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उसे जनता के दर्शन, आत्मा के प्रकाश, तिमिर-विनाश के लिये सामने लाना चाहिये। आज की अवस्था तो हमारे लिये लज्जा और दुःख की अवस्था ही है। प्रत्येक साक्षर का कर्त्तव्य है कि वह जैन-साहित्य में रुचि पैदा करे, प्रत्येक विद्वान का कर्तव्य है कि वह जैन-साहित्य को सेवा का प्रण करे । आज यह आवश्यकता है कि जैन-ग्रन्थों को आधुनिक भाषाओं में आधुनिक प्रणाली से सम्पादन करके, भूमिकाओं और टिप्पणियों के साथ उपयोगी बना कर प्रकाशित किया जाय । यूनिवर्सिटियों में पाश्चात्य साहित्य-प्रणालियों का अध्ययन करनेवालों ग्रेजुएटों को जैन साहित्य की-घर के हीरों की भी खबर लेनी चाहिये। जैन-धर्म
और जैन-साहित्य से भारतीय-साहित्य और भारतीय-दर्शन की एक नयी ज्योति उद्भासित हो सकेगी। जहाँ हिंसा और दमन का आतंक है, वहाँ अहिंसा और शान्ति की बूंदे बरस सकेंगी।
स्वर्गीय नाहरजी की अन्तरात्मा इसी ज्योति की प्रभा के प्रसार के लिये लालायित थी-उसीके लिये उनकी कार्य-शक्ति आलोडित थी। आज वे नहीं हैं, तो क्या उनकी प्रेरणा भी जीवित नहीं है ? जैसे उनकी कीर्ति अमर है, साधना अक्षुण्ण है, उसी तरह उनके जीवन की आदर्शात्मक प्रेरणा जीवित है। और हमें उसको ग्रहण करना चाहिये। आशा है, जैन-धर्म के हितैषी और ज्ञान-विकास के सच्चे हिमायती सत्त्वर गति से इस जिम्मेवारी को कार्यान्वित करेंगे। ___ अन्त में, मैं स्वर्गीय नाहरजी की मृतात्मा, किन्तु सजीव प्रेरणा के लिये श्रद्धा और अर्चना प्रकाश करता हुआ, भाई विजयसिंहजी को ये साहित्यिक-प्रबन्ध प्रकाशित करने और मुझे ये पंक्तियां लिखने का दुर्लभ अवसर देने के लिये धन्यवाद देता हूँ।
कलकत्ता
भँवरमल सिंघी
ता. २३-११-३७
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