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• प्रबन्धावली.
* १०६. खापना सम्बन्धी पहले तीर्थडर ऋषभदेवसे लेकर तेईसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ तकका ! तिहास दुष्प्राप्य है। इतिहास से यह मालूम होता है कि दिगम्बरी लोगों को यह धारणा सर्वथा निर्मूल है कि महावीर स्वामी के समय में जब संघोंकी स्थापना हुई थी, उस समय मुक्ति के विषय में स्त्रियोंका पुरुषों के समान अधिकार नहीं था और स्त्रियों के लिये संन्यास ग्रहण वर्जित था। उस समय उत्तर भारत में वैदिकधर्मको शक्ति पराकाष्ठापर थी। ब्राह्मण लोग धर्म और धर्मानुष्ठानके एकमात्र ठेकेदार बन बैठे थे और धर्म के नामपर असंख्य पशुओं के रक से पृथ्वी रंजित को जाती थी। बुद्धदेव इस अमानुषिक हिंसा और तत्कालीन कठोर तपस्याको निस्सारता दिखाकर अपने ज्ञानार्जित नवीन धर्म का प्रचार कर रहे थे। भगवान महावीर भी लुप्तप्राय जैन धर्ममें पुनः प्राण प्रतिष्ठा कर आत्मा के कल्याणार्थ सत्य-धर्म मार्ग का उपदेश कर रहे थे। इस धार्मिक द्वन्दकाल में यदि महावीर स्वामी दिगम्बर मतानुसार स्त्री जातिको हीन समझ कर उन्हें अपने स्वाभाविक अधिकारों से वंचित करते तो जैन धर्म का अस्तित्व हो मिट जाता।
तीर्थकर महावीर के उपदेश, उदार और सरल थे। उनके मतानुसार जैन, अजैन, श्वेताम्बर, दिगम्बर, हिन्दू, बौद्ध, इत्यादि सभी धर्मावलम्बी को आत्मा को निर्वाणलाभ का अधिकार है। परन्तु दिगम्बर मतानुसार केवलमात्र दिगम्बर मतावलम्बो और उनमें भी पुरुष ही मुक्ति के अधिकारी है। प्राचीन जैन धर्मग्रन्थों में कहीं भी इस प्रकार का अनुदार भाव दृष्टिगोचर नहीं होता। सभी प्राचीन जैनधर्मोपदेशों में उसादर्श के जाज्वल्यमान प्रमाण भरे पड़े हैं और इन मौलिक प्रधों की प्राचानता भी वैज्ञानिक ढंग से सिद्ध हो चुकी है किन्तु यह दुख का विषय है कि दिगम्बर सम्प्रदाय ने इन मूल प्रन्थों को अग्राह्य कर दिया है। सम्भवतः दिगम्बर सम्प्रदाय के धर्मतत्व और नीति अनुदार तथा अदूरदशी होने केही कारण मुसलमान राजत्व काल में किसी
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