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________________ * प्रबन्थावली सत्रहवीं शताब्दो को प्राचीन हिन्दी जैन साहित्य की मध्यावस्था समझना चाहिए। विक्रम संवत् १६.१ में अकबर सम्राट् के गही पर बैठने के पश्चात् परावर ही भाषा साहित्य प्रन्थों की संख्या बढ़ती गई। अच्छे अच्छे कवि, विद्वान् इसी समय में हुए। हिन्दू और जैन आदि सभी सम्प्रदायों के लोगों को इस समय शांति से धर्म और साहित्य की सेवा का अवसर प्राप्त हुआ, और जो कुछ प्राचीन साहित्य के अच्छे अच्छे ग्रन्थ वर्तमान हैं वे सब इसी समय के रचे हमारे कवियों को भाषा साहित्य में कहांतफ उत्साह था यह लिखा रहता है कि अमुक गीत किस प्रचलित गीत को ढाल या लय पर गाया जाय, इससे उस उस समय के “अधामिक” अर्थात् लौकिक गोतों का भी पता चलता है। जैन साहित्य के सुरक्षित और उपलब्ध होने के मुख्य कारण ये है.- प्रधान मंदिरों में भण्डारों का आवश्यक होना और उनपर सुगठित पंचायत का अधिकार होना; जैनों के यहां पुस्तक लिखवाकर साधुओं तथा वाचकों को बांटने को अतिपुण्य कर्म मानना ( कई पोथियों की पुष्पिका में लिखा मिलता है कि अमुक सेठ या सेठानी ने अपने या किसी और के पुण्य के लिये यह लिखवाई), निःसंग साधुओं की अधिकता जो मिक्षामात्र पर निर्वाह करते, किसी प्रकार का परिग्रह न लेते, दिन रात पुस्तकें लिखते और स्वयं उन्हें उठाए फिरते श्रद्धालु श्रावकों का गुरुओं को कांचन न भेट करके ( जिसका उन्हें कोई उपयोग न था ) अपने श्रद्धानुसार अन्य लिखवाने में व्यय करना ( छापाखाने का प्रचार होने पर "श्राद्ध" लोग गुरुनिदेश से पुस्तकों को अतिसुन्दरता से छपवाकर बांटने का समयानुसार परिवर्तन दिखा रहे हैं); गुरुओं को पुस्तकों के अतिरिक्त और प्रकार को संपत्ति न होने से उनकी सम्हाल में विक्षेप न होना, आदि। जैसे आदि प्राकृत साहित्य जैनों का है वैसे आदि अपभ्रंश या मादि हिन्दी साहित्य पर भी जैनों को प्राप है। [सं.]. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035203
Book TitlePrabandhavali - Collection of Articles of Late Puranchand Nahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuranchand Nahar
PublisherVijaysinh Nahar
Publication Year1937
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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