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लिखते जरूर थे और हमारी दृष्टि में तो वह भी कमाल का ही लिखते थे, पर उनका असली विषय पुरातत्त्व था। यह बात उन्होंने अपने कई निबन्धों में कही भी है, जैसे- "मैं केवल प्राचीन शिला-लेख आदि की खोज में ही लगा रहता हूँ।” या “पुरातत्त्व विषय-शोध का ही प्रेमी होने के कारण..........." इस प्रबन्धावली में अधिकांश महत्त्वपूर्ण लेख प्राचीन खोज-सम्बन्धी ही हैं, किन्तु फिर भी प्रबन्धावली के लेखों से हमको यह मालूम पड़ता है कि आधुनिक साहित्यिक और सामाजिक विषयों में भी उनकी दिलचस्पो कम नहीं थी। वे सामयिकता का महत्त्व समझते थे। उन्होंने लिखा है-"चाहे तीर्थकर, चक्रवत्ती, शिशु चाहे युवक कोई भी क्यों न हो, समय की गति को अबाध्य करने में समर्थ नहीं। जैनागम के स्थान-स्थान पर 'तणं कालणं, तेणं समयेणं' का उल्लेख मिलता है।" प्राचीन वस्तुओं की शोध और प्रकाशन में लगे रहते हुए होने पर भी सामाजिक और पारिवारिक जीवन में वे समय के प्रभाव को पहचानते थे। उन विषयों के विश्लेपण में भी अपनी लेखनी का उपयोग करते थे। पर्द, स्त्री-शिक्षा, साहित्यिक रुचि आदि के विषय में उन्होंने कई बार उदगार प्रकट किये थे । स्त्री-शिक्षा के विषय में लिखा है--
"कोई भी जाति की सच्ची उन्नति उसी समय हो सकती है, जब कि उस जाति को महिलाएं सुशिक्षिता हों और उनके विचार उच्च-कोटि के हो। जब तक ऐसा न होगा, तब तक सची और स्थायी उन्नति सम्भव नहीं है।"
साहित्य को महत्ता के विषय में उन्होंने लिखा है-“समाज-वृक्ष का साहित्य फल है और साहित्य-रूपो फल में समाज-रूपी वृक्ष को हरा-भरा रखने की शक्ति विद्यमान है।" ___ कहने का मतलब यह है कि पुरातत्त्व ही से उनका जो तृप्त नहीं हुआ था आधुनिक समस्याओं पर भी उनका ध्यान था। यह बात उनके लिये
इस देश के डायरकर ऑफ आर्कियालोजी ने भी कही है-- Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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