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* प्रवन्धावली ●
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रहना नहीं चाहिये परन्तु समय और शक्ति नष्ट नहीं करके समयानुकूल सुधार लेना चाहिये । यदि धर्म की अथवा मर्यादा की दुहाई देकर बैठ रहेंगे तो मागे बढ़ नहीं सकेंगे और दूसरे समाज की प्रतियोगिता में पीछे पड़े रहेंगे ।
यद्यपि शिक्षा कार्य बाल्यकाल से आरम्भ होता है, परन्तु मनुष्य का सारा जीवन ही शिक्षा का है । हिन्दू समाज में विशेषतः ओसचाल समाज में बाल विवाह से शिक्षा कार्य पर प्रथम कुठाराघात होता है । परदा प्रथा भी मोटी अन्तराय हो जाती है, मैं इन बाधाओं के विषय में अधिक कहना नहीं चाहता इतना हो यथेष्ट होगा कि अब ऐसी २ सामाजिक प्रथाओं का सुधार होना अत्यावश्यक है । मैं पहिले कह भाया हूं कि स्त्रियां भो समाज में पुरुषों के ही सदृश स्थान की अधिकारिणी हैं । बाहर का और परिश्रम का कार्य पुरुषों का है । दैनिक गृह कार्य सन्तान पालन व रोगियों की परिचर्यादि कार्य महिलाओं का है, परन्तु इन विषयों की शिक्षा का कोई प्रबन्ध नहीं है । भावश्यकता पड़ने पर टेक कर सीखना अथवा शिक्षा पाकर कार्य में अग्रसर होना इन दोनों का अन्तर बुद्धिमान स्वयं सोच लें । यदि समाज की उन्नति करना हो और अपना गृह सुख शान्ति मय करना चाहें तो समाज के प्रत्येक भाई को स्त्री शिक्षा का महत्व सदैव स्मरण रखना चाहिये ।
उच्च शिक्षा के विषय में उल्लेख अनावश्यक है, अपने समाज में तो स्त्रियों की प्रारम्भिक शिक्षा का ही अभाव है । "कन्याप्येवं पालनोया शिक्षणी याति यखतः । " अपनी कन्याओं को अति यतः शिक्षा देने के स्थान में अल्प यक्षतः भी शिक्षा नहीं देते। यदि इस विषय में कोई भाई उच्च विचार प्रगट करते हैं तो दूसरे भाई का उत्साहित करना दूर की बात है ये कह उठेंगे कि लड़कियों को क्या हुण्डी बलानो प्रिय पाठक. ! अब हुण्डी पुर्जों के दिन गये अब तो सब काम
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