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प्रथम नमो गुरु चरण कुं पायो ज्ञान अंकूर । जसु प्रसाद उपगार थी, सुख पावे भरपूर ॥ अंत - संवत अठारा छप्पने कहवाया, फागुन मास सवायाजी । कृष्ण सप्तमी अति हितकारी, सूर्य वार जयकारी जी ॥ एकतालीसमी ढाल बखानी, रूपमुनि हितकारी जी । सुने सुना रहे हितकारी, लहै मंगल: जयकारी जी ॥ ( १ ) षीं चौपाई में संवत् नहीं है। इसके कर्त्ता मुमि तत्व
कुमार है।
आदि का पद
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* प्रयन्धावला
आदि पुरुष आदीसरू, आदिराय आदेय । परमात्मा परमेसरू, नमो नमो नाभेय ॥
अंत का पद
तासि सीस मुनि तत्वकुमार, तिन ए गायो चरित उदार ।
जैन भाषा साहित्य के जो प्राचीन ग्रन्थ मिलते हैं वे आचार्य साधुओं के रचे हुए ही अधिक उपलब्ध हैं । श्रावक लोग व्यापार में फँसे रहते थे, और साधु लोग साहित्य खर्चा के प्रेम से उन भाषक लोगों के उपयोगी विषयों पर ग्रन्थ रचकर अपना पाण्डित्य देखाते थे। जैनों के यति आचार्य आदि चातुर्मास, अर्थात् श्रावण से कार्त्तिक तक, अपने धर्म के नियमानुसार एक ही स्थान में रहने के - कारण जिस समय और जिस स्थान में ठहरते थे उसी समय की और जिस नगर में श्रावकों की संख्या अधिक रहती थी उसी स्थान की प्रन्थ रचना अधिकतया मिलती है। ऐसे नगरों में बनारस, • आगरा, .िल्ली, मुर्शिदाबाद, जैसलमेर, जोधपुर, अहमदाबाद, पाटन, सूरत आदि मुख्य हैं।
मेड़ता, : नागोर,
खेद का विषय है कि भाषा साहित्य की ऐसी बहुलता रहने पर -भी हमारे प्राचीन हिन्दी जैन-साहित्य का अभी तक बहुत ही
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