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•प्रबन्धावला.
कम ज्ञान है। इस विषय का जितना ही प्रकाश बढ़ेगा उतनी ही हिन्दी साहित्य की पुष्टि होगी और जैन साहित्य की प्रतिभा दिन दिन बढ़ेगी। प्राचीन जैन साहित्य के द्वादश शताब्दी से भठारहवीं शताब्दी तक के कुछ उपलब्ध प्रन्यों का दिग्दर्शन यहां कराया जाता है।
बारहवीं शताब्दी। विक्रम संवत् ११६७ में जैन श्वेताम्बराचार्य श्री अभयदेव सूरि जी के स्वर्गवास के पश्चात् उनके पट्ट पर श्री जिनवल्लभ सूरि आचार्य हुए, और उसी संवत् में थोड़े ही समय बाद इनका देहान्त हुआ। आप भी बड़े विद्वान् और प्रभावशाली हुए थे। इनके रचे हुए संघपट्टक' आदि सूत्र और कई संस्कृत के अन्य पर्तमान हैं। जहां तक मुझको उपलब्ध हुआ है हिन्दी जन साहित्य में इनका 'वृद्धनवकार' सब से प्राचीन मालूम होता है। इस स्तुति के अन्त में केवल इनका नाम है। संवत् का उल्लेख नहीं है। परन्तु सं० ११६७ में इनका खा. पास होने के कारण उक्त प्रन्थ की रचना का समय सं० ११६० से पूर्व निश्चित किया जा सकता है। इस संवत् के पूर्व की कोई जैन हिन्दी रचना मुझे नहीं मिली है। इसकी प्रारम्भ की और अन्त की कविता इस प्रकार है
वृद्धनवकार । किंकप्पत्ता रे भाषण चिंतउ मण मितरि। किंचितामणि कामधेनु आराहो बहुगरि ॥१॥ चित्रावेली काज किसे देसंतर लंघउ ।
यण रासि कारण किसे सापर उल्लंघउ । बवदह पुरष सार युगे एक नवकार । सयस काज महिगल सरे दुत्तर तरे संसार ॥२॥
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