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* प्रबन्धावली
वदन अष्ट से भगवान् का एक मुख और उनके ऊपर छत्र किये सर्पों की संख्या सात लेकर आठ मुख हुए, कर दोय से भगवान के दो हाथ - कारण, सर्पों के हाथ नहीं होते, जोभ पन्द्रह से सर्प द्विजिह्वा होने के कारण उनके चौदह ओर भगवान के एक, सोलह नयन से सर्पों के चौदह और उनके दो, “चरण को अन्त न जानु” पद से सर्पों के पदों की संख्या नहीं कही जा सकती यह सूचीत करते हुए कवि ने फिर कहा है “कई चरण है गुप्त दोय मैं परगट दिट्ठा” अथात् भगवान के दो चरण प्रत्यक्ष हैं और सर्पों के अद्गश्य, कहीं जीभ विष वसं से सप को जीभ में विष रहता है और कहीं रस चबे सुमिट्ठा से भगवान के जिह्वा में अमृत रहना सूचित करता है इत्यादि ।
आगे के संख्यावाचक शब्दों के अर्थ इस प्रकार होते हैं।
अठतीसा से २४ होता है यह चौबीस केवल ज्ञानी आदि अतीत तीर्थंकरों को संख्या है, वांछका से जो २४ होता है उससे ऋषभादि वर्तमान तीर्थंकरों की संख्या और वारेदूना ले २४ होता है उससे पद्मनाभ अनागत चौबीस तीर्थंकरों की संख्या हुई, अठतोगुना से भा १४ होता है-ऐसे २४ अर्हन्त मंगल करें । अन्त में जो संस्कृत श्लोक हैं वह जैनियों में प्रसिद्ध है ।
अब आशिष का छप्यय और जेन धर्मानुसार उसका अर्थ पाठकों की सेवा में उपस्थित किया जाता है:
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१८ ३० ६ ६ ६ ३६ ३ १३ ३३ सत्ताईसे सात भाठ भट्ठारह तीसा छे छे नवे छत्तीस तीन तेरह तैंतीस ४२ ५२ ४ १२ ७२ ३॥ ६४ ५ १५ १ बयालोस बावन्न चार बारह बहोत्तर । आऊंट बोसट्ट पांच पनरह एकोवर
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नव
. नवे ववदह रयण दिन चाहड़ जप्पें अभय भुत्र ।
गुरु मुल प्रमाणहि न्याण सुं ते रछ करंत सुत्र ॥ १ ॥
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