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* प्रबन्धात्रला*
अन्त के पद -
एक जीह इण मंत्र तणा गुण किना यखाणु। नाण हीन छउ मत्थ एह गुण पारन जाणु ॥ ३४ ॥ जिम सेत्रुजे तित्थ राउ महिमा उदयवंतौ। तिम मंत्रह धुरि एह मंत्र राजा जयवतौ ॥ ३५ ॥ अड़संपय नव पय सहित इगसठ लघु अक्षर । गुरु अक्षर सत्तेव एह जाणो परमाक्षर ॥ ३६ ॥ गुरु जिनवल्लह सूरि भणे सिव सुर के कारण । मरय तिरिय गट्ट रोग सोग बहु दुक्ख निवारण ॥ ३ ॥ जल थल पन्वय वन गहन समरण हुवे इक चित्त । पंच परमेष्टि मंत्रह तणी सेना देज्यो नित्त ॥ ३८ ॥
तेरहवीं शताब्द।। इस शताब्दो में प्रसिद्ध हेनबन्द्राचार्य जी के बनाए हुए संस्कृत प्राकृत बहुत से ग्रन्य हैं परन्तु उनका बनाया हिन्दी ग्रन्थ कोई नहीं मिला है। केवल उनके व्याकरण में अपभ्रंश और उस समय के प्रचलित अन्यों में से उद्धृत उदाहरण मिलते हैं।। पण्डित नाथूराम जी ने इस समय के निम्न लिखित चार ग्रन्थों का उल्लेख किया है
(१)-जम्बूस्वामी रासा-सं० १२६६, धर्मसूरि कृत।
(२)-रेवंतगिरि रासा - स. १२८८ के लगभग, विजयसेन. सूरि कृत।
(३) और ( ४ )-विनयचन्दसूरि कृत-'नेमिनाथ चउपई' और 'उवएस माला कहाणय छप्पय' ।
'उनके बनाए हुए कुमारपाल चरित ( प्राकृतव्याश्रय काव्य ) का कुछ अंश अपभ्रंश अर्थात् उस समय की हिन्दी में है, देखो ना०प्र० पत्रिका भा० २, पृ० १२१ । [सं०] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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