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प्रबन्धावला.
रेघपुर में सरस संबंध ए ज्ञानसागर कहियो रंगे।
धन्यासिरि में ढाल चालिसी सुणज्यो सहू चित चंगे। (३) वार खंड की श्रीपाल चौपाई में से, जिसकी ७५० गाथा रचने के अनंतर श्री विनयविक्रय जी का स्वर्गवास हो गया और जिसे श्री यशोविजय जी ने सं० १७३८ में १८२५ गाथाओं में पूर्ण किया था। बम्बई के जैन पुस्तक प्रकाशक श्रा० भीर्मासह मापिक ने इसे छपाया है। आदि-कल्पवेलि कवियण तणी सरसति करि सुपसाय ।
सिद्ध चक्र गुण गावतो पूर मनोरथ माय ॥
गुरु परंपरा के विवरण के पश्चात् - अंत-संवत सतर अड़तीस बरसे रही रानेर चौमासे जी।
संघ तणा आग्रह थी माड्यो रास अधिक उल्लासे जी ॥ (४) सं० १७४० में श्री जिनहर्षसूरि जी कृत श्रीपालगस भी बहुत मनोज्ञ है। यद्यपि इसमें कुछ गुजराती अपभ्रंश शब्द हैं तथापि संस्कृत शब्द इसमें ऐसे चुने चुने गुथे हुए हैं कि यह ग्रंथ लालत्य में उच्च कोटिका हिंदी साहित्य है। प्रारम्भ-श्री अरिहंत अनंतगुण धरिये हिय ध्यान ।
केवल ज्ञान प्रकाश कर दूरि हटै अज्ञान ॥ अंत-संवत सतरे सै चालिसे, चैत्रादिक सुजगीस रे।
सातम सोमवार सुभदिवस पाटण विसवावीसे रे॥ श्री खरतरगच्छ महिमाघारी जिनचंदसूरि पटवारी रे।
शांतिहर्ष वाचक सुखकारी तास सीस सुविचारी रे॥ कहे जिनहर्ष भविक नर सुणिज्यो नवपद महिमा थुणिज्यो रे।
उनपञ्चासे ढाले गुणिज्यो निज पातिक वन लुणिज्यो रे ॥ (५) उक्त ग्रंथकर्ता ने पुनः सं० १७४२ में अर्थात् दो ही वर्ष के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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