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* प्रबन्धावली भारतीय कलाको पुनर्जीवित करने का सारा श्रेय तो उस महापुरुषको है जिसने कृपा करके अपने स्वास्थ्य की विशेष चिन्ता न कर अपना बहुमूल्य समय देकर प्रदर्शनी खोलनेके लिये सहर्ष हमारा निमंत्रण स्वीकार किया। डा० अवनीन्द्र नाथ ठाकुर तथा श्रीयुत ई० वी० हेवेल.साहब का ही यह उद्योग है कि आज भारत तथा संसार भर में हमारी: वित्र कलाने गौरवास्पद स्थान प्राप्त किया है। सबसे पहले पेरिसकी सर्व गष्ट्रीय चित्रकला प्रदर्शनीमें हमारे उद्घाटक महोदय का चित्र 'शाहजहाँ की मृत्यु' ही था, जिसने संसार का ध्यान भारतोय सौन्दर्य तथा रूप रंग-रेखा-ज्ञानको ओर खींचा और इस भारतीय कृतिको देख कर संसार भरमें हलचल मच गयी। आपका एक चित्र 'महाराजा अशोककी पटरानी' सम्राट् पञ्चम जार्ज तथा सम्राज्ञी अपने साथ ले गयीं। अभी तक वह चित्र राज प्रासादको सुशोभित कर रहा है। आपकी प्रतिभा २० वर्षकी अवस्थासे ही चमकने लगी थी और जब आप ३२ वर्षके हुए उस समय आपने गवर्मेन्ट स्कूल आफ आर्टमें अध्यक्षका काम भी किया। स्वर्गवासी आशुतोष मुखर्जीने आपको कलकत्ता विश्व विद्यालयमें ललित कलाकी बागेश्वरी चेयरका पहला अध्यापक नियुक्त किया। इससे आपका नहीं, किन्तु विश्व विद्यालयका गौरव बढ़ा। सरकारने भी आपको कीर्तिक फल स्वरूप आपको सी० आई० ई० को उपाधिसे विभूषित किया।
देखिये ! कला ही एक ऐसा विषय है जहां लक्ष्मी और सरस्वती दोनोंका समावेश देखने में आता है। वैदिकयुग, बौद्धयुग अथवा यवा राज्यकाल जिस समय राजा, महाराजा, धनी मानी लोग कुछ धर्म कार्य करने और स्थायी कीर्ति तथा स्मारक रख जानेकी इच्छा करते थे उस समय वे लोग अजस्त्र अर्थ व्यय करके अच्छे-अच्छे शिल्पी द्वारा अपने विचारों के निदर्शन रूप कीर्तियाँ बनवाकर छोड़ जाते थे। जब जिस समय धनवान लोगोंको धर्म और ज्ञानकी ओर प्रेम हुबा उस समय वे लोग अपने अर्थका सदुपयोग करके कलावित् पुरुषोंको योजनासे नाना प्रकारको वस्तुएं तैयार करवा कर अक्षय कोर्ति छोड़ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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