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( २ ) होते हुए भी इसमें मनोभावों का विश्वजनीन आवेदन अनुप्राणित है। हमारे लिये यह अत्यन्त गौरव का विषय है कि पूर्व जैनाचार्यों ने साहित्य
और सभ्यता की एकदेशीयता, एक भारतीयता को बिल्कुल भुला नहीं दिया था। धार्मिक-साहित्य की रचना के साथ-साथ अनेक आचार्यों ने देववाणी संस्कृत में नाटक, काव्य, आख्यायिका, चम्पू इत्यादि की रचनाएँ की थीं, जिनमें से अधिकांश ग्रंथ इसलिये अज्ञात रह गए मालूम होते हैं कि उस समय जैनेतर विद्वानों में धार्मिक अनुदारता की मात्रा अधिक होने के कारण उन्होंने उन ग्रन्थों का उल्लेख नहीं किया। किन्तु अब ज्यों-ज्यों इस देश में ऐतिहासिक अनुसन्धान और पुरातत्व का अध्ययन विशाल होता जा रहा है, जैनियों का गुस्तर साहित्य प्रकाश में आता जा रहा है और अनेक संस्थाएँ उसको प्रकाश में लाने का सुकार्य कर रही हैं। कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्र के नाम से आज कोई भी देशी-विदेशी विद्वान् अनभिज्ञ नहीं हैं। भाषा-शास्त्र और साहित्य का प्रत्येक मर्मज्ञ इस बात को मानता है कि हेमचन्द्राचार्य के समान धुरन्धर और अगाध विद्वान् संसार में बहुत कम हुए हैं। इस हीनावस्था में भी संसार के विद्वान भारतीय साहित्य, दर्शन और कला का जो लोहा मानते हैं, उसका मुख्य कारण भारतीय वाङ्गमय की अलौकिक उन्नति और विस्तृति ही है। भारतीय कला और साहित्य की इस भव्य उन्नति और विस्तृति के मूल में भारत के सभी समाजों और धर्मों के साहित्य का समन्वय है । हिन्दुओं का वैदिक और पौराणिक साहित्य, बौद्ध-साहित्य और जैनसाहित्य सबके योग से ही भारतीय वाङ्गमय की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति होती है। जैन-साहित्य का अतुल भण्डार अभी भी अंधकार में पड़ा है, जिसके प्रकाशित होने से भारत का सिर ऊँचा होगा। भाषातत्व के सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री सुनीतिकुमार चटर्जी ने जेन-साहित्य की महत्ता के लिये लिखा है
"The Jain literature of western India, Gujrat,
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