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* प्रबन्यावली *
सत्ताई से से प्राणातिपात विरमग वतादि साधु के २७ गुण अर्थात् ऐसे गुणालंकृत साधुओं का सम्मान करना जैनियों का कर्तव्य है। . सात से गमादि ७ नय अर्थात् इन सब नय को मिला कर स्याद्वाद नय से जैनियों को चलना चाहिये। आठ ले ज्ञानावरणो आदि आठ कर्म अर्थात् आप लोग इस को क्षय करने में समर्थ हों ( इन फर्मों से छूटने से ही मुक्ति होती है)। अठारह से प्राणातिपात आदि १८ पापस्थान अर्थात् इन पापस्थानों से बचते रहें। तीसा से मोहिनी कर्म के तोस भेद अर्थात् मोहिनो फर्मों से दूर रहें। छ से पृथ्वीकाय भादि ६ प्रकार के जीव अर्थात् इनकी रक्षा करें। छ से प्रोष्मादि ६ ऋतु अर्थात् ये ऋतु सुखदायो हों। नवे से वस्ति आदि ६ वाड़. अर्थात् शील को नववाड़ रक्षा करो। छत्तीस से प्रतिरूप आदि आचार्य के ३६ गुण अर्थात् ऐसे गुणवान आचार्यों की सेवा करें। तीन से मन गुप्ति आदि तीनों गुप्तियों से सर्व जीवों की रक्षा करो। तेरह से आलस आदि १३ काठिया से बचते रहो। तेतीसां से ज्ञान दर्शनादि को ३३ आशातना नहीं करना चाहिये। बयालोस से आधा कर्मो आदि अहार के ४२ दोष से निर्दूषित आहार साधुओं का देते रहो। बावन्न से अहारादि के जो ५२ अनाचार हैं उनको टालते हुए जो संयमी साधु हैं उनकी सेवा करते रहें। चार से दानादि धर्म के चारों मार्ग में तत्पर रहें। बारह से अनित्यादि १२ भावना भावते रहें। बहोत्तर से अतीत, वर्तमान और अनागत समस्त तीर्थंकरों को ध्याते रहें। आऊंरे* अर्थात् साढ़े तीन-इससे यह सूचित होता है कि साढ़े तीन करोड़ रोमावली की चौबीसों तीर्थंकर रक्षा करें। चौसठ से चमरेन्द्र श्रादि ६४ इन्द्र रक्षा करें। पांच से मति आदि ५ ज्ञान की प्राप्ति हो । पनरह से तीर्थसिद्धा आदि सिद्धों के १५ भेद पोधित होते है उनमें भी श्रद्धा रहे। एकोवर से राग द्वेष आदि दोषों से रहित सर्वज्ञ, सर्वगुण
* यह अपभ्रंश शब्द है, अद्यावधि मारवाड़ी भाषा में ३१ को हूंटा कहते हैं।
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