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* प्रवन्धावली
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थीं। योगाभ्यास में परिपक्त्र और यम नियम और वृत्ति ऋषि मुनियों का सो, सत्तर वर्ष की अवस्था में भी बाल काले और आंखों की ज्योति बालकों की ली, वह हमारी दादी थीं इससे हम को अब उनको अधिक प्रशंसा लिखने में लाज आती है परन्तु जो साधु सन्त और पंडित लोग उस समय के उनके जाननेवाले काशी में वर्तमान हैं वे उनके गुणोंका अद्यावधि स्मरण करते हैं ।"
“प्रेमरक्ष” के मंगलावरण और समाप्ति के कुछ सोरठों के नमूने यहां दिये जाते हैं:
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८.
मंगलाचरण
अचिगत आनन्द कन्द, परम पुरुष परमातमा । सुमिरि सुपरमानन्द, गावत कल्लु हरि यश विमल ॥ १ ॥ पुनि गुरुपद शिरमाय, उर धरि तिनके बचन वर । रूपा तिनहिं की पाय, प्रेमरतन भाषत रतन ॥ २ ॥ अगम उदधि मधि जाहि, पंगु तरहि बिनु जिमि तरणि । तै सिय रुवि मन याहि, अमित कान्ह यश गानकी ॥ ३ ॥
प्रशस्ति
ठारह से चालीस, अंत चतुर वर्ष जब वितत भय । विक्रम नृप अवनीस, भए भयो यह प्रन्थ तब ॥ ४ ॥॥ माह माह के माह, अति शुभ दिन सित पञ्चमी । गायो परम उछाह, मङ्गल मङ्गल वार वर ॥ ५ ॥ कह्यो ग्रन्थ अनुमान, त्रय शत मरसठ चौपई । तिहि अर्ध रु अटजान, दोहा सोरह सोरठा ॥ ६ ॥
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