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*प्रधावली.
* १७५. हो। डेरेमें लौटने पर ज्ञात हुआ कि तिलक महाराजकी व्याधि असाध्य हो गई है। कार्य समाप्त कर लौटने के एक दिन पूर्व टिकट लेकर स्थान रिजर्व करानेको ज्यों ही स्टेशन की तरफ अग्रसर हुआ कि एक बड़ा ही अवर्णनीय दृश्य देखा। स्टेशन पर पहुंचते ही सारा प्लेटफार्म, जो हर समय जनाकीर्ण रहता था, प्रायः जनशून्य था। दफ्तरोमें जहां सैकड़ों कर्मचारी अपने अपने कार्यमें तत्पर दिखाई देते थे वहां दो एकके सिवा कोई नजर न आता था। पूछनेपर माल्म हुआ कि आज लोकमान्य बालगंगाधर तिलक इस असार संसारसे कृव कर गये। रेलवे कर्मचारियोंको इस दिन अन्य कार्योंकी ब्यवस्था करनी.कठिन हो गई थी। सबेरेसे बारम्बार केवल पूनेकी ओरसे स्पेशल ट्रेनें आ रही थीं। तिलक महाराजके कुटुम्बियोंके अतिरिक्त हजारों नरनारी उस पुरुषश्रेष्ठके अन्तिम दर्शन की लालसासे सजल नयन होकर चले आ रहे थे। मैं तो पहले ही वहां की भीड़ देखकर हतबुद्धि सा हो गया था फिर उक्त खबरसे और भी विषादित हो गया। भीड़ से ऊबकर डेरे लौटनेका विचार किया परन्तु स्टेशन से बाहर आनेपर जनस्रोत देखकर आगे बढ़नेकी हिम्मत न हुई।
सब लोग शोकमें सिर नीचा किये हुए, एक ही भावमें डूबे हुए धीरे-धीरे अग्रसर हो रहे थे। नीरवता छाई हुई थी। किसीके मुखसे एक शब्द तक नहीं निकलता था। लोकमान्य जीकी अथों पीछेसे आ रही थी। सारेशहरमें जलूसके घूमनेकी बात थी। जलूस को आदिसे अन्त तक देखनेकी इच्छासे, मैं गलियोंकी राह, कालवा. देवीके निकट जवेरी-बाजार पहुंचा और एक परिचित मित्रकी दुकान पर कठिनाई से जाकर बैठा। गस्तेकी दोनों पट्टीकी दुकानों और मकानोंपर पहले ही से लोग ठसाठस भर गये थे। मनुष्योंको भीड़से रास्ते अस्तित्वका लोप सा प्रतीत होता था। जलूस क्या था, सारा शहर ही उमड़ पड़ा था। जिधर दृष्टि पड़ती थी नरमुण्ड ही नमुण्ड दिखाई पड़ते थे। हिन्दू, मुसलमान, पारसी, मारवाडी,
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