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सम्पादक का कर्त्तव्य
आज कल जिस ओर दृष्टिपात करते हैं उधर ही सम्वाद पत्रों, मासिक पत्रिकाओं और छोटे बड़े प्रकाशित प्रन्थों का बहुधा प्रचार देखने में आता है। दैनिक, सप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक आदि सब प्रकार के सामयिक साहित्यपत्र भारत के प्रायः सब ही प्रान्तों से प्रकाशित हो रहे हैं। अजैन सामयिक मौर स्थायी साहित्य की तो गणना होनी कठिन है; परन्तु प्राकृत, संस्कृत, गुजराती, हिन्दी आदि भाषाओं में प्रकाशित जैन प्रन्थों और साहित्य पत्रों की संख्या भी प्रति दिन बढ़ती ही चली जा रही है। किन्तु यह अनुभव सिद्ध है . कि थोड़ा सा सुटङ्खलित कार्य बहुत से शृङ्खलाविहीन और सत्रुटि कार्य से कहीं अच्छा होता है। कभी २ तो यथावत् न किये हुए काम का होना उस के न होने के ही समान हो जाता है। जैसे किसी पुस्तक का अशुद्ध और नष्ट भ्रष्ट संस्करण विद्वानों को दृष्टिमें बहुत ही दोषनीक होता है। विशेष साहित्य के प्रन्थों के सम्पादन के लिये बड़े शक्तिशाली हाथों और व्युत्पन्न मस्तिष्क की आवश्यकता है। मैं सम्पादन के कार्य को दो भागों में लेता हूँ :
( १ ) प्रन्ध सम्पादन ।
(२) सामयिक पत्र सम्पादन ।
प्रथम सर्व प्रकार के साहित्य प्रचार के कार्य में प्राचीन साहित्य का सम्पादन कार्य विशेष कठिन है। प्राचीन साहित्य के प्रचार के लिये सम्पादक को सर्व प्रथम उस की भाषा पर ध्यान देना होगा। जब तक
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