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•प्रवन्धावला.
हस्ते काडल पुस्तक वीणा सोहै नाण माण गुण लीणा।
अ लील विलासं सा देवी सरसई जयउ॥ इसी प्रकार शारदा की स्तुति संस्कृत प्राकृत हिंदी मिली हुई है। स्तुति के अन्त के पद
पय पणमु सरसती माता सुणि एक बिण्णत्ती। मांगू अविरल वाणी दियो वरदान गुण जाणी।। आणी नव नव बंध नव नव छंदैन नवनवाभावा । गुण रयणा यच्छंदं वण्णिसु गुण धूलभहस्स.. मंधारे दीपक जिम कीजै उजवाले परमारथ लीजै ।
एलमह तिम ध्यान धरंता नाम जपे फल होई अनंता ।। अंत में रचयिता का नाम और संवत्
जल भरियां सायर त दिवायर तेज करें जा चंद। सहि गुरुपय बंदौं तां लगि नदौं गुण रत्नाकर उन्द ॥ उपएसगण मंत्रण दुरिय विहंडन गिल्या रयण समुद्द। उवझाय पुरंदर महिमा सुन्दर मंगल करौं सुभद्द ॥ संवत् पनर बहुत्तरि बरस ए मैं छन्द रच्यो मन हरये। मिल्यो गणरह क्य नय चन्दै सहज सुन्दर बोलौ आणंदे॥
सत्रहवीं शताब्दी। मारत के साहित्य की उन्नति के लिये यह शताब्दी सर्व प्रकार से एक अतुलनीय समय है। इस समय के साहित्य का पूरा इतिहास लिखने से एक बड़ा प्रन्य हो सकता है। "मिश्रबंधु' ने और पांच कवियों का उल्लेख किया है :
(१) यति उदयराज (२) विद्याकमल (३) मुनि लावण्य (४) गुणसूरि (५) लूण सागर ।
परिरत नायुगम जी ने नौ कवियों और उनके मुख्य प्रन्थों का वर्णन किया है :
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