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________________ *प्रबन्धावला. पश्चात् और एक श्रीपालनप रास बनाया। इसकी एक प्रति कालवत्ता संस्कृत कालेन लाईब्रेरी में भी मौजूद है ( नं० १७२ ) । प्रारम्भ-चौविसे प्रणमुं जिन राय, तास साये नवनिधि थाय । सुअ देवी धरि हृदय मंझार, कहिसुनवपद नो अधिकार ॥ अंत-श्री खन्तरगछ पति प्रगट, श्री जिनचंद्र सूरीस । गणि शांति हरष वाचक तणौ, कहे जिन हर्ष सुर्गस ॥ (१) सं. १८३७ में कवि लालचंद जी रचित श्रीपाल चौपाई । आदि-स्वस्ति श्री दायक सदा, चौतिस अतिशयवंत । प्रणमुबे कर जोडिने, जगनायक अरिहंत ॥ अंत की कविता बरस अठारे सै सैतीसे, सुदि आसाढ़ कहीस जी। द्वितीया मंगलवार सुदीस, मिथुन संक्रांति जगीस जी। लालचंद निज हित सभाली, विकथा दूरै टाली जी। हेमचंद्र कृत चरित्र निहाली, चौपई कोधी रसाली जी ॥ (७) कवि चेतनविजयजी स्त श्रीपाल चौपाई, सं० १८५३ की रखी हुई। प्रारम्भ-देवधरम गुरु सेवके, नवपद महिमा धार । अरिहंत सिद्ध आचारज, पाठक साध अपार ॥ अत-वाचक द्धिविजय गुरुक्षानी, तास शिष्य सुध चेतन जानी। गस रच्यो श्रीपाल नो भावे, जे भणसे सुणसै सुख पावे ॥ भठारसे बेपन विक्रम शाषा । फागुन सुदि दुतिये शुभ भाषा ॥ (2) #. १८५६ में रूपमुनि न श्रीपाल चौपाई के प्रारम्भ का पद - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035203
Book TitlePrabandhavali - Collection of Articles of Late Puranchand Nahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuranchand Nahar
PublisherVijaysinh Nahar
Publication Year1937
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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