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“He held fast in his loyalty to all that was best in the old culture and still not unresponsive to the needs of the new age"
प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रबन्धों में भी सभी सुरुचि के पाठकों को सामग्री मिलेगी।
नाहरजी का जन्म उस प्रान्त में हुआ था जो वस्तुतः हिन्दी भाषा का प्रान्त नहीं समझा जाता; यद्यपि अब यह बात नहीं, क्योंकि हिन्दी के ग्रहण में अब प्रान्तीय क्षद्र-भावना को स्थान नहीं रहा है। यह एक स्वर से राष्ट्रीय भाषा स्वीकार की गई है। तथापि भाषा विज्ञान के साधारण नियमों के अनुसार भाषा में किंचित स्वरूप भेद तो संभव है ही। एक पुरातत्वज्ञ के नाते स्वयं नाहरजी का भाषातत्त्व का अच्छा ज्ञान था जिसको छाया हमें उनके प्रवन्धों में स्थान स्थान पर दृष्टिगोचर होती है। वे खुद कहते थे-"प्रचलित भाषा पांच पांच, दस दस, या सौ सौ कोसों पर कुछ न कुछ बदली हुई प्रतीत होती है।" भाषा के विकास और परिवर्तन में भौगोलिक कारण अति प्रधान होता है। नाहरजी की भाषा में प्रौढ़ता और प्रभविष्णुता की कमी नहीं है यद्यपि कहीं कहीं उसमें बंगाली या मुर्शिदाबादी स्लैंग आजाने के कारण व्याकरण की अशुद्धता रह गई है। किन्तु कहीं कहीं उनके वाक्य भाषा और शैली की दृष्टि से बडे ओजपूर्ण मालम पड़ते हैं। जैसे____ “यदि जैन धर्म केवल आचार्यों पर निर्भर न रहता, तो जाति बंधारण की कदापि ऐसी सृष्टि नहीं होती। यदि वीर परमात्मा की वाणी सुनने के लिये केवल उन लोगों के मुख कमल की तरफ ताकना न पड़ता तो सम्भव है कि जैन जाति के वर्तमान बंधारण में जिस कारण विशेष हानि उपस्थित है, उसे देखने का अवसर नहीं मिलता।" __इन वाक्यों का शब्द-चयन तथा गठन काफी ओजपूर्ण है। ऐसी प्रौढ़ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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