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पुस्तकों के बहुत भण्डार हैं, किन्तु वे बनियों के घर में हैं। उन्होंने उन पुस्तकों को सुन्दर रेशमी वस्त्रों में लपेट कर रखा है। पुस्तकों की ऐसी दशा देख कर मेरा हृदय रोने लगता है, पर जो रोने लगे तो ६३ वर्ष तक जीता कैसे ? किन्तु मुझे ऐसा लगता है कि यदि चोरी कोई गुनाह नहीं समझा जाता हो तो मैं उन पुस्तकों को चुरा ले और फिर उनसे कहूँ कि ये पुस्तकें तुम्हारे योग्य नहीं होने से मैंने उनको चुरा लिया। वणिकों के पास ये ग्रन्थ शोभा नहीं देते, वणिक तो पैसा एकत्रित करना जानते हैं, और इसीलिये आज जैन-धर्म और जैन-साहित्य अस्तित्व रखते हुये भी निर्जीव पड़े हैं।" जैन-साहित्य के अन्वेषण, शोधन और प्रकाशन को इस समय संसार को अत्यन्त आवश्यकता है। जिसकी कल्पना समाज के भविष्य तक पहुँच सकती है, जो आज की जड़ता को महसूस करता है, वह अवश्य पुकार-पुकार कर इस बात को कहेगा कि यदि जैन-समाज सचमुच अपने जीवन की सुखद कल्पना करता है, यदि वह अतुल साहित्य की श्री में संसार का आदर भाजन होना चाहता है, यदि वह अपनी भावी संतति के हृदयों में समुन्नत्त आदर्शों की रचना करना चाहता है, तो उसे अपने गौरवपूर्ण साहित्य की रक्षा, वृत्ति और शोध के लिये कर्मशील हो जाना चाहिये। ज्ञान और साहित्य की साधना के अभाव में धर्म की ज्योति अनन्त काल तक नहीं रह सकती। यदि उसको अनन्त काल तक अक्षुण्ण रखना है. तो साहित्य के संरक्षण और उद्धार का कार्य आवश्यक है। आधुनिक जैन समाज ने जो भी साहित्यिक सुपुत्र पैदा किये, उनसे न केवल समाज और धर्म का मुखोज्जल हुआ, परन्तु समस्त देश की साहित्यिक प्रगति को जीवन और बल मिला। श्रद्धय प० सुखलालजी जैसे विद्वानों ने भारतीय साहित्य और विचार को प्रोत्साहन दिया। जैन समाज के इन्हीं बिरले लालों में स्वर्गीय पूर्णचन्द्रजी नाहर थे।
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लालो ।
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