूसरे की सहायता से उस अग्निकुण्ड से अलग न हो सकेंगे तब तक बचने की आशा दुर्लभ है। उस अग्निकुण्ड को शीतल कर दिया जाय अथवा पूर्ण रूपसे ध्वंस कर दिया जाय तब ही समाज की रक्षा हो सकती है। ओसवाल नवयुवक समिति के पत्र के नान्दीमुख ( सिंहावलोकन ) से ही यह विषय छिड़ा हुआ है। पश्चात् कई संख्याओं में कई एक सजन इस विषय पर अत्युत्तम मर्मस्पर्शी प्रबंध लिखते आये हैं; किन्तु इस गहन विषय पर उन लेखों से शायद पूर्ण रूपसे सन्तोष नहीं हुआ होगा इसी कारण 'प्रतियोगिता' में पुनः यही विषय रखा गया है। अब यह समस्या उपस्थित हुई कि वह परम शत्र महा अनर्थकारी ऐसा कौनसा अग्निकुण्ड है जिससे ओसवाल समाज का ध्वंस निश्चित है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • प्रबन्धावली. यदि सरकारी सेन्सस (जनसंख्या) की ओर दृष्टिपात करें तो जेनियों की संख्या जैसी दिनोंदिन घट रही है, जिस अनुपात से उक्त जन संख्या ह्रास होती जा रही है उससे उसके अस्तित्व का लोप अवश्यंभावी प्रतीत होता है। बहुत से विद्वानों का मत है कि जैन समाज में आरोग्यता का अभाव, बाल-विवाह, व्यायाम का अभाव, और विश्वास-प्रियता आदि कारणों से ही समाज की जन संख्या घटती जा रही है। ऐसे अग्निकुण्ड से समाज की रक्षा होने का उपाय कठिन नहीं है। यदि समाज से बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह आदि कुप्रथाएं हटा दी जाय, अविश्वासिता को तिलांजलि देवें, शुद्ध वायु, जल और खाद्यवस्तुओं की व्यवस्था करें, एवं नियमित व्यायाम करें तो दिनोंदिन समाज में सबल संतति की संस्थामें अवश्य वृद्धि होगी। यदि अपने समाज का अग्निकुन्ड अविद्या समझी जाय, अशिक्षा के कारण समाज प्रतिदिन होनबल होती दिखाई पड़े तो इस अग्निकुन्ड से बचनेका उपाय कष्टसाध्य नहीं है। अविद्या हटाने के लिये स्थान २ में प्राथमिक शिक्षा, उच्च शिक्षा, स्त्री शिक्षा, व्यापारिक शिक्षा आदि शिक्षाओंका उचित प्रबन्ध होने से अपनी समाज के लोग क्रमशः सुशिक्षा प्राप्त करके ऐसे अग्निकुन्ड से मुक्त हो सकते हैं । यदि सामाजिक अन्तर्विलय अर्थात् समाज में दलबन्दियां, अन्याय उत्पीड़न आदि अत्याचारों को अग्निकुण्ड की उपमा दी जाय और ये सब समाज के घातक समझे जायं तो ऐसी दशा में भी सुधार हो सकता है। परन्तु मेरे विचार से केवल ओसवाल समाज का ही नहीं समप्र जैन समाज का धार्मिक प्रश्न जिस प्रकार जटिल होता जा रहा है और घर्तमान धार्मिक स्थिति जैसो छिन्न भिन्न होती जाती है उससे यह धार्मिक अवनति ही समाज का ज्वलन्त अग्निकुण्ड सा प्रतीत होता है। चाहे शेताम्बर समाज देखिये या दिगम्बर समाज, कहीं गच्छादि के झगड़े, कहीं पंडिन पार्टी और बावू पार्टी इन सब के बीच घोर कलह का समाचार किसी को अविदित नहीं है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १४२ * * प्रबन्धावली* यदि आप श्वेताम्बर समाज पर द्दष्टिपात करें तो आपको प्रथम ही समाज में संवेगो, स्थानकवासी और तेरहपंथियों का प्रधान भेद देखाई पड़ेगा। समाज में एक सजन संवेगी धर्म भेद पर विश्वास रक्खें तो किसो को हानि नहीं पहुंचती परन्तु यदि वह सज्जन दूसरे स्थानकवासी अथवा तेरहपंथी सज्जनों पर द्वेषभाव से अनुचित आक्षेप करें तो समाज की उन्नति कहां? जिस जगह कषाय के वश मनुष्य अपनी शक्ति का व्यय करते हैं तो वह केवल समाज का ही क्षय करते हैं। धार्मिक विषयों के दोष गुण का विचार करना समाज का कार्य नहीं है, तथापि समाज स्थित एक मतवाले दूसरे मतानुगामी के विरुद्ध नाना प्रकार के आक्षेप और दोषारोप करते हैं ऐसे दृष्टान्त बहुत से विद्यमान हैं। मैं अच्छी तरह जानता हूं कि धार्मिक विषय की अवतारणा करना एक दुःसाहस मात्र है। परन्तु जब मैं देखता हूं कि इसी ओसवाल समाज में तपगच्छ और खरतर गच्छ के विषय में स्थान स्थान में सभायें बैठी, प्रस्ताव पास हुये, हैण्डबिल पुस्तकें छपी, बाईस टोले वाले और तेरहपंथी परस्पर में अयथा कटुक्ति व्यवहार करने लगे, कहीं सुनने में आता है कि एक अम्नायवाले दूसरे अम्नायवालों के साथ धार्मिक चर्चा की ओट में निन्दा चर्चा कर रहे हैं, कहीं संबेगी तेरह. पंथी को और कहीं तेरहपंथी संवेगी को घृणित दृष्टि से देख रहे हैं और अपने अपने सम्प्रदायवाले धर्मराज अर्थात् साधु-आवार्य वगैरह ऐसे गर्हित कार्यों में मदद पहुंचा रहे हैं तो समाज का सच्चा अग्निकुण्ड इसी को मानना पड़ता है। इसी धार्मिक अग्निकुण्ड में गिरकर अपने समाज को दशक्ति अमूल्य समय और अगणित अर्थ नष्ट हो रहा है। जहां तक मेरा अनुभव है समाज की धार्मिक अनेकता रूपी यह एक मात्र महान् अग्निकुण्ड सन्मुख सर्व क्षण धधक रहा है। आज यदि जैनियों में श्वेताम्बर दिगम्बर आदि फिरके न होते तो जैन समाज का बल कदापि न घटता और साथ साथ ओसवाल समाज भी उत्त रोत्तर उन्नति पथ पर अग्रसर होती हुई दिखाई पड़ती। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली* * १४३. सजनों! अपने जैनी भाई अधिकतया व्यापार में ही लगे रहते हैं। धार्मिक विषय को सोचने का अवसर भी कम रहता है इसीलिये केवल एक श्रद्धा अथवा विश्वास पर ही कुल क्रमागत अपने अपने श्रावक धर्म को ठीक मान लेते हैं। ऐसे धार्मिक विषयों पर धर्माचार्यों में मतभेद होकर वही बला समाज के शिर पर आ जाती है तो वही अग्निकुण्ड हो जाता है। पाठक यह न समझें कि ओसवाल समाज में जितने भिन्न भिन्न धार्मिक मत देखने में आते हैं वे सब एक हो जाय, कारण ऐसा होना असंभव सा है। परन्तु धार्मिक भेदों को केवल विश्वास की वस्तु समझ कर अपने सम्प्रदाय में सन्तुष्ट रहें, दूसरे सम्प्रदायवालों से क्लेश न बढ़ावें और इन मतभेदों से प्रचंड अग्निकुड न वनावें तो समाज की रक्षा संभव है। ऐसा होने से क्रमशः एकता भी बढ़ती जायगी, जैन समाज अखन्ड रहेगा और साथ साथ ओसवाल समाज भी उच्च कोटि की दिखाई देगी। __ मैं ने समाज के अग्निकुन्ड के विषय में अपना विचार प्रगट किया है। यदि प्राचीन काल से अद्यावधि पर्यन्त भारत का इतिहास देखा जाय तो यहां के प्रायः सभी समाज वालों में किसी न किसी समय उनके धार्मिक विषयों ने अग्निकुन्ड रूप में परिणत होकर उन्हे अगणित हानि पहुंचाई थो। समय समय पर भारतीय समाज को यहो धार्मिक वादानुवाद किस प्रकार छिन्न भिन्न करता रहा इसके दृष्टान्त वर्तमान काल तक यथेट मिलेगें। आज भी हिन्दू समाज में मत-मतान्तर के लिये परस्पर में किस प्रकार फूट देखने में आती है इसके वर्णन की आवश्यकता नहीं। समाज के कितने उत्कृष्ट जीवन इसी प्रश्न को हल करने में नष्ट हो गये। बहुत सी आर्थिक हानि के साथ परस्पर में क्लेश बढ़ते हुए इसी अग्निकुन्ड में अच्छे अच्छे समाज भी नष्टप्राय हो रहे हैं। एक भारतवर्ष ही क्या, अन्यान्य देशों के इतिहास में भी यही सत्य स्पष्ट मिलता है। यूरोप में जिस समय रोमन केथोलिक ( Roman Catholic) धर्म पर, उनकी पोपलीला पर, 19 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • १४४ . * प्रबन्धावली. नवीन प्रोटेस्टेन्ट ( Protestant ) धर्मका आक्रमण हुआ था, उस समय हजारों जीवन नष्ट हुए थे। मुसलमानों में शिया, सुन्नी के भेद से भी उस समाज को बहुत कुछ हानि पहुंची थी। आज इसी मतभेद से अमीर अमानुल्लाह को देश त्यागी होना पड़ा है। विधवा विवाह आदि सामाजिक विषयों पर धार्मिक प्रभाव बहुत पड़ा हुआ है। एक पक्षवालों के धार्मिक विचार जबतक संपूर्ण रूप से दूसरों के विचार के साथी न बनेगे तब तक समाज में ऐसी विवाह प्रथा कदापि चलने की आशा नहीं है। इसी प्रकार वर्णाश्रम पर धार्मिक छाप लगा कर अछूतोंके ऊपर के कार्य की सफलता बहुत कुछ अन्धकार में फेक दी गई है। धार्मिक विषय और आध्यात्मिक चर्चा को गौण रख कर पाश्चात्य लोग जड़ विज्ञान में अब बहुत अग्रसर हो गये हैं। इस समय उनके समाज में यह धार्मिक अग्निकुन्ड बहुत दबा पड़ा है। इसी कारण उनके समाज में यह धार्मिक मतभेद प्रज्वलित अग्निकुन्ड की तरह उनको ध्वंस करने में असमर्थ हैं। अपने समाज में भी धार्मिक विषय को पृथक् करके शिक्षा विषय पर, खास्थ्य के नियम पर, कुरीतियों को हटाने पर और अन्यान्य आवश्यकीय सुधार पर जिस समय अपने ओसवाल नवयुवक कमर कसेंगे उसी समय ऐसे अग्निकुन्ड से रक्षा पाने की आशा हो सकती है अन्यथा समाज का पतन अवश्यंभावी है। ___मैंने किसी मत पर व्यक्तिगत आक्षेप के भाव से नहीं लिखा है। समाज का धार्मिक अनैक्य विचार हृदय में विशेष रूटकता है। इसी कारण जो कुछ मैं सोच रहा हूं वही पाठकों के सन्मुख यथावत् उपस्थित किया है। अतः समस्त ओसवाल भाईयों से निवेदन है कि मेरे वक्तव्य पर अवश्य ध्यान दें और समाज हित के लिये उचित व्यवस्था सोच कर प्रबन्ध करें। अलमति विस्तरेण । 'ओसवाल नवयुवक' वर्ष २ संख्या ८ (अग्रहण १९८६) पृ० २५५-२५८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयोसवाल उत्पत्ति-पत्र अपने प्राचीन आवार्य और विद्वान् लोग यद्यपि बहुत से ऐति. हासिक रचनादि और नाना प्रकार के साहित्य का पूरा फण्ड रख गये हैं, परन्तु वे अपने उपदेश द्वारा अन्य मतियों को जैनी बनाने का कोई विशेष इतिहास नहीं छोड़ गये हैं। कुलभाट और चारणों के पास जो विवरण मिलते हैं वे अधिकतया कल्पित और अयुक्ति पूर्ण होते हैं। इस हेतु ऐतिहासिक दृष्टि से उनका स्थान उच्च नहीं है। श्री वोर परमात्मा के निर्वाण के पश्चात् भी बहुत से राजा महाराजादि उच्च कोटि के मनुष्यों की जैन धर्मपर अपूर्व श्रद्धा का उल्लेख मिलता है और इन लोगों के समय समय पर अपने पैतृक धर्म को त्याग जैन धर्म अङ्गीकार करने के दृष्टान्त जैन ग्रन्थोंमें बहुधा दृष्टिगोचर होते हैं। राजपूत क्षत्रियों से जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण करके एक समय में ही कई गजपूत वंश के लोगोंने अहिंसा धर्म मानकर एक नवीन समाज की स्थापना की थी परन्तु खेद है कि इस घटना का कोई भी प्रमाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है। पश्चात् इसी प्रकार वैदिक धर्म माननेवाले बहुत से उच्च वर्ग के लोग जैनाचार्यों द्वारा प्रतिबोधित होते हुये समय २पर जैन धर्म स्वीकार करके समाज में मिलते गये। हर्षका विषय है कि उक्त समाज का गौरव अद्यावधि जैन समाज में प्रधान रूपसे माना जाता है। मोसवाल जाति की उत्पत्ति के विषय में कई पुस्तके मोर लेख आदि प्रकाशित हुये हैं जिनका सारांश यह ज्ञात होता है कि-श्री पार्श्वनाथ भगवान के पाट में श्री रमपम सूरिजी हुये थे। उन्होंने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १४६ * * प्रबन्धावली * बि० सं० २२२ में ओसीया ( उपकेश ) नगर के राजा उपलदेव जो कि पेंवार राजपूत जाति के थे उनको सह कुटुम्व और समस्त नगरवासी राजपूतों के साथ जैन बनाने पर वे ही ओसवाल संज्ञा से ख्यात हुये । इस घटना के पश्चात् भी इसी प्रकार राजपूत आदि कौम जैनाचार्यों के उपदेश से जैन धर्म में दीक्षित होतो गई और उन लोगोंको उस समय अबाधा से समाज में स्थान मिलता गया । वीर निर्वाण के ७० वर्ष में ओसवाल समाज की सृष्टि की किंवदन्ति असम्भव सी प्रतीत होती है । श्री पार्श्वनाथ भगवान् के छट्ठे पाट के श्री रत्नप्रभ सूरि द्वारा ओस वंश की स्थापना की कथा भी विश्वसनीय नहीं है 1 ऐसी दशा में ओसवाल समाज की उत्पत्ति का इतिहास अपूर्ण सा ही है और इस विषय में खोज की आवश्यकता है । मेरे संग्रह में ओसवाल जाति की उत्पत्ति के विषय में एक प्राचीन कवित्त का अपूर्ण पत्र है जो यहां प्रकाशित किया जाता है। यदि किसी पाठक के पास इस कवित्त का पूरा पाठ हो तो आशा है कि वे महाशय उसे प्रकट करेंगे सम्भव है कि उक्त अंशका शेष भाग मिलने से ओसवाल समाज के इतिहास में और भी प्रकाश पड़ेगा । ( दोहा ) श्री सुरसती देज्यो मुदा, आसे बहुत विशाल । नासै सब संकट परो, उत्पत्ति कहूं उसवाल ॥ १ ॥ देश किसे किण नगर में, जात हुई छै एह । सुगुरु धरम सिखावियो, कहिस्यु अब ससनेह ॥ २ ॥ ( छन्द ) पुर सुन्दर धाम वसै सकलं, किरन्यावत पावस होय भलं । चऊटा चउराशि विराज खरे, पग मेलय जोर सुग्यान धरै 11 भिन माल करें नित राजपरं, भल भीम नरेंद उपंति वरं । पटराणी के दोय सुतन्न भरं, सुर सुन्दर ऊपल मत्त धरं ॥ २ ॥ अलका नगरी जिह रीत खरी, अठवीस बबाकरीसोभ धरी । तस नारी वसै बहु सुःख करी, दुख जाब न पासै सुदूर टरी ॥ ३ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •प्रबन्धावली. *१४७. त्रिय सुन्दर ओपम कूल कली, कनआ मयसु उतरी बिजली। मुगताम्बर जेम चलै पधरं, बहुरूप भलो मनुकाम हरं ॥ ४ ॥ सुर सुन्दर जेठ सहोदर छै, लघु ऊपल राव जोधार अछ। सुर सुन्दर लोक में भीम गया पधरा, भिन माल को राज वडो जुकरा ॥ ५॥ पुन दोय सहोदर मित्र भला, समरूप मयंक सुधार कला । नलराजमनमथ रूप जिसा, महिरांण अथग्ग सोभाय इसा ॥ ६ ॥ किरणाल तपै पुन भाग भलं, अग्दूिर भजे इक आप वलं । नगराज उदार दोपंति खरा, किल छात पँवार मुगट खरा ॥ ७ ॥ (दोहा) दंग मांहि मंत्री तणा वेटा दोय सरूप । वहो दुरग माहि रहै रुपिया कोड अनूप ॥ १॥ सहर मांहि छोटो वस लाख घाट छै कोड। व भ्रात ने इस कहै करु कोडरी जोड ॥२॥ एक लाख देवे खरा दुरग वसू हूं आय । वलती भोजाई कहै बचन सुनो चित लाय ॥ ३॥ देवरजी सुणज्यो तुम्हे किसो कोट छै सून । या विण आयां ही मरे, राखो ये अब मून ॥ ४॥ बड़ऊ धरण बखाणीय छोटो ऊहड जाण । उठीयो बचन सुणी करी, लघु बंधव हरिरांण ॥५॥ कोप अंग तिण बेल घण कह्मो बसाउ दंग। एम कहो आयो सहर बहुलो पोरस अंग ॥ ६॥ उपलनै वासै जइ वदे पाछलो बात। भोजाई मोसो दियो सुवालो मुज तात ॥ ७॥ 'ओसवाल नवयुवक' वर्ष २ संख्या ६ (पौष १९८६ ) पृ० २६६-३०० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे महान पूर्वज स्वर्गीय डाकर टेसीटरीके नामसे कुछ पाठक अवश्य परिचित होंगे। आप यरोप अन्तर्गत इटली देशके निवासी थे। आपने राजस्थानी हिन्दीका विशेष अभ्यास किया था और राजपूतानेमें ऐतिहासिक खोजके लिये बहुत दिन बिताये थे। जोधपुर और बीकानेर दोनों स्थानोंमें उनसे मेरी भेंट हुई थी। आप उस समय राजाओंके ख्यात, चारणोंके कवित्त, छन्द, गीत, कथाओंके संग्रहमें तत्पर थे। एसियाटिक सोसाइटी आफ बैंगाल के जरनल में उनकी कई रिपोर्ट छपी थीं, जिनमें उनकी इस ओरकी कार्यवाही प्रकाशित हुई है। उक्त प्रसिद्ध संस्थासे बिब्लियोथेका-इन्डिका नाम की जो ग्रंथमाला निकलती है, उसमें आपने राजस्थानी सीरीज़ नामसे कई ग्रंथ प्रकाशित किये थे। परन्तु थोड़े ही समय के बाद उनको कार्यबश स्वदेश लौटना पड़ा और वहाँ ही उनका देहांत हो गया। इटली जानेके पहले, आपने राजपूताने में जो हस्तलिखित ग्रंथ, गुटके आदि संग्रहित किये थे, वे आप उक्त एसियाटिक सोसाइटी में रख गये थे। मैं समय २ पर उन ग्रंथों का निरीक्षण करता रहा। उनमें राजस्थान के इतिहास-सम्बन्धी सामग्रीके साथ-साथ अपने ओसवालों के प्रसिद्ध पुरुषों की गुण-कीर्ति में रचे हुए गीत, कवित्त, छन्द आदिका भी संग्रह मिला। इन सबके प्रकाशित होनेसे अपने पूर्व पुरुषों की कीर्ति और काय-कलाप पर विशेष प्रकाश पड़ेगा। इसी विचारसे उक्त डा. टेसीटरी साहब के संग्रह में से कुछ साधन आज मैं पाठकों की सेवा में उपस्थित करता हूं। आशा है जाति-प्रेमी अन्य सजन भी ऐसी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रचन्मापली * १४६ * सामग्री, जो उनके पास हो, उसे प्रकाशित कर अपने समाज के एक गौरव पूर्ण इतिहास-संकलन में सहायक बनेंगे। यहां “ओसवालां मैं दातार हुआ तिणांरा नाम प्रकाशित किया जाता है। इसमें दातारों की संख्या ७७ है। परन्तु इन नामों में ओसवालों के नाम के साथ-साथ श्रीमाल पोरवाल आदि के पुरुष रत्नों के भी नाम हैं। यह तालिका कोई समय अथवा स्थान की अपेक्षा से ( ध्यान में रखकर ) नहीं लिखी गई है और न इस में संग्रह कर्ताका ही कोई उल्लेख है। मुझे जिस गुटके में यह तालिका मिली थी उसमें और भी कई गीत, कवित्त आदि संग्रहित थे, और प्रारम्भ में 'सेवग मंछाराम रा कह्या" ऐसा लिखा हुआ था। यह तालिका भो उन्हीं सेबगजी का संग्रह होना संभव है। इसके बहुत से नाम प्रसिद्ध हैं परन्तु, कुछ नामों के खोज को आवश्यकता है। यह तो स्पष्ट है कि इन महापुरुषों ने अपनी बुद्धि, बल और दान शीलता से किसी समय विपुल यश प्राप्त किया होगा, परन्तु खेद है कि आज अपने उनकी कीतियों से अपरिचित हैं। समाज के ऐसे पुरुष-रत्नों के लुप्त गौरव का प्रकाश करना समाज का एक कर्तव्य है। तालिका को भाषा डिंगल है। अभ्यास न होनेसे इसमें मेरा ज्ञान तुच्छ है; इस कारण इसके शब्दों में जो कुछ त्रुटियां हो वे सुज्ञ पाठक सुधार लेनेकी कृपा करें। ओसवाला मैं दातार हुआ तिणांरा नाम । १ जगडू सोलावत, पाप रांका २ सारङ्ग, वास सौरठ ३ करमवन्द मुहतो वछावत, सांगैरो ४ भामौका वडियो, वास चीतोड ५ सूरोगुल होडयौनग्भवतः वास आकोले ६ जगडूललवाणी, जोधपुर ७ हीरजी संघ वाले चौ, जोधपुर ८ लोढ़ा भैरुदास ६ नैरामो, अलवल गढ़, ( मेवाढमें), इत आगरे हुवा १० श्रोमाल हीरा नन्द ११ लोढ़ा कवरी नैसुनपाल (१) तेजसी वरहडियो अकबर पानसाह मांनियौ १२ मुंहतो रायमल बैद, सोझत १३ जालोर, लोढ़ौ हमीर १४ भीनमाल, लोलो १५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • १५० . * प्रबन्धावली* श्रीमाली पदराज, नगरथटे १६ वींजो पारष, वाहड़मेर १७ जेठू, दोपनगर १८ हरचन्द नाहटो, नागोर १६ नरहर सिंघवी, नागोर २० डूग. रसी, मांडवनगर, षांप फोफलीया २१ डोसी सूजौ पोरवाल, जायलवास २२ कोठारी रिणधीर, मेडतै २३ राजसी लोढ़ो, मेडतै २४ व्रमेचौ हरषौ, मेडते २५ तेजपाल वस्तपाल, जात पोवाल २६ विमल शाह आबू ऊपर कभठांणा कराया २७ गायो भैर परथासै वास, पाटण २८ वधमान, वास नवै नगर २६ लालण, अमरावत ३० श्रीमाल आसकरण, नाथावत ३१ वाँठियो तेजपाल, वास भुजनगर ३२ श्रीमाल दिल्ली में ३३ सिरदारमल पैमो नै रत्नौ ३४ भारमल, वास वैराट देश ३५ सामोदास रेवंतजो रो, वास तिजारै ३६ अषौ चोपड़ो, वास संत्रावै ३७ आसकरण मेडतै ३८ होलो धनावत, षांप वागरेचा ३६ साहे मौवास चौकड़ी, पांप पोहकरणो ४० आसकरन, नवेनगर ४१ नालसा, मेवाड़ ४२ करमो डोसी सात वीसी ध्वजा सेर्बुजे चाढ़ी ४३ पासवीर नाहटो ४४ लोढ़ो गोसल इग्याडोतरे काल म अन्न दियौ ४५ डागौ रतनसी वयासिये डिगती प्रजा थांभी ४६ माडूगढ़, सांड कोडियौ म्हौर लायण मुल्क में दीवी ४७ सोनी भीमवास, पाटण ४८ सोपुर, भूमोसाह पौल पखाह म्हौर दीनी ४६ पाल्हौ, कुभलमेर ५० मेडतै, मेघराज ५१ हेमराज, नागोर ५२ बलराज छाज, अजमेर ५३ गोपचन्द, दिल्ली जे जियो छुड़ायो ५४ साह तालो पीपाड़ ५५ हेमौता. हहारौ, पीपाड़ ५६ सिरदारमल सुराणो, वास जयतारण ५७ केलराज चौहोत्तरे अन्न दे प्रजा थांमी ५८ बहत्तर पाल, मेवातमे अन दियौ ५६ ठाकुरसी ६० भरंमल वैरार हुवौ घोड़ा दोयसौ इकीस दिया ६१ केसव धांधियो ६२ बसतपाल वास दादरी ६३ गंजबगस गैलडो, आगरै ६४ राममल हरषारौ अकबर कनै ६५ श्रीमाल अंचलदास, वास अनरसा ६६ वौहरो बघतो, देवासै ६७ घेबगै सीह माल (श्रीमाल ? ) वांस चाटसू ६८ हीरानन्द साहरै, पातसाह जहाँगीर घरे आयो ६६ इतरा आगरे, बले हुवा दूर्जण चंदू नेमिदास नाण जी ७० गजसी; अमी; Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली * १५१ * शेजै सिंघ किय ७१ * आसकरन अमीपाल, चोपड़ा ७२ षेतसी, भोजावत, षांप श्रीमाल ७३ साह हरषौ नाणजीरौ ७४ नाणजी पूरखमेंहुवौ हाथी दान किया ७५ पोरवाल चांपसीदास, वास पट्टनै ७६ श्रीमाल तोतराज 99 श्रीमाल जसराज, वास खंभायच | उपरोक्त तालिका टेसीटरी साहबकी सग्रहोत गुटका नं० २७ में है और कलकत्तेके एसियाटिक सोसाइटीके पुस्तकालयकी हस्तलिखित पुस्तकों में सुरक्षित है। इसी प्रकार अपने समाजके प्रख्यात व्यक्तियोंके विषय में मुझे बहुत सी कविता छन्द आदि मिले हैं, वे भी क्रमशः प्रकाशित करनेकी इच्छा है । सोजत, नागोर आदि स्थानों के भाइयों से साग्रह निवेदन है कि इस तालिका के पुरुषों के विषय में खोज करें और जो कुछ सामग्री मिले उसे प्रकाशित करें । [ 'ओसवाल नवयुवक' वर्ष ६ संख्या १ ( वैशाख १६६० ) पृ० ४३-४४] * ये बीकानेर के रहने वाले थे, नाहटोंकी गवाड़की ऋषभदेव स्वामी के मंदिर की प्रतिष्ठा इन्होंने करवाई थी, इसके लिये देखो “आत्मानंद" ( १६३२-३३ ) में प्रकाशित बीकानेर के जैन मन्दिर । 20 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध कुंकुम ( कंसर ) जैनभाइयों ! "हैल्ड" के गत फेब्रुअरि संख्या में विलायती भ्रष्ट खांड सम्बन्धी लेख लिख कर अजमेर निवासी श्रीयुत् शोभागमलजी हरकाटने परमोपकार किया है. परन्तु विदेशसे आई हुई और २ वस्तुओंमें भी नाना प्रकार के अशुद्ध अपवित्र द्रव्य का भेल समेल रहता है कि जिसके श्रवणमात्र से अपने सहधर्मी भाइयों का तो कहना ही क्या ? किन्तु समग्र हिन्दूमात्र को उन वस्तुओं के व्यवहार से अरुचि और घृणा हो जावेगी । सर्व पाप का मूल लोभ है। इस लोभ के बश से मनुष्य नाना प्रकार के अकृत्य करने से भी भयभीत नहीं होता है । व्यवसाय में लाभ के अर्थ लोग यहां पर भी घृतादिक मूल्यवान द्रव्य में प्राय: दूसरी अल्प मूल्य की वस्तु भेल करते हैं, सो सब को विदित है, परन्तु विदेशियों में हिंसादिक का लेशमात्र भी विचार नहीं हैं, वहां पर यहां से भी अधिक अशुद्ध पदार्थों का मिश्रण होना क्या आश्चर्य है ? यहां किसी प्रकार का द्वेषभाव का आशय महीं समझना, कारण उन्हीं लोगों के प्रमाणिक ग्रन्थों में अपने व्यवहारिक द्रव्यों में महाभ्रष्ट अखाद्य पदार्थों के मिश्रण का विवरण पाठ करके उसको प्रगट करना उचित समझ कर यह लेख लिखने में आया । देखिये ! कुकुम ( केसर ) अपने जिसको एक उत्कृष्ट द्रव्य समझ कर सर्वदा व्यवहार में लाते हैं, उसमें कैसी २ घृणित अस्पृश्य पदार्थों का भेल रहता है। नीचे मूल और अनुवादसे सम्पूर्ण विदित हो जावेगा यहां पुनरूला से लेखनी को दूषित नहीं करूंगा। इस केसर में विदेशियों ने ऐसी वस्तु मिलाये हैं कि जिसका व्यवहार अपने श्रावकों को सर्वथा निषेध है और जिस को श्रवण कर हिन्दुस्तान मात्र का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १५४ * * प्रबन्धावली * शरीर रोमांच होता है । ऐसी २ वस्तु अकसर प्राय: करके भेल दिया जाता है, और अपने ऐसी वस्तुको उत्तम समझ कर भक्षण करते हैं, और ललाट में लगाते हैं और परमात्मा के पूजन में रखते हैं। पञ्चमकाल के प्रारम्भ में ही यह हाल है आगे न जाने क्या होगा । कैसी कष्ट की बात है जो द्रव्य का स्पर्श भी पाप है, उस द्रव्य को अपने लोग निःशंक से व्यवहार में लाते हैं और भगवान के मस्तक पर चढ़ाते हैं । इस विषय पर ज्यादा लिखना आवश्यक नहीं है— निम्नलिखित प्रमाणों से जब प्रत्यक्ष सिद्ध होता है तब आशा है कि हमारे सर्व जैनभाइयों इस विदेशीय अपवित्र द्रव्य को किसी प्रकार के व्यवहार में नहीं लावेंगे, और सर्व जाति से अपने में इस केसर का व्यवहार अधिक है इस कारण अपने को ज्यादा सावधान होना चाहिये। यहां के काश्मीर देशमें भी केसर पैदा होती है । वह हिन्दू राज्य है इससे उमेद है वहां की केसर में इस तरह भ्रष्ट पदार्थों का मिश्रण संभव नहीं है । ऐसी शुद्ध केसर ही श्री जिनपूजामें व्यवहार योग्य है, अन्यत्र इसके अभाव में श्वेतरक्त चंदन कर्पूरादि पवित्र पदार्थों का ही व्यवहार उचित है, न केवल रंगत और सुगंधि के लोभ से ऐसी अशुद्ध द्रव्य का व्यवहार सर्वथा निन्दनीय और महान पाप कृत्य है । जैसे हमारे ग्रामवासी सामसुखा जी ने अपने मुनीम बाबू महाराज सिंहजी के तारपुर के कारखाने की चीनी का हाल लिखा है वैसे ही हमारे पाठकों में अगर कोई साहेब कहांपर विशुद्ध काश्मीरी केसर मिल सक्ती है इसका हाल सर्व साधारण को प्रगट करें तो मोटा लाभ करेंगे । इत्यलं विस्तरेण । Extract from Simmond's Tropical Agriculture ( 1877 ) page 382. "Account of Saffron agriculture in the Abri uzzi district of the Apennines, states that adulteration is carried out in various ways, the chief one Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली * * १५५. bcing by mixing with it shredded bect, of which a suitable picce is boiled and then shredded into small fibres, which are stained with saffron water and then dricd.” आपिनाईन पहाड़ के अत्रु जि जिले के केसर के खेती के विवरण में लिखते हैं कि, इसमें भेलसमेल नाना प्रकारसे किया जाता है, बाहुल्यता से प्रचलित रीति यह है कि गोमांस के लच्छे मिलाये जाते हैं। प्रथम गोमांस के टुकड़े को पानी में औंटाया जाता है पश्चात् ( केसर की तरह ) मिही लच्छे काट कर केसर के पानी में रंग किया जाता है, फिर सुखाकर मिलाया जाता है। Extract from Encyclopædia Brittanica, ninth cdition Vol. 21 page 146. " At present saffrou is chiefly cultivated in Spain, France, Sicily, in the lower spurs of the Apennines & in Persia & Kashmir...............The stigmas and a part of the style arc carefully picked out and the wet saffron is then scattered on sheets of paper to a depth of 2 or 3 inches; over this a cloth is laid and next a board with a heavy weight. A strong heat is applied for about two hours so as to make the saffron “ sweat " & a gentler temperature for a further period of twenty-four hours, the cake being turned every hour so that every part is thoroughly dried......... The drug has naturally always been liable to great adulteration in spite of penalties......Grease and butter are still very frequently nixed with Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १५६ * * प्रबन्धावली * the cake and shreds of beef dipped in saffron water are also used............ If oily, it is probably adlul. terated with butter grcase. आजकल केसर स्पेन, फ्रान्स, सिसिली द्वीप, आपिनाईन पहाड़ की नीची तराई ईरान और काश्मीर में पैदा होती है, इसके पुष्पकी केसर और पराग को हुसियारी से तोड़ा जाता है। फिर उसी गीलों केसर को कागज के पत्रोंपर २।३ इञ्च पूरा करके बिठाया जाता है, और उसपर एक कपड़ा ढांक कर ऊपर से एक पटिया भारी बोझ देकर दबाया जाता है। अन्दाज दो घण्टे तक इसमें खूब आंव दी जाती है कि जिसमें केसर से पसीना छूट जाय, फिर २४ घण्टे तक मन्दो आंच रहती है और उसी केसर के पिण्ड को घण्टे २ में उलटाया जाता है कि जिसमें हर तरफ अच्छी तरह शुष्क हो जावे। अपरा. धियों की दण्ड की व्यवस्था होनेपर भी बहुमूल्य के सबब से इस केसर में हरदम बहुत मिलावट करते हैं। अबतक चर्बी और मक्खन अक्सर उस केसर के पिण्ड में मिलाया जाता है और केसरको पानी में डुबो कर गोमांसका लच्छा भी भेल किया जाता है। अगर केसर में चिकनापन मालूम होवै तो मक्खन या चर्बोसे मिलावट का संभव जानना। - 'श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हरैल्ड' पु० २ २०७ ( जुलाई १९०६) पृ०१६३.१६५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजगृह प्रशस्ति जैन तीर्थ गाइड के तबारिख सुवे बिहार में उसके ग्रंथ कर्ता लिखते हैं कि मथियान महल्ला के मंदिर में एक शिला लेख जो अलग रखा हुआ है.........संवत् तिथि वगैरह की जगह टूटी हुई पंक्ति (१६ ) हर्फ उमदा मगर घीस जानेकी वजह से कम पढ़ने में आता है। आखिर की पंक्ति में जहां गच्छ का नाम है वहां किसी ने तोड़ दिया है, बज्र शाखा वगैरह नाम बेशक मौजूद है। यह पढ़कर मुझे देखने की बहुत अभिलाषा हुई। पता लगाने पर १७ पंक्ति का एक लेख दिवार पर लगा हुआ पाया। किसी २ जगह टूट गया है, संवत् वगैरह साफ है और दूसरा टुकड़ा मालूम हुआ। पहिले टुकड़े के लिये बहुत परिश्रम करने पर पता लगा और अब वहां के रईस बाबू धन्नू लालजी सुचन्ती के यहां रखा गया है। यह राजगिरि के श्री पार्श्वनाथ स्वामी के मन्दिर का प्रशस्ति लेख है। दोनों टुकड़े बिहार में जोकि राजगिरि से उत्तर १२ मील पर है किसी कारण से यहां होंगे और बहुत वर्षों से यहां पर है। मुझे बहुत खोज करने पर भी यहां उठाकर लाने का विशेष कारण का पता न लगा, इतना ही शात हुवा है कि वहां के मथियान श्रावक लोग लाये थे। इस प्रशस्ति के दोनों पाषाण श्याम रंग प्रायः समान माप के हैं, दोनों १० च चौड़े और पहला टुकड़ा २ फूट १० इंच और दूसरा २ फट ८ इंच लंबा है। अक्षर अनुमान आधच के है। पहले टुकड़े Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *१५८* * प्रबन्धावली * पर १६ पन्ति के सिवा २० पखड़ियों का एक कमल ऊपर बायें तर्फ खुदा हुआ है और दूसरा टुकड़ा १७ पंक्ति का है और ऊपर और नीचे जहां तहां टूट गया है। इसका संवत् बिक्रम १४१२ आषाढ वदी, इस्वी १३५५ होता है। उस समय बंग बिहार प्रान्त में बहुत हलचल मची रहती थी, दिल्ली के बादशाहों का पूरा जोर न था। प्रशस्ति में जो सुलतान फिरोज शाह का उल्लेख है सो ठीक है, परन्तु मगध के शासनकर्ता मलिक वय का नाम हमें वहां के किसी इतिहास में देख नहीं पड़ा वा उनके अधिनस्थ साह नास दुर्दिन ( नसीरुद्दीन ) का भी नाम नहीं मिला है। उस प्रदेश में सम्मुद्दीन जिसको हाजी इलियस भी कहते हैं उस वक्त शासन कर्ता थे। बादशाह फिरोज शाह तोघलक का समय ई० १३१५-१३८८ का है। इस मंदिर के प्रतिष्ठा का मंत्री दलीप बंश के श्रीमान गच्छराज और देवराज है। इस बंश वालोंकी कराई हुई प्रतिष्ठा आदि के कई लेख मिले हैं और मेरा जैन-लेख-संग्रह जो शीघ्र प्रकाशित होने वाला है उसमें दी गई है। इस प्रशस्ति में सहजपाल से इनकी बंशावली के नाम वर्तमान हैं। सहजपाल के पुत्र तिहुरमापाल उनके पुत्र राह उनके पुत्र ठक्कुर मंडन उनकी स्त्री थिर देवी उनके पुत्र १ सहदेव २ कामदेव ३ महाराज ४ बच्छराज ५ देवराज थे। ४ बच्छराज को दो स्त्री, प्रथम रतनी जिनके २ पुत्र पहराज और चोढर और दूसरी बीबी जिनके धन सिंहादि पुत्र लिखे हैं। ५ देवराज के भी दो स्त्री राजी और पद्मिनी, राजी के तारा नान्मी कन्या थी और उस तारा के धर्मसिंह और गुणगज यह दो पुत्र हुए और पद्मिनी के पीमराज पद्मसिंह और घड़सिंह यह तीन पुत्र और अच्छरी नाम की एक कन्या थी। आगे खरतर गच्छ की पद्यवली भी लिखी है। बज्रशाखा चंद्रकुल के उद्योतन सूरी से जिनेन्द्र सूरी तक है और बर्द्धमान सूरी के पाट पर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली. जिनेश्वर सूरी से खरतर विरूद का स्पष्ट लेख है जिससे बहुत से पक्षपानियों का भ्रम दूर होगा। आचार्यों के नाम क्रमबार हैं, यह पूर्व देशको अपूर्व वस्तु है। आजतक अप्रकाशित थी। इसका पांडित्य और पद लालित्य पाठकों को पढ़ने से ही ज्ञात होगा। नोट:-श्री पार्श्वनाथ मन्दिर प्रशस्ति' लेखक द्वारा संग्रहित और प्रकाशित 'जैन-लेख-संग्रह' प्रथम खण्ड लेख नं० २३६ ( पृ० ५८-६२) में देखें। [इस प्रसस्तिके दोनों पत्थर राजगृहमें लेखकके मकान 'शांतिभवन' में सुरक्षित है। 'श्री जैन श्वेताम्बर कान्फरन्स हेरेल्ड' पु० १२ अंक १० ( नवम्बर १९१६ ) पृ० ३७६-३७७, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दृश्य आज लगभग दो युगको बात है कि मैं मेरे बड़े भाई राय मणिलालजो, उनके पुत्र और मेरी स्वर्गीया माताजी के साथ प्रथम ही मारवाड़ की राजधानी जोधपुर गया था। कुछ थोड़े ही समय व्यतीत हुए थे कि वहां के प्रसिद्ध योद्धा, वृटिश गवर्नमेण्ट में विशेष प्रभावशाली महाराजा सर करनल प्रतापसिंहजी चीन युद्धसे बड़े नामवरी के साथ लौटे थे 1 उस समय वहां घर घर यही चर्चा और इस घटना की बड़ी खुशियाली जारी थी। मेरे भाई साहब उनसे मिलने गये और आकर मुझसे कहने लगे कि “सरकार ( वहां के लोग जोधपुर के महाराजा साहब को "दरवार" और सर प्रतापसिंहजी को “सरकार" कहते थे ) बड़े बुद्धिमान, सादे सीधे सज्जन पुरुष हैं। उन्होंने मुझको फिर मिलने कहा है, तुम भी इस बार साथ चलना, मिलकर तुमको भी बड़ी खुशी होगी ।" इस वार मैं भी साथ गया । जिस बंगले में सरकार रहते थे वहां पहुंचे। वह भादोंका महीना था और पूर्वाहका समय था । हम लोग भोजन करके हो खाने हुए थे। पाठक गण परिचित होंगे कि राजपूताने में विशेष कर वर्षा ऋतुमें मक्खियों का उपद्रव बहुत रहता हैं। बंगलेमें खबर मिली कि सरकार अभी तक लौटे नहीं हैं परन्तु शीघ्रही पहुंचेंगे। हम लोगोंको एक कमरे में ठहराया गया । द्वारपर युद्ध से प्राप्त हुई कई चीनी तोपें रखी हुई थी। कमरे के दीवारों पर सैकड़ों फोटो टंगे हुए थे। कहीं इङ्गलैण्ड के प्रसिद्ध लार्ड लेडियोंकी, कहीं जापान के बड़े बड़े लोगों की छोटे बड़े सब तरह के चित्र नजर आये । थोड़े ही देर में सरकार कई नौजवान राजपूतों के साथ घोड़े पर पहुंचे । उनके भोजनका समय हो गया था। तुरंत ही घोड़ेसे उतर कर बंगले के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली * * १६१ * कमरे में चले गये गये। हम लोग भी वहां बुलाये गये। अहल. कारने आकर कहा - बंगाले के सेठोंको सरकार अपने खास कमरे में बुलाते हैं। हमलोग उठ कर उसके साथ साथ चले। वहां पहुंच कर देखा कि कमरा एक साधारण सा है-कोई सजावट नहीं है केवल जाजमी फर्स बिछा हुआ है. और वगलमें एक मामूली पलंग ( ढोलिया ) रखा हुआ है। सरकार उसी पलंग के बगल में जो खाकी पोशाकसे घोड़ेसे उतरे थे वही पहिने हुए अर्द्धासनसे बैठे हुए हैं और उनके साथवाले ३४ और राजपूत भी घोड़ोंसे उतर कर उसी तरहकी वों पहिने बैठे हैं। सर प्रतापसिंहजी ने देखते हो हम लोगों का अभिवादन लेकर उनके नजदीक बैठनेको कहा। आज्ञानुसार हम लोग भी पासमें बढ़कर बैठे। इतनेही में थाल पहुंचा। अपूर्व दृश्य नजर आया। चांदी कांसेके बदले चीनीके प्लेट यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मणोंके बदले त्रमश्रधारी यवनोंको देखा। सरकारने खानसामोंसे अपने हाथमें प्लेट ले लिया और साथके लोग भी लेते गये। परिवेशन चलने लगा। पावरोटी भी है, बिस्कुट भी है, भुजिया भी है, कलाकन्द भी है याने पाश्चात्य और देशी दोनों भोजन सामग्री परोसी गई। खाना आरम्भ हुआ। साथ साथ सरकारने हम लोगोंके तरफ निगाह डालकर कहा- "सेठ आरोगो"-- भाई साहबने उत्तर दियामहाराज अभी भोजन करके ही आ रहे हैं। सरकारने कहा- “जिमियेने जीमानो सोरो" और भोजनके लिये विशेष आग्रह करने लगे। मुझसे रहा न गया, विनयसे कहा-- "महाराज! हम लोगोंके भोजन में कुछ विचार है।" बस इतना सुनते ही सरकारने आंख उठाकर मेरी तरफ गर्दन घुमाकर कहा-"विवार क्या ? म्हे तो माल्यांको विचार करां, और कायको विचार ?” मैं कुछ उत्तर देनेको था कि भाई साहपने मौन रहने का संकेत किया। अस्तु, सरकार और उनके साथियोंने अच्छी तरह भोजन किया और वहां बैठे हो हस्त मुख प्रक्षालन कर लिया। बादमें हम लोगोंसे बंगाल प्रांतकी बहुतसी बातें पूछी। उठने के समय सरकारने कहा - "आप लोग तो हमारे मेहमान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १६२ * * प्रबन्धावली * हैं, जो कुछ सवारी वगैरहको जरूरत होबे सब राजसे इन्तजाम हो जावेगा, किसी तरहकी यहां पर तकलीफ न होनी चाहिये” इत्यादि । इस प्रकार स्वनाम-धन्य सर प्रतापसिंहजीसे हम लोगोंका साक्षात दृश्य समाप्त हुआ। ___ महाराजा सर प्रतापसिंहजी के चीन युद्ध में पधारने के समय उनका तथा वहां के प्रजाओंका मनोगत भाव किस प्रकार था वह उस समयके संबाद पत्रोंमें जो विवरण प्रकाशित होते थे उससे अच्छी तरह ज्ञान होता था। प्रिय पाठकोंको रोचक होगा इसी धारणासे यहां पर उसका थोड़ा नमूना उपस्थित करता हूं। जिस समय सरकार चीन जङ्गकी उमङमें जोधपुरसे रवाने होने लगे उस समय उनको ऐसी खुशी हो रही थी कि मानो उनकी उमर भरको आशा पूर्ण होने लगी। उन्होंने जानेके पहिले दरबारसे भी अर्ज किया था कि “मैं चीनमें जाकर खाबन्दोंके नमकको उजालूगा । जीता बचा तो फिर आकर इन चरण कमलों के दर्शन करूंगा और यदि मारा गया तो मैं हजूरको बड़े हजूरके पाटकी आन दिलाता हूं कि इसका वैसा ही उत्सव करें कि जैसा प्रिटोरियाके फतह होनेकी खबर आनेपर किया गया था। शोक और सन्ताप किसी प्रकारका न फरमावे, नहीं तो मेरी आत्मा दुःखी होगी।” ___ एक दिन किसी पुरुषने सर प्रतापसिंहजीको कहा कि आपने युरोपमें पधार कर पृथ्वीकी पश्चिम सीमा तक मारवाड़का नाम प्रसिद्ध कर दिया है और अब चीन जाकर पूर्वके अन्त तक मारवाड़का नाम कर देंगे। आपने फरमाया कि प्रतापसिंह नहीं जाता है उसको उसकी जाति ( राजपूत ) और प्रसिद्धि ही लिये जाती है। न जाऊं तो तुम्हीं लोग कहोगे कि प्रतापसिंह उमर भर तो कहता रहा कि घरमें पड़कर मरनेसे लड़कर मरना अच्छा, और जब समय आया तो जी चुराकर बैठ रहा" और अपने भतीजे महाराज फतहसिंहजीकी ओर देख कर कहा “यह वह युद्ध नहीं है कि मैने तुमको मार डाला Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली* * १६३* और तुमारे बेटने मुझे मारडाला घरमें ही घाटा पड़ा। यह शाहनशाही जङ्ग है, एक तरफ एक शाहनशाह है दूसरी तरफ सात शाहनशाह हैं और दुनियां भरकी आखें उस तरफ लगी हुई है ऐसी जङ्ग बार बार काहेको होती है, इससे बढ़कर और कौनसा अवसर आवेगा।" जोधपुरके प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्वर्गीय मु० देवीप्रसादजी के पुत्र पीताम्बर प्रसादजी उस समय एक कवित्त रचा था। कविता यह थी:केते भूपाल जात शैलको बगीचन बाग, केते बनमांहि दीन मृगनको मारे हैं। केते रङ्गमहलमें सहेलिनते आनन्द करत, केते निशिघोष अति महामतवारे हैं। केते भूमिपाल जात पोलो घुड़दौड़में, __ केते भूमिपाल रागरङ्गको निहारे हैं । धन्य २ आज महाराज सर प्रतापसिंह, चीन जङ्ग मांझसो उमगते पधारे हैं ॥१॥ 'देशबन्धु' भाग १ अङ्ग १८ ( २५ अगस्त १९२४) पृ०११-१२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौरासी चौरासी एक ऐसी संख्या है, जिसका व्यवहार मैं बहुत स्थानों में देखता आया हूं। यह संख्या किस प्रकार और कहांसे प्रचलित हुई, इसका इतिहास नहीं मिला, अतः मुझे यह जानने की इच्छा रही । भारतवर्ष के प्रायः समस्त आर्य-सन्तान लोकाकाश-स्थित जीव-योनियों की संख्या अपने-अपने शास्त्रानुसार चौरासी लक्ष मानते हैं । खोज करनेपर जहाँ तक मुझे उपलब्ध हुआ है, उससे यह जाना जाता है कि चतुर्दश राजलोक के जीव-भेद की संख्या चौरासी लक्ष के चौरासी अङ्क को ही महत्व का समझकर बहुतसी जगह इसका व्यवहार प्रचलित होना सम्भव ज्ञात होता है। कई स्थानों में विषय की संख्या चौरासी से अधिक है, तौ भी वहां चौरासी से ही वह विषय अद्यावधि प्रसिद्ध है। इसी प्रकार किसी किसी जगह विषय-भेद चौरासी संख्या से अल्प भी है, तौ भी यह शब्द विषय के साथ लगा दिया गया है और इधर-उधर से उनके भेद वही चौरासी प्रकार के बना दिये गये हैं । . 'हिन्दी - विश्वकोष' के द्वितीय भाग के पृष्ट ७३७ में 'आसन' शब्द के अर्थ में लिखा हुआ है कि 'घेरण्डसहिता' के मतसे जीव जन्तुओं की संख्या जितनी होती है, आसन की गणना भी उतनी निकलती है। शिवजी के आसनों की संख्या वही चौरासी लक्ष कही गई है। उनमें चौरासी प्रकार के प्रधान आसन बताये हैं। 'शिवसंहिता' के मन से भी चौरासी प्रकार के आसन हैं । कामशास्त्र के अनुसार चौरासी प्रकार के आसनों की संख्या भी प्रसिद्ध है। पूना से 'चौरासी आसन' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली* * १६५ नामक जो मराठी भाषाकी सचित्र पुस्तक प्रकाशित हुई है, उसमें ६३ आसनों के नाम और चित्र पाये जाते हैं। तात्पर्य यह है कि यद्यपि आसनों की संख्या चौरासी से अधिक पाई जाती है, तो भी प्राचीन कालसे आसन-भेदके साथ यही संख्या लगा दी गई हैं। यह चौरासी का अङ्क चौदह की संख्या को छः गुणा करने से भी होता है। शिक्षा-कल्प व्याकरणादि चौदह प्रकार की विद्या, खड्गस्त्र, स्त्री-रत्नादि चक्रवर्तियों के चौदह रत्न तथा देवताओं द्वारा समुद्रमथन से प्राप्त लक्ष्मी कौस्तुभादि चौदह रत्न, ऐसे ऐसे चौदह भेदवाले छः विषयों की समष्टि भी चौरासी का अङ्क हो जाता है। जौहरी लोग जिन-जिन रत्नोंको संग कहते हैं, उनकी संख्या भी वे चौरासी बताते हैं, परन्तु यह संख्या कल्पित मालूम होती है। पाठकों को यहां एक और बातकी ओर ध्यान दिलाता हूं कि जौहरी लोग चौरासी के फेरमें पड़ जानेके भयसे इस चौरासी संख्या से इतने सशंकित रहते हैं कि अपने व्यापारादि में इस संख्या का व्यवहार कदापि नहीं करते। अर्थात् यदि चौरासी रुपये के भावमें उन लोगों से कोई सौदा मांगा जाय, तो स्वीकार नहीं करते ; बल्कि पौने चौरासी में बेखने को सहर्ष तैयार हो जाते हैं। इसी प्रकार वे न तो वजनमें कदापि ८४ रत्ती माल बेचते हैं, और न किसी पुड़िये में ८४ नीने रखते हैं। चौरासी की संख्याके विषय में 'हिन्दी-विश्वकोष' सप्तम भाग पृष्ट ५८७ में जो वर्णन है, उससे पाठकों को ज्ञात होगा कि भारतवर्ष के कई देशोंमें ऐसे नाम के परगने और तालुके मिलते हैं, जिनकी सृष्टि चौरासी ग्रामोंको लेकर ही हुई होगी। नत्य के समय पैरमें बहुतसे घुघरू बांधे जाते हैं, संख्याधिक्य के कारण उनको भी चौरासी कहते हैं। ब्राह्मण वर्णमें नाना कारणों से सैकड़ो भेद विद्यमान हैं। पाठकों में से बहुत से सजन 'चौरासी ब्राह्मण' ब्राह्मणों को एक जाति-विशेष Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली * है, ऐसा जानते होंगे। कासगंज से सम्बत् १९७३ को प्रकाशित 'ब्राह्मण निर्णय' नामक पुस्तक की पृष्ट २६५ में लिखा है-"चौरा. सिया-यह गौर ब्राह्मणान्तर्गत एक ब्राह्मण समुदाय है, इनकी बस्ती जयपुर या जोधपुर राज्यमें है, किसी समय चौरासी ग्रामोंकी वृत्ति इनके यहां थी, अतः ये चौरासिये ब्राह्मण कहाये अथवा किसी ऐति. हासिक विद्वान् की सम्मति यह भी है कि ये भट्ठ मेवाड़-सम्प्रदाय में हैं और विशेष-रूपसे मारवाड़ के चौरासो ग्रामों में बहुत हैं।" ब्राह्मणों की तरह जैनियों में भी श्रावकों की जाति की संख्या चौरासी कही जाती है। इन श्रावकों की जातियों के नाम भी वही चौरासी अङ्क के महत्व के लिये एकत्रित किये गये होंगे। देश, जाति और गोत्रादि की अपेक्षासे श्रावकों की जाति-संख्या चौरासी से भी अधिक मिलती है, और वर्णादि दृष्टिसे उनके भेद चौरासी संख्यासे बहुत कम भी है। चौरासी संख्याका महत्व ही इसका एकमात्र कारण मालूम होता है। इसी प्रकार जैनियोंके आचार्यों में जो गच्छभेद हैं, उनकी संख्या भी प्रसिद्धि में चौरासी बतलाई जाती है, परन्तु वास्तव में चौरासी से भी अधिक मिलते हैं। कई स्थानोंमें जैन-तीर्थों की संख्या भी चौरासी देखने में आई है। जैन लोग जो चौरासी लक्ष जीव-योनि को संख्या बताते हैं उसकी गणना इस प्रकार है-पृथ्वीकाय ७ लक्ष, अपकाय ७ लक्ष, तेजकाय ७ लक्ष, वायुकाय ७ लक्ष, प्रत्येक बनस्पतिकाय १० लक्ष, साधारण वनस्पतिकाय १४ लक्ष, दो इन्द्रियवाले २ लक्ष, तीन इन्द्रिय वाले २ लक्ष, चार इन्द्रियवाले २ लक्ष, देवयोनि ४ लक्ष, नरकयोनि ४ लक्ष, तिर्यंच पचेन्द्रिय ४ लक्ष और मनुष्ययोनि १४ लक्ष-सब मिला कर ८४ लक्ष। __ जैनियों में इस चौरासी अङ्क का व्यवहार और भी बहुत से स्थानों में मिलता है। जैसे कि इनके प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान की आयु चौरासी लक्ष पूर्व वर्ष की थी इत्यादि। इनके अतिरिक्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्राधावली. चौरासी चौहट्ट कहे जाते हैं। यह संख्या भी कल्पित-सी है, कारण चौहट्टों की संख्या में कम-वेशी हो सकती है। दिगम्बर जैन लोग मथुरा के पास वृन्दावन के गस्तेमें एक स्थान को भी 'चौरासी' कहते हैं, और वहां अन्तिम केवली श्री जम्बुस्वामी का निर्वाण मानते हैं। परन्तु वे लोग स्थानका नाम चौरासी होनेका कुछ कारण नहीं बताते हैं। इसी प्रकार इस चौरासी अङ्क का व्यवहार प्राचीन कालसे नाना खानमें नाना प्रकारसे देखने में आता है परन्तु इसका कोई गूढ़ तत्व अथवा और कोई विशेष रहस्य मेरी दृष्टि में नहीं आया। आशा है कि पुरातत्त्व-प्रेमी सजन इस विषय को ध्यान में रखकर भविष्य में इस पर और भी प्रकाश डालेंगे। चौरासी आसन १ अध्वासन १५ उर्द्धसंयुक्तपादासन २८ ग्रन्थिभेदनासन २ अर्ध कुर्मासन १६ उष्ट्रासन २६ चक्रासन ३ अर्ध पद्मासन १७ एकपाद वृक्षासन ३० ज्येष्ठिकासन ४ अर्ध पादासन १८ अंगुष्ठासन ३१ ताडासन ५ अपानासन १६ कार्मुकासन ३२ त्रिस्तम्भासन ६ अर्थ वृक्षासन २० कुक्कुटासन ३३ दक्षिण चतुर्थास ७ अघ शवासन २१ कूर्मासन पादासन (गोमुखासन ) ३४ दक्षिण पादपवन ६ उपधानासन २२ कोकिलासन मुकासन १० उत्कटासन २३ कंदपीडनासन ३५ दक्षिणपादशिरासन ११ उत्तान कूर्मासन २४ खंजनासन ३६ दाक्षण पाद. १२ उत्थित विवेकासन २५ गर्भासन त्रिकोणासन १३ उर्द्ध पद्मासन २६ गरुडासन ३७ दक्षिण तर्कासन १४ उर्द्ध धनुशासन २७ गोरखासनमद्रासन ३८ दक्षिणासन 22 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली * गमनासन ३६ द्विपाद पासन ५८ वाम जान्वासन ७३ भुजंगासन ४० द्विपाद शिरासन ५६ बाम त्रिकोणासन ७४ मत्स्यासन ४१ ढ़ासन ६० बामदक्षिण ७५ मत्स्येन्द्रासन ४२ धनुषासन पादासन ७६ मयूरासन ४३ धोरासन तथा ६१ वाम दक्षिण म ७७ मुक्तहस्त वृक्षापन दक्षिण पाद धारासन गमनासन ७८ मंडुकासन ४४ निःश्वासासन ६२ वामपाद अपान ७६ योन्यासन ४५ पवन मुक्तासन ८० लोलासन ४६ पवनासन ६३ बाम पाद पवन ८१ शवासन ४७ पर्वतासन मुक्तासन ८२ शलभासन ४८ पूणपाद त्रिकोण ६४ बाम बक्रासन ८३ सर्वाङ्गासन ४६ पूण पादासन ६५ बाम भुजासन ८४ समानासन ५० पूर्व तर्कासन ६६ बाम शास्वासन ८५ सिद्धासन ५१ प्रार्थनासन ६७ बाम सिद्धासन ८६ सिंहासन (व्याघ्र०) ५२ प्राणासन ६८ बाम हस्त चतु. ८७ स्थितविवेकासन ५३ प्राढ़ासन कोणासन ८८ स्थिरासन (वामार्द्ध पद्मासन) ६६ बामहस्त ८६ स्वस्तिकासन ५४ बद्धपद्मासन भयङ्करासन १० हस्त भुजासन ५५ बातायनासन ७० बामहस्त भुजासन ६१ हस्त वृक्षासन ५६ वाम अर्द्ध पादासन ७१. वीरासन ६२ हंसासन ५७ वाम अगुष्ठासन ७२ वृक्षासन १३ क्षेमासन चौरासी संग ५ इमनी १ अमलिया ___कसोटी २ अहवा ६ इसत्र ( संगेसम ) १० कांसला ३ आलेमानी 6 उपल ११ कुदरत संग ४ आरगे ८ कटेला(जामुनियां) १२ स्वाग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली * १६६ * १३ गवा ३८ पन्ना १४ गुन्दड़ी ३६ पायजहर १५ गोमेद ४० पारस १६ गोरी सङ्ग ४१ पितोनिया १७ गौदन्ता ४२ पीटकवुझावा १८ चिती ४३ पुखराज १६ जजेमानी ४४ फिरोजा २० जड़सङ्ग ४५ बांशी संग २१ जघरजट्ट ४६ बिलोर २२ जहरमूरा १७ वेरुज २३ डंग ४८ मकड़ी संग २४ ढेडी सङ्ग ४६ मकनातिस २५ तामड़ा ५० मरगज २६ तुरमुली ५१ मरवर संग २७ तुरषावा ५२ मरियम २८ तेलिआ ५३ माणिक २६ दारचना ५४ मुषा संग ३० दाहन फिरङ्ग ५५ मूंगा ३१ दांतला ५६ मोती ३२ दूरनजफ ५७ रत्तक या रतवा ३३ घोनेला ५८ राट संग ३४ नरम ५६ लशुनियां ३५ नीला ६० लाजवरद ३६ पनधन ६१ लास संग ३७ पाथरो ६२ लालड़ी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ६३ लीली ६४ लुधिया ६५ शाड्डया ६६ शिरखडी या संग जराहत ६७ सफरी ६८ सितारा संग ६६ सिया संग ७० सिरिया ७१ सीङ्गली ७२ सोमाक सङ्ग ७३ सोवार सङ्ग ७४ सुरमा संग ७५ सानेला ७६ सोलेमानी. ७१ सोहानमखी वा सोनामक्षि ७८ हकिक ७६ हकिक कुलवाहार ८० हजरलयह या हाउबेर ८१ हदिद ८२ हालन ८३ हावास ८५ हीग www.umaragyanbhandar.com Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *१७० * * बांधारली * चौरासी ज्ञातिन CC १ अग्रवाल २ अच्छितवाल ३ अष्टवगी ४ आठसषा ५ आणंदोरा ६ ओसवाल ७ कष्टि ८ कपोल ६ करही १० कालिया ११ काट १२ काथौरा १३ कोरंटवा १४ कवी १५ खंखेरवा १६ खंडेलवाल १७ गुजरवा १८ गोलावा १६ चउसषा २० चित्राडा २१ चीतौडा २२ चंडायना २३ जागडा २४ जालहरा. २५ जायसवाल २६ जांबूस २७ जिटाडा २८ जीडीस २६ जेहराणा ३० डीडूवाल ३१ तिलउरा ३२ तिसउ ३३ दीसावाल ३४ दोसषी ३५ दोहिल ३६ धाडक ३७ नरसिंघउरी ३८ नाउरा ३६ नागद्रहा ४० नागर ४१ नानावाल ४२ नीमा ४३ पद्मावती पुरवाल ४४ पल्लीवाल ४५ पंचम ४६ पुरकरवाल ४७ पोरवाल ४८ घग्धू ४६ बघेरवाल ५० बयस ५१ बंगट ५२ बंधणो ५३ बंभ ५४ ब्राह्माणी ___+ इन चौरासो जाति श्रावकोंके नाम प्राचीन पत्रसे दिये गये हैं। बीकानेरसे प्रकाशित 'महाजनवंश मुक्तावली' के पृ० १६४ में ८४ बणिक जातिके नाम छपे हैं। उस तालिकामें इन नामोंसे कुछ फेरफार है । ऐसी तालिका 'जैनसम्प्रदाय शिक्षा' नामक पुस्तकके पृ० ६८६ में भी प्रकाशित हुई है और इसमें गुजरात और दक्षिण-प्रान्तके चौरासी यातोंको तालिकायें भी हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली* ५५ बाच ५६ बायडा ५७ बालमी ५८ भटेरा ५६ भडिया ६० भाभू ६१ भूगडा ६२ भोगिउडा ६३ मडाहडा ६४ महुवर ६५ माघयर ६६ मेडतवाल ६७ मेवाड़ा ६८ मोढ ६६ राजौरा ७० रुस्तकी ७१ लाड ७२ श्रीखंडेरी ७३ श्रीगुरु ७४ श्रीमाल ७५ साचौग ७६ सुहडया ७७ सूराणा ७८ सोधति ७६ सोनीवाल ८० सोरतिया ८१ सोहरिया ८२ हरासारा ८३ हालर ८४ हूंवड १ अकीक हट्ट २ अफीण ३ अमल ४ इंधण ५ कडव ६ कपास ● कसेरा ८ कंदोई ६ कागल १० काछी ११ कापड चौरासी चौहट्टे * १२ कीलिका १३ कुंभकार १४ कूडिया १५ गलियार १६ गंधर्व १७ गंधी १८ गांछा १६ गुलनी २० घांचीनो २१ घोवटी २२ चितेरा २३ चोपावटी २४ छोपा २५ जवाहर २६ जीर्णशाला २७ जोडा २८ तलावटि २६ तूनारा ३० त्रापडिया ३१ दांत ३२ दूध ३३ दोगवली • हाटोंके ये नाम भी प्राचीन पत्रसे लिखे गये हैं। चौहट्टों अर्थात् मंरियों के नामोंकी तालिका किसी जगह प्रकाशित मेरे देखने में नहीं भाई है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *१७२ * * प्रबन्धावली* ३४ दोसी ३५ नाण ३६ नापित ३७ नालिकेर ३८ निस्ती ३६ नोराग ४० पटुआ ४१ पट्टकूल ४२ परीषद ४३ पस्ताक ४४ पाननी ४५ प्रवाल ४६ फड ४७ फूल ४८ फोफलीय ४६ बकर ५० बलियार ५१ बाजित्र ५२ बिंधग ५३ वेश्या ५४ वंद्यक ५५ भडभुजा ५६ भरवार ५७ भांगूड़ा ५८ भंसा ५६ मणीयार ६० मंजी ६१ मांडविया ६२ मोची ६३ रंगरेज ६४ लषेर ६५ लुहार ६६ लूण ६७ लोहनी ६८ शस्त्र ६६ पामर ७० पीजर ७१ बेडागर ७२ सकह ७३ सतूभारा ७४ सरहिआ ७५ सराणिया ७६ साकर ७७ सांथरिया ७८ सिलाव ७६ सुई ८० सुनार ८१ सुवर्ण ८२ सुषडी ८३ सूत्र ८४ सूत्रहार चारासो गच्छ १ उच्छितवाल ___६ काछेलिया २ ओटविया १० किहरसा ३ ओसवाल ११ कुतुबपुरा :: कनकपुरा १२ कूत्रोरा ५ कनोजिया १३ कोडीपुरा ६ कमल कलसा १४ कोरंटवाल ७ कंदोषिया १५ खरतर ८ कंबोजिया ६ खंभाया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat १७ गच्छपाल १८ गंगेसग १६ घंघोधारा २० घोषवाल २१ चित्रावाल २२ चोतौडा २३ जावडा २४ जालौरा www.umaragyanbhandar.com Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रधावली. २५ जांगडा २६ जीराउला २७ झेटिया २. तपागच्छ २६ त्रांगडिया ३० थंभणा ३१ दकहरा ३२ दासहिया ३३ देकवाडिया ३. दोवंदणीक ३५ धर्मघोष ३६ धंधूषा ३७ नगरको ३८ नागदहा ३९ नागरवाल ४० नागोरीतमा ४१ नाडोला ४२ नाणावाल ४३ पल्लीवाल ४४ पाल्हणपुग ४५ पांचवहलि ४६ पूर्ण तिल ४७ बघेरवाल ४८ बडगन्छ ४६ बडौंदिया ५० बहेडिया ५१ घांपणा ५२ विआणा ५३ विजाहरा ५४ विरेजीवाल ५५ बेगडा ५६ बेलिया ५७ वोकडिया ५८ बोरसिंहा ५६ ब्रह्माणिया ६० भटनेरा ६१ भरुअछा ६२ भावराजिया ६३ मिन्नमाल ६४ भीमसेनिया ६५ मघोडिया ६६ मलधारा ६७ मंडालिया ६८ मंडाहडा ६६ मंधाणा ७० मंधोरा ७१ मुरंडवाल ७२ मुहसोरडिया ७३ रामसेनिया ७४ भदोलिया ७९ रेवती ७६ संजतीया ७७ साचौरा ७८ साडेरा ७६ सिद्धांतिया ८० सुगणा ८१ सेवंतरिया ८२ सोरठिया ८३ सोषारा ८४ हंसारको 'विशाल-भारत' व ३ खण्ड २ अङ्क ३ (सितम्बर १९३०) पृ० २८२-२८४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकमान्य का संस्मरण आज मैं जिस पत्र के लिये दो अक्षर लिख रहा हूं वह 'लोकमान्य' है, यह नाम जब कहीं सुनने में अथवा देखने में आता है उस समय भारत के सर्वश्रेष्ठ पुरुष की स्मृति ताजी हो जाती है । उस पुरुषरत्न लोकमान्य के प्रति जनता ने एक समय किस तरह की अगाध भक्ति और श्रद्धा दिखलाई थी, तथा हार्दिक प्रेमका परिचय दिया था, उसका दृश्य मेरे नेत्रों के सन्मुख उपस्थित हो जाता है। वह मेरे हृदयपटपर ऐसा अङ्कित है कि आजीवन भूला नहीं जा सकता । बम्बई की वह मर्मस्पर्शी घटना जो मैंने उस समय देखी थी, वैसी शायद ही कहीं देखने में आयगी । पुरातत्व विषय शोधका प्रेमी होनेके कारण पूनेके प्रसिद्ध भांडार - कर पुरातत्व भवनको एक बार देखनेकी मेरी इच्छा बहुत समय से थी। एक बार काठियावाड़की यात्राका इरादाकर मैं बम्बई पहुंचा । उस समय ऐतिहासिक विद्वान् मुनि जिनविजयजी और मेरे मित्र स्वर्गीय आर० डी० बनर्जी साहेब पूनेमें थे । बम्बई पहुंच कर मैंने पूने जानेका निश्चय किया और यथा समय पूनेके दर्शनीय स्थान देखकर और मुनि महाराज के आतिथ्य का सौभाग्य प्राप्त करनेके बाद बम्बई लौट आया। यहां कुछ समय रहकर शीघ्र ही खाने होनेका विचार कर रहा था । इसीलिये शामको समान वगैरह खरीदनेके लिये बाजार में गया था । मैं एक दूकान में था, वहीं लोकमान्यजी की पीड़ा वृद्धि और संकटापन्न दशाकी खबर मिली। खबरका पहुंचना था कि बाजार की सभी दुकानें बन्द होने लगीं । सर्वत्र सन्नाटा छा गया, मानो लोगोंके अपने अपने घरमें ही कोई महान विपद उपस्थित हुई Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रधावली. * १७५. हो। डेरेमें लौटने पर ज्ञात हुआ कि तिलक महाराजकी व्याधि असाध्य हो गई है। कार्य समाप्त कर लौटने के एक दिन पूर्व टिकट लेकर स्थान रिजर्व करानेको ज्यों ही स्टेशन की तरफ अग्रसर हुआ कि एक बड़ा ही अवर्णनीय दृश्य देखा। स्टेशन पर पहुंचते ही सारा प्लेटफार्म, जो हर समय जनाकीर्ण रहता था, प्रायः जनशून्य था। दफ्तरोमें जहां सैकड़ों कर्मचारी अपने अपने कार्यमें तत्पर दिखाई देते थे वहां दो एकके सिवा कोई नजर न आता था। पूछनेपर माल्म हुआ कि आज लोकमान्य बालगंगाधर तिलक इस असार संसारसे कृव कर गये। रेलवे कर्मचारियोंको इस दिन अन्य कार्योंकी ब्यवस्था करनी.कठिन हो गई थी। सबेरेसे बारम्बार केवल पूनेकी ओरसे स्पेशल ट्रेनें आ रही थीं। तिलक महाराजके कुटुम्बियोंके अतिरिक्त हजारों नरनारी उस पुरुषश्रेष्ठके अन्तिम दर्शन की लालसासे सजल नयन होकर चले आ रहे थे। मैं तो पहले ही वहां की भीड़ देखकर हतबुद्धि सा हो गया था फिर उक्त खबरसे और भी विषादित हो गया। भीड़ से ऊबकर डेरे लौटनेका विचार किया परन्तु स्टेशन से बाहर आनेपर जनस्रोत देखकर आगे बढ़नेकी हिम्मत न हुई। सब लोग शोकमें सिर नीचा किये हुए, एक ही भावमें डूबे हुए धीरे-धीरे अग्रसर हो रहे थे। नीरवता छाई हुई थी। किसीके मुखसे एक शब्द तक नहीं निकलता था। लोकमान्य जीकी अथों पीछेसे आ रही थी। सारेशहरमें जलूसके घूमनेकी बात थी। जलूस को आदिसे अन्त तक देखनेकी इच्छासे, मैं गलियोंकी राह, कालवा. देवीके निकट जवेरी-बाजार पहुंचा और एक परिचित मित्रकी दुकान पर कठिनाई से जाकर बैठा। गस्तेकी दोनों पट्टीकी दुकानों और मकानोंपर पहले ही से लोग ठसाठस भर गये थे। मनुष्योंको भीड़से रास्ते अस्तित्वका लोप सा प्रतीत होता था। जलूस क्या था, सारा शहर ही उमड़ पड़ा था। जिधर दृष्टि पड़ती थी नरमुण्ड ही नमुण्ड दिखाई पड़ते थे। हिन्दू, मुसलमान, पारसी, मारवाडी, 23 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १७६ * * प्रबन्धावली* पंजाधी, दक्षिणी, मद्रासी सब जाति और धर्मवाले दलके दल सम्मिलित थे। वही ढोल करतालके साथ उस महापुरुषकी प्रशंसा गीत गाये जा रहे थे। कहीं मृदङ्ग मंजीरकी ध्वनिसे उनकी कीर्ति कहानी वर्णित हो रही थी। बड़ी भक्ति और शान्तिके साथ लोग जनाजेको लिये हुए चले जा रहे थे। तरह तरहके भाव दिलमें उठते थे। सयकी आंखोंमें आंसू थे और दिलोंमें आहोंके बादल। उस समय एकत्व भावकी जैसी पराकाष्ठा देखने में आई वैसी कभी नहीं आई। जाति-निर्विशेषसे सब लोग एक ही रंगमें रंगे दिखाई देते थे। यह निश्चय ही उस देशभक्त महात्माका ही प्रभाव था कि उनके स्वर्गवासके पश्चात् भी देशवासियोंके हृदय में इस प्रकारका उच्च भाव जागृत हो रहा था। जलूसके साथ अंगरेज भी सम्मिलित थे परन्तु पुलिसका एक भी मनुष्य न दिखाई पड़ा। तिलक महारान महाराष्ट्रीय ब्राह्मण थे। उनके वंशमें यह प्रथा चली आती है कि और जातियोंकी बात तो दूर रही, स्वयं उन्हींकी जातिके ब्राह्मण भी घरवालों को छोड़कर, मृतदेह को स्पर्श नहीं कर सकते। परन्तु यहां तो मामला ही कुछ और था, हिन्दू के अतिरिक्त मुसलमान, पारसी, यहूदी आदि सभी लोग जनाजे को रथी को कन्धों पर रखने को लालायित थे। इसे वे महान पुण्य समझते थे और सभी लोग रथी उठाते हुए क्ल रहे थे। रथी में लोकमान्य बैठी हुई अवस्था में रखे गये थे। पुष्पोंसे, वह पवित्र रथी, ऊपर से नीचे तक लदी हुई थी। सायंकाल में समुद्र तटपर उनकी अन्त्येष्टि क्रिया समाप्त हुई। मैं चौपाटी के निकट एक मकान के ऊपर से यह दृश्य देख रहा था। मुझे मालूम हुआ कि हिन्दुओं का जो साधारण श्मशान है वहां २३ हजार मनुष्यों से अधिक के ठहरने की गुञ्जायश नहीं है, लेकिन यहां तो लाखों की संख्या थी। नेताओं को बड़ी घवराहट हुई। वे लोग कार्पोरेशन के मेयर के पास गये और समुद्र तटपर शव दाह की आज्ञा मांगी। उनके असमर्थता प्रगट करनेपर सब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली. लोग गवर्नर साहब के पास दौड़े। वे भी कुछ न कर सके और प्रश्न पोर्ट कमिश्नर पर छोड़ दिया। सूरतनिवासी स्वर्गीय सेठ गुलावचन्द देववन्द आदि नेताओं के प्रयत्न करने पर पोर्ट कमिश्नर साहबने, इस शर्तपर कि भविष्य में अग्नि-संस्कार के स्थान पर कोई स्मृति-चिह न बने, वहां शव-दाह की आज्ञा दे दी। चिताग्नि धधक धधक कर जलने लगी। स्त्रो, पुरुष, छोटे, बड़े लाखों के नेत्रों के सन्मुख उस पुरुषरत्न का भौतिक शरीर भस्मीभूत होकर सदा के लिये अनन्ताकाश में विलीन हो गया। इस प्रकार यह पवित्र स्मृति मेरे अन्तस्थल में सर्वदा के लिये अवल हो गई है। हाय! वैसे पुरुष क्या दुनिया को फिर कभी नसीब होंगे? काल किसी को नहीं छोड़ता! विधि का विधान ही बिवित्र है !! 'लोकमान्य'-दिवाली विशेषांक, २१ अक्तूबर १९३० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलकत्ते में कला प्रदर्शनी कलाचार्य ठाकुर महोदय तथा साहित्य और कला प्रेमी मित्रों और सजनों! आप यह मेरे लिये बड़े ही सौभाग्य तथा गर्व की बात है कि आज आपका इस स्थानपर स्वागत करने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। आप सब सजनों का कला स्थापत्य यत्नतत्व आदि विषयोंके पारंगत विद्वान हैं इस भवनमें एकत्रित देख कर मेरे हृदयमें आनन्द की जो बाढ़ आ रही हैं उसे शब्दों में आप के सन्मुख रख सकू यह शक्ति मेरे में नहीं है। आचार्य महोदय तथा सजनो! जब हिन्दी साहित्य-सम्मेलनकी ओरसे पं० गांगेय नरोत्तम शास्त्रीने मुझे उसके खोले जानेवाली प्रद. शनीका भार देनेका प्रस्ताव किया था उस समय मैं अपने कंधोंपर उठा सकनेका बल नहीं पा रहा था किन्तु इच्छा सदा यही रही कि यदि मैं हिन्दी साहित्य सम्मेलन तथा विद्वान-जनताकी सेवाकर सकता तो यह मेरा परम सौभाग्य होता। अनिच्छासे अस्वीकार करनेपर भी शास्त्रीजी महोदय तथा मित्रोंके आग्रहने मुझे लाचार कर दिया कि अपने में पूरी शक्ति न देखते हुए भी उनका आज्ञा शिरोधार्य करू। वृद्धावस्थामें ज्ञान की तृष्णा तो बढ़ती जाती है किन्तु शरीर पूरी सहा. यता नहीं देता कि उसको बुझानेका समुचित उद्योग हो सके। इसीलिये मैं अपने उन मित्रोंका तथा प्रदर्शनी समितिके सदस्योंका सदा ऋणी रहूंगा जिन्होंने अपने अनुभव तथा दैहिक बलसे मेरी मनोकामनाको पूर्ण करने में कोई कोर कसर बाकी न रखो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रबन्धावली. *१७६. सजनों ! मेरा हर्ष सोमासे बाहर हो जाता है जब कि मैं आपको इस 'कुमारसिंह हाल' में एकत्र देखता हूं। इसे हमारे स्वर्गीय पिताजीने हमारे परम प्रिय कनिष्ट भ्राताके स्मारकमें स्थापित किया था। इस भवनके ऊपर श्री आदिदेव भगवानकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा करवाकर उन्होंने इस मन्दिरका महत्व और भी बढ़ा दिया। स्वर्गीया ज्या माताजीके स्मारकमें इस तुच्छ सेवकने एक पुस्तकालय प्राचीन मूर्तियों तथा वित्रोंका एक संग्रहालय स्थापित किया है। इस संग्रहके विषय में मैं कुछ कहना नहीं चाहता। आप जैसे देश विदेशों के गुणियों, पारखियों तथा कलावन्तोंने अपनी अमूल्य सम्मनियां प्रदान कर मेरा उत्साह बढ़ाया है। भारत के प्राण महात्मा गांधी, पं. जवा. हर लाल नेहरु आदि इस स्थानको पवित्र कर चुके हैं। इस हालको आप भी पवित्र कर रहे हैं इससे मेरा उत्साह कई गुना बढ़ गया। सबों! हम सब लोगोंके लिये आज एक सुअवसर उपस्थित हुआ। यह शुभ सम्बाद हम सब लोगोंको विसे ग्कर आह्लाद कर है कि अखिल भारतवर्षीय हिन्दी पाहित्य सम्मेलनके बीसवें अधि. वेरा मनोनीत समारति हिन्दोके महाकवि और अपूर्व विद्वान श्री जगनाय दासजी रत्राका हमारे बीवो पधारे है। सबसे अधिक हका विम तो हमारे लिए यह है कि इस 'कुपार सिंह हाल' में आपका स्वागत करने का यह पहला सुप्रासर इस सुयोगले हमें दे दिया। उपस्थित कला मर्मज्ञ सजनों ! भारतीय चित्र तथा स्थापस्य कला. प्राचीन सिके, हस्तलिखित ग्रंथ आदिमें इधर भारत भरमें राष्ट्रीय जागृषिके कारण हमलो। अधिक ध्यान देने लगे हैं यह देशके सौभाग्य का विषय है। मुझे वह समय परण है :जब कुछ इने गिने विद्वान ही इस क्षेत्रमें काम करने उतरे थे। उस समय आपका प्रस्तुन सेवक इस कार्यमें अपनी शक्तिभर लगा हुआ था। उसका थोड़ा बहुत फल आप इस प्रदर्शनी में भी देखेंगे। सजनों, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १८० * * प्रबन्धावली भारतीय कलाको पुनर्जीवित करने का सारा श्रेय तो उस महापुरुषको है जिसने कृपा करके अपने स्वास्थ्य की विशेष चिन्ता न कर अपना बहुमूल्य समय देकर प्रदर्शनी खोलनेके लिये सहर्ष हमारा निमंत्रण स्वीकार किया। डा० अवनीन्द्र नाथ ठाकुर तथा श्रीयुत ई० वी० हेवेल.साहब का ही यह उद्योग है कि आज भारत तथा संसार भर में हमारी: वित्र कलाने गौरवास्पद स्थान प्राप्त किया है। सबसे पहले पेरिसकी सर्व गष्ट्रीय चित्रकला प्रदर्शनीमें हमारे उद्घाटक महोदय का चित्र 'शाहजहाँ की मृत्यु' ही था, जिसने संसार का ध्यान भारतोय सौन्दर्य तथा रूप रंग-रेखा-ज्ञानको ओर खींचा और इस भारतीय कृतिको देख कर संसार भरमें हलचल मच गयी। आपका एक चित्र 'महाराजा अशोककी पटरानी' सम्राट् पञ्चम जार्ज तथा सम्राज्ञी अपने साथ ले गयीं। अभी तक वह चित्र राज प्रासादको सुशोभित कर रहा है। आपकी प्रतिभा २० वर्षकी अवस्थासे ही चमकने लगी थी और जब आप ३२ वर्षके हुए उस समय आपने गवर्मेन्ट स्कूल आफ आर्टमें अध्यक्षका काम भी किया। स्वर्गवासी आशुतोष मुखर्जीने आपको कलकत्ता विश्व विद्यालयमें ललित कलाकी बागेश्वरी चेयरका पहला अध्यापक नियुक्त किया। इससे आपका नहीं, किन्तु विश्व विद्यालयका गौरव बढ़ा। सरकारने भी आपको कीर्तिक फल स्वरूप आपको सी० आई० ई० को उपाधिसे विभूषित किया। देखिये ! कला ही एक ऐसा विषय है जहां लक्ष्मी और सरस्वती दोनोंका समावेश देखने में आता है। वैदिकयुग, बौद्धयुग अथवा यवा राज्यकाल जिस समय राजा, महाराजा, धनी मानी लोग कुछ धर्म कार्य करने और स्थायी कीर्ति तथा स्मारक रख जानेकी इच्छा करते थे उस समय वे लोग अजस्त्र अर्थ व्यय करके अच्छे-अच्छे शिल्पी द्वारा अपने विचारों के निदर्शन रूप कीर्तियाँ बनवाकर छोड़ जाते थे। जब जिस समय धनवान लोगोंको धर्म और ज्ञानकी ओर प्रेम हुबा उस समय वे लोग अपने अर्थका सदुपयोग करके कलावित् पुरुषोंको योजनासे नाना प्रकारको वस्तुएं तैयार करवा कर अक्षय कोर्ति छोड़ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रबन्धावली. * १८१ * गये। उन्हीं कीतियोंका कुछ अंश :आज आप लोगोंके सम्मुख उपस्थित किया गया है। मैं अब उन मित्रोंको धन्यवाद देता हूं जिन्होंने अपनी यह सब अमूल्य सामग्री हमें सौंपकर प्रदर्शनी को सफल बनानेमें हमारा हाथ बटाया है तथा जिन्होंने शारीरिक, मानसिक, और अन्यप्रकारसे इस काममें सहायता दी है। अब मैं आप लोगोंका समय लेना नहीं चाहता केवल अपने सहयोगी मित्र डा. हेमचन्द्रजी जोशीसे अनुरोध करूगा कि आप इस विषय पर अपने कुछ विचार प्रकट करें। खनामधन्य जगत विख्यात डा० रवीन्द्रनाथ टैगोर महोदयने भी हिन्दी साहित्य सम्मेलनकी तथा साहित्य-प्रदर्शनी की पूर्ण सफलताके लिये अपनी आन्तरिक शुभेच्छा का संदेशा भेजा है और वे आशा रखते हैं कि समस्त साहित्य और कला-प्रेमी सच्चेजन पारस्परिक एकताके सच्चे भावसे बंधे रहकर कार्य में अग्रसर होते रहेंगे। अखिल भारतवर्षीय हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन, वीसवां अधिवेशन के अवसर पर 'साहित्य-प्रदर्शना' के मंत्री पदसे दिया हुआ भाषण (सं० १९८८) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LIST OF WORKS & ARTICLES Works. An Epitome of Jainism Jain Inscriptions Part I Part II Part III Prakritsuktaratna mala " 19 Tirtha Pawapuri प्रथमावली aint size श्री पावापुरी तीर्थ का प्राचीन इतिहास Articles. Prakrit Poems Jain Swetambar Conference Herald Vol. IV 1908 ) Rajgir Jain Inscription (The Journal of the Bihar & Orissa Research Society Vol. V September, 1919) A Note on the Jaina Classical Sanskrit Literature (Second Oriental Conference, Calcutta, 1922 ) The Genealogy of the Jagat Seths of Murshidabad (The Fifth Indian Historical Records Commission, Calcutta, 1923) Pawapuri Temple Prasasti (The Indian Historical Quarterly Vol. I No. I 1925) Jain Bibliography (Jain Gazette Vol. XXII 1926 ) Inscription at Dasturhat (Murshidabad) 1754, A.D. (Bengal Past & Present Vol. XXXV 1928) A Note on the Swetambar and Digambar Sects, (The Indian Antiquary, September, 1929) The Jain Tradition of the Origin of Pataliputra (Sixth All India Oriental Conference, Patna, 1930) www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2 ) Some Materials relating to the Life and Time of Tirthankara Mahavira (Oswal Navayuvak Vol. V 1932) Antiquity of the Jain Sects (The Indian Antiquary Vol. LXI, 1932) Trilingual Inscription (1734 A.D.) (Indian Historical Quarterly Vol. X, 1934) Note on Two Jain Images from South India (Indian Culture Vol. I, 1934) A Note on the Kings and Emperors of Delhi (Indian Culture Vol. II No. I, 1935) জৈন দর্শনে ধ্যান (চতুর্দশ বঙ্গীয় সাহিত্য সম্মিলন (দার্শনিক শাখা) ১৩৩০] আসামের কতিপয় হিন্দু নরপতি [চতুর্দশ বঙ্গীয় সাহিত্য সম্মিলন। | ( ইতিহাস শাখা)] মুর্শিদাবাদের কয়েকখানি লিপি ( সাহিত্য পরিষৎ-পত্রিকা ২৪ ভাগ-৩য় সংখ্যা) মুর্শিদাবাদের একটী প্রাচীন লিপি ( সাহিত্য পরিষৎ পত্রিকা একত্রিংশ ভাগ ১ম সংখ্যা) জৈন মূৰ্ত্তি তত্ত্বের সংক্ষিপ্ত বিবরণ (বঙ্গীয় সাহিত্য সম্মিলনের | পঞ্চদশ অধিবেশনে ইতিহাস শাখায় পঠিত ১৩৩১) প্রজাবৃন্দের প্রতি—দুটি কথা (১৯২২) শ্বেতাম্বর ও দিগম্বর সম্প্রদায়ের প্রাচীন (উনবিংশ বঙ্গীয় সাহিত্য সম্মিলন ১৩৩৬) ভগবান্ পার্শনাথ জৈন ভাস্কর্যের নমুনা (বঙ্গলক্ষ্মী বৈশাখ-১৩৪০ ) জৈন মতে জীবে দয়া— ( প্রবাসী ১৩২১-অগ্রহায়ণ ২য় খণ্ড ২য় সংখ্যা) राजगृह तथा नालन्दा (আঁৰান্ত নয় , তাই ?৩) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ alcohllo 1lolle tert pe Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com